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________________ ११० यथा यथा न रोचते विषयाः सुलभा अपि । तथा तथ. समायाति तस्वमुत्तमम् ।। ३८ ।। ( इष्टोपदेश ) । अर्थः- जैसे जैसे विशुद्ध आत्मस्वरुप की संवित्ति बढ़ती जाती है। वैसे वैसे सुलभ भी इन्द्रिय विषय रुचता नहीं है जैसे जरे सुलभ भी इन्द्रिय विषय रुचकर नहीं लगता है वैसे वैसे आत्मसंबित्ति बढती हो जाती है। णिय अप्पणाण झाणज्झयण सुहामियर सायण्णं पाणं । मोनणखाणसुहं जो भुंजदि सोहु बहिरप्पा ।। १२६ ।। अर्थ:- जो झान झ्यान अध्ययन और सुखामृत रसायण पान से विमुख होकर इन्द्रिय सम्बन्धी सुख भोगता है वह निश्चित बहिरात्मा मूढ है। शुभोपयोग एवं पुण्यपाप: शंका:- व्यवहार नय अपेक्षा शुभोपयोग के प्राध्यान्यता से जो ना संयमादि अरिहन्त भक्ति आदि भाव है वे सब पुण्य बन्ध के कारण होने से एवं रागात्मक होने के कारण हेय है ? पुण्य से ससार बढता है इसलिये प्रत, संयमादि अरिहन्त भक्ति संसार के कारण है ? सुह परिणामो पुण्णं असुहो पावंत्तिभणिवमणेसु । परिणामो पण्णगदो दुवक्षवलय कारणं समये ॥ १८१ ।। (प्रवचनसार ) अपने आत्मा से भिन्न अन्य द्रव्य मे जो शुभ रुप परिणाम है. उससे पुण्य होता है और अशुभ भाव से पाप होता है जो दोनों भावों से रहित होकर स्व स्वरुप में प्रवर्तमान होता है उसका सम्पूर्ण दुःख क्षय हो जाता है। अरहंत सिद्ध चेरीय पदयण गण गाण भसि संपण्णो । बन्धवि पुण्णं बहुसोण ह सो कम्मक्लयं कुणवि ।। १६६ ॥ ( पंचास्तिकाय )
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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