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श्रीमद् राजचन्द्र • १०२ सरलता धर्मका बीजवरूप है। प्रज्ञासे सरलता सेवन की हो तो आजका दिन सर्वोत्तम है।
१.३ बहन, राजपत्नी हो अथवा दीनजनपत्नी हो, परन्तु मुझे उसकी कोई दरकार नहीं। मर्यादासे चलनेवालीकी मैं तो क्या किन्तु पवित्र ज्ञानियोंने भी प्रशंसा की है।
१०४ सद्गुणसे जो तुम्हारे ऊपर जगत्का प्रशस्त मोह होगा तो हे बहन, तुम्हें मैं वंदन करता हूँ।
१०५ बहुमान, नम्रभाव, विशुद्ध अंतःकरणसे परमात्माके गुणोंका चितवन-श्रवण-मनन, कीर्तन, पूजा-अर्चा इनकी ज्ञानी पुरुषोंने प्रशंसा की है, इसलिये आजका दिन शोभित करना ।
१०६ सत्शीलवान सुखी है । दुराचारी दुखी है । यह बात यदि मान्य न हो तो अभीसे तुम लक्ष रखकर इस बातको विचार कर देखो।
१०७ इन सबोंका सहज उपाय आज कह देता हूँ कि दोषको पहचान कर दोषको दूर करना।
१०८ लम्बी, छोटी अथवा क्रमानुक्रम किसी भी स्वरूपसे यह मेरी कही हुई पवित्रताके पुष्पोंसे Dथी हुई माला प्रभातके वक्तमें, सायंकालमें अथवा अन्य अनुकूल निवृत्तिमें विचारनेसे मंगलदायक होगी । विशेष क्या कहूँ!
काल किसीको नहीं छोड़ता जिनके गलेमें मोतियोंकी मूल्यवान मालायें शोभती थीं, जिनकी कंठ-कांति हीरेके शुभ हारसे अत्यन्त दैदीप्यमान थी, जो आभूषणोंसे शोभित होते थे, वे भी मरणको देखकर भाग गये । हे मनुष्यो, जानो और मनमें समझो कि काल किसीको नहीं छोड़ता ॥१॥
जो मणिमय मुकुट सिरपर धारण करके कानों में कुण्डल पहनते थे, और जो हाथोंमें सोनेके कड़े पहनकर शरीरको सजानेमें किसी भी प्रकारकी कमी नहीं रखते थे, ऐसे पृथ्वीपति भी अपना भान खोकर पल भरमें भूतलपर गिरे। हे मनुष्यो, जानो और मनमें समझो कि काल किसीको नहीं छोड़ता॥२॥ जो दसों उँगलियोंमें माणिक्यजडित मांगलिक मुद्रा पहनते थे, जो बहुत शौकके साथ बारीक
काळ कोईने नहि मूके
हरिगीत.
मोती तणी माळा गळामां मूल्यवती मलकती, हीरा तणा शुभ हारथी बहु कंठकांति मळकती; आभूषणोथी ओपता भाग्या मरणने जोइने, जन जाणीए मन मानीए नव काळ मूके कोइने ॥१॥ मणिमय मुगट माये धरीने कर्ण कुंडळ नाखता, कांचन कडा करमां धरी कशीए कचास न राखता; पळमां पच्या पृथ्वीपति ए भान भूतळ खोईने, जन जाणीए मन मानीए नव काल मूके कोईने ॥२॥ दश आंगळीमा मांगळिक मुद्रा जडित माणिक्यथी, जे परम प्रेमे पेरता पाँची फळा बारीकथी;