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भाव-संग्रह
जो पाप करता है उसको नरक की प्राप्ति होती है। जो पुण्य अधिक करता हे साथ में थोड़ा 'पाप भी करता है उसको मनुष्य यति की प्राप्ति होती है और पाप अधिक करता है और साथ में थोडा पुण्य भी करता है उसका नियंत्रन गाँच का प्राप्ति होती है। यह सब तभी सिद्ध हो सकता है जब कि यह जोब स्वयं किये हुए पुण्य-पाप का फल स्वयं भोगता है । यदि पुत्र के किये हुए पुण्य पाप से माता-पिताओं को सुख दुःख भोगना माना जाय तो इन चारों गतियों की सिद्धी कभी नहीं हो सक्राती । तथा विना पुत्र बालों को फिर क्या गति होगी ? इस प्रकार विचार करने से सिद्ध होता है कि पुत्रके किये दानसे माता-पिताओंका उद्धार कभी नही हो सकता न पुत्रके पापसे माता-पिता नरक मे जा सकते हैं । जो जीव स्वयं जैसा पुण्य या पाप करता है उसका फल उसो को मिलता है । एक के द्वारा क्येि हुए पुण्य पापका फल दूसरे को कभी नहीं मिल सकता ।
आग निश्चित सिद्धान्त बतलाते हैं।
जो कुणइ पुण्णपायं सो चिय भुजेइणत्यि संदेहो । साग वा णरयं वा अप्पाणो णेई अप्पाणं ॥ ३८ ॥ यः करोति पुण्यपापं स एव भुनक्तो नास्ति संदेहः । स्वर्ग या नरकं वा आत्मना नयति आत्मानम् ॥ ३८ ॥ अर्थ- जो जीव जसा पुण्य वा पाप करता है उसका फल वही भोगता है इसमे किसी प्रकार का संदेह नहीं है । इस प्रकार यह आत्मा अपने आत्माके द्वारा अपने ही आत्मा को स्वर्ग वा नरक में ले जाता है।
भावार्थ- यह आत्मा पुण्य वा पाप अपने ही आत्मा के द्वारा वा अपने ही आत्मा के भावों से उपार्जन करता है और फिर उसी पुण्य मे वह अपने आत्मा को स्वर्ग में पहुँचाता है । और अपने किये हुए पाप से नरक में पहुंचाता है। किसी अन्य के द्वारा किये हुए दान पुण्य से दूसरा आत्मा न तो स्वर्ग जा सकता है और न किसी दूसरे के द्वारा किये पाप से किसी अन्य जीब का आत्मा नरक मे जा सकता है। इसलिये पितरों के उद्धार के लिये श्राद्ध करना व्यर्थ है।