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भाव-संग्रह
ध्यान करता है और न परगत पंच परमेष्ठी का ध्यान करता है किन्तु बिना किसी आलम्बन के किसी पदार्थ का ध्यान करता है अपने चित्त को अन्य समस्त चिनवनों से हटाकर किसी एक पदार्थ में लगता है वह रूपातीत ध्यान कहलाता है ।
जत्थ ण करणं चिता अक्खर रूवं ण धारणा धेयं । ण य वावारो कोई चितस्सय तं णिरालेवं ।। यत्र न करणं चिन्ता अक्षर रूपं न धारणा ध्येयम् ।
न च ध्यातारः कश्चिाच्चत्तस्य च तन्निरालम्बम् ।। ६२९ ।।
अर्थ- जिस ध्यान में किसी विशेष पदार्थ का चितवन नहीं करना पडता न किसी शब्द वा अक्षर वा चितवन करना पड़ता है, जिसमें न धारणा है न ध्येय है और न जिसमें मन का कोई ब्यापार होता है। ऐसे ध्यान को निराबलम्ब ध्यान कहते है । भावार्थ- निरालंब ध्यान करने वाला योगी अपने आत्मा को अपने ही आत्मा में लीन कर लेता है। अपने आत्मा के द्वारा उसी अपने शुद्ध आत्मा का अनुभव करता है। वही निरालंब ध्यान कहलाता है।
इंदिय विसय वियारा जत्थ खयं जति राय दोसं च । मण धावारा सब्वे त गयारूबं मुणेयब्ध ।। इन्द्रिय विषम विकास यत्र क्षयं यान्ति रागद्वेषौच ।
मनो व्यापाराः सर्वे तद्गतरूपं मन्तब्यम् ।। ६३० ।।
अर्थ- जिस ध्यान में इन्द्रियों के समस्त विकार नाश हो जाने है जिसमें राग द्वेष सब नष्ट हो जाते हैं। और भन के व्यापार मव नष्ट हो जाते है उसको रूपातीत ध्यान कहते है। इस प्रकार रुपातीत ध्यान का स्वरूप है।
आगे ध्येय वा ध्यान करने योग्य पदार्थ को कहते है । धेयं तिमिह पयारं अक्खरहवं तह अरूवंच ।। रुवं परमेद्वियं अक्खरयं तेसि मुच्चार ।। गयरुवं जंज्ञेयं जिणेहि भणियं पितं णिरालंछ । सुषणं पि त ण सुषणं जम्हा रयणत्तयाइण्णं ।। ६३२ ।।