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यह बात सिद्ध होती है।
इस विषय में गाथाएँ
उत्कृष्ट धर्मध्यान के शुभ आश्रव संवर, निर्जरा और देवों का सूख मे शुभानबन्धी विपुल फल होते है ।। ५६ ।।
अथबा जैन मेघपटल ताडित होकर क्षण मात्र मे विलीन हो जाते है वैसे ही व्यानरूपी पवन से उपहन होकर कर्ममेघ भो विहीन जाते है ॥ ५७ ॥
( घ. पू. ५ पू ७७ )
मोह सदुग्गो पुणमज्झाण फलं सकसायत्तणेण धम्मज्झाणिणो हम सांपराइयस्स चरिम एमए मोहणीयस्स सत्त्वसमुतल तिष्णं वादि कम्माणं निम्मूल विणास फल मेंपत्तविदक्क अविचारज्याण मोहणीय विणासो पुण धम्मज्झाण फलं, सुहुम सांपराय चरिम समए तस्स विणासुवलंभादो |
अर्थ :- मोह का सर्वोपशम करना धर्म ध्यान का फल है। क्योंकि कषाय सहित धर्मध्यानी के सूक्ष्म एवं सांपराय गुणस्थान के अन्तिम समय मे मोहनीय कर्म की सर्वोपशमना देखी जाती है। तीन ध्यानी कर्मों का निर्मूल विनाश करना एकत्व वितर्क अविचार ध्यान का फल है | परन्तु मोहनीय का विनाश करना धर्मध्यान का फल है, क्यों कि सूक्ष्म सांपराय गुणस्थान के अन्तिम समय में उसका विनाश देखा जाता है ।
( घ. पु. ५ पृ. ८१ )
प्राथमिकानां चिन्ता स्थिति करणार्थं विषय दुर्यान वचनार्थं च परंपरा मुक्ति कारणमर्हदादि पर द्रव्यं ध्येयम् पश्चात् त्चित्तं स्थिरी भूते साक्षान्मुक्ति कारणं स्वशुद्धात्मतत्वमेव ध्येयं नास्त्येकांतः एवं साध्य साधक भावं ज्ञात्वा ध्येय विषये विवादो न कर्तव्यः इति ।
( " परमात्म प्रकाश अध्याय २ गाहाटीका ३३ ब्रह्मदेव " )
अर्थ :- ध्यान के प्राथमिक साधकों को चित्त के स्थिर करने के लिये और विषय कषाय स्वरूप दुर्ध्यान से बचने के लिये परम्परा मुक्ति