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कल्प समाधि में स्थिर रहनेवाले जो जीव है उनको जो शुद्धात्मा के रूप का दर्शन है, अनुभव है, अवलोकन है, उपलब्धि है, सवित्ति है. प्रतोति है, ख्याति है, अनुभूति है, वही निश्चय नय में निश्वय सम्यक्त्व या वीतराग सम्यक्त्व कहा जाता है जो निश्चय चारित्र के साथ अविताभाव रखता है अर्थात ( उसे वीतराग चारित्र को ) साथ में लिये हुए रहता है। और वही गुण-पुगी में अभेद जो निश्चय नम है उनमें मुद्धाल का स्वरुप कहा जाता है ।
वीतराग चारित्रनुकूलं शुद्धात्मानुभूत्य विनाभूतं वीतराग सम्यकत्र (म. प्र. टो. ७६ ) वीतराग चारित्र के अनुकूल जो शुद्धात्मानुभूति रुप तराग सम्यक्त्व है ।
संवेदना ज्ञानेन परं परमात्मानं भावय
पं. दौलतरामजी | भावा टीका (म. प्र. टी. १३) जो वीतराग संवेदन कर परमात्मा जाना जाता था. वही ध्यान करने योग्य है ।
शंका:- जो स्वसंवेदन अर्थात अपने कर अपने को अनुभवना इसमें वीतरागता विशेष क्यों कहा है ?
समाधान:- विषयों के आस्वादन में भी उन वस्तुओं के स्वरूप का जाननापना होता है, परन्तु राग भाव कर दूषित है इसलिये बीज एकान्त अध्यात्मवाद ( ८ )
यावत् जोवाय सुखी मीयात् पंचेन्द्रिय भोग सदा कुर्यात् । शरीर क्रिया शरीरे भवति आत्मा सदा निलिप्त भवति । यावत् जीयात् सुखी जीयात् पंचेन्द्रिय गोग सव कुर्यात् । भोगते निर्जरा भवति अध्यात्म योग यह पर्णान्ति || यावत् जीयात् सुखो जीयात् निरर्गल भाव सबा कुर्यात | संयमे भावे कर्म बन्धन्ति सद्गुरुदेव सबा भणन्ति । यावत् जीयात् सुखी जीयात् दान तपादिक दामन कुर्यात् । पुष्य बन्धेत् संसार वर्धति भावी तिथंश सदा भणन्ति ||