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________________ २५० माव-सन अनुत्पाद्यते द्रव्यं तत्कर्तव्यं च बुद्धिमता। षड्भागगतं सर्व प्रथमो भागो हि धर्मस्य ।। ५७८ ।। त्यर्थ- नहिपाल माशों को उनिन । कि वे जितना धन उत्पन्न करें उसके छह भाग करें। उसमे से पहला भाग धर्म के लिय निकाल वीओ भावो गेहे दायवक्षो कुडव पोसणस्थेण । तइओ भावो भोए चउत्थओ सयण वगम्मि ।। द्वितीयो भागो गहे दातव्यः कुटम्ब पोषणार्थम् । तृतीयो भागो भोगे चतुर्थः स्वजण वर्गे ॥ ५७९ ।। अर्थ- दुसरा भाग अपने कुटुम्ब के भरण पोषण के लिये अपने घर वालों को देना चाहियं । तीसरा भाग अपने लोगों के लिये रखना चाहिये और चौथा भाग अपने स्वजन परिबार आदि के लिये रखना चाहिये। सैसा जे वे भावा डायब्वा होति से वि पुरिसेण । पूज्जा महिमा कज्जे अदबा कालावकालस्स ।। शेषौ यो द्वौ भागौ स्थापनीयौ भअतः तावपि पुरुषेण । पूजामहिमा कार्य अथवा कालापकालाय ।। ५८० ॥ अर्थ- इस प्रकार ऊपर लिने अनुसार चार भाग तो काममे लाने चाहिये । और शेष बचे हुए दा भाग उस पुरुष को जमा रखना चाहिये के बचे हुए दोनों भाग भगवान जिनेंद्रदेव की विशेष पूजा करने में लगाना चाहिये अथवा किसी प्रभावना के कार्य में धर्म की महिमा बढाने के कार्य में लगाना चाहिय । अथवा वे बचे हुए दोनों भाग किसी आपत्ती काल के लिये रख छोड़ना चाहिये। भागे लोभी पुरूषों के लिये आचार्य फिर समझाते है। अहवा णियं विद्वत्त कस्स वि मा देहि होइ लोहिल्लो । सो को पि कुण उवाऊ अह तं व सम जाई ।।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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