________________
१५०
पापकर्मोपजीवित्वं वक्रशोलत्यमेव च । शस्त्रप्रदानं विश्रम्भ द्यातनं विष मिश्रणं ॥ शृंखला वारा पाश रज्जुजलादि सनिं । धर्म विध्वंसतं धर्मत्रत्यूहकरणं तथ ॥ तपस्वी गर्हणं शील व्रतपावनं तथा । इत्थसववेदनीयस्य भवन्त्यासत्र हेतवः ॥ ( तत्त्वसार अध्य ४ श्लो. २०-२४ )
F
अर्थ- दुःख - अनिष्ट संयोग होनेपर दुःख करना । शोक- इष्ट वियोग होनेपर दुःख करना | वध - लोक निन्यादि प्राणों का वर करना । ताप- लोक निन्दादि के होनेपर संताप करना ।
कन्वन- अनुपात करते हुये रुदना करना |
परिवेदन- दूसरों को दया उत्पन्न हों, ऐसा जोर-जोर से रोना |
जिससे देखकर दूसरा भी होने लगे ।
परशुन- दुर्भावना से दूसरों पर दोषारोपण करना । छेदन - शरीर के अवयवों का छइन करना । जैसे - बैलों का नाक छेदनादि ।
भेदन- शरीर के अंगों का अलग करना । जैसे पैर निकालना, हात काटनादि । ताडन- लाठी से मारना ।
-
दूसरों को भय दिखाना ।
वसन -
F
-
सर्जन दूसरों को दुःख देना ।
भर्त्सना - कठोर अभद्र बचनो से दूसरों की निन्दा करना । सद्यो विशंसन- छल-कपटपूर्वक दूसरों को धोका देना ।
हिसादि पाप कर्म से आजीविका चलाना, कुटील माव- मायाचार में प्रवत्ति, हिंसाजनक शस्त्र दूसरों को काम में देना, विश्वासघात करना, स्वतः और दूसरों को विषादि सेवन करके कराके मरण को प्राप्त होना, या दूसरों को प्राप्त कराना । पशु-पक्षीओ को बन्ध मैं डालना, धर्मनीति विरुद्ध कार्य करना, धर्मात्माओं के शुभ कर्म में विघ्न