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भाव-संग्रह
मछली, मगर, कच्छप, आदि जलचर जीव रहते हैं और वे सब एक दूसरे का भक्षण करते रहते है और इस प्रकार दे महा पाप उपार्जन करते रहते है । यदि तीर्थ स्नान से ही पापों को निवृत्ति मानी जाय तो प्रतिक्षण महापाप उपार्जन करने वाले उन समस्त जलचरों को स्वर्ग की प्राति हो जानी चाहिये परंतु यह असंभव बात है । इसलिये जल स्नान से पापों की शुद्धि मानना विपरीत श्रद्धान है । हमने फर्रुखाबाद में स्वयं देखा है कि कितने ही लोग गंगा स्नान कर उसी गंगा के किनारे गोमुखी में माला डालकर जप करते हैं और मछली मारने के लिये एक एक वंशी भी डाल देते हैं । इस प्रकार तीर्थ स्नान और जप करते हुए भी मछली मारने का महापाप उत्पन्न करते रहते हैं । यह सब उनका विपरीत धर्म है।
आग-तीर्थ स्नान से पाप नष्ट क्यों नहीं होते यही वान दिखलाते हैं।
जं कम्मं दिढवद्धं जीव पएसेहि तिविहजोएण । तं जलफासणिमित्ते कह फहहि तिथल्हाणेण || १९ ॥ यत्कर्म दृढवद्ध जीवप्रदेशस्त्रिविधयोगेन्न ।
तज्जलस्पर्शनिमित्ते कथं स्फुटति तोर्थस्नानेन ।। १९ ॥
अर्थ- जो कर्म मन वचन काय के योग से जीब के प्रदेशों के साथ दृढतारे बंधे हुए है वे कर्म तीर्थ-स्नान करने मात्र से केवल जल का स्पर्श करने से कैसे छूट सकते हैं ?
भावार्थ- कर्मों का बंध योग और कषायों के निमित्त से होता है । इसलिये वह योगों का निग्रह करने से और कषायों का त्याग करने से ही छूट सकता है केवल जल के स्पर्श करने मात्र से वे कर्म कभी नहीं छूट सकते । कर्म के प्रदेश और कर्म सहित आत्मा के प्रदेश अत्यंत सूक्ष्म है। इससिय जल का स्पर्श वहांतक पहुंच ही नहीं सहता । फिर भला उस जल से आत्मा की शुद्धि कैसे हो सकती है ? कभी नही हो सकती।
आग इसी बातको दिखलाते हैं ।