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________________ पादित तत्त्वों के ऊपर श्रद्धान रखता है, इसलिये वह जीव अविरत सम्यग्दृष्टी है । अपि शब्द से संवेगादि गुण प्रगट होते है । सम्माइठी जोबो उवहळू पवयणं तु सद्दहहि । सद्दहवि असम्मा, अजाणमाको गुरुजियाना ।। २७ ।। (गो. जी. ) सुत्तावो से सम्मं वसिसिञ्जतं जवा " सह वि। सो चेव हवाइ मिच्छाइछी जीवो तवो पहुडि ।। २८ ॥ { गो. जी. ) जो जीव अहन्त आदि के द्वारा उपदिष्ट प्रवचन अर्थात आप्त आगम और पदार्थ इनकी श्रद्धा रखता है, साथ ही उनके विषय में . असद्भाव अर्थात अतत्व भी स्वयं के विशेष ज्ञान से शून्य होने से, केवल गुरु के नियोग से जो गुरु ने कहा वही अर्हन्त भगवान की आज्ञा है ऐसा श्रद्धान करता है, वह भी सम्यग्दृष्टी ही है । अर्थात अपने को विशेष ज्ञान न होने से और गुरु भी अल्पज्ञानी होने से वस्तू स्वरुप अन्यथा कहे और यह सम्यग्दृष्टी उसे ही जिनाजा मानकर अतत्व का श्रद्धान कर ले तब भी वह सम्यग्दृष्टी ही है, क्योंकि उसने जिनाज्ञा का उल्लंघन नहीं किया ।। २७ ।। उक्त प्रकार से असत् अर्थ का श्रद्धान करता हुआ आज्ञा सम्यग्दृष्टी जीव जब अन्य कुशल आचार्यों के द्वारा पूर्व में उसके द्वारा गृहीत अस. त्याथ से विपरीत तत्व गणधरादि द्वारा कथित सूत्रों को दिखाकर सम्यक रुप से बतलाया जाचे और फिर भी वह दुराग्रह वश उस सत्यार्थ का - सज्जण . सम्व जीव हिये तत्पर पर दुख सुख समभाई। पसण कुटोल च्चागी समवस्सी हवई सम्मणो ॥ १५ ॥ - दुज्जणो - पर सुहे दुःक्खी पर दुःखे हबई जो सुहि । वसण कुटोल सेई विसम विट्ठी दवई बुढो ॥ १६ ।।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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