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________________ भाव-सरह वयणिविणं ससि सूरा जह तह दीवंति जोइसाक्खा । पायव दसप्ययारा चितिययं दिति मणुयाणं ।। रजमी दिनयोः शशिसूरा तथा तथा दोश्यन्ते ज्योतिर्वशाः । पावपा दशनकाराः चिन्तितं वदति मनुष्येभ्यः ।। ५९१ ।। अर्थ- ज्योतिष जाति के वृक्ष मय चन्द्रमा के समान शत दिन प्रकाश करते रहते है । इस प्रकार भोगभूमिमों मे दश प्रकार, कल्पवक्ष होते है जो मनुष्यों को चितवन करने मात्र से अपनी इच्छानुसार पदार्थ देते है 1 जरसोय वाहि वेअण कासं सासं च जिभणं छिक्का । ए ए अण्णे दोसा णहवंति हु भोय भूमोसू ।।। जरा शोक व्याधि बेदना कासं ३वासनं जमणक्षाम् । एते अन्ये दोषा न भवन्ति हि भोग भूमिषु ।। ५९२ ।।। अर्थ- बुढापा, व्याधि, वेदना, काम, श्वास, जंभाई, छींक आदि कितने ही दोष भोग भूमियों में नहीं होते है। सध्वे भोए दिव्वे मुंजिता आउसाव साणम्मि । सम्माविट्टी मणुया कप्या वासेसु जायंति ॥ सर्वान् भोगान् दिव्यान् भुत्का आयुरवसाने । संम्यग्दृष्टी मनुजाः कल्प वासिषु जायन्ते ।। ५९३ ।। अर्थ- इन भोग भूमियों मे जो सभ्यग्दृष्टि पुरुष उत्पन्न होते है वे सब दीर्घ काल तक वहां के दिव्य भोगों को भोगते रहते है और फिर आय पूर्ण होने पर वे लोग मर कर कल्प वासी देव होते है। जे पुणु मिच्छादिट्टी वितर भवने सुजोइसाहोति । जम्हा मंद कसाया तम्हा देवेसु आयंति ।। ये पुन मिच्या दृष्टयः व्यन्तर भावनाः सुज्यातिष्का भवन्ति । यस्माद् मन्वकषायास्तस्माद्देवेषु जायन्ते ।। ५९४ ।। अर्थ- जो इन भोग भमियों मे मिथ्या दृष्टि पुरुष उत्पन्न होते
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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