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शंका- पाप के फल कौन से है?
समाधान- नरक, तिर्यंच और कुमानुषकी योनियों में जन्म-मरण व्याधि वेदना और बारिद्री आदि की प्राप्ति पाप के फल है । पाप अत्यन्त हेय है.
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ततश्चारित्रलवस्याप्यभावादत्यन्त हेय एवायमशुभोपयोग इति । चारित्र के लेशमात्र का भी अभाव होने में यह अशुभोपयोग अत्यत हेय है ।
( स. सि. वा. ३०६ ) प्रस्तावदज्ञानिजन साधारणोऽप्रतिश्रमणादिः स महात्म सिद्धयाभव स्वभावत्वेन स्वयमेवापराधत्वाद्विषकुम्भ एव ।
प्रभ तो जो अज्ञान जन साधारण ( अज्ञानी लोगों को साधारण एंगे ) अतिक्रमणादि है वे तो शुद्ध आत्मा की सिद्धि के अभ रुप स्वभाव वाले है । इसलिये स्वयमेव अपराध स्वरुप होने से विषकुम्भ ही है । क्योंकि वे तो प्रथम ही त्यागने योग्य है ।
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अशुभ एवं शुभ भावों के फल
सुहादो गिरयाउ सुहभावादो दु सम्म सुहमाओ | दुह-मुहमा जाणदु जंत रुच्चेद्रणं कुणही ||
पंचेन्द्रियादि विषय और कपाय रूप अशुभ भावों से नरकादि दुर्गति का दुःख मिलता है और देव-शास्त्र-गुरु कि भक्ति रूपी शुभभावनाओं से सर्गादिक अभ्दय सुखा कि प्राप्ति होती है। सुख और दु:ख अशुभ और शुभ भावोंवर आधारित है ।
हे भव्य आत्मन् ! आप को जो अच्छा लगे सो करो । दुःख चाहिये तो अशुभ भाव करो और सुख चाहिये तो शुभ भाव करो। इतना सब ध्यान रखो जो तुम कर्म करेंगे वह तुम्हे भोगा ही होगा ।
पुण्य त्याग करने योग्य व्यक्तो कौन है ?
अत्राह प्रभाकर भट्ट तहि ये केचन पुण्य पाप द्वयं समान कृत्वा तिष्ठन्ति तेषां क्रिमिति दुपणं दीयते भवद्धिरिति । भगवानाह । यदि
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