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________________ भाव-सग्रह जीव कम्माण उहयं अण्णोपणं जो पएस पवेसो हु । जो निणरहिं बंधो भणिओ इय विगयमोहेहि ॥ जीवकर्मणोरुभयोरन्योन्यः धः प्रदेशप्रवेशस्तु । स जिनबरैः बन्धो भणित इति बिपत मोहः ।। ३२४ ।। अर्थ- जीव के प्रदेश और कम से प्रदेश दोनो ही जब एक दुसरे के साथ परस्पर मिल जाते है उस को मोह रहित भगवान जिनेंद्र देव बंध कहते है। जीवपएलेक्कक्के कम्मपएसा हु अंअपरिहोणा। होति घणा णिविभूया सो बंधो होइ गायब्धो ।। जीवप्रदेशे एकैकस्मिन् कर्मप्रदेशा हि अन्तपरिहोनाः । भवन्ति घना निविडमसाः स बधो भवति ज्ञातव्यः ।। ३२५ ।। अर्थ- जीव के एक एक प्रदेश के साथ अनंतानंत कर्मवर्गणाए बंधी हुई है और वे सब वर्गणारं घनीभूत अंघकार के समान इकट्ठी होकर आत्मा के प्रदेशों के साथ बंधी है । इस प्रकार जो आत्मा और कमों के प्रदेश परस्पर मिले हुए है उसको बंध समझना चाहिये । आगे यह कर्म बंध इस जीव के साथ कबसे है और कैसे होता है मो कहते है । अस्थि है अणाइभ या बधो जीवस्स विविह कम्मेण । नस्सोदएण जायइ भावो पुण रायदोसमओ । अस्त्यनादि भतो बन्यो जीवस्य विविधकर्मणः । तस्योदयेन जायते भाव: पुना रागद्वेषमयः ।। ३२६ ।। भावेण तेण पुणरवि अण्णो बहु पुग्गला हु गग्गति । जह तुपियपत्तस्स य णिविडा रेणुल्क लग्गति ।। भावेन तेन पुनरपि अन्ये बहवः पुद्ग ना हि लगन्ति । यया घतपात्रस्य च निविड़ा रेपवो लगान्त ।। ३२७ ।। अर्थ- इस संसारी जीव के साथ अनेक प्रकार के कर्मों का बंध अनादि काल से लगा हुआ है जब उन कर्मों का उदय होता है तब इस
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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