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________________ २२४ भाव-संग्रह देता है तो वह पुरुष उतम भोगभूमि के उत्तम मोगों को प्राप्त होता है। मझिम पत्ते मशिम भोयभूमीसु पावए गोए । पावइ जहष्ण भोए जहण्ण पत्तस्स पाणेण ।। मध्यमपत्रे मध्यमभोगभूमिषु प्राप्नोति भोगान् । प्राप्नोति जघन्यभोगान् जघन्यपात्रस्य दानेन ।। ५०० ।। अर्थ- यदि मिथ्या दृष्टि पुरुष किसी मध्यम पात्र को दान देता है तो वह मध्यम भोग भूमि के भोगों को प्राप्त होता है और यदि वहाँ मिथ्या दृष्टि पुरुष किसो जघन्य पात्र को दान देता है तो यह जघन्य भोग भूमि में जन्म लेकर वहां के भामों का अनुभव करता है । आगे फलों में यह न्यूनाधिकता क्यों होती है सो बतलाते हैं। उत्तम छित्ते वीयं फलइ जहा लक्ख कोडि गुहि । दाणं इसम पसे फलइ तहा किमिच्छ भणिएण ।। उत्तम क्षेत्रे बीजं फलति यमा लक्षकोटि गुणः । दानं उत्तमपारे फलति तथा किमिच्छाणितेन || ५०१ ॥ अर्थ- जिस प्रकार उत्तम पृथ्वीपर बोया हुआ बीज लाखों गुणा या करोड़ों गुणा फलता है उसी प्रकार उत्तम पात्र को दिया हुआ दान इच्छानुसार फलको देता है। समादिछी पुरिसो उत्तम पुरिसस्स विण्ण दाणेण । उपवज्जइ विव लोए हबइ स महदिसओ देओ ।। सम्यग्दष्टिः पुरुषः उत्सम युग्धस्य वन दानेन | उत्पद्यते स्वर्गलोके भवति स महद्धिको देवः ॥ ५०२ ।। अर्थ-- यदि कोई सम्यग्दृष्टी पुरुष उत्तम पात्र को दान देता है लो वह स्वर्ग लोक में जाकर महा ऋद्वियों को महा विभूतियों को धारण करने वाला उत्तम देव होता है। जह पोरं उसछुगयं कालं परिणवा अमिय स्वेण । तह वाणं पर पत्ते फलेइ भोएहि विविहे हि ॥
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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