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भाव-मग्रह
को, उदय में आये हुए कर्मों का नाश करने के लिय समम्त विकारों का त्याग करना।
३६ कायोत्सर्ग संगतत्व गुण- निद्रा तंद्रा आदि दूर करने के लिय स्वग्डासन से योग धारण कर शरीर से ममत्व का त्याग करना ,
अज्झावयगुण ज भो धम्मोवदेसयारि चरियट्ठो। हिस्सेसागम कुसलो परमेटठी पाठओ माओ ।। अध्यापनगुणयुक्तो धर्मोपदेशकारो चर्यास्थः । निःशेषागमकुशल: परमेष्ठी पाठको ध्येयः :। ३७८ ।।
अर्थ- जो मुनि अध्यापन कार्य मे शिष्यों को पढ़ाने में अत्यंत निपुण है जो सदा काल धर्मोपदेश देते रहते है जो अपने चारित्र में स्थिर रहते हैं और जो समस्त आगम में कुशल होते है अथवा जो द्वादशांग के पाठी होते हैं उनको उपाध्याय परमेष्ठी कहते है, ऐसे उपाध्याय परमेष्ठी का ध्यान करना चाहिये।
उगतवतधिय गत्तो तियाल जोएण गमिय अहरत्तो । साहिन मोक्खस्स पओ माओ सो साहु परमेट्ठी ॥ उग्नतपस्तपितगात्रः त्रिकालयोगेन गमिताहोरात्रः ।
साधितमोक्षपदः ध्येयः स साधुपरमेष्ठी ।। ३७९ ।'
अर्थ- जो प्रतिदिन तीव्र तपश्चरण करते है प्रतिदिन त्रिकाल पांग धारण करते है और सदा काल मोक्ष मार्ग को सिद्ध करते रहते हैं उनको साधु परमेष्ठी कहते है । ऐसे साधु परमेष्ठी ध्यान करने योग्य
आग इन के ध्यान करने का फल कहते है । एवं तं सालवं धम्ममाण होइ नियमेण । झायंताणं जायइ पिणिज्जरा असुहकम्माणं ।
आचार्य परमेष्ठी अपने शिष्यों को प्रायश्चित्त देकर उनके प्रतों को निदोष कहते है यह शिष्यों का सब से बड़ा उपकार है।