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________________ माव-संग्रह १५७ शुभ, अशुभ, सूक्ष्म, वादर पर्याप्तक, अपर्याप्तक, स्थिर, अस्थिर, आदेय, अनोदय यशस्वीति, अयशकिति तीर्थकरत्व ये तिरानवें प्रकृतियां नाम कम की है । गोदं कुलाल सरिसं णिच्चुच्च कुलेसु पायणे दस्छ । घड़ रंजणाई करण कुंभयकारो जहा णिउणो ।। गोत्रं कुलाल सदशं नीचोच्चकुलेषु प्रापणे वर्तम् । घट रंजनादि करणे कुम्भकारो यथा निपुणः ॥ ३३७ ।। अर्थ- जिस प्रकार कुंभार छोटे वा बड घड बनाने में निपुण होता है उसी प्रकार जो ऊंच गोत्र में उत्पन्न करे बह ऊंच गोत्र है और नीच कुल में उत्पन्न करें वह नीच गोत्र है। गोत्र कर्म के ये दो भेद है । जइ भंडयारि पुरिसी घणं णिवारेइ रायमा दिण्णं । तह अंतराय कम णिवारणं कुणइ लोणं ॥ यथा भाण्डागारी पुरुषः धनं निवारयति राजा बत्तम् । तथान्सराप कर्म निवारणं करोति लम्धोनाम् ।। ३३८ ।। तं पंचभेद उत्तं वाणे लाहे य भोइ उवभोए । तह बीरि एण भणियं अंतराय जिणिदेहि ॥ तत्पंच भेद युक्तं वाने लाभे च भोगे उपमोगे । तथा वोर्येण भणितं अन्तराय जिनेन्द्रः ॥ ३३९ ॥ अर्थ - जिस प्रकार राजा के दिये हुए धन को भंडारी (खजांची) पुरुष देने नहीं देता उसी प्रकार अंतराय कर्म पांचो लब्धियों को प्राप्त नहीं होने देता, देने से निवारण कर देता है। उस अंतराय कर्म के पांच भेद है। दानांतराय लाभांतराय भोगान्दराय उपभोगांतराय और बीयाँतराम । इस प्रकार भगवान जिनेंद्रदेव ने अंतराय कर्म के पांच भेद वतलाये है । इस प्रकार आठ कमों के एकसो अडतालीस भेद होते है । आमे अनुभाग बंध को कहते है । एसो पयडीवंधों अणुमागो होइ तस्स सताए । अणुभवणं च सोवे तिन्वं मंदे मंदाणु रूवेष ।।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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