SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 227
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भाव-संग्रह अरण्ये निर्जले देशेऽशुचित्वाद् ब्राह्मणो मृतः । वेदवेदांगतत्वज्ञः कां गति स गमिष्यति ।। यद्यसौ नरकं याति वेदाः सत्र निरर्थकाः । अथस्वर्गमवाप्नोति जलशौचं निरर्थकम् ।। आग आत्मा की शुद्धि किस प्रकार होती है यही बात दिखलाते मुनाइ जीवो तवसा इंदियखल णिग्गहेण परमेण । रयणतयसंजुस्तो जह कणयं अग्गिजोएण ।। २१ ॥ शुवधति जीवस्तपसा इन्द्रियखल निग्रहेन परमेण | रत्नत्रय संयुक्तो यथा कनक अग्नियोगेन ॥ २१ ॥ -............. .--.. -.--- अर्थ- वेद वेदांग को जाननेगाला कोई एक ब्राह्मण कमी जल रहित वन में अथवा जल रहित किसी देश में पहुँच गया और वहां पर वह विना जल शद्धि किये ही मरगया। अव बतलाइये वह विस गति को प्राप्त होगा । यदि वह विना शद्धि के कारण नरक गति को प्राप्त होगा तो उसके सब वेद निरर्थक हो जाते हैं । उसने जो समस्त वेद वेदांग पड़े हैं उनका पढना जानना सब निष्फल हो जाता है। यदि वह वेद वेदांग पहने के कारण म्वर्ग को जाता है तो फिर जल शुद्धि व्यर्थ हो जाती है । इससे सिद्ध होता है कि आत्मा की शुद्धि जल से कमी नहीं हो सकती। आत्मा नदी संयमतोयपूर्णा मत्यावहा शीलतटा घोमिः । तत्राभिषेक कृरु पाजुपुत्र न वारिणा शुद्धचति चान्तरात्मा ।। अर्थ- हे अर्जुन वह शुद्ध आत्मा एक नदी है जो संयम रूपी जल से भरी हुई है, सत्य वचन ही इसके प्रवाह हैं, शील पालन करना ही इसके किनारे हैं और दया करना ही इसकी लहरें हैं । हे अर्जुन तू ऐसी शुद्ध आत्मा में लीन हो तभी इस आत्मा की पूर्ण शुद्धि हो सकती है। - .- --..- अर्थ- जिस प्रकार अग्नि के संयोग से सोना शुद्ध हो जाता है :
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy