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________________ भाव-संग्रह पांच अनर्थ दंड कहलाते है, इनमें पारा तो अधिक लगता है। परंतु लाभ कुछ नहीं होता एसे इन अनर्थ दंडो का त्याग कर देना चाहिये । जो एक बार काम में आमें ऐसे भोजनाविक, भोग है। और जो बार बार काम आबे एने वस्त्रादिक उपभोग है । इन सब की संख्या नियत कर लेनी चाहिये । ये तीन गुणवत कहलाते है। इनसे अणुव्रतों के गण बढ़ने है इसलिये इनको गुणब्रत कहते है। देवे थुवइ सियाले पठवे पच्ने सुपोसहोवास । अति हीण संविभागो मरणते कुणइ सल्लिहणं ।। देवान् स्तौति त्रिकाले पर्वणि सुप्रोषघोपवासः । अतिथोना संविभागः भरणान्ते करोति सल्लेखनाम् ।। ३५५ ।। अर्थ- प्राप्तः काल मध्यण काल संध्याकाल इन तीनो समय में पंचमेंष्ठी की स्तुति करना, प्रत्येक महीने की दो अष्टमी दो चतुर्दशी इन चारों पर्यों में प्रोषवपयास करना, प्रति दिन अतिथियों को दान देना और सल्लेखना धारण करना ये चार शिक्षावृत कहलाते हैं । इस प्रकार पांच अणुव्रत तीन गुणवृत और चार शिक्षावत ये बारह अणुव्रत कहलाते है । देश व्रती श्रावक को आठ मुलगुण और ये बारह वृत अवश्य धारण करने चाहिये । इन बारह नतों को उत्तर गुण भी कहते है । १. मित्र कलरे विभवे तनूजे सौख्ये गृहे यत्र विहाय मोहें । संस्मर्यते पंचपदं स्वचित्ते सल्लेखना सा विहिता मुनीन्द्रः ।। अर्थ- मित्र स्त्री विभूति पुत्र मुख गृह आदि सबसे मोहका त्याग कर अपने हृदय में पंच परमेष्ठी का स्मरण करना सल्लेखना है। ऐसा भगवान जिनेंद्रदेव ने कहा है । आगे मूलगुण वतनाते है। महमज्जमंस विरई चाओ पुण उयंवराण पंखाहं । अछेदे मूलगुणा हवंति फुल देश विरयम्मि । मधुमद्यमांस विरति: त्यागः पुनः उवम्बराणा पंचानाम् । अष्टावेते मूलगुणा भवन्ति स्फुटं देशविरते ॥ ३५६ ।।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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