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भाव-संग्रह
भावार्थ- आठ कम एक मोहनीय कर्म है जो सब कर्मों में प्रवल है। उसके अट्ठाईस भेद है । मोहनीय कर्मके मूलमें दो भेद है - दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय । दर्शन मोहनीय के तीन भेद हैमिथ्यात्व सम्यक मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृति मिथ्यात्व इसी प्रकार चारित्र मोहनीय के पच्चीस भेद है । अनन्तानुवन्धी क्रोध मान माया लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध भान माया लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ संज्वलन क्रोध मान माया लोभ । हास्य, रति, अरति शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद पुंबेद, नपुंसकवेद । अनादि मिथ्थादृष्टि जीव के दर्शन मोहनीय का एक मिथ्यात्व कर्म का उदय रहता है, तथा सादि मिथ्यादष्टी के तीनों दर्शन मोहनीय कर्मों का उदय रहता है । इसका भी कारण यह है कि प्रथम औपमिक सम्यक्त्व होने के समय ही मिथ्यात्व कर्म तीन भागों में बट जाता है। इसके पहले वह एक मिथ्यात्व कप ही रहता है । इसलिये अनादि मिथ्यादृष्टी जीव के मिथ्या कर्म का उदय रहता है और उस मिथ्यात्व कर्म के उदय से पहला मिथ्यात्व गुणस्थान होता है ।
आग उस मिथ्यात्व कर्म के उदय से कैसे गाव होते है सो दिखलाते
मिच्छत्तरस पत्तो जोधो विवरोय दंसणो होई । ण मुणइ यिंच अहियं पित्तज्जुरजुओ जहा पुरिसो ॥ १३ ॥ मिथ्यात्वरसप्रयुक्तो जीवो विपरीतदर्शनो भवति ।
न जानाति हितं चाहित पित्तज्वरयुक्तो यथा पुरुषः ।। १३ ।।
अर्थ-- उस मिथ्यात्व कर्म 'के उदय होने से यह जीव विपरीत दृष्टी हो जाता है और पित्तज्वर वाले पुरुष के समान अपने हित अहित को नहीं जान सकता ।
कडवं मण्णइ महुर महुरं पि य तं भणेइ अइ कडुयं । तह मिच्छत्तपत्तो उत्तमधम्म ण रोचेई ॥ १४ ॥ कटुकं मन्यते मधुर मधुरमपि च तद् भणति अतिकटुकम् । तथा मिथ्यात्वप्रवृत्तः उत्तमधर्माय न रोचते ॥ १४ ।।