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भाव संग्रह
एवं भणंति केई जल थल गिरीसिहर अग्गिफुहरेसु । चहुविह भयग्गामे वसइ हरी पत्थि संदेदो ।। ३९ ।। एवं भणन्ति केचिज्जलस्थलगिरिशिखराग्निकुहरेषु ।
चतुर्विधभूतमामेंषु वमति हरि म्ति सचेतः !! ३१ :
अर्थ- कोई कोई मतबाले ऐसा कहते हैं कि जलमे स्थलमे पर्वता में शिखरपर अग्नि में गफा वा छिद्रों में तथा सब प्रकार के जीवों में भगवान हरि रहते हैं इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है । लिखा भी
ज लेविष्णुः स्थले विष्णुविष्णुः पर्वतमस्तके ।
ज्वालामालाकुले विष्णुः सर्व विष्णु मयंजगच ।। अर्थात- जल मे भी विष्णा है स्थल में भी वि है है पर्वत के मस्तक पर भो विष्ण है अग्नि जल आदि सब मे विष्णु है । कहां तक कहा जाय ग्रह समस्त मंसार और समस्त जीव विष्णमय है । एसा कोई कोई मानने हैं।
आग ऐसा मानने वालों के लिये कहते है ।। सखगओ अद्द विण्डू णिवसइ देहम्मि सव्व देहिणं । तो रुखाइहष्ण सो णिहओ होइ णियमेण ।। ४० ।। सर्वगतो यदि विष्णुः निवसति बेहे सर्वदेहेनाम् ।
तहिं वृज्ञावि घातेन स निहतों भवति नियमेन ॥ ४० ।। अर्थ- यदि विष्णु समस्त संसार मे व्याप्त हे नो विष्णु समस्त संसारी जीवों में भी रहता है, और यदि वह विष्णु समस्त संसारी जीवों मे रहता है तो फिर किसी वृक्ष को काटनेसे वह विष्ण भी काटा गया ऐसा समझना चाहिये । लिखा भी है।
मत्स्यः कमों वराहश्व नरसिंहोऽथ वामनः । रामो रामश्च कृष्णश्व बुद्धः कलकीच से दश ।। मत्स्यः कूमौ वराहाच विष्णुः संपूज्य भक्तितः ।
मत्स्यादीनां कथं मासं भक्षितुं कल्प्यते बुधः ।। अर्थात्- मत्स्य, कूर्म वा कच्छप, कृष्ण, बुद्ध, कल्की, नरसिंह