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४) अविरत सम्यग्दृष्टि :--
को बाता मोक्ष का मंगलाचरण होता है। अन्तरंग-बहिरंग समस्त कारणों के सद्भाव से मिथ्यात्व एवं अनतानुबंधी चतुष्क का उपशम, क्षयोपशम, क्षय से यथाक्रम उपशम, क्षयोपशम, क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है। जो कि मोक्षाफल के लिये बीजभूत है। जिस प्रकार बीज के अभाव से बीज की उत्पत्ति वृद्धि नहीं हो सकती है उसी प्रकार सम्यग्दर्शन रुप बीज के अभाव से मोक्ष रुपी वृक्ष की उत्पत्ति, वृद्धि नहीं हो सकती है। सम्यग्दर्शन सहित ही ज्ञान व चरित्र सम्यक है अन्यथा मिथ्या है । सम्यग्दर्शन एक अंक प्रमाण है और ज्ञान चारित्र दो शून्य समान है जैसे स्वतंत्र शून्य का कोई मूल्य नहीं है परंतु एक के आगे जोडने पर १०० संख्या हो जाती है 1 वर्तमान शून्य में विशेष मूल्य है जिसके कारण एक का मूल्य बढकर सौ हो गया। यदि सौ पूर्ण मोक्ष मार्ग है तो स्वतंत्र एक एक संख्या रुपी सम्यग्दर्शन मोक्ष मार्ग नहीं है. दशक स्थान स्थित शून्य रुपी सम्यग्ज्ञान पूर्ण मोक्षमार्ग नहीं है तथा एक-एक स्थान स्थित चारित्र रुप शून्य पूर्ण मोक्षमार्ग नहीं है, परंतु सम्यग्दर्शन रुप एक के आगे सम्यग्ज्ञान रुप शुन्य जोडने पर दश तथा सम्यकचारित्र रुप शन्य जोडने पर सौ हो जाता है जो कि पूर्ण मोक्षमार्ग है । वर्तमान काल के संस्कृत जैनवाङमय के आद्य सूत्रकार उमास्वामी प्रथम सूत्र में कहते है :
" सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः '' | इस सूत्र में सम्पग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि " बहुवचन है और मोक्षमार्ग एकवचन रखने का एक महान रहस्य छिपा हुआ है। जिसका अर्थ है स्वतंत्र सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र मोक्षमार्ग नहीं है परंतु तीनों का सम्यक् समन्वय ही मोक्ष मार्ग है। सूत्र में जो पद ऋम रखा गया है
मोण शाणामयण णिम्मम णिरहंकार संजुसो । आसा संकप्प भुक्को जो सो हवई सो समणो ।। १३ ॥ समदारस सेई सय जीये समभाव सया भाई। साम्ब सग सच्यासो जो सो समणो होई ॥ १४ ।।