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भाव-मंत्रह
इन्हीं भावोंमें शुम अशभ शुद्ध भाव मिलने से चौदह गुणस्थान वन जाते है।
मिच्छो सासण मिस्सो अविरियसम्मो य देसबिरदो य । विरओ पमत्त इयरी अपुष्व अणियत्ति सुहमो य || १० ॥ उवसन्त खीणमोहो सजोइकेवलिजिणो अजोगी य । ए चउदस गुणठाणा कमेण सिद्धा य णायब्वा ।। १० । मिथ्यात्वं सासादनं मिश्र अविरतसम्यक्त्वं च देशविरतं च । विरतं प्रमत्तं इतरदपूर्वमनिवृत्ति सुक्ष्मं च ।। ११ ।। उपशान्तक्षीणमोहे सयोग केवलि जिने । अयोगो च । एतानि चतुर्दश गुणस्थानानि क्रमेण सिद्धाश्च ज्ञातव्याः ।११।
[ अर्थ- मिथ्यात्व गणस्थान १ सासादन गुणस्थान २ मिश्र गणस्थान ३ अविरत सम्हदृष्टि गुणस्थान ४ देशविरत अथवा विरत विरत गुणस्थान ५ प्रमत्त विरत ६ इतर अर्थात् अप्रमत्त विरत ७ अपूर्व करण गुणस्थान ८ अनिवृत्तिकरण गुणस्थान । ९ सूक्ष्म सांपराय गुणस्थान १० उपशान्तमोह गुणस्थान ११ क्षीणमोह गुणस्थान १२ सयोगि केवली गुणस्थान १३ अयोगि केवली गुणस्थान १४ ये अनुक्रमसे चौदह गुणस्थान कहलाते है । जो जीव समस्त कर्मों को नष्ट कर इनमे पार हो जाते हैं उनको सिद्ध वा मुक्त समझना चाहिये । अब आगे अनुक्रमसे इन्ही गुणस्थानों का स्वरूप कहते है ।
मिच्छत्तस्सुदएण य जीवे सम्भवइ उदइयो भावो । तेण य मिच्छादिट्टी ठाणं पावेइ सो तइया || १२ ।। मिथ्यात्वस्योदयेन च जोवे संभवति औदयिको भावः ।
तेन च मिथ्यावृष्टिस्थान प्राप्नोति स तत्र ॥ १२ ।।
अर्थ- मिथ्यात्व कर्म के उदय से इस जीवके औदयिकभाव प्रगट होते है । तथा मिथ्यात्व कर्म के उदय होनेसे प्रगट हुए औदयिक भावों से इस जीवके मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है ।