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________________ भाव-संग्रह एकान्तमिभ्यादष्टि बुद्धः एकान्तनयसमालम्बि ! एकांतेन क्षणिकत्वम् मन्यते यल्लोकमध्ये ।। ६३ ।। अर्थ- एकान्त वादी बुद्धी हे वह केवल एकांत नयको मानता है तथा संसार में जितने पदार्थ है उन मवको एकांत नयसे क्षणिक मानता है । भावार्थ :- समस्त पदार्थ क्षणिक है जो उत्पन्न होकर एक क्षण ठहरते है दूसरे क्षग मे नष्ट हो जाते है । इस प्रकार बौद्ध मानते है । आग ऐसा मानने में अनेक दोष दिखलाते है । जइ खणियतो जीवो तरिहि भवे कस्य कम्मसंबन्धो । सम्बन्ध विण ण घडई देहग्गहणम् पुणे तस्स ।। ६४ ।। यदि क्षणिको जीवस्तहि भवेत्कस्थ कर्मसम्बन्धः । सम्बन्धम् विना न घटते वेस्रङ्गम् पुनः तस्य ।। ६४ ।। अर्थ- यदि यह जीव क्षणिक है एक हो क्षण रहकर नष्ट हो जाता है तो फिर कर्म का संबंध किसको होगा और कौन उसका फल भोगेगा । तथा विना कर्मों के संबंध के यह जीव आग के शरीर को किस प्रकार धारण कर सकेगा। भावार्थ- यह जीव जमा कर्म बंध करता है वैसा ही फल भोगता है, कर्म बंध के अनुसार ही नया शरीर धारण करता है । कर्म बंध के सुव्वयतित्थे उज्झो खोर कादंबुत्ति सद्ध सम्मत्तो। सीसो तस्स य दुट्टो पुत्तोविय पन्वओ वक्को । विणरीयमयं किच्चा विणसियं सव्व संजयं लोए । तत्तो पत्ता सव्चे सत्तम णरयं महाघोर ।। दर्शनसार ॥ भगवान् मुनिसुव्रत नाथ के समय मे एक क्षीर कदंव नाम के उपाध्याय शुद्ध सम्यक्त्वी थे । उसका पुत्र पर्वत और उनक: शिप्य बसु दोनों ही कुटील परिणामी धे । इन दोनो ने विपरीत मिथ्यात्व की कल्पना की थी तथा लोगों के समस्त संयय का नाश किया था। इस लिये वे दोनों मरकर महाबोर सातवें नरक मे उत्पन्न हुए थे ।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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