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भाव-सग्रह
अर्थ- इसके सिवाय उसने रावण के पास दूत क्यों भजा ? साम दाम दंड भेद के अनसार वातचीत क्यों की तथा इस प्रकार भी जय मीता नहीं मिली तो फिर क्रोध कर शस्त्रों के द्वारा रावण से क्यों लड ।
कि दहवयगो सीया गहिऊण उवर बहिरे थक्को : ज हेलाई ण तरइ रिउ हणिलं आणि भज्जा ।। २३० । कि दशवदनः सीता गहीत्वा उपरि वहि: स्थितः । तत् ऐलया न शक्नोति रिपुं हत्वा आनेतुं भार्याम् ॥ २३० ।।
अर्थ- क्या सीता को लेकर राब। कहीं तीनों लोकों के बाहर जाकर रहा था जो ईश्वर और तीनों लोकों के पालन करने वाले होकर भी सहज रीति से रावण को न मार सका और अपनी स्त्री सीता को न ला सका ।
जइ तिजयपालणत्थे संजाया तस्स एरिसो सत्तो। तो कि तिजयं बड्ढे हरेण सं पिच्छमाणस्स ।। २३१ ।। यदि त्रिजगत्पालनार्थे संआता तस्यतादृशो शक्ति: । तहि कि जगद्दग्धं हरेण संप्रेक्षमाणस्य ।। २३१ ।।
अर्थ- यदि विष्णु भगवान में तीनों लोकों को पालन करने की नाक्ति है तो फिर उनके देखते देखते ही महादेव में तीनों लोकों को क्यों जला डाला ?
जो ण जाणइ जो ण जाणइ हरिय णियभज्ज । पुच्छइ वणसावयई अह मुणेइ अाणउं ण सक्कइ । बंधेइ सायरू गिरिहि पेसिऊण तहि पवरभिच्चाई तासु उवीर णारायणहो किम तिवणु णिवसेई । जो वारवइ विणासियहो रक्खहु णा हि तरेइ ।। २३२ ।। यो न जानाति यो न जानाति हरिं निजभार्यायाः । पक्ष्छतिवनशावकान् अथ जानाति आनेतुं न शक्नोति । बध्नाति सागरं गिरिभिः प्रेषयित्वा तत्र प्रवर भुत्यान् । तस्योपरि नारायणस्य कि त्रिभुवन निवसति । यो रिपुं विनाश्य रक्षितुं नहि शन्कोति ।। २३२ ।।