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________________ भाव-संग्रह भागे इमी बात को स्पष्ट कहते हैं - धे बहिऊण गुण लगभइ जइइत्य उत्तमा केई । तो रुक्ख वंदणया अवरे पारदिया सम्वे || ४८ ।। देवान् बुद्धध्या गुणात लभन्ते यद्यत्रोत्तमाः केचित तहि वृक्षवन्दनया अपरे पारधिका सर्वे ॥ ४८ ॥ अर्थ- इस संसार में यदि उत्तम पुरुष देवों को मारकर ही गुण प्राप्त करना चाहते हैं, स्वर्गादिक की प्राप्ति करना चाहते हैं तो वे सब लोग हत्यारे पारधी हैं जो लोग वृक्षों की वंदना करके भी प्रसन्न होते है अर्थात् वृक्ष वा पोधों तक को नही तोडते ऐसे लोगों को छोड़कर शेष जीवों को मारनेवाले सव पारधी हैं । लिखा भी है नहि हिंसाकृते धर्मः सारंभे नास्ति मोक्षता । स्त्री संपर्क कुतः शौचं मांसभक्षे फुतो दया ।। अर्थात्- हिंसा करने पर कभी धर्म नहीं हो सकता, घर के वा व्यापार आदि के आरंभ कार्य करते हुए कभी मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकते, स्त्री समागम करने पर कभी पवित्रता नहीं हो सकती और मांस भक्षण करनेपर कभी दया नहीं हो सकतो । तिलसर्षपमानं वा यो मांस भक्षयेतद्विजः। स नरकान भिवर्तेत यामचन्द्रदिवाकरौ ।। अर्थात- जो ब्राह्मण तिल वा सरसों के समान भी मांस भक्षण करता है वह जीव जबतक सुर्य चन्द्रमा विद्यमान रहेंगे तब तक कभी नरक मे नहीं निकल सकता। आकाशगामिनो विनाः पतिता मांसभक्षणात् । विप्राणां पतन वृष्टवा तस्मान्मास न भायेत् ॥ अर्थात्- ब्राह्मण लोग पहले आकाश गामी थे परंतु मांस भक्षण करने से वे पतित हो गये और पृथ्वी पर चलने लगे। इस प्रकार उक के पतन को देखकर कभी भी मांस भक्षण नही करना चाहिये ।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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