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________________ भाव-संग्रह आग और भी कहते है। अहंवा जइ भणइ इयं सो देवो तस्स ण हु पावं । तो वंम्ह सोसछेए बंभहमचा कह जाया ।। २४६ ।। ।। अथवा यदि भणतीदं स देवः तस्य भवति नहि पापम् । तहि ब्रह्म शिरश्छेदे ब्रह्म हत्या कथं जाता ।। २४६ ।। अर्थ- यदि कदाचित् कोई यह कहे कि महादेव देव हे सब से बड देव है इसलिये तीनों लोकों का नाश करने पर भी उनको हत्या का पाप नहीं लगता । परंतु गंगा बहना भी सर्वथा मिथ्या है । क्योंकि जब महादेवजी को इतनी प्रबल हत्या करने पर भी पाप नहीं लगता तो फिर जब उन्होंने ब्रह्मा के नस्तकपर का गधे का मस्तक काट डाला था उस समय उसको ब्रह्म हत्या का पाप कसे लग गया था ? भावार्थ- ब्रह्मा का मस्तक काटने पर महादेव को ब्रह्म हत्या का महापाप लगा या । तदनंतर कि हट्ट मुंडमाला कंधे परिवहइ धूल धूसरिओ। परिभमिओ तित्थाई णरह कवालम्मि भुजंतो ।। २४७ ।। कि अस्थिमुंडमालां स्कंधे परिवहति धूलिधूतरितः । परिभ्रमित स्तीर्थानि नरस्य कपाले मुंजानः ।। २४७ ।।। अथे- उस ब्रह्म हत्या के पाप को नाश करने के लिये उसने अपने गले में हड्डियों की माला और मुंडमाला डाली थी, अपना शरीर लि मे धूसरित कर लिया था और मनुष्य के कपाल में भोजन करता हुआ समस्त तीर्थों में परिभ्रमण करने लगा था। सह वि ण सा व हच्चा किट्टा रुदस्स जामतागामे । थसिओ पलासणगामे सा विप्पो णियवलद्देण ।। २४८ ।। तथापि न सा ब्रह्महत्या स्फिटति रुद्रस्य यावत् ग्रामे । उषितः पलाश नाम्नि तत्र विप्रः निजवलत्वेन ।। २४८ ।। णिहो सिंगेण मुओ क्सहो सेओ वि कसणु संजाओ। बाणारसि च पत्तो नहोवि य तस्स मम्गेण || २४९ ।।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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