Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिभद्र सूरि विरचित समराइचकहा। उत्तरार्ध www.jainelibrary.one Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समराइच्चकहा आचार्य हरिभद्र सूरि की, प्राकृत गद्य भाषा में निबद्ध एक ऐसी आख्यानात्मक कृति, जिसकी तुलना महाकवि बाणभट्ट की 'कादम्बरी', जैन काव्य 'यशस्तिलकचम्पू' और 'वसुदेवहिण्डी' से की जाती है । प्रचलित भाषा में इसे नायक और प्रतिनायक के बीच जन्म-जन्मान्तरों के जीवन-संघर्षों की कथा का वर्णन करनेवाला प्राकृत का एक महान् उपन्यास कहा जा सकता है । मूल कथा के रूप में इसमें उज्जयिन्नी के राजा समरादित्य और प्रतिनायक अग्निशर्मा के नौ जन्मों (भवों) का वर्णन है। एक-एक जन्म की कथा एक-एक परिच्छेद में समाप्त होने से इसमें नौ भव या परिच्छेद हैं। आज से पचास वर्ष पूर्व यह ग्रन्थ अहमदाबाद से संस्कृत | छायानुवाद के साथ प्रकाशित हुआ था । पहली बार इस ग्रन्थ का सुन्दर एवं प्रामाणिक हिन्दी अनुवाद प्राकृत एवं संस्कृत के विद्वान् डॉ. रमेशचन्द्र जैन, बिजनौर ने किया है । इस प्रकार प्राकृत मूल, संस्कृत छाया के साथ इसके हिन्दी अनुवाद का प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ की एक और महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। ग्रन्थ के बृहद् आकार में होने से इसके पाँच भव 'पूर्वार्ध' के रूप में और अन्तिम चार भव 'उत्तरार्ध' के रूप में, इस तरह यह पूरा ग्रन्थ दो जिल्दों में नियोजित है । आशा है, प्राकृत के अध्येताओं, शोध-छात्रों एवं प्राचीन भारतीय साहित्य के समीक्षकों के लिए यह कृति बहुत उपयोगी सिद्ध होगी। in Education International For Private & Personal Use Onity Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला प्राकृत ग्रन्थांक - २२ आचार्य हरिभद्रसूरि विरचित समराइच्चकहा ( समरादित्य - कथा ) उत्तरार्ध | प्राकृत मूल, संस्कृत छाया एवं हिन्दी अनुवाद सहित ] सम्पादन- अनुवाद डॉ. रमेशचन्द्र जैन अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, वर्धमान स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बिजनौर ACHARYA SRI KAILASSAGARSURI GYANMANDIR SHREE MAHAVIR JAIN ARADHANA KENDRA Koba, Gandhinagar 382007. Ph: (079) 23276252, 23276204-05 ~Fax: (079) 23276249 भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन प्रथम संस्करण १६६६ मूल्य : १४०.०० रुपये Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय ज्ञानपीठ (स्थापना : फाल्गुन कृष्ण ६, वीर नि. सं. २४७० : विक्रम सं. २००० : १८ फरवरी १६४४) स्व. पुण्यश्लोका माता मूर्तिदेवी की पवित्र स्मृति में स्व. साहू शान्तिप्रसाद जैन द्वारा संस्थापित एवं उनकी धर्मपत्नी स्वर्गीय श्रीमती रमा जैन द्वारा सम्पोषित मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला इस ग्रन्थमाला के अन्तर्गत प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, कन्नड़, तमिल आदि प्राचीन भाषाओं में उपलब्ध आगमिक, दार्शनिक, पौराणिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक आदि विविध-विषयक जैन-साहित्य का अनुसन्धानपूर्ण सम्पादन तथा उसका मूल और यथासम्भव अनुवाद आदि के साथ प्रकाशन हो रहा है। जैन-भण्डारों की सूचियाँ, शिलालेख-संग्रह, कला एवं स्थापत्य, विशिष्ट विद्वानों के अध्ययन-ग्रन्थ और लोकहितकारी जैन साहित्य-ग्रन्थ भी इसी ग्रन्थमाला में प्रकाशित हो रहे हैं। प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ १८, इन्स्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नयी दिल्ली-११०००३ मुद्रक : विकास ऑफसेट नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032 .' सर्वाधिकार सुरक्षित Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JÑĀNAPĪTH MOORTIDEVĪ JAIN GRANTHAMĀLĀ : Prakrit Grantha No.22 SAMARAICHCHAKAHĀ of ACHARYA HARIBHADRA SŪRI VOL. II [ Prakrit Text with Sanskrit Chhaya and Hindi Translation] Edited and Translated by Dr. Ramesh Chandra Jain Head, Deptt. of Sanskrit, Vardhman Post-graduate College, Bijnor BHARATIYA JNANPITH PUBLICATION First Edition 1996 ☐ Price Rs. 140.00 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BHARATIYA JNANPITH (Founded on Phalguna Krishna 9 : Vira Sam. 2470, Vikrama Sam. 2000 : 18th Feb., 1944) MOORTIDEVI JAINA GRANTHAMALA FOUNDED BY LATE SAHU SHANTI PRASAD JAIN IN MEMORY OF HIS LATE MOTHER SHRIMATI MOORTIDEVI AND PROMOTED BY HIS BENEVOLENT WIFE LATÉ SHRIMATI RAMA JAIN IN THIS GRATHMALA CRITICALLY EDITED JAINA AGAMIC, PHILOSOPHICAL, PAURANIC, LITERARY, HISTORICAL AND OTHER ORIGINAL TEXTS AVAILABLE IN PRAKRIT, SANSKRIT, APABHRMSHA, HINDI, KANNADA, TAMIL ETC., ARE BEING PUBLISHED IN THE RESPECTIVE LANGUAGES WITH THEIR TRANSLATIONS IN MODERN LANGUAGES. ALSO BEING PUBLISHED ARE CATALOGUES OF JAINA-BHANDARAS, INSCRIPTIONS, STUDIES ON ART ARCHITECTURE BY COMPETENT SCHOLARS AND ALSO POPULAR JAINA LITERATURE. Published by Bharatiya Jnanpith 18, Institutional Area, Lodi Road, New Delhi-110003 Printed at : Vikas Otiset, Naveen Shahdara, Delhi-110032 All Rights Reserved Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥छट्ठो भवो॥ जयविजया य सहोयर जं भणियमिहासि तं गय मयाणि ।। वोच्छामि पुव्व विहियं धरणो लच्छी य पइभज्जा ॥४८०॥ अस्थि इहेव जम्बुद्दीवे दीवे भारहे वासे परिहरिया अहम्मेणं वज्जिया कालदोसेण रहिया उवद्दवेण निवासो नयसिरोए मायन्दी नाम नयरी। जीए महुमत्तकामिणिलीलाचंकमणणेउररवेण । भवणवणदीहिओयररया वि हंसा नडिज्जंति ॥४८१॥ जीए सरलसहावो पियंवओ धम्मनिहियनियचित्तो। पढमाभासी नेहालुओ य पुरिसाण वग्गो त्ति ॥४८२॥ तत्थ दरियारिमणो सुकयधमाधम्मववत्थो [कालो' व्व रिवूणं] कालमेहो नाम नरवई । जयविजयौ च सहोदरौ, यद् भणितं तं गतमिदानीम् । वक्ष्ये पूर्वविहितं धरणो लक्ष्मीश्च प्रतिभार्ये ॥४८०॥ अस्तीहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे परिहृताऽधर्मेण, वजिता कालदोषेण, रहिता उपद्रवेण, निवासो नयश्रियो माकन्दी नाम नगरी। यस्यां मधुमत्तकामिनीलीलाचंक्रमणनपुररवेण । भवनवनदीधिकोदररता अपि हंसा गुप्यन्ते (व्याकुलीक्रियन्ते) ॥ ४८१॥ यस्यां सरलस्वभावः प्रियंवदो धर्मनिहितनिचित्तः । प्रयमाभाषी स्नेहालुकश्च पुरुषाणां वर्ग इति ॥४८२॥ तत्र दृप्तारिमर्दनः सुकृतधर्माधर्मव्यवस्थः काल इव रिपूणां कालमेघो नाम: नरपतिः। जय और विजय (नामक) दोनों भाइयों के विषय में जो कहना था वह कह दिया, अब शास्त्रोक्त धरण और लक्ष्मी नामवाले पति और पत्नी के विषय में कहूँगा ।:४८०॥ इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में अधर्म को जिसने छोड़ दिया है, काल के दोष तथा उपद्रव से रहित, नीतिरूपी लक्ष्मी का जिसमें निवास है, ऐसी माकन्दी नामक नगरी है। __ जिस नगरी में मधु (मादक पदार्थ) से मतवाली कामिनी स्त्रियों के लीलापूर्वक संचारित नूपुरों की ध्वनि से भवन-वन की बावड़ी के अन्दर रहनेवाले हंस भी व्याकुलित किये जाते हैं । जिस नगरी में सरल स्वभावी, प्रिय बोलने वाला अथवा धर्म में अपने चित्त को लगाये हुए, उत्तम वचन बोलनेवाला तथा स्नेहालु पुरुषों का वर्ग है, ॥४८१-४८२॥ वहाँ पर अभिमानी शत्रुओं का मर्दन करने वाला, धर्म तथा अधर्म की भलीभांति व्यवस्था करने वाला, १. नास्ति ख-पुस्तके । Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ [ समराइच्चकहा तस्स अईव बहुमओ सयलनयरिसे टिचुडामणीभूओ बंधुदत्तो नाम सेट्टि त्ति । सो य परम्मुहो परकलत्ते न अब्मत्यणाए, अलुद्धो परविभवे न धम्मोवज्जणे, असंतुट्ठो परोवयारे न धणागमे, अहिगओ पीईए न मच्छरेणं, दरिहो दोसेहि न विहवेणं । तेण सा नयरी मलयवणं पिव पारिजाएण वसंतो विय कुसुमुगामेण पाउसिरी विय मेहावलीए सरयकालो विय चंदमंडलेणं अहियं विभूसिय त्ति । तस्स कमलायरस्स विय विलुप्पइ कोसो मित्तमंडलेण, कप्पतस्वरस्स विय खंधे पायं काऊण गहियाई फलाई अथिनिवहेण । तस्स समाणकुलरूपविहवसहावा हारप्पहा नाम भारिया । स इमीए सह धम्मत्थअभग्गपसरं विसयसुहमणुह विसु त्ति ॥ इओ य सो आणयकप्पवासी देवो तम्मि देवलोए अहाउयं पालिऊण चुओ समाणो समुप्पन्नो हारप्पहाए कुच्छिसि । दिट्ठा य णाए तोए चेव रयणी ए चरिमजामम्मि सुमिणए दिव्वपउमासणोवविट्ठा धवल दुगुल्लनिवसणा विविहर यणचियरसणाकलावा तस्यातीव बहुमत: सकलनगरीश्रेष्ठिचूडामणीभूतो बन्धुदत्तो नाम श्रेष्ठीति । स च पराङ्मुख: परकलो नाभ्यर्थनायाम, अलुब्धः परविभवे न धर्मोपार्जने, असन्तुष्टः परोपकारे न धनागमे, अधिगतः प्रीत्या न मत्सरेण, दरिद्रो दोषैर्न विभवेन । तेन सा नगरी मलयवनमिव पारिजातेन वसन्त इव कुसुमोद्गमेन प्रावृटश्रीरिव मेघावल्या शरत्काल इव चन्द्रमण्डलेनाधिकं विभूषितेति । तस्य कमलाकरस्येव विलुप्यते कोशो मित्रमण्डलेन, कल्पतरुवरस्येव स्कन्धे पादं कृत्वा गृहीतानि फलान्यथिनिवहेन । तस्य समानकुल-रूप-विभव-स्वभावा हारप्रभा नाम भार्या । सोऽनया सह धर्मार्थाभग्नप्रसरं विषयसुखमन्वभवत् । इतश्च स आनतकल्पवासी देवो तस्मिन् देवलोके यथायुष्कं पालयित्वा च्युतः सन् समुत्पन्नो हारप्रभायाः कुक्षौ। दृष्टा चानया तस्यामेव रजन्यां चरमयामे स्वप्ने दिव्यपद्मासनोपविष्टा धवलदुकूलनिवसना विविधरत्नखचितरसनाकलापा सुकुमारमृदुस्पर्शणोत्त शत्रुओं के लिए काल के तुल्य कालमेघ नामक राजा था। उसके (यहाँ) अत्यन्त लोकप्रिय, समस्त नगरियों के सेठों में चूडामणि बन्धुदत्त नामक सेठ था । वह परस्त्रियों से विमुख रहता था, किन्तु याचकों की याचना से विमुख नहीं रहता था। दूसरे की सम्पत्ति का लोभी नहीं था, किन्तु धर्मोपार्जन का लोभी न हो, ऐसी बात नहीं थी। परोपकार करते हुए वह सन्तुष्ट नहीं होता था, अर्थात् उसकी परोपकार करने की इच्छा बढ़ती ही रहती थी। किन्तु धन के आगमन के प्रति वह असन्तुष्ट हो, ऐसा नहीं था। वह प्रीति से युक्त था, मत्सर से युक्त नहीं था। दोषों से वह दरिद्र था अर्थात् उसमें दोष नहीं थे, किन्तु वैभव से दरिद्र नहीं था। इन कारणों से उस सेठ से वह नगरी उसी तरह अधिकाधिक रूप से विभूषित हुई जिस प्रकार पारिजात से मलयवन, फूलों के उद्गम से वसन्तमास, मेघों की पंक्ति से वर्षाकाल और चन्द्रमण्डल से शरत्काल अत्यधिक विभूषित होता है। कमलों के समूह के समान उसका कोश मित्रमण्डल द्वारा ही कृश किया जाता था। कल्पवक्ष के तने पर पैर रखकर जिस प्रकार चाहने वाले लोग फलों को ग्रहण कर लेते हैं उसी प्रकार याचक लोगों ने उससे फल ग्रहण किये थे। उसके समान कुल, समान रूप, समान वैभव तथा समान स्वभाव दाली हारप्रभा नामक स्त्री थी। वह इसके साथ धर्म और अर्थ का निरन्तर सेवन करता हुआ विषयसुख का अनुभव करता था। इधर वह आनत कल्पवासी देव उस स्वर्ग की आयु का उपभोग करने के अनन्तर च्युत होकर हारप्रभा के गर्भ में आया। हारप्रभा ने उसी रात्रि के अन्तिमप्रहर में स्वप्न में दिव्य कमलासन पर बैठी हुई, सफेद वस्त्र पहने हुई, अनेक प्रकार के रत्नों से युक्त करधनी को धारण किये हुए, सुकुमार और मृदु स्पर्शवाले उत्तरीय से स्तनों को आच्छादित किये हुए, मोतियों १. मणुविसु-क, २. अहाउयमणु-क। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो भवो] ४५६ सुकुमालमिउफंसेण उत्तरीएण पच्छाइयपओहरा मुत्तावलीविहूसियाए सिरोहराए रुटतमयरुप्फुल्लगहिय कमला धवलकरिवरेहि दिव्वकंचणकलसेहि अहिसिच्चमाणा सिरीवयणेणमयरं पविसमाणि त्ति। तओ तं दठूण विद्धा एसा । साहिओ तीए हरिस निम्मराए दइयस्स। भणिया यण-सुंदरि, सिरिनिवासो ते पुत्तो भविस्सइ। पडिस्सुथमिमीए । तओ विसे सेण तिवग्गसंपायणरयाए अइक्कंतो कोइ कालो। पत्तो पसूइसमओ। पसूया य एसा, जाओ से दारओ, निवेइओ परितोसनामाए चेडियाए बंधुदत्तस्स। परितुट्ठो एसो। दिन्नं तोए पारिओसियं । कयं उचियं करणिज्ज । अइक्कंतो मासो दारयस्स । पइट्ठावियं च से नामं पियामहस्त सतियं धरणो ति । पत्तो कुमारभावं, गाहिओ कलाकलावं । निम्माओ य तत्व पयाणुसारी संवुत्तो।। एत्यंतरम्मि सो विजयजीवनारओ तो नरयाओ उध्वट्टिऊण पुणो संसारमाहिडिय अणंतरभवे तहाविहमणुढाणं काऊण तीए चेव नयरीए कत्तियस्स सेटुिस्स जयाए भारियाए कुच्छिसि इत्थियत्ताए उववन्नो त्ति। जाया कालक्कमेण । पइटावियं च से नाम लच्छित्तिा पत्ता य जोदणं । रीयेण प्रच्छादितपयोधरा मुक्तावलिविभूषितशिरोधरया [विभ्राजमाना रवन्मधुकरोत्फुल्लगृहीतकमला धवलकरिवराभ्यां दिव्यकाञ्चनकलशाभ्यामभिषिच्यभाना श्रीर्वदनेनोदरं प्रविशन्तीति। ततस्तां दृष्ट्वा विबुद्धषा । कथितस्तया हर्षनिर्भरया दयिताय। भणिता च तेन--सुन्दरि! श्रीनिवासस्ते पुत्रो भविष्यति । प्रतिश्रुतमनया। ततो विशेषेण त्रिवर्गसम्पादन रताया अतिक्रान्तः कोऽपि काल: । प्राप्तः प्रसूतिसमयः । प्रसूता चैषा, जातस्तस्य दारकः, निवेदितः परितोषानाम्न्या चेटिकया बन्धुदत्ताय । परितुष्ट एषः। दत्तं तस्यै पारितोषिकम् । कृतमुचितं करणीयम् । अतिक्रान्तो मासो दारकस्य । प्रतिष्ठापितं च तस्य नाम पितामहस्य सत्कं धरण इति । प्राप्तः कुमारभावम् , ग्राहितः कलाकलापम् । निर्मायश्च तत्र पदानुसारी संवृत्तः । अत्रान्तरे स विजयजीवनारकः ततो नरकावृत्य पुनः संसारमहिण्डय अनन्तरभवे तथाविधमनुष्ठानं कृत्वा तस्यामेव नगर्यां कार्तिकस्य श्रोष्ठिनो जयाया भार्यायाः कुक्षौ स्त्रीतय पपन्न इति । जाता कालक्रमेण। प्रतिष्ठापितं च तस्या नाम लक्ष्मीरिति । प्राप्ता च यौवनम् । अचिन्तकी माला से विभूषित ग्रीवा से शोभायमान होती हुई, गुंजायमान भौंरों से युक्त, विकसित कमल को ग्रहण किये हुए, सफेद दो श्रेष्ठ हाथियों के द्वारा दिव्य स्वर्णकलशों से अभिषिक्त होती हुई लक्ष्मी को मुख से उदर में प्रवेश करते हुए देखा । अनन्तर उसको देखकर यह जाग उठी । अति हर्ष से युक्त होकर उसने पति से कहा । पति ने कहा-'सुन्दरी ! लक्ष्मी का जिसमें निवास है, ऐसा तुम्हारा पुत्र होगा।' इसने सुना। इसके बाद विशेष रूप से धर्म, अर्थ और कामरूप त्रिवर्ग में रत रहते हुए कुछ समय व्यतीत हुआ। प्रसव का समय उपस्थित हुआ। प्रसव के फलस्वरूप उसके बालक उत्पन्न हुआ। परितोषा नामक दासी ने बन्धुदत से जाकर निवेदन किया। यह सन्तुष्ट हआ और उस (दासी) के लिए पारितोषिक दिया। उचित कृत्यों को किया। बालक का मास व्यतीत हुआ। पितामह के समान उसका नाम 'धरण' रखा गया । (वह) कुमारावस्था को प्राप्त हुआ (तथा उसने) कलाओं के समह को ग्रहण किया। वहां पर मायारहित अपने स्थान पर रहता हआ सदाचारी हआ (युवराज हुआ)। - इसी बीच वह विजय का जीव नारकी उस नरक से निकल कर पुन: संसार में भ्रमण कर बाद के भव में उसी प्रकार का अनुष्ठान करके उसी नगरी में कार्तिक श्रेष्ठी की जया नामक भार्या के गर्भ में स्त्री के रूप में आया। कालक्रम से उसका जन्म हुआ। उसका नाम लक्ष्मी रखा गया। वह यौवन को प्राप्त हुई । कर्म का १. महुयरफुल्ल-ख, २. परिहरिस-क, ३. तेण-क, ४. पियामहसतियं-क । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्च कहा ४६० अणीय कम्मपरिणामस्स भवियव्वयाए निओएण महाविभूईए परिणीया य णेणं । अतिथ पीई धरणस्स लच्छीए, न उण तीए धरणम्मि । चितेइ एसा - अलं मे जीवलोएण, जत्थ धरणो पइदिणं दीसइ ति । एवं च विडम्बणापायं विसयसुहमणुहवंताणं अइवकंतो कोइ कालो । अन्नयाय पयत्ते मगणमहूसवे कीलानिमित्तं पयट्टो रहवरेण धरणो मलयसुंदरं उज्जाणं । पत्तो नयरिवारदेसं । एत्थंतरम्मि तओ चेव उज्जाणाओ कीलिऊणागओ रहवरेण नयरिदुवारदेसभायं पंचनंदिसेट्ठितो देवनंदित्ति | मिलिया रहवरा दुवारदेसभाए । वित्थिष्ण याए रहवराणं न दोह पि निग्गमणपवेसभूमी । भणियं च देवनंदिणा - भो भो धरण, ओसारेहि ताव रहवरं, ज. व मे पविसइ रहो ति । धरणेण भणियं - अइगओ मे रहो, न तीरए वालेउं । ता तुमं चेव ओसारेहि, जाव मे नीसरइति । देवनंदिणा भणियं - भो भो धरण, अह केण उण अहं भवओ ऊणओ, जेण रहवरं ओसारेमि । धरणेण भणियं - भो भो देवनंदि, तुल्लमेवेयं । एवं च वित्थवका दुवे वि सेट्ठित्ता । रुद्धो निगमपवेसमग्गो नायरयाणं । पवित्थिष्णो जणवाओ । विन्नाओ एस वृत्तंतो नीयतया कर्मपरिणामस्य भवितव्यताया नियोगेन महाविभूत्या परिणीता च तेन । अस्ति प्रीतिर्धरणस्य लक्ष्म्यां न पुनस्तस्या धरणे । चिन्तयत्येषा - अलं मे जीवलोकेन, यत्र धरण: प्रतिदिनं दृश्यते इति । एवं च विडम्बनाप्रायं विषयसुखमनुभवतोरतिक्रान्तः कोऽपि कालः । 1 अन्यदा च प्रवृत्ते मदनमहोत्सवे क्रीडानिमित्तं प्रवृत्तो रथवरेण धरणो मलयसुन्दरमुद्यानम् । प्राप्तो नगरीद्वारदेशम् । अत्रान्तरे तत एवोद्यानात् क्रीडित्वा गतो रथवरेण नगरीद्वारदेशभागं पञ्चनन्दिश्रेष्ठपुत्र देवनन्दीति । मिलितौ रथवरौ द्वारदेशभागे । विस्तीर्णतया रथवरयोर्न द्वयोरपि निर्गमनप्रवेशभूमिः । भणितं च देवनन्दिना - भो भो धरण ! अपसारय तावद् रथवरम्, यावन्मे प्रविशति रथ इति । धरणेन भणितम् - अतिगतो मे रथः, न शक्यते वालयितुम् । ततस्त्वमेवापसारय, यावन्मे निःसरतीति । देवनन्दिना भणितम् - भो भो धरण ! अथ केन पुनरहं भवत ऊनः, येन रथवरमपसारयामि । धरणेन भणितम् -- भो भो देवनन्दिन् ! तुल्यमेवैतत् । एवं च विरोधितौ द्वावपि श्रेष्ठपुत्रौ । रुद्धो निर्गमप्रवेशमार्गे नागरिकानाम् । प्रविस्तीर्णो जनवादः । विज्ञात एष वृत्तान्तो परिणाम अचिन्तनीय होने से दैवयोग से बड़े ठाठ-बाट से उसके द्वारा (धरण के द्वारा ) विवाही गयी । धरण की लक्ष्मी में प्रीति थी, किन्तु लक्ष्मी की धरण के प्रति प्रीति नहीं थी । यह सोचा करती थी - 'मेरे लिए संसार व्यर्थ है जो कि धरण ( मुझे ) प्रतिदिन दिखाई देता है' - इस प्रकार छल से विषयसुख का अनुभव करते हुए कुछ काल व्यतीत हो गया । एक बार मदनमहोत्सव आने पर क्रीड़ा के निमित्त धरण श्रेष्ठ रथ से मलयसुन्दर उद्यान में गया। नगर के द्वार पर पहुँचा । इसी समय उद्यान से कीड़ा करके पञ्चनन्दी सेठ का पुत्र देवनन्दी नगर के द्वार पर श्रेष्ठ रथ पर सवार होकर आया । नगर के द्वार पर दोनों रथ मिल गये । दोनों रथों की विशालता के कारण दोनों को ( एक साथ) निकलने का स्थान न था । देवनन्दी ने कहा - "हे हे धरण ! रथ को पीछे लौटाओ ताकि मेरा रथ प्रवेश करे ।" धरण ने कहा - " मेरा रथ आगे आ गया है, अतः पीछे नहीं हटाया जा सकता अतः आप ही पीछे हटाइए, ताकि मेरा रथ निकल जाय ।" देवनन्दी ने कहा - "हे हे धरण ! मैं आपसे किस बात में कम हूँ जो कि रथ को हटाऊँ ?" धरण ने कहा - "हे हे देवनन्दी ! यह बात तो दोनों के लिए समान है ।" इस प्रकार दोनों श्रेष्ठिपुत्र झगड़ पड़े। नागरिकों के आने-जाने का मार्ग रुक गया। अफवाह सब जगह फैल गयी। इस वृत्तान्त को Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो भवो ] ४६१ नयरिमहंत एहि । आलोचियं च णेंहि । दुवे वि खु महापुरिसपुत्ता, न खलु एत्थ एगस्स वि निरागरणं जुज्जइति । ता इमं एत्थ पत्तयालं; निब्भच्छिज्जंति एए। जहा 'कीस तुब्भे पुव्वपुरिसज्जिएणं विहवेणं गव्वमुव्वहह । केण तुम्हाण नियभूओवज्जिएणं दविणजाएणं दिन्नं महादाणं । केण वा काराविओ धम्माहिगारो । केण वा अब्भुद्धरिओ विहलवग्गो । केण वा परिओसिया जणणिया । ता किमेइणा निरत्थएण बुहजणोवहसणिज्जेण अहोपुरिसियापाएण चेट्टिएणं । अओ उपसंहरह एवं ओसारेह नियनियथामाओ चेव पिट्ठओ रहवरे' किमन्नेणं ति । एवमालोचिऊण 'इमेव तुम्भेहि ते वत्तव्व' त्ति भणिऊण विसज्जिया व रणविन्नासकुसला धम्मत्थविसारया परिणया ओत्थाएं निवासो उबसमस्स' इहपरलोयावायदंसगा सुट्टिया धम्मपक्खे सयलनपरिजगबहुमया चत्तारि चारिया | गया ते तेसि समीवं । अब्भुट्टिया य णेहिं ; अणुस। सिया चारिएहि । साहिओ पराहिपाओ । 'अहो सोहणं ति' परितुट्टो देवनंदी । असोहणं ति लज्जिओ धरणो । भणियं च नगरीमहद्भिः । आलोचितं च तैः । द्वावपि खलु महापुरुषपुत्रौ न खल्वत्र एकस्यापि निराकरणं युज्यते इति । तत इदमत्र प्राप्तकालम्, निर्भत्स्येते एतौ यथा कस्माद् युवां पूर्वपुरुषार्जितेन विभवेन गर्वमुद्वहथः । केन युवयोनिजभुजोपार्जितेन द्रविणजातेन दत्त महादानम्, केन वा कारितो धर्माधिकारः, केन वाऽभ्युद्घृतो विह्वलवर्ग:, केन वा परितोषितौ जननीजनकौ । ततः किमेतेन निरर्थकेन बुधजनोपसनीयेनाहोपुरुषिकाप्रायेण चेष्टितेन । अत उपसंहरतैतद्, अपसारयतं निजनिजस्थानादेव पृष्ठतो रथवरौ, किमन्येनेति । एवमालोच्य 'इदमेव युष्माभिस्तौ वक्तव्यौ' इति भणित्वा विसर्जिता वचनविन्यासकुशला धर्मार्थविशारदाः परिणता वयोऽवस्थया निवास उपशमस्य इहपरलोकापायदर्शकाः सुस्थिताः धर्मपक्षे सकलनगरीजनबहुमताश्चत्वारश्चारिकाः ( प्रधानपुरुषाः ) गतास्ते तयो समीपम् | अभ्युत्थिताश्च ताभ्याम् । अनुशासितौ च चारिकैः । कथितः पौराभिप्रायः । अहो शोभनमिति परितुष्टो देवनन्दी | अशोभनमिति लज्जितो धरणः । भणितं च तेन - भो भो नगर के बड़े लोगों ने जाना । उन्होंने ( इसकी ) आलोचना की । दोनों ही महापुरुष के पुत्र थे, अतः किसी एक का निराकरण भी युक्त नहीं है। समय आया, इन दोनों की निन्दा हुई - किस कारण आप दोनों पूर्वजों द्वारा अर्जित किये हुए धन पर गर्व धारण करते हो ? आप दोनों में से किसने अपने आप अर्जित किये हुए धन का महादान दिया है ? धार्मिक कार्यों की व्यवस्था किसने करायी है ? किसने व्याकुल वर्ग का उद्धार किया है ? किसने मातापिता को सन्तुष्ट किया है ? अत: विद्वानों द्वारा उपहास के योग्य इस निरर्थक अहंकार चेष्टा से क्या ? अतः इसकी समाप्ति कीजिए । अपने-अपने स्थान से रथ को पीछे हटाइए, और अधिक क्या ?' इस प्रकार आलोचना कर 'यही आप लोग उनसे कहना' - ऐसा कहकर वचन के प्रयोग में कुशल, धर्म और अर्थ के ज्ञाता, उम्र में बड़े, शान्ति के निवासस्थान, इस लोक और परलोक की हानि को देखकर धर्मपक्ष में भलीभांति स्थिर, नगर के समस्त लोगों द्वारा बहुत माने हुए प्रधानपुरुषों ने ऐसा कहकर उनको ( नागरिकों को ) भेजा । वे उन दोनों के समीप गये। वे दोनों के सामने खड़े हुए। प्रमुख लोगों ने उन दोनों को उपदेश दिया । नगर-निवासियों का अभिप्राय कहा । 'अरे यह ठीक है' - इस प्रकार देवनन्दी सन्तुष्ट हुआ । 'अरे यह ( हमने ) ठीक नहीं किया इस प्रकार धरण लज्जित हुआ। उसने कहा- "हे हे महानुभावो ! जो आप लोगों ने आज्ञा दी, वह मुझे - १. धम्मस्स क Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ [ समराइच्चकहा तेण-भो भो महंतया, जं तुब्भे आणवेह, तमदस्सं मए' कायव्वं । कि तु पडिबोहिओ अहं तु हिं, लज्जिओ य अत्तणो चेटिएणं, महई मे ओहावणा, आमगन्भपायं च मन्नेमि अत्ताणयं । ता एवं मे अणुग्गहं करेह। ओसारिज्जंतु एए रहवरा। गच्छामो य अम्हे इओ अज्जेव देसन्तरं । तओ संवच्छरेण जो चेव णे पहयं दविणजायं विढविऊण इहागच्छिय अहियं सप्पुरिसचेष्ट्रिय करेस्सइ तस्सेव संतिओ रहो इमीए चेव तेरसीए पविसिस्सइ वा निक्खमिस्सइ वा। चारिएहि भणिय ।अलमेइणाअभिनिवेसेण । धरणेण भणियं-न अन्नहा मे निव्वुई होइ। चारिहि भणियं-पउरामेत्थ पमाण। धरणेण भणियं-निवेएह पउराणं । देवनंदिगा भणियं-जुत्तमेयं, को एत्थ दोसो। तओ निवेइयं पउराणं । बहुमयं च तेसि । सद्दाविया य तेति जगणिजणया । साहिओ वृत्तंतो।बहुमओ व तेसि पि । तओ काराविया सवह 'न तुब्भेहि एएसि संवाहणा कायव्वा' । सद्दाविया धरणदेवनदी । समप्पियं पत्तेयं तेसि पंचदीणारलक्खपमाणं भंडमोल्लं । कयं ववत्थापत्तयं 'जो चेव एएसि संवच्छरभंतरे अहिययरदविणजाएण पोरुसं पयडइस्सइ, तस्सेष संतिएण रहनरेण गंतव्वं, न इयरस्स' । दिन्ना य महान्तः ! यद् यूयमाज्ञापयत तदवश्यं मया कर्तव्यम् । किंतु प्रतिबोधितोऽहं युष्माभिः, लज्जितइचात्मश्चेष्टितेन, महती मेऽपभावना, आमगर्भप्रायं च मन्ये आत्मानम् । तत एवं मेऽनुग्रहं कुरुत । अपसार्येतामेतौ रथवरौ । गच्छावश्चावामितोऽद्यैव देशान्तरम्। ततः संवत्सरेण य एवावयोः प्रभूतं द्रविणजातमुपायं इहागत्याधिकं सत्पुरुषचेष्टितं करिष्यति तस्यैव सत्को रथोऽस्यामेव त्रयोदश्यां प्रवेक्ष्यति वा निष्क्रमिष्यते वा। चारिकर्भणितम् - अलमेतेनाभिनिवेशेन । धरणेन भणितम्नान्यथा मे निर्व तिर्भवति । चारिकर्भणितम् - पौरा अत्र प्रमाणम्। धरणेन भणिलम्--निवेदयत पौरेभ्यः । देवनन्दिना भणितम्-युक्तमेतत्, कोऽत्र दोषः । ततो निवेदितं पौरेभ्यः। बहुमतं च तेषाम् । शब्दायितौ च तयोर्जननीजनको। कथितो वृत्तान्तः, बहुमतश्च तयोरपि । ततः कारितौ शपथं 'न युष्माभिरेतयोः संवाहना (सहायता) कर्तव्या'। शब्दायितौ धरणदेवनन्दिनौ । समर्पित प्रत्येकं तयोः पञ्चदीनारलक्षप्रमाणं भाण्डमौल्यम् । कृतं व्यवस्थापत्रम् ‘य एवैतयोः संवत्सराभ्यन्तरेऽधिकतरद्रविणजातेन पौरुषं प्रकटयिष्यते तस्यैव सत्केन रथवरेण गन्तव्यम , नेतरस्य' । दत्तौ अवश्य पालन करना चाहिए। मैं आप लोगों के द्वारा जगाया गया है तथा मुझे अपने कार्यपर लज्जा उत्पन्न हो रही है, मेरा बड़ा अनादर हुआ। मैं अपने आपको अपरिपक्व मानता हूँ। अतः मुझ पर अनुग्रह कीजिए। इन दोनों रथों को पीछे हटा दीजिए। हम दोनों यहाँ से परदेस को जाते हैं। एक वर्ष में हम दोनों में जो प्रचुर धन का उपार्जन कर यहाँ आकर सत्पुरुषों के योग्य अधिक कार्य करेगा, उसी का ही रथ इसी त्रयोदशी को प्रवेश करेगा, या निकाला जायगा।" मुखियों ने कहा- इस प्रकार की हठ मत करो।" धरण ने कहा-"अन्य प्रकार से मुझे शान्ति नहीं मिल सकती।" मुखियों ने कहा--"इस विषय में नगरनिवासी जन ही प्रमाण हैं।" धरण ने कहा-"नगरनिवासियों से निवेदन करिए।" देवनन्दी ने कहा-'यह उचित है, इसमें क्या हानि है ?" इसके बाद पुरवासियों से निवेदन किया। उन्होंने मान लिया। उन दोनों के माता-पिता को बुलाया गया । वृत्तान्त कहा गया। उन्होंने भी बात मान ली। अनन्तर प्रतिज्ञा करायी गयी----आप लोग इन दोनों की सहायता न करें। धरण तया देवनन्दी को बुलाया गया। उन दोनों में से प्रत्येक को पांच लाख दीनार प्रमाण का माल दिया गया। व्यवस्थापत्र बनाया गया कि इन दोनों में से जो एक वर्ष के अन्दर अधिक धनोपार्जन कर, पुरुषार्थ प्रकट करेगा, सम्मानपूर्वक उसी का रथ जायगा, दूसरे का नहीं। दोनों के हाथ में पत्र दिया गया। १. मे-क, २. बहुयं-क, ३. पउरमेत्य - क, ४; आगंतुण उविट्ठा पणामपुव्वयं इत्यधिक; पाठः क-पुस्तके। . Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छछो भवो] जेहि सहत्था। महियं पत्तयं । छडं पउरभंडारे । निग्गया नियपरिवारपरियरिया महया चडयरेण धरणदेवनंदी; गेण्हिऊण जहोचियं भंडं पयट्ठा देसंतरं, एगो उत्तरावह, अवरो पुव्वदेसं। एत्थं ारम्मि चितियं लच्छीए। दीहाणि देसंतराणि, सुहेण विओओ, दुक्खेण समागमो; ता न याणामो, अंतराले किमहं' पाविस्सं ति । अवावाइओ चेव विउत्तो खु एप्तो । गया य सत्थवाहपुता एगं पयाणयं । पेसियात्री य एएसि बंधुदत्तपंचनंदीहिं सरीरटिइनिमित्तमालोचिय आउच्छिऊग नयरिमहंतए सपरिवाराओ बहूओ, मिलियाओ य एएसि। पइविणपयाणएहिं च गच्छमाणाणं अइक्कंता कइवि दियहा। ___ अन्नया य परिवहते सत्थे दिट्ठो धरणेण एगम्मि वणनिउंजे अच्चंतसोमरूवो उप्पायनिवाए करेमाणो विज्जाहरकुमारओ। गओ तस्स समीवं। पुच्छिओ य एसो। भो किनिमित्तं पुण तुम असंजायपक्खो विय गरुडपोयओ महवियारोवलक्खिज्जमाणनहंगणगमणूसुओ विय उपायनिवाए करेसि। आचिक्ख, जइ अकहणिज्जं न होइ । तओ अहो से भावन्नुयया, अहो आगई, अहो वयणचाभ्यां स्वहस्तौ। मुद्रितं पत्रम्। क्षिप्तं पौरभाण्डागारे । निर्गतौ निजपरिवारपरिवृतौ महताऽऽडम्बरेण धरणदेवनन्दिनौ, गृहीत्वा यथोचितं भाण्डं प्रवृत्तौ देशान्तरम् । एक उत्तरापथम्, अपर: पूर्वदेशम्। " अत्रान्तरे चिन्तितं लक्ष्म्या--दीर्घाणि देशान्तराणि, सुखेन वियोगः, दुःखेन समागमः, ततो न जानामि, अन्तराले किमहं प्राप्स्यामि इति । अव्यापादित एव वियुक्तः खल्वेषः। गतौ च सार्थवाहपुत्रौ एक प्रयाण कम् । प्रेषिते चैतयोर्बन्धु दत्तपञ्चनन्दिभ्यां शरीरस्थिति निमित्तमालोच्य आपृच्छय नगरीमहतः सपरिवारे वध्वौ, मिलिते चैतयोः । प्रतिदिनप्रयाणकैश्च गच्छतोरतिक्रान्ताः कत्यपि दिवसाः। ___ अन्यदा च परिवहति सार्थे दृष्टो धरणेन एकस्मिन् वननिकुञ्जेऽत्यन्तसौम्यरूप उत्पातनिपातान् कुर्वन् विद्याधरकुमारः। गतस्तस्य समीपम् । पृष्टश्चैषः । भोः किनिमित्तं पुनस्त्वमसंजातपक्ष इव गरुडपोतको मुखविकारोपलक्ष्यमाणनभोङ्गणगमनोत्सुक इव उत्पातनिपातान् करोसि । आचक्ष्व यद्यकथनीयं न भवति । 'ततोऽहो तस्य भावज्ञता, अहो आकृतिः, अहो वचनपत्र को मुद्रित किया गया। (इसे) नगर के भाण्डागार (भण्डार) में डाला गया । अपने परिवार से घिरे हुए धरण और देवनन्दी बड़े ठाठ-बाट से निकले, यथोचित माल लेकर दूसरे देश को जाने को प्रवृत्त हुए। एक उत्तरापथ की ओर गया, दूसरा पूर्वदेश की ओर गया। इसी बीच लक्ष्मी ने सोचा- देशान्तर बड़े-बड़े होते हैं, सुख से वियोग होता है, दुःख से समागम होता हैं अतः नहीं जानती हूँ, बीच में मैं क्या पाऊँगी ? यह बिना मारे ही वियुक्त हो गया। व्यापारियों के दोनों पुत्र एक यात्रा पर गये । बन्धुदत्त और पंचनन्दी ने इन दोनों की औरतों को, शरीर की रक्षा के निमित्त सोच-विचार कर तथा नागरिक महापुरुषों से पूछकर परिवार सहित भेज दिया और वे जाकर उनसे मिलीं। काफिले को ले जाते हुए धरण ने वनकुंज में उछलते गिरते हुए एक अत्यन्त सौम्यरूपवाले विद्याधर कुमार को देखा । (वह) उसके समीप में गया और उससे पूछा--"आप किस कारण से जिसके पंख उत्पन्न नहीं हुए हैं ऐसे गरुड़ के बच्चे के समान, जिसके कि मुख से आकाश में उड़ने की उत्सुकता प्रकट हो रही है, उछल-कूद रहे हैं, यदि अकथनीय न हो तो कहो ।” अनन्तर 'अहो इसके भावों की जानकारी, अहो आकृति, अहो वचनों १. किमेत्यं अविस्मई ति-7, २. मानोचिऊ ग पुच्छि ऊग -क । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ [समराइच्चकहा विन्नासो' ति चितिऊण भणियं विज्जाहरेण-भो, सुण ! अहं खु वेयड्ढपव्वए अमरपुरनिवासी हेमकुंडलो नाम विज्जाहरकुमारो अणब्भत्थविज्जो सयनिओयपरो तत्थेव चिट्ठामि, जाव समागओ तायस्स परममित्तो विज्जुमालौ नाम विज्जाहरो। भणिओ यताएण-कुओ तुमं, कोस वा विमणदुम्मणो दीससि । तेण भणियं-विझाओ अहं । विमणदुम्मणत्त पुण इमं कारणं । दिळं मए विझाओ इहागच्छमाणेण उज्जेणीए निव्वेयकारणं। ताएण भणियं-कीइसं निवेयकारणं । विज्जुमालिणा भणियं-सुण! ___ अस्थि उज्जेणीए सिरिप्पहो नाम राया। तस्स रूविणि व्व कुमाउहवेजयंती जयसिरी नाम धूया । सा य पत्थेमाणस्स वि न दिन्ना कोंकणरायपुत्तस्स सिसुवालस्स, दिन्ना य इमेण वच्छेसरसुयस्स परोवपार करणेक्कलालसस्स सिरिविजयस्स । कुविओ सिसुवालो । आगओ जयसिरिविवाहनिमित्तं सिरिविजओ। तओ पारद्धे महाविभूईए विवाहमहूसवे निग्गया मयणवंदणनिमित्त समालोचिय विहाएणमवक्खंदं दाऊणं अवहरिया सिसुवालेग जयसिरी । उट्ठाइओ" कलयलो। विन्यासः' इति चिन्तयित्वा भणितं विद्याधरेण-भोः ! शृणु । अहं खलु वैताढ्यपर्वतेऽमरपुरनिवासी हेमकुण्डलो नाम विद्याधरकुमारोऽनभ्यस्तविद्यः स्वनियोगपरस्तत्रैव तिष्ठामि, यावत् समागतस्तातस्य परममित्रं विद्युन्माली नाम विद्याधरः । भणितश्च तातेन-कुतस्त्वम्, कस्माद् वा विमनस्कदुर्मनस्को दृश्यसे । तेन भणितम् - विन्ध्यादहम्, विमनोदुर्मनस्त्वे पुनरिदं कारणम् । दृष्टं मया विन्ध्यादिहागच्छता उज्जयिन्यां निर्वेदकारणम् ।तातेन भणितम्- कीदृशं निर्वेदकारणम् । विद्युन्मालिना भणितम् --शृणु ! अस्त्युज्जयिन्यां श्रीप्रभो नाम राजा । तस्य रूपिणीव कुसुमायुधवैजयन्ती जयश्री म दुहिता। सा च प्रार्थयमानस्यापि न दत्ता कोकणराजपुत्रस्य शिशुपालस्य, दत्ताऽनेन वत्सेश्वरसुतस्य परोपकारकरणकलालसस्य श्रीविजयस्य । कुपितः शिशुपालः । आगतो जयश्रीविवाहनिमित्त श्रीविजयः। ततः प्रारब्धे महाविभूत्या विवाहमहोत्सवे निर्गता मदनवन्दननिमित्त समालोच्य विहायसाऽवस्कन्दं दत्त्वाऽपहृता शिशुपालेन जयश्रीः । उत्थितः कलकलः । ज्ञातो वृत्तान्तः श्रीविजयेन । लग्नो मार्गतः । का विन्यास !'- ऐसा सोच कर विद्याधर ने कहा- "आप सुनिए, मैं वैताढ्य पर्वत पर स्थित अमरपुर का निवासी हेमकुण्डल नामक विद्याधर कुमार, जिसने विद्या का अभ्यास नहीं किया है, अपने कार्य में लगा हुआ तब तक ठहरूंगा जब तक पिता जी के परममित्र विद्यु-माली विद्याधर आते हैं।" पिताजी ने कहा-तुम कहाँ से आये हो खिन्न और उदास क्यों दिखाई दे रहे हो ?" उसने कहा--"मैं विन्ध्य से आया हूँ, खिन्न और उदास होने का यह कारण है-मैंने विप से यहाँ आते हए उज्जयिनी में वैराग्य का कारण देखा।" पिताजी ने कहा-"कैसा वैराग्य का कारण ?' विद्युन्माली ने कहा - "सुनिए ! उज्जयिनी में 'श्रीप्रभ' नामका राजा है। उसकी 'जयश्री' नाम की पुत्री है जो रूप में मानो कामदेव की पताका है । वह प्रार्थना किये जाने पर भी 'कोकणराज' के पुत्र 'शिशुपाल' को नहीं दी गई, उसे वत्सेश्वर के पुत्र श्रीविजय' को दिया गया, जो कि परोपकार करने की एकमात्र लालसा वाला है। शिशुपाल कुपित हो गया। जयश्री के विवाह के निमित्त श्रीविजय आया। पश्चात् भाग्य से महान विभूति से युक्त होकर विवाह महोत्सव में काम की वन्दना के निमित्त निकली हुई जयश्री को देखकर आकाशमार्ग से आक्रमणकर शिशुपाल ने जयश्री का हरण कर लिया। कोलाहल हो गया। श्रीविजय ने वृत्तान्त जाना। (उसने) शीघ्र ही (उसे) खोज १. संवुत्तो-क, २. महानिव्वेय -ख; ३. रूविन्व-क, ख । ४, सिसुगालस्स-ख, ५. इमेणसिरिप्पहनरवइणा-क, ६. मयण पूपा निमित्त', ७. उद्धाइओ-ख । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ8ो भवो] मुणिओ वुत्तंतो सिरविजएणं। लग्गो मग्गओ । समासाइओ सिसुवालो। आवडियमाओहणं । गाढपहारीकएणं च जेऊण सिसुवालं नियत्तिया जयसिरी। पहारगरुययाए य सो महाणुभावो पाणसंसए वट्टए । सा वि रायधूया 'न अहमेयस्मि' अकयपाणभोयणे पाणवित्ति करेमि'त्ति वामकरयलपणामियवयणपंकया अणाचिक्खणीयं अवत्थंतरमणुहवंती दुवखेण चिट्ठइ ॥ एयं मे एत्थ कारणं । ताएण भणिय । ईइसो एस संसारो । खेल्लणयभूया ख एत्थ कम्मपरिणईए पाणिणो। ता अलं निव्वेएण । तमो मए चितियं-साहियं मे कल्लं चेव हिमवंतपव्वयगयस्स दरिहरूग्गयं महोसहिमवलोइऊण गंधवरइनामेण गंधवकुमारेण मम वयंस एण। जहा भो हेमकंडल, सच्चो ख एस लोयवाओ, जं अचितो हि मणिमंतोसहीणं पभावो ति, जओ एयाए ओसहीए एसो पहावो, जेण विदारियट्ठी वि खग्गाइपहारो' इमीए पक्खालणोयएणं पि पणट्टवेयणं तक्खणा चेव रुज्झइ ति। दिद्रुपच्चया य मए सा । ता गच्छामि अहयं हिमवंतं गेण्हिऊण तयं ओसहि उवणेमि सिरिविजयस्स। तओ सुमरिऊण कहंचि गयणगामिणि विज्जं गओ हिमवंतपव्वयं । गहिया ओसही । ओइण्णो समासादित: शिशुपालः। आपतितमायोधनम्। गाढप्रहारीकृतेन च जित्वा शिशुपाल निर्वतिता जयश्री: । प्रहारगुरुकतया च स महानुभाव: प्राणसंशये वर्तते। साऽपि राजदुहिता 'नाहमेतस्मिन्नकृतपानभोजने प्राणवृत्ति करोमि' इति वामकरतलापितवदनपङ्कजाऽनाख्यानीयमवस्थान्तरमनुभवन्ती दुःखेन तिष्ठति । एतन्मेऽत्र कारणम् । तातेन भणितम् - ईदृश एष संसारः । खेलनकभूताः खल्यत्र कर्मपरिणत्याः प्राणिनः । ततोऽलं निर्वेदेन। ततो मया चिन्तितम्-कथितं मे कल्ये एव हिमवत्पर्वतगतस्य दरीगहोद्गतां महौषधिमवलोक्य गान्धर्व रतिनाम्ना गान्धर्वकुमारेण मम वयस्येन । यया भो हेमकुण्डल ! सत्यः खल्वेष लोकवादः, यदचिन्त्यो हि मणिमन्त्रौषधीनां प्रभाव इति । यत एतस्या ओषध्या एष प्रभावः, येन विदारितास्थिरपि खङ गादिप्रहारोऽस्याः प्रक्षालनोदकेनापि प्रनष्टवेदनं तत्क्षणादेव रुह्यते इति। दृष्टप्रत्यया च मया सा । ततो गच्छाम्यहं हिमवन्तं गृहीत्वा तामोषधिमुपनयामि श्रीविजयाय । ततः स्मृत्वा कथञ्चिद् गगनगामिनी विद्यां लिया। शिशुपाल प्राप्त हुआ। (वह) योद्धा (भी) आया । (उसने) गाढ़ प्रहार से युक्त होकर शिशुपाल को जीतकर जयश्री को मुक्त करा लिया। गाढ़ प्रहार के कारण उस महानुभाव के प्राण संशय में हैं । वह राजपुत्री भी'यह जब तक भोजन-पान नहीं करेंगे, तब तक में अन्नपान ग्रहण नहीं करूँगी'- इस प्रकार बायीं हथेली पर मुखकमल रखे हए अनिर्वचनीय अवस्था का अनुभव करती हई दुःख से बैठी है-यही मेरे वैराग्य का कारण है।" पिताजी ने कहा--"यह संसार ऐसा ही है । प्राणियों की कर्मपरिणति खिलौने के समान है, अतः दुःखी मत होओ।" तब मैंने सोचा- "गन्धर्व रति नामक मेरे प्रिय मित्र गान्धर्वकुमार से हिमालय पर्वत की गुफा से निकली हुई औषधि को देखकर कल ही कहा था-अरे हेममण्डल ! यह लोककथन बिलकुल सत्य है कि मणि, मन्त्र और औषधियों का प्रभाव अचिन्त्य होता है। इस औषधि का यह प्रभाव है कि तलवार आदि के प्रहार से टूटी हुई भी हड्डी इसके धोने से बचे हुए जल से उसी क्षण जुड़ जाती है और वेदना भी नष्ट हो जाती है। मैंने इस विश्वास को देखा है । अत: मैं हिमालय को जाता हूँ और इस औषधि को लेकर श्रीविजय के लिए लाता हूँ। अनन्तर कोई आकाशचारिणी विद्या का स्मरण कर हिमालय पर्वत पर गया । औषधि ग्रहण की। हिमालय पर्वत से उतरा । 'श्रीविजय १. नाहमेयम्मि-क, २. खलणय-क, ३, खग्गाइपहारेण-क, ४, मम एसा-ख । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ [ समराइच्चकहा हिमवंताओ। 'मा सिरिविजस्स अच्चाहियं भविस्सइ' ति पडिनियतो एण। पत्तो एवं निउज्ज, खोणयाए वेयागमणेग वीसमणनिमित्तं ओइग्णो इहइं, कयं चलणसोयं उबविट्ठो कुरवयपायवसमीवे, ठिओ महत्तमेतं, उच्चलिओ य उज्जेणि । सुमरिया गयणगामिणी विज्जा जाव अहिणवगिहीयतणेण' गमणसंभमेण य विसुमरियं मे पयं । तओ सा न वहइ त्ति उप्पाय निवाए करेमि। धरणेण भणियंभो एवं ववस्थिए को इह उवाओ। हेमकुंडलेण भणियं-नस्थि उवाओ । अओ चेव रायउत्तविणास संकाए उत्तम्मइ मे हिययं, पणस्सइ मे मई। सव्वहा न अप्पपुण्णाणं समीहियं संपज्जइ त्ति दढं विसण्णो मिह । धरणेण भणियं--भो अस्थि एस कप्पो, जं सा अन्तस्स' समक्खं पढिज्जइ । हेमकंडलेण भणियं-'अत्थि'। धरणेण भणियं--जइ एवं, ता पढ; कयाइ अहं ते पयं लहामि । तओ हेमकंडलेग 'नथि अविसओ पुरिससामथस्स' ति चितिऊण सामन्नसिद्धि काऊण पढिया विज्जा। पयाणसारित्तणेण लद्धं पयं धरणेण । साहियं हेमकुंडलस्स । परितुहो एसो । भणियं चे जेण-भो भो महापुरिस, दिन्नं तर जीवियं मम समीहियसंपायणेण रायउत्तरस, ता कि ते करेमि । धरणेण गतो हिमवत्पर्वतम् । गृहीतौषधिः । अवतीर्णो हिमवतः । ‘मा श्रीविजयस्यात्याहितं भविष्यति' इति प्रतिनिवृत्तो वेगेन । प्राप्त एतद् निकुञ्जम् । क्षीणतया वेगागमनेन विश्रमणनिमित्तमवतीर्ण इह । कृतं चरणशौचम्, उपविष्ट: कुरवकपादपसमीपे, स्थितः मुहूर्तमात्रम्, उच्चलितश्चोज्जयिनीम् । स्मृता गगनगामिनी विद्या, यावदभिनवगृहीतत्वेन गगनसम्भ्रमेण च विस्मृतं मया पदं । ततः सा न वहतीति उत्पातनिपातान् करोमि। धरणेन भणितम्-भो एवं व्यवस्थिते क इहोपायः । हेमकुण्डलेन भणितम्-नास्त्युपायः । अत एव राजपुत्रविनाशशङ्कया उत्ताम्यति मे हृदयम्, प्रणश्यति मे मतिः । सर्वथा नाल्पपुण्यानां समीहितं सम्पद्यते इति दृढं विषण्णोऽस्मि । धरणेन भणितम्-भो अस्त्येष कल्पः, यत्साऽन्यस्य समक्षं पठ्यते । हेमकुण्डलेन भणितम् –'अस्ति' । धरणेन भणितम्यद्येवं ततः पठ, कदाचिदहं तव पदं लभे। ततो हेमकुण्डलेन 'नास्त्यविषयः पुरुषसामर्थ्यस्य' इति चिन्तयित्वा सामान्यसिद्धि कृत्वा पठिता विद्या। पदानुसारित्वेन लब्धं पदं धरणेन । कथितं हेमकुण्डलाय । परितुष्ट एषः । भणितं च तेन--भो भो महापुरुष ! दत्तं त्वया जीवितं मम समीहित का कोई अनिष्ट न हो' अतः वेग से लौटा। इस निकुंज में आया। शीघ्र आने के कारण थक जाने से यहाँ उतर पड़ा। पैरों को धोया। कुरबक वृक्ष के समीप बैठ गया। क्षणभर बैठा रहा । (बाद में) उज्जयिनी के लिए चल पड़ा। आकाशगामिनी विद्या का स्मरण किया। नये रूप में ग्रहण करने तथा आकाश में चलने की घबराहट के कारण मैं एक पद भूल गया । अतः वह चल नहीं रही है, इस कारण ऊपर जाता हूँ और नीचे आता हूँ। धरण ने कहा-"अरे, ऐसी स्थिति में अब क्या उपाय है ?" हेमकुण्डल ने कहा--"उपाय नहीं है अतः राजपुत्र के विनाश की आशंका से मेरा हृदय आकुल-व्याकुल हो रहा है, मेरी बुद्धि नष्ट हो रही है । अल्प पुण्य वालों का इष्ट कार्य सब प्रकार से सम्पन्न नहीं होता है-ऐसा सोचकर मैं बहुत अधिक दुःखी हूँ।" धरण ने कहाउपाय है । क्या वह दूसरे के सामने पढ़ा जाता है ?" हेमकुण्डल ने कहा- "पढ़ा जाता हैं।" धरण ने कहा-"यदि ऐसा है तो पढ़ो, कदाचित् मैं तुम्हारे पद को ढूंढ निकालूं ।" तब हेमकुण्डल ने 'पुरुष की सामर्थ्य के बाहर की कोई बात नहीं है'-ऐसा सोच कर सामान्य सिद्धिकर विद्या को पढ़ा। पद के अनुसार धरण को पद मिल गया । (उसने) हेमकुण्डल से कहा । वह (हेम कुण्डल) सन्तुष्ट हुआ । उसने कहा-'हे हे महापुरुष ! मेरे योग्य कार्य का १, गहीयत्तणेण -क, २, अन्नाणं वि --- । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो भवो] ४६७ भणियं-कयं ते करणिज्ज; गच्छ समीहियं संपाडेहि। तओ हेमकुंडलेण 'अहो से महाणुभावय' त्ति चितिय परत्थं करेज्जासि त्ति भणिऊण दिन्नं ओसहिवलयखंडं। पणयभगभीरुत्तणेण गहियं च णेण । गओ विज्जाहरो, आगओ च धरणो निययसत्थं । अइक्कंता कहवि दियहा ॥ अन्नया य गिरिनइतीरम्मि समावासिए सत्थे गवलजलयवण्णा वेल्लिनिबद्धद्धकेसहारा वक्कलद्धनिवसणा कण्णियकोडंडवावग्गहत्या सुणयवंद्रसंगया सदुक्खं रुयमाणा दिट्ठा धरणेण नाइदूरगामिणा सवरजुवाण त्ति। सद्दाविया गेण पुच्छिया य । भो किंनिमित्तं रुयह त्ति। तेहिं भणियं-अज्ज, अस्थि अम्हाणं कालसेणो नाम पल्लीवई। जस्स इह विम्हियाओ सत्तिनियाणाणि चितयंतीओ। न समल्लियंति दुग्गं परचक्कभए वि वाहीओ॥४८३॥ एक्कसरघायलद्धा जस्स य करिकुंभदारणेक्करसा। न वि विहलंतसरोरा गच्छंति पयं पि केसरिणो ॥४८४॥ सम्पादनेन राजपुत्राय, ततः किं ते करोमि । धरणेन भणितम् -कृतं त्वया करणीयम्, गच्छ समीहितं सम्पादय । ततो हेमकुण्डलेन 'अहो तस्य महानुभावता' इति चिन्तयित्वा परार्थे कुर्याः' इति भणित्वा दत्तमोषधिवलयखण्डम् । प्रणयभङ्गभीरुत्वेन गृहीतं च तेन । गतो विद्याधरः, आगतश्च धरणो निजसार्थम् । अतिक्रान्ताः कत्यपि दिवसाः ।। अन्यदा च गिरिनदीतीरे समावासिते सार्थे गवलजलदवर्णा वल्लीनिबद्धोर्ध्वकेशहारा वल्कलाधनिवसनाः कणिङ्ककोदण्डव्यापृताग्रहस्ताः शुनकवन्द्रसङ्गताः सदुःखं रुदन्तो दृष्टा धरणेन नातिदूरगामिना शवरयुवान इति । शब्दायितास्तेन पृष्टाश्च । भोः किंनिमित्तं रुदितेति । तैर्भणितम्-आर्य ! अस्त्यस्माकं कालसेनो नाम पल्लिपतिः। यस्येह विस्मिता शक्तिनिदानानि चिन्तयन्त्यः । न समालीयन्ते समाश्रयन्ति) दुर्ग परचक्रभयेऽपि व्याध्यः (व्याधपत्न्यः)॥४८३।। एकशरघातलब्धा (प्राप्ता) यस्य च करिकुम्भदारणैकरसाः । नापि विह्वलच्छरीरा गच्छन्ति पदमपि केसरिणः ॥४८४।। सम्पादन कर तुमने राजपुत्र को जीवित कर दिया, अतः तुम्हारा क्या (उपकार) करूँ !" धरण ने कहा-आपने करने योग्य कार्य को कर दिया, जाओ, इष्ट कार्य को पूरा करो।" तब हेमकुण्डल ने 'अहो इसकी महानुभावता'ऐसा सोचकर 'परोपकार करना चाहिए'-ऐसा कहकर औषधि का टुकड़ा दे दिया। प्रार्थना के भङ्ग होने के डर से उसने ग्रहण कर लिया। विद्याधर गया, धरण अपने डेरे पर आया । कुछ दिन बीत गये। दूसरी बार पर्वतीय नदी के किनारे काफिले के पहुंचने पर नीले मेघ के समान वर्णवाली, लता से ऊँचा जूड़ा बांधे हुए, पेड़ की छाल का आधा वस्त्र पहिने हुए, धनुष की प्रत्यंचा में हथेली को लगाये हुए, कुत्तों के झुण्ड से युक्त, दुःखसहित रोते हुए शबर युवकों को धरण ने देखा । उसने (धरण ने उन्हें बुलाया और पूछाकिस कारण से रो रहे हो?" उन्होंने कहा-"आर्य ! मेरा कालसेन नामक भीलों का स्वामी था। जिसकी शक्ति और श्रम का विचार करते हुए व्याध की पत्नियाँ शत्रुओं का भय उपस्थित होने पर भी दुर्ग का आश्रय नहीं लेती हैं। एक बाण के मारने से हाथी का गण्ड स्थल प्राप्त करना ही जिसका एक रस है और विह्वलशरीर वाले सिंह भी (जिसके भय के कारण) थोड़े से भी आगे नहीं बढ़ते हैं ॥४८३-४८४।। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइच्चकहा . सोख केसरी आगओ त्ति आयण्णिय घेत्तण कोदंड' कण्णियसरं च एगागी चेव निग्गओ पल्लीओ।न दिवो य ण नग्गोहपायवंतरिओ केसरी। गओ तस्स समीवं । गहिओ य णेण पद्रिदेसे । वावाइओ तेण बलिऊण कट्टारएण' केसरी। तेण वि य से तोडियं उत्तिमंगखंडं। तओ सो 'नत्थि मे जीवियं ति मन्नमाणो जलणपवेसं काउमारद्धो। मुणिओ से एस वृत्तंतो गेहिणीए। तओ सा वि आवन्नसत्ता तं चेव काउं ववसिया, वारिया वि पल्लीवइणा न विरमइ ति। तओ तेण पेसिया अम्हे तीए संधारणत्थं पिउणो से आणयणनिमितं । वीररसपहाणो खु सो सयणवच्छलो य । तान याणामो, कि पडिवज्जिस्सइ त्ति। महादुक्खपीडिया असमत्था य धरिउ इमं सोयाइरेयं अविज्जमाणोवाया य पडिवज्जिऊण इत्थियाभावं केवलं स्यम्ह । धरणेण भणियं-भद्दा, अलं सोएण। दंसेहि मे तं पल्लीवई। कयाइ जीवावेमि अहयं । तओ चलणेसु निवडिऊण हरिसवसुप्फुल्लोयणेहिं जंपियं सवरेहि-अज्ज, एवं तुम देवावयारो विय आगईए। ता तुमं चेव समत्थो सि देवं समासासेउं । अन्नं च। जइ अम्हेसु अणुग्गहबुद्धी अज्जस्स, ता तुरियं गच्छउ अज्जो; मा तस्स महाणुभावरस अच्चाहियं __स खलु केसरी आगत इत्याकर्ण्य गृहीत्वा कोदण्डं कणिकशरं च एकाक्येव निर्गतः पल्लितः । न दृष्टश्चानेन न्यग्रोधपादपान्तरितः केसरी । गतस्तस्य समीपम् । गृहीतश्च तेन पृष्ठदेशे। व्यापादितस्तेन वलित्वा कद्रारकेन केसरी । तेनापि च तस्य तोडितमत्तमाङ्गखण्डम । ततः स 'नास्ति मे जीवितम्' इति मन्यमानो ज्वलनप्रवेशं कर्तुमारब्धः । ज्ञातस्तस्यैष वृत्तान्तो गेहिन्या। ततः साऽपि आपन्नसत्त्वा तमेव कतु व्यवसिता, वारिताऽपि पल्लिपतिना न विरमतीति । ततस्तेन प्रेषिता वयं तस्याः संधारणार्थं पितुस्तस्या आनयननिमित्तम् । वीररसप्रधानः खलु स स्वजनवत्सलश्च । ततो न जानीमः किंः प्रतिपत्स्यत इति । महादुःखपीडिता असमर्थाश्च धर्तुमिमं शोकातिरेकम्, अविद्यमानोपायाश्च प्रतिपद्य स्त्रीभावं केवलं रुदिमः । धरणेन भणितम्- भद्रा ! अलं शोकेन । दर्शय मे तं पल्लीपतिम्, कदाचिज्जीवयाम्यहम् । ततश्चरणयोर्निपत्य हर्षवषोत्फुल्ललोचनैर्जल्पितं शबरैःआर्य! एवं त्वं देवावतार इवाकृत्या। ततस्त्वमेव समर्थोऽसि देवं समाश्वासितुम् । अन्यच्च, यद्यस्मास्वनुग्रहबुद्धिरार्यस्य ततस्त्वरितं गच्छत्वार्यः, भा तस्य महानुभावस्यात्याहितं भवेत् । ततो 'वह सिंह आ गया'--ऐसा सुनकर कणिकशर और धनुष को हाथ में लेकर अकेला ही भीलों की बस्ती से निकल पड़ा । उसने वटवृक्ष के पीछे छिपे हुए सिंह को नहीं देखा । वह उसके समीप गया । उसने पीछे से उसे पकड़ लिया। उसने घूमकर कटार से सिंह को मार डाला। उस सिंह ने भी उसके शिर के एक भाग को तोड़ दिया। इसके बाद उसने 'मेरी आयु शेष नहीं है' ऐसा मानकर अग्निप्रवेश करने की तैयारी की। उसके इस वृत्तान्त को उसकी पत्नी ने भी जाना। तब उसने गर्भिणी होते हुए भी वही करने का निश्चय किया । भीलों के स्वामी द्वारा रोके जाने पर भी वह नहीं रुक रही थी। तब उसको ढाढस बंधाने के लिए उसने हमें उसके पिता को लाने के निमित्त भेजा है । वह वीर रस प्रधान तथा अपने लोगों के प्रति स्नेहयुक्त है। अतः नहीं जानते हैं वह किस अवस्था को प्राप्त हुआ होगा। अत्यधिक दुःख से पीडित और असमर्थ होकर शोक के इस आधिक्य को धारण करने में असमर्थ होकर और कोई उपाय न होने से स्त्री स्वभाव के अनुसार केवल रो पड़े । धरण ने कहा-"शोक मत करो। उस भोलों के स्वामी को मुझे दिखाओ, कदाचित् मैं उसे जीवित कर दूं।" अनन्तर चरणों में पड़ हर्ष के वश विकसित नेत्रों वाले शबरों ने कहा-"आर्य ! इस प्रकार आकृति से (आप) देवताओं के अवतार हो अत: मेरे स्वामी को जिलाने में आप ही समर्थ हो । आर्य तुरन्त चलिए, उन महानुभाव का कोई अनिष्ट न हो।" १. कोडंडं २. झुरियाए - क, ३. जीयं-क, ४. पल्लि-क, ५. -लोपणं पयंपियं-क। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठी भवो] કહે भवे । तओ घेत्तण विज्जाहरविइण्णं ओसहिवलयं आरुहिय वेसरं कइवयनियपुरिसपरिवारिओ तुरियतुरियं गओ सत्थवाहपुत्तो। दिट्ठो य तेणं नग्गोहपायवतलम्मि चियगासन्नसंठिओ रुहिरधारापरिसित्तगत्तो सिणेहसारमसह च रोवमाणीए' जायाए संगओ कालसेणो। निवेइओ से वृत्तंतो सवरजुवाणएण । अन्भुट्ठमाणो य मुच्छानिमीलियलोयणो निवडिओ धरणिवढे । धरणेण भणियं । उदयमुदयं ति । तओ आणीयमुदयं नलिणिपत्तेणं। छूढमोसहिवलयं दाऊणमुत्तिमंगखडं। सित्तोय पेण, जाव अचितयाए ओसहिपहावस्त पुबरूवाओ वि अहिययरं दसणीओ अलक्खिज्जमाणवणविभाओ उढिओ कालसेणो । तुट्ठा य से धरिणी सह परियणेण । चलणेसु निवडिऊण भणियं च णेणअज्ज, पिययमाजीयरक्खणेणं संपाडियमहापओयणा तुह संतिया पाणा; किमेत्थ अवरं भणीयइ । धरणेण भणियं-सव्वसाहारणा चेव महापुरिस, पाणा हवंति। किमेत्थ असियं । कालसेणेण भणियंता आइसउ अज्जो, जं मए कायवं ति। धरणेण भणियं-महापुरिसो खु तुम; ता कि अवरं गृहीत्वा विद्याधरवितीर्णमोषधिवलयमारुह्य वेसरं कतिपयनिजपुरुषपरिवृतस्त्वरितत्वरितं गतः सार्थवाहपुत्रः । दृष्टस्तेन न्यग्रोधपादपतले चितासन्नसंस्थितो रुधिरधारापरिषिक्तगात्रः स्नेहसारमशब्दं च रुदत्या जायया सङ्गतः कालसेनः । निविदितस्तस्य वृत्तान्तः शबरयूना। अभ्युत्तिष्ठंश्च मूर्छानिमीलितलोचनो निपतितो धरणीपृष्ठे। धरणेन भणितत्–'उदक मुदकमिति'। तत आनीतमुदकं नलिनीपत्रेण । क्षिप्तमोषधिवलयं दत्त्वोत्तमाङ्गखण्डम् । सिक्तस्तेन, यावदचिन्त्यतया ओषधिप्रभावस्य पूर्वरूपादप्यधिकतरं दर्शनीयोऽलक्ष्यमाणव्रणविभाग उत्थितः कालसेनः । तुष्टा च तस्य गृहिणी सह परिजनेन। चरणयोर्निपत्य भणितं च तेन-आर्य ! प्रियतमाजीवितरक्षणेन सम्पादितमहाप्रयोजनास्तव सत्काः प्राणाः, किमत्रापरं भण्यते। धरणेन भणितम्-सर्वसाधारणा एव महापुरुष ! प्राणा भवन्ति, किमत्राधिकम् । कालसेनेन भणितम्-तत आदिशत्वार्यः, यन्मया कर्तव्यमिति । धरणेन भणितम्--महापुरुषः खलु त्वम्, ततः किमपरं भण्यते, तथापि सत्त्वेषु दया । अनन्तर विद्याधर के द्वारा दी गयी औषधिसमूह को लेकर खच्चर पर चढ़कर कतिपय निजपुरुषों से घिरा हुआ सार्थवाह-पुत्र शीघ्रातिशीघ्र गया। उसने वटवृक्ष के नीचे चिता के समीप स्थित कालसेन को देखा, जिसके कि शरीर से खून की धारा वह रही थी तथा स्नेह से भरी हुई, बिना शब्द के रोती हुई पत्नी जिसके साथ थी। शबर युवक ने उसका वृत्तान्त निवेदन किया । मूर्छा के कारण नेत्र ब द किये हुए वह उठा और पृथ्वी पर गिर पड़ा। धरण ने कहा 'पानी (लाओ) पानी'। अनन्तर कमलिनी के पत्ते (दोना) में पानी लाया गया। दोना में औषधिसमूह को डालकर सिरपर लगाया गया। उससे (औषधि के पानी से) सींचा । औषधि के अचिन्तनीय प्रभाव से पहले से भी अधिक दर्शनीय होकर, जिसके घाव का भाग दिखाई नहीं पड़ रहा है, ऐसा कालसेन उठ खड़ा हुआ । उसकी पत्नी परिजनों के साथ सन्तुष्ट हुई। चरणों में गिरकर उसने (कालसेन ने) कहा- "आर्य ! प्रियतमा के जीवन की रक्षा करने से जिसने महान् प्रयोजन की सिद्धि की है ऐसे आपके सत्कार में मेरे प्राण (उपस्थित) हैं और क्या कहा जाय।" धरण ने कहा- हे महापरुष! प्राण तो सभी को आवश्यक होते हैं और अधिक क्या कहूँ ?" कालसेन ने कहा-"तो आर्य ! मेरे योग्य कर्तव्य का आदेश दें।" धरण ने कहा-"तुम पुरुष हो अतः क्या कहें ? तथापि प्राणियों पर दया करनी चाहिए।" कालसेन ने कहा-'आर्य के वचनों के अनुसार १. रोयमाणीए-क, २. पोइणिवत्तेहि-क, ३. छोढ़णमो-क, ४. णमोसहिधोवउदएण-क। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० [समराइच्चकहा भणीय तहा वि सत्तेसु क्या। कालसेणेण भणियं-परिवज्जिया जावज्जीवमेव मए अज्जवयण पारद्धी । धरणेण भणियं--कयं मे करणिज्जं । तओ गओ सत्यवाहपुत्तो निययसत्थं । अइक्कंता कइवि दियहा अणवरयपयाणएण'। विट्टो य ग पक्खसंधीए उववासहिएणं आयामुहीसन्निवेसम्मि आवासिए सत्थे जरचीरनिबसणो गेरुतविलित्तसव्वात्तो खंधदेसारोवियतिक्खसूलिओ अचोरो चेव चोरो ति करिए गहिओ वज्जतविरसडिडिमं वज्झत्थामं नीयमाणो चंडालजुवाणओ त्ति । तेण वि य महंतं सत्थमवलोइय सुद्धयाए आसयस वल्लयाए जीवियस्स तस्स समोवमि चेव महया सद्देण जंपियं । भो भो सत्थिया, सुमेह तुब्भे । महासरनिवासी मोरिओ नाम चंडालो अहं, कारणेण य कुसत्थलं पयट्टो, विष्पलद्धबुद्धीहि य दंडवासिएहि अपेच्छिऊण चोरे अदोसयारी चैव मंदभागो गिहीओ म्हि । ता मोयादेह, भो मोयावेहसरणागओ अहं अज्जाणं। अन्नंच, मरणदुक्खाओ वि मे इयमन्भहियं, जंतहाविहनिक्कलंकपुनपुरिसज्जियस्स जसस्स विणा वि दोसेणं मइलण त्ति । ता मोयावेह भो मोयावेह ! तओ सुद्धचित्तयाए चितियं धरणेण । न खलु दोसयारी एवं कालसेनेन भणितम् --परिवजिता यावज्जीवमेव मयाऽऽयवचनेन पापद्धिः । धरणेन भणितम्-कृतं मे करणीयम् । ततो गतः सार्थवाहपुत्रो निजसार्थम् । अतिक्रान्ता कत्यपि दिवसा अनवरतप्रयाणकेन । दृष्टस्तेन पक्षसन्धौ उपवासस्थितेन आयामुखीसन्निवेशे आवासिते सार्थे जरच्चीरनिवसनो गेरुकविलिप्तसर्वगात्रः स्कन्धदेशारोपिततीक्ष्णशूलिकोऽचोर एव चोर इति कृत्वा गृहीतो वाद्यमानविरसडिण्डिमं वध्यस्थानं नीयमानश्चण्डालयुवेति । तेनापि च महान्तं सार्थमवलोक्य शुद्धतयाऽऽशयस्य वल्लभतया जीवितस्य तस्य समीप एव महता शब्देन जल्पितम् -भो भोः साधिका: ! शृणुत यूयम्, महाशरनिवासी मौर्यो नाम चण्डालोऽहम्, कारणेन च कुशस्थलं प्रवृत्तः, विप्रलब्धबुद्धिशिश्च दण्डपाशिकरप्रेक्ष्य चौरान् अदोषकार्येव मन्दभाग्यो गृहीतोऽस्मि । ततो मोचयत भो भोचयत, शरणागतोऽहमार्याणाम् । अन्यच्च मरणदुःखादपि मे इदमभ्यधिकम् , यत्तथाविधनिष्कलङ्कपूर्वपुरुषार्जितस्य यशसो विनापि दोषेण मलिनतेति । ततो मोचयत भो मोचयत । ततः शुद्धचित्ततया चिन्तितं धरणेन । न खलु दोषकारी पाप को बढ़ाने वाली हिंसा का जीवन भर के लिए त्याग कर दिया।" धरण ने कहा- 'जो मेरे योग्य कार्य था, उसे मैंने कर दिया।" अनन्तर सार्थवाहपुत्र अपने पड़ाव की ओर चला गया। निरन्तर गमन करते हुए कुछ दिन बीत गये । उपवास में स्थित उसने पास में वर्तमान आयामुखी सन्निवेश में अपने सार्थ को आवासित कर देने के बाद जीर्णशीर्ण कपड़ों को पहने हुए, गेरू से जिसका सारा शरीर लिप्त था, कन्धे पर जिसके तीक्ष्ण शूल रखी थी, चोर न होने पर भी जो चोर मानकर पकड़ा गया था; नीरस डिण्डिमनाद जहाँ हो रहा था ऐसे वध्यस्थान को ले जाये जाते हुए चाण्डाल युवक को देखा । उसने भी बड़े व्यापारियों के समह को देखकर आशय की शद्धता तथा प्राणों के प्रति प्रेम के कारण उसके समीप ही जोर से कहा-हे हे व्यापारियो, आप सब सुनें ! 'महाशर' का निवासी 'मौर्य' नामक चाण्डाल हूँ। किसी कारणवश कुशस्थल गया । ठगने की बुद्धि रखनेवाले सिपाहियों के द्वारा चोरों के न दिखाई पड़ने पर बिना दोष किये ही भाग्यहीन मैं पकड़ लिया गया हूँ। अत: 'छुड़ाओ, छुड़ाओ', मैं आर्य लोगों की शरण में हूँ। दूसरी बात जो कि मरण के दुःख से भी अधिक बढ़कर है, वह यह कि दोष के बिना भी पूर्वपुरुषों द्वारा उपार्जित उस प्रकार के १. पयाणएहिं वच्चमाणेण-क, २. कुलजसस्स-क । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ १ छट्ठी भवो ] जंप | करुणापत्रेण भणि या गण आरविखया - भो भो कुलउत्तया, मम कएण विहीरह मुहुत्तयं, जाब एयमंतरेण विन्नविऊण नरवई दविणपयाणेणावि मोयावेमि एयं । तेहि भणियं - जइ एवं, तालहु होहि । तओ घेत्तूण नरिददरिसगनिमित्तं दोणारसय सहस्समुल्लं मुत्ताहलमालं गओ नरइसी । दिट्ठो य ण राया। साहिऊण वृत्तंतं विन्नत्तो चंडालमंतरेण नरवई । कओ से पसाओ । दूयसहिओ व तहस मोक्खणनिमित्तं आगओ तमुद्देसं । मोयाविओ एसो । 'तुम्भे इमल्स जीवियदायग' ति भणिऊण पूइया आरक्खिया । देवाविऊण' पाहेयं भणिओ य चंडालो । भद्द, संपाडेहि समीहियं । 'अज्ज, मा तु सा अवस्था हवउ, जीए मए चिय पओयणं' ति भणिऊण [ कथंजलिउडो खिइनिमियजाणुकरयल मुत्तिमंगो पणमिऊण सत्यबाहपुत्तं" ] गओ चंडालो | धरणो विय कइवयपयाणएहि पत्तो उत्तरावहतिलयभूयं अयलउरं नाम पट्टणं । दिट्टो य राया। बहुमन्तिओ तेणं । विभागसंपत्तीए य विक्कि नियमणेण मंडं । समासाइओ अट्टगुणो लाभो । for area aafaarयनिमित्तं चत्तारि मासे । पुष्णोयएणं च विदत्तं पभूयं दविणजायं । संखावियं एवं जल्पति । करुणाप्रपन्नेन भणितास्तेन आरक्षका :- भो भोः कुलपुत्रा ! मम कृतेन प्रतीक्षध्वं मुहूर्तम्, यावदेतदन्तरेण ( एतत्सम्बन्धेन ) विज्ञप्त नरपतिं द्रविणप्रदानेनापि मोचयाम्येतम् । तैर्भणितम् - यद्येवं ततो लघु भव । ततो गृहीत्वा नरेन्द्रदर्शननिमित्तं दीनारशतसहस्रमूल्यां मुक्ताफलमालां गतो नरपतिसमीपम् । दृष्टश्च तेन राजा । कथयित्वा वृत्तान्तं विज्ञप्तश्चण्डालान्तरेण ( चण्डालसंबन्धेन ) नरपतिः । कृतस्तस्य प्रसादः । दूतसहितश्च तस्य मोक्षणनिमित्तमागतस्तमुद्देशम् । मोचित एषः । 'यूयमस्य जीवितदायकाः' इति भणित्वा पूजिता आरक्षकाः । दापयित्वा पाथेयं भणितश्च चण्डालः । भद्र ! सम्पादय समीहितम् । 'आर्य ! मा तव साऽवस्था भवतु यस्यां ममेव प्रयोजनम्' इति भणित्वा [ कृताञ्जलिपुटः क्षितिन्यस्तजानुक रतलोत्तमाङ्गः प्रणम्य सार्थवाहपुत्रं गतश्चण्डालः । धरणोऽपि च कतिपय प्रयाणकैः प्राप्त उत्तरापथतिलकभूतमचलपुरं नाम पत्तनम् । दृष्टश्च राजा । बहु मानितस्तेन । विभागसम्पत्त्या च विक्रीतमनेन भाण्डम् । समासादितोऽष्टगुणो लाभः । स्थितस्तत्रैव पवित्रयनिमित्तं चतुरो मासान् । पुण्योदयेन चार्जितं प्रभूतं द्रविणजातम् । संख्यापितं यश में मलिनता आ रही है, अतः आप छुड़ाइए, छुड़ाइए । शुद्धचित्तवाला होने के कारण धरण ने विचार किया - 'दोष करनेवाला इस प्रकार नहीं बोलता है ।' करुणा से युक्त होकर उसने सिपाहियों से कहा -: -: "हे हे कुलपुत्र ! मेरे कहने से थोड़ी देर प्रतीक्षा करो। जब तक मैं इसके विषय में राजा से निवेदन कर धन देकर इसे छुड़ाये लेता हूँ।" उन्होंने कहा - 'यदि ऐसा है तो जल्दी करो ।" इसके बाद एक लाख दीनार वाली मुक्ताफल की माला को लेकर राजा के पास गया। उसने राजा के दर्शन किये । वृत्तान्त कहकर चाण्डाल के विषय में राजा को जानकारी दी। उसे प्रसन्न किया । दूत सहित उसको छुड़ाने के लिए उस स्थान पर आया । इसे छोड़ दिया गया । 'आप इसे जीवन देनेवाले हैं- ऐसा कहकर सैनिकों ने पूजा की। नाश्ता दिलाकर चाण्डाल से कहा"भद्र ! इच्छित कार्य पूरा कीजिए ।" 'आर्य ! आपकी वह अवस्था न हो, जिसमें मेरा ही प्रयोजन है' - ऐसा कहकर हाथ जोड़कर पृथ्वी पर घुटने टेककर, हथेली रखकर मस्तक से सार्थवाहपुत्र को प्रणाम कर चाण्डाल चला गया । धरण ने भी कुछ यात्रा कर उत्तरापथ के तिलकत अचलपुर नामक नगर को प्राप्त किया। राजा ने देखा। उसने ( उसका ) बहुत सत्कार किया । माल का विभाग कर इसने उसे बेचा। अठगुना लाभ प्राप्त हुआ । वहीं पर क्रय-विक्रय के लिए चार माह ठहरा । पुण्योदय से प्रभूत धनोपार्जन किया। उसने धन का हिसाब कराया -- १. एहिक, २. 'परिहाविऊण जुवल' इत्यधिकः क पुस्तके, ३. अयं पाठः ख - पुस्तके नास्ति, ४. 'तस्य समीवाओ काएण न वुण चित्तेन' इत्यधिकः पाठः क - पुस्तके, ५. इलाहो- -के। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइच्चकहा चणेण, जाव अस्थि कोडिमेत्तं ति । तओ गहियं मायंदिसंववहारोचियं भंडं। भराविओ सत्थो। पयट्टो नियदेसागमणनिमित्तं महया चडयरेण । पइदियहपयाणेग य सवरवहूगेयसु(म)हियमयजूहं । थेवदियहेहि सत्थो पत्तो कायंबरि अडविं ॥४८५॥ वसहमयम हिससद्यकोलसयसंकुलं महाभीमं । माइंदविदचंदणनिरुद्धससिसूरकरपसरं ॥४८६॥ फलपुट्ठतरुवरट्टियपरपुटविमुक्कविसमहलबोल । तरुकणइकयंदोलणवाण रवुक्काररमणिज्जं ॥४८७॥ मयणाहदरियरुंजियसद्दसमुत्तत्यफिडियगयजहं । वणदवजालावेढियचलमयरायंतगिरिनियरं ॥४८॥ नियवराहधोणाहिघायजज्जरियपल्ललोयंतं । दप्पुर्धरकरिनिउरुंबदलिहितालसंघायं ।।४८६ ।। च तेन, यावदस्ति कोटिमात्रमिति । ततो गृहतं माकन्दसंव्यवहारोचितं भाण्डम् । भरितः सार्थः । प्रवत्तो निजदेशागमननिमित्तं महताऽऽडम्बरेण । प्रतिदिवसप्रयाणेन च शबरवधूगेयमुग्धमगयथाम् । स्तोक दिवसैः सार्थः प्राप्त: कादम्बरीमटवीम् ॥४८५।। वृषभ-मृग-महिष-शार्दूल-कोलशतसंकुलां महाभीमाम् । माकन्दवृन्द-चन्दननिरुद्धशशि-सूरकरप्रसराम् ॥४८६।। फलपुष्टतरुवरस्थितपरपुष्टविमुक्तविषमकोलाहलाम् । तरुलताकृतान्दोलनवानरवुत्कारमणीयाम् ॥४८७॥ मृगनाथदृप्तरुञ्जितशब्दसमुत्त्रस्तस्फेटितगथयूथाम् । वनदवज्वालावेष्टितचलन्मगराजदगिरिनिकराम ॥४८८।। निर्दयवराहघोणाभिघातजरितपल्लवलोपान्ताम् । दोधुरकरिनिकुरम्बदलितहिन्तालसंघाताम् ॥४८६।। (वह) एक करोड़ प्रमाण था। अनन्तर माकन्दी में बेचने योग्य माल को लिया । सौदागरों की टोली के साथ माल को लेकर बडे ठाठ-बाट के साथ अपने देश को आने के निमित्त प्रवृत्त हआ। प्रतिदिन प्रयाण करता हुआ व्यापारी-संघ थोड़े ही दिनों में अत्यन्त भयङ्कर कादम्बरी नामक अटवी में पहुँचा। इस अटवो में शाबरवधुएँ सुन्दर मृगसमूह के विषय में गीत गा रही थीं। बैलों, हरिणों, भैसों, चीतों तथा सैकड़ों बड़े सूकरों से व्याप्त थीं, आमों के वृक्ष तथा चन्दन वृक्षों से सूर्य और चन्द्र की किरणों का प्रसार जहाँ अवरुद्ध था, फलों से पुष्ट उत्तम वृक्षों पर बैठी कोयलों द्वारा जहाँ विषम कोलाहल हो रहा था, वृक्षों और लताओं पर हलचल करनेवाले वानरों के शब्द से जो रमणीय थी, सिंह की गर्वीली दहाड़ों से भयभीत (आतंकित) तथा चिंघाड़ते हुए गज समूह से जो युक्त थी, दावाग्नि की ज्वालाओं से वेष्टित चलते हुए मुगों से जहाँ के पर्वत समूह क्षोभित हो रहे थे, निर्दय शूकरों की नाक के प्रहारों से जहाँ तालाब के किनारे जर्जरित हो रहे थे और दर्पयुक्त हाथियों का समूह जहाँ हिन्ताल (एक प्रकार के जंगली खजूर) के पेड़ों को तोड़ रहा था। ४३५-४८६॥ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्टो भवो] ४७३ तीए वहिऊण सत्थो तिष्णि पयाणाइ पल्ललसमीवे । आवासिओ य पल्ललजलयरसंजणियसंखोहं ॥४६० । आवासिऊण तोरे सरस्स मज्झम्मि कोलिऊण सुहं ।' तो रयणीए सत्थो सुत्तो दाऊण थाणाई ॥ ४६१।। 'रयणीए चरिमजामम्मि भीसण (य) सिंगसदृगद्दाभा। अह सवरभिल्लसेणा पडिया सत्थम्मि वीसत्थे ॥४६२।। हण हण हण त्ति गद्दब्भसहसंजणियजुवइसंतासा। अन्नोन्नसंभमालग्गदीहको दंडसंघाया ॥४६३।। तीसे ससद्दबोहियसत्थियपुरिसेहि सह महाभीमं । जुज्झमह संपलग्गं सरोहविच्छिन्नसरनियरं ॥४६४।। सत्थियपुरिसेहि दढं सेणा दप्पुधुरेक्कवीरेहि। आवाए च्चिय खित्ता दिसो दिसं हरिणजह व्व । ४६५।। तस्यामूढवा (वहनं कृत्वा) सार्थस्त्रीणि प्रयाणानि पल्वलसमीपे । आवासितश्च पल्वलजलचरसञ्जनितसंक्षोभम् ॥४६०।। आवास्य तीरे सरसो मध्ये क्रीडित्वा सुखम् । ततो रजन्यां सार्थः सुप्तो दत्त्वा (थाणाई दे.) रक्षाः ।। ४६१।। रजन्याश्चरमयामे भीषणशङ्गशब्द (गद्दभा दे.) कठोरा। अथ शबरभिल्लसेना पतिता सार्थे विश्वस्ते ॥४६२।। जहि जहि जहीति कठोरशब्दसञ्जनितयुवतिसन्त्रासा। अन्योन्यसम्भ्रमाद् लग्नदीर्घकोदण्डसंघाता ॥४६३॥ तस्याः स्वशब्दबोधितसार्थिकपुरुषैः सह महाभीमम् । युद्धमथ सम्प्रलग्नं शरौघविच्छिन्नशरनिकरम् ॥४६४॥ साथिकपुरुषैर्दै ढं सेना दर्पोद्धरैकवीरैः । आपाते एव क्षिप्ता दिशि दिशि हरिणयूथवत् ॥४६५।। व्यापारी-संघ तीन पड़ाव (प्रयाण) करके उस अटवी में तालाब के किनारे, तालाब के जलचरों को क्षोभ उत्पन्न करता हुआ बस गया। तट के किनारे आवास बनाकर तालाब के मध्य क्रीड़ा करके रात्रि में पहरा लगाकर व्यापारी संघ सो गया। अनन्तर रात्रि के अन्तिम प्रहर में सिंगों का भयंकर शब्द करने वाली शबर और भीलों की सेना विश्वासपूर्वक सोये हुए व्यापारियों के समूह पर टूट पड़ी। मारो-मारो-मारी- इस प्रकार क कठोर शब्दों से युवतिजन में वह भय (सन्त्रास) पैदा कर रही थी, परस्पर आवेगयुक्त होने से (यह सेना) बड़े बड़े धनुषों का शब्द करने में संलग्न थी। उस शबर-सैन्य का स्वशब्द से बोधित व्यापारी पुरुषों के साथ महाभयंकर युद्ध होने लगा। बाणों के समूह से बाण टूटने लगे। दर्पयुक्त वीर व्यापारी पुरुषों ने सुदृढ़ शबर सैन्य को अकस्मात् प्राप्त संकट की दशा में हरिणों के झुण्ड की भाँति दिशाओं-दिशाओं में गिरा दिया अर्थात् तितर-बितर (छिन्न भिन्न) कर दिया ।। ४६०-४६५॥ १. चिरं-क । २. एत्थंतरम्मि- इत्यधिकः पाठः क-पुस्तके । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चकहा तो वीरसेणपमुहा सबरा सव्वे पुणो वि मिलिऊण । अन्नोन्नतज्जणाजणियरोसपसरा समल्लीणा ॥४६६॥ अह निज्जिओ स सत्थो थेवत्तणओ य सबरसेणाए। पयरो पिवीलियाणं भीमं पि भुयंगमं डसइ ॥४६७।। निज्जिणिऊण' य सत्थं रित्थं घेत्तण निरवसेसं पि। बंदं पि किंपि सबरा उवट्ठिया कालसेणस्स ।।४६८।। मणियं च णेहि-एयं रित्थं सत्थाओ देव आणीयं बंदं च किपि थेवं। संपइ देवो पमाणं ति। तओ कालसे गेण पुच्छिया बंदयपुरिसा-भो कुओ एस सत्थो कस्स वा संतिओ ति। एत्यंतरम्मि सीहकयपहारसंरोहणनिमित्तं सत्यवाहपुत्तेण सहागओ उवलद्धो पच्च भिन्नाओ णेण संगमो नाम सत्यवाहपुत्तपुरिसो। भणियं च णेण-भद्द, कहिं तुमं मए दिहो त्ति। तेण भणियं-न याणामो, तुमं चेव जाणसि ति । कालसेणेण भणियं-अवि आसि तुम इओ उत्तरावहपयट्टस्स मम पाणपयाणहेउणो अविन्नायनामधेयस्स सस्थवाहपुत्तस्स समीवे । संगमेण भणियं-को कहं वा तुह पाणपयाण ततो वीरसेनप्रमुखाः शबराः सर्वे पुनरपि मिलित्वा। अन्योन्यतर्जनाजनितरोषप्रसराः समालीनाः ॥४॥६॥ अथ निजितः स सार्थः स्तोकत्वाच्च शबरसेनया। प्रकरः पिपीलिकानां भीममपि भुजङ्गमं दशति ॥४६७॥ . निर्जित्य च सार्थ रिक्थं गृहीत्वा निरवशेषमपि। बन्दिनमपि कमपि शबरा उपस्थिता: कालसेनस्य ॥४४८॥ भणितं च तै:-एतद् रिक्थं सार्थाद्, देव! आनीतं बन्दी च कोऽपि स्तोकः । सम्प्रति देवः प्रमाणमिति । ततः कालसेनेन पृष्टा बन्दिपुरुषाः । भोः कुत एष सार्थः कस्य वा सत्क इति । अत्रान्तरे सिंहकृत-प्रहारसंरोहणनिमित्तं सार्थवाहपुत्रेण सहागत उपलब्ध: प्रत्यभिज्ञातस्तेन सङ्गमो नाम सार्थवाहपुत्रपुरुषः । भणितं तेन--भद्र ! कुत्र त्वं मया दृष्ट इति। तेन भणितं- न जानामि, त्वमेव जानासीति । कालसेनेन भणितम् --अपि आसीस्त्वमित उत्तरापथप्रवृत्तस्य मम प्राणप्रदानहेतोरविज्ञातनामधेयस्य सार्थवाहपुत्रस्य समीपे। सङ्गमेन भणितम्-कः कथं वा तव प्राणप्रदानहेतुः। कालसेनेन भणितं, __तदनन्तर वीरसेन जिसमें प्रमुख था। ऐसे सभी शबर मिलकर एक-दूसरे को धमकाने से अत्यधिक रोषयुक्त होकर फिर से संगठित हो गये। थोड़े होने के कारण वह व्यापारियों का समूह शबर-सेना के द्वारा जीत लिया गया। चीटियों का समूह भयंकर सर्प को भी डंस लेता है। सार्थ को जीतकर, उनके सम्पूर्ण धन को और कुछ बन्दियों को भी लेकर शबर कालसेन के सामने उपस्थित हुए । ४६६.४६८।। - उन्होंने (शबरों ने) कहा--- "देव ! व्यापारियों के समुदाय से यह धन लाये हैं, कुछ बन्दी भी लाये हैं । इस समय जो करने योग्य हो उसे कीजिए।" तब कालसेन ने बन्दिपुरुषों से पूछा-"अरे ! यह सार्थ कहाँ से आया और यह किसके साथ है ?" इसी बीच सिंह के द्वारा किये हुए प्रहार को ठीक करने के निमित्त सार्थवाह पुत्र के साथ आये हुए संगम नामक सार्थवाहपुत्र को उसने पहिचान लिया। उसने कहा-"भद्र ! तुम मुझे कहाँ दिखाई दिये थे?" उसने कहा- "मैं नहीं जानता हूँ, तुम ही जानते हो।" कालसेन ने कहा-“यहाँ उत्तरापथ को जाते हुए मेरे प्राणदान के हेतु अज्ञात नाम सार्थवाहपुत्र के समीप क्या तुम भी थे ?” संगम ने कहा-"कौन ? अथव १. अह निजिजऊण सत्य-क। २. सहसमागओवलद्धो-क। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्टो भवो] ४७५ हेऊ । कालसेणेण भणियं-अस्थि हओ अईयवरिसम्मि कयंतेणेष केसरिणा कहंचि कंठगयपाणो अहं कओ आसि । तओ इओ उत्तरावहं वच्चमाणेण केणावि सत्थवाहपुत्तेण न याणामो कहिंचि जीवाविओ म्हि। ता एवं मझ सो पाणपयाणहेउ त्ति । तओ सुमरिऊण वृत्तंतं पच्चभियाणिऊण' कालसेणं भणियं संगमेण-जइ एवं, ता आसि दिट्टो तुमए। कालसेणेण सबहुमाणमवरंडिऊण पुच्छिओ संगमओ-भद्द, कहिं सो सत्थवाहपुत्तो। तओ बाहजलभरियलोयणेण भणियं संगमएण-भो महापुरिस, देव्वो वियाणइ त्ति । कालसेणेण भणियं-- कहं विय । संगमएण भणिय- सुण, एसो ख तस्स संतिओ चेव सत्थो । आवडिए य सत्थघाए कोदंडसरसहाओ दिटो मए सबरसम्मुहं धावमाणो। तओन संपयं वियाणामि। तओ एयमायण्णिऊण दोहं च नीससिय 'हा कयमकज्ज' ति भणिऊण मोहम वगओ कालमेणो, वक्कलाणिलेण वीइओ सबरेहि, लद्धा चेयणा । भणियं च णेण - हरे, न एत्थ कोइ वावाइओ त्ति। सबरेहि भणियं - न वावाइओ, केवलं पहारीको त्ति । तओ निरूविया पडिबद्धपुरिसा, न दिट्ठो य धरणो। तओ एगत्थ रित्थं करेऊण समासासिऊण सत्थं पडिबद्धपुरिसाण अस्तीतोऽतीतवर्षे कृतान्तेनेव केसरिणा कथञ्चित् कण्ठगतप्राणोऽहं कृत आसम् । तत इत उत्तरापथं व्रजता केनापि सार्थवाहपुत्रेण न जानीमः कथञ्चिज्जीवितोऽस्मि । तत एवं मम स प्राणप्रदानहेतुरिति । ततः स्मृत्वा वृत्तान्तं प्रत्यभिज्ञाय कालसेनं भणितं सङ्गमेन- यद्येवं तत आसं दृष्टस्त्वया । कालसेनेन सबहुमानमालिङ्गय पृष्ट: संगमकः- भद्र ! कुत्र स सार्थवाहपुत्रः ? ततो वाष्पजलभृतलोचनेन भणितं सङ्गमकेन-भो महापुरुष ! दैवं विजानातीति । कालसेनेन भणितम्-कथमिव । सङ्गमकेन भणितम् -शृणु, एष खलु तस्य सत्क एव सार्थः । आपतिते च सार्थघाले कोदण्डशरसहायो दृष्टो मया शबरसमुखं धावन् । ततो न साम्प्रतं विजानामि । तत एतदाकर्ण्य दीर्घ च निःश्वस्य 'हा कृतमकार्यम्' इति भणित्वा मोहमुपगतः कालसेनः, वल्कलानिलेन वीजितः शबरैः, लब्धा चेतना । भणितं च तेन-अरे नात्र कोऽपि व्यापादित इति । शबरैर्भणितम्-न व्यापादितः, केवलं प्रहारीकृत इति । ततो निरूपिताः प्रतिबद्धपुरुषाः । न दृष्टश्च धरणः । तत एकत्र रिक्थं कृत्वा तुम्हारे प्रागदान का कारण कैसा?" कालसेन ने कहा--"पिछले वर्ष यमराज जैसे सिंह के द्वारा जब मेरे प्राण कण्ठगत हो गये थे, तब इधर से उत्तरापथ की ओर जाते हुए किसी व्यापारी के पुत्र के द्वारा न मालूम कैसे जीवित कर दिया गया हूँ। इस प्रकार वह मेरे प्राणदान का कारण है ।" इसके बाद वृत्तान्त का स्मरण कर कालसेन को पहिचान कर संगम ने कहा- "यदि ऐसा है तो तुमने ठीक देखा।" काल सेन ने बहुत सत्कार के साथ आलिंगन कर संगम से पूछा-'भद्र ! वह सार्थवाहपुत्र कहाँ है ?" तब आँसुओं से भरे हुए नेत्रों वाले संगम ने कहा- "हे महापुरुष ! भाग्य जानता है।" कालसेन ने कहा-"कैसे?" संगम ने कहा - "सुनो, ये उसके ही साथ का व्यापारियों का काफिला है । अनायास ही सार्थ के मारे जाने पर धनुष-बाण जिसका सहायक है, ऐसे उसे मैंने शबरों के सम्मुख दौड़ते हुए देखा । अतः इस समय (उसके विषय में) नहीं जानता हूँ।" तब इस बात को सुनकर दीर्घ निःश्वास लेकर 'हाय ! मैंने अकार्य किया'-ऐसा कहकर, कालसेन मूच्छित हो गया। वल्कल की वायु से शबरों द्वारा पंखा किये जाने पर चेतना प्राप्त हुई। उसने कहा- "अरे किसी को मारा तो नहीं ?" शबरों ने कहा- "मारा नहीं, केवल प्रहार किया है।" इसके बाद बन्दीपुरुष देखे गये। धरण दिखाई नहीं पड़ा । तब धन को एकत्र कर, साथं को १. पञ्चहियाणिऊण-क। २. संगमो-क। ३. संगमेण-के। ४.-बुरिस-क । ५. न वृण-क। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइच्चकहा 1 यवन्ममाइसिय धरणगवेसणनिमित्तं पयट्टाविया दिसो दिसं सबरपुरिसा | अध्वणा वि 'य 'हा ठु कथं ति चितयमाणो' गओ तं गवेसिउं ' । न दिट्ठो य तेण धरणो । समागओ सत्थं । मिलिया सव्वसबरा । निवेइयं च हि । देव, न दिट्ठोत्ति । तओ परं सोगमुवगओ कालसेणो । भणियं च णेण - दुज्जण जणमि सुकयं असुहफलं होइ सज्जणजणस्स । जह भुयगस्स विदिन्नं खोरं पि विसत्तणमुवेइ ॥ ४६६ ॥ दिन्ना य णेण पाणा मज्झं जायाए तह य पुत्तस्स । एक्स्स मए पुण सव्वमेव विवरीयमायरियं ॥ ५०० ॥ ताकि इणा अालकुसुमनिगमेण विय निष्फलेणं वायावित्यरेणं । भो भो सत्थिया, भो भो सरा, एसा महं पइन्ना । जइ तं न घडेमि अहं इमिणा विहवेण पंचहि दिह । पइसामि सुहुयहुयवहजालानिवहम्मि किं बहुना ।। ५०१ ।। ४७६ समाश्वास्य सार्थ प्रतिबद्धपुरुषाणां च व्रणकर्मादिश्य धरणगवेषणनिमित्तं प्रवर्तिता दिशि दिशि शबरपुरुषाः । आत्मनाऽपि च 'हा दुष्ठु कृतम्' इति चिन्तयन् गतस्तं गवेषयितुम् । न दृष्टश्च तेन धरणः । समागतः सार्थम् । मिलिताः सर्वशबराः । निवेदितं च तैः - देव ! न दृष्ट इति । ततः परं शोकमुपगतः कालसेनः । भणितं च तेन दुर्जनजने सुकृतमशुभफलं भवति सज्जनजनस्य । यथा भुजगाय वितीर्णं क्षीरमपि विषत्वमुपैति ॥४६६ ॥ दत्ताश्च तेन प्राणा मम जायायास्तथा च पुत्रस्य । एतस्य मया पुनः सर्वमेव विपरीतमाचरितम् ॥ ५०० ॥ ततः किमेतेनाकालकुसुमनिर्गमेनेव निष्फलेन वाग् विस्तरेण । भो भो सार्थिकाः ! भो भो 'शबराः ! एषा मम प्रतिज्ञा यदि तं न घटयाम्यहमनेन विभवेन पञ्चभिर्दिनैः । प्रविशामि सुहुतहुतवहज्वालानिवहे किं बहुना ॥ ५०१ ॥ आश्वासन देकर तथा बन्दीपुरुषों की महरमपट्टी का आदेश देकर धरण की खोज के लिए दिशाओं - दिशाओं में शबरपुरुषों को भेजा । स्वयं भी 'हाय बुरा किया - इस प्रकार विचार करता हुआ उसे ढूंढ़ने गया । उसे धरण दिखाई नहीं पड़ा | सार्थ के पास आ गया । सभी शबर मिल गये । उन्होंने निवेदन किया- "देव ! (धरण) दिखाई नहीं दिया ।" तब कालसेन बहुत अधिक दुःखी हुआ । उसने कहा सज्जन मनुष्य का दुर्जन की भलाई करना अशुभफल देने वाला होता है । जैसे- साँप के लिए दिया गया दूध भी विष हो जाता है। उसने मेरी स्त्री और पुत्र को जीवन दिया और इसके प्रति मैंने सब विपरीत आचरण किया ॥ ४९६ - ५००॥ अत: असमय में उत्पन्न हुए फूल के समान निष्फल वचनों के विस्तार से क्या लाभ हे हे साथियो ! हे हे शबरपुरुषो ! मेरी यह प्रतिज्ञा है यदि मैं इससे पाँच दिनों में नहीं मिलता हूँ तो भली प्रकार जलायी गयी अग्नि की ज्वाला के समूह में प्रवेश कर जाऊँगा, अधिक कहने से क्या ! || ५०१ ।। १, य- ग | २, चिंतेमाणोकं । ३, आरणभूमि इत्यधिकः पाठः क - पुस्तके । ४, वदिन्न । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो भवो ] एवं च पइन्नं काऊण कयं कुलदेवयाए कायंवरिनिवासिणीए ओवाइयं । जइ तं महाणुभावं जीवंतं एत्थ कहवि पेच्छिस्सं'। दसहि पुरिसेहि भयवइ तो तुज्झ बलि करिस्सामि ॥५०२॥ एवं च ओवाइयं काऊण गहियाणेयदिवसपाहेया पट्टविया धरणगवेसण निमित्तं दिसो दिसं सबरा । अप्पणा वि य अच्चंतविमणदुम्मणो गओ तं गवेसि। सो पुण धरणो विणिज्जिए सत्थे 'न एत्थ अन्नो उवाओं' त्ति चितिऊण ओसहिवलयमेत्तरित्थो घेत्तूण लच्छि पलाणो पिट्टओमुहो । जायाए भएणं च मढदिसामंडलं तुरियतुरियं गच्छमाणो पत्तो मुत्तमेत्तसेसे वासरे-- बहुविहरुक्खसाहासंघट्टसंभवंतवणदवं, वणवपलितकंदरविणितसीहं ।।५०३।। सीहहयपडिहयहत्थिकडेवरकयारविसमं, विसमखलणदुहिंडंतभीयमुद्धमयं ।।५०३।। एवं च प्रतिज्ञां कृत्वा कृतं कुलदेवतायाः कादम्बरीनिवासिन्या औपयाचितम् । यदि तं महानुभावं जीवन्तमत्र कथमपि प्रेक्षिष्ये।। दशभिः पुरुषैर्भगवति ! ततस्तव बलि करिष्यामि ॥५०२।। एवं चौपयाचितं कृत्वा गृहीतानेकदिवसपाथेयाः प्रस्थापिता धरणगवेषणनिमित्तं दिशि दिशि शबराः । आत्मनापि च अत्यन्तविमनोदुर्मना गतस्तं गवेषयितुम् ।। स पुनर्धरणो विनिजिते सार्थे 'नात्रान्य उपायः' इति चिन्तयित्वा ओषधिवलयमात्ररिक्थो गृहीत्वा लक्ष्मी पलायितः पृष्ठतोमुखः । जायाया भयेन च मूढदिग्मण्डलं त्वरितत्वरितं गच्छन् प्राप्तो मुहर्तमात्रशेषे वासरे बहुविधवृक्षशाखासंघट्टसम्भवद्वनदवं, वनदवप्रदीप्तकन्दराविनिर्यत्सिहम् ॥५०३॥ सिंहहतप्रतिहतहस्तिकलेवरकचवरविषमं, विषमस्खलनदुःखहिण्डमानभीतमुग्धमृगम ॥५०४॥ इस प्रकार प्रतिज्ञा करके कादम्बरी नामक वन में निवास करने वाली कुलदेवी की अर्चना की। यदि उस पुरुष को किसी भी प्रकार जीवित देख लूंगा तो हे भगवती ! दस पुरषों से तुम्हारी पूजा करूंगा ॥५०२॥ . इस प्रकार पूजा करके अनेक दिनों का नास्ता लेकर धरण को खोजने के लिए दिशाओं-दिशाओं में शबरों को भेजा। स्वयं भी अत्यन्त दुःखी होता हुआ उसे खोजने के लिए गया। वह धरण सार्थ के जीत लिये जाने पर-'यहाँ अन्य उपाय नहीं है ऐसा सोचकर औषधिसमूह मात्र ही जिसका धन है—ऐसा, लक्ष्मी को लेकर उल्टे मुख भाग गया। दिशाओं के विषय में मढ़ हो पत्नी के भय से जल्दी-जल्दी चलता हुआ (धरग) एक मुहूर्तमात्र दिन शेष रह जाने पर वह धरण ऐसे शिलिन्धनिलय नामक पर्वत को प्राप्त हुआ जो अनेक प्रकार के वक्षों की शाखाओं के रगड़ने से उत्पन्न हुई दाव ग्नि वाला था, दावाग्नि के प्रज्वलित होने से जहाँ सिंह गुफाओं से बाहर निकल रहे थे, सिंहों द्वारा मारे गये हाथियों के शरीरों से और घायल हुए हाथियों की चिल्लाहट से जो (पर्वत) अत्यन्त विषम (भयंकर) था। स्थानों में गिरते, दुःखपूर्वक भ्रमण करने वाले डरे हुए भोले मगों से युक्त था ॥५०३-५०४॥ १. पेक्खिस्सं-क । २. उवाइयं-क । ३. मुहं-क । मुहओ-ख । । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ [समराइच्चकहा मयरुहिरपाणमुइयघोरंतसुत्तवग्धं, वग्ध भयपलायंतमहिसउलं ॥५०५॥ महिसउलचलणगलग्गगरुयअयगर', अयगर विमुत्त नीसाससद्दभीमं ॥५०६।। भीमबहुविहभमंतकवायलुत्तसत्तं। सत्तखयकालसच्छहं सिलिधनिलयं नाम पव्वयं ति ॥५०७॥ तत्थ य अणुचियचलणपरिसक्कणेण खीणगमणसत्ति सेयजललवालिद्धवयणकमलं च पेच्छिऊण लच्छि चितियं धरणेण - अहो मे कम्मपरिणई, जेण पिययमाए वि ईइसी अवत्थ ति। लच्छोए चितियं - किलेसो वि मे बहुमओ चेव एयस्त आवईए। गविट्ठे धरणेण लच्छीए पाणसंधारणनिमित्तं फलोययं, न उण लद्धं ति। अइक्कंतो वासरो । पसुत्ताइं पल्लवसत्थरे । अइक्कंता रयणी। [उग्गओ अंसुमाली। तओ] बिइयदियहे य जाममेत्तसेसे वासरे खुहापिवासाहिभूया नग्गोहपाय मृगरुधिरपानमुदितधुरत्सुप्तव्याघ्र, व्याघ्रभयपलायमानमहिषकुलम् ॥५०५॥ महिषकुलचलनाग्रलग्नगुरुकाजगरं, अजगरविमुक्तनिःश्वासशब्दभीमम् ॥५०६।। भीमबहुविधभ्रमत्क्रव्यादलुप्तसत्त्वं, सत्त्वक्षयकालसच्छायं शिलिन्ध्रनिलयं नाम पर्वतमिति ॥५०७।। तत्र चानुचित-चरणपरिष्वष्कनेन (परिचंक्रमणेन) क्षीणगमनशक्ति स्वेदजललवाश्लिष्टवदनकमलां च प्रेक्ष्य लक्ष्मी चिन्तितं धरणेन-अहो मे कर्मपरिणतिः, येन प्रियतमाया अपीदृशी अवस्थेति । लक्ष्म्या चिन्तितम्-क्लेशोऽपि मे बहुमत एव एतस्यापदा। गवेषितं धरणेन लक्ष्म्या: प्राणसन्धारणनिमित्तं फलोदकं न पुनर्लब्धमिति । अतिक्रान्तो वासरः। प्रसुप्तौ पल्लवस्रस्तरे। अतिक्रान्ता रजनी। उद्गतोऽशुमाली। ततो द्वितीयदिवसे च याममात्रशेषे वासरे क्षुत्पिपासाभि मृगों के रुधिर का पान करने से प्रसन्न होकर घुरघुर शब्द करते हुए व्याघ्र जहाँ सो रहे थे, व्याघ्र के भय से जहाँ भैसों का समूह भाग रहा था, भैसों के समूह के अगले पैरों में जहाँ भारी अजगर लग रहे थे, अजगरों द्वारा छोड़े हुए निःश्वास के शब्द से जो भयंकर था, भयंकर एवं अनेक प्रकार से भ्रमण करते हुए चीतों ने जहाँ प्राणियों को ही लुप्त कर दिया था, प्राणियों का क्षय (विनाश) करने से जो काल के आकार का लग रहा था ॥५०५-५०७॥ वहाँ पर अनुचित स्थान में भ्रमण करने से जिसकी गमन करने की शक्ति क्षीण हो गयी थी, ऐसे धरण ने, पसीने की जलबिन्दुओं से जिसका मुखकमल व्याप्त था, ऐसी लक्ष्मी को देखकर विचार किया--'अहो मेरी कर्म की परिणति, जिससे प्रियतमा की भी ऐसी अवस्था हुई । लक्ष्मी ने सोचा - इनकी विपत्ति में मुझे यह क्लेश भी अच्छा है। धरण ने लक्ष्मी के प्राणधारण हेतु फल और जल खोजा, किन्तु प्राप्त नहीं हुआ। दिन व्यतीत हुआ। दोनों पत्तों के बिस्तर पर सोये । रात्रि व्यतीत हुई। सूर्य निकला । तब दूसरे दिन, जबकि दिन १. चलणमग्गगल्यअयगर-ख । २. पस्त्त- ख। ३. सिणि घ-ख, पिलिष-ग। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो भवो ] वच्छायाए निर्वाडिया लच्छी । सम्मिल्लियमिमीए लोयणजुयं विमूढा से चेयणा, निर्वाडियं तालुयं, मिलायं वयणकमलं । तओ धरणेण चितियं - अहो दारुणो जीवलोगो, अचिता कम्मपरिणई, न मे जोविएणावि एत्थ साहारो त्ति । तहावि बाहजलभरियलोयणेणं संवाहियं से अंगं । समागया चेयणा । तओ अत्तसद्दं जंपियमिमीए - अज्जउत्त, दढं तिसाभिभूय म्हि । तओ सो 'सुंदरि, धीरा होहि आणेमि उदयं, तए ताव इहेव चिट्ठियत्वं' ति भणिऊण आरूढो तरुवरं । पलोइयं उदयं, न उण उवलद्धं । तओ 'उदयमंतरेणं न एसा जीवइ' ति तुवरिट्टियं पेच्छिऊण तीए' य किर रसेण संगयं सिलीभूयमवि सोणियं उदयसारिच्छं हवइ' त्ति ता एएण सुमरियपओएणं 'देमि से तुवरिट्टियार सेणं' पदभावं बाहुसिरामोक्खणेण नियमेव रुहिरं, इमिणा य वणदवग्गिणा पइऊण छुहावणोयणनिमित्तं उरुमंसं ति; अन्नहा निस्संसयं न होइ एसा, विवन्नाए य इमीए कि महं जीविएणं; अत्थि यमे वणसंरोहणं ओस हिवलयं, तेण रुहिरसंगएणेव अवणीयवणवेपणो इमीए विन दुःखकारणं भfares' ति चितिऊण नियच्छुरियाए पलासपत्तवुडयम्मि संपाडियं समोहियं ति । गओ य तोसे भूतान्यग्रोध पादपच्छायायां निपतिता लक्ष्मीः । सम्मिलितमनया लोचनयुगम्, विमूढा तस्याश्चेतना, निपतितं तालु, म्लानं वदनकमलम् । ततो धरणेन चिन्तितम् - अहो दारुणो जीवलोकः, अचिन्त्या कर्मपरिणतिः, न मे जीवितेनाप्यत्र साधारः ( उपकारः ) इति । तथापि वाष्पजलभृतलोचनेन संवाहितं तस्या अङ्गम् । समागता चेतना । ततोऽव्यक्तशब्दं जल्पितमनया - आर्यपुत्र ! दृढं तृषाऽभिभूताऽस्मि । ततः स ' सुन्दरि ! धीरा भव, आनयाम्युदकम् त्वया तावदिहैव स्थातव्यम्' इति भणित्वा आरूढस्तरुवरम् । प्रलोकितमुदकं न पुनरुपलब्धम् । तत 'उदकमन्तरेण नैषा जीवति' इति तुवर्यस्थिकां प्रेक्ष्य 'तस्याश्च किल रसेन सङ्गतं शिलीभूतमपि शोणितमुदकसदृशं भवति' इति तत एतेन स्मृतप्रयोगेण 'ददामि तस्यै तुवर्यस्थिकारसेन सम्पादितोदकभाव बाहुशिरामोक्षणेन निजमेव रुधिरम्, अनेन च वनदवाग्निना पक्त्वा क्षुदपनोदनिमित्तमूरुमांसमिति, अन्यथा निःसंशयं न भवत्येषा, विपन्नायां चास्यां किं मम जीवितेन, अस्ति च मे व्रणसंरोहणमोषधिवलयम्, तेन रुधिरसङ्गतेनैवापनीतव्रणवेदनोऽस्या अपि न दुःखकारणं भविष्यति' इति चिन्तयित्वा निजच्छुरिया का प्रहरमात्र शेष था, भूख-प्यास से अभिभूत होकर वटवृक्ष की छाया में लक्ष्मी गिर पड़ी। उसके दोनों नेत्र बन्द हो गये । उसकी (लक्ष्मी की ) चेतना विलुप्त हो गयी, तालु गिर पड़ा, मुखकमल म्लान हो गया। तब धरण ने सोचा - ओह, संसार दिल दहलाने वाला है। कर्म का फल सोचा नहीं जा सकता, मेरे जीवित रहते हुए भी उपकार का कोई आधार नहीं है । फिर भी आँखों में आँसू भरकर उसके अंगों को दबाया । उसे चेतना आयी । तब उसने अव्यक्त शब्दों में कहा--"आर्यपुत्र ! मैं बहुत अधिक प्यासी हूँ ।" तब उसने कहा - " सुन्दरि ! धैर्य धारण करो, जल लाता हूँ, तुम यहीं ठहरो” – ऐसा कहकर एक बड़े वृक्ष पर चढ़ गया । जल को देखा किन्तु प्राप्त नहीं हुआ । 'पानी के बिना वह जियेगी नहीं' - इस प्रकार तोरई की लता को देखकर उसके रस को मिलाने से दानेदार भी रक्त जल के सदृश हो जाता है'- इस प्रकार स्मरण किये गये प्रयोग से उसके लिए तोरई की लता के रस से अपनी बाहुओं के खून को निकालकर, जल के रूप में बदलकर भूख को मिटाने के लिए उसी जंगल की आग के द्वारा अपनी जाँघ के मांस को पकाकर अन्यथा यह निःसंशय नहीं होगी अर्थात् मर जाएगी और इसके मर जाने पर मेरे जीने से क्या लाभ । मेरे पास घाव भरने की औषधि है अतः उस दवा को रुधिर के साथ मिला देने पर जिसका घाव भर गया है, ऐसा मैं हो जाऊँगा और इसे भी दुःख नहीं होगा, ऐसा विचार - १, जीए य - क । २. रट्ठि - क । ४७६ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० [ समराइच्चकहा समीवं । भणि या य एसा- सुन्दरि, संपन्नमुदयं, ता पियउ सुन्दरी । पियं च णाए। समासत्था एसा। उवणीयं च से मंसं । भणियं णेणं - सुन्दरि, एयं खुवणदवविवन्नससयभंसं, भुक्खिया य तुभं, ता आहारसुत्ति । आहारियमिमीए। तओ कंचि वेलं गमेऊण पपट्टाणि दिणयराणुसारेण उत्तरामुहं । पत्ताणि य महासरं नाम' मयरं । अत्थामओ सूरिओ त्ति न पइट्ठागि नयरं । ठियाणि जक्खालए। तओ अइक्कंते जाममेत्ते जंपियं लच्छीए-अज्जउत्त, तिसाभिभूय म्हि । धरणेण भणियं-सुन्दरि, चिट्ठ तुम, आणेमि उदयं नईओ। गहिओ तत्थ वारओ, आणीयमदयं। पीयं च णाए। पसुत्तो धरणो। चरिमजामम्मि य विउद्धा लच्छी। चितियं च णाए- अणुकलो मे विही, जेण एसो ईइसं अवत्थं पाविओ त्ति । ता केण उवाएण इओ वि अहिययरं से हवेज्ज त्ति । एत्थंतरम्मि य आरक्खियपुरिसपेल्लिओ गहियरयणभंडो खीणगमणसत्ती पविट्ठो चंडरद्दाभिहाणो तक्करो। रुद्धं च से वारं। भणियं चारक्खियनरेहि-अरे, अप्पमत्ता हवेज्जह । गहिओ खु एसो, कहिं वच्चइ त्ति । सुयं च एवं लच्छोए, पलाशपत्रपुटे सम्पादितं समीहितमिति । गतश्च तस्याः समीपम् । भणिता चैषा-सुन्दरि ! सम्पन्नमुदकम्, ततः पिबतु सुन्दरी। पीतं चानया। समाश्वस्तैषा। उपनीतं च तस्य मांसम् । भणितं च तेन-सुन्दरि ! एतत्खलु वनदवविपन्नशशकमांसम्, बुभुक्षिता च त्वम्, तत आहरेति । आहृतमनया। ततः काञ्चिद् वेलां गमयित्वा प्रवृत्तौ दिनकरानुसारेणोत्तरामुखम् । प्राप्तौ च महाशरं नाम नगरम् । अस्तमितः सूर्य इति न प्रविष्टौ नगरम् । स्थितौ यक्षालये । ततोऽतिक्रान्ते याममात्रे जल्पितं लक्ष्म्या-आर्यपुत्र ! तृषाऽभिभूताऽस्मि। धरणेन भणितम्-सुन्दरि ! तिष्ठ त्वम्, 'आनयाम्युदकं नद्याः, गृहीतस्तत्र वारक: (पात्रम्), आनीतमुदकम् । पीतं चानया। प्रसुप्तो धरणः । चरमयामे च विबुद्धा लक्ष्मीः । चिन्तितं चानया-अनुकूलो मे विधिः, येन एष ईदृशीमवस्थां प्रापित इति । तत केनोपायेन इतोऽप्यधिकतरं तस्य भवेदिति । अत्रान्तरे चारक्षकपुरुषपीडितो गृहीतरत्नभाण्डः क्षीणगमनशक्तिः प्रविष्टश्चण्डरुद्राभिधानस्तस्करः । रुद्धं च तस्य द्वारम् । भणितं चारक्षकनरैः- अरे अप्रमत्ता भवत। गृहीतः खल्वेषः, कुत्र व्रजतीति। श्रुतं चैतद् लक्ष्म्या, आकणितश्चण्ड कर अपनी छुरी से पलाश के दोनों में इष्ट कार्य कर डाला। उसके समीप गया। उससे कहा-“हे सुन्दरी ! यह पानी मिल गया, अतः तुम पिओ।" इसने पिया । यह शा-त हुई, उसे मांस भी दिया और उसने (धरण ने) कहा"हे सुन्दरी ! वनाग्नि से मरे हुए खरगोश का यह मांस है और तुम भूखी हो, अत: ले लो।" इसने ले लिया। . इसके बाद कुछ समय बिताकर सूर्य के अनुसार उत्तर की ओर प्रवृत्त हुए और दोनों महाशर नामक नगर को प्राप्त हए । चुंकि सूर्य अस्त हो गया था, अत: नगर में प्रविष्ट नहीं हुए। दोनों यक्षालय में टह प्रहर मात्र बीत जाने पर लक्ष्मी ने कहा-"आर्यपुत्र ! मैं प्यास से व्याकुल हूँ।" धरण ने कहा सुन्दरी ! तुम ठहरो, मैं नदी से जल लाता हूँ।" बर्तन (वारक) ले लिया, पानी लाया। इसने पी लिया । धरण सो गया । अन्तिम प्रहर में लक्ष्मी जाग उठी। इसने सोचा - विधाता मेरे अनुकूल है जिसके द्वारा यह इस अवस्था को पहुँचाया गया। ऐसा कौन-सा उपाय है, जिससे इससे भी अधिक हो । इसी बीच सिपाहियों से पीड़ित, रत्नपात्र को लिये हुए, जिसकी चलने की शक्ति क्षीण हो गयी थी. ऐसा चण्डरुद्र नामक चोर प्रविष्ट हआ। उसका द्वार रोक लिया गया। सिपाहियों ने कहा-"अरे अप्रमत्त होओ । इसे पकड़ लिया गया, कहाँ जाएगा !" लक्ष्मी ने यह सुना और चण्डरुद्र Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो भवो ] ४८१ आयण्णिओ चंडरुद्दपयसद्दो । चितियं च णाए-भवियव्वं एत्य कारणेण। ता पुच्छामि एयं, कि पुण इमं ति । कयाइ पुज्जति मे मणोरहा। तओ दोहसंकारपिसुणियं गया चंडरुद्दसमीवं। पुच्छिओ एसो-- भद्द, को तुम, किं वा एए दुवारदेसंमि इमं वाहरंति । तेण भणियं --सुन्दरि, अलं मए। किं तु पुच्छाम सुन्दर 'अवि अस्थि कहिंचि थेवमुदयं' ति। तीए भणियं - अत्थि जई मे पोयणं साहेसि। तओ चितियमणेणं । अहो धीरया इत्थियाए, अहो साहसं, अहो क्यणविन्नासो; ता भवियत्वमिमीए पत्तभूयाए ति । वितिऊण जंपियं चंडरुद्देण-सुन्दरि, महंतो खु एसा कहा, न संखेवओ कहिउं पारीयइ। तहावि सुण। संपयं ताव तक्करो अहं, नरिंदगेहाओ गहेऊण रयणभंडं नोसरन्तो नयराओ उवलद्धो बंडवासिएहि। लग्गा मे मग्गओ बहुया दंडवासिवा, एगो य अहयं । खीणगमणसत्ती य एत्थ पविट्ठो त्ति। एए य अंधारयाए रयणीए सावेक्खयाए जीवियस्स साहारणयाए पओयणस्स 'संपन्नं च णे अहिलसियं' ति मन्नमाणा दुवारदेसभायं निरुम्भिऊण दंडवासिया एवं वाहरति । तओ संपन्नं मे समीहियं, जइ विही अणुवत्तिस्सइ' त्ति चितिऊणं जंपियं लच्छीएभह, जइ एवं, ता अलं ते उव्वएणं; अहं तुमं जीवावेमि, जइ मे वयणं सुणे सि । चंडरुद्देण भणियंरुद्रपदशब्दः । चिन्तितं चानया - भवितव्यमत्र कारणेन। ततः पृच्छाम्येतम्, किं पुनरिदमिति । कदाचित पूर्यन्ते मे मनोरथाः। ततो दीर्घसुत्कारपिशुनितं गता चण्डरुद्रसमीपम् । पृष्ट एषः-भद्र ! कस्त्वम्, किंवा एते द्वारदेशे इदं व्याहरन्ति । तेन भणितम् - सुन्दरि ! अलं मया (मे प्रश्नेन); किन्तु पच्छामि सुन्दरीम, 'अप्यस्ति अत्र कथंचित् स्तोकमुदकम्' इति । तया भणितम्- अस्ति, यदि मे प्रयोजनं कथयसि । ततश्चिन्तितमनेन -अहो धीरता स्त्रियाः, अहो साहसम्, अहो वचनविन्यासः, ततो भवितव्यमनया पात्रभूतयेति चिन्तयित्वा जल्पितं चण्डरुद्रेण-सुन्दरि ! महती खल्वेषा कथा, न संक्षेपतः कथयितं पार्यते, तथापि शृणु । साम्प्रतं तावत्तस्करोऽहम्, नरेन्द्रगृहाद् गृहीत्वा रत्नभाण्ड निःसरन नगरादुपलब्धो दण्डपाशिकः । लग्ना मे मार्गतो (पृष्ठतः) बहवः दण्डपाशिकाः, एकश्चाहम, क्षीणगमनशक्तिश्चात्र प्रविष्ट इति । एते चान्धकारतया रजन्याः सापेक्षतया जीवितस्य साधारणतया प्रयोजनस्य 'संपन्नं नोऽभिलषितम्' इति मन्यमाना द्वारदेशभागं निरुध्य दण्डपाशिका एवं व्याहरन्ति । ततः संपन्नं मे समीहितं यदि विधिरनुवतिष्यते' इति चिन्तयित्वा जल्पितं लक्ष्म्या - भद्र ! यद्येवं ततोऽलं ते उद्वेगेन, अहं त्वां जीवयामि, यदि मे वचनं शृणोसि । चण्डरुद्रेण भणितम्के पैरों की आवाज को भी सुना। इसने सोचा-कुछ कारण होना चाहिए, अतः इससे पूछती हूँ- यह क्या है ? नित मेरा मनोरथ पूरा हो जाय। तब लम्बी श्वास की सूचना पाकर चण्डरुद्र के समीप गयी। इससे पळा-भद्र ! तुम कौन हो? और इस द्वार पर ये क्या बोल रहे हैं ? उसने कहा-सुन्दरी ! मेरे विषय में प्रश्न मत करो, किन्तु सुन्दरी ! मैं पूछता हूँ, क्या यहाँ थोड़ा जल है ? उसने कहा-है, यदि मुझे प्रयोजन बतलाओगे तो। तब इसने सोचा--अहो स्त्रियों को धीरता, अहो साहस, अहो वचनों का विन्यास, इसे (सुनने का) पात्र होना चाहिए.-ऐसा सोचकर चण्ड रुद्र ने कहा-सुन्दरी ! यह कथा बहुत बड़ी है, संक्षेप करना आसान नहीं है. फिर भी सुनो। इस समय मैं चोर हूँ। राजा के घर से रत्नपात्र लेकर नगर से निकलते हुए सिपाहियों ने मुझे देख लिया। मेरे पीछे-पीछे बहुत से सिपाही लग गये, मैं अकेला हूँ, गमन करने की शक्ति क्षीण हो जाने के कारण यहाँ प्रविष्ट हो गया हूँ। ये सिपाही-रात्रि के अन्धकारयुक्त होने, प्राणों के सापेक्ष होने तथा प्रयोजन सामान्य होने के कारण 'मेरा अभिलषित कार्य सम्पन्न हो गया'-ऐसा मानते हुए द्वार के स्थान को रोक कर इस प्रकार कह रहे हैं -'यदि दैव अनुकूल हुआ तो मेरा इच्छित कार्य पूरा हो गया। लक्ष्मी ने कहा- यदि ऐसा है तो मन घबड़ाओ, मै तुम्हें जिलाती हूं, यदि मेरे वचनों को सुनते हो तो !' चण्डरुद्र ने कहा--हे सुन्दरी ! आज्ञा दो। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ समराइच्चकहा आणवेउ सुंदरी । लच्छीए भणियं-सुण । अहं खु मायंदीनिवासिणो कत्तियसे द्विस्स धूया लच्छिमई नाम पुत्ववैरिएण वि य परिणीया धरणेण । अणिट्ठो मे भतारो, पसुत्तो य एसो एत्थ देवउले । ता अंगीकरेहि मं, परिच्चयसु मोसं, पावेउ एसो' सकम्मसरिसं गति । पहायाए रयणीए गिहीएहि तुम्भेहि नरवइसमक्खं पि भणिस्सामि अहयं 'एसो महं भत्तारो, न उण एसो' त्ति । तओ सो चेव' भयवओ कयंतस्स पाहुडं भविस्सइ। चंडरुद्दण भणियं-सुन्दरि, अत्थि एयं, कि तु अहमेत्थ वत्यव्यओ चउवरणपडिबद्धो। अओ रियाणइ मे तं अगिहीयनाम सव्वलोओ चेव एत्थ भहिलियं त्ति । लच्छीए भणियं-जइ एवं, ता को पण इह उवाओ। चंडदेण भणियं - अस्थि ए.थ उवाओ, जइ थेवमुदयं हवइ। तीए भणियं कहं विय'। चंडरुद्देण भणियं - सुण। अस्थि मे चिंतामणिरयणभूया भयवया खंदरुद्देण विइण्णा दिटुपच्चया परदिटिमोहणी नाम चोरगुलिया। तीए य उदयसंजोएण अंजिएहि नयणेहि सहस्सलोयणो देवाहिवो वि न पेच्छइ पाणिणं, किमंग पुण मच्चलोय. वासी जणो । लच्छीए भणियं-जइ एवं, ता कहिं गुलिया। चंडरुद्देण भणिध - "उट्टियाए । लच्छोए आज्ञापयतु सुन्दरी । लक्ष्म्या भणितम् -शृणु । अहं खलु माकन्दीनिवासिनः कार्तिकश्रेष्ठिनो दुहिता लक्ष्मीवती नाम पूर्ववैरिकेनापि च परिणीता धरणेन । अनिष्टो मे भर्ता, प्रसुप्तश्च एषोऽत्र देवकुले । ततोऽङ्गीकुरु माम्, परित्यज मोषं (मुषितम्), प्राप्नोत्वेष स्वकर्मसदृशीं गतिम् । प्रभातायां रजन्यां गृहीतयोर्युवयोर्नरपतिसमक्षमपि भणिष्याम्यहम् ‘एष मम भर्ता, न पुनरेष' इति । ततः स एव भगवतः कृतान्तस्य प्राभृतं भविष्यति । चण्डरुद्रेण भणितम्-सुन्दरि ! अस्त्येतत्, किन्तु अहमत्र वास्तव्यश्चतुश्चरणप्रतिबद्धः (भार्यायुक्तः), अतो विजानाति मे तामगृहीतनाम्नीं सर्वलोक एवात्र महिलामिति । लक्ष्म्या भणितम् --यद्येवं ततः कः पुनरिहोपायः। चण्डरुद्रेण भणितम्-अस्त्यत्र उपायः, यदि स्तोकमुदकं भवति । तया भणितम्-'कथमिव' । चण्डरुद्रेण भणितम् - शृणु। अस्ति मे चिन्तामणिरत्नभूता भगवता स्कन्दरुद्रेण वितीर्णा दृष्टप्रत्यया परदृष्टिमोहनी नाम चौरगुटिका। तया चोदकसंयोगेन अजितयोर्नयनयोः सहस्रलोचनो देवाधिपोऽपि न प्रेक्षते प्राणिनम्, किमङ्ग पुनर्मर्त्यलोकवासी जनः । लक्ष्म्या भणितम्– यद्येवं ततः कुत्र गुटिका? चण्ड रुद्रेण भणितम्लक्ष्मी ने कहा-सुनो ! मैं माकन्दी के निवासी कार्तिक सेठ की पुत्री लक्ष्मीवती हूँ। पूर्वजन्म के वैरी धरण के साथ मेरा विवाह हुआ है । मेरा पति मुझे इष्ट नहीं है । यह मन्दिर में सो रहा है । अत: मुझे अङ्गीकार करो, चोरी छोड़ दो, यह (धरण) अपने कर्मों के अनुसार गति प्राप्त करे। रात्रि के बाद प्रभात होने पर आप दोनों के पकड़े जाने पर भी राजा के सामने नहीं कहूँगी-'यह मेरा पति है, यह नहीं ।' अतएव वही भगवान् यम का अतिथि होगा । चण्डरुद्र ने कहा- सुन्दरी, यह ठीक है, किन्तु यहाँ का निवासी मैं भार्यायुवत हूँ। अतः सभी लोग जानते हैं कि यह मेरी पत्नी है । लक्ष्मी ने कहा - यदि ऐसा है तो फिर यहाँ क्या उपाय है ? चण्डरुद्र ने कहायदि थोड़ा जल हो तो उपाय है। उसने कहा- कैसे? चण्डरुद्र ने कहा-सुनो ! मेरे पास चिन्तामणिरत्न के समान भगवान् स्कन्दरुद्र द्वारा दी गयी विश्वस्त परदृष्टिमोहिनी नाम की चोरगोली है । उसे जल के साथ नेत्रों में आँजनेवाले मनुष्य को हजार नेत्रवाला इन्द्र भी नहीं देख सकता है, मर्त्यलोक के वासी मनुष्य की तो बात ही क्या है ! लक्ष्मी ने कहा-- यदि ऐसा है तो गोली कहाँ है ? चण्ड रुद्र ने कहा-उष्ट्रिका (पात्र विशेष) में। लक्ष्मी ने कहा- यदि ऐसा है तो क्यों नहीं आँज लेते? चण्डरुद्र ने कहा- जल नहीं है । लक्ष्मी ने कहा १. सो संपयमसरिसं-क । २. चेव नरवई-क । ३. पट्टविस्सइ-क। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८३ छट्ठो भवो ] भणियं - जइ एवं, ताकि न अंजेसि । चंडरुद्देण भणियं - 'नत्थि उदयं' ति । लच्छीए भणि:- 'अहं देमि' | चंडरुद्देण भणियं - 'जीवाविओ भोईए' । दिन्नमुदयं । दुवैहिं पि' अंजियाई लोयणाई | भणिया एसा - सुन्दरि, अणोणिए सत्यवाहपुत्तंमि न तए गंतव्वं ति । पडिस्सुयमिमीए । मुक्कं रणभंड धरणतमीवे । ठियाई एगदेसे | पहाया रयणी । उट्ठओ धरणो । गहिओ आरक्खिहि । निहालियं रयणमंड, उवलद्धं च तस्स समोवे । तओ नीणिओ देवउलाओ । बद्धो ख एसो । चितियं च णेण । हंत किमेयं ति । अहवा न किंचि अन्नं; अवि य पडिकूलस्स विहिणो वियम्भियं ति । पडिकूले य एयंमि अमयं पि हु विसं, रज्जू वि य किण्हसप्पो, गोप्पयं पि सायरो, अणू वि य गिरी, मूसयविवरं पिरसादलं, सुयणो वि दुज्जणो, सुओवि वइरी, जाया वि भुजंगी, पयासो वि अंधयारं, खंती व कोहो मद्दवं पि माणो, अज्जवं पि माया, संतोसो वि लोहो, सच्चं पि अलियं, पिधं पि फरसं, क्लत्तंपि ( मित्तं पि) वेरिओति । ता कि इमिणा वि चितिएणं । एयस्स वसवत्तिणा न तीरए अन्नहा वट्टिउं । इमाओ 'उष्ट्रिकायां' (पात्रविशेषे ) । लक्ष्म्या भणितम् - यद्येवं ततः किं नाञ्जयसि ? चण्डरुद्रेण भणितम्नास्त्युदकमिति । लक्ष्म्या भणितम् -'अहं ददामि । चण्डरुद्रेण भणितम् - जीवितो भवत्या' । दत्तमुदकम् । द्वाभ्यामपि अञ्जिते लोचने । भणिता चैषा । सुन्दरि ! अनीते सार्थवाहपुत्रे न त्वया गन्तव्यमिति । प्रतिश्रुतमनया । मुक्तं रत्नभाण्डं धरणसमीपे । स्थिता वेकदेशे । प्रभाता रजनी । उत्थितो धरणः । गृहीत आरक्षकैः । निभालितं रत्नभाण्डम्, उपलब्धं च तस्य समीपे । ततो नीतो देवकुलाद्, बद्धः खल्वेषः । चिन्तितं च तेन - हन्त किमेतदिति । अथवा न किञ्चिदन्यत्, अपि च प्रतिकूलस्य विधेर्विजृम्भितमिति । प्रतिकूले चैतस्मिन् अमृतमपि खलु विषम्, रज्जुरपि च कृष्णसर्पः, गोष्पदमपि सागरः, अणुरपि च गिरिः, मूषकविवरमपि रसातलम्, सुजनोऽपि दुर्जनः सुतोऽपि वैरी, जायाऽपि [ माताऽपि ] भुजङ्गी ( व्यभिचारिणी), प्रकाशोऽपि अन्धकारम्, क्षान्तिरपि क्रोधः, मार्दवमपि मानः, आर्जवमपि माया, संतोषोऽपि लोभ:, सत्यमपि अलीकम्, प्रियमपि परुषम्, कलत्रमपि ( मित्रमपि ) वैरिकमिति । ततः किमनेनापि चिन्तितेन । मैं देती हूँ । चण्डरुद्र ने कहा-अपने जिला लिया । पानी दिया। दोनों ने नेत्रों को आज लिया । इसने कहासुन्दरी ! सार्थवाहपुत्र के रत्नपात्र को न लेने पर (तक) तुम्हें नहीं जाना चाहिए। इसने स्वीकार किया । रत्नपात्र को धरण के समीप छोड़ दिया। ये दोनों एक स्थान पर ठहर गये ( खड़े हो गये) । प्रातः काल हुआ । धरण उठा । सिपाहियों ने पकड़ लिया । रत्नपात्र को देखा, उसके पास में प्राप्त हुआ । तब मन्दिर से ले जाकर इसे बाँध दिया। उसने सोचा- हाय ! यह क्या है ! अथवा अन्य कुछ भी नहीं है, भाग्य की विपरीत परिणति है । भाग्य के विपरीत हो जाने पर अमृत भी विष हो जाता है, रस्सी भी काला साँपा हो जाती है, गोष्पद ( छोटा-सा गड्ढा ) भी सागर हो जाता है, अणु भी पर्वत हो जाता है, चूहे का बिल भी रसातल हो जाता है, अच्छा व्यक्ति भी बुरा हो जाता है, पुत्र भी वैरी हो जाता है, पत्नी भी व्यभिचारिणी हो जाती है, प्रकाश भी अन्धकार हो जाता है, क्षमा भी क्रोध हो जाता है, मृदुता भी मान हो जाती है, सरलता भी माया हो जाती है, संतोष भी लोभ हो सत्य भी झूठ हो जाता है । प्रिय भी कठोर हो जाता हैं । बन्धु बान्धव भी बैरी बन जाते हैं विचार से क्या लाभ? इसके वशवर्ती । १. दिन्नं से जयमं लच्छीएक । २. पि संजोइऊण गुणियक । ३. माया - खः । जाता है, अतः इस Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ समराइच्च कहाँ वि य कयस्थणाओ इमं मे अहियं बाहइ, जं सा तवस्सिणी अदिट्ठबन्धुविरहा न दीसइ । 'अहवा वरं न दिट्ठा चेव । मा सा वि मे संसम्गिकलंकदासिया इमं चेव पाविस्सइ त्ति। चितयंतो नीओ रायउलं । अप्पत्थावो नरिंदस्स त्ति धरिओ रायमगे। अइक्कतो वासरो। अवसरो ति कलिय निवेइओ नरिन्दस्स । देव, सलोत्तओ चेव मायापओयकुसलो वाणिययवेसधारी गहिओ महाभुयंगो। संपयं देवो पमाणं ति । तओ राइणा भणियं-कि तेण, बावाएह ति। नीओ हिं पाणवाडयं । समप्पिओ रायउलकमागयाणं वहनिओगकारीणं पच्चइयपाणाणं। भणिया य एए-हरे, देवो समाइसइ 'एस तक्करो वावाइयव्वो' त्ति । तेहिं भणियं-जं देवो आणवेइ ति। समप्पिऊण तेसि गया डंडवासिया। भणि चंडालमयहरेण । हरे, कस्स वावायणमासवारओ। चंडालेहि भणियं 'मोरियस्स' । तेण भणियं-लहुं सद्दावेह मोरियं । सहाविओ मोरियो, आगओ य । भणिओ मयहरेण । हरे मोरिय, एस तक्करो देवेण पेसिओ वावाइयवो त्ति । ता नेऊण मसाणभूमि लहं वावाएहि । जाममेत्तावसेसो य एतस्य वशवर्तिना न शक्यतेऽन्यथा वर्तितम । अस्या अपि च कदर्थनाया इदं मेऽधिकं बाधते, यत्सा तपस्विनी अदृष्टबन्धुविरहा न दृश्यते । अथवा वरं न दृष्टैव । मा साऽपि मे संसर्गकलङ्कदूषिता इमा (कदर्थनां) एव प्राप्स्यतीति । चिन्तयन् नीतो राजकुलम् । अप्रस्तावो नरेन्द्रस्येति धृतो राजमार्गे। अतिक्रान्तो वासरः । अवसर इति कलित्वा निवेदितो नरेन्द्रस्य । देव ! सलोप्त्रक एव मायाप्रयोगकुशलो वाणिजकवेषधारी गृहीतो महाभुजङ्गः । साम्प्रतं देवः प्रमाणमिति । ततो राज्ञा भणितम् - किं तेन, व्यापादयतेति । नीतस्तैः प्राणवाटकम् (चण्डालवाटकम)। समर्पितो राजकुलक्रमागतानां प्रत्ययितविश्वस्तप्राणानाम् । भणिता चैते। अरे देवः समादिशति 'एष तस्करो व्यापादयितव्यः' इति । तैर्भणितं- यद देव आज्ञापयति इति । समर्प्य तेभ्यो गता दण्डपाशिकाः। भणितं--चण्डालमुख्येन -अरे कस्य व्यापादनमासवारक: ? चण्डालर्भणितं - 'मौर्यस्य'। तेन भणितम्- लघु शब्दाययत मौर्यम् । शब्दायितो मौर्य आगतश्च । भणितो मुख्यचण्डालेन-अरे मौर्य ! एष तस्करो देवेन प्रेषितो व्यापादयितव्य इति । ततो नीत्वा श्मशानभूमि लघु व्यापादय । याममात्रावशेषश्च वासरः, होने पर अन्य प्रकार का आचरण नहीं किया जा सकता। इससे भी यह अत्याचार मुझे अधिक दुःख देता है कि वह बेचारी, जिसने बन्धुविरह को नहीं देखा है, यहाँ नहीं दिखाई देती है। अथवा उसका न दिखाई देना ही उत्तम है । मेरे संसर्ग के कलङ्क से दूषित वह भी इस अत्याचार को प्राप्त न करे । इस प्रकार विचार करता हुआ वह राजकुल (राजदरबार) की ओर ले जाया गया। राजा को समय नहीं था अतः सड़क पर रखा गया। दिन व्यतीत हो गया । समय आने पर राजा से निवेदन किया गया-देव ! चोरी के माल के साथ ही माया के प्रयोग में कुशल वणिक् वेषधारी बहुत बड़ा चोर पकड़ा गया। इस समय देव ही प्रमाण हैं अर्थात् अब जो करना हो, आप कीजिए। तब राजा ने कहा-उससे क्या (प्रयोजन)? मार डालो। चाण्डाल (प्राणवाटक) के घर ले जाया गया। राजा के कुल क्रम से चले आये विश्वस्त पुरुषों को समर्पित किया गया। इनसे कहा गया-- रे ! महाराज आज्ञा देते हैं-इस चोर को मार डालो। उन्होंने कहा-जो महाराज की आज्ञा । उनको समर्पित कर सिपाही चले गये। मुख्य चाण्डाल ने कहा-अरे ! किसके मारने की बारी है ? चाण्डालों ने कहा-मौर्य की। उसने कहाशीघ्र ही मौर्य को बुलाओ। मौर्य को बुलाया गया, (वह) आया। मुख्य चाण्डाल ने कहा-रे मौर्य ! इस चोर का वध करने के लिए महाराज ने भेजा है, अतः श्मशानभूमि में ले जाकर शीघ्र मार दो। दिन का एक प्रहरमात्र ही शेष है, १. अन्न 'पिया वि मियारी, अंधवा विग्धा' इत्यधिक: पाठ:-क। २. भणियमारविखएहि' इत्पधिकः पाठः-क। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो भवो ] ४८५ बासरो, एहि अवावाइए मा रयणीए पमाओ भविस्सइ । मोरियएण भणियं-जं तुम भणसि त्ति समप्पिओ मोरियस्स पच्चभिन्नाओ' य जेणं । 'कहं सो चेव एसो जीवियदायओ मे सत्थवाहपुत्तो; अहो कद्र, इमस्स वि ईइसी अवत्थ' त्ति चितिऊण विसण्णो मोरियओ। चितियं च जेणं । अहवा पावेंति चंददिवायरा वि महुत्तमेत्तं गहकल्लोलामो आवई। बहुमओ य मे सामिसालसमाएसो एयस्स दंसणेणं । ता नेमि ताव एवं मसाणभूमि । जाणामि य इमाओ जहटियं वुत्तंतं । नीओ ससाणभमि, छोडिया बंधा, चलणेसु निवडिऊणं पुच्छिओ य जेणं। अज्ज, अवि सुमरेसि मं आयामहीए विमोइयं । धरणेग भणियं -- भद्द, न सूटठ सुमरेमि । मोरियएण भणियं-कहं न सुमरेसि, जो भवं विय अचोरो चेव 'चोरो'त्ति कलियगहिओ अहं महया दविणजारण पेच्छिऊण नरवइं तर विमोइओ त्ति। धरणेण भणियं-भद्द, थेवमेयं मोरिएण। भणियं, ता साहेउ अज्जो, कहं पुण अज्जस्स ईइसी अवस्थ त्ति। धरणेण भणियं-भद्द, देव्वं एत्थ पुच्छसु त्ति। मोरिएण चिन्तियं, न एत्थ कालक्खेवेण पओयणं, अहिमाणी य एसो कहं कहइस्सइ। किं वा कहिएणं । विचित्ताणि इदानीमव्यापादिते मा रजन्यां प्रमादो भविष्यति । मौर्येण भणितम्-यत्त्वं भणसीति । समर्पितो मौर्यस्य प्रत्यभिज्ञातश्च तेन । कथं स एवैष जीवितदायको मे सार्थवाहपुत्रः, अहो कष्टम् , अस्यापीदशी अवस्थेति चिन्तयित्वा विषप्णो मौर्यः । चिन्तितं च तेन- अथवा प्राप्नुतश्चन्द्रदिवाकरावपि मुहूर्तमात्रं ग्रहकल्लोलाद् (राहोः) आपदम् । बहुमतश्च मे स्वामिसमादेश एतस्य दर्शनेन । ततो नयामि तावदेतं दमशानभूमिम् । जानामि चारमाद् यथास्थितं वत्तान्तम । नीतो श्मशानभमिम, छोटिता बन्धा:. चरणयोनिपत्य पष्टश्चानेन-आर्य ! स्मरसि मामायामुख्यां विमोचितम् ? धरणेन भणितम्- न सुष्ठ स्मरामि । मौर्येण भणितम्कथं न स्मरसि, यो भवानिव अचोर एव 'चोर' इति कलयित्वा गृहीतोऽहं महता द्रविणजातेन प्रेक्ष्य नरपति त्वया विमोचित इति । धरणेन भणितम्-भद्र ! स्तोकमेतद् । मौर्येण भणितम्-तत: कथयत्वार्यः, कथं पुनरार्यस्य ईदशी अवस्थेति । धरणेन भणितम्-भद्र ! दैवमत्र पृच्छेति । मौर्येण चिन्तितम्-नात्र कालक्षेपेन प्रयोजनम्, अभिमानी चैष कथं इस समय न मारे जाने पर रात्रि में प्रमाद न हो । मौर्य ने कहा- जो आप कहें। मौर्य को समर्पित किया गया, उसने पहिचान लिया। क्या मुझे प्राण दिलानेवाला यह वही सार्थवाहपुत्र है ? ओह कष्ट है, इसकी भी ऐसी अवस्था हुई !-ऐसा सोचकर मौर्य दुःखी हुआ। उसने सोचा- अथवा चन्द्र सूर्य भी मुहूर्तमात्र के लिए राहु द्वारा ग्रसे जाकर आपदा को प्राप्त होते हैं । इसका दर्शन (प्राप्त) होने से राजा का आदेश मुझे अधिक मान्य (सिद्ध हुआ) है। अतः इसे श्मशानभूमि में ले जाता हूँ। इससे सही वृत्तान्त ज्ञात करूँगा। श्मशानभूमि में ले गया, बन्धनों को छोड़ा, पैरों में पड़कर इससे पूछा- आर्य ! आयामुखी में जो मुझे आपने छुड़ाया था, उसकी याद है ? धरण ने कहा- ठीक से याद नहीं है। मौर्य ने कहा - कैसे याद नहीं है जो कि आपके ही समान अवोर को चोर- ऐसा मानकर ग्रहण किए गए मुझे आपके ही द्वारा राजा को बहुत धन दिए जाने पर राजा से छुड़वा दिया गया था। धरण ने कहा- यह थोड़ा है (छोटी-सी बात है)। मौर्य ने कहा-आर्य कहें - आर्य की ऐसी अवस्था कैसे हुई ? धरण ने कहा -भद्र ! यहाँ पर भाग्य से पूछो । मौर्य ने विचार किया- यहाँ पर काल के व्यवधान से क्या प्रयोजन ? अभिमानी यह कैसे कहेगा? अथवा कहने से क्या ? विधाता का विलास १. पच्चहिन्नानो-क। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ समराइच्चकहा विहिणो विलसियाणि । ता कि ममेइणा निबंधेण । अहवा कहियं चेवाणेण परमत्थओ 'देव्वं पुच्छसुत्ति भणमाणेण। ता इमं ताव एत्थ पत्तयालं, जे एसो इओ लहु विसज्जीयइ ति। चितिऊण भणिओ खु एसो। अज्ज, किं बहुणा जंपिएण; मोत्तण विसाय लहुँ अवक्कम। धरणेण भणियं - भद्द, न खलु अहं परपाणेहिं अत्तणो पाणे रक्खेमि। ता वावाएहि मं निद्देसकारी खु तुमं ति। मोरिएण भणयिं-अज्ज, अलं मझ पाणविणाससंकाए । सतपुरिसो खु एस सया, न अम्हाणं अवराहसए वि य पाणवावत्ति करेइ। अगच्छमाणे य अज्जे अवस्समहप्पाणं वावाएमि । ता गच्छउ अज्जो। तओ 'नस्थि अविसओ सज्जणसिहस्स' त्ति चितिऊण जंपियं धरणेणं-भद्द, जइ एवं, ता अवकमामि । मोरिएण भणियं-अणुग्गिहीओ म्हि । दंसिओ से पंथो । पणमिऊगय नियत्तो मोरिओ । मित्तोवरोहेण पलाणो धरणो। चितियं च जेण । अह कहिं पुण सा मुद्धमयलोयणा भविस्सइ । नूणमुखरोहसीलयाए मं अणुटुक्यि : पासवणनिमित्तमुटिया केणावि तक्करेणं समासाइया भवे, नीया य घेणं, मम विणासा संकिणीए न जंपियमिमीए; अन्नहा कहं न दिट्ठ ति। असणेणं च तीसे विहलमेव पाणलाहं • कथयिष्यति, किं वा कथितेन । विचित्राणि विधेविलसितानि । तत: किं ममैतेन निर्बन्धेन । अथवा कथितमेवानेन परमार्थतो 'दैवं पृच्छ' इति भणता। तत इदं तावदत्र प्राप्तकालम, यदेष इतो लघ विसर्च्यते इति। चिन्तयित्वा भणित: खल्वेषः । आर्य ! किं बहुना जल्पितेन, मुक्त्वा विषादं लघ. अपक्राम। धरणेन भणितम्-भद्र ! न खल्वहं परप्राणैरात्मनः प्राणान रक्षामि। ततो व्यापादय माम, निर्देशकारी खलु त्वमिति । मौर्येण भणितम् - आर्य! अलं मम प्राणविनाशशङया। सत्पुरुषः खल्वेष राजा, नास्माकमपराधशतेऽपि च प्राणव्यापत्ति करोति । अगच्छति चार्ये अवश्यमहमात्मानं व्यापादयामि । ततो गच्छत्वार्यः। ततो 'नास्त्यविषयः सज्जनस्नेहस्य' इति चिन्ययित्वा जल्पितं धरणेन । भद्र ! यद्येवं ततोऽपक्रामामि । मौर्येण भणितम्-अनुगहीतोऽस्मि । दर्शितस्तस्य पन्थाः। प्रणम्य च निवृत्तो मौर्यः । मित्रोपरोधेन पलायितो धरणः । चिन्तितं च - तेन-अथ कुत्र पुनः सा मुग्धमृगलोचना भविष्यति, नूनमुपरोधशीलतया मामनुत्थाप्य प्रस्रवणनिमित्तमत्थिता केनापि तस्करेण समासादिता भवेत्, नीता च तेन, मम विनाशाशङ्किन्या न जल्पितमनया, अन्यथा कथं न दृष्टेति । अदर्शनेन च तस्या विफलमेव प्राणलाभं मन्ये इति । विचित्र है, अतः मुझे इस से क्या लाभ ? अथवा इसने सत्य ही कह दिया कि भाग्य से पूछो। अत: अब समय आ गया है कि इसे जल्दी छोड़ा जाय। विचारकर इसने कहा - आर्य ! अधिक कहने से क्या, विषाद को छोड़कर जल्दी भाग जाओ। धरण ने कहा- मैं दूसरों के प्राणों से अपने प्राणों की रक्षा नहीं करता। अत: मुझे मार डालो। तुम तो आज्ञा-पालन करनेवाले हो। मौर्य ने कहा - मेरे प्राणों के विनाश की शङ्का मत करो। यह राजा सत्परुष है. मेरे हजार अपराध करने पर भी मुझे नहीं मारेगा। आर्य नहीं जाएँगे तो अवश्य ही अपने मार डालंगा । अत: आर्य जाएँ। तब (कोई भी पदार्थ) सज्जनों के स्नेह का अविषय नहीं है-ऐसा सोचकर धरण ने कहा -भद्र ! यदि ऐसा है तो भागता हूँ । मौर्य ने कहा - मैं अनुगृहीत हूँ। उसे रास्ता दिखाया। प्रणाम करके मौर्य लौट आया। मित्र के अनुग्रह से धरण भाग गया। उसने सोचा - वह मुग्ध नेत्रोंवाली कहाँ होगी? निश्चित ही अन्तःपुर की शीलता के कारण मुझे उठाए बिना ही पेशाब के लिए उठी हुई उसे किसी चोर ने पकड़ लिया, उसके द्वारा वह ले जाई गयी। मेरे विनाश की आशङ्का से वह चिल्लाई नहीं, अन्यथा वह कैसे दिखाई नहीं देती ? उसके न दिखाई पड़ने पर मेरा प्राण-लाभ करना व्यर्थ है-ऐसा मैं मानता हूँ। ऐसा विचार Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो भवो ] मन्नामिति । चितयंतो पयट्टो गवेसिउं । व्हाओ उज्जुवालियाए । ओ सो चंडरुद्दो तओ देवउलाओ अबक्कमिऊण गओ उज्जुवालियं नई । चितियं च पेणं अहो दारुणया इत्थवग्गस्स, जमेसा एगपए चैव महावसणपायालंमि पविखविय भत्तारं अणafraऊण नियकुलं सिविणयंमि वि अदिट्ठपुवेण मए सह पयट्टत्ति । हा हि दूरेण जियं विसवग्धभुयंग सिंघसरहाणं । कलिकाल व हिरक्खसिकयंतचरियं महिलियाह || ५०८ | असलिलपकग्गाही होइ खणेणं श्रकंदरा वग्घी | अणिमत्ता जमभिउडी अणभवज्जासणी महिला || ५०६ ॥ महिला आलकुलघरं महिला लोयंमि दुच्चरियखेत्तं । महिला दुग्गइदारं महिला जोणी अणत्थाणं ॥ ५१० ।। विज्जु व्व चंचलाओ महिलाउ विसं व पमुहमहुराओ । मच्चु व्व तिग्घिणाओ पावं पिव वज्जणिज्जाओ ।। ५११ ।। चिन्तयन् प्रवृत्तो गवेषयितुम् । स्नात ऋजुवालिकायाम् । इतश्च स चण्डरुद्रस्ततो देवकुलादपक्रम्य गत ऋजुवालिकां नदीम् । चिन्तितं च तेन - अहो दारुणता स्त्रीवर्गस्य यदेषा एकपदे एव महाव्यसनपाताले प्रक्षिप्य भर्तारमनपेक्ष्य निजकुलं स्वप्नेऽपि अदृष्टपूर्वेण मया सह प्रवृत्तेति । , हा कथं दूरेण जितं विष व्याघ्र भुजङ्ग - सिंह- शरभानाम् । कलिकालवह्निराक्षसीकृतान्तचरितं महिलाभिः ||५०८ ॥ असलिल पंकग्राही भवति क्षणेनाकन्दरा व्याघ्री । अनिवृत्ता यमभृकुटिरनभ्रवज्राशनिर्महिला ॥ ५० ॥ महिला आल (असद्दोषारोप) कुलगृहं महिला लोके दुश्चरितक्षेत्रम् । महिला दुर्गतिद्वारं महिला योनिरनर्थानाम् ॥५१० ॥ विद्युदिव चंचला महिला विषमिव प्रमुखमधुराः । मृत्युरिव निर्घृणाः पापमिव वर्जनीयाः ॥ ५११ ॥ ४८७ करता हुआ वह उसे खोजने लग गया । ऋजुवालिका (नदी) में स्नान किया । इवर वह चण्डरुद्र मन्दिर से निकलकर ऋजुवालिका नदी को गया । उसने सोचा - अहोः स्त्रीवर्ग की कठोरता, जो यह एक ही स्थान पर महान् संकटरूप पाताल में पति को पटककर अपने कुल की कुछ भी अपेक्षा न कर, जिसे पहले स्वप्न में भी नहीं देखा, ऐसे मेरे साथ प्रविष्ट हुई है ! हाय ! कलियुग की अग्नि, राक्षसी और यमराज के समान आचरण करनेवाली महिलाओं ने किस प्रकार दूर से ही विष, व्याघ्र, भुजङ्ग, सिंह और चीते को जीत लिया है। महिला ( वस्तुतः ) बिना पानी और कीचड़ की ग्राही ( मगर की स्त्री), बिना गुफा के व्याघ्री, यम की न लोटनेवाली भौंह, बिन बादल के वज्र अथवा बिजली होती है । महिला असद्धं षों के आरोप का कुलग्रह है, महिला इस लोक में दुश्चरित्र का क्षेत्र है, महिला दुर्गति का द्वार है, महिला अनर्थों की योनि (उत्पत्ति-स्थान ) है । महिला विद्युत के समान चंचल, विष के समान प्रारम्भ में मधुर लगनेवाली, मृत्यु के समान निर्दयी और पाप के समान छोड़ने योग्य है ॥ ५०८- ५११ ॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ [समराइच्चकहा ता अलं मे एयाए; मा मज्झं पि इणमेव संपाडइस्सइ ति चितिऊण घेत्तूणमंगलग्गं सुवणयं परिचत्ता खु एसा। __चितियं च तीए । तहावि सोहणं चेव एयं, जं सो वावाइओ ति। ता गच्छामि अन्नत्थ । पयट्टा नईतीतर । दिट्ठा धरेणेण हरिसवसुप्फुल्ललोयणेणं पुच्छिया एसासुन्दरि, कुओ तुम ति। तओ सा रोविउ पयत्ता भणिया य जेणं । सुन्दरि, मा रोव, ईइसो एस संसारो । आवयाभायणं खु एत्थ पाणिणो। ता अलं विसाएण। धन्नो य अहयं, जेण तुमं संपत्त ति। तओ तीए भणियं-अज्ज उत्त, पासवणनिमित्तमुट्ठिया गहिया तवकरेण, इत्थीसहावाओ अज्जउत्तसिणेहाइसएण य न किपि वाहरियं । 'अणिच्छमाणी य इस्थिया न घेप्पड़' त्ति करिय मुसिऊण उझिया इहई। अन्नं च । तक्करकयत्थणाओ वि मे एयं अहिययरं बाहइ, जं तुमं ईइसि अवत्थमुवगओ दिट्टो त्ति । तओ 'न अन्नहा मे वियप्पियं' ति चितिऊण भणियं धरणेणंसुन्दरि, थेवमियं कारणं । न मे उन्वेवकारिणी इयमवत्था तुह दसणेणं । ता कि एइणा। एहि, गच्छम्ह । चितियं च णाए । अहो मे पावपरिणई, जं कयंतमुहाओ वि एस आगओ ति। ततोऽलं मे एतया, मा ममापीदमेव संपादयिष्यति इति' चिन्तयित्वा गृहीत्वाङ्गलग्नं सुवर्ण परित्यक्ता खल्वेषा। चिन्तितं च तया-तथापि शोभनमेवैतत्, यत्स व्यापादित इति । ततो गच्छाम्यन्यत्र । प्रवत्ता नदीतीरे । दृष्टा धरणेन हर्षवशोत्फुल्ललोचनेन। पृष्टैषा-सुन्दरि ! कुतस्त्वमिति । ततः सा रोदितं प्रवृत्ता भणिता च तेन । सुन्दरि ! मा रुदिहि, ईदृश एष संसारः । आपद्भाजनं खल्वत्र प्राणिनः । ततोऽलं विषादेन । धन्यश्चाहं येन त्वं संप्राप्तति । ततस्तया भणितम्आर्यपुत्र ! प्रस्रवणनिमित्तमुत्थिता गृहीता तस्करेण, स्त्रीस्वभावाद् आर्यपुत्रस्नेहातिशयेन च न किमपि व्याहृतम् । 'अनिच्छन्ती च स्त्री न गृह्यते' इति कृत्वा मुषित्वा उज्झितेह । अन्यच्च तस्करकदर्थनाया अपि मे एतदधिकतरं बाधते, यत्त्वमीदृशीमवस्थामुपगतो दृष्ट इति । ततो 'नान्यथा मे विकल्पितम्' इति चिन्तयित्वा भणितं धरणेन । सुन्दरि ! स्तोकमिदं कारणम् । न मे उद्वेगकारिणीयमवस्था तव दर्शनेन । ततः किमेतेन । एहि गच्छावः । चिन्तितं चानया-अहो मे __ अतः मुझे इससे क्या प्रयोजन ? यह मेरा भी ऐसा ही करेगी- ऐसा सोचकर अंगों में धारण किए हुए स्वर्ण को ग्रहणकर इसका उसने परित्याग कर दिया। उसने (लक्ष्मी ने) सोचा-फिर भी यह ठीक हुआ कि उसे (धरण को) मार डाला गया। अब मैं दूसरी जगह जाऊँगी। नदी के किनारे की ओर गयी। धरण ने हर्ष के वश विकसित नेत्रों से देखा। इससे पूछा- तुम कहाँ से? तब वह रोने लगी। उसने कहा-हे सुन्दरी ! मत रोओ। यह संसार ऐसा ही है। यहाँ प्राणियों पर आपत्तियाँ आती ही हैं । अतः विषाद मत करो। मैं धन्य हूँ जो कि तुम मिल गई। तब उसने कहा-आर्यपुत्र ! पेशाब के लिए उठी हुई मुझे चोर ने पकड़ लिया । स्त्रीस्वभाव के कारण आर्यपुत्र के प्रति स्नेह की अधिकता से कुछ नहीं कहा । 'न चाहनेवाली स्त्री ग्रहण नहीं की जाती है' ऐसा मानकर (गहने) चुराकर (चोर ने) यहाँ छोड़ दिया। चोर के अत्याचार से भी अधिक पीड़ा मुझे इस बात की है कि तुम इस अवस्था को प्राप्त दिखाई पड़ रहे हो। 'दूपरा विकल्प नहीं है'- ऐसा सोचकर धरण ने कहा- सुन्दरी ! यह छोटा-सा कारण है। तुम्हारे दर्शन (प्राप्त हो जाने) के कारण मेरी यह अवस्था उद्वेगजनक नहीं है । अतः इससे क्या, आओ चलें । इसने सोचा--अरे मेरे पाप का फल जो कि यह मृत्यु के मुख से भी छूटकर आ गया है। यह Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो भवो] ४८६ पयट्टा एसा । समागयाई वियारउरं नाम सन्निवेसं। कया पाणवित्ती। अत्थमिओ सूरिओ। अइवाहिया रयणी। चितियं धरणेणं—एवं कयंताभिभूयस्स न जुत्तमिह चिट्ठिउं। ता पराणेमि ताव एवं दंतउरनिवासिणो खंददेवमाउलस्स' समीवं; पच्छा जहाजुतं करेस्सामि त्ति । साहियं लच्छीए। बहुमयं च तीए । पयट्टाणि दंतउरं । इओ य न लद्धो सत्थवाहपुत्तो ति संजायसोएण पच्चइयनिययपुरिसाण समप्पिओ सत्थो कालसेणेण । भणिया य एए-हरे, पावियन्वो तुम्हेहिं एस महाणुभावस्स गरूणं ति । चितियं च ण । जइ वि न संपन्नमोवाइयं, तहावि कायम्बरीए जहा भणियमेव बलिविहाणं काऊण पइन्नं पि ताव सफलं करेमि त्ति । पेसिया बलिपुरिसनिमित्तं सबरपुरिसा। कराविया कायम्बरीए पूया, मज्जिओ गिरिनईए, परिहियाई वक्कलाइं, कया कणवीरमुंडमाला, रयाविया महामहल्लकठेहि चिया, पयट्टो चंडियाययणं। इओ य दंतउरपत्थिओ बिइयदियहमि अरुणुग्गमे चेव कायम्बरि परिन्भमन्तेहिं समासाइओ पापपरिणतिः, यत्कृतान्तमुखादपि एष आग तिः, यत्कृतान्तमुखादपि एष आगत इति । प्रवत्तैषा । समागतौ विचारपूरं नाम 'सन्निवेशम । कृता प्राणवत्तिः। अस्तमितः सूर्यः । अतिवाहिता रजनी। चिन्तितं धरणेन-- एवं कृतान्ताभिभूतस्य न युक्तमिह स्थातुम् । ततः परानयामि तावदेतां दन्तपुरनिवासिनः स्कन्ददेवमातुलस्य समीपम्, पश्चाद् यथायुक्तं करिष्यामीति । कथितं लक्ष्म्यै बहुमतं च तया। प्रवृत्तौ दन्तपुरम् । इतश्च न लब्धः सार्थवाहपुत्र इति संजातशोकेन प्रत्ययितनिजपुरुषेभ्यः समर्पितः सार्थः कालसेनेन । भणिताश्चैते-अरे प्रापयितव्यो युष्माभिरेष महानुभावस्य गुरूणामिति । चिन्तितं च तेनयद्यपि न संपन्नमौपयाचितं तथापि कादम्बर्या यथाभणितमेव बलिविधानं कृत्वा प्रतिज्ञामपि तावत्सफलां करोमीति । प्रेषिता बलिपुरुषनिमित्तं शबरपुरुषाः । कारिता कादम्बर्याः पूजा, मज्जितो गिरिनद्याम्, परिहितानि वल्कलानि, कृता करवीरमुण्डमाला, रचिता महामहाकाष्ठश्चिता, प्रवृत्तश्चण्डिकाऽऽयतनम्। इतश्च दन्तपुरप्रस्थितो द्वितीयदिवसेऽरुणोद्गमे एव कादम्बरी परिभ्रमद्भिः समासादितः चल पड़ी। दोनों विचारपुर नामक स्थान पर आये । भोजन किया । सूर्य अस्त हुआ। रात्रि फैल गयी । धरण ने सोचा-यम से अभिभूत मुझे यहाँ ठहरना उचित नहीं, अतः इसे दन्तपुर के निवासी मामा के पास ले जाता हूँ, बाद में जो उचित होगा सो करूंगा। लक्ष्मी से कहा, उसने माना । दन्तपुर की ओर चल पड़े। इधर सार्थवाहपुत्र नहीं मिला-इस कारण जिसे शोक उत्पन्न हो गया है ऐसे कालसेन ने अपने विश्वस्त पुरुषों के द्वारा सार्थ को समर्पित कर दिया। इन्होंने कहा--अरे आप लोग इस समाचार को इनके पूज्य पुरुषों के पास पहुँचाओ। इसने सोचा-यद्यपि इच्छित कार्य सम्पन नहीं हुआ तथापि कादम्बरी देवी के प्रति जैसा कहा था वैसी पूजा करके प्रतिज्ञा भी सफल करूँगा। उसने दलिपुरुष की खोज के लिए शबरों को भेजा, कादम्बरी की पूजा करायी, पर्वतीय नदी में स्नान किया। वल्कल-वस्त्रों को त्याग दिया, कनर की माला धारण कर ली, बड़ी-बड़ी लकड़ियों से चिता बना ली, (अनन्तर सब) चण्डी के मन्दिर की ओर चल पड़े। - इधर दन्तपुर की ओर प्रस्थान करते हुए दूसरे दिन सूर्य निकलते ही कादम्बरी में भ्रमण करते हुए १. मामयस्स-के। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्च कहा सत्थवाहपुत्त कालसेणसबरेह् ि। बद्धो वल्लिरज्जूए । पयट्टाविओ समहिलिओ चेव चडियाययणं । ओ थेवं भूमिभागं । दिट्ठ च णेण चंडियायणपासमंडलं । कीइसं । परिसडिय जिष्ण रुवखगुद्दे हियखइयक संघाय संकुलं भुयंगमिहुणसणाहवियडवम्मीयं परत्तमुहलसउणगणकयवमालं वियडतरुखंधबहलरुहिरायड्डियतिसूलसंघायं पायवसाहावबद्ध म हिस मेस मुहपुच्छखुरसिंगसिरोहराचीरनिवहं ति । अवि य - ४६० वायरस उतसंवलिय गिद्धवंद्रे हि विष्फुरंतेहि । पडिबद्धसूरकिरणं करंककलियं मसाणं व ॥ ५१२ ॥ भूयजक्खरक्ख सविसाय संजणियहिययपरिओसं । रुहिर बलिखित्तपसमियनिस्से सधरारउग्घायं ॥ ५१३ ॥ तं च एव गुणा हिरामं चंडियाययणपासमंडलं सभयं वोलिऊण आययणं पेच्छिउं पयत्तो । धवलवरन रकलेवरवित्थिष्णुत्तुंगघडियपायारं । उभडक बंध विरइयतोरणपडिबद्ध सिरमालं ॥ ५१४।। सार्थवाहपुत्रः कालसेनशबरैः । बद्धो वल्लिरज्ज्वा । प्रवर्तितः समहिलिक एव चण्डिकायतनम् । गतः स्तोकं भूमिभागम् । दृष्टं च तेन चण्डिकायतनपार्श्वमण्डलम् । कीदृशम् । परिशटितजीर्णवृक्षगोद्देहिकाखादितकाष्ठसंघातसंकुलं भुजगमिथुनसनाथविकटवल्मीकं प्रखतमुखर शकुन गणकृत ( वमाल ) - कोलाहलं विकट तरुस्कन्धवहल रुधिराकृष्टशूल संघातं पादपशाखावबद्धमहिषमेषमुखपुच्छखुरशृङ्गशिरोधराचीरनिवहमिति । अपि च वायस शकुन्तसंवलितगृध्रवन्द्रैविस्फुरद्भिः । प्रतिबद्ध सूर्यकिरणं करङ्ककलितं श्मशानमिव ॥ ५९२ ॥ ग्रहभूतयक्ष राक्षस पिशाचसंजनितहृदयपरितोषम् । रुधिरबलिक्षिप्त प्रशमितनिःशेषधरारजउद्घातम् (समूहम् ) ॥५१३॥ तं चैवंगुणाभिरामं चण्डिकायतनपार्श्वमण्डलं सभयं व्यतिक्रम्यायतनं प्रेक्षितुं प्रवृत्तः । धवलवरनरकलेवरविस्तीर्णोत्तुङ्गघटितप्राकारम् । उद्भटकबन्धविरचिततोरणप्रतिबद्धशिरोमालम् ॥ ५१४॥ कालसेन के शबरों ने सार्थबाहपुत्र को पकड़ लिया। ( उसे ) लताओं की रस्सी से बाँधा । पत्नी के साथ ही चण्डीदेवी के मन्दिर की ओर चल पड़े। थोड़ी दूर गये । उसने चण्डिका मन्दिर की समीपवर्ती भूमि देखी । ( वह भूमि ) कैसी थी ? जिसे गोह ने खाया है ऐसे सुगन्धित जीर्ण वृक्ष की लकड़ियों के समूह से व्याप्त, सर्पयुगल से युक्त, जहाँ भयंकर बाँवी लगी हुई थी, मनोहर शब्द करनेवाले पक्षियों द्वारा जहाँ कोलाहल किया जा रहा था, बड़े-बड़े वृक्षों के तनों से जो व्याप्त था, जहाँ त्रिशूलों द्वारा रुधिर निकाला जा रहा था, घृक्षों की शाखाओं में जहाँ भैंसे और बकरों के मुख, पूँछ, सींग, गर्दन लटके हुए थे । और भी - शब्द करते हुए कौओं से युक्त गृद्धसमूह से जहाँ सूर्य की किरणें अवरुद्ध हो रही थीं तथा हड्डी की ठठरियों से जो युक्त था ऐसे श्मशान के समान ग्रह, भूत, यक्ष, राक्षस और पिशाचों से जहाँ हृदय में संतोष उत्पन्न हो रहा था, रुधिर की बलि के फैंके जाने से जहाँ पृथ्वी के समस्त रजःकण शान्त, स्थिर व प्रतिबद्ध हो गये थे— इस प्रकार के गुणों से सुन्दर चण्डिकामन्दिर की समीपवर्ती भूमि को भयपूर्वक पार कर मन्दिर को देखने के लिए प्रवृत्त हुआ । अच्छे लक्षणोंवाले मनुष्यों के शरीर से जहाँ दीवार के किनारे ऊँचे-ऊँचे ढेर लग गये थे, प्रचण्ड धड़ों से निर्मित तोरण में जहाँ शिरोमालाएँ पहनाई गई थीं; ॥ ५१२-५१४ ॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ8ो भवो] ४६१ मयणाहवयणभोसणविरइयपायारसिहरसंघायं। उत्तुंगवेणुलंबियदीहरपोंडरियकत्तिमायं ॥५१५॥ दीणमुहपासपिडियबंदयबीभच्छरुद्धओवासं। निसियकरवालवावडकरसबरजुवाणपरियरियं ॥१६॥ विसमसमाहयपडुपडहसद्दवित्तत्थसउणसंघायं । अच्चतरुयंतसदुक्खसबरिविलयाजणाइण्णं ॥५१७॥ वियडगयदंतनिम्मियभित्तिसमुक्किन्नसूलसंघायं । तक्खणमेत्तुक्कत्तियचम्मसमोच्छइयगम्भहरं ॥५१८॥ पुरिसवसापरिपूरियकवालपज्जलियमंगलपईवं । डझंतविल्लगुग्गुलुपवियंभियधूमसंघायं ॥५१६।। सबरवहरुहिरक्खयगयमोत्तियरइयसत्थियसणाहं । चंदकरधवलदीहरपरिलंबियचमरसंघायं ॥५२०॥ मृगनाथवदनभीषणविरचितप्राकारशिखरसंघातम् । उत्तु ङ्गवेणुलम्बितदीर्घपौण्डरीककृत्तिध्वजम् ॥५१५।। दीनमुखपाशपिण्डितबन्दिकबीभत्सरुद्धावकाशम् । निशितकरवालव्यापृतकरशबरयुवपरिकरितम् ॥५१६॥ विषमसमाहतपटुपटहशब्दवित्रस्तशकुनसंघातम् । अत्यन्तरुदत्सदुःखशबरीवनिताजनाकीर्णम् ॥५१७।। विकटगजदन्तनिर्मितभित्तिसमुत्कीर्णशूलसंघातम् । तत्क्षणमात्रोत्कर्तितचर्मसमाच्छादितगर्भगृहम् ॥८१८॥ पुरुषवसापरिपूरितकपालप्रज्वलितमङ्गलप्रदीपम् । दह्यमानबिल्वगुग्गुलुप्रविजृम्भितधूमसंघातम् ॥५१६॥ शबरवधूरुधिराक्षतगजमौक्तिकरचितस्वस्तिकसनाथम् । चन्द्रकरधवलदीर्घपरिलम्बितचामरसंघातम् ॥५२०।। सिंह के मुखों से जहाँ के भवनों के शिखर का समूह निर्मित कर दिया गया था, ऊँचे-ऊँचे बांसों पर शुभ्र कमलवत् चमड़े की ध्वजाएँ लटकी हुई थीं। पाश से लपेटे गये दीनमुख बन्दियों द्वारा जहाँ का भयानक स्थान रोका गया था, जिनके हाथ में तीक्ष्ण तलवारें थीं ऐसे शबरयुवक जिनको घेरे हुए थे, बड़े हाथी-दांतों से निर्मित त्रिशूलों का समूह जहाँ की दीवारों पर उत्कीर्ण कर दिया गया था, उसी क्षण काटे गए चमड़े से जहाँ का गर्भगृह (भीतरी भाग) आच्छादित था, मनुष्यों की चर्बी से भरी हुई खोपड़ियों में जहां मंगलदीप जल रहे थे। जलाई गयी बेल की गुग्गुल से जहां धुआँ उठ रहा था, जहाँ की भूमि शबरस्त्रियों द्वारा रुधिराक्षत तथा गज-मोतियों से बनाये गये स्वस्तिक चिह्नों से युक्त थी, चन्द्रमा की किरणों के समान सफेद तथा लम्बे चामरों का समूह जहाँ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ [समराइच्चकहा रुहिरकसव्वालंबियदोहरवणकोलवन्भनिउरुंबं । कंकेल्लिपल्लवुप्पंकनिमियरेह धरणितलं ॥५२१॥ कोदंडखग्गघंटयमहिसासुरपुच्छवावडकराए। कच्चाइणिपडिमाए विहूसियं घोररूवाए ॥५२२॥ तओ तं दळूण चितियं धरणेणं--- सक्का सीहस्स वणे पलाइउं वारणस्स य तहेव । सुकयस्स दुक्कयस्स य भण कत्थ पलाइउं सक्का ॥५२३॥ एवं च चितयंतो छुढो सबरेहि वंद्रमझंमि । अह बंधिऊण गाढं पुत्वविरुद्धेहि व खलेहिं ॥५२४॥ एत्यंतरंमि समागओ चंडियाययण काल सेणो, पडिओ चंडियाए चलणेसु, भणियं च सगग्गयक्खरं-भयवइ, जइ वि न कओ तए महं पसाओ,तहावि जम्मंतरे वि जहा न एवं दुक्खभायणं हवामि, सहा तए कायव्वं ति । 'सत्थवाहपुत्तावयारकरणेण जं महं दुक्खं, तं तुमं चेव जाणसि त्ति भणिऊण रुधिर (कसव्व) व्याप्तालम्बितदीर्घवनकोलवभ्रनिकुरम्बम् । कंकेल्लि (अशोक)पल्लवोत्पंक(राशि)न्यस्तराजद्धरणीतलम् ॥५२१।। कोदण्डखङ्गघण्टामहिषासुरपुच्छव्यापृतकरया।। कात्यायनीप्रतिमया विभूषितं घोररूपया ।। ५२२॥ ततस्तं दृष्ट्वा चिन्तितं धरणेन शक्ताः सिंहाद् वने पलायितं वारणात्तथैव । सुकृताद् दुष्कृताच्च भण कुत्र पलायितुं शक्ताः ॥५२३॥ एवं च चिन्तयन् क्षिप्त: शबरैर्वन्द्र मध्ये । अथ बद्ध्वा गाढं पूर्वविरुद्धैरिव खलैः ॥५२४॥ अत्रान्तरे समागतश्चण्डिकायतनं कालसेनः । पतितश्चण्डिकायाश्चरणयोः। भणितं च सगद्गदाक्षरम् । भगवति ! यद्यपि न कृतस्त्वया मम प्रसादः, तथापि जन्मान्तरेऽपि यथा नैवं दुःखभाजनं भवामि तथा त्वया कर्तव्यमिति । 'सार्थवाहपुत्रापकारकरणेन यन्महद् दुःखं तत्त्वमेव लटक रहा था, लटके हुए बड़े-बड़े जंगली सूकरों के रुधिर से जो व्याप्त था, अशोक वृक्ष के पत्तों की राशि को रखने से जहाँ का धरातल सुशोभित हो रहा था; धनुष, तलवार, घण्टा तथा महिषासुर की पूंछ से युक्त हाथोंवाली तथा भयंकर रूपवाली कात्यायनी की प्रतिमा से विभूषित (चण्डीदेवी का वह मन्दिर) था ॥५१५-५२२॥ तदनन्तर उसे देखकर धरण ने विचार किया-सिंह और हाथी (के भय) से वन में भाग जाना सम्भव है, किन्तु पुण्य और पाप से बचकर कहाँ भागा जा सकता है ? जब वह ऐसा सोच ही रहा था तभी शबरों के द्वारा उसे समूह के बीच फेंक दिया गया और मानों पहले से ही विरोधी हों ऐसे दुष्टों द्वारा दृढ़तापूर्वक बाँध दिया गया ॥५२३-५२४॥ .... इसी बीच कालसेन चण्डिका मन्दिर में आया। चण्डी के पैरों में गिर पड़ा। गद्गद अक्षरों में बोलाभगवति ! यद्यपि तुमने मुझ पर कृपा नहीं की तथापि दूसरे जन्म में भी इस प्रकार के दुःख का पात्र न बनूं, वैसा करें। 'सार्थवाह पुत्र के प्रति मैंने जो अपकार किया, उससे उत्पन्न दुःख को तुम जानती हो'- ऐसा कहकर Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ8ो भवो] ४६३ भणिओ कुरंगओ -हरे, निवेएहि भयवईए बलि । तेण 'जं देवो आणावेइ' ति भणिऊण खित्तो ण केसेसु कड्ढिऊण भयपरायत्तसत्वगत्तो दुग्गिलओ नाम लेहवाहओ। ढोइयं रत्तचंदणसणाहं भायणं । विगयपाणो विव चच्चिओ दुग्गिलओ। कालसेणेण कड्ढियं विज्जछडाडोवभासुरं मंडलग्गं, वाहियं ईसि नियभुयासिहरे । भणिओ य दुग्गिलओ-भद्द, सुदिळं जीवलोयं करेहि। सग्गं तए गंतव्वं, जीवियं मोत्तण किंवा ते संपाडियउ ति। तओ भयाभिभूएण न जंपियं दुग्गिलएणं। पुणो वि भणिओ, पुणो वि न जंपियं ति । अणावरियमणोरहो य न वावाइज्जइ ति विसष्णो कालसेणो। तं च दळूण चितियं धरणेणं-हंत मए वि एवं मरियन्वं ति । ता वरं अपेच्छिऊण दोणसत्तघायं काऊण खणमेत्तपाणपरिरक्खणेग इमस्स उवयारं पढमं विवन्नो म्हि । वावडो य मे विणिवायकरणेसु कयंतो, एसो वि निव्वुओ हवउ त्ति चितिऊण भणिओ कुरंगओ-भद्द, निवेएहि एयस्स महापरिसस्स, जहा 'भयविसण्णो खु एसो तवस्सी, ता कि एइणा; अणभिन्नो अहं पत्यणाए; तहावि भवओ पओयणं पसाहणीयं चेव पत्थेमि एगं पत्थणं' ति। निवेइयं कालसेणस्स । भगियं च णेण, जीवियं मोत्तूण पत्थेउ भद्दो त्ति। धरणेण भणियं-- मोत्तूण एवं मं वावाएसु त्ति । तओ बाहजलभरियलोयणेण अह को उण एसो जानासि' इति भणित्वा भणितः कुरङ्गक:-अरे निवेदय भगवत्यै बलिम् । तेन 'यद्देव आज्ञापयति' इति भणित्वा क्षिप्तोऽनेन केशेषु कर्षित्वा भयपरावृत्तसर्वगात्रो दुर्गिलको नाम लेखवाहक: । ढौकितं रक्तचन्दनसनाथं भाजनम् । विगतप्राण इव चचितो दुर्गिलकः । कालसेनेन कृष्टं विधुच्छटाटोपं भासुरं मण्डलाग्रम्, वाहितमीषद् निजभुजाशिखरे। भणितश्च दुर्गिलक:- भद्र ! सुदृष्टं जीवलोक कूरु । स्वर्गे त्वया गन्तव्यं, जीवितं मुक्त्वा किं वा ते संपाद्यतामिति । ततो भयाभिभूतेन न जल्पितं दुगिलकेन। पुनरपि भणितः पुनरपि न जल्पितमिति । अनापूरितमनोरथश्च न व्यापाद्यते इति विषण्णः कालसेनः । तं च दृष्ट्वा चिन्तितं धरणेन । हन्त मयाऽप्येवं मर्तव्यमिति । ततो वरमप्रेक्ष्य दीनसत्त्वघातं कृत्वा क्षणमात्रप्राणपरिरक्षणेनास्योपकारं प्रथमं विपन्नोऽस्मि । व्यापतश्च मे विनिपातकरणेषु कृतान्तः एषोऽपि निर्वृतो भवत्विति चिन्तयित्वा भणित: कुरङ्गकः-भद्र ! निवेदय एतस्मै महापुरुषाय, यथा 'भयविषण्णः खल्वेष तपस्वी, तत: किमेतेन, अनभिज्ञोऽहं प्रार्थनायाम, तथापि भवतः प्रयोजनं प्रसाधनीयमेव प्रार्थये एकां प्रार्थनामिति । निवेदितं कालसेनाय । भणितं च तेन-जीवितं मुक्त्वा प्रार्थयतां भद्र इति । धरणेन भणितम् - मुक्त्वा एतं मां व्यापादयेति । ततो कुरंगक से कहा-अरे, भगवती के लिए बलि चढ़ाओ। उसने 'जो देव आज्ञा दें' ऐसा कहकर भय से जिसका सारा शरीर काँप रहा था ऐसे गिलक नामक लेख वाहक के बाल खींचकर (उसे) पटक दिया। लाल चन्दन से युक्त पात्र सामने रख दिया। प्राणरहित-से गिलक को अलंकृत किया। कालसेन ने विद्यत् की आभा के समान चमकीली तलवार खींची, तनिक अपने कन्धे तक ले गया। दुर्गिलक से कहा - भद्र! संसार को अच्छी तरह देख लो, तुम्हें स्वर्ग जाना है। प्राणरक्षा के अतिरिक्त तुम्हारा क्या इष्ट कार्य करें। तब भय से अभिभत होकर दुर्गिलक नहीं बोला। फिर से कहा-फिर भी नहीं बोला। 'जिसका मनोरथ पूर्ण नहीं हुआ है ऐसा मनुष्य मारा नहीं जाता है'- ऐसा सोचकर कालसेन दुःखी हुआ। उसे देखकर धरण ने विचार किया--हाय ! मुझे भी इसी प्रकार मरना पड़ेगा । तब दीन प्राणियों का घात देखना अच्छा नहीं है अतः क्षणमात्र के लिए अपने प्राणों की रक्षा न कर इसका उपकार करने के लिए पहले मरना चाहिए। मेंरा अनिष्ट करने में यम (देव) लगा हुआ है, 'यह भी सुखी हो' - ऐसा सोचकर कुरङ्गक से कहा--भद्र ! इन महापुरुष से निवेदन करो कि यह बेचारा भय से दुःखी है, अतः इससे क्या, मैं प्रार्थना नहीं करना चाहता तथापि आपका प्रयोजन सिद्ध हो-इस प्रकार की एक प्रार्थना करता हूँ। कालसेन से निवेदन किया गया। उसने कहा-भद्र ! प्राणदान को छोड़कर अन्य जो प्रार्थना हो उसे Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ [ समराइच्चकहा परोवयारतलिच्छपाए अप्पाणयं वावायणे समप्पेइ; सुमरावेइ मे सत्थवाहपत्तं' ति भणिऊण मच्छिओ कालसेणो, निवडिओ धरणिवतै। वीजिओ किसोरएण। लद्धा चेयणा। भणियं णेण-भद्द किसोरय, निरूवेहि एयं, को उण एसो महाणभावो सत्थवाहपुत्तस्स चेट्टियं अणुकरेइ। निरूविऊण भणियं किसोरएण-भो इमाए अणन्नसरिसीए आगिईए सो चेव मे पडिहाय इति । ता सयमेव निरूवेउ पल्लीवई । तओहरिसविसायगभिणं निरूविओ ण पच्चभिन्नाओ य । छोडिया से बंधा। खरगं मोत्तण निवडिओ चलणेसु। भणियं च ण-सत्यवाहपुत्त, खमियन्वो मह एस अवराहो । धरणेण भणियं-भो महापरिस, अहिप्पेयफलसाहणेण गुणो खु एसो, कहमवराहो त्ति। कालसेणेण चितियं, नणं न एस मंपच्चमिजाणइ ति, तेण एवं मंतेइ ता पयासेमि से अत्ताणयं । भणियं च णेग-सत्थवाहपुत्त, कि ते अहिप्पेयं फलं साहियं ति। धरणेण भणियं-भद्द, पत्थुए वावायणे एयं उज्झिऊण ममेव मरणमणोरहावरणं ति। कालसेणेण भणियं-सत्थवाहपुत्त, किं ते इमस्स निवेयाइसयरस मरणववसायस्स कारणं । धरणेण भणियं-भो महापुरिस, अलमियाणि एयाए कहाए । संपाडेउ भवं बाष्पजलभतलोचनेन 'अथ कः पुनरेष परोपकारतत्परतया आत्मानं व्यापादने समर्पयति, स्मरयति में सार्थवाहपुत्रम्' इति भणित्वा मूच्छितः कालसेनः, निपतितो धरणीपृष्ठे। वीजितः किशोरकेन । लब्धा चेतना। भणितं च तेन-भद्र किशोरक ! निरूपयैतम्, कः पुनरेष महानुभावः सार्थवाहपुत्रस्य चेष्टितमनुकरोति । निरूप्य भणितं किशोरकेन–भो अनयाऽनन्यसदृश्याऽऽकृत्या स एव मे प्रतिभातीति । ततः स्वयमेव निरूपयतु पल्लीपतिः । ततो हर्ष विषादभितं निरूपितस्तेन प्रत्यभिज्ञातश्च । छोटितास्तस्य बन्धाः । खड्गं मुक्त्वा निपतितश्चरणयोः । भणितं च तेन-सार्थवाहपुत्र ! क्षन्तव्यो ममैषोऽपराधः । धरणेन भणितम्-भो महापुरुष ! अभिप्रेतफलसाधनेन गुणः खल्वेषः, कथमपराध इति । कालसेनेन चिन्तितम् - नूनं नैष मां प्रत्यभिजानातीति तेनैवं मन्त्रयति, ततः प्रकाशयामि तस्मै आत्मानम् । भणितं च तेन-सार्थवाहपुत्र ! किं तेऽभिप्रेतं फलं साधितमिति ! धरणेन भणितम-भद्र ! प्रस्तुते व्यापादने एतमुज्झित्वा ममैव मरणमनोरथापूरणमिति । कालसेनेन भणितम्-सार्थवाहपत्र ! किं तेऽस्य निर्वेदातिशयस्य मरणव्यवसायस्य कारणम्। धरणेन भणितम् - भो महापुरुष! अलमिदानी कहो । धरण ने कहा-इसे छोड़कर मुझे मार दो। तब आँखों में आँसू भरकर 'यह कौन है जो कि परोपकार में तत्पर होने के कारण अपने आपको मारने के लिए समर्पण करता है ? (यह) मुझे सार्थवाहपुत्र का स्मरण दिलाता हैं-ऐसा कहकर कालसेन मूच्छित हो गया, जमीन पर गिर पड़ा। किशोरक ने पंखे से हवा की। (उसे) होश आया। उसने कहा-भद्र किशोरक ! इसे भली प्रकार देखो, यह कौन महानुभाव हैं जो सार्थवाहपत्र की चेष्टाओं का अनसरण कर रहे हैं। देखकर किशोरक ने कहा-महाशय ! इसकी अभिन्न इस आकृति से मालम होता है कि वही है। अत: स्वामी (पल्लीपति) आप स्वयं ही देखें । अनन्तर हर्ष और विषाद से यक्त होकर उसने देखा और पहिचान लिया। उसके बन्धनों को छडाया। तलवार फैककर चरणों में गिर पड़ा। उसने कहा-सार्थवाहपुत्र ! मेरा यह अपराध क्षमा करो। धरण ने कहा - हे महापुरुष ! इष्ट फल का साधन करना गुण ही है, अपराध कैसे है ? कालसेन ने सोचा- निश्चित ही यह मुझे पहिचानता है, अतः ऐसा कहता है। अतः इसके सामने अपने को प्रकट करता हूँ। उसने कहा-सार्थवाहपुत्र ! तुमने कौन से इष्टकार्य की सिद्धि की ? धरण ने कहाभद्र! मारने के लिए प्रस्तुत इसे छडाकर मेरा ही मनोरथ पूरा हआ। कालसेन ने कहा-सार्थवाहपत्र प्रति अतिशय दुःखानुभूति के कारण मरण का निश्चय करने का क्या कारण है : धरण ने कहा-हे महापुरुष, Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो भवो ] अत्तणो समीहियंति । तओ 'अहो से महाणुभावय' त्ति चितिऊण भणियं काल सेणेण - सत्थवाहपुत्त, न सुमरेसि मं सोहविणिवाइयं नागपोययं पिव अत्तणो विणासनिमित्तं अत्तणा चेव जीवाविऊण कयग्घसेहरयभूयं काल सेणं । जीवाविओ अहं तए । मए पण कओ तुज्झ पच्चुवयारो; विओइओ तुमं सत्थाओ, पाविओ य अप्पत्तपुव्वं इमं ईइसि अवत्थं ति । तओ सुमरिऊण पुव्ववृत्तंतं पञ्चहियाणिऊण य कालसेणं लज्जावणयवयणं जंपियं धरणेण - भो महापुरिस, को अहं जीवावियव्वस्स तुह चेव पुष्णपरिणई एस त्ति । कहं च तुमं कयग्धो, जो दिट्ठमेत्त वि जणे अन्नाणओ किंपि काऊण एवं खिज्जति त्ति । ता अमेणा । अह कि पण इमं पत्थयं ति । तओ लज्जापराहीणेण न जंपियं कालसेणेण । साहियं च निरवसेसमेव संगमदंसणाइयं निपाणपरिच्चायववसायावसाणं चेट्ठियं ति किसोरएणं । तओ 'अहो कन्या, अहो थिर सिणेहया, अहो महाणुभावय' त्ति चितिऊण जंपियं धरणेण - भो महापुरिस, तमेव गुरुदेवपूयणं पुप्फब लिगंधचंदणेहि, न उण पाणिघाएणं । अवि य होज्जा जले वि जलगो होज्जा खीरं वि गोविसाणाओ । अमरसो वि विसाओ न य हिंसाओ हवइ धम्मो ॥। ५२५|| ! तया कथया । संपादयतु भवानात्मनः समीहितमिति । ततः 'अहो तस्य महानुभावता' इति चिन्तयित्वा भणितं कालसेनेन - सार्थवाहपुत्र ! न स्मरसि मां सिंहविनिपातितं नागपोतकमिवात्मनो विनाशनिमित्तमात्मनैव जीवयित्वा कृतघ्नशेखरभूतं कालसेनम् । जीवितोऽहं त्वया । मया पुनः कृतस्तव प्रत्युपकारः, वियोजितस्त्वं सार्थात, प्रापितश्चाप्राप्तपूर्वामिमामीदृशीमवस्थामिति । ततः स्मृत्वा पूर्ववृत्तान्तं प्रत्यभिज्ञाय च कालसेनं लज्जावनतवदनं जल्पितं धरणेन - भो महापुरुष कोऽहं जीवयितव्यस्य, तवैव पुण्यपरिणतिरेषेति । कथं च त्वं कृतघ्नः, यो दृष्टमात्रेऽपि जने अज्ञानतः किमपि कृत्वा एवं खिद्यसे इति । ततोऽलमेतेन । अथ किं पुनरिदं प्रस्तुतमिति । ततो लज्जापराधीनेन न जल्पितं कालसेनेन । कथितं च निरवशेषमेव संगमदर्शनादिकं निजप्राणपरित्यागव्यवसायावसानं चेष्टितमिति किशोरकेन । ततः 'अहो तस्य कृतज्ञता, अहो स्थिरस्नेहता, अहो महानुभावता' इति चिन्तयित्वा जल्पितं धरणेन - भो महापुरुष ! युक्तमेव गुरुदेवपूजनं पुष्पबलिगन्धचन्दनैः; न पुनः प्राणिघातेन । अपि च ૪૨૬ भवेज्जलेऽपि ज्वलनो भवेत क्षीरमपि गोविषाणात । अमृतरसोऽपि विषाद् न च हिंसाया भवति धर्मः ।। ५२५।। इस कथा को मत पूछिए । आप अपने इष्टकार्य की पूर्ति कीजिए। तब 'अहो इसकी महानुभावता !' - ऐसा सोच कर कालसेन ने कहा - सार्थवाहपुत्र ! सिंह द्वारा मारे गए हाथी के बच्चे के समान अपने विनाश के निमित्त को स्वयं जिलाकर कृतघ्नता - शिरोमणि मुझ कालसेन की याद नहीं है क्या ? तुमने ही मुझे जीवित किया था । मैंने तुम्हारा प्रत्युपकार किया कि तुम्हें सार्थ से अलग कर दिया और इस अपूर्व अवस्था को प्राप्त करा दिया है। तब पूर्व वृत्तान्त को स्मरण कर कालसेन को पहिचान कर लज्जा से सिर झुकाकर धरण ने कहा, हे महापुरुष ! मैं जीवित करने वाला कौन हूँ ? यह तुम्हारे पुण्य का ही फल है और तुम कृतघ्न कैसे हो जो कि एक बार देखे गए व्यक्ति के प्रति अज्ञान से कुछ करके इस प्रकार खिन्न हो रहे हो ! अतः इससे बस करो अर्थात् पश्चात्ताप मत करो । पुन: यह क्या प्रस्तुत किया ? तब लज्जा से पराधीन हुए कालसेन ने कुछ भी नहीं कहा। संगम का दर्शन, अपने प्राणपरित्यागरूप कार्य का अवसान आदि समस्त क्रियाओं के विषय में किशोरक ने कहा । तब 'अहो उसकी कृतज्ञता, अहो स्थिर प्रेम, अहो महानुभावता ! ऐसा सोचकर धरण ने कहा- हे महापुरुष ! गुरुदेव का पूजन पुष्पोपहार, गन्ध, चन्दनादिक से करना उचित है। प्राणिघात के द्वारा पूजा करना उचित नहीं है । कहा भी हैअग्नि से जल, गाय के सींग से दूध और विष से अमृत की उत्पत्ति भले ही हो, किन्तु ( कदापि ) नहीं होता है ।। ५२५|| हिंसा से धर्म Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૨૬ दाऊण य अहिओयं देवयजन्नाण जे खलु अभव्वा । घायंति जियसयाई पावेंति दुहाइ ते नरए ॥ ५२६ ॥ ता विरम एयाओ ववसायाओ ति । कालसेणेण भणियं - जं तुमं आणवेसि त्ति । तओ गामदेणे अन्नाभावे यभक्खणनिमित्त च मोत्तूण कओ अणेण कायम्बरिअडविपविट्ठस्स सत्यस्स पाणिघाण जावज्जीवि नियमो । फुल्लब लिगंधचंदणेहिं पूइया देवया । नीओ णेण सलबंद संगओ नियंगेहमेव धरणो । कओ उचिओ उवयारो । भुत्तत्तरकालंमि य उवणीयं से समत्थरित्थं ति । सबराहिवेण तुरियं गहियं जं सत्यभंगंमि ॥ ५२७॥ करिकुंभसमुत्थाणि य महल्लमुत्ताहलाइ पवराई । दंता य गयवराणं चमराणि य जच्चचमरीणं ॥ ५२८ ॥ घेतू यतं रित्थं दाऊणय किंचि बंदयाणं पि । विहरह जहासुहेणं भणिऊण विसज्जिया तेणं ॥ ५२६ ॥ [ समराइच्चकहा दत्त्वा चाभियोगं देवतायज्ञेभ्यो ये खत्वभव्याः । घातयन्ति जीवशतानि प्राप्नुवन्ति दुःखानि ते नरके ।। ५२६ ॥ ततो विरम एतस्माद् व्यवसायादिति । कालसेनेन भणितम् - यत्त्वमाज्ञापयसीति । ततो ग्रामदेशलुण्टने अन्नाभावे च भक्षणनिमित्तं च मुक्त्वा कृताऽनेन कादम्बर्यटवीप्रविष्टस्य सार्थस्य प्राणिघातनस्य यावज्जीविको नियमः । पुष्पबलिगन्धचन्दनैः पूजिता देवता । नीतस्तेन सकलबन्दिसंगतो निजगेहमेव धरणः । कृत उचित उपकारः । भुक्तोत्तरकाले चोपनीतं तस्मै समस्तरिक्थमिति । शवराधिपेन त्वरितं गृहीतं यत्सार्थभङ्गे ।। ५२७॥ करिकुम्भसमुत्थानि च महामुक्ताफलानि प्रवराणि । दन्ताश्च गजवराणां चामराणि च जात्यचमरीणाम् ।। ५२८ ।। गृहीत्वा च तद् रिक्थं दत्त्वा च किंचिद् बन्दिनामपि । विहरत यथासुखं भणित्वा विसर्जितास्तेन ( धरणेन ) ।। ५२६ ॥ जो अभव्य देवताओं के यज्ञ में पूजा के निमित्त सैकड़ों जीवों का घात करते हैं वे निश्चय से नरक में दुःखों को प्राप्त करते हैं ॥५२६।। अतः इस व्यवसाय से विराम लो । कालसेन ने कहा--जो आप आज्ञा दें। तब अन्न के अभाव में खाने के लिए ग्राम और देश का लूटना छोड़कर वन में प्रविष्ट सार्थ के न लुटने तथा प्राणिघात न करने का इसने जीवन भर के लिए नियम कर लिया । पुष्पोपहार, गन्ध और चन्दन से देवी की पूजा की। समस्त बन्दियों के साथ धरण को अपने घर ले गया । उचित सत्कार किया । भोजन करने के पश्चात् शवरपति वह सब धन तुरन्त लाया जो कि काफिले के छिन्न-भिन्न हो जाने पर ग्रहण किया था । (इनमें ) हाथी के गण्डस्थल से निकले हुए श्रेष्ठ मुक्ताफल, श्रेष्ठ हाथियों के दाँत और उत्तम जाति वाले चमरीमृगों के चामर थे। उस धन को ग्रहण कर तथा कुछ बन्दियों को भी देकर धरण ने बन्दियों से कहा - सुखपूर्वक विहार करो। इस प्रकार उन सबको विदा कर दिया ।।५२७-५२६।। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो भवो] ४६७ धरणो वि कालसेणपीईए तत्थेव कंचि कालं गमेऊण विसज्जिओ कालसेणेण, पयट्टो निययपरि, पत्तो य कालक्कमेणं । [विन्नाओ अम्मापिईहिं नायरेहि य] परितुट्ठो से गुरुयणो। निग्गया नयरिमहंतया। पच्चुवेक्वियं भंडं संखियं च मोल्लेणं जाव सवाया कोडि त्ति । इओ अइक्कते अद्धमासे आगओ देवनंदी । तस्य वि य निग्गया नयरिमहंतया। पच्चवेक्खियं भंडं संखियं च मोल्लेणं जाव अद्धकोडि त्ति । तमो विलिओ देवनंदी। समप्पियं पउरभंडमोल्लं । सेसेण य परमणोरहसंपायणेण सफलं पुरिसभावमणुहवंतस्स आगया मयणतेरसी । भणिओ य एसो नपरिमहंतएहि 'नीसरेहि रहवर'। धरणेण भणियं-अलं बालकोडाए । पसंसिओ नयरिमहंतरहि। ___अइक्कतो य से कोइ कालो परत्थसंपायणसुहमणुहवंतस्स । निओइयपायं च णेण नियभुओवज्जियं दविणजायं। समप्पन्ना य से चिता। अवस्समेव पुरिसेण उत्तमकुलपसूएण तिवग्गो सेवियवो। तं जहा, धम्मो अत्थो कामो य । तत्थ अपरिचत्तसव्वसंगेण अत्थप्पहाणण होयव्वं ति। तओ चेव तस्त दुवे संपज्जंति । तं जहा, धम्मो य कामो य। अन्नं च, एस अत्थो नाम महंत देवयारूवं । एसो खु ____धरणोऽपि च कालसेनप्रीत्या तत्रैव कञ्चित्कालं गमयित्वा विसजितः कालसेनेन प्रवृत्तो निजपुरीम्, प्राप्तश्च कालक्रमेण । [विज्ञातो माता पितृभ्यां नागरकैश्च] । परितुष्टस्तस्य गुरुजनः । निर्गता नगरीमहान्त: । प्रत्यवेक्षितं भाण्डम्, संख्यातं च मूल्येन यावत् सपादा कोटिरिति । इतोऽतिक्रान्तेऽर्धमासे आगतो देवनन्दी । तस्यापि च निर्गता नगरीमहान्तः । प्रत्यवेक्षितं भाण्डम्, संख्यातं च मल्येन यावदर्धकोटिरिति । ततो व्यलीको (लज्जितो) देवनन्दी । समर्पितं पौरभाण्डमूल्यम । शेषेण च परमनोरथसम्पादनेन सफलं पुरुषभावमनुभवत आगता मदनत्रयोदशी । भारतश्चैष नगरीमहद्भिः 'निःसारय रथवरम्' । धरणेन भणितम् -- अलं बालक्रीडया। प्रशंसितो नगरी महद्भिः । अतिक्रान्तश्च तस्य कोऽपि कालः परार्थसम्पादनसुखमनुभवतः । नियोजितप्रायं च तेन निजभुजोपार्जितं द्रविणजातम् । समुत्पन्ना च तस्य चिन्ता । अवश्यमेव पुरषेणोत्तम कुलप्रसूतेन त्रिवर्गः सेवितव्यः । तद् यथा- धर्मोऽर्थः कामश्च । तत्रापरित्यवत सर्वसङ्गेन अर्थप्रधानेन भवितव्यमिति तत एव तस्य द्वौ संपद्येते । तद् यथा, धर्मश्च कामश्च । अन्यच्च-एषोऽर्थो नाम महद् देवता धरण भी कालसेन की प्रीति से कुछ समय वहीं बिताकर, कालसेन से विदाई लेकर अपने नगर की ओर चल पड़ा। कालक्रम से वह वहाँ पहुँच भी गया। माता, पिता और नागरिकों ने जाना । गुरुजन सन्तुष्ट हुए। बड़े-बड़े लोग निकले। माल को देखा, मूल्य से गणना की-सवा करोड़ का था। इधर आधा माह व्यतीत होने पर देवनन्दी भी आया। नगर के बड़े-बड़े लोगों ने उसके भी माल को निकाला। माल को देखा, मूल्य से गणना की-आधे करोड़ का था। तब देवनन्दी ।ज्जित हुआ। नगर के माल का मूल्य समर्पित किया। बचे हुए धन से दूसरे के मनोरथ को पूरा करते हुए अपना नरभव सफल माना । मदनत्रयोदशी आयी। नगर के बड़े लोगों ने इससे (धरण से) कहा-रथ को निकाली। धरण ने कहा-बालक्रीड़ा से बस अर्थात् बाल क्रीड़ा रहने दो । नगर के बड़े लोगों ने प्रशंसा की। दूसरे के प्रयोजन को पूरा करने के सुख का अनुभव करते हुए उसका कुछ समय व्यतीत हुआ । अपनी भुजाओं से उपाजित द्रव्य को उसने नियोजित किया । उसे चिन्ता उत्पन्न हुई। उत्तमकुल में उत्त,न्न हुए पुरुष को अवश्य ही त्रिवर्ग का सेवन करना चाहिए-धर्म, अर्थ और काम तीनों का। समस्त आसक्तियों को न छोड़ते हुए अर्थप्रधान होना चाहिए, उसीसे धर्म और काम का सम्पादन होता है। दूसरी बात यह है कि 'यह धन बड़ा देवता Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ [ समराइच्चकहा पुरिसस्स बहुमाणं वद्धावेइ, गोरवं जणेइ, महग्घयं उप्पाएइ, सोहग्गं करेइ, छायामावहइ, कुलं पयासेइ, रूवं पयासेइ, बुद्धि पयासेइ । अत्थवंतो हि पुरिसा अदेता वि लोयाणं सलाहणिज्जा हवंति । जं चेव करेंति, तं चेव तेसि असोहणं पि सोहणं वणिज्जए। अभग्गपणइपत्थणं च अगुहवंति परत्थसंपायणसुहं । ता जइ वि एस मह पुन्वपुरिसोवज्जिओ अइपभूओ अत्थि, तहावि अलं तेण गुरुपणइणिसमाणेण। ता अन्नं उवज्जिणेमि, गच्छामि दिसावणिज्जेणं ति । चितिऊण विन्नत्ता जणणिजणया । अणुमन्निओ य हिं गओ महया सत्थेणं समहिलिओ पुव्वसमुद्दतडनिविट्ठ वेजयंति नाम नर्याय । दिट्ठो नरवई । बहुमन्निओ य णेणं। निओइय भंडं, न समासाइओ इट्ठलाभो। चितियं च णण-समागओ चेव जलनिहितडं । ता गच्छामि ताव परतीरं । तत्थ मे गयस्स कयाइ अहिलसियपओयणसिद्धी भविस्सइ ति। गहियं परतीरगाभियं भंडं । संजत्तियं पवहणं । पसत्थतिहिकरणजोगेण निग्गओ नयरीओ, गओ समद्दतीरं, पूइओ अत्थिजणो, अग्घिओ जलनिही । तओ वंदिऊण गुरुदेवए उवारूढो जाणवत्तं । आगड्डियाओ वेगहारिणीओ सिलाओ, पूरिओ सियवडो, विमुक्कं जागवत्तं, गम्मए चीणदीवं ति। रूपम् । एष खलु पुरुषस्य बहुमानं वर्धयति, गौरवं जनयति, महार्यतामुत्पादयति, सौभाग्यं करोति, छायामावहति, कुलं प्रकाशयति, रूपं प्रकाशयति, बुद्धि प्रकाशयति । अर्थवन्तो हि पुरुषा अददतोऽपि लोकानां श्लाघनीया भवन्ति । यदेव कुर्वन्ति तदेव तेषामशोभनमपि शोभनं वर्ण्यते, अभग्नप्रणयिप्रार्थनं चानुभवन्ति परार्थसम्पादनसुखमिति । ततो यद्यपि एष मम पूर्वपुरुषोपाजितोऽतिप्रभूतोऽस्ति, तथापि अलं तेन गुरुप्रणयिनीसमानेन । ततोऽन्यमुपार्जयामि, गच्छामि दिग्वाणिज्येनेति चिन्तयित्वा विज्ञप्तौ जननीजनको । अनुमतश्च ताभ्यां गतो महता सार्थेन समहिलः पूर्वसमुद्रतटनिविष्टां वैजयन्तीं नाम नगरीम् । दृष्टो नरपतिः । बहुमानितश्च तेन । नियोजितं (विक्रीतं) भाण्डम, न समासादित इष्टलाभः । चिन्तितं च तेन-समागत एव जलनिधितटम, ततो गच्छामि तावत्परतीरम् । तत्र मे गतस्य कदाचिदभिलषितप्रयोजनसिद्धिर्भविष्यतीति । गृहीतं परतीरगामिकं भाण्डम् । संयात्रितं प्रवहणम् । प्रशस्ततिथिकरणयोगेन निर्गतो नगर्याः, गतः समुद्रतीरम, पूजितोऽथिजनः, अघितो जलनिधिः । ततो वन्दित्वा गुरुदेवतान् उपारूढो यानपात्रम्। आकृष्टा वेगहारिण्यः शिलाः, पूरितः सितपटः, विमुक्तं यानपात्रम्, गम्यते चीनद्वीपमिति । रूप है, यह पुरुष के सम्मान को बढ़ाता है, गौरव उत्पन्न करता है, अत्यधिक महत्त्व को उत्पन्न करता है। सौभाग्य को करता है, कान्ति को लाता है, कुल को प्रकाशित करता है, रूप को प्रकाशित करता है, (और) वृद्धि को (भी) प्रकाशित करता है। धनवान व्यक्ति न देते हुए भी लोक में प्रशंसनीय होते हैं। जो कुछ करते हैं वह अशोभन होते हुए भी शोभन के रूप में वर्णित किया जाता है। याचकजनों की प्रार्थना को न तोड़ते हुए परार्थसाधन रूप सुख का अनुभव करते हैं। अतः यद्यपि मेरे पूर्वजों के द्वारा उपार्जित धन बहुत अधिक है, किन्तु गरु के प्रति की गयी याचना के समान इससे बस करना चाहिए । अतः दसरा धन उपार्जन करूंगा-ऐसा सोचकर माता-पिता से निवेदन किया। उन दोनों ने अनुमति दे दी। बहुत बड़े व्यापारियों के झुण्ड तथा पत्नी के साथ पूर्व समुद्र के किनारे स्थित वैजयन्ती नामक नगरी को गया। राजा ने देखा। उसने बहुत सम्मान दिया। माल को बेचा, किन्तु अभीप्सित लाभ नहीं प्राप्त हआ। उसने सोचा-समुद्र के तट पर आ गया है, अत: दसरे किनारे पर जाऊँगा। वहाँ पर जाने पर कदाचित् अभिलषित प्रयोजन की सिद्धि हो जाएगी। दूसरे किनारे पर ले जाये जानेवाले माल को ले लिया। गाड़ी (यान) को तैयार किया। पूण्य तिथि और करण के योग में नगरी से निकला। समुद्र के किनारे गया। याचकों की पूजा की, समुद्र को अर्घ्य दिया। गुरु-देवताओं को नमस्कार कर जहाज पर सवार हो गया। वेग को रोकनेवाली शिला खींची। सफेद वस्त्र (पाल) को लगाया, यान-पात्र को छोड़ा, चीन द्वीप की ओर गया। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छटठो भवो ] ४६६ अन्नया य अइक्कतेसु कइवयदिणेसु कुसलपुरिसविमुक्के विय नाराए वहंते जाणवत्ते गयणयलमज्झसंढिए दिणयरंमि आगंपयंतो विय मेइणि धुणंतो विय समुई उम्मूलंतो विय कुलसेलजालाणि पयट्टो मारुओ। तओ एरावणो विय गुलुगुलेन्तो पडिसोत्तवाहियसरियामुहं खुहिओ महण्णवो, विसण्णा निज्जामगा। तओ समं गमणारंभेण ओसारिओ सियवडो, जोवियासा विय विमुक्का नंगरसिला निज्जामएहि। तहावि य तत्थ कंचि वेलं गमेऊण विवन्नं जाणवतं । जीवियसेसयाए समासाइयं फलगं, अहोरत्तेण संघिऊण जलनिहिं सुवण्णदोवंमि लग्गो सत्थवाहपुत्तो। चितिथं च णेणं, अहो परिणई दइव्वस्स । न याणामि अवत्थं पिययमाए परियणस्स य । अहवा किं विसाएणं। एसो चेव एत्थ पमाणं ति । तओ कयलफलेहिं संपाइया पाणवित्ती। अत्थमिओ सूरिओ। कोण पल्लवसत्थरो, सोयावणयणत्थं च अरणोपओएण पाडिओ जलणो। तप्पिऊण कंचि कालं पणमिऊण गरुदेवए य पसुत्तो एसो। अइक्कंता रयणी, विउद्धो य । उग्गओ अंसुमाली । दिटुंच णतं जलणच्छिक्क सव्वमेव सुवण्णाहूयं धरणिखंडं। चितियं च ण । अहो एयं खु धाउखेत्तं; ता पाडेमि एत्थ सुवण्णय अन्यदा चातिक्रान्तेषु कतिपयदिनेषु कुशलपुरुषविमुक्ते इव नाराचे वहति यानपात्रे गगनतलमध्यसंस्थिते दिनकरे आकम्पयन्निव मेदिनी धूनयन्निव समुद्रम् उन्मूलयन्निव कुलशैलजालानि प्रवृत्तो मारुतः । तत ऐरावण इव गुलुगुलायमानः प्रतिस्रोतोवाहितसरिन्मुखं क्षुब्धो महार्णवः, विषण्णा निर्यामकाः । ततः समं गमनारम्भेणापसारितः सितपटः, जीविताशेव विमुक्ता नाङ्गरशिला निर्यामकैः। तथापि च तत्र काञ्चिद् वेलां गमयित्वा विपन्नं यानपात्रम् । जीवितशेषतया समासादितं फलकम् अहोरात्रेण लङ्घित्वा जलनिधि सुवर्णद्वीपे लग्नः सार्थवाहपुत्रः । चिन्तितं च तेन-अहो परिणतिर्दैवस्य, न जानाम्यवस्थां प्रियतमायाः परिजनस्य च । अथवा किं विषादेन । एष एवात्र प्रमाणमिति। ततः कदलफलैः संपादिता प्राणवृत्तिः । अस्तमित: सूर्यः । कृतस्तेन पल्लवस्रस्तरः, शीतापनयनार्थे चारणिप्रयोगेण पातितो ज्वलनः । तप्त्वा कञ्चित्कालं प्रणम्य गुरुदैवतांश्च प्रसुप्त एषः । अतिक्रान्ता रजनी, विबुद्धश्च । उद्गतोऽशुमाली । दृष्टं च तेन तद् ज्वलनस्पष्टं सर्वमेव सुवर्णीभूतं धरणीखण्डम् । चिन्तितं च तेन-अहो एतत्खलु धातुक्षेत्रम्, ततः पातयाम्यत्र सुवर्णकमिति । दूसरी बार कुछ दिन बीत जाने पर कुशल पुरुषों के द्वारा छोड़े गये बाण के समान जहाज के चलने पर जबकि सूर्य आकाश के मध्य में स्थित था (तब), पृथ्वी को मानो कपाती हुई, समुद्र को मानो उड़ाती हुई और कुलपर्वतों के समूह को उखाड़ती हुई वायु चल पड़ी। तब इन्द्र के हाथी के समान गुलगुल शब्द करता हुआ, उल्टी धार बहता हुआ महासागर क्षुब्ध हो गया। नाविक खिन्न हो गये। तब वायु के चलने के आरम्भ में ही सफेद वस्त्र (पाल) को हटाया, नाविकों ने जीवन की आशा के तुल्य लंगर को छोड़ा। तो भी कुछ समय बाद जहाज नष्ट हो गया। प्राण शेष होने के कारण एक काष्ठ-खण्ड मिल गया। दिन-रात समुद्र को पार कर सार्थवाहपुत्र सुवर्णद्वीप के किनारे आ लगा। उसने सोचा- अहो, भाग्य का फल, प्रियतमा और सेवकों की हालत को नहीं जानता हूँ। अथवा विषाद के क्या ? अब यही प्रमाण है। तब केलों का आहार किया । सूर्य अस्त हो गया। उसने पत्तों का बिस्तर बनाया, ठण्ड को दूर करने के लिए लकड़ियों को रगड़कर आग जलायी। कुछ समय तापकर गुरु-देवताओं को प्रणाम कर वह सो गया। रात्रि व्यतीत हुई, (वह) उठ गया। सूर्य निकला। उसने सारी धरती को जलती हुई अग्नि के समान स्वर्णमयी देखा । उसने Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० [समराइच्चकहा ति । कयाओ इट्टयाओ, अंकियाओ धरणनामएण, उल्लयाणं चेव संपाइया संपुडा, पक्का य सुवष्णमया जाया। एवं च कया णेण दस इट्टयसपुडसहस्सा । निबद्धो भिन्नपोयद्धओ। इओ य चीणाओ चेव सुक्यणसत्थवाहपुत्तसंतियं असारभंडभरियं अन्नदोवलग्गसंपावियलच्छिसहियं देवउरगामियं समागयं तमद्देसं जाणवत्तं । दिट्ठोय भिन्नपोयद्धओ सत्यवाहेणं । लम्बिया य नंगरा सुवयणाएसेण । समागया निज्जामगा। दिढो य णेहिं धरणो भणिओ य-भो भो महापरिस, एसो चीणवत्थव्वगो देवउरगामी जाणवत्तसंठिओ सुवयणो नाम सत्थवाहपुत्तो भणइ, जहा एहि कूलं गच्छम्ह । धरणेण भणियं-भद्द, किभंडभरियं खु तं जाणवत्तं । निज्जामएहि भणियं-अज्ज, विहिवसेण परिवडिओ खु एसो सत्थवाहपुत्तो विहवेण, न उण पोरुसेणं । ता न सुठ्ठ सारभंडभरियं ति। धरणेण भणियं-जइ एवं, ता अणुवरोहेणं आगच्छउ एत्तियं भूमि सत्थवाहपत्तो। निवेइयं सुवयणस्स । आगओ य एसो, भगिओ धरणेण-सत्थवाहपुत्त, न तए कुप्पियन्वं, पओयणं उद्दिसिऊण किंचि पुच्छामि त्ति । सुवयणेण भगिणं-- भणाउ अज्जो। धरणेण भणियं-केत्तियस्स ते दविण कृता इष्टकाः, अङ्किता धरणनामकेन आर्द्रकाणामेव सम्पादिताः सम्पुटाः, पक्वाश्च सुवर्णमया जाताः । एवं च कृतानि तेन दश इष्टकासम्पुटसहस्राणि । निबद्धो भिन्नपोतध्वजः। इतश्च चीनादेव सुवदनसार्थवाहपुत्रसत्कमसारभाण्डभृतमन्यद्वीपलग्नसंप्राप्तलक्ष्मीसहितं देवपुरगामिकं समागतं तमुद्देशं यानपात्रम्। दृष्टश्च भिन्नपोतध्वजः सार्थवाहेन। लम्बिताश्च नाङ्गराः सुवदनादेशेन । समागता निर्यामकाः । दृष्टश्च तैर्धरणो भणितश्च-भो भो महापुरुष ! एष चीनवास्तव्यो देवपुरगामी यानपात्रसंस्थितः सुवदनो नाम सार्थवाहपुत्रो भणति, यथा एहि, कूलं गच्छामः । धरणेन भणितम् - भद्र ! किंभाण्डभृतं खलु तद् यानयात्रम् । निर्यामकर्भणितम् - आर्य ! विधिवशेन परिपतितः खल्वेष सार्थवाहपुत्रो विभवेन, न पुनः पौरुषेण । ततो न सुष्ठु सारभाण्डभृतमिति । धरणेन भणितम् - यद्येवं ततोऽनुपरोधेनागच्छतु एतावती भूमि सार्थवाहपुत्रः । निवेदितं सुवदनस्य । आगतश्चैषः, भणितो धरणेन - सार्थवाहपुत्र ! न त्वया कुपितव्यम, प्रयोजनमुद्दिश्य किंचित् पृच्छामीति । सुवदनेन भणितम् -भणत्वार्यः । धरणेन भणितम् -- कियतस्ते द्रविजातस्य यान सोचा---'अरे यह धातु का क्षेत्र है, अतः यहाँ पर सोना पकाता हूँ। 'ईंटें' बनायीं, धरण नाम से अंकित की। मिट्टी के गोले बनाये, पकाने पर स्वर्णमयी हो गये । इस प्रकार दश हजार ईंटें बनायीं । जहाज की ध्वजा फट गयी थी, उसे बाँधा। इधर चीन से ही सुवदन सार्थवाहपुत्र के साथ सामान्य मूल्यवाले माल से भरा हुआ दूसरे द्वीप से प्राप्त लक्ष्मीसहित देवपुर को जानेवाला उसी स्थान पर एक जहाज आ गया। सार्थवाह ने जहाज की फटी हुई ध्वजा देखी। सुवदन के आदेश से लंगर डाले गये। नाविक आये, उन्होंने धरण को देखा और कहा--हे महापुरुष ! यह चीन देश का वासी देवपुर को जानेवाले जहाज में स्थित सुवदन नाम का सार्थवाहपुत्र कहता है-आओ, तट की ओर चलें। धरण ने कहा --- भद्र ! क्या उस जहाज में माल भरा है ? नाविकों ने कहा-आर्य ! दैववश इस सार्थवाहपुत्र के पास धन नहीं है, किन्तु पुरुषार्थ विहीन नहीं, अतः भली प्रकार अच्छा माल नहीं भरा है । धरण ने कहा--यदि ऐसा है तो सार्थवाहपुत्र ! बेरोकटोक इस भूमि पर आ जाएँ । सुवदन से निवेदन किया गया। वह आ गया। धरण ने कहा-सार्थवाहपुत्र ! आप कुपित न हों। किसी विशेष प्रयोजन से कुछ पूछता हूँ । सुवदन ने कहा--आर्य ! पूछिए। धरण ने कहा-तुम्हारे जहाज में कितना धन है ? सुवदन ने कहा--आर्य ! देव की Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो भवो ] जास्त जाणवत्तंमिरित्थं । सुवयणेण भणियं -अज्ज, देव्वस्स पडिकूलयाए विणट्टो खु अहह्यं । तहावि 'परिसयारो न मोत्तव्यो' त्ति उच्छाहमेत्तभंडमोल्लो सुवण्णसहस्समेत्तस्स घेत्तूण किंपि भंडं देवउ रं पट्टो म्हि | धरणेण भणियं-जइ एवं ता परिच्चय तं भंड, भरेहि मे संतियस्स सुवण्णस्स जाणवत्तं; कूलपत्तस्स य भवओ पर्याच्छस्सं सुवण्णलक्खं ति । सुवयणेण भणियं - किं सुवण्णलवखेण, तुमं चेव बहुओत । उज्झियं पुव्वभंडं । भरियं सुवण्णस्स । ठाविया संखा । उत्रारूढो धरणो । दिट्ठा य णेण लच्छी । परितुट्ठो स हियएणं दूमिया य एसा । 'जाया महं एस' त्ति साहियं सुवयणस्स धरणेणं । आदिओस । पट्ट जाणवत्तं । गयं पंचजोयण मेत्तं भूमिभागं । एत्यंतरंमि गयणयल वारिणी वेगागमणेणागंपयंती समुद्दं अयालविज्जू दिय असुहया लोयणाणं 'अरे रे दुसत्थवाहपुत्त, अकओवयारो अणणजाणियं मए कह इमं मईयं दविणजायं गेव्हिऊण गच्छसि' त्ति भणमाणी सुवण्णदीवसामिणी समागया सुवण्णनामा वाणमंतरी । धरियं जाणवत्तं, भणियं च जाए - भो भो निज्जामया, अदाऊण पुरिसबल न एत्थ अत्यो घेप्पइ; ता पुरिसबल वा ५०१ पात्रे रिक्थम् । सुवदनेन भणितम् - आर्य ! दैवस्य प्रतिकूलतया विनष्टः खल्वहम् । तथापि 'पुरुष - कारो न मोक्तव्यः' इति उत्साहमात्रभाण्डमूल्यः सुवर्णसहस्रमात्रस्य गृहीत्वा किमपि भाण्डं देवपुरं प्रवृत्तोऽस्मि । धरणेन भणितम् - यद्येवं ततः परित्यज भाण्डम्, विभृहि मे सत्कस्य सुवर्णस्य यानपात्रम्, कूलप्राप्तस्य च भवतो प्रदास्ये सुवर्णलक्षमिति । सुवदनेन भणितम् - किं सुवर्णलक्षेण, त्वमेव बहुक इति । उज्झितं पूर्वभाण्डम् । भृतं सुवर्णेन । स्थापिता संख्या । उपारूढो धरणः । दृष्टा च तेन लक्ष्मीः । परितुष्ट एष हृदयेन । दूना चैषा । 'जाया मम एषा' इति कथितं सुवदनस्य धरणेन । आनन्दित एषः । प्रवृत्तं यानपातम् । गतं पञ्चयोजनमात्रं भूमिभागम् । 1 अत्रान्तरे गगनतलचारिणी वेगागमनेनाकम्पयन्ती समुद्रम्, अकालविद्युदिव असुखदा लोचनयोः' अरे रे दुष्टसार्थवाहपुत्र ! अकृतोपचारोऽननुज्ञातं मया कुवेदं मदीयं द्रविणजातं गृहीत्वा गच्छसि' इति भणन्ती सुवर्णद्वीपस्वामिनी समागता सुवर्णानाम्नी वानव्यन्तरी । धृतं यानपात्रम्, भणितं चानया - भो भो निर्यामका ! अदत्त्वा पुरुषबलिं नाव अर्थो गृह्यते, ततः पुरुषबलिं वा दत्त अर्थं वा प्रतिकूलता के कारण मैं नष्ट हो गया, तथापि पुरुषार्थ नहीं छोड़ना चाहिए अतः उत्साहमात्र का माल, जिसका मूल्य एक हजार दीनार है, लेकर देवपुर की ओर प्रवृत्त हुआ हूँ । धरण ने कहा- यदि ऐसा है तो माल का परित्याग कर दो। मेरे पास जो स्वर्ण है, उससे जहाज को भरिए । किनारा आने पर, आपको एक लाख स्वर्ण दे दूंगा । सुवदन ने कहा – एक लाख सोने से क्या ? आप ही बहुत हैं । पहले के माल को छोड़ दिया । सोने को भरा । संख्या गिनी । धरण सवार हुआ । उसने लक्ष्मी को देखा । वह हृदय से सन्तुष्ट हुआ । वह दु:खी हुई । धरण ने सुवदन से कहा - यह मेरी स्त्री है । वह आनन्दित हुआ । जहाज चल पड़ा । पाँच योजन आगे चला । इसी बीच आकाशगामिनी, वेगपूर्वक आने से समुद्र को कँपाती हुई, असमय में उत्पन्न हुई बिजली के समान दोनों नेत्रों को दुःख प्रदान करनेवाली 'अरे रे दुष्ट सार्थवाहपुत्र ! तू बिना मेरी आज्ञा और सेवा के मेरा धन लेकर कहाँ जाता है ?' ऐसा कहती हुई स्वर्णद्वीप की स्वामिनी 'सुवर्णा' नामक वानव्यन्तरी आयी । जहाज रोका गया । इसने कहा- रे रे नाविको ! पुरुष की बलि दिये बिना यहाँ का धन ग्रहण नहीं किया जाता है, Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ [ समराइच्चकहा देह, अत्थं वा मुयह, वावाएमि वा अहयं ति। धरणेण चितियं-अहो णु खलु मुयाविओ नियरिस्थं सुवयणो, उवयारो य एसो लच्छीसंपायणेण, एसा य एवं भणाइ। ता इमं एत्थ पत्तयालं, अहमेव पुरिसबली हवामि त्ति । चितिऊण भणिया वाणमंतरी-भयवइ, अयाणमाणेण मए एवं ववसियं । ता पसीय। अहमेव एत्थ बलिपुरिसो; मं पांडच्छसु ति। तीए भणियं- जइ एवं, ता घत्तेहि अप्पाणयं समहे, जेण ते वावाएमि त्ति । लच्छीए चितियं-अणुग्गिहीया भयवईए। तओ घरणेण भणियंक्यस्स सुवयण, पावियव्वा तए लच्छी मह गुरूणं ति । भणिऊण पवाहिओ अप्पा। विद्धो य णाए सूलेण, नीओ सुवण्णदोवं। उवसंता वाणमंतरी । पयट्ट जाणवत्तं देव उराहिमहं। __एत्थंतरंमि दिट्ठो य एसो कंठगयपाणो सुवेलाओ रयणदीवं पत्थिएणं हेमकुंडलेणं, पच्चभिन्नाओ य णेण । पुवपरिचिया य सा हेमकुंडलस्स वाणमंतरी । तओ हा किमेयमकज्जमणुचिट्टियं' ति भणिऊण मोयाविओ वाणमंतरीओ। पुवभणिओसहिवलयवइयरेण कयं से वणकम्मं । जीवियसेसेण स पन्नत्तो एसो पच्चभिन्नाओ य ण हेमकुंडलो। पुच्छिओ धरणेणं सिरविजयवृत्तंतो। मुञ्चत, व्यापादयामि वा अहमिति । [यद्येतेषामेकमपि न दत्त, ततोऽनर्थः, कृते च न तव भिननि प्रवहणम् ]धरणेन चिन्तितम्-अहो नु खलु मोचितो निजरिक्थं सुवदनः, उपकारी चैष लक्ष्मीसम्पादनेन, एषा चैवं भणति । तत इदमत्र प्राप्तकालम्, अहमेव पुरुषबलिर्भवामि इति । चिन्तयित्वा भणिता वानव्यन्तरी-भगवति ! अजानता मयैवं व्यवसितम्। ततः प्रसीद। अहमेवात्र बलिपुरुषः, मां प्रतीच्छेति । तया भणितम् यद्येवं ततः क्षिप आत्मानं समुद्रे, येन त्वां व्यापादयामीति । लक्ष्म्या चिन्तितम्-अनुगृहीता भगवत्या। ततो धरणेन भणितम्-वयस्य सुवदन ! प्रापयितव्या त्वया लक्ष्मीर्मम गुरूणामिति । भणित्वा प्रवाहित आत्मा। विद्धश्चानया शूलेन । नीतः सुवर्ण-द्वीपम् । उपशान्ता वानव्यन्तरी। प्रवृत्तं यानपात्रं देवपुराभिमुखम् । अत्रान्तरे दृष्टश्चैष कण्ठगतप्राणः सुवेलाद् रत्नद्वीपं प्रस्थितेन हेमकुण्डलेन, प्रत्यभिज्ञातश्च तेन । पूर्वपरिचिता च सा हेमकुण्डलस्य वानव्यन्तरी। ततो 'हा किमेतदकार्यमनुष्ठितम्' इति भणित्वा मोचितो वानव्यन्तर्याः । पूर्वभणितौषधिवलयव्यतिकरेण कृतं तस्य व्रणकर्म । जीवितशेषेण च अतः या तो पुरुष की बलि दो या धन छोड़ो, नहीं तो मैं मारती हूँ। यदि इनमें से एक भी वचन पूरा नहीं होता तो अनर्थ हो जायेगा। यदि पूरा किया जाता है तो मैं तुम्हारा जहाज नष्ट नहीं करूँगी। धरण ने सोचाअहो, सुवदन अपने धन को नहीं छोड़ेगा, लक्ष्मी को लाने के लिए यह उपकारी है और यह ऐसा कहती है अतः अब समय आ गया है, मैं ही नरबलि होऊँ। सोचकर वाणव्यन्तरी से कहा-भगवती ! अज्ञान के कारण मैंने ऐसा किया है। अत: प्रसन्न हो इए। मैं ही बलिपुरुष है, मुझे स्वीकार करो। उसने कहा-यदि ऐसा है तो अपने आपको समुद्र में फेंक दो, जिससे तुम्हें मार डाल। लक्ष्मी ने सोचा-देवी ने अनुग्रह किया। तब धरण ने कहा-मित्र सुवदन ! मेरे पूज्य पुरुषों के पास लक्ष्मी को पहुँचा देना-ऐसा कहकर अपने आपको गिरा दिया। इसने शूल से वेध किया और स्वर्णद्वीप ले गयी। वानव्यन्तरी सन्तुष्ट हुई । जहाज देवपुर की ओर चल दिया। इसी बीच सुवेल से रत्नद्वीप जाते हुए हेमकुण्डल ने इसे कण्ठगत प्राण देखा और पहिचान लिया। वह वानव्यन्तरी हेमकुण्डल की पूर्व परिचित थी। अतः 'हाय, यह क्या अकार्य कर डाला-' ऐसा कहकर वानव्यन्तरी ने छोड़ दिया। पहले कही गयी औषधिवलय के संसर्ग से उसकी मरहमपट्टी की। जीवन शेष रहने के कारण इसे होश आया और इसने हेमकुण्डल को पहिचान लिया। धरण ने श्रीविजय का वृत्तान्त पूछा। हेमकुण्डल ने कहा www.jainelibrary:org Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो भवो] ५०३ साहिओ हेमकुंडलेग, जहा जीविओ सो महाणुभावो त्ति। परितुट्ठो धरणो। हेमकुंडलो य घेत्तूण धरणं पयट्टो रयणदीवं । पत्तो य भुयंगगंधव्वसुंदरीजणारद्ध महुरगेयरवायड्ढियदिन्नावहाणनिच्चलट्ठियमयजूहं दरियवणकोलघोणाहिघायजज्जरियमहियलुच्छलियमुत्थाकसायसुरहिगंधवासियदिसायक्कं तौरतरुखुडियकुसुममयरंदवासियासेसविमलजलदुल्ललियरायहंसाउलसरसहस्कलिधं महल्लतरुसिहरावडियकुसुमनियरच्चियवित्यिण्णभूमिभागं उद्दामनागवल्लीनिवहसमालिगियासेसपूगफलीसंडं वियडघणसुरहिमंदारमंदिरारद्धविज्जाहरमिहुणरइसुहं दरियवणहत्थिपोवरकरायड्ढणभग्गसमतुंगगलंतचंदणवणं तीरासन्न ट्ठियघणतमालतरुवीहिओहसियजलहिजलं तरुणतरुवियडमणहरालवालयजलसुहियविविहविहंगनियररवापूरिउद्देसं सिद्धविज्जाहरालमुत्तुंगरयणगिरिसणाहं दीवं नामेण रयणसारं ति । अधि य रयणायरेण धणियं वियडतरंगुच्छलतबाहाहि । सव्वत्तो पियकामिणिरुइरसरीरं व उवगूढं ।।५३०॥ प्रज्ञप्त एष प्रत्यभिज्ञातश्च तेन हेमकुण्डल । पृष्टो धरणेन श्रीविजयवृत्तान्तः । कथितो हेमकुण्डलेन, यथा जीवितः स महानुभाव इति । परितुष्टोधरणः । हेमकुण्डलश्च गृहीत्वा धरणं प्रवृत्तो रत्नद्वीपम्। प्राप्तश्च भुजङ्गगान्धर्वसुन्दरीजनारब्धमधुरगेयरवाकृष्टदत्तावधाननिश्चलस्थितमृगयूथं दृप्तवनकोलघोणाभिघातजर्जरितमहीतलोच्छलितमुस्ताकषायसुरभिगन्धवासितदिक्चक्रं तीरतरुखण्डितकुसुममकरन्दवासिताशेषविमलजलदुर्ललितराजहंसाकुलसरःसहस्रकलितं महातरुशिखरापतितकुसुमनिकराचितविस्तीर्णभूमिभागम उद्दामनागवल्लीनिवहसमालिङ्गिताशेषपूगफलीषण्डं विकटघनसुरभिमन्दारमन्दिरारब्धविद्याधरमिथुनरतिसुखं दृप्तवनहस्तिपीवरकराकर्षणभग्नसमुत्तुङ्गगलच्चन्दनवनं तीरासन्नस्थितघनतमालतरुवीथ्युपहसितजलधिजलं तरुणतरुविकटमनोहरालवालजलसुहितविविधविहङ्गनिकररवापूरितोद्देशं सिद्धविद्याधरालयोत्तुङ्गरत्नगिरिसनाथं द्वीपं नाम्ना रत्नसारमिति । अपि च रत्नाकरेण गाढं विकटतरङ्गोच्छलबाहुभिः । सर्वतः प्रियकामिनीरुचिरशरीरमिव उपगूढम् ।। ५३०।। कि वह महानुभाव जीवित है । धरण सन्तुष्ट हुआ। धरण को लेकर हेमकुण्डल रत्नदीप गया। विद, विदूषक, और गन्धर्वसुन्दरियों के द्वारा आरम्भ किये हुए मधुर गीतों की ध्वनि से आकृष्ट, ध्यान लगाने के कारण जहाँ मृगों के झुण्ड निश्चल थे, गर्वीले वनसूकरों की नाक के आघात से जर्जरित पृथ्वीतल से ऊपर उछलते हुए नागरमोथा की कसैली सुगन्ध से जहाँ की दिशाएँ सुगन्धित थीं, किनारे के वृक्षों से टूटे हुए फूलों की पराग से सुगन्धित सारे निर्मल जल में लाड़-प्यार से बिगड़े हुए (नटखट) राजहंसों से आकुल हजारों तालावों से युक्त, विशाल वृक्षों की चोटियों से गिरे हुए फूलों का समूह जहाँ की भूमि पर फैला हुआ था, ऊँचे-ऊँचे चन्दन का वन जहाँ टूटकर गिरा हुआ था, तट पर स्थित घने तमालवृक्ष की पंक्ति के द्वारा जहाँ समुद्र के जल की हँसी की जा रही थी, तरुण पौधों की बड़ी-बड़ी मनोहर क्यारियों के जल को भलीभाँति ग्रहण करते हुए अनेक प्रकार के पक्षियों के समूह की आवाज से जिसकी भूमि परिपूर्ण थी ऐसे सिद्ध और विद्याधरों के निवासभूत ऊँचे रत्नगिरि पर्वत से युक्त रत्नसार नामक द्वीप को प्राप्त किया। और भी- समुद्र में भारी तरंगें उठ कर द्वीप के तटों से टकरा रही थीं। ऐसा प्रतीत होता था, मानो रत्नाकर अपनी तरंगरूप भुजाओं को फैलाकर द्वीपरूप प्रियकामिनी के मनोहर शरीर का गाढ़ आलिंगन कर रहा हो। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइच्चकहा संपाविऊण फलहरनमियमहीरहनमिज्जमाणो व्व । परिणयखुडतबहुविहतरुकुसुमोवणियपूओ व्व ॥५३१॥ कमलमहुपाणसेवणजणियकलालावमुहलभमरेहि । कयसागयसम्माणो व्व अइगओ चूयतरुसंडं ॥५३२॥ उवविट्ठो दीहियातीरंमि, वीसमिओ मुहत्तयं, गहियाई सहयारफलाई, मज्जियं दोहियाए, कया पाणवित्ती। पुच्छिओ हेमकंडलेण धरणो-कहं तुम इमीए पाविओ ति। साहिओ ण जहट्टिनो सयलवुतंतो। हेमकुंडलेण भणियं-अहो से करहिययत्तणं; ता कि एइणा, भण कि ते करीयउ ति। धरणेण भणियं-कयं सयलकरणिज्ज; कि तु दुत्थिया मे जाया, ता तीए संजोयं मे करेहि। तओ 'रयणगिरीओ पहाणरयणसंजुयं संजोएमित्ति चितिऊण भणियं हेमकंडलेणं-करेमि संजोयं, किंतु अस्थि इहेव दीवंमि रयणगिरी नाम पव्वओ। तत्थ सलोयणो नाम किन्नरकुमारओ मे मित्तो परिवसइ । ता तं पेच्छिऊण नेमि तं देवउरमेव । तहिं गयस्स नियमेणेव तीए सह संजोगो सम्प्राप्य फलभरनतमहीरुहनम्यमान इव । परिणतत्रुटबहुविधतरुकुसुमोपनीतपूज इव ।। ५३१॥ कमलमधुपानसेवनजनितकलालापमूखरभ्रमरैः । कृतस्वागतसन्मान इव अतिगतश्चूततरुषण्डम् ॥५३२॥ ___उपविष्टो दीपिकातीरे, विश्रान्तो मुहूर्तकम्, गृहीतानि सहकारफलानि, मज्जितं दीपिकायाम्, कृता प्राणवृत्तिः। पृष्टो हेमकुण्डलेन धरणः-कथं त्वमनया प्राप्त इति । कथितस्तेन यथास्थितः सकलवृत्तान्तः । हेमकुण्डलेन भणितम्-अहो तस्याः क्रूरहृदयत्वम्, ततः किमेतेन, भण किं ते क्रियतामिति । धरणेन भणितम्-कृतं सकलकरणीयम, किन्तु दुःस्थिता मे जाया, ततस्तया संयोग मे कुरु । ततो 'रत्नगिरेः प्रधानरत्नसंयुतं संयोजयामि' इति चिन्तयित्वा भणितं हेमकुण्डलेन - करोमि संयोगम्, किन्तु अस्तीहैव द्वीपे रत्नगिरि म पर्वतः। तत्र सुलोचनो नाम किन्नरकुमारो मे मित्रं परिवसति । ततस्तं प्रेक्ष्य नयामि (वां देवपरमेव । तत्र गतस्य नियमेनैव तया सह संयोगो भविष्य फलों के भार से झुके हुए वृक्षों के द्वारा मानो नमस्कार किए जाते हुए, भली प्रकार फूलकर टूटे हुए अनेक प्रकार के वृक्षों के फलों के द्वारा मानों जहाँ पूजा की जा रही थी, कमलों के पराग का सेवन कर गुंजार करते हुए मुखर भौरों द्वारा ही जहाँ स्वागत और सम्मान किया जा रहा था तथा आम्रवृक्षों के वन जहाँ उत्कृष्टता को प्राप्त कर रहे थे (ऐसे द्वीप को वे प्राप्त हुए) ॥५३१-५३२॥ बावड़ी के किनारे बैठ गया, थोड़ी देर विश्राम किया, आम के फलों को ग्रहण किया, बावड़ी में स्नान किया, भोजन किया । हिमकुण्डल ने धरण से पूछा-तुम इस अवस्था को कैसे प्राप्त हुए ? उसने यथास्थित समस्त वृत्तान्त को कहा। हेमकुण्डल ने कहा-अहो उसकी क्रूरहृदयता, अतः इससे क्या ? कहो आपका क्या (कार्य) करें! धरण ने कहा-आपको जो करना उचित था, वह कर दिया, किन्तु मेरी पत्नी ठीक स्थान पर नहीं है। अतः उससे मिलाप कराइए। तब 'रत्नगिरि के प्रधान रत्न से युक्त करूँगा'-ऐसा सोचकर हेमकुण्डल के कहामिलाता हूँ, किन्तु इसी द्वीप में रत्नगिरि नाम का पर्वत है। वहाँ पर मेरा मित्र सुलोचन नामक किन्नरकुमार रहता है, लता उसे देखकर मैं तुम्हें देवपुर लिये जाता है। यहां पर जाकर नियम से उसके साथ मिलना होगा। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो भवो ] ड भविस्सइति । पस्यिं धरणेण । तओ घेतूण धरणं पयट्टो रयणपव्वयं पत्तो य महुरमारुय संबंदी कय लिसंघायं । संघापमिलिकपुरिसजवखपरिहुत्त वणसं डं ॥ ५३३ ॥ aris विविफलरस संतुविहंग सद्दगंभीरं । गंभीरजल हिग ज्जियहित्यपिओसत्त सिद्धरणं ॥ ५३४॥ सिद्धयणमिलियचारणसि हरवणारद्वमहरसंगीवं । संगीय मुरयघोसानंदियनच्चं तसि हिनियरं ॥ ५३५॥ सिहिनियर र वुक्कं प्रियप सन्नवर सिद्ध किन्नरिनिहाय । किन्नरिनिहाय सेवियलवंगलबलीहरच्छायं ॥ ५३६ ॥ छायावतमणोहरमणियडविल संतरयण निउरुंबं । बिटि उपेड सिह रुप्पेयं च रयणगिरिं ॥ ५३७॥ तीति । प्रतिश्रुतं धरणे । ततो गृहीत्वा धरणं प्रवृत्तो रत्नपर्वतम् । प्राप्तश्च मधुरमारुतमन्दान्दोलय कदलीसंघातम् । संघात मिलित किम्पुरुषयक्षपरिभुक्तवनषण्डम् ॥५३३|| वनषण्डविविधफल रससंतुष्टविहङ्ग शब्दगम्भीरम गभीरजलधिगर्जिततस्तप्रिया व सक्त सिद्धजनम् ॥५३४ ॥ सिद्धजनमिलितचारण शिखरव नारब्धमधुर संगीतम् । संगीतमुरजघोषानन्दितनृत्यच्छिखिनिकरम् ||५३५॥ शिखिनिकररवोत्कण्ठितप्रसन्नव रसिद्ध किन्नरीसमूहम् । किन्नरीसमूह सेवितलवङ्गलवली गृहच्छायम् ||५३६॥ छायावद्मनोहर मणितटविलसद्रत्ननिकुरम्वम् । निकुरम्बस्थितोन्नत शिखरोपेतं च रत्नगिरिम् ।। ५३७ || धरण ने स्वीकार किया । तब धरण को लेकर रत्नपर्वत की ओर प्रवृत्त हुआ । जहाँ मधुर वायु के चलने से केलों का समूह हिल रहा था, किम्पुरुष तथा यक्षों का समूह मिलकर जहाँ के वनसमूह का भांग कर रहा था, वनसमूहों के अनेक प्रकार के फलों के रस से सन्तुष्ट पक्षियों के शब्द से जो गम्भीर था, जहाँ प्रिया का अलिंगन किए हुए सिद्धजन गम्भीर बादलों के गर्जन से त्रस्त थे, सिद्धजनों से मिले हुए चारण पर्वतशिखर के वनों में जहाँ मधुर संगीत का आरम्भ कर रहे थे, मृदंग के संगीत की आवाज से आनन्दित होकर जहाँ मोरों के समूह नाच रहे थे, मोरों के समूह के शब्द से उत्कण्ठित एवं अत्यधिक प्रसन्न होता हुआ जहाँ सिद्धों और किन्नरियों का समूह था । किन्नरियों के समूह जहाँ लोंग और लवली ( पीले रंग की एक लता) के गृहों की छाया का सेवन कर रहे थे, छावावाले मनोहर मणितटों से शोभायमान जहाँ का रत्नसमूह था, (रत्नों के) समूह पर स्थित उन्नत शिखरों से जो युक्त था उन्होंने (ऐसे ) रत्नागिरि को प्राप्त किया ।। ५३३-५३७॥ ५०५ . Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चकहा तओ य तं पाविऊण महामहल्लुत्तुंगरयणसिहरुप्पंकनिरुद्धरविरहमग्गं विविहवर सिद्धविज्जाहरंगणाल लियगमणचलणालत्तयरसरं जियवित्थिण्णमुत्ता सिलायलं दरिविवरविणिग्गयनिज्भरभरंतझंकाररवायड्ढियदरियवणहत्थिनियरसमाइष्णवियडकडउद्देसं उद्दाममाहवीलयाहरुच्छंगनिद्दयरयायासखिन्नसुहप सुत्त विज्जाहरमिहुणं अइकोउहल्लेण आरुहिउं पयत्तो। किह चालियल वं गलबलीचंदणगंधुक्क डेण सिसिरेण । अवणिज्जंतपरिस्समसंतावो महरपवणेण ॥ ५३८ ॥ पेच्छंतो य रुइरदरिमंदिरामलमणिभित्तिसंकेतप डिमावलोयणपणयकु वियप सायण सुयदइयदंसणाहियकुवि विड्ढ सहियणो हसियमुद्धसिद्धगणासणाहं, कत्थइ य पयारच लियवरच मरिनियरनीहारामलचंद मऊ हनिम्मलुद्दामच मरचवल विक्खेववीइज्जमाणं, कत्थइ य नियंगबोवइयवियडघणगज्जियायण्णणुभंत धुय सड जाल नहयलुच्छंगनिमियकमदरियमयणाहरुंजियर वावूरिउद्देस, ५०६ अन्नत्थ ततश्च तं प्राप्य महामहोत्तुङ्ग रत्नशिखरसमूहनिरुद्धरविरथमार्गं विविधवर सिद्धविद्या_धराङ्गनाललितगमनचरणालक्तरस रञ्जितविस्तीर्णमुक्ता शिलातलं दरीविवरविनिर्गत निर्झर'झरत्झङ्काररवाकृष्टदप्त वनहस्तिनिकरसमाकीर्णविकटकटोद्देशम् उद्दाममाधवीलतागृहोत्संग निर्दयरतायासखिन्नसुखप्रसुप्तविद्याधरमिथुनम् अतिकुतूहलेनारोढुं प्रवृत्तः । कथम् - चालितलवङ्गलवलीचन्दनगन्धोत्कटेन शिशिरेण । अपनीयमानपरिश्रमसंतापो मधुरपवनेन ॥ ५३८ ॥ प्रेक्षमाणश्च रुचिरदरीमन्दिरामलमणिभित्तिसंक्रान्तप्रतिमावलोकन प्रणय कुपितप्रसादनोत्सुकदयितदर्शनाधिककुपितविदग्धसखीजनोपहसितमुग्धसिद्धाङ्गनासनाथम् कुत्रचिच्च प्रचारचलितवरचमरीनिकरनीहारामलचन्द्र मय् खनिर्मलोद्दामचामरचपलविक्षेपवीज्यमानम् नितम्बोपचितविकटघनगर्जिताकर्णनोद्भ्रान्तधुतसटाजालनभस्तलोत्संगन्यस्त क्रम दप्तं मृगनाथरुञ्जित रवापूरितोद्देशम्, अनन्तर रत्नों की बहुत ऊँची चोटियों के समूह द्वारा जहाँ सूर्य के रथ का मार्ग रोका गया था, अनेक सिद्ध विद्याधरों की श्रेष्ठ अंगनाओं के सुन्दर गमन करनेवाले पैरों में लगे हुए महावर से रँगी हुई बड़ी मुक्ता शिलाओं से युक्त, गुफाओं की खोल से निकलकर बहते हुए झरनों की झङ्कार के शब्द से मतवाले हाथियों के समूह से जिसका भयंकर प्रदेश व्याप्त था, उत्कट माधवी लतागृह की गोद में कठोर रति करने के कारण थककर सुख से सोये हुए विद्याधरों के जोड़े जहाँ पर थे, ऐसे उस पर्वत को पाकर अत्यन्त कुतूहल से उस पर चढ़ने लगे । कैमे - जिसने लोंग, लवलीलता और चन्दन की उत्कट गन्ध को प्रवाहित किया है ऐसी ठण्डी मधुर वायु के द्वारा परिश्रम की थकान को मिटाते हुए (उस पर्वत पर चढ़ने लगे ) || ५३८ ॥ सुन्दर गुफा मन्दिर की निर्मल मणिरचित दीवार में प्रतिबिम्बित प्रतिमाओं के अवलोकन के कारण प्रणय से कुपित मुग्ध सिद्धाङ्गनाओं को प्रसन्न करने के लिए जिनके पति उत्सुक हैं तथा (पतियों द्वारा मनाये जाने पर ) और अधिक कुपित हुई सिद्धाङ्गनाओं की जहाँ पर चतुर सखियाँ हँसी कर रही थीं ऐसी उन (सिद्धाङ्गनाओं) से वह युक्त था । कहीं-कहीं पर मार्ग में चलती हुई श्रेष्ठ चमरी गायों के समूह द्वारा तुपार के समान धवल और चन्द्रमा की किरणों जैसे निर्मल, चमकीले तथा चंचल चामरों के हिलने से जहाँ हवा की जाती थी; कमर भ्रमित होने पर उड़ते थे स्थान व्याप्त था, दूसरी पिछले भाग पर बढ़े हुए जिसके जटासमूह भयंकर बादल की गर्जना के सुनने से तथा आकाश की गोद में चरण रखते हुए गर्वीले सिंह की गर्जना के शब्द से जो Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो भवो ] ५०७ सरसघण चंदणत्रणुच्छंग विविहपरिहास को लाणंदियभुयंग मिहुणरमणिज्जं ति । तओ आरुहिऊण रंगरलियभूयं तत्थ य बालकयलीपरिवेढियवियडपीढं सोहा विणिज्जिय सुरिंदभवणं उत्तुंगतोरणखंभनिनियवर सालिभंजियासणाहं मणहरालेक्खविचित्तवियडभित्ति रुरगववखवेइओसोहि निम्मलमणिकोट्टिमं सुरहिकुसुम संपाइयपूओवयारं च गओ सुलोयणसंतियं मंदिरं ति । दिट्ठो य ग गंधव्वदत्ताए सह वीणं वायंतो सुलोयणो । अब्भुट्टिओ सुलोयणेणं । संपाइओ से उचिओवयारो । पुच्छिओ सुलोयणेणं हेमकुंडलो - कुओ भवं कुओ वा एस महापुरिसो किंनिमित्तं वा भवओ आगमणपओयणं ति । तओ सुवेलाओ नियं धरणस्स सुवण्णभूमिमुवलग्भाइयं चितियरयणप्पदाणपज्जवसाणं साहियमागमणपओयणं । तेण वि उत्फुल्ललोयणेण पडिस्सुयं । तओ चिट्ठिऊण asarदिय गहियाइं पहाणरयणाइं । नीओ य णेण धरणो देवउरं । मुषको नयरबाहिरियाए, समप्पियाणि से रयणाणि । भणिओ य एसो । इहट्ठिओ चैव जायं पडिवालसुति । पडिस्सुयं धरणेण । गओ हेमकुंडलो । अन्यत्र सरसघनचन्दनव नोत्संगविविधपरिहासक्रीडानन्दितभुजङ्गमिथुन रमणीयमिति । तत आरुह्य रत्नशिखरं रत्नगिरितिलकभूतं तत्र च बालकदलीपरिवेष्टितविकटपीठं शोभाविनिर्जितसुरेन्द्रभवनम् उत्तुंगतोरणस्तम्भन्यस्तवरशालभञ्जिकासनाथं मनोहरालेख्यविचित्रविकटभित्ति रुचिरगवाक्षवेदिकोपशोभितं निर्मलमणिकुट्टिमं सुरभिकुसुमसम्पादितपूजोपचारं च गतः सुलोचनसत्कं मन्दिरमिति । दृष्टश्च तेन गन्धर्वदत्तया सह वीणां वादयन् सुलोचनः । अभ्युत्थितः सुलोचनेन । सम्पादितस्तस्योचितोपचारः । पृष्टः सुलोचनेन हेमकुण्डलः- कुतो भवान् कुतो वा एष महापुरुषः, किंनिमित्तं वा भवत आगमनप्रयोजनमिति । ततः सुवेलाद् निजं धरणस्य सुवर्णभूमिमुपलभ्यादिकं चिन्तितरत्नप्रदानपर्यवसानं कथितमागमनप्रयोजनम् । तेनापि उत्फुल्ललोचनेन प्रतिश्रुतम् । ततः स्थित्वा कतिपयदिवसान् गृहीतानि प्रधानरत्नानि । नीतश्च तेन धरणो देवपुरम् । मुक्तो नगरबाह्यायाम् । समर्पितानि तस्मै रत्नानि । भणितश्चैषः -- इहस्थित एव जायां प्रतिपालयेति । प्रतिश्रुतं धरणेन । गतो हेमकुण्डलः । ओर सरस और चन्दन-वन की गोद में विविध प्रकार परिहास क्रीड़ा से आनन्दित होते हुए सर्पयुगलों से जो रमणीय लग रहा था (ऐसे उस रत्नगिरि पर्वत पर चढ़े ) । उस रत्नागिरि के तिलकभूत रत्नशिखर पर चढ़कर जिसका विस्तीर्ण पृष्ठ भाग नये केलों के वृक्षों से परिवेष्टित है, शोभा में जिसने इन्द्र के भवन को जीत लिया है, ऊँचे द्वार स्तम्भ पर रखी हुई सुन्दर शालभञ्जिका से जो युक्त है, जिसकी बड़ी-बड़ी दीवारों पर मनोहर चित्र बने हैं, जो सुन्दर झरोखों और वेदिका से सुशोभित है, जहाँ का फर्श निर्मल मणियों से बना है, सुगन्धित फूलों से जहाँ पूजा की जा रही है, ऐसे सुलोचन के मन्दिर में गया । वहाँ पर गन्धर्वदत्ता के साथ वीणा बजाते हुए सुलोचन को देखा । सुलोचन उठा । उसका उचित सत्कार किया । हेमकुण्डल से सुलोचन ने पूछा- आप कहाँ से आये हैं और यह महापुरुष कहाँ से आये हैं ? आपके आने का क्या प्रयोजन है ? आदि । तत्र चित्रकूटाचल से अपना और धरण का स्वर्णभूमि की प्राप्ति से लेकर चिन्ता - रत्नप्रदान तक का आने का प्रयोजन कहा । उसने भी विकसित नेत्रों से ग्रहण किया। तब कुछ दिन रहकर प्रधान रत्नों को ग्रहण किया । वह धरण को देवपुर लाया। नगर के बाहरी भाग में छोड़ दिया । उसे रत्न समर्पित कर दिये । इससे कहायहाँ रहकर ही पत्नी की प्रतीक्षा करो। धरण ने अङ्गीकार किया । हेमकुण्डल चला गया । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चकहा धरणो पुण बाहिरियाए चैव कंचि वेलं गमेऊण पविट्ठो नयरं । दिट्ठो य टोप्पसेद्विणा । 'अहो कल्लाणागिई अदिट्ठपुव्वो एगागी य दीसइ, ता भवियव्यं एत्थ कारणेणं' ति चितिऊण अहिमयसं भासण पुरस्सरं नीओ णेण गेहं । कओ उवयांरो । पुच्छिओ य सेट्टिणा - 'कुओ तुमं' ति । साहिओ णेण मायंदिनिवासनिग्गमणाइओ देवउरसंपत्तिपज्जवसाणो निययवुसंतो । समप्पियाई राई । भणिओ य ण सेट्ठी । एवाई संगोवावसु त्ति । संगोवाविया ण सेट्टिणा । ५०८ इओ धरण म गंतरमेव समासासिया सुवयगेण लच्छी । भणिया य ण-सुंदरि इस एस संसारो, वियोगांवसाणाइ एत्थ संगयाई; ता न तए संतप्पियत्वं । न विवन्नो य एस तुझ अवि यमज्झति । तओ नियडिप्पहाणाए बाहजलभरियलोयणं जंपियं लच्छीए। तए जीवमामको मह संतावो त्ति । तओ अक्कले कइवपदिणे जाणवत्तसंठियं पहूयं सुवण्णमवलोइऊण चितियं सुवणेणं । विवन्नो खु सो तवस्ती, पभूयं च एवं दविणजायं, तरुणा य से भारिया रूववई य, संगया य में चित्तेण; ता किं एत्थ जुत्तं ति । अहवा इयमेव जुत्तं, जं इमीए गहणं ति । को नाम . धरणः पुनः बाह्यायामेव काञ्चिद्वे लां गमयित्वा प्रविष्टो नगरम् । दृष्टश्च टोप्पश्रेष्ठिना । ‘अहो कल्याणाकृतिरदृष्टपूर्वं एकाकी च दृश्यते, ततो भवितव्यमत्र कारणेन' इति ि अभिमतसम्भाषणपुरस्सरं नीतस्तेन गेहम् । कृत उपचारः । पृष्ठश्च श्रेष्ठिना 'कुतस्त्वम्' इति । कथितस्तेन माकन्दीनिवासनिर्गमनादिको देवपुरसम्प्राप्तिपर्यवसानो निजवृत्तान्तः । समर्पितानि रत्नानि । भणितश्च तेन श्रेष्ठी - एतानि संगोपयेति । संगोपायितानि श्रेष्ठिना । _इतश्चधरणसमुद्रपतनसमनन्तरमेव समाश्वासिता सुवदनेन लक्ष्मीः । भणिता च तेन - सुन्दरि ! ईदृश एव संसारः, वियोगावसानान्यत्र सङ्गतानि ततो न त्वया संतप्तव्यम् । न विपन्नश्चैष तव, अपि च ममेति । ततो निकृतिप्रधानया बाष्पजलभृतलोचनं जल्पितं लक्ष्म्या - त्वयि जीवति को मम संताप इति । ततोऽतिक्रान्तेषु कतिपयदिनेषु यानपात्रसंस्थितं प्रभूतं सुवर्णमवलोक्य चिन्तितं सुवदनेन । विपन्नः खलु स तपस्वी, प्रभूतं चैतद् द्रविणजातम्, तरुणी च तस्य भार्या रूपवती च, संगता च मे चित्तेन, ततः किमत्र युक्तमिति । अथवा इदमेव युक्तम्, यदस्या ग्रहणमिति । को धरण बाहर ही कुछ समय बिताकर नगर में प्रविष्ट हुआ। टोप्प श्रेष्ठी ने देखा । 'अहो, कल्याणकारक जिसकी आकृति है, पहले कभी नहीं देखा ऐसा यह अकेला दिखाई देता है अतः कोई कारण होना चाहिए' ऐसा सोचकर इष्ट वार्तालाप के साथ उसे घर ले गया । सेवा की। सेठ ने पूछा- तुम कहाँ से आये ? उसने माकन्दी में निवास, वहाँ से निकलना, देवपुर प्राप्ति तक के समस्त वृत्तान्त को कहा । रत्नों को समर्पित किया । उसने सेठ से कहा - इन्हें सुरक्षित रख लीजिए । सेठ ने रख लिये । ii इधर घरण के समुद्र में गिरने के पश्चात् सुवदन ने लक्ष्मी को समझाया। उसने कहा- सुन्दरी ! यह संसार ऐसा ही है, यहाँ संयोग का अन्त वियोग के रूप में होता है, अतः तुम्हें दुःखी नहीं होना चाहिए । यह तुम्हारी विपत्ति नहीं, अपितु मेरी विपत्ति है। तब कष्टपूर्वक आँखों में आँसू भरकर लक्ष्मी ने कहा- आपके जीते रहने पर मुझे कौन-सा दुःख है ! तब कुछ दिन बीत जाने पर जहाज पर स्थित प्रभूत स्वर्ण को देखकर सुवदन ने सोचा- वह बेचारा मर गया, यह धन प्रभूत है, उसकी पत्नी तरुणी और रूपवती है और मेरे चित्त के अनुकूल है, अतएव यहाँ पर क्या उचित है ? अथवा यही उचित है कि उसका ग्रहण किया जाय। कौन मूर्ख है जो स्वयं Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो भवो ] ५०६ अबालिसो सयमेवायं लच्छ परिच्चयइ । ता गेण्हामि एवं । तओ 'परिहाससभा इत्थिय' ति farsढनायगारुवा कथा परिहासा, आवज्जियं से हिययं । निविट्ठो घरिणिसहो । अत्तट्ठियं सुवणयं । अइक्ता कवि दियहा । समागयं कूलं जाणवत्तं । महया दरिसणिज्जेण दिट्ठो सुवयणेण नरवई । परितुट्ठो एसो । 'उस्सुंकमेव तुह जाणवत्तं' ति कओ से पसाओ । गओ जाणवत्तं । 1 एत्यंतरंमि 'चीणदीवाओ आगयं जाणवत्तं' ति मुणिऊण निग्गओ धरणो । दिट्ठो य णेण सुवयणो लच्छी य । परितुट्ठो हियएणं, दूमिया लच्छो सुवयणो य। दिन्नं से आसणं, पुच्छिओ वृत्तंतं, साहिओ णेण । तओ सुवयणेण चितियं - अहो मे कंमपरिणई, अहो पडिकूलया देव्वस्स । केवलं कयमकज्जं, न संपन्नं समीहियं ति । चितिऊण भणियं - अज्ज, सोहणं संजायं, जं तुमं जीविओ । ता हाहि एयं निरित्यं ति । धरणेण भणिय - सत्थवाहपुत्त, पाणा वि एए तुह संतिया, जेण लच्छी सह समागमो कओ, किमंग पुण रित्थं ति । अइक्कंता काइ वेला । भणिया य लच्छी ण - एहि, नयरं पविसम्ह । लच्छोए भणियं - अज्जउत्त, कल्लं पविसिस्सामो, अज्ज उण अज्ज - उत्तेणावि इहेव वसियब्वं ति । पडिस्सुयमणेण । प्रभंगिओ एसो । आलोचियं च लच्छीए सुवयणेण नामाबालिशः स्वयमेवागतां लक्ष्मीं परित्यजति । ततो गृह्णाम्येताम् । ततः 'परिहाससाध्या स्त्री' इति विदग्धनायकानुरूपाः कृताः परिहासाः, आवर्जितं तस्या हृदयम् निविष्टो गृहिणीशब्दः । आत्मस्थितं सुवर्णम् || अतिक्रान्ताः कत्यपि दिवसाः । समागतं कूलं यानपात्रम् । महता दर्शनीयेन दृष्टः सुवदनेन नरपतिः । परितुष्ट एषः । 'उच्छुल्कमेव तव यानपात्रम्' इति कृतस्तस्य प्रसादः । गतो यानपात्रम् । अत्रान्तरे 'चीनद्वीपादागतं यानपात्रम्' इति ज्ञात्वा निर्गतो धरणः । दृष्टश्च तेन सुवदनो लक्ष्मीश्च । परितुष्टो हृदयेन, दूना लक्ष्मीः सुवदनश्च । दत्तं तस्यासनम्, पृष्टो वृत्तान्तम्, कथित - तेन । ततः सुवदनेन चिन्तितम् - अहो मे कर्मपरिणतिः, अहो प्रतिकूलता देवस्य । केवलं कृतमकार्यं न संपन्नं समीहितमिति चिन्तयित्वा भणितम् । आयें ! शोभनं संजातम्, यत्त्वं जीवितः । ततो गृहाणैतद् निरिक्थमिति । धरणेन भणितम् - सार्थवाहपुत्र ! प्राणा अप्येते तव सत्काः, येन लक्ष्म्या सह समागमः कृतः, किमङ्ग पुना रिक्थमिति । अतिक्रान्ता काचिद्वेला । भणिता च लक्ष्मीस्तेनएहि नगरं प्रविशावः । लक्ष्म्या भणितम् आर्यपुत्र ! कल्ये प्रवेक्ष्याव:, अद्य पुनरार्यपुत्रेणापि इहैव वसितव्यमिति । प्रतिश्रुतमनेन । अभ्यङ्गित एषः । आलोचितं च लक्ष्म्या सुवदनेन च । यथा अद्यैवैतं 9 आयी हुई लक्ष्मी का परित्याग करे। अतः इसे स्वीकार करता हूँ। अनन्तर 'स्त्री परिहास- साध्य है' अतः चतुर नायक के अनुरूप हँसी की, उसके हृदय को पलटा ( वशीभूत किया) । गृहिणी शब्द का प्रयोग किया। सोना हमारा हो गया। कुछ दिन बीते । जहाज किनारे पर आया । सुवदन ने राजा को बड़ी दर्शनीय वस्तु दिखायी । वह सन्तुष्ट हुआ । तुम्हारे जहाज पर कोई शुल्क नहीं है, ऐसा कहकर उस पर अनुग्रह किया। जहाज चला गया। इसी बीच 'चीन द्वीप से एक जहाज आया है - यह जानकर धरण निकला । उसने लक्ष्मी और सुवदन को देखा । हृदय से सन्तुष्ट हुआ, लक्ष्मी और सुवदन दुःखी हुए। उसे आसन दिया, वृत्तान्त पूछा । तब सुवदन ने सोचा- 'अहो मेरे कर्मों का फल, अहो भाग्य की प्रतिकूलता ! केवल अकार्य ही किया, इष्ट कार्य नहीं किया, इस प्रकार सोचकर कहा—आर्य ! अच्छा हुआ जो आप जीवित हैं । अतः अपनी सम्पत्ति ले लें । धरण ने कहासार्थवाहुपुत्र ! ये प्राण भी तुम्हारे हैं जो लक्ष्मी के साथ मिलन कराया, सम्पत्ति की तो बात ही क्या ! कुछ समय बीत गया । लक्ष्मी से उसने कहा - आओ, नगर में प्रवेश करें। लक्ष्मी ने कहा- आर्यपुत्र ! कल प्रवेश करेंगे। आज आर्यपुत्र के साथ यहींर हेंगे । इसने स्वीकार किया। इसकी मालिश हुई। लक्ष्मी और सुवदन ने विचार-विमर्श Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइच्चकहा य। जहा, अज्जेव एयं कयपाणभोयणं केणई उवाएण रयणीए वावाइस्सामो त्ति । मज्जिओ एसो, पाइओ महं काराविओ पाणवित्ति । अइकतो. वासरो, समागया रयणी, अत्थयं सयणिज्जं। निवष्णो एसो लच्छी य । तओ मयपराहीणस्त सिमिणए विय अन्वत्तं चेटमणुहवंतस्स दिन्नो इमीए गले पासओ, वनिओ य एसो। परिओसवियसि यच्छीए लच्छोए सुवयणेण व विमूढो धरणो मओ त्ति काऊण उज्झिओ जलनिहितडे । गयाइं जाणवत्तं । जलनिहिपवणसंगमेण य समासत्थो एसो। चितियं चणेणं हंत किमेयं ति । कि ताव सुविणओ आओ इंदजालं आओ मइविभमो आओ सच्चयं चेव त्ति । उवलद्धं जलनिहितडं । सच्चं चेव त्ति जाओ से विनिच्छओ। उदिऊण चितियमणेण । अहो लच्छोए चरियं, अहो सुवयणस्स पोरुसं। अहवा दुढगुंठो विय उम्मग्गपस्थिया, किपागफलभोगो विय मंगुलावसाणा, दुस्साहियकिच्च व्व दोसुप्पायणी, कालरत्ती विय तमोवलित्ता, ईइसा चेव महिलिया होइ । अवि य जलणो विघेप्पइ सुहं पवणो भयगो य केणइ नएण। महिलामणो न घेप्पइ बहुएहि वि नयसहस्सेहिं ॥५३६॥ कृतपानभोजनं केनचिदुपायेन रजन्यां व्यापादयिष्याव इति । मज्जित एषः, पायितो मधु, कारितः प्राणवृत्तिम् । अतिक्रान्तो वासरः, समागता रजनी, आस्तृतं शयनीयम् । निपन्न एष लक्ष्मीश्च । ततो मदपराधीनस्य स्वप्ने इवाव्यक्तां चेष्टामनुभवतो दत्तोऽनया गले पाशकः, वलितश्चैषः । परितोषविकसिताक्ष्या लक्ष्म्या सुवदनेन च विमूढो धरणो मृत इति कृत्वा उज्झितो जलनिधितटे। गतौ यानपात्रम् । जलनिधिपवनसंगमेन च समाश्वस्त एषः। चिन्तितं च तेन-हन्त किमेतदिति। किं तावत्स्वप्नः, अथवा इन्द्रजालम् , अथवा मतिविभ्रमः, अथवा सत्यमेवेति । उपलब्धं जलनिधितटम् । सत्यमेवेति जातस्तस्य विनिश्चयः । उत्थाय चिन्तितमनेन-अहो लक्ष्म्याश्चरितम् , अहो सुवदनस्य पौरुषम् ! अथवा दुष्टाश्व इव उन्मार्गप्रस्थिता, किंपाकफलभोग इव अमङ्गलावसाना दुःसाधितकृत्येव दोषोत्पादनी, कालरात्रिरिव तमोऽवलिप्ता ईदृश्येव महिला भवति । अपि च ज्वलनोऽपि गृह्यते सुखं पवनो भजगश्च केनचिन्नयेन । महिलामनो न गृह्यते बहुभिरपि नयसहस्रः ॥३५६।। किया कि आज ही इसे भोजनपान आदि कराकर किसी उपाय से रात्रि में मार डालेंगे । इसने स्नान किया, मधु-पान कराया, भोजन कराया। दिन व्यतीत हुआ, रात्रि आयी, बिस्तर बिछाया। यह और लक्ष्मी सोये । अनन्तर मद से पराधीन हए, स्वप्न में अव्यक्त चेष्टा-सी अनुभव करते हुए इस (धरण) के गले में इस (लक्ष्मी) ने फांसी लगा दी और इसे ढंक दिया। सन्तोष के कारण विकसित नेत्रोंवाले लक्ष्मी और सुवदन ने मूच्छित धरण को मरा हआ जानकर समुद्र के तट पर छोड़ दिया और दोनों जहाज पर चले गये। समुद्र की वायू के स्पर्श से इसे कुछ चेतना आयी। इसने सोचा-हाय ! यह क्या ? क्या (यह) स्वप्न है अथवा इन्द्रजाल अथवा बुद्धि का भ्रम है अथवा सत्य ही है ! समुद्र के तट को प्राप्त कर उसका निश्चय सत्य हो गया। उठकर इसने सोचा-- अहो लक्ष्मी का चरित्र, अहो सुवदन का साहस ! अथवा दुष्ट घोड़ों के समान उन्मार्ग पर से जानेवाले किंपाक के फल-भक्षण के समान अमङ्गलपूर्वक समाप्त होने वाली, कठिनता से साधी हुई कृत्या के समान अथवा कठिनता से साधे हुए कार्य के समान, दोषों को उत्पन्न करनेवाली कालरात्रि के समान, अन्धकार से अवलिप्त महिला ऐसी ही होती है । और भी . अग्नि, वायु और सर्प किसी नीति से सुखपूर्वक ग्रहण किए जा सकते हैं, किन्तु महिलाओं का मन हजारहजार नयों से भी ग्रहण नहीं किया जा सकता ॥५३६।। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो भवो ] __ ता कि इमीए । सुवयणस्स न जत्तमेयं ति। अहवा मइरा विय मयरायवडढणी चेव इत्थिया हवइ ति । विसयविसमोहियमणेणं तेणावि एवं ववसिय ति। एवं च चिंतयंतो सेटिनिउत्तेहि कहवि पुरिसेहि। सूरुग्गमवेलाए दिट्ठो बाहोल्लनयणेहिं ॥५४०॥ भणिओ य णेहि-सत्यवाहपुत्त, रयणीए न आगओ तुमं ति संजायासंकेण रयणोए चेव तुज्झ अन्नेसणनिमित्तं पेसिया अम्हे टोप्पसेट्टिण ति। कहकहवि दिट्टो सि संपयं । ता एहि, गच्छम्ह, निव्ववे हि अर्याचताणलपलित्तं सेटिहिययं । तओ 'अहो पुरिसाणमंतरं' ति चितिऊण पयट्टोधरणो, पविट्ठो नरि, दिट्ठो य णेण सेट्टी। पइरिक्कमि भणिओ सेट्टिणा। वच्छ, कुओ तुम किं वा विमणदुम्मणो दोससित्ति । तओ 'लज्जावणिज्जयं अणाचिक्खणीयमेयं ति चितिऊण बाहोल्ललोयणेण न जपियं धरणेण। सेट्टिणा भणियं-वच्छ, सुयं मए, जहा आगयं जाणवतं चीणाओं, ता तं तुमए उवलद्धं न व ति। तओ सगग्गयक्खरं जंपियं धरणेणं-अज्ज, उवलद्धं ति । सोगाइरेगेण य पवत्तं से ततः किंमनया। सुवदनस्य न युक्तमेतदिति । अथवा मदिरेव मदरागवर्धन्ये व स्त्री भवतीति । विषयविषमोहितमनसा तेनाप्येतद् व्यवसितमिति । एवं च चिन्तयन् श्रेष्ठिनियुक्त्तैः कथमपि पुरुषः । सूर्योद्गमवेलायां दृष्टो बाष्पार्द्रनयनैः ।।५४०॥ भणितश्च तैः-सार्थवाहपुत्र ! रजन्यां नागतस्त्वमिति संजाताशङ्केन रजन्यामेव तवान्वेषण निमित्तं प्रेषिता वयं टोप्पश्रेष्ठिनेति । कथंकथमपि दृष्टोऽसि साम्प्रतम् । तत एहि, गच्छामः, निर्वापय अनेकचिन्तानलप्रदीप्तं श्रेष्ठिहृदयम् । ततः 'अहो पुरुषाणामन्तरम्' इति चिन्तयित्वा प्रवृत्तो धरणः, प्रविष्टो नगरीम्, दृष्टश्च तेन श्रेष्ठी। प्रतिरिक्ते भणितः श्रेष्ठिना-वत्स ! कुतस्त्वम्, किंवा विमनोदुर्मना दृश्यसे इति । ततो 'लज्जनीयमनाख्यानीयमेतद्' इति चिन्तयित्वा बाष्पार्द्रलोचनेन नजल्पितं धरणेन। श्रेष्ठिना भणितम्-वत्स ! श्रुतं मया, यथाऽऽगतं यानपात्रं चीनाद्, ततस्तत त्वयोपलब्धं नवेति । तत: सगद्गदाक्षरं जल्पितं धरणेन । आर्य ! उपलब्धमिति । शोका अतः इससे क्या? सुवदन के लिए यह उचित नहीं था। अथवा मदिरा के समान मदराग को बहाने वाली ही स्त्री होती है । विषय-विष से मोहित मन से उसने ही यह निश्चय किया। जब वह यह सोच ही रहा था कि सूर्योदय के समय सेठ के द्वारा नियुक्त कुछ पुरुषों ने किसी प्रकार आँसू भरे नेत्रों से इसे देखा ॥५४०।। उन्होंने कहा-सार्थवाहपुत्र ! तुम रात्रि में आये ही नहीं, अत: आशङ्का उत्पन्न हो जाने के कारण टोप्पश्रेष्ठी ने आपकी खोज के लिए रात्रि में ही हम लोगों को भेजा। जिस किसी प्रकार अब दिखाई पड़े हो। अत: आओ, चलें। अनेक चिन्ता रूप अग्नि से ज्वलित सेठ के हृदय को शान्ति दें। तब 'अहो ! पुरुषों का भेद'... ऐसा सोचकर धरण चला। नगरी में प्रविष्ट हआ। उसने सेठ को देखा । एका त में सेठ ने पूछा-वत्स ! तुम कहाँ थे ? किस कारण निराश और दुःखी दिखाई देते हो ? तब 'यह लज्जनीय है, कहने योग्य नहीं है'ऐसा सोचकर जिसकी आँखों में आँसू भरे थे ऐसे धरण ने (कुछ भी) नहीं कहा । सेठ ने कहा-वत्स ! मैंने सुना है कि चीन से जहाज आया था, वह तुम्हें मिला या नहीं? तब गद्गद वाणी में धरण ने कहा-आर्य, मिल गया। शोक की Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ [ समराइच्चकहा बाहसलिलं । तओ 'नूणं विवन्ना से भारिया, अन्नहा कहं ईइसो सोगपसरो' ति चितिऊण भणियं टोप्पसेट्टिणा-वच्छ, अवि तं चेव तं जाणवत्तं ति। धरणेण भणियं-'आम' । सेटिणा भणियं-अवि कुसलं ते भारियाए । धरणेण भणियं-अज्ज, कुसलं । सेटिगा भणियं - ता किमन्नं ते उव्वेवकारणं । धरणेण भणियं-अज्ज, न किंचि आचिक्खियव्वं ति । से टुणा भणियं - ता कि विमणो सि । धरणेण भणियं-'आम'। सेट्ठिणाभणियं-'किमाम'धरणेणभणियं- 'एय',सेटिणा भणियं-'किमेयं',धरणेण भणियं 'न किंचि' । सेटिणा भणियं-वच्छ, किमेएहि । सुन्नभासिएहि आचिक्ख सम्भावं । न य अहं अजोग्गो आचिक्खियवस्स, पडिवन्नो य तए गुरू । तओ 'न जुत्तं गुरुआणाखंडणं' ति चितिऊण जंपियं धरणेण अज्ज, अज्जस्स आण'त्ति फरिय ईइसं पिभासीयइ त्ति। सेट्टिणा भणिय-वच्छ,नत्थि अविसओ गुरुयणाणुवत्तीए । धरणेग भणियं-अज्ज, जइ एव, ता कुसलं मे भारियाए जीविएणं, न उण सीलेणं । सेट्टिणा भणियं-कहं वियाणसि।धरणेण भणियं - 'कज्जओ' । सेट्टिणा भणियं - कह विय। तओ आचिक्खिओ से भोयणाइओ जलनिहितडपज्जवसाणो सयलवुत्तन्तो। तं च सोऊण कुदिओ टोप्पसेट्ठी तिरेकेण च प्रवत्तं तस्य बाष्पसलिलम् । ततो 'नूनं विपन्ना तस्या भार्या, अन्यथा कथमीदृशः शोकप्रसरः' इति चिन्तयित्वा भणितं टोपत्रेष्ठिना-वत्स ! अपि तदेव तद् यानपात्रमिति । धरणेन भणितम-'ओम्'। श्रेष्ठिना भणितम् - अपि कुशलं ते भार्यायाः ।धरणेन भणितम्-आर्य ! कुशलम्। श्रेष्ठिना भणितम्-ततः किमन्यत्ते उद्वगकारणम् । धरणेन भणितम्-आर्य ! न किञ्चिदाख्यात. व्यमिति । श्रेष्ठिना भणितम्-ततः किं विमना असि । धरणेन भणितम् -'ओम्' । श्रेष्ठिना भणितम् 'किमोम' । धरणेन भणितम्-'एतद्'। श्रेष्ठिना भणितम् -'किमेतद्' । धरणेन भणितम्-'न किञ्चित'। श्रेष्ठिना भणितम्-किमेतैः शून्यभाषितैः, आचक्ष्व सद्भावम् । न चाहमयोग्य आख्यातव्यस्य, प्रतिपन्नश्च त्वया गुरुः । ततो 'न युक्तं गुर्वाज्ञाखण्डनम्' इति चिन्तयित्वा जल्पितं धरणेन । आर्य ! 'आर्यस्याज्ञा' इति कृत्वा ईदृशमपि भाष्यते इति । श्रष्ठिना भणितम् --वत्स ! नास्त्यविषयो गुरुजनानुवृत्याः । धरणेन भणितम्-आर्य ! यद्येवं ततः कुशलं मे भार्याया जीवितेन, न पुनः शीलेन । श्रेष्ठिना भणितम् -कथं विजानासि । धरणेन भणितम्-कार्यतः । श्रेष्ठिना भणितम्-कथमिव । तत आख्यातस्तस्य भोजनादितो जलनिधितटपर्यवसानः सकलवृत्तान्तः । तच्च श्रुत्वा कुपितः टोप्प अधिकता के कारण उसकी आँखों से आंसू की धारा बहने लगी। तब 'निश्चित ही इसकी पत्नी मर गयी, नहीं तो इतना अधिक दुःखी क्यों होता'—ऐसा सोचकर टोप्पश्रेष्ठी ने कहा-वत्स ! वह जहाज वही था ? धरण ने कहा-हाँ । सेठ ने कहा-तुम्हारी पत्नी सकुशल है ? धरण ने कहा-आर्य कुशल है । सेठ ने कहा-तो दुःखी होने का और क्या कारण है ? धरण ने कहा - आर्य ! कुछ भी नहीं कहना चाहिए ! सेठ ने कहा- तो बेमन क्यों हो? धरण ने कहा-हाँ। सेठ ने कहा-क्या हाँ? धरण ने कहा-यही। सेठ ने कहा-- क्या यही? धरण ने कहा-कुछ भी नहीं । सेठ ने कहा- इस शून्य वाणी से क्या ? सही कहो। मुझसे न कहा जा सकता हो ऐसा भी नहीं ! तुमने मुझे बड़ा माना है। तब 'बड़ों की आज्ञा न मानना उचित नहीं' ऐसा सोचकर धरण ने कहाआर्य ! चूंकि आर्य की आज्ञा है अतः यह भी सुनाता हूँ । सेठ ने कहा-वत्स ! गुरुजनों से न कहने योग्य कुछ भी नहीं है। धरण ने कहा-आर्य ! यदि ऐसा है तो मेरी पत्नी प्राणों से तो सकुशल है, किन्तु शील से नहीं। सेठ ने कहा-कैसे जानते हो ? धरण ने कहा-कार्य से । सेठ ने कहा-कैसे ? तब भोजन से लेकर समुद्र के तट तक का समस्त वृत्तान्त सुनाया। उसे सुनकर टोप्पश्रेष्ठी सुवदन पर कुपित हुआ। धरण को बैठाकर राजा के पास Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो भवो ] ५१३ सुवणस्स । परिसंठविय धरणं गओ नरबइसमीवं । विन्नत्तो णेण सुवयणं पर जहट्ठियमेव नरवई । सद्दाविओ राहणा सुवणो, भणिओ य एसो - सत्थवाहपुत्त, पभूयं ते रित्थं सुणीयइ । ता फुडं जंपसु, हमे त वित्तति । तओ अजायासंकेण भणियं सुवयणेण देव, कुलक्क मागयं । राइणा भणियं - भारिया कहति । तेण भणियं - गुरुविइण्णा । तओ पुलइओ' टोप्पसेट्ठी । भणियं च णेण - देव, सod अलियं ति । सुवयजेण भणियं - किं पुण एत्थ सच्चयं । सेट्ठिणा भणियं -धरणसंतियं रित्यं भारिया य; एयं सच्चयं ति । तओ संबद्धहियएणं जंपियं सुवयणेण भो भो अउव्वजोइसिय, को एत्थ पच्चओ; रायकुलं खु एयं । टोप्पसेट्टिणा भणिय - साहारणं रायकुलं; पच्चओ पुण, सो चेव जीवइति । सुवणेण भणियं - महाराय, न मए धरणस्स नामं पि आर्याणियं ति । परिक्खउ देवो । राइणा भणिर्य - भो भो सेट्ठि, आणेहि धरणं, तुम पि तं महिलियं ति । पेसिया णेहि सह रायपुरिसेहि निययपुरिसा । आणिओ य हि हियएणाणिच्छमाणो वि सेट्टिउवरोह भावियचित्तो धरणो, इयहि य भयहित्य हिया' लच्छित्ति । पुलइयाई राइणा, भणियं च णेण - सुन्दरि, दिट्ठो तए एस श्रेष्ठ सुवदनस्य । परिसंस्थाप्य धरणं गतो नरपतिसमीपम । विज्ञप्तस्तेन सुवदनं प्रति यथास्थितमेव नरपतिः । शब्दायितो राज्ञा सुवदनः भणितश्चैषः - सार्थवाहपुत्र ! प्रभूतं ते रिक्थं श्रूयते, ततः स्फुटं जल्प, कथमेतत्त्वयोपार्जितमिति । ततोऽजाताशङ्केन भणितं सुवदनेन - देव कुलक्रमागतम् । राज्ञा भणितम् - भार्या कथमिति । तेन भणितम् - गुरुवितीर्णा । ततो दृष्टः टोप्पश्रेष्ठी । भणितं च तेनदेव ! सर्वमलीकमिति । सुवदनेन भणितम् - किं पुनरत्र सत्यम् । श्रेष्ठिना भणितम् - धरणसत्कं रिक्थं भार्या च एतत् सत्यमिति । ततः संक्षुब्धहृदयेन जल्पितं सुवदनेन - भो भो अपूर्वज्योतिषिक ! hts प्रत्ययः, राजकुलं खल्वेतत् । टोप्पश्रेष्ठिना भणितम् - साधारणं राजकुलम्, प्रत्ययः पुनः स एव 'जीवतीति । सुवदनेन भणितम् - महाराज ! न मया धरणस्य नामापि आकणितमिति । परीक्षतां दैवः । राज्ञा भणितम् - भो भोः श्रेष्ठिन् ! आनय धरणम्, त्वमपि तां महिलामिति । प्रेषिता आभ्यां सह राजपुरुषैनिजपुरुषाः । आनीतश्च तैर्हृदयेनानिच्छन्नपि श्रेष्ठ्य् परोधभावितचित्तो धरणः, इतरैश्च भयत्रस्तहृदया लक्ष्मीरिति । दृष्टौ राज्ञा । भणितं च तेन सुन्दरि ! दृष्टस्त्वया एष कुत्रापि 'स्वदन को गया। राजा से सुबदन के विषय में निवेदन किया। राजा ने बुलवाया और कहा -- "सार्थवाहपुत्र ! तुम्हारे पास प्रचुर सम्पत्ति है, अतः ठीक-ठीक कहो, तुमने इसे कैसे उपार्जित किया ?" तब कुछ भी शंका न करके सुवदन ने कहा---'" देव ! कुलक्रम से आयी हुई है ।" राजा ने कहा - "पत्नी कैसे आयी ?” उसने कहागुरुजनों ने दी ।" तब टोपश्रेष्ठी दिखाई दिया। उसने कहा - "देव ! सब झूठ है ।" सुवदन ने कहा – “सत्य क्या है ? ' सेठ ने कहा - "धरण की ( यह । समत्ति और भार्या है, यह सत्य है ।" तब क्षुभित हृदय से सुवदन ने कहा - "हे हे अपूर्व ज्योतिषी ! इस विषय में क्या प्रमाण है ? यह राजदरबार है ।" टोप्पश्रेष्ठी ने कहा- "दरबार तो सभी के लिए है, प्रमाण यह है कि वह अभी जोवित है ।" सुबदन ने कहा- "महाराज ! मैंने धरण का नाम भी नहीं सुना । देव ! परीक्षा कर लीजिए।" राजा ने कहा - "हे सेठ ! धरण को लाओ, तुम उस महिला को लाओ।" इन दोनों के साथ राज कर्मचारी भेजे गये । वे हृदय से न चाहते हुए भी सेठ के अनुरोध को माननेवाले धरण को लाये, दूसरी ओर भय से त्रस्त हृदयवाली लक्ष्मी को भी लाया गया । राजा ने देखा । उसने कहा - ' सुन्दरि ! तुमने कहीं पर इस न. १. पालोइयो, गुलोइयो- सच्चति । ३. 'देव' इत्यधिकः - ख । ४. भयभिन्नहिया - क । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ [समराइकहा कहिपि सत्थवाहपुत्तो। तीए भणियं-देव, न दिट्टो ति । तओ पुच्छिओ धरणो-सत्यवाहपुत्त, अवि एसा ते भारिया। धरणेण भणियं-देव, किमणेन पुच्छिएण; सुयं देव देवेणं, जं जंपियमिमीए। राहणा भणियं-सत्थवाहपत्त, अओ चेव पच्छामि। धरणेण भणियं-देश, जह एवं देवस्स अणबंधो ता आसि भारिया, न उण संपयं ति । राइणा भणियं - एसो सत्यवाहपुत्तो दिवो तए आसि धरणेण पणियं-देव, एसो चेव जाणइ ति । राइणा भणिओ सुवयणो-सत्यवाहपुत्त, किं दिट्ठो तुमए एस कहिपि । सुवयणेण भणिणं-देव, मए ताव एसो न दिट्ठो त्ति । राइणा भणियं-होउ, कि एइणा%B साहेह तुम्भे कि एत्थ रित्थमाणं। सुवयणेण भणियं- देव, एत्थ खल दससहस्साणि सोवण्णिगाण इट्ठासंगडाणं, अन्न पि थेवयं खु सुरित्तं भण्डं ति। पच्छिओ इयरो वि । धरणेण भणियं-देव, एवमेयं । राइणा भणियं-भो किपमाणा ख ते संपुडा। धरणेण भणियं-देव, न याणामि । राणा भणियं-कहं निययभण्डस्स वि पमाणं न याणासि । धरणेणं भणियं- देव, एवं चेव ते कया, जेण न जाणामि । तओ पुच्छिओ सुवयणो । भद्द, तुम साहेहि । तेण भणियं-देव, अहमवि निसंस्सयं न पार्थवाहपुत्रः । तया भणितम् -देव ! न दृष्ट इति। ततः पृष्टो धरणः । सार्थवाहपुत्र ! अप्येषा ते भार्या । धरणेन भणितम् -देव ! किमनेन पृष्टेन, श्रुतमेव देवेन यज्जल्पितमनया। राज्ञा भणितम्सार्थवाहपुत्र ! अत एव पृच्छामि। धरणेन भणितम् – देव ! यद्येवं देवस्यानुबन्धः, तत आसीद भार्या, न पुनः साम्प्रतमिति। राज्ञा भणितम् - एष सार्थवाहपुत्रो दृष्टस्त्वयाऽऽसीत् ? धरणेन भणितम् –देव ! एष एव जानातीति । राज्ञा भणितः सुवदनः - सार्थवाहपुत्र ! किं दृष्टस्त्वयष कुत्रापि । सुवदनेन भणितम् -- देव ! मया तावदेष न दृष्ट इति । राज्ञा भणितम् - भवतु, किमेतेन, कथयत युयम्, किमत्र रिक्थमानम् । सुवदनेन भणितम्-देव ! अत्र खलु दश सहस्राणि सौर्णिकानामिष्टासम्पुटानाम्, अन्यदपि स्तोकं खलु सुरिक्तं भाण्डमिति । पृष्ट इारोऽपि । धरणेन भणितम् --- देव ! एवमेतद् । राज्ञा भणितम् -- भोः किंप्रमाणाः खलु ते सम्पुटाः । धरणेन भणितम्- देव ! न जानामि। राज्ञा भणितम् -कथं निजभाण्डस्यापि प्रमाणं न जानाति धरणेन भणितम्-देव ! एवमेव ते कृताः, येन न जानामि । ततः पृष्ट: सुवदनः । भद्र ! त्वं कथय । तेन भणितम्-देव, सार्थवाहपुत्र को देखा है ?" उसने कहा - "देव ! मैंने नहीं देखा है।" तब धरण से पूछा -- "सार्थवाहपुत्र ! यह तुम्हारी पत्नी है ?" धरण ने कहा-“देव ! यह पूछने से क्या, इसने जो कहा वह आपने सुन ही लिया।" राजा ने कहा"सार्थवाहपुत्र ! इसीलिए पूछता हूँ।" धरण ने कहा -- "महाराज ! यदि ऐसा है तो यह (मेरी) पत्नी थी, अब नहीं है ।'' राजा ने पूछा-'इस सार्थवाहपुत्र को तुमने देखा था ?" धरण ने कहा- “महाराज ! यही जानता है।" राजा ने सुवदन से पूछा -"सार्थवाहपुत्र ! क्या तुमने इसे कहीं देखा है ?" सवद ने कहा-"महाराज ! मैंने इसे नहीं देखा।" राजा ने कहा - "अच्छ , इससे क्या, आप लोगों से कहता हूँ- सम्पने इस समय कितनी है?" सुवदन ने कहा - "देव ! सोने की दस हजार गोनाकार ईटें हैं। कुछ और भी सुन्दर चीजें हैं ।" दूसरे से भी पूछा। धरण ने कहा-"देव! ऐसा ही है।" राजा ने कहा -"तुम्हारा माल कितना है?" धरण ने कहा-"महाराज! नहीं जानता है।" राजा ने कहा - "क्या अपने माल का भी प्रमाण नहीं जानते हो?" धरगने कहा-"इसी प्रकार वे बनाये गये थे, जिसमे नहीं जानता हूँ।" तब सुवदन से पूछा--"भद्र ! तुम कहो।" उसने कहा - "देव ! मैं भी निःसन्देह नहीं .१ मए सो न दियो - क . रित्यरमाणं-क । ३. सिरिभंडं 'त- । ४, 'राइणा' इत्यधिक:- ५, याणामि-क। . Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कट्ठो भवो ] याणामि । राइगा भवं भो एवं ववथिए कि मएकायध्वं ति । धरणेण भणियं - देव, थेत्रमे ' कारणं, कि बहुगा जंगिए । अनि अहं एक्स्प; ता विषहर रित्यं भारियं च एतो त्ति । सुवयणेण भणियं - भो महापूरिस ! एवं पि भवओ पहूयमेव जं मे आलो न दिन्नोति । धरणेण भणियं - सिद्धो अहं आलदायगो । सुवयगेण भणियं - जइ न आलदायगो, ता किमेयं पत्थुयं ति । टोप्प सेट्ठिणा भणियं - अरे रे निल्लज्ज पावकम्म, एवं पि ववह रिडं एवं जंपसि त्ति । पुणो वि अमरिसाइस एण मणियं टोप्पसेट्टिणा महाराय कि बहुणा जंपिएग। जइ एयं न धरणसंतियं रित्थं एसा य' भारिया, तामसव्वतसहिया' पागा नियरणं ति । आगावेउ देवो सयले दिव्वे ति । धरणेणं चिन्तियंअवहरिओ खु एसो मह सिणेहानुबंधेण; ता न जुत्तं संपयं वि उदासीणयं काउं ति । जंपियमणेण - देव, इ एत्थ अणुबंध तायस्स, ता अलं दिव्वेहि; अन्नो वि एत्थ उवाओ अस्थि चेव । राइणा भणियं - कहेहि, कोइसो उवाओ त्ति । धरणेण भणियं-देव, ते मए संपुडा सनामेणं चेव अंकियति । राइणा भणियं - किं तुझ नामं । धरणेण भगियं-देव, धरणो ति । इयरो वि पुच्छिओ । तेण भणियं - देव, अहमपि निःसंशयं न जानानि । राज्ञा भणितम् - भो एवं व्यवस्थिते किं मया कर्तव्यमिति । धरणेन भणितम् - स्तोकमेतत् कारणम्, किंबहुना जल्पितेन । अविवादकोऽहमेतस्य ततो गृह्णातु रिक्थं भार्यां चैष इति । सुवदनेन भगतम् - भो महापुरुष ! एतदपि भवतः प्रभूतमेव, यन्मे आलो न दत्त इति । धरगेत भणितम् - प्रसिद्धोऽमालदायकः । सुवदनेन भणितम् - यदि नालदायकस्ततः किमेतत्प्रस्तुतमिति । टोप्पो ना भणितम् - अरेरे निर्लज्ज पापकर्मन् ! एवमपि व्यवहृत्य एवं जल्पसीति । पुनरपि अमर्षातिशयेन भणितं टोप्पश्रेष्ठिना - महाराज ! किं बहुना जल्पितेन, यद्येतन्न धरण-सत्कं रिक्थमेषा च भार्या ततो मन सर्वस्वसहिताः प्राणा निकरणमिति । आज्ञापयतु देवः सकलान् दिव्यानिति । धरणेन चिन्तितम् - अपहृतः खलु एष मम स्नेहानुबन्धेन, ततो न युक्तं साम्प्रत उदासीनतां कर्तुमिति । जल्पितमनेन -देव ! यद्यत्रानुबन्धस्तातस्य ततोऽलं दिव्यैः, अन्योऽप्यत्र उपायोऽस्त्येव । राज्ञा भणितम् - कथय, कीदृश उपाय इति । धरणेन भणितम् - देव ! ते मया सम्पुटाः स्वनाम्वाङ्किता इति । राज्ञा भणितम् - किं तव नाम । धरणेन भणितम् - देव ! धरण इति । ५१५ जानता हूँ ।" राजा ने कहा - "अरे, ऐसी स्थिति में मुझे क्या करना चाहिए ?" धरण ने कहा - "यह छोटा-सा कारण है, अधिक कहने से क्या, मेरा इसके साथ में विवाद नहीं है, अतः यह पत्नी को और धन को ग्रहण करे ।" सुबदन ने कहा - "हे महापुरुष ! यह आपकी ही प्रभुता है जो मेरा भाड़ा नहीं दिया ।" धरण ने कहा- " मैं भाड़ा देनेवाला प्रसिद्ध हूँ ।" सुवदन ने कहा- " भाड़ा देनेवाले आप नहीं हैं इसलिए ये सब काण्ड आपने किया ।" टोप्पश्रेष्ठी ने कहा - "अरे रे ! निर्लज्ज, पापकर्मी ! ऐसा कार्य कर इस प्रकार कहता है ?" पुनः क्रोध की अधिकता से टोप्पश्रेष्ठी ने कहा - "महाराज ! अधिक कहने से क्या, यदि यह पत्नी और धन धरण का न तो मेरा सब कुछ छीनकर प्राणदण्ड दिया जाय । महाराज सभी शपथों की आज्ञा दें ।" धरण ने सोचा- मेरे स्नेह से यह हरा गया है । अतः इस समय उदासीनता करना अच्छा नहीं है । इसने कहा - "देव ! यदि तात की आज्ञा है तो बे शपथें व्यर्थ हैं । दूसरा भी यहाँ उपाय है ही ।" राजा बोला - " कहो, कैसा उपाय ?" धरण ने कहा- उन सभी सम्पुटों (गोलों) पर मैंने नाम लिखा है ।" राजाने पूछा - "तुम्हारा नाम क्या है ?” उसने उत्तर दिया- "महाराज ! १. देवमियं - ग । २. नेत्थिया - क । ३. सहियस्स - ख । . Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ [समराइच्चकहा सुवयणो ति । राइगा भणियं-जइ एवं, तो छिन्नो खु ववहारो; नवरं आणेह एत्थेव कइचि संपुडे त्ति। तओ' पेसियं पंचउलं, आणिया संपुडा, निहालिया राइणा बाहिं, न दि8 धरणनामयं । भणियं च णेण-भो नत्थि एत्थ धरगनामयं । सुवयण भणियं-देवो पमाणं ति। अन्नं च देव, देवस्स पुरओ एस' महंतं पि अलियं जंपिऊण अज्ज वि पाणे धारेइ ति। जाणियं देवेण, जं एएण पमाणीकयं । राइणा भणियं - भो धरण, किमेयं ति। धरणेण भणियं-देव, न अन्नहा एवं; फोडाविऊण मज्झं निरूवेउ देवो । तओ एयमायण्णिऊण संखुद्धो सुवयणो, हरिसिओ टोप्पसेट्टी। सद्दाविया सुवण्णयारा, फोडाविया संपुडा, दिटुं धरगनामयं । कुविओ राया सुवयणस्स लच्छीए य । भणियं च णेणं-हरे वावाएह एवं वागियगवेसधारिणं महाभुयंगं, निव्वासेह य एयं मम रज्जाओ विवन्नसीलजीवियं अलच्छि, समप्पेह य समत्थमेव रित्थं धरणसत्थवाहस्स । अन्नं च भण, भो महापुरिस किं ते अवरं कीरउ। धरगेग भगियं -देव, अलं मे रित्थेग । करेउ देवो पसायं सुवयणस्स अभयप्पयाणेणं । तओ 'अहो से महाणभावय' ति चितिऊण भणियं राइणा-सत्थवाहपुत्त, न जुतमेयं, तहावि इतरोऽपि पृष्टः । तेन भणितम्-देव ! सुवदन इति । राज्ञा भणितम--यद्येवं ततश्छिन्नः खलु व्यवहारः, नवरमानयतात्रैव कत्यपि सम्पुटानिति । ततः प्रेषितं पञ्चकुलम्, आनीता: सम्पुटाः । निभालिता राज्ञा बहिः, न दृष्टं धरणनाम । भणितं च तेन-भो ! नास्त्यत्र धरणनाम । सुवदनेन भणितम् -देवः प्रमाणमिति । अन्यच्च देव ! देवस्य पुरत एष महदपि अलीकं जल्पित्वा अद्यापि प्राणान् धारयतीति । ज्ञातं देवेन, यदेतेन प्रमाणीकृतम् । राज्ञा भणितम्-भो धरण ! किमेतदिति । धरणेन भणितं -देव ! नान्यथा एतद्, स्फोटयित्वा मध्यं निरूपयतु देवः । तत एतदाकण्य संक्षुब्धः सुवदनः, हृष्ट: टोप्पश्रेष्ठी । शब्दायिताः सुवर्णकाराः । स्फोटिताः सम्पुटा: । दृष्टं धरणनाम । कुपितो राजा सुवदनस्य लक्ष्म्याश्च । भणितं च तेन - अरे व्यापादयतैतं वाणिजकवेषधारिणं महाभुजंगम, निर्वासयत चैतां मम राज्याद् विपन्नशीलजीवितामलक्ष्मीम, समर्पयत समस्तमेव रिक्थं धरणसार्थवाहस्य । अन्यच्च, भग भो महापुरुष ! किं तेऽपरं क्रियताम् । धरणेन भणितम्-अलं मे रिक्थेन । करोतु देवः प्रसाद सुवदनस्या भयप्रदानेन । ततः 'अहो तस्य महानुभावता' इति चिन्तयित्वा भणितं मेरा नाम धरण है।" दूसरे से भी पूछा । उसने कहा – “महाराज, सुबदन ।” राजा ने कहा- “यदि ऐसा है तो मुकद्दमा निपट गया। कुछ गोलों को यहाँ ले आओ।" तब पंचजनों को भेजा, सम्पुटों (गोलों) को लाये । राजा ने उनको बाहर देखा, उन पर धरण नाम दिखाई नहीं दिया। उसने कहा-'अरे, इन पर धरण माम नहीं है।" सुवदन ने कहा-"महाराज प्रमाण हैं । दूसरी बात यह है महाराज ! महाराज के सामने यह बहुत बड़ा झूठ बोलकर भी प्राणों को धारण कर रहा है। देव ने जान ही लिया. जो इसने प्रमाण बतलाया।" राजा ने कहा"हे धरण ! यह क्या ?" धरण ने कहा "देव ! यह बात झूठी नहीं है । तोड़कर महाराज अन्दर देखिए।" इसे सुनकर सुवदन क्षुब्ध हुआ, टोप्पश्रेष्ठी प्रसन्न हुआ । सुनारों को बुलाया गया। गोलों को तोड़ा गया। धरण नाम दिखाई पड़ा। राजा सुवदन और लक्ष्मी पर कुपित हुआ। उसने कहा--अरे इस वणिक् वेषधारी चोर को मार डालो, इस अलक्ष्मी को मेरे राज्य से बाहर निकाल दो जो कि शीलभ्रष्ट होकर जी रही है। सारा धन धरण व्यापारी को समर्पित कर दो। दूसरी बात, हे महापुरुष ! कहो, तुम्हारा क्या किया जाय ?" धरण ने कहा- "मुझे सम्पत्ति नहीं चाहिए। महाराज सुवदन को अभयदान देकर कृपा करें।" 'तब इसकी महानुभावता आश्चर्यजनक है', ऐसा सोचकर १. तो पेसिऊण पंचउलं आणिया- । २. एह हमेतं पि-क । ३. धरे ति- । ४. उवलद्धं-क । ५. करीयउ-ख। . Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो भवो ] ५१७ अलंधणीयवयणो तुमं ति; ता तुमं चेव जाणसि । धरणेण भणियं-देवपसाओ त्ति, अणुग्गिहीओ अहं देवेण । राइणा भणियं---भो सत्थवाहपुत्त, गेण्हा हि विययरित्थं । धरणेण भणियं --जं देवो आणवेइ। तो नरिंदपंचउलाहिडिओ सह सुवयणेणं गओ वेलाउलं धरणो, उवगणियं सुवणयं पंचउलेण, समप्पियं धरणस्स। तओ धरणेण भणियं-भो सुक्यण ! परिच्चय विसायं, अंगोकरेहि पोरुसं, देव्योवरोहेग कर स वा खलियं न जायइ ति। अन्नं च, भणिो मए तुज्झ सुवण्णलक्खो, तए पुण महाणुभावत्तणेण अहमेव बहुमन्निओ, न उण सुवण्णलखो। भणियं च तए आसि 'कि सुवण्णलक्खेण, तुम चेव मे बहुमओ' त्ति । अणग्धेयं च एवं संभमवयणं । ता गेण्हाहि संपयं, जं ते पडिहायइ । एवं च भणिओ समाणो लज्जिओ सुवयणो। न जंपियं च ण । तओ दाऊण अट्ट सुवण्णलक्खे संपूइऊण नरवई तओ काउं सयलसुत्थं भंडस्स गओ टोप्पसेटिगेहं । ठिओ कंचि वेलं सह सेट्टिणा। उवगयाए' भोयणवेलाए कयमज्जणा पभुत्ता एए । भुत्तुत्तरकाले य चलणेसु निवडिऊण भणिओ धरणेण टोप्पसेट्ठी-जाएमि अहं किंचि वत्थं तायं, जइ न करेइ मम पणयभंग ताओ। तओ हरिसवसुप्फुल्ललोयराज्ञा । सार्थवाहपुत्र ! न युक्तमेतद्, तथाऽप्यलङ्घनीयवचनस्त्वमिति, ततस्त्वमेव जानासि । धरणेन भणितम् - देवप्रसाद इति, अनुगृहीतोऽहं देवेन। राज्ञा भणितम्-भोः सार्थवाहपुत्र ! गृहाण निजरिक्थम् । धरणेन भणितम्- यद्देव आज्ञापयति । ततो नरेन्द्रपञ्चकुलाधिष्ठितः सह सुवदनेन गतो वेलाकूलं धरणः, उपगणितं सुवर्ण पञ्चकुलेन, समर्पितं धरणस्य । ततो धरणेन भणितम्-भोः सुवदन ! परित्यज विषादम्, अङ्गीकुरु पौरुषम्, दैवोपरोधेन कस्य वा स्खलितं न जायते इति । अन्यच्च भणितो मया तव सुवर्णलक्षम्, त्वया पुनर्महानुभावत्वेनाहमेव बहु मतः, न पुनः सुवर्णलक्षम्। भणितं च त्वयाऽऽसीत 'किं सवर्णलक्षेण, त्वमेव मे बहमत इति । अनर्घ्य चैतत सम्भ्रमवचनम । ततो गृहाण साम्प्रतं यत्ते प्रतिभाति । एवं च भणितः सन लज्जितः सुवदनः । न जल्पितं च तेन । ततो दत्वा अष्टसुवर्णलक्षान् सम्पूज्य नरपति ततः कृत्वा सकलसुस्थं भाण्डस्य गतः टोप्पश्रेष्ठिगेहम् । स्थित: काञ्चिद् वेलां सह श्रेष्ठिना । उपगतायां च भोजनवेलायां कृतमज्जनौ प्रभुक्तावेतौ । भुक्तोत्तरकाले च चरणयोनिपत्य भणितो धरणेन टोप्पश्रेष्ठी। याचेऽहं किञ्चिद् वस्तु तातम्, यदि राजा ने कहा - "सार्थवाहपुत्र ! गह उचित नहीं है, तथापि तुम्हारे वचन उल्लंघन करने योग्य नहीं हैं । अतः आप ही जानें।" धरण ने कहा-"यही कृपा है कि मैं महाराज के द्वारा अनुगृहीत हुआ।" राजा ने कहा - "हे सार्थवाहपुत्र ! अपने धन को ले लो।" धरण ने कहा – “जो देव आज्ञा दें।" तब राजा के पंचजनों से अधिष्ठित होकर सुवदन के साथ घरण समुद्री किनारे पर गया। पंचों से सोना गिनवाया। धरण को सौंप दिया । तब धरण ने कहा- "हे सुवदन ! विवाद छोड़ो, पौरुष अंगीकार करो। भाग्यवश कौन स्खलित नहीं होता ! मैंने तुमसे एक लाख सोना कहा था। तुमने महानुभावता के कारण मुझे ही बहुत माना, एक लाख स्वर्ण को नहीं। तुमने कहा था-एक लाख स्वर्ण से क्या, तुमही मेरे लिए बहुत हो। यह सम्मानित वचन बहमुल्य हैं । अतः जो तुम्हें उचित लगे, उसे ले लो।" इस प्रकार कहने पर सुवदन लज्जित हुआ । उसने कुछ भी नहीं कहा। तब आठ लाख स्वर्ण देकर, राजा की पूजा कर माल को भलीभाँति रखकर टोप्पश्रेष्ठी के घर गया। सेठ के साथ कुछ समय बैठा। भोजन का समय आने पर दोनों ने स्नान और भोजन किया। भोजन के बाद परों में गिरकर टोप्पश्रेष्ठी से धरण ने कहा- "यदि आप मेरी प्रार्थना अस्वीकार न करें तो मैं कुछ वस्तु मांगता हूं।" तब हर्ष से विकसित नेत्रों वाला होकर-अहो ! मैं १. बहुगो-ग। २. आगयाए-क । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चकहा 'अहो अहं कयत्थो, अहो अहं धन्नो, अहो मम सुजोबियं, अहो मम सुलद्धो जम्मो त्ति, जओ सेवि महाणुभावेण सयलसत्तकप्पतरुकप्पेण तिहुयणचतामणीभूएण वि अहं पत्थिज्जाभि त्ति चितिऊण भणियं टोप्पसेट्ठिणा-वच्छ, जइ वि सकलत्तं सपुत्तपरियणं दासत्तनिमित्तं ममं जाएसि, तहावि अहं तु महापुरिसचेट्ठिएण आकरिसियश्चित्तो न खंडेमि ते पत्थणापणयं । धरणेण भणियंताय, जइ एवं ता देहि तिन्नि वायाओ । ईसि विहसिऊण 'जाय, जो एवं वायं लोप्पइ, सो तिन्नि वि लोप्पयंतो कि केणावि धरिडं पारीयइ' त्ति भणिऊण टोप्पसेट्टिणा कयाओ तिन्नि वायाओ । 'ताय, अणुहीओ' त्ति भणिऊण हेमकुंडल विज्जाहर विदिन्नमहग्धेय पुव्वसमप्पियरयणसहस्सं मग्गिओ टोप्पसेट्टिभंडारिओ । तेण वि य 'जं अज्जो आणवेइ' त्ति भणिऊण समप्पियाइं गहिऊण रयणाई । तओ ताण मज्झे अद्धं गहेऊन टोप्पसेट्ठिस्स चलणपूयं काऊण' पुणो वि णिवडिओ पाएसु 'ताय, एसा सा पत्थण' ति भणमाणो धरणो । तओ 'अह कहं छलिओ अहमणेणं' ति सुइरं चितिऊण 'अगहिए' य faraatrates एसो, निवारिओ' अहं इमिणा अणागयं चेव' उट्ठविओ धरणो 'वच्छ, पडिवन्ना ते न करोति मम प्रणयभङ्गं तातः । ततो हर्षवशोत्फुल्ललोचनेन 'अहो अहं कृतार्थः, अहो अहं धन्यः, अहो मम सुजीवितम्, अहो मम सुलब्धं जन्मेति, यत ईदृशेणापि महानुभावेन सकलसत्त्वकल्पतरुकल्पेन त्रिभुवनचिन्तामणीभूतेनापि अहं प्रार्थ्यो' इति चिन्तयित्वा भणितं टोप्पश्रेष्ठिना वत्स ! यद्यपि सकलतं सपुत्रपरिजनं दासत्वनिमित्तं मां याचसे तथाप्यहं तव महापुरुषचेष्टितेनाकृष्टचित्तो न खण्डयामि ते प्रार्थनाप्रणयम् । धरणेन भणितम् - तात ! यद्येवं - ततो देहि तिस्रो वाचः । ईषद् विहस्य 'जात ! य एकां वाचं लुप्यति स तिस्रोऽपि लुप्यन् किं केनापि धतु पार्यते' इति भणित्वा टोप्पश्रेष्ठिना कृतास्तिस्रो वाचः । ' तात ! अनुगृहीतः' इति भणित्वा हेमकुण्डलविद्याधरवितीर्णमहपूर्व समर्पित रत्नसहस्रं मार्गितः टोप्पश्रेष्ठिभाण्डागारिकः । तेनापि च ' यद् आर्य आज्ञापयति' इति भणित्वा समर्पितानि गृहीत्वा रत्नानि । ततस्तेषां मध्ये अर्धं गृहीत्वा टोप्पश्रेष्ठिनश्चरणपूजां कृत्वा पुनरपि निपतितः पादयो 'तात ! एषा सा प्रार्थना' इति भणन् धरणः । ततोऽथ 'कथं छलितोऽहमने ' इति सुचिरं चिन्तयित्वा 'अगृहीते च विलक्षीभविष्यति एषः, निवारितोऽहमनेन कृतार्थ हो गया, मैं धन्य हो गया, मेरा जीना सार्थक हो गया, मेरा जन्म सफल हो गया जो कि समस्त प्राणियों में कल्पवृक्ष, तीनों लोकों में चिन्तामणिरत्न के तुल्य यह महानुभाव भी मुझसे याचना कर रहा है। ऐसा सोचकर टोप्पश्रेष्ठी ने कहा - " वत्स ! यदि तुम पुत्र और पत्नी सहित मुझे दास के रूप में माँगो तो भी आप जैसे महापुरुष के प्रति आकृष्ट चित्तवाला तुम्हारी प्रार्थना का खण्डन नहीं करूँगा ।" धरण ने कहा - " तात ! यदि ऐसा है तो तीन वचन दो ।" कुछ हँसकर 'पुत्र ! जो एक बात को छिपाता है, वह तीन को भी छिपा सकता है, उसे कौन रोक सकता है—ऐसा कहकर टोप्पश्रेष्ठी ने तीन वचनों का वायदा किया । 'तात ! अनुगृहीत हो गया' - ऐसा कहकर हेमकुण्डल विद्याधर के द्वारा दिये गये बहुमूल्य, पहले समर्पित किये गये रत्नों को टोप्पश्रेष्ठी ५१८ भण्डारी से मंगवाया। उसने भी- 'जो आर्य आज्ञा दें' - ऐसा कहकर रत्नों को लाकर समर्पित कर दिया । तब उनमें से आधे लेकर टोप्पश्रेष्ठी के चरणों की पूजा कर पुनः चरणों में पड़ गया - ' तात ! यही वह प्रार्थना है' ऐसा धरण ने कहा । तब 'क्या इसने मुझे छल लिया ? ऐसा बहुत देर सोचकर 'यदि मैं ग्रहण नहीं करूंगा तो यह खिन्न होगा, इसने आगे ही मुझे रोक दिया !' धरण को उठाया - ' वत्स ! तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार है, १. करेऊण क । २. अगहीएहि - क । ३. नियाइओक । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो भवो] ५१६ पत्थणा' भणमाणेण टोप्पसेटिणा । तओ बहुमन्निओ सेटिणा मया सत्थेण समागओ निययनर्यारं । आवासिओ बाहिं । जाओ लोयवाओ, जहा आगओ धरणो ति। निग्गओ राया पच्चोणि। पवेसिओ ण महाविभूईए । नेऊण निययभवणं, पूइओ मज्जणाइणा नियाभरणपज्जवसाणमुवयारप्पयाणेणं । गओ निययभवणं । तुट्ठा य से जणिजगया। विइण्णं महादाणं, कया सव्वाययणेसु पया। अइक्कंता काइ वेला। तओ उवणिमंतिय' महारायं पूइओ अणेण सविसेसं। सम्माणिया य जहारहपडिवत्तीए पउरचाउवेज्जाइया, पडिपूइओ य तेहिं । तओ पुच्छिओ जणणिजणएहि-वच्छ, अवि कहिं ते घरिणि त्ति ।धरणेण भणियं-अलं तीए कहाए । चितियं च णेहिं । हंत कयं तीए, जं इत्थिउचियं । ता अलं इमस्स मम्मघट्टणेण इमिणा जंपिएणं । अन्नओ अवगच्छिसं ति । एत्थंतरम्मि महापरिसयाखित्तहियओ विम्हयवसेणुप्फुल्ललोयणो कवमुइंगसासणावणनिमित्तं पुणो वि धरणसमीवं समागओ राया। कओ धरणेण समुचिओवयारो। पुच्छिओ य आगमणपोयणं । सिट्टो से निययाहिप्पाओ राइणा । तओ चलणेसु अनागतमेव' उत्थापितो धरणी 'वत्स ! प्रतिपन्ना ते प्रार्थना' भणता टोप्पश्रेष्ठिना। ततो बहुमानितः श्रेष्ठिना महता सार्थेन समागतो निजनगरीम् । आवासितो बहिः । जातो लोकवादः, यथा आगतो धरण इति । निर्गतो राजा (पच्चोणी दे.) सन्मुखम् । प्रवेशितस्तेन महाविभूत्या, नीत्वा निजभवनं पूजितो मज्जनादिना निजाभरणपर्यवसानोपचार-प्रदानेन । गतो निजभवनम् । तुष्टौ च तस्य जननीजनको। वितीर्णं महादानम् । कृता सर्वायतनेषु पूजा । अतिक्रान्ता कापि वेला। तत उपनिमन्त्र्य महाराजं पूजितोऽनेन सविशेषम् । सन्मानिताश्च यथार्हप्रतिपत्त्या पौरचातुविद्यादयः, प्रतिपूजितश्च तैः । ततः पृष्टो जननीजनकाभ्याम्-वत्स ! अपि कुत्र ते गृहिणीति । धरणेन भणितम् - अलं तस्याः कथया। चिन्तितं ताभ्याम्- हन्त कृतं तया यत् स्त्र्युचितम् । ततोऽलमस्य मर्मघट्टनेनानेन जल्पितेन । अन्यतोऽवगमिष्याव इति । अत्रान्तरे महापुरुषताक्षिप्तहृदयो विस्मयवशेनोत्फुल्ललोचनः कृतमुद्राङ्कशासनार्पणनिमित्तं पुनरपि धरणसमीपं समागतो राजा । कृतो धरणेन समुचितोपचारः। पृष्टश्चागमनप्रयोजनम् । शिष्टस्तस्य निजाभिप्रायो टोप्पश्रेष्ठी ने कहा। तब श्रेष्ठी के द्वारा सम्मान पाकर सार्थ के साथ अपनी नगरी को आया। बाहर डेरा डाला। लोगों में यह बात फैल गयो कि धरण आ गया है। राजा सन्मुख आया । उसे बड़े ठाठबाट से प्रवेश कराया, अपने भवन में ले जाकर अभिषेक तथा अपने आभूषण प्रदान आदि सेवा के द्वारा इसका सत्कार किया । (धरण) अपने भवन को गया। माता-पिता सन्तुष्ट हुए। बहुत दान दिया । सभी मन्दिरों में पूजा की। कुछ समय बीत गया। तब इसने महाराज को निमन्त्रित कर उनको विशेषरूप से पूजा । नगर के विद्वानों का सम्मान किया । तब माता-पिता ने पूछा- "बेटे, तुम्हारी गृहिणी कहाँ है ?" धरण ने कहा-"उसकी कथा मत पूछो।" उन दोनों ने सोचा-हाय ! उसने वही किया, जो कि स्त्रियों के योग्य है, अतः पूछकर घाव को नहीं कुरेदना चाहिए। दूसरे लोगों से प्राप्त हो जायेगी। इसी बीच महापुरुषत्व से जिसका हृदय ओतप्रोत था, विस्मय के कारण जिसके नेत्र विकसित थे, ऐसा राजा राज्य की ओर से प्रशस्तिपत्र भेंट करने के लिए धरण के समीप आया। धरण ने समूचित सत्कार किया। आने का प्रयोजन पूछा । राजा ने अपना अभिप्राय बतलाया। तब चरणों में पड़कर धरण ने कहा-"महाराज ! १. उवणिम तियो महाराया-क। २. विजाइया-छ । ३, कहउइंगसेमेणावइनिमित्त-क। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० [समराइच्चकहाँ निवडिऊण भणियं धरणेण-देव, अलं महंगेहि; कि तु 'माणणीओ देवो' ति करिय पत्थेमि पत्थजोयं । राइणा भणियं-भणाउ अज्जो। तेण भणियं-पयच्छउ देवो नियरज्जे सव्वसत्ताणं बंदिमोक्खणं' सव्वसत्ताणमभयप्पयाणं च। तओ अहो से महाणभावया, अहो महापरिसचेट्ठियं सत्थवाहपुत्तस्स' त्ति भणिऊण आणतो पडिहारो। हरे कारवेहि चारयघंटपओएण मम रज्जे संपलबंदिमोक्खं, सव्वसत्ताणमभयपयाणं च दवावेहि ति। तओ जं देवो आणवेइ' त्ति भणिऊण संपाडियं देवसासणं । सप्पुरिसचेद्विएण य परितुट्ठा से जणणिजणया। परिओसवियसियछेहि कयमणेहिं राइणो उचियं करणिज्जं । तओ धरणेण सह कंचि वेलं गमेऊण निग्गओ राया। धरणो वि चिरयाल मिलियवयंसयसमेओ गओ मलयसुंदराभिहाणं उज्ाणं। उवलद्धो य नागलयामंडवम्मि कोलानिमित्तमागओ कुवियं पियपणइणि पसायंतो रेविलगो नाम कुलउत्तगो सुमरियं लच्छोए। चितियं च णेणं । अहो गु खलु एवमपरमत्थपेच्छीणि कामिजगहिययाइं हवंति । समागओ संवेगं । गओ य उज्जाणेक्कदेससंठियं असोयवीहियं ।। राज्ञा । ततश्चरणयोनिपत्य भणितं धरणेन -देव ! अलं मुद्राङ्कः, 'किन्तु माननीयो देवः' इति कृत्वा प्रार्थये प्रार्थनीयम् । राज्ञा भणितम्--भणत्वार्यः । तेत भणितम् -प्रयच्छतु देवो निजराज्ये सर्वसत्त्वानां बन्दिमोक्षणं सर्वसत्त्वानामभयप्रदानं च। ततः 'अहो तस्य महानुभावता, अहो महापुरुषचेष्टितं सार्थवाहपुत्रस्य' इति भणित्वा आज्ञप्तः प्रतीहारः। अरे कारय चारक घण्टाप्रयोगेण मम राज्ये सकलबन्दिमोक्षम्, सर्वसत्त्वानामभयप्रदानं च दापयेति। ततो 'यद देव आज्ञापयति' इति भणित्वा सम्पादितं देवशासनम् । सत्पुरुषचेष्टितेन च परितुष्टौ तस्य जननीजनको। परितोषविकसिताक्षाभ्यां कृतमाभ्यां राज्ञ उचितं करणीयम् । ततो धरणेन सह काञ्चिद् वेलां गमयित्वा निर्गतो राजा। धरणोऽपि चिरकालमिलितवयस्यसमेतो गतो मलयसुन्दराभिधानमुद्यानम् । उपलब्धश्च नागलतामण्डपे क्रीडानिमित्तमागतः कुपितां प्रियप्रणयिनी प्रसादयन् रेविलको नाम कुलपुत्रकः । स्मृत लक्ष्म्याः । चिन्तितं च तेन-अहो नु खल्वेवमपरमार्थप्रेक्षीणि कामिजनहृदयानि भवन्ति । समागतः सवेगम । गतश्च उद्यान कदेशसंस्थितामशोकवीथिकाम् । प्रशस्तिपत्र रहने दीजिए, किन्तु महाराज माननीय हैं, अतः एक प्रार्थना करता हूँ।" राजा ने कहा-"आर्य कहें।" उसने कहा-"महाराज ! प्रशस्तिपत्र रहने दीजिए, किन्तु महाराज माननीय हैं, अतः एक प्रार्थना करता हैं।" राजा ने कहा-"आर्य कहें ! उसने कहा-महाराज! अपने राज्य के समस्त बन्दियों को मुक्ति और समस्त जीवों को अभयप्रदान करने की आज्ञा दें।" तब 'इसकी महानुभावता आश्चर्यजनक है, सार्थवाहपुत्र की महापुरुष के सदश चेष्टा आश्चर्ययुक्त है'---ऐसा कहकर द्वारपाल को आज्ञा दो-"अरे, जेल का घण्टा बजवाकर मेरे राज्य के समस्त बन्दियों को मुक्त कराया जाय तथा समस्त प्राणियों को अभयदान दिलाया जाय ।" तब 'जो महाराज आज्ञा दें' -कहकर महाराज की आज्ञा सम्पादित हुई। सत्पुरुष के अनुरूप क्रिया करने के कारण माता-पिता सन्तुष्ट हुए। सन्तोष से विकसित नेत्रोंवाले इन दोनों ने राजा के योग्य कार्य किया। तब धरण के साथ कुछ समय बिताकर राजा चला गया। धरण भी बहत दिनों बाद मिले हए मित्रों के साथ मलयसुन्दर नाम के उद्यान में गया। नागलतामण्डप में क्रीड़ा के निमित्त आया हआ रावलक नामक कूलपूत्र मिला, जो कि अपनी कूपित प्रेमिका को मना रहा था। लक्ष्मी की स्मात हा आयी। उसने सोचा - अहो! कामिजनों के हृदय इस तरह परमार्थ को न जानने वाले होते हैं । कुछ मन में उदासीनता आयी और वह उद्यान के एक भाग में स्थित अशोक श्रेणी में चला गया । १. बंधण मोक्खं । २. दम्बावेहि त्ति इत्यधिक:-क। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठी भवो ] १. सरिसं । दिट्ठो य णेण तहियं फासूप्रदेसम्म वियलियवियारो । सोसगण संपरिवुडो आयरिओ अरहदत्तो त्ति ॥ ५४१ ॥ अच्चतसुद्धचित्तो नाणी विविहतवसोसियसरीरो । निज्जियमयणो वि दढं अगंगसुहसिद्धितलिच्छो ॥ ५४२ ॥ तं पेच्छिऊण चिंता जाया धरणस्स एस लोयम्मि । जीवs सफलं एक्को चत्तो जेणं घरावासो ।। ५४३ ॥ धरिणी अत्यो सयणो माया य पिया य जीवलोयम्मि । माइंदजालसरिसा तहवि जणो पावमायरइ ॥ ५४४ ॥ जा वि उवयारबुद्धी घरिणीपमुहेसु सा वि मोहफलं । मोत्तूण जओ धम्मं न मरणधम्मीणमवयारो ।। ५४५ ।। सो पुण संपाडेउं न तीरए आसवानियतेहि । सर्वाणवित्तो वि य विहासमं आवसंतेहि ॥ ५४६ ॥ दृष्टश्च तेन तत्र प्रासुकदेशे विगलितविकारः । शिष्यगणसम्परिवृत आचार्यो द्दत्त इति ।। ५४१ ।। अत्यन्तशुद्धचित्तो ज्ञानी विविधतपः शोषितशरीरः । निर्जितमदनोऽपि दृढमनङ्गसुखसिद्धितत्परः ।। ५४२ ।। तं प्रेक्ष्य विन्ता जाता धरणस्यैष लोके । जीवति सफल मेकस्त्यक्तो येन गृहावासः ।। ५४३ ।। गृहिणी अर्थ: स्वजनो माता च पिता च जीवलोके । मायेन्द्रजालसदृशास्तथापि जनः पापमाचरति ।। ५४४ ॥ याऽपि उपकार बुद्धिः गृहिणीप्रमुखेषु सापि मोहफलम् । मुक्त्वा यतो धर्मं न मरणधर्माणामुपकारः ।। ५४५ ।। स पुनः सम्पादयितुं न शक्यते आस्रवानिवृत्तः । आस्रवविनिवृत्तिरपि च गृहाश्रममावसद्भिः ।। ५४६ ॥ उसने उस निर्मल स्थान पर विकारों से रहित, शिष्यगणों से घिरे हुए अर्हद्दत्त नामक आचार्य को देखा । वे अत्यन्त शुद्धचित्त, ज्ञानी थे, अनेक प्रकार के तपों से उनकी देह कृश हो गयी थी, काम को जीत लेने पर भी वे अतीन्द्रिय सुख की सिद्धि में सुदृढ़ रूप से तत्पर थे। उन्हें देखकर धरण ने विचार किया इस संसार में एक व्यक्ति का जीना सफल है, जिसने गृहस्थी को त्याग दिया है । गृहिणी, धन, स्वजन, माता-पिता इस संसार में माया रूप इन्द्रजाल के सदृश हैं, फिर भी मनुष्य पाप का आचरण करता है । गृहणी आदि प्रमुख व्यक्तियों के प्रति जो उपकार की बुद्धि होती हैं वह भी मोह का फल है। धर्म को छोड़कर मृत्युशील प्राणियों का कोई उपकारक नहीं है । कर्मों के आगमन को रोके बिना धर्म का सम्पादन नहीं हो सकता है । गृहाश्रम में रहते हुए सास्रवों को आस्रव से छुटकारा नहीं हो सकता है ।। ५४१-५४६ ।। ५२१ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ [समराहकहा नियमा तत्थारंभो आरंभेणं च वड्ढई' हिंसा। हिंसाए कओ धम्मो न देसिओ सत्थयारेहिं ।। ५४७ ॥ पज्जंते वि य एसो सम्वेणं चेव जीवलोयम्मि। नियमेणज्झियध्वो ता अलमेएण पावेणं ॥ ५४८ ॥ एवं च चितयंतो पत्तो संजायचरणपरिणामो। गुरुपायमलमणहं संवयसो' निव्वइपुरं व॥५४६ ॥ अह वंदिओ य णं भगवं सवयंसएण साहू य। तेहि चिय धम्मलाहो दिन्नो सम्वेसि विहिपुत्वं ॥ ५५०॥ उवविट्ठा य सुविमले मुणोण पुरओ उ उववणुच्छंगे। अह पच्छिया य गुरुणा कत्तो तुब्भे ति महरगिरं॥ ५५१ ।। एवं च पुन्छिए समाणे जंपियं धरणेण भयवं, इओ चेव अम्हे । अन्नं च; अस्थि मे गिहासमपरिच्चायबुद्धी। ता आइसउ भयवं, जं मए कायध्वं ति । तओ 'अहो से आगिई, अहो विवेगों' ति नियमात्तत्रारम्भ आरम्भेण च वर्धते हिंसा। हिंसया कृतो धर्मो न देशित: शास्त्रकारैः ।। ५४७ ।। पर्यन्तेऽपि चैषः सर्वेणैव जीवलोके। नियमेनोज्झितव्यस्ततोऽलमेतेन पापेन ।। ५४८ ॥ एवं च चिन्तयन् प्राप्तः सञ्जातचरणपरिणाम.। गुरुपादमूलमनघं सवयस्यो निर्वृतिपुरमिव ।। ५४६ ।। अथ वन्दितश्च तेन भगवान् सवयस्येन साधवश्च । तैरेव धर्मलाभो दत्तः सर्वेषां विधिपूर्वम् ॥ ५५० ।। उपविष्टाश्च सुविमले मुनीनां पुरतस्तु उपवनोत्सङ्गे। अथ पृष्टाश्च गुरुणा कृतो युयमिति मधुरगिरा ॥ ५५१ ।। एवं च पृष्ठे र्सा जल्पितं धरणेन -भगवन् ! इत एव वयम् । अन्यच्च, अस्ति मे गृहाश्रमपरित्यागबुद्धिः । तत आदिशतु भगवान्, यन्मया कर्तव्यमिति । ततः 'अहो तस्याकृतिः, अहो विवेकः' गृहस्थी में नियम से आरम्भ होता है, आरम्भ से हिंसा बढ़ती है। हिंसा से धर्म नहीं होता है, ऐसा शास्त्रकारों ने कहा है। फलस्वरूप समस्त जीवलोक को इसे नियम से छोड़ ही देना चाहिए , इस पाप से कुछ भी लाभ नहीं हैं, ऐसा विचार करते हुए जिसके अन्दर चारित्रधारण करने के भाव उत्पन्न हुए हैं-ऐसा वह मित्रों के साथ गुरु के पादमूल में आया, मानो मोक्षनगरी में आया हो । मित्रों के साथ उसने आचार्य और साधुओं की वनना की । उन्होंने सभी को विधिपूर्वक धर्मलाभ दिया। उद्यान की निर्मल गोद में मुनियों के सामने बैठा। अनन्तर गुरु ने मधुरवाणी में पूछा - आप कहाँ से आये हैं ? ॥ ५४७-५५१ ।। ऐसा पूछे जाने पर धरण ने कहा- 'भगवन् ! हम लोग यहीं से आये हैं। दूसरी बात यह है कि मैं घर छोड़ना वाहता हूँ, अत: मेरे योग जो विधेय हो उसका आदेश दें।" तब 'इसकी आकृति आश्चर्यकारक है, विवेक १. बटर-ख । २. हिमाइ क ओ य-क । ३. सवयस्सा-क । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छड्ने भयो ५२३ चिन्तिका आसयपरिक्खणनिमित्तं जंपियं अरहयत्तेणं। वन्छ, परिचत्तसिहासमेणं निम्नच्छिणा विनियविसवलालसाइं इंदियाई विज्झविय' कसायाणलं निरीहेणं चित्तेणं सयलसोक्खनिहाणभूओ संजमो काययो। अन्नहा परिचत्तो वि अपरिचत्तो गिहासमो ति। सो पुण अणाइबिसयमावणाभावियस्स जोवस्त अञ्चंतदुक्खयरो। पवज्जिऊण वि एवं पुवकयकम्मदोसेण केइ न तरंति परिवालिङ, मुज्झति निययकज्जे, परिकप्पेंति' असयालंबणाई; विमुक्कसंजमा म ते, आउसो, न मिहीन पव्वइयगा उभयलोगबिहलं नासति' मणुयत्तणं । एवं ववत्थिए अमुणिऊण हेमोवाएवाइं अतुलिऊणमप्पाच्वयं न जुत्तो गिहासमपरिच्चाओ ति। धरणेण भणियं - एवमेयं, जं तुम्भे आगवेह । कि तु हेओ गिहासमो मे बुद्धी समणतणं उवाएयं । तुलणा वि पिबेगो रिचय किलेसवसयाण सत्ताणं ।। ५५२ ।। भयक्या चितियं । अहो से सउण्णया, मुणिओ ण जहटिओ संसारो, समप्पन्ना जिणधम्म. इति चिन्तयित्वा आशयपरीक्षणनिमित्तं जलपितमर्ह इत्तेन-वत्स ! परित्यक्तगृहाश्रमेण निर्भर्त्य निजनिजविषयलालसानीन्द्रियाणि विध्याप्य कषायानलं निरीहेन चित्तेन सकलसौख्यनिधानभूतः संयम: कर्तव्यः। अन्यथा परित्यक्तोऽप्यपरित्यक्तो गृहाश्रम इति । स पुनरनादिविषयभावनाभावितस्य जीवस्यात्यन्तदुःखकरः । प्रपद्याप्येतं पूर्वकृतकर्मदोषेण केऽपि न शक्नुवन्ति परिपालयितुम, मुह्यन्ति निजकार्ये, परिकल्पयन्त्यसदालम्बनानि, विमुक्तसंयमाश्च ते आयुष्मन् ! न गृहिणो न प्रवजितका उभयलोकविफलं नाशयन्ति मनुजत्वम् । एवं व्यवस्थितेऽज्ञात्वा हेयोपादेयानि अतोलयित्वाऽऽत्मानं न युक्तो गृहाश्रमपरित्याग इति । धरणेन भणितम्-एवमेतद्, यद् यूयमाज्ञापयत। किन्तु हेयो गृहाश्रमो मे बुद्धिः श्रमणत्वमुपादेयम्। तुलनाऽपि विवेक एव क्लेशवशगानां सत्त्वानाम् ।। ५५२ ॥ भगवता चिन्तितम् --अहो तस्य सपुण्यता, ज्ञातोऽनेन यथा स्थितः संसारः, समुत्पन्ना जिनआश्चर्ययुक्त है --ऐसा सोचकर अभिप्राय की परीक्षा के लिए अहर्दत्त ने कहा- "वत्स ! गृहाश्रम का परित्याग कर, अपने-अपने विषय के प्रति लालसायुक्त इन्द्रियों की भर्त्सना कर, कषायरूपी अग्नि को बुझाकर, निरभिलाष चित्त से-समस्त सुखों का जो खजाना है ऐसे संयम का पालन करना चाहिए, अन्यथा परित्यक्त गृहाश्रम भी अपरित्यक्त के तुल्य है, आदिकाल से जिसने विषय-भावनाओं का चिन्तन किया है, ऐसे जीवों के लिए वह अत्यन्त दुःखकर है। गहाश्रम को त्यागकर भी पुरुष पूर्व जन्म में किये हए कर्मों के दोष के कारण पालन नहीं कर सकते हैं वे अपने ही कर्मों में मोहित होते हैं, सदा आलम्बनों की कल्पना करते हैं और हे आयुष्मान् ! वे संयम को छोड़ देते हैं । ऐसे लोग न तो गृही होते हैं, न संयमी होते हैं, इस प्रकार उभयलोक में विफल होकर मनुजपने का नाश करते हैं । ऐसी स्थिति में हेयोपादेय के ज्ञान बिना, अपने आपको तोले बिना, गृहाश्रम का छोड़ना उचित नहीं है ।" धरण ने कहा-"जो आप आज्ञा दें । किन्तु मेरा विचार है कि गृहाश्रम छोड़ने योग्य है और श्रमणत्व (मुनिदीक्षा) ग्रहण करने योग्य (उपादेय) है । क्लेश के वशीभूत हुए प्राणियों की तुलना भी विवेक ही है" ॥ ५५२ ॥ भगवान् ने विचार किया-इसका पुण्य आश्चर्यकारक है जो कि इसने संसार को जैसा का तैसा ही जान १. विवज्जिय-क । २. परिगप्पेंतिक । ३. नयंति-क। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ [समरा इच्चकहा बोहो। ता पसंसेमि एवं साहेमि य इमस्स इमीए दुल्लहत्तणं, जेण वयंसगाण वि से संबोहो समप्पज्जइ । भणियं च णेण वच्छ, धन्नो तुमं, नायं तए जाणियव्वं, संपत्ता सयललोयदुल्लहा' जिणधम्मबोही। ता जहटियासेवणेण एवं चेव सफलं करेहि, संसिज्झइ य तुह समोहिय । न खलु अणभत्थनिरइयारकुसलमग्गा एवंविहा हवंति, अवि य अपरमत्थपेच्छिणो विसयलोलया य। एयवइयरं च मिसुणेहि मे चरियं । धरणेण भणियं 'कहेउ भयवं' । अरहदत्तायरिएण भणियं-सुण । अत्थि इहेव वासे अयलउरं नाम नयरं । तत्थ जियसत्तू राया, पुत्ता' य से अवराजिओ समरकेऊ य । अवराजिओ जवराया, इयरो य कुमारो। दिन्ना इमस्स कुमारभुत्तीए उज्जेणो । एवं च अइक्कतो कोइ कालो । अन्नया य विथक्को समरकेसरी नाम पच्चंतनरवई । तओ अवराजिओ तप्पसाहणनिमित्तं गओ। पसाहिओ य एसो आगच्छमाणेण य मुत्तिमंतो विय पण्णोदओ संपत्तो इमेण धम्मारामसन्निवेसे सयलमणोरहचितामणो राहो नाम आयरिओ त्ति । तं च दठ्ठण समप्पन्नो एयस्स संवेगो । पुच्छिओ ण जहाविहीए धम्मो। कहिओ भयवया जहोवइट्ठो परमगुरूहि । पडिधर्मबोधिः, ततः प्रशंसाम्येतम्, कथयामि चास्मै अस्या दुर्लभत्वम्, येन वयस्यानामपि तस्य सम्बोध: समुत्पद्यते । भणितं च तेन-वत्स ! धन्यस्त्वम्, ज्ञातं त्वया ज्ञातव्यम्, सम्प्राप्ता सकललोकदुर्लभा जिनधर्मबोधिः । ततो यथास्थितासेवनेन एतामेव सफलां कुरु, संसिध्यति च तव समीहितम् । न खल्वनभ्यस्तनिरतिचारकुशलमार्गा एवंविधा भवन्ति, अपि चापरमार्थप्रेक्षिणो विषयलोलुपाश्च । एतव्यतिकरं च निशृणु मे चरितम् । धरणेन भणितं-कथयतु भगवान् । अर्हद्दत्ताचार्येण भणितं-शृणु। अस्तीहैव वर्षे अचलपुरं नाम नगरम् । तत्र जितशत्रू राजा, पुत्रौ च तस्य अपराजितः समरकेतुश्च । अपराजितो युवराजः, इतरश्च कुमार: दत्ताऽस्य कुमारभक्त्यां उज्जयिनी । एवं चातिक्रान्तः कोऽपि कालः । अन्यदा च (वित्थक्को दे०) विरुद्धः समरकेसरी नाम प्रत्यन्तनरपतिः । ततोऽपराजितस्तत्प्रसाधननिमित्तं गतः । प्रसाधितश्चेषः । आगच्छता च मूर्तिमानिव पुण्योदयः संप्राप्तोऽनेन धर्मारामसन्निवेशे सकलमनोरथचिन्तामणी राहो नामाचार्य इति । तं च दृष्ट्वा समुत्पन्न एतस्य संवेगः । पृष्टोऽनेन यथाविधि धर्मः । कथितो भगवता यथोपदिष्ट: परमगुरुभि: । प्रतिबुद्धश्चैषः । क्षयोपशमलिया, जैनधर्म का ज्ञान उत्पन्न हुआ, अतः इसकी प्रशंसा करता हूं, इससे इसकी (ज्ञान की) दुर्लभता कहता हूँ, जिससे इसके मित्रों को भी बोध उत्पन्न हो। उन्होंने कहा- "वत्स ! तुम धन्य हो, तुमने ज्ञेय को जान लिया, समस्त प्राणियों को जो दुर्लभ है ऐसी जिनधर्म बोधि को तुमने प्राप्त कर लिया है। अतः यथास्थित का सेवन करते हुए इसी को सफल करो। आपका इष्ट कार्य पूरा हो । अतीचाररहित शुभ मार्ग का अभ्यास किये बिना लोग इस प्रकार नहीं होते, अपितु परमार्थ को न देखने वाले और विषयों के लोलुपी होते हैं। इसके विपरीत मेरे चरित को सुनो।" धरण ने कहा -“कहिए भगवन् !" अर्हद्दत्त आचार्य ने कहा- "सुनो ! - इसी भारतवर्ष में अचलपुर नाम का नगर है। वहाँ पर जितशत्रु राजा था। उसके समरकेतु और अपराजित नाम के पुत्र थे। अपराजित युवराज था, दूसरा कुमार। इसने कुमार के उपभोग के लिए उज्जयिनी दे दी। इस प्रकार कुछ समय बीत गया। एक बार 'समर केसरी' नामक सीमावर्ती राजा विरुद्ध हो गया । तब अपराजित उसको समझाने के लिए गया । वह मान गया । आते हुए उसने शरीरधारी पुण्योदय के समान धर्मोद्यान में समस्त मनोरथों के लिए चिन्तामणिस्वरूप राहु नामक आचार्य को देखा। उन्हें देखकर इसे वैराग्य उत्पन्न हो गया । इसने यथाविधि धर्म के विषय में पूछा । भगवान् ने, जैसा परमगुरुओं ने कहा था, वैसा कहा । यह जागृत १. ते लोकदु-क।'. भारहे वासे । ३. पुत्तः य-क-ख । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो भवो ] य बुद्ध एसो । खओवसममुवगयं चारितमोहणीयं । तओ माइंदजालसरिसं जीवलोयमवगच्छिय पव्वइओ एसो । करेइ तवसंजमुज्जोयं । अन्नया य गुरुपायमूलम्मि अहासंजमं विहरमाणो गओ तगरासन्निवेसं । एत्यंतरम्मि समागया तत्थ उज्जेगीओ राहायरियस्स अंतेवासिणो अज्जराहुखमासमणसंतिया गुरुसमोवं साहुगो त्ति । कथा से से उचियपडिवत्ती । पुच्छिया निरुवसग्गविहार मुज्जेणीए । कहिओ यहि सुंदविहारो; केवलं रायपुत्तो पुरोहियपुत्तो य अभद्दया, ते जहोवलद्धीए खलियारेति साहुणो, तन्निमित्तो उवसग्गो त्ति । तओ एयमायण्णिय चितियमवराजिएण । अहो पमत्तया समरउणो, जेण परियणं पि न नियमेइ । ता अणुन्नविय गुरुं गच्छामि अहमुज्जणि । उवसामेमि ते कुमारे, मा संचिगंतु अबाहिमूलाई । संसारबद्धणे य साहुपओसो । अत्थि मे तदुवसामणसत्ती । ओ अणुवि गुरुं पेसिओ गुरुणा समागओ उज्जेण, पविट्ठो य अज्जराहुखमासमणगच्छे । कयं से उचिपकरणिज्जं । समागया भिक्खावेला । पट्टो एसो । भणिओ य साहूहि पाहुण्या तुब्भे, ता अच्छहति । तेण भणिधं न अच्छामि, अत्तलद्धिओ अहं, नवरं ठवणकुलाईणि दंसेह । तओ दिन्नो 1 मुपगतं चारित्रमोहनीयम् । ततो मायेन्द्रजालसदृशं जीवलोकमवगत्य प्रव्रजित एषः । करोति तपःसंयमोद्योगम् । अन्यदा च गुरुपादमूले यश्चासंयमं विहरन् गतस्तगरासन्निवेशम् । अत्रान्तरे समागतस्तत्रोज्जयिन्या राहाचार्यस्यान्तेवासिन आर्य राहुक्षमाश्रमणसत्का गुरुसमीपं साधव इति । कृता तेषामुचितप्रतिपत्तिः पृष्टा निरुपसर्गविहारमुज्जयिन्याम् । कथितस्तैः सुन्दरो विहारः, केवलं राजपुत्रः पुरोहितपुत्रश्वाभद्रको तौ यथोपलब्ध्या खलीकुरुत. ( उपद्रवतः ) साधून्, तन्निमित्त उपसर्ग इति । तत एतदाकर्ण्य चिन्तितमपराजितेन । अहो प्रमत्तता समरकेतो, येन परिजनमपि न नियमयति । ततोऽनुज्ञाप्य गुरुं गच्छाम्यहमुज्जयिनीम् । उपशमयामि तौ कुमारौ, मा सञ्चिन्वातामबोधिमूलानि । संसारवर्धने च साधुप्रद्वेषः । अस्ति मे तदुपशमनशक्तिः ततोऽनुज्ञाप्य गुरु प्रेषितो गुरुणा समागत उज्जयिनीम्, प्रविष्टश्चार्य राहु क्षमाश्रमणगच्छे । कृतं तस्योचितकरणीयम् । समागता भिक्षावेला । प्रवृत्त एषः । भणितश्च साधुभिः । प्राघूर्णका यूयम्, तत आध्वमिति । तेन भणितम् -- न आसे, आत्मलब्धिकोऽहम्, नवरं स्थापनाकुलादीनि दर्शयत । ततो दत्तस्तस्य शिष्यः, दर्शितानि ५२५ 7 हुआ । चारित्रमोहनीय के क्षोपगम को प्राप्त हुआ। तब जीवलोक को मायामयी इन्द्रजाल के समान जानकर इसने दीक्षा धारण कर ली । संयम और तप में उद्योग किया। एक बार गुरु के चरणों में रहकर संयमपूर्वक विहार करते हुए 'नगरा' (कोंकण ) सन्निवेश को गया । इसी बीच उज्जयिनी से आचार्य राहु के शिष्य साधु जन क्षमाश्रमण के साथ गुरु के समीप आये। उनसे उचित जानकारी प्राप्त की। पूछा - "उज्जयिनी में विहार करने में कोई बाधा तो नहीं है ?" उन्होंने कहा - "विहार सुन्दर है, केवल राजपुत्र और पुरोहित का पुत्र 'अभद्रक' ये दोनों साधुओं को पीड़ित करते हैं। उनके कारण ही उपसर्ग है ।" इसे सुनकर अपराजित ने सोचा - अहो समरकेतु का . प्रमाद, जो सेवकों पर भी नियन्त्रण नहीं करता है । तब गुरु से आज्ञा ली कि मैं उज्जयिनी जाता हूँ । उन दोनों कुमारों को शान्त करता हूँ । अज्ञान के बीज न फैलें । साधुओं के प्रति द्वेष करना संसारवर्द्धक है। मेरे अन्दर इसे रोकने की शक्ति है। तब गुरु से आज्ञा लेकर गुरु के द्वारा भेजा जाकर उज्जयिनी आया और आर्य राहु क्षमाश्रमण के गच्छ में प्रविष्ट हुआ । उसके योग्य कार्य किया । आहार का समय आया । यह (भोजन करने) प्रवृत्त हुआ । साधुओं ने कहा - "आप लोग अतिथि हैं, अतः आप बैठिए ।" उसने कहा- 'मैं नहीं बैठूंगा, क्योंकि मैं आत्मोपलब्धि वाला हूँ, केवल स्थापनाकुल आदि को दिखाइए ।" तब इसने शिष्य दिया, कुलों को दिखाया । उसने मना किया - 7 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ [ समराइच्चकहा से चेल्लओ, सियाणि कुलागि बारिओ य जेणं एवं पडणोयगेह; मा पविसेज्जसु' त्ति भणिऊण नियत्तो चेल्लओ, पबिट्टो य एसो पढममेव कुमारगेहं । महया सद्देण धम्मलाहियमणेणं । तं च दण भीयामओ अंतेउरियाओ। 'हा कटठं, इसी कयस्थिज्जिस्सह' त्ति चितिऊण सन्निओ य णाहि लह निग्गच्छसुति। तओ अवहीरिऊण बहिराविडं च काऊण महया सद्देण धम्मलाहियमणं । एत्यंतरम्मि धम्मलाहसहं सोऊण हम्मिक्तलाओ पहट्ठमुहपंकथा समागया कुमारया। ढक्कियं दुवारं। अइसएणं वंदिओ हि साहू । कसं धम्मलाहणं । भणिओ य णेहि - भो पन्वइयगा, 'नच्चसु ति। तेण मणियं-कहंगीयवाइएण विणा नच्चामि । कुमारेहि भणियं-अम्हे गोयवाइयं करेमो । साहुणा भणियं . 'संदरं' त्ति । विसमतालं कयं गीयवाइयमणेहिं । अकुद्धो वि हियएणं कुद्धो साहू । भणियं च जेण-अरे रे गोवालदारया, इमिणा विन्नाणेण ममं नच्चावेह त्ति । एवं सोऊण कुविया कुमारा, साहताडणनिमित्तं च धाविया अभिमहं । तेण विय 'न अन्नो उवाओ' ति कलिऊण करुणापहाणचित्तण निज्जद्धवावारकुसलेणं सणियं चेव घेत्तण सव्वसंधीसु विओइओ एक्को। तओ धाविओ कुलानि, वारितश्च तेन ‘एतत्प्रत्यनीकगेहम्, मा प्रविश' इति भणित्वा निवृत्तः शिष्यः । प्रविष्टश्चैष प्रथममेव कुमारगेहम् । महता शब्देन धर्मलाभितमनेन । तं च दृष्ट्वा भीता अन्तःपुरिकाः । 'हा कष्टम, ऋषिः कदर्थयिष्यते' इति चिन्तयित्वा संज्ञितश्च ताभिः ‘लघु निर्गच्छ' इति । ततोऽवधीर्य बधिरवृत्तितां (?) च कृत्वा महता शब्देन धर्मलाभितमनेन । अत्रान्तरे धर्मलाभशब्दं श्रुत्वा हर्म्यतलात् प्रहृष्टमुखपङ्कजौ समागतौ कुमारौ । स्थगितं द्वारम् । अतिशयेन वन्दितस्ताभ्यां साधुः । कृतं धर्मलाभनम् । भणितश्च ताभ्याम्-'भो प्रव्रजितक ! नृत्य' इति । तेन भणितम्-कथं गीतवाद्येन विना नृत्यामि । कुमारैर्भणितम्-आवां गीतवाद्यं कुर्वः । साधुना भणितम् ‘सुन्दरम्' इति । विषमतालं कृतं गीतवाद्यमाभ्याम् । अक्रुद्धोऽपि हृदयेन क्रुद्धः साधुः । भणितं च तेन- अरेरे गोपालदारको ! अनेन विज्ञानेन मां नर्तयतमिति । एतच्छ त्वा कुपितौ कुमारौ, साधुताडननिमित्तं च धाविताबभिमुखम् । तेनापि च 'नान्य उपायः' इति कलयित्वा करुणाप्रधानचित्तेन नियुद्धव्यापारकुशलेन शनैरेव गृहीत्वा सर्वसन्धिषु वियोजित एकः । ततो धावितो द्वितीय, सोऽपि तथैव । ततो 'साधू के विरोधी का यह घर है, प्रवेश मत करो।' ऐसा कहकर शिष्य लौट गया। यह पहले ही कुमार के घर में प्रविष्ट हुआ । इसने ऊँचे शब्द से धर्मलाभ दिया। उसे देखकर अन्तःपुरिकायें भयभीत हुईं। हाय कष्ट है, ऋषि का तिरस्कार किया जायेगा । ऐसा सोचकर उन्होंने साधु को संकेत किया- 'जल्दी निकल जाओ।' तब सुनकर बहरा बनकर ऊँचे स्वर से इसने धर्मलाभ दिया। इसी बीच धर्मलाभ सुनकर महल के भीतर से दो कुमार आये। उनके मुखकमल खिले हुए थे। द्वार को बन्द कर दिया। उन दोनों ने साधु की खूब पूजा-अर्चना की। धर्मलाभ लिया। उन दोनों ने कहा- "हे संन्यासी ! नाचो।" उसने कहा-"गीत-वाद्य के बिना कैसे नृत्य करूं ?" कुमारों ने कहा- "हम दोनों गाना बजाना करते हैं।" साधु ने कहा-"ठीक है।" इन दोनों ने विषमताल वाला गीत वाद्य किया। हृदय से क्रुद्ध न होने पर भी साधु क्रुद्ध हो गया। उसने कहा- "अरे ग्वाल-बालो ! इस विज्ञान के द्वारा मुझे नचाते हो ?" इसे सुनकर कुमार कुपित हो गये । साधु को पीटने के लिए दोनों सामने बढ़े । उसने 'अन्य कोई उपाय नहीं है' ऐसा मानकर करुणाप्रधान चित्त से युद्ध कार्य में कुशल होने के कारण धीरे से पकड़ कर समस्त गाँठों को अलग कर दिया। तब दूसरा दौड़ा। उसकी भी वही गति हुई। तब द्वार खोलकर साधु Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्टो भवो] ५२७ दुइओ, सो वि तहेव । तो दुवारमग्याडिऊण गओ साह। एगते ठिओ सज्मायजोगणं । इयरे वि निच्चेट्टा तहेव चिट्ठति । दिट्टा परियणेणं, उदएण सिंचिऊण ससंभमं वाहित्ता, जाव न जंपंति, तओ निवेइयं रायपुरो हयाणं, जहा इमिणा वृत्तंतेण केणइ साहुणा कुमारा एवं कय त्ति। तओ ते निरूविऊण आयरियसमीवं गओ राया। पणमिओय णायरिओ, भणिओ य-भयवं, खमेह एयमवराह वालयाणं । आयरिएण भणियं -किमेयं ति नावगच्छामि। कहिओ से वुत्तंतो राइणा । तओ आयरिएण भणियं -वीयरागसासणसंपायणरया तप्पहावओ विइयपरमत्था परलोयभीरुयत्तेण य इहलोयसरीरे दढमपडि बंधयाए ख मेंति सपलसत्ताणं साहुणो न पुण पाणभएणं ति । तहावि कारणं पइ समायरियं जइ केणावि भवे, तओ पुच्छावेमि साहुणो। तओ आयरिएण पुच्छिया साहुणों । तेहिं भणियं - भयवं, न अम्हे वियाणामो ति । आयरिएण भणियं-महाराय, नेयमिह साहूहि ववसियं । राइणा भणियं-भयवं, साहुणा न एत्थ संदेहो। आयरिएण भणियं-महाराय, जइ एवं, ता एवं भविस्सइ । अस्थि एगो आगंतुगो' साहू; तेणेयमणुचिट्ठियं भवे । राइणा भणियं--भयवं, कहि पुण सो साहू । द्वारमुद्घाट्य गतः साधुः । एकान्ते स्थितः स्वाध्याययोगेन । इतरावपि निश्चेष्टौ तथैव तिष्ठतः । दृष्टौ परिजनेन, उदकेन सिक्त्वा ससंभ्रमं व्याहृतौ, यावद् न जल्पतः । ततो निवेदितं राजपुरोहिताभ्याम, यथाऽनेन वृत्तान्तेन केनचित् साधुना कुमारौ एवं कृताविति । ततस्तो निरूप्य आचार्यसमीपं गतो राजा । प्रगतश्च तेनाचार्यः, भणितश्च । भगवन् ! क्षमस्वैतमपराधं बालकयोः। आचार्येण भणितम् -किमेतदिति नावगच्छामि । कथितस्तस्य वृत्तान्तो राज्ञा। तत आचार्येण भणितम् - वीतराग गासनसम्पादन र तास्तत्प्रभावतो विदितपरमार्थाः परलोकभीरुकत्वेन च इहलोकशरीरे दढमप्रतिबन्धतया क्षमयन्ति सकलसत्त्वान साधवः, न पुनः प्राणभयेनेति । तथापि कारणं प्रति समाचरितं यदि केनापि भवेत् ततः प्रच्छयामि साधन । आचार्येण पृष्टाः साधवः । तैर्भणितम्-भगवन् ! न वयं विनानीम इति आचार्येण भणितम-महाराज! नेदमिह साधुभिर्व्यवसितम् । राज्ञा भणितम -- भगवन् ! साधुना, नात्र सन्देहः । आचार्येण भणितम् - महाराज ! यद्येवं तत एवं भविष्यति । अस्त्येक आगन्तुकः साधुः, तेनेदमनुष्ठितं भवेत् । राज्ञा भणितम् -भगवन् ! कुत्र पनः स साधुः । चला गया। स्वाध्याय के निमित्त एकान्त में बैठ गया। दोनों वैसे ही निश्चेष्ट पड़े रहे। परिजनों ने देखा । जल सींचकर शीघ्र ही बात की, किन्तु उत्तर नहीं मिला। तब दोनों राजपुरोहितों ने निवेदन किया कि किसी साधु ने मारों के प्रति इस प्रकार का कार्य किया है। तब उन दोनों को देखकर राजा आचार्य के पास गया। उसने आचार्य को प्रणाम किया और बोला-"दोनों बालकों के इस अपराध को क्षमा करो।" आचार्य ने कहा"यह कैसे हुआ, मैं नहीं जानता हूँ।" राजा ने उस वृत्तान्त को कहा । तब आच र्य ने कहा-- “वीतराग शासन के सम्पादन में लगे हुए, उनके प्रभाव से परमार्थ को जानने वाले, परलोक से डरने वाले, इस लोक में शरीर से अत्यन्त निस्पह होने के कारण साधु सपत्त प्राणियों को क्षमा करते हैं प्राणों के भय से नहीं । तथापि कारण पाकर किसी ने ऐसा किया है तो मैं साधुओं से पूछता हूँ।" तब आचार्य ने साधुओं से पूछा । उन्होंने कहा--- "भगवन् ! हम लोग नहीं जानते हैं।" आचार्य ने कहा "महाराज! साधुओं ने यह नहीं किया होगा।" राजा ने कहा - "भगवन् ! साधु ने किया, इसमें कोई सन्देह नहीं है ।" आचार्य ने कहा-"महाराज ! यह बात है तो ऐसा हुआ होगा । एक आगन्तुक साधु है, उसने यह किया होगा।' राजा ने कहा--"भगवन् ! वह साधु कहाँ है ?" आचार्य ने कहा - १. रइपहाव नो .-ख, रयाणं-क । २. आगंतुओक । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ [ समाहच्चकहा आयरिएण भणियं-दसेह से तयं । दैसिओ एगेण साहुणा नाइदूरम्मि चेव सालतरुवरसमीवे झाणसंठिओ ति। पच्चभिन्नाओ य राइणा । कुभारावराहलज्जिएणं पणमिओ य णं । दिन्नो से धम्मलाहो । भणिओ य पच्छा । भो महासावग, जुत्तमेयं जं तुज्झ संतिए रज्जे इसीणं कयत्थणा कुमाराणं अणाहत्तणं' च । तओ बाहजलभरियलोयणेग राइणा भणियं- भयवं, लज्जिओ म्हि अहिवं इमिणा पमायचरिएणं । अस्थि मम एस दोसो; तहावि भयवं करेह अणुग्गह, संजोएह ते कुमारे। साहुणा भणियं - संजोएमि चरणगुणविहाणेणं न उणं अन्नह ति। राइणा भणियं-भय, अणुमय ममेयं, नवरं कुमारा पुच्छ्यिव्व ति। साहुणां भणियं - लहुं पुच्छेह। राइणा भणियं-- भयवं, ने सक्केति ते जंपिउं । साहुणा भणियं-एहि, तत्थेव वच्चामो; अहं जंपावेमि त्ति । आगया कुमाराण समीवं । दिट्ठा य हिं परमजोगिणो व्व निरुद्धसयलचेटा कुमारा। आयत्तीकयं च हैसि साहुणा वयणमेत्तं । पुच्छिया य णेणं-भो कुमारया, इसिकयत्थणापमायजणियकम्मतरुकुसुमुग्गमनुव्वरूवमेयं, फलं तु निरयाइवेयणा। ता जइ भे अस्यि पच्छायावी, ता पवज्जह कम्मतरुमहाकुहाडं पव्वज्ज । आचार्येण भगितम-दर्शयतास्य तम् । शित एकेन साधुना नातिदूरे एव सालतरुवरसमीपे ध्यानसंस्थित इति । प्रत्यभिज्ञातश्च राज्ञा । कुमारापराधलज्जितेन प्रणतश्च तेन । दत्तस्तस्य धर्मलाभः, भणितश्च पश्चात-भो महाश्रावक ! युक्तमेतद् यत् तव सत्के राज्ये ऋषीणां कदर्थना कमाराणाम. नाथत्वं च। ततो बाष्पजलभृतलोचनेन राज्ञा भणितम् - भगवन ! लज्जितोऽस्मि अधिकमनेने प्रमादचरितेन। अस्ति ममैष दोषः, तथापि भगवन ! कर्वनग्रहम, संयोजय तौ कमारौ। साधना भणितम्-संयोजयामि चरणगुणविधानेन न पुनरन्यथेति । राज्ञा भणितम्-भगवन् ! अनुमतं ममैतद. नवरं कमारौ प्रष्टव्याविति । साधना भणितम- लघ पच्छत । राज्ञा भणितम- भगवन | न शक्नुतस्तौ जल्पितुम् । साधुना भणितम्-एहि तत्रैव वजावः, अहं जल्पयामीति । आगतौ कुमारयोः समीपम् । दृष्टौ च ताभ्यां परमयोगिनाविव निरुद्धसकलचेष्टो कुमारौ। आयत्तीकृतं च तयोः साधना वचनमात्रम् । पृष्टौ च तेन - भोः कुमारौ ! ऋषिकदर्थनाप्रमादजनित कर्मतरुक सुमोमपूर्वरूपमेतत, फलं त निरयादिवेदना । ततो यदि युवयोरस्ति पश्चात्तापः, तत: प्रपद्यथां कर्मतरुमहा ‘उसे दिखलाता हूँ।" एक साधु ने समीप के ही साल वृक्ष के नीचे ध्यान लगाये हुए साधु को दिखाया । राजा ने पहचान लिया। उसने कुमारों के अपराध के कारण लज्जित होकर प्रणाम किया। उसे धर्मलाभ मिला । पश्चात (साधु ने) कहा -- "हे महाश्रावक ! तुम्हारे जैसों के राज्य में ऋषियों का अपमान और कुमारों की स्वच्छन्द वत्ति क्या उचित है ?" तब आँखों में आँसू भरकर राजा ने कहा -"भगवन् ! मैं इस प्रमाद के आचरण के कारण अत्यधिक लज्जित हूँ। मेरा यह दोष है तथापि भगवन् ! अनुग्रह कीजिए । उन दोनों कुमारों को ठीक कर दोजिए।" साध ने कहा- "यदि चारित्र धारण करें तो ठीक किये देता है, दूसरे प्रकार से नहीं।" राजा ने कहा- "भगवन ! यह मुझे मंजर है। हम दोनों कुमारों से कुछ पूछना चाहते हैं।" साधु ने कहा "जल्दी पूछिए।" राजा ने कहा - "भगवन् ! वे दोनों बात नहीं कर सकते हैं।" साधु ने कहा -- "आओ, वहीं चलें, मैं बात कराता हूँ।" दोनों कुमारों के समीप आये । उन दोनों को परमयोगी के समान समस्त चेष्टाओं से रहित देखा । साधु के वचन मात्र से वे दोनों वशीभूत हो गये । साधु ने उन दोनों से पूछा (कहा) ---ऋषि का अपमान करने के प्रमाद से उत्पन्न कल वक्ष के पुष्पोदगम का यह पूर्व रूप है और फन नरकादि वेदमा है । तब यदि आप दोनों को पश्चात्ताप है तो कर्मवक्ष के लिए बहुत १. कुमाराण य अवुहत्तणं नि-क । २. 'जइ य न नास्य तिरिय मणुयदुक्खाण भायणो' इत्यधिक:-क । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो भवो] ५२६ मोएमि अहं इमाओ उवद्दवाओ, भवामि य परलोयसाहणुज्जयाणं सहाओ त्ति । कुमारेहिं भणियंभयवं, अणुग्गहो त्ति । लज्जिया अम्हे इमिणा पमायचरिएणं, अत्थि णे महतो अणुयावो, पवज्जामो य पव्वज्ज जइ गुरू अणुजाणंति । तओ' अणुन्नाया गुरूहिं । संजोइया साहुणा अंगसंघाएण परमगुणसंघाएण य । तओ पवन्ना पव्वज्जं। परिण या य तेसि समणगुणा। एवं च जहुत्तकारीणं अइक्कंतो कोइ कालो। ताणं च पुरोहियकुमारस्स कम्मोदएणं विइयजिणधम्मसारस्स वि 'बला इमिणा पवाविय' त्ति समुप्पन्नो गुरुपओसो। न निदिओ जेणं नालोइओ गुरुणो। तओ मरिऊणं अहाउयक्खएण समुप्पन्नो ईसाणदेवलोए भुंजेइ दिव्वभोए। अइक्कतो कोइ कालो रइसागरावगाढस्स। ___ अग्नया य वरच्छरापरिगयरस मिलाणाई सुरहिकुसुमदामाइं, पयम्पिओ कप्पपायवो, पणटाओ हिरिसिरीओ, उवरत्ताई देवदूसाई, समुप्पन्नो दीणभावो, उत्थरियं निदाए, विउडिओ कामरागो, भमडिया दिट्ठी, समुप्पन्नो कम्पो, वियंभिया अरइ ति । तओ तेण चितियं 'हंत, किमेयं' ति । कुठारं प्रव्रज्याम् । मोचयाम्यहमस्मादुपद्रवात, भवामि च 'परलोकसाधनोद्यतयो: सहाय इति । कुमारैर्भणितम-- भगवन् ! अनुग्रह इति । लज्जितावावामनेन प्रमादचरितेन, अस्त्यावयोर्महाननुतापः, प्रपद्यावहे च प्रवज्यां यदि गुरवोऽनुजानन्ति । ततोऽनुज्ञातो गुरुभिः । संयोजितौ साधुना अङ्गसंघातेन परमगुणसंघातेन च। ततः प्रपन्नौ प्रव्रज्याम्। परिणताश्च तयोः श्रमणगुणाः । एवं च यथोक्तकारिणोरतिक्रान्तः कोऽपि कालः। तयोश्च पुरोहितकुमारस्य कर्मोदयेन विदितजिनधर्मसारस्यापि 'बलादनेन प्रवाजितः' इति समुत्पन्नो गुरुप्रद्वषः । न निन्दितस्तेन, नालोचितो गुरोः । ततो मृत्वा यथायुःक्षयेण समुत्पन्न ईशानदेवलोके भुङ वते दिव्यभोगान् । अतिक्रान्तः कोऽपि कालो रतिसागरावगाढस्य । ___ अन्यदा च वराप्सरःपरिगतस्य म्लामि सुरभिकसुमदामानि, प्रकम्पितः कल्पपादप: प्रनष्ट ह्रीश्रियौ, उपरक्तानि देवदूष्यानि, समुत्पन्नो दीनभावः, उत्स्तृतं (आक्रान्तं) निद्रया, विकुटितः (विनष्टः) कामरागः, भ्रान्ता दृष्टिः, समुत्पन्न कम्पः, विजृम्भिता अरतिरिति । ततस्तेन चिन्तितम् बड़ी कुल्हाड़ी के समान प्रव्रज्या धारण करो। मैं इस उपद्रव से मुक्त किये देता हूँ और परलोक का साधन करने के लिए उद्यत आप दोनों का सहायक होता हूँ।" दोनों कुमारों ने कहा-भगवन् ! "यह अनुग्रह है । हम दोनों प्रमादपूर्वक किये हुए आचरण से लज्जित हैं, हमें बड़ा खेद है। यदि माता-पिता आज्ञा देते हैं तो हम प्रव्रज्या धारण करते हैं !'' तब माता पिता ने आज्ञा दी। अंग को जोड़ तथा उत्कृष्ट गुणों से युक्त कर साधु ने ठीक कर दिया। फिर उन दोनों ने दीक्षा धारण की। उन दोनों में श्रमण के गूण प्रकट हए। इस प्रकार मनिदीक्षा धारण किये हुए कुछ समय बीत गया। उन दोनों में एक पुरोहित कुमार के कर्मोदय से धर्म के सार को जानते हुए भी यह गुरु के प्रति द्वेष उत्पन्न हुआ कि इसने हमें बलात् प्रवजित किया है। उसने न तो गुरु की निन्दा की, न आलोचना की। तब आयु का क्षय हो जाने के कारण मरकर ईशान स्वर्ग में उत्पन्न हुआ और दिव्य भोगों को भोगा। रतिसागर में निमग्न हए कुछ काल बीत गया। . एक बार उत्तम अप्सराओं से घिरे हर उसकी सुगन्धित पुष्पों की माला म्लान पड़ गयी, कल्पवृक्ष कम्पित हुआ, ह्री और श्री नष्ट हो गयी, देववस्त्र म्लान पड़ गये । दीनभाव उत्पन्न हुआ, निद्रा से आक्रान्त हुआ, कामराग नष्ट हो गया, दृष्टि भ्रान्त हो गयी, कंपकंपाहट उत्पन्न हो गयी, अरति उत्पन्न हो गयी। तब उसने सोचा - हाय ! १. 'पुलोइयो राया साहुणो । सो थाहिऊग संबंधिवुत्ततं इसस' इत्यधिक:-क। २. अव रत्ताई-के। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चकहा वियाणिया चलगाई, विसण्णो हियएणं, विद्दाणो परियणो विल वियं अच्छराहि । तओ 'किमि मिणा मोहचेट्टिएणं; पुच्छामि ताव भयवंतं पउमनाहं तित्थयर, कहिं मे उववाओ, सुलहबोहिओ वानव' त्ति समागओ पुव्वविदेहं । पणमिओ तेलोक्कनाहो पुच्छिओ य। सिट्ठ भयवया । उववाओ जम्बूद्दीवदाहिणभर हे कोसम्बीए नयरीए । दुल्लहबोहिओ तुमं । संचिणियं तुमए गुरुपओसेण इमिणा पगारे अबोहिबीयं । नोसेसमाचिक्खिओ पुग्वभववइयरो । तओ तेण चितियं-हंत एद्दहhara वि गुरुडणी भावस्स दारुणो विवागो ति । भयवया भणियं - भो देवाणुप्पिया, न एस थेवो । इह खलु इहलोगोवयारी वि कयन्नुणा बहु मन्नियव्दो, किमंग पुण परलोगोवयारी । परलोगोवारिणो य गुरवो; जओ फेडंति मिच्छत्तवाहि, पणासेंति अन्नाणतिमिरं ठवेंति परमपयसाहिया किरियाए, चोइति खलिएसु, संथवेति गुणरयणे । एवं च देवाणुप्पिया, मोएंति जम्मजरामरणरोय सोय बहुलाओ संसारदासाओ, पावेंति सासयं सुहं सिद्धि ति । ता एवंविहेसु वि पओसो गुणओस भावे नाइ सम्मत्तं जणेइ अन्नाणं, चालेइ साहुकिरियं । तओ य से जीवे तहाविह ५.३० - हन्त किमेतद्' इति । विज्ञतानि च्यवन लिङ्गानि, विषण्णो हृदयेन, विद्वाणः परिजन, विलपितमप्सरोभिः । ततः किमनेन मोहचेष्टितेन पृच्छामि तावद् भगवन्तं पद्मनाभं तीर्थंकरम्, कुत्र मे उपपातः, सुलभबोधिको वा न वा' इति समागतः पूर्वविदेहम् । प्रणतस्त्रैलोक्यनाथः पृष्टश्च । शिष्टं भगवता - उपपातस्ते जम्बूद्वीपदक्षिणार्धभरते कौशाम्ब्यां नगर्याम् । दुर्लभोधिकस्त्वम् । संचितं त्वया गुरुप्रद्व ेषेण अनेन प्रकारेणाबोधिबीजम् । निःशेषमाख्यातः पूर्वभवव्यतिकरः । ततस्तेन चिन्तितम् - हन्त एतावन्मात्रस्यापि गुरुप्रत्यनीकभावस्य दारुणो विपाक इति । भगवता भणितम् - भो देवानुप्रिय ! नैष स्तोकः । इह खलु इहलोकोपकार्यपि कृतज्ञ ेन बहु मानयितव्यः, किमङ्ग पुनः परलोकोपकारी । परलोकोपकारिणश्च गुरवः, यतः स्फेटयन्ति मिथ्यात्वव्याधिम्, प्रणाशयन्ति अज्ञानतिमिरम्, स्थापयन्ति परम पदाधिकायां क्रियायाम्, चोदयन्ति स्खलितेषु, संस्तुवन्ति (प्रशंसन्ति) गुण रत्नानि । एवं च देवानुप्रिय ! मोचयन्ति जन्मजरामरण रोगशोक बहुलात्संसारवासात्, प्रापयन्ति शाश्वतं सुखं सिद्धिमिति । तत एवंविधेष्वपि प्रद्वेषो गुणप्रद्वेषभावेन नाशयति सम्यक्त्वम् जनयत्यज्ञानम्, यह क्या है ? च्युत होने के चिह्नों को जाना, हृदय से दुःखी हुआ, परिजनों ने जागृत किया, अप्सराओं ने विलाप किया । तब इस मोहचेष्टा से क्या लाभ ? भगवान् पद्मनाथ तीर्थंकर से पूछता हूँ, मैं कहाँ उत्पन्न होऊँगा, मुझे ज्ञान सुलभ होगा या नहीं ? वह पूर्वविदेह क्षेत्र में आया। उसने त्रिलोकीनाथ को नमस्कार किया और पूछा । भगवान् ने कहा -- " जम्बूद्वीप के दक्षिणार्द्ध भरत की कौशाम्बी नगरी में उत्पन्न होगे। तुम्हें बोधि प्राप्त होना कठिन है | गुरु के प्रति द्वेष के कारण तुमने अज्ञानरूपी बीज का संचय किया है ।" पूर्वभव के सम्बन्ध में पूर्ण रूप से कहा। तब उसने सोचा- गुरु के प्रति इतने से विपरीत भाव रखने का दारुण फल होता है । भगवान् ने कहा - "यह थोड़ी बात नहीं है । इस संसार में जो उपकार करता है, उसके प्रति कृतज्ञ होकर उसे बहुत सत्कार देना चाहिए, किन्तु जो परलोक के प्रति भी उपकारी है, उसके विषय में तो कहना ही क्या ! गुरु परलोक सम्बन्धी उपकार करने वाले होते हैं, क्योंकि मिथ्यात्व रूपी व्याधि को नष्ट कर देते हैं, अज्ञान रूपी अन्धकार को नष्ट करते हैं, परमपद की साधक क्रियाओं में स्थापित करते हैं, स्खलित होते हुए लोगों को प्रेरणा देते हैं, गुणरत्नों की प्रशंसा करते हैं । इस प्रकार हे देवानुप्रिय ! सद्गुरु जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक की जिसमें अधिकता है ऐसे ससारवास से छुड़ा देते हैं, शाश्वत सुख की सिद्धि को प्राप्त करा देते हैं । ऐसे व्यक्ति के प्रति द्वेष रखना प्रति द्वेष रखना है, इससे सम्यक्त्व का नाश होता है, अज्ञान उत्पन्न होता है, साधु-क्रियाओं में चंचलता Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ8ो भवो] ५३१ किलिटुपरिणामपरिणए खणमेत्तेणावि, देवाणुप्पिया, तहा बंधेइ कम्म, जहा पावेइ अणेगभवियं मिच्छत्तमोहं ति । अओ चेव बेमि- । __सम्मत्तनाणसहिया एगंतपमायज्जिणो पुरिसा। ___ इहपरभवनिरवेक्खा तरंति' नियमेण भवजहि ॥ ५५३ ॥ न उण' सेस ति। देवेण चितियं । एवमेयं, न अन्नहा। ता न याणामि, किंपज्जवसाणो मे एसो अबोहिलाभो ति। भयवया भणियं-थेवनियाणो खु एसो; ता अणंतरभवे चेव भविस्सइ अवसाणं ति । देवेण भणियं-भयवं, कुओ सयासाओ। भयवया भणियं-मयगावरनामाओ नियभाउणो ति। देवेण भणियं-भयवं, कि पुण तस्स पढमनामं, केण वा कारणेण इमं से दुइयं ति। भयवया भणियं-सुण पढमनायं से असोगदत्तो; मयगो पुण इमेणं कारणेणं । इमीए चेव कोसंबीए अईयसमम्मि तावसो नाम सेट्ठी अहेसि । सो य दाणाइकिरियासमेओ वि पमाई, बहुविहवसंपन्नो वि निच्चचालयति साधक्रियाम् । ततश्च स जोवस्तथा विधक्लिष्टपरिणामपरिणतः क्षणमात्रेणापि देवानुप्रिय ! तथा बध्नाति कर्म यथा प्राप्नोत्यनेकभविक मिथ्यात्वमोह मिति । अत एव ब्रवीमि सम्यक्त्वज्ञानसहिता एकान्तप्रमादवजिनः पुरुषाः । इहपरभवनिरपेक्षास्तरन्ति नियमेन भवजलधिम् ॥ ५५३॥ न पुनः शेषा इति । देवेन चिन्तितम्-एवमेतद्, नान्यथा । ततो न जानामि किंपर्यवसानो मे एषोऽबोधिलाभ इति । भगवता भणितम्-स्तोकनिदानः खल्वेषः, ततोऽनन्तरभवे एव भविष्यति अवसानमिति । देवेन भणितम्-भगवन् ! कुतः सकाशात् । भगवता भणितम् - मूकापरनाम्नो निजभ्रातुरिति । देवेन भणितम्-भगवन् ! किं पुनस्तस्य प्रथमनाम, केन वा कारणेनेदं तस्य द्वितीयमिति । भगवता भणितम्--- शृणु-. प्रथमनाम तस्याशोकदत्तः, मूकः पुन रनेन कारणेन । अस्यामेव कौशाम्ब्यामतीतसमये तापसो नाम श्रेष्ठयासीत । स च दानादिक्रियासमेतोऽपि प्रम दी, बहुविभवसम्पन्नोऽपि नित्यव्यापृतः । तत पैदा करता है । इस प्रकार हे देवानुप्रिय ! वह जीव उस प्रकार के क्लिष्ट परिणामों के फलस्वरूप क्षणमात्र में उस प्रकार के कर्म का बन्धन करता है, जो अनेक भव तक मिथ्यात्व-मोह को प्राप्त कराता है। अतएव कहता हूँ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञानसहित एकान्त रूप से जिन्होंने प्रमाद का परित्याग कर दिया है ऐसे इहभव और परभव से निरपेक्ष पुरुष नियम से संसार-समुद्र को पार करते हैं ॥ ५५३ ॥ शेष व्यक्ति संसार समुद्र को नहीं पार करते हैं । देव ने सोचा- ऐसा ही है, अन्यथा नहीं है । अतः मैं नहीं जानता हूँ, मेरे इस अज्ञान की समाप्ति कब होगी ? भगवान् ने कहा----"इसका कारण छोटा-सा (थोड़ा-सा) है, अतः दूसरे भव में ही इसकी समाप्ति होगी।" देव ने कहा-"किसके साथ ?" भगवान ने कहा -“जिसका दूसरा नाम मूक है ऐसे अपने भाई के साथ ।" देव ने पूछा-"भगवन् ! उसका पहला नाम क्या है ? किस कारण से उसका दूसरा नाम है ?" भगवान ने कहा-"सुनो-" उसका पहला नाम अशोकदत्त है और मूक इस कारण से है. इसी कौशाम्बी में प्राचीन समय में तापस नामक श्रेष्ठी था । वह दानक्रियाओं से युक्त होते हुए भी प्रमादी तथा बहुत वैभवयुक्त हाते हुए भी सदैव किसी १, नित्यरंति भवन्नवं-क । २. तुण-क । ३. समेतो-ख । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ समराइच्चकहा arasो । तओ अट्टज्भाणदोसेण मरिऊण समुप्पन्नो निययगेहम्मि चेव सूयरो । जायं से पुव्वोवभुतपरसावलोयणेणं जाईसरणं । अन्नया य उर्वाट्ठिए पिइदिवसए सिद्धपाए भोयणे समासन्नाए परिवेसणवेलाए अवहरियमज्जारमंसाए सुवयारीए वेलाइक्कमगिहवइ भएणं मंसनिमित्तं पच्छन्नगेव वावाइऊण विसिओ कोलो । तहा कोहाभिभूओ य मरिऊण समुप्पन्नो तम्मि चेव हे भुयंगमत्ताए ति । तत्थ वितं चैव दट्ठूण हम्मियं तं च सूवयारि भयसंभमाभिभूयस्त परिणामविसेसओ समुत्पन्नं से जाइसरणं । विचित्तयाए कंपरिणामस्स न गहिओ कसाएहिं, अणुगंपियं च णेणं । एत्थंतरम्मि उवलद्धो सुवयारीए' । तओणाए कओ कोलाहलो 'सप्पो सप्पो' ति । तं च सोऊण समागया मोग्गरवावडगहत्था कम्मरा । वावाइओ हि । समुत्पन्नो य तहा अकामनिज्जराए मरिऊण निय्यपुत्तस्स चेव नागदत्ताभिहाणस्स बंधुमईए भारियाए कुच्छसि पुत्तत्ताए ति । जाओ उचियसमएणं । कयं च से नामं असोदति । अइक्कंत संवच्छरस्स तं चैव सूवयारि पेच्छिय जणणिजणए य अचितयाए कम्मसामत्थस्स समप्पन्नं से जाईसरणं । चितियं च णेणं- वहुया जणणी सुओ चेव य पिया । अओ I आर्तध्यानदोषेण मृत्वा समुत्पन्नो निजगेहे एव शूकरः । जातं तस्य पूर्वोपभुक्त प्रदेशावलोकनेन जातिस्मरणम् । अन्यदा चोपस्थिते पितृदिवसे सिद्धप्राये भोजने समासानायां परिवेषणवेलायां अपहृतमार्जार मांसया (मार्जारापहृतमांसया) सूपकार्या वेलातिक्रमगृहपतिभयेन मांसनिमित्तं प्रछन्नमेव व्यापाद्य विशस्तः (पाचितः) कोलः । तथा क्रोधाभिभूतश्च मृत्वा समुत्पन्नस्तस्मिन्नेव गेहे भुजङ्गमतयेति । तत्रापि च तमेव दृष्ट्वा हर्म्ये तां च सूपकारी भयसम्भ्रमाभिभूतस्य परिणामविशेषतः समुत्पन्नं तस्य जातिस्मरणम् । विचित्रतया कर्मपरिणामस्य न गृहीतः कषायैः । अनुकम्पितं च तेन । अत्रान्तरे उपलब्धः सूपकार्या । ततोऽनया कृतः कोलाहलः 'सर्पः सर्पः' इति । तं च श्रुत्वा समागता मुद्गरव्यापृताग्र हस्ताः कर्मकराः । व्यापादितस्तैः । समुत्पन्नश्च तथाऽकामनिर्जरया मृत्वा निजपुत्रस्यैव नागदत्ताभिधानस्य बन्धुमत्या भार्यायाः कुक्षौ पुत्रतयेति । जात उचितसमयेन । कृतं च तस्य नाम अशोकदत्त इति । ततोऽतिक्रान्त संवत्सरस्य तामेव सूपकारी प्रेक्ष्य जननीजनको चाचिन्त्यतया कर्मसामर्थ्यस्य समुत्पन्नं तस्य जातिस्मरणम् । चिन्तितं च तेन - वधूर्जननी, सुत एव च पिता । अत: न किसी कार्य में लगा रहता था । तब आर्तध्यान के दोष से मरकर अपने ही घर सुअर हुआ। पहले भोगे हुए स्थानों के देखने से उसे जातिस्मरण हो गया। एक बार पितृदिवस उपस्थित होने पर भोजन करते समय बिल्ली द्वारा मांस ले जाने के कारण, रसोइया ने देर हो जाने के कारण गृहस्वामी के भय से मांस के निमित्त छिपाकर मार दिया और पका दिया। सुअर क्रोधित होकर मरा और अपने ही घर में काला साँप हुआ । पुनः उसी भवन और उसी रसोइन को देखकर भय और घबराहट से अभिभूत होकर उसे जातिस्मरण हो गया । कर्म के परिणामों की विचित्रता से उसने कषाय नहीं की। उसने दया की। इसी बीच रसोइन आयो । तब इसने (रसोइन ने ) कोलाहल किया । 'साँप, साँप।' उसे सुनकर, जिनके हाथ में मुद्गर थे, ऐसे नौकर आये । उन लोगों ने उसे मार दिया । अकामनिर्जरा से मरकर अपने ही पुत्र नागदत्त के यहाँ उसकी बन्धुमती नामक भार्या की कोख में के रूप में आया । उचित समय पर उत्पन्न हुआ। उसका नाम अशोकदत्त रखा गया। एक वर्ष बीत जाने पर उसी रसोइन और माता-पिता को देखकर कर्म की सामर्थ्य की अचिन्त्यता से उसे जातिस्मरण हो गया । उसने सोचा- बहू माता है, पुत्र ही पिता है, अतः खिलौने के समान संसार-निवास को धिक्कार है । अब मैं कैसे पुत्र १. ओमवावग्गत्या आगया कम्म - का Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३३ छट्ठौ भवो] पेच्छगयसमाणस्स' धिरत्यु संसारवासस्स । ता कहमहं वहुयं चेव जणि सुयं च तायं वाहरेमि त्ति। पडिवन्नं मयावयं । जाओ लोयवाओ अहो एस मूयगो ति। एवं च अइक्कंता दुवालस संवच्छरा । समागओ तत्थ चउणाणाइयसंपन्नो मेहनाओ नाम मुणिवरो। मुणिओ य से अणेण हिययभावो। पेतिओ वयगविन्नासकुसलो सुमंगलाभिहाणो इसो नागदेवगेहं, भणिओ य एसो-वत्तव्वओ तए तत्थ गिहालिदगनिविदो असोगदत्तो । जहा, भो कुमारया, पेसिओ म्हि गरुणा, सो य एवं भणाइ - तावस किमिणा मणव्वएण पडिवज्ज जाणिउं घम्म । ___ मरिऊण सूअरोरग जाओ पुत्तस्स पुत्तो ति ॥ ५५४ ॥ तओ 'जं भयवं आगवेइ' ति भणिऊण गओ सो रिसी। साहिओ गुरुसंदेसमो। पणामपव्वयं भणियं च णेणं-भयवं, कत्थ सो गुरू । इसिणा भणियं-कुमार, सक्कावयारे चेइयम्मि । तेण भणियं-एहि, गच्छम्ह विम्हिओ मयगपरियणो। चितियं च णेणं- अहो सामत्थं भयवओ; ता जाउ एसो, कयाइ सोहणयरं भवे । गओ मेहनायगरुसमोवं । वंदिओ गुरु । धम्मलाहिओ गुरुणा। पुच्छिओ प्रेक्षणकसमानस्य धिगस्तु संसारवासस्य । ततः कथमहं वधूमेव जननी सुतं च तातं व्याहरामीति । प्रतिपन्नं मकव्रतम् । जातो लोकवाद: 'अहो एष मूकः' इति । एवं चातिक्रान्ता द्वादश संवत्सराः । समागतस्तत्र चतुर्सानातिशय सम्पन्नो मेघनादो नाम मुनिवरः । ज्ञातश्च तस्यानेन हृदयभावः प्रेषितो वचनविन्यासकुशलः सुमङ्गलाभिधान ऋषिर्नागदेवगेहम्, भणितश्चैषः। वक्व्यस्त्वया तत्र गृहालिन्दकनिविष्टोऽशोकदत्तः । यथा भो कुमार ! प्रेषितोऽस्मि गुरुणा, स चैवं भणति तापस ! किमनेन मौनव्रतेन प्रतिपद्यस्व ज्ञात्वा धर्मम्। मृत्वा सूकरोंरगौ, जातः पुत्र पुत्रस्य इति ।। ५५४ ॥ ततो 'यद् भगवान् आज्ञापयति' इति भणित्वा गतः स ऋषिः । कथितो गुरुसन्देशकः । प्रमाणपूर्वकं भणितं च तेन - भगवन् ! कुत्र स गुरुः ऋषिणा भणितम् -कुमार! शक्रावतारे चैत्ये । तेन भणितम -एहि, गच्छावः । विस्मितो मूकपरिजनः । चिन्तितं च तेन- अहो सामर्थ्यं भगवतः, ततो यात एषः, कदाचित शोमनतरं भवेत् । गतो मेघनादगरुसमीपम् । वन्दितो गुरुः । धर्मलाभितो बहू को ही माता और पुत्र को ही पिता कहूँ ? उसने मौन व्रत धारण कर लिया। लोगों में चर्चा फैल गयी-अरे यह गंगा है। इस प्रकार बारह वर्ष बीत गये । उस स्थान पर चार ज्ञानों के अतिशय से सम्पन्न मेघनाद नामक मुनिवर आये। उन्होंने इसके हृदय के भावों को जाना । वचनों के विन्यास में कुशल सुमंगल नाम के ऋषि को नागदेव के घर भेजा। इससे कहा-तुम जाकर घर के बाहरी द्वार वाले प्रकोष्ठ में बैठे हुए अशोकदत्त से कहो कि हे कुमार ! मुझे गुरु ने भेजा है, वह ऐसा कहते हैं ___तापस ! यह मौन व्रत व्यर्थ है, धर्म को जानकर उसकी शरण में जाओ । (तुम) मरकर सूकर, सर्प और पुत्र के पुत्र हुए।' ॥ ५५४ ॥ तब 'जो भगवान आज्ञा दें'--ऐसा कहकर वह ऋषि चला गया । गुरु के सन्देश को कहा । उसने प्रणाम. पूर्वक कहा- "भगवन् ! वे गुरु कहाँ हैं ?" ऋषि ने कहा- "कुमार ! शक्रावतार के चैत्य में हैं।" उसने कहा- "आओ, हम दोनों चलें।" गूंगे के परिजन विस्मित हुए । उसने सोचा-- भगवान् की सामर्थ्य अचिन्तनीय है । अत: इसे जाने दो । कदाचित् और उत्कृष्ट हो जाय । (यह) मेघनाद गुरु के समीप गया। गुरु की वन्दना की। गुरु ने धर्मनाभ १. नडपेच्छणय-क। .. अलिन्दक:-बहिरिप्रकोष्ठकः । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ [ समराइच्चकहा असोगदत्तणं- भयवं, कहं पुण तुमं मईयं वृत्तंत जाणासि । तेण भणियं-नाणबलेणं ति। 'अहो ते नाणाइसओ' ति विम्हिओ असोगदत्तो। तओ 'भयवया "पडिबुझिस्सइ' ति नाऊण कहिओ से धम्मो । पडिबुद्धो एसो। पुव्ववासणाए य नावगयं से मूयगाभिहाणं । ता एएण कारणेण इमं से दुइयं नामं ति। ___ एवं च सिट्टे समुप्पन्नो से पमोओ। पुच्छिओ य भयवं-अह कहिं केण वा पगारेणं अहं संबुझिस्सं ति । भयवया भणियं-वेयड्ढपव्वए नियकुंडलजवलयरिसणेणं भविस्सइ ते पडिबोहो। तमो वंदिऊण भयवंतं गओ कोसंबि नरि । दिवो मयगो, साहिलो से वृत्तंतो, जहा उप्फालिओ भयवया । सबहुमाणं हत्थे गेण्हिऊण भणिओ य एसो। ता अवस्समहं तए पडिबोहियव्वो त्ति । तेण भणियं-जइस्समहं जहासत्तीए । तओ तेण नीओ वेयड्ढपव्वयं, दंसियं सिद्धाययणकडं। भणिओ य एसो-भो मम दुवे चेव अच्चंतपियाणि एत्थ जम्नम्मि, इमं सिद्धाययणकूडं रयणावयंसगाभिहाणं च कंडल जुयलं ति । ता चिट्ठउ इमं इह कायव्वं तर पुब्बसा हियं ति । निमियं सिलासंघाविवरेगदेसे गुरुणा । पृष्टोऽशोकदत्तेन-भगवन् ! कथं पुनस्.वं मदीयं वृत्तान्तं जानासि । तेन भणितम्-ज्ञानबलेनेति । 'अहो ते ज्ञानातिशयः' इति विस्मितोऽशोकदत्तः । ततो भगवता 'प्रतिभोत्स्यते' इति ज्ञात्वा कथितस्तस्य धर्मः। प्रतिबुद्ध एषः। पूर्ववासनया च नापगतं तस्य मूकाभिधानम् । तत एतेन कारणेनेदं तस्य द्वितीये नामेति ।। एवं च शिष्टे समुत्पन्नस्तस्य प्रमोदः । पृष्ठश्च भगवान्, अथ कुत्र केन वा प्रकारेणाहं सम्भोत्स्यामीति । भगवता भणितम् -वैताढ्यपर्वते निजकुण्डलयुगलदर्शनेन भविष्यति ते प्रतिबोधः । ततो वन्दित्वा भगवन्तं गतः कौशाम्बी नगरीम । दृष्टो मकः, कथितस्तस्य वृत्तान्तः, यथा कथितो भगवता । सबहुमानं हस्ते गृहीत्वा भणितश्चैषः। यतोऽवश्यमहं त्वया प्रतिबोधितव्य इति । तेन भणितम् –यतिष्येऽहं यथाशक्ति । ततस्तेन नोतो वैताढयार्वतम्, दर्शितं सिद्धायतनकूटम् । भणितश्चैषः-भो ! मम द्वावेवात्यन्तप्रियावत्र जन्मनि, इदं सिद्धायतनकूट रत्नावतसकाभिधानं च कुण्डलयुगल मिति । ततस्तिष्ठत् इदमिह, कर्तव्यं त्वया पूर्वकथितमिति । न्यस्तं शिलासङ्घातविवरैकदेशे दिया । अशोकदत्त ने पूछा--"भगवन् ! तुम मेरे वृत्तान्त को कैसे जानते हो ?" उसने कहा-"ज्ञान बल से । 'अहो आपके ज्ञान का प्रकर्ष' - इस प्रकार अशोकदत्त विस्मित हुआ। तब भगवान् ने यह प्रतिबुद्ध हो जायगा' ऐसा जानकर इसे धर्म का स्वरूप समझाया। यह प्रतिबद्ध हो गया। पहले के संस्कार के कारण उसका 'गक' यह नाम नहीं मिटा । अतएव इस कारण यह उसका दूसरा नाम है। ऐसा कहे जाने पर उसे हर्ष उत्पन्न हुआ। (उसने) भगवान् से पूछा-"मैं कहाँ पर और किस प्रकार से बोध प्राप्त करूंगा ?" भगवान् ने कहा- "वैताढ्य पर्वत पर अपने दोनों कुण्डल देखकर तुम्हें प्रतिबोध होगा।" तब भगवान की वन्दना कर कौशाम्बी नगरी गया। 'मूक' को देखा । जैसा भगवान् ने कहा था वैसा वृत्तान्त उससे कहा । सम्मानपूर्वक हाथ में हाथ लेकर इसने कहा-"तो अवश्य ही मुझे तुमसे प्रतिबोधित होना चाहिए।" उसने कहा -- "मैं यथाशक्ति कोशिश करूँगा।" तब वह वैताढ्यपर्वत पहले गया, सिद्धायतन कूट को दिखाया। इसने कहा-"अरे ! इस जन्म में मेरे दो ही प्रिय हैं । यह सिद्धायतन कूट और रत्नावतंस नाम का कुण्डल । तब यहाँ बैठो, जैसा तुमने पहले कहा था, वैसा करो।” शिलाओं की खोल के एक भाग में दोनों कुण्डलों १. भगवया-क । २. पडिबुज्झइ-क । ३. हत्थेणं-क। ४. निम्मिय-ख । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो भवो ] कुंडलजुयलं, समप्पियं च इमस्स चिंतामणिरयणं । भणिओ य एसो-एयं खु चितामेत्तपडिवन्नसहायभावं साहेइ इहलोयपढिवद्धं एगदिवसे एगपओयणं । ता एयसामत्थओ वेयड्ढगमणमणुचिट्ठियव्वं ति । पवन्नमणेण । आगया कोर्साम्ब । गओ देवो निययविमाणं । वावन्नो कालक्कमेणं । समुत्पन्नो बंधुमईकुच्छीए । जाओ से सरयसमयम्मि सहयारेसु दोहलो । असंपज्जमाणे य तम्मि सगुप्पन्ना से अरई, पव्वायं वयणकमलं, पोडिओ गन्भो, संजायं किसकृत्तणं । एत्थंतरम्मि पयट्टो लोयवाओ। अहो एसा अपाइदोहला' न जीवइ त्ति । तओ माइनेहमोहिएगं असोगद तेणं 'न तित्ययरभासियं निष्फलं, ' ता भविस, न अन्ना वि वेयड्ढगमणं' ति चितिऊण चितियाइं चितामणिरयणसन्निहाणम्मि सहारा । समुप्पन्नाणि य इमाई । संपाडिओ दोहली । पसूया एसा । जाओ य से दारओ । कथं च से नामं अरहदत्तोति । पत्तोय बालभावं । तओ सो असोगदत्तो नेइ तं साहुसमीवं, पाडेड चलणेसु, रुयइ य तओ । एवं च अइ तो कोइ कालो । पत्तो कुमारभावं । साहिओ णेण जिणभासिओ धम्मो, न परिणो य कुण्डलयुगलम्, समर्पितं चास्य चिन्तामणिरत्नम् । भणितश्चैषः । एतत्खलु चिन्तामात्रप्रतिपन्नसहायभावं साधयति इहलोकप्रतिबद्ध मे कदिवसे एक प्रयोजनम् । तत एतत्सामर्थ्यतो वैताढ्यगमन मनुष्ठातव्यमिति । प्रतिपन्नमनेन । आगतौ कौशाम्बीम् । गतो देवो निजविमानम् । व्यापन्नः कालक्रमेण । समुत्पन्नो बन्धुमतीकुक्षौ । जातस्तस्य शरत्समये सहकारेषु दोहदः । असम्पद्यमाने च तस्मिन् समुत्पन्ना तस्या अरतिः, म्लानं वदनकमलम्, पीडितो गर्भः सञ्जातं कृशत्वम् । अत्रान्तरे प्रवृत्तो लोकवादः, अहो एषाऽसम्पादितदोहदा न जीवतीति । ततो मातृस्नेहमोहितेनाशोकदत्तेन 'न तीर्थंकरभाषितं निष्फलम्, ततो भविष्यति, नान्ययाऽपि वैताढ्यगमनम्' इति चिन्तयित्वा चिन्तितानि चिन्तामणिरत्नसन्निधाने सहकाराणि । समुत्पन्नानि चेमानि । सम्पादितो दोहदः । प्रसूतैषा । जातश्च तस्या दारकः । कृतं च तस्य नाम अर्हद्दत्त इति । प्राप्तश्च बालभावम् । ततः सोऽशोकदत्तो नयति तं साधुसमीपम्, पातयति चरणयो:, रोदिति च ततः । एवं चातिक्रान्तः कोऽपि कालः । प्राप्तः कुमारभावम् । कथितस्तेन जिनभाषितो धर्मः, न ५३५ को रख दिया और इसे चिन्तामणि रत्न समर्पित कर दिया । इसने कहा - "यह विचार करने मात्र से सहायता करता है । इहलोकवासी का एक दिन में एक प्रयोजन सिद्ध करता है । अतः इसकी सामर्थ्य से वैताढ्यगमन करना चाहिए ।" इसके द्वारा वैताढ्य पर गया। दोनों कौशाम्बी नगरी में आये । देव अपने विमान को चला गया । कालक्रम से (देव) मर गया । बन्धुमती के गर्भ में आया। उसे शरत्काल में आम का दोहला उत्पन्न हुआ । उसके पूरा न होने पर इसे अरति उत्पन्न हुई, मुखकमल म्लान पड़ गया, गर्भ पीड़ित हो गया, दुर्बलता उत्पन्न हुई लोगों में यह चर्चा फैली - 'इसका मनोरथ पूरा नहीं हुआ तो यह जीवित नहीं रहेगी ।' तब माता के स्नेह से मोहित अशोकदत्त ने कहा- "तीर्थंकर की वाणी निष्फल नहीं होती है, अतः होकर रहेगी ।" वैताढ्य गमन भी निरर्थक नही हुआ - ऐसा सोचकर चिन्तामणि रत्न के समीप आमों का चिन्तवन किया। ये (आम) उत्पन्न हो गये । दोहद पूरा हो गया । इसने प्रसव किया। उसके पुत्र उत्पन्न हुआ । उसका नाम अर्हद्दत्त रखा । बाल्यावस्था को प्राप्त हुआ । तब अशोकदत्त उसे साधु के समीप ले गया। प्रणाम करवाया, तब वह रोने लगा । इस प्रकार कुछ समय बीत गया। कुमारावस्था को प्राप्त हुआ। उसे जिनभाषित धर्म की शिक्षा दी गयी, पुनः १. डोला । २. निष्कन भविस्सइ – ब । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ [ समराइच्चकहा तस्स । पुणो वि साहिओ, पुणो वि न परिणओ त्ति । एवं च अइक्कतो कोइ कालो। पुणो वि कहिओ असोगदत्तेण पुव्वभववइयरो, न परिणओ य अरहयत्तस्स । भणिओ य जेणं-असोगदत्तो ! किमिमिणा पलविएणं ति। तओ सो एयवइयरेणेव 'अहो सामत्थं कम्मपरिणईए' त्ति चितिऊण पडिवन्नो समलिंगं। अरहदत्तेण वि य परिणीयाओ चत्तारि सेट्ठिदारियाओ। भुजमाणस्स पवरभोए अइक्कतो कोइ कालो। तओ परिवालिऊणमणइयारं सामंणं अहाउयस्स खएण देवलोयमुवगओ असोयदत्तो। सुयं च णेणं-जहा असोगदत्तसमण गो पंचत्तमुवगओ त्ति । तओ समुन्भूओ अरहदत्तस्स सोगो । कयं उद्धदेहियं । समप्पन्नो य सो बंभलोए। दिन्नो उवओगो, विन्नाओ य ओहिणा अरहदत्तवइयरो। आभोइयं च णेणं 'न एस एवं पडिबुज्झइ' त्ति । पत्थुओ उवाओ । अयडम्मि चेव समुप्पाइओ से वाही। संजायं जलोयरं, परिसुक्काओ भुयाओ, सूर्ण चलणजुयलं, मिलाणाई लोयणाई, जड्डिया जीहा, पणट्ठा निद्दा, उवगया अरई, समुन्भूया महावेयणा। विसण्णो य एसो। सद्दाविया वेज्जा। उवन्नत्थं परिणतश्च तस्य । पुनरपि कथितः, पुनरपि न परिणत इति । एवं चातिक्रान्तः कोऽपि कालः । पुनरपि कथितोऽशोक दत्ते । पूर्व भवव्यतिकरः, न परिणतश्चार्ह दत्तस्य । भणितश्च तेनाशोकदत्तः किमनेन प्रलपितेनेति । ततः स एतद्व्यतिकरेणैव 'अहो सामर्थ्य कर्मपरिणतेः' इति चिन्तयित्वा प्रतिपन्न: श्रमणलिङ्गम् । अर्हद्दत्तेनापि च परिणीताश्चतस्रः श्रेष्ठिदारिकाः । भुञानस्य प्रवरभोगान् अतिक्रान्तः कोऽपि कालः। ततः परिपाल्यानतिचारं श्रामण्यं यथायुष्कस्य क्षयेण देवलोकमुपगतोऽशोकदत्तः। श्रुतं च तेन, यथाऽशोकदत्तश्रमणः पञ्चत्वमुपगत इति । ततः समुद्भूतोऽर्हद्दत्तस्य शोकः । कृतमौर्ध्वदेहिकम । समुत्पन्नश्च स ब्रह्मलोके । दत उपयोगः । विज्ञातश्चावधिना अर्हद्दत्तव्यतिकरः । आभोगितं च तेन 'नैष एवं प्रतिबुध्यते' इति । प्रस्तुत उपायः । अकाण्डे एव समुत्पादितस्तस्य व्याधिः । सञ्जातं जलोदरम्, परिशुष्कौ भुजौ, शूनं (शोथवत्) चरणयुगलम्, म्लाने लोचने, जडा जिह्वा, प्रनष्टा निद्रा, उपगताऽरतिः, समुद्भूता महावेदना। विषण्णश्चैषः । शब्दायिता वैद्याः । उपन्यस्तं सर्वसारम् । कोई परिवर्तन नहीं आया। इस प्रकार कुछ समय बीत गया। अशोकदत्त ने पूर्व भव का सम्बन्ध कहा, फिर भी अर्हद्दत्त नहीं बदला। उसने अशोकदत्त से कहा कि इस प्रकार प्रलाप करने से क्या ! तब वह इसी आणत से 'अहो कर्मों की सामर्थ्य' ऐसा सो कर मुनि बन गया । अर्हद्दत्त ने चार श्रेष्ठ कन्याएँ विवाहीं । उत्कृष्ट भोगों को भोगते हुए कुछ समय व्यतीत हो गया । तब श्रामण्य (मुनिधर्म) का निरतिचार पालन करते हुए आयुक्षय होने पर अशोकदत्त स्वर्ग चला गया । अर्हद्दत्त ने सुना कि अशोकदत श्रमण पंचत्व को प्राप्त हो गया। तब अर्हद्दत्त को शोफ उत्पन्न हुआ। अन्त्येष्टि कर्म किया । वह (अशोकदत्त) ब्रह्मलोक में उत्पन्न हुआ। (उसने) ध्यान लगाया । अवधिज्ञान से अर्हद्दत्त के सम्बन्ध में जाना है। उसने सोचा कि 'यह इस प्रकार प्रतिबोध को प्राप्त नहीं होता है', (तब उसने) उपाय प्रस्तुत किया । असमय ने ही उसके व्याधि (रोग) उत्पन्न कर दी । (उसे) जलोदर हो गया, दोनों भुजाएँ सूख गयीं, दोनों पर सूज गये, नेत्र म्लान पड़ गये, जीभ जड़ हो गयी, नींद नष्ट हो गयी, अरति को प्राप्त हो गया, महावेदना उत्पन्न हुई । यह दुःखी हुआ। (उसने) वैद्यों को बुलवाया, सारी बात सामने रख दी। उसने कहा Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो भवो ] सारं । भणियं च णेण - अवहर एवं वेयणं । पउत्ताइं ओसहाई; न जाओ से विसेसो । पच्चवखाओ जेहिं । तओ वेयणाइसयमोहिएण भणियं - न चएमि एवं अणेगतिब्ववेयणाभिभूयं दिवससेत्तमवि सरीरगं धारेउं । ता देह मे कट्ठाणि, पविसामि जलणं ति । एयं सोउण विद्दणा बंधवा, मुच्छियाओ पत्तीओ, परोविओ परियणो । एत्थंतरम्मि सो देवो सबरवेज्जरूवं काऊण गहियगोणत्तओ आगओ कोबि । उग्घो सियं च णेणं अरहदत्तघरसमीवे- अहं खु सबरवेज्जो फेडेमि सोसवेयणं, सुणावेमि बहिरं, अवणेमि तिमिरं, पणासेमि खसरं, उम्मूलेमि मलवाहि, पसमेमि सूलं, नासेमि जलोयरं ति । एवं सोऊण सद्दिओ सबहुमाणं । भणिओ य से परियणेगं -भद्द, अवणेहि इमस्स महोयरं; जं afri दिज्जइति । तेण भणियं - धम्मवेज्जो अहं, न उण अत्यलोलुओ; ता अलं मे अत्थेणं । कि तु किच्छसज्भो एस वाही, न सुहेणं अवेइ । एत्थ खल परिहरियध्वं नियाणं, सेवियव्यो पड़िवक्खो । नियाणं च दुविहं हवइ, इहलोइयं पारलोइयं च । तत्थ इहलोइयं अवच्छा से वणज णिओ वायाइधाउखोहो, पारलोइयं पावकम्मं । तत्थ 'इहलोइयं पिन पारलोइप संबंध मंतरेणं' ति पारलोडयं परिहरि भणितं च तेन – अपहरैतां वेदनाम् । प्रयुक्तान्योषधानि न जातस्तस्य विशेषः । प्रत्याख्यातो वैद्यैः । ततो वेदनातिशयमोहितेन भणितम् न शक्नोम्येतदनेक तीव्र वेदनाभिभूतं दिवसमात्रमपि शरीरकं धारयितुम् । ततो दत्त मे काष्ठानि, प्रविशामि ज्वलनमिति । एतछत्वा विद्राणा बान्धवाः, मूच्छिताः पन्यः, प्ररुदितः परिजनः । अत्रान्तरे स देवः शबरवैद्यरूपं कृत्वा गृहीतगोणीत्रय आगतः कौशाम्बीम् । उद्घोषितं च तेन अर्हद्दत्तगृहसमीपे । अहं खलु शबरवैद्यः स्फेटयामि शीर्षवेदनाम, श्रावयामि बधिरम् अपनयामि तिमिरम्, प्रणाशयामि खसम् ( कच्छूम् ), उन्मूलयामि मलव्याधिम्, प्रशमयामि शूलम्, नाशयामि जलोदरमिति । एतच्छ्रुत्वा शब्दितः सबहुमानम्, भणितश्च स परिजनेन - भद्र ! अपनयास्य महोदरम्, यन्मार्गितं दीयते इति । तेन भणितम् - धर्मवैद्योऽहम्, न पुनरर्थलोलुपः, ततोऽलं मेऽर्थेन । किन्तु कृच्छ्रसाध्य एष व्याधिः, न सुखेनापैति । अत्र खलु परिहर्तव्यं निदानम्, सेवितव्यः प्रतिपक्षः । निदानं च द्विविधं भवति - ऐहलौकिकं पारलौकिकं च । तत्रैहलौकिकमपथ्यासेवनजनितो वातादिधातुक्षोभः, पारलौकिकं पापकर्म । तत्र 'ऐहलौकिकमपि न पारलौकिकसम्बन्ध ५३७ इस वेदना को दूर करो । औषधियों का प्रयोग किया गया, उससे कुछ लाभ नहीं हुआ । वैद्यों ने (अच्छा कर सक की सामर्थ्य के विषय में) मना कर दिया। तब तीव्र वेदना से मूच्छित हुआ सा उसने कह दिया- 'तीव्र वेदना के कारण एक दिन भी शरीर धारण करने में समर्थ नहीं हूँ । अतः लकड़ियाँ इकट्ठी कर दो, मैं अग्निप्रवेश करूंगा।' यह सुनकर बान्धव जागे, पत्नियाँ मूच्छित हुईं, परिजन रोये। इसी बीच वह देव शबरवैद्य का रूप धारण कर तीन बैलों को लेकर कौशाम्बी में आया । उसने अर्हद्दत्त के समीप घोषणा की - 'मैं शंबरवैद्य हूँ । बड़ी से बड़ी वेदना को दूर करता हूँ, बहरों को सुनवाता हूँ, अन्धकार (नेत्र रोग) दूर करता हूँ, करेंच नामक लता से उत्पन्न खुजली नष्ट करता हूँ, संग्रहणी का उन्मूलन करता हूँ, पेटदर्द को शान्ति करता हूँ, जलोदर का नाश करता हूँ ।' यह सुनकर परिजनों ने उसे आदरपूर्वक बुलाया और कहा - 'भद्र ! इसकी व्याधि दूर कर दो, जो माँगोगे वही मिलेगा ।' उसने कहा- 'मैं धर्मवैद्य हूँ, धन का लोलुप नहीं हूँ, अतः मुझे धन से कोई प्रलोभन नहीं है, किन्तु यह रोग कठिनाई से दूर हो सकेगा, आसानी से दूर नहीं किया जा सकता । अतः परहेज करना होगा, निदान को छोड़ना होगा और प्रतिपक्ष का सेवन करना होगा । निदाग भी दो तरह का होता है - ऐहलौकिक और पारलौकिक । ऐहलौकिक निदान अथ्य सेवन से उत्पन्न वात आदि धातुओं का क्षोभ है और पारलौकिक निदान पापकर्म है । ऐहलौकिक निदान भी पारलौकिक सम्बन्ध के बिना नहीं होता, अतः Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चकहा यव्वं ति । तत्थ वि पहाणभावओ मिच्छतं । परिहरिए य तम्मि समुत्पन्नसंमत्तभावेण पइदिवसमेव आसेवियन्वाइं नाणचरणाइं, कायन्वो पढमचरिमपोरुसीसुं' चित्तमलविसोहणी जिणवयणसज्भाओ, सोयव्वो बिइयपोरुसीए हियाहियभावदंसगो तस्स अत्थो, मणदयण कायजोगेहिं न हिंसियव्वा पाणिणो, न जंपि पव्त्रमलियं, न गेव्हियव्वमदत्तयं, न सेवियन्वमबंभं न कायव्वो मुच्छाइ परिग्गहो, न भुंजियव्वं रयणीए, खायव्वा खंती, भावियन्वं मद्दवं वज्जणिज्जा माया निहणियत्वो लोहो, हिडियव्वं अपडिबद्धेणं, वसियव्वं सेलकःणणुज्जाणेसु, वज्जियव्वो आरंभो, भवियव्वं निरीहेणं । एवं च भो देवाप्पिया, अवेइ भवजलोयरं पि किमंग पुण एवं इहलोयमेत्तपडिबद्धं । तओ परियणेण चितियं 'मरणाओ वरमिमं ति । भणिओ य एसो परियणेण - भो अरहदत्त, अलं मरणेणं, एयं करेहि' त्ति । तओ 'मरणाओ वि एयनहिययरं, तहावि का अन्ना गइ' त्ति चितिऊण जंपियमणं - 'जं वो रोयइ' ति । सबरवेज्जेण भणियं - जइ एवं ता पेच्छ मे वेज्जत्ति । इयाणि चेव पन्नवेमि; किंतु ५३८ मन्तरेण' इति पारलौकिकं परिहर्तव्यमिति । तत्रापि प्रधानभावतो मिथ्यात्वम् । परिहृते च तस्मिन् समुत्पन्नसम्यक्त्वभावेन प्रतिदिवसमेवासेवितव्ये ज्ञानचरणे, वर्तव्यः प्रथमचरमपौरुष्योचित्तमलविशोधनो जिनवचन स्वाध्यायः, श्रोतव्यो द्वितीय पौरुष्यां हिताहितभावदर्शकस्तस्यार्थः, मनोवचनकाययोगैर्न हिंसितव्याः प्राणिनः, न जल्पितव्यमलीकम्, न ग्रहीतव्यमदत्तम्, न सेवितव्यमब्रह्म, न कर्तव्यो मूर्च्छया परिग्रहः, न भोक्तव्यं रजन्याम्, क्षन्तव्या क्षान्तिः, भावयितव्यं मार्दवम्, वर्जनीया माया निहन्तव्यो लोभः, हिण्डितव्यमप्रतिबद्धेन, वस्तव्यं शैलकाननोद्यानेषु, वर्जयितव्य आरम्भः, भवितव्यं निरीहेण । एवं च भो देवानुप्रिय ! अपैति भवजलोदरमपि किमङ्ग पुनरेतदिहलोकमात्रप्रतिबद्धम् । ततः परिजनेन चिन्तितम् -- 'मरणाद् वरमिदम्' इति । भणितश्चैष परिजनेन - भो अर्हद्दत्त ! अलं मरणेन, एतत्कुर्विति । ततो 'मरणादप्येतदधिकतरम्, तथापि काऽन्या गतिः' इति चिन्तयित्वा जल्पितमनेन 'यद् वो रोचते' इति । शबरवैद्येन भणितम् - यद्येवं ततः प्रेक्षस्व मे वैद्यशक्तिम् । इदानीमेव प्रज्ञापयामि, पारलौकिक निदान से बचना चाहिए। उसमें प्रधान भाव मिथ्यात्व है । मिथ्यात्व के दूर हो जाने पर उत्पन्न हुए सम्यक्त्व भाव से प्रतिदिन ज्ञान और चारित्र का सेवन करना चाहिए। प्रथम और अन्तिम पौरुष में चित्त के मल को विशुद्ध करने वाले जिनवचन का स्वाध्याय करना चाहिए। द्वितीय पौरुष में हित और अहित भाव को दर्शाने वाला उसका ( जिनवचनों का ) अर्थं सुनना चाहिए। मन, वचन और काय के योग से किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए, झूठ वचन नहीं बोलना चाहिए, बिना दी हुई वस्तु को ग्रहण नहीं करना चाहिए, अब्रह्मचर्य का सेवन नहीं करना चाहिए, मूर्च्छा (ममत्वभाव) से परिग्रह नहीं करना चाहिए, रात्रि भोजन नहीं करना चाहिए क्षमा भाव धारण करना चाहिए। मार्दत्र की भावना करना चाहिए, माया को छोड़ना चाहिए, लोभ नष्ट करना चाहिए। बेरोक-टोक भ्रमण करना चाहिए, पर्वत, वन और उद्यानों में रहना चाहिए, आरम्भ का त्याग करना चाहिए और कामनारहित होना चाहिए। इस प्रकार हे देवानुप्रिय ! संसार रूप जलोदर भी मिट जाता है, इस ऐहलौकिक जलोदर की तो बात ही क्या ?" तब परिजन ने सोचा - मरण से यही अच्छा ।' और उससे कहा - 'हे अर्हद्दत्त ! मरना व्यर्थ है, यही करो । तब 'मरण से तो यह अच्छा है, अन्य क्या चारा है' ऐसा सोचकर इसने कहा- 'जो आप लोगों का उचित लगे ।' शबरवैद्य ने कहा - 'यदि ऐसा है तो मेरी बंद्य-शक्ति देखो। इसी समय निवेदन करता हूँ, किन्तु १. पोरिसीसुक । २, तस्सत्थो के । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ8ो भवो ] ५३६ निच्छिएण होयव्वं, न दायबो मोहपसरो, न सोयव्वं वयण कल्लाणमिताणं, न कायव्वा कुसीलसंसग्गी, न बहु मन्नियव्वं इहलोयवत्थु, न मोतवो अहं, न खंडियन्वा मम आणत्तो' । पडिस्सुयमणेणं । तओ आलिहियं वेज्जेण मंतमंडलं, मिलिओ नयरिजणवओ, ठाविओ मंडलम्मि अरहदत्तो, सव्वजणसमक्खमेव अहिमतिऊण पउत्ताइं ओसहाई; ठइओ धवलपडएणं, सुमरिया माइट्ठाणविज्जा, देवसत्तीए कोलाहली कओ एसो। तओ मोयावेऊण अक्कंदभेरवे, लोट्टाविऊण महियलम्मि, भंजाविऊण अंगमंगाई, गमिउं विचित्तमोहे जंबालकलमलओ अइभीसणो रूवेणं असोयव्व मासी[सवणपंथा ओ पुट्ठो कि पुण दं सणस्स] दुरहिांधिणा देहेण नियरूवसरिसअटठत्तरवाहिसयपरिवारिओ विवागसव्वस्सं शिव पावकम्मस्स निफेडिओ से मुत्तिमंतो चेव मायावाहि ति। दिट्ठो य लोएणं । तओ विम्हिओ लोओ। कओ णेण कोलाहलो। अहो महाणभावया सबरवेज्जस्स, अउव्ववेज्जमग्गेण अदिटुपुटवेण अम्हारिसेहि निप्फेडिओ मत्तिमंतो चेव वाहि त्ति । अहो अच्छरिय; पउणो अरहदत्तो, बाहिविगमेण समागया से निद्दा । थेववेलाए पडिबोहिओ सबरवेज्जेणं । भणिओ य णेणं-भद्द, पेच्छप्पणोच्चयं महापावकिन्तु निश्चितेन भवितव्यम्, न दातव्यो मोहप्रसरः, न श्रोतव्यं वचनमकल्याणमित्राणाम, न कर्तव्यः कुशोलसंसर्गः, न बहु मानयितव्यमिहलोकवस्तु, न मोक्तव्योऽहम्, न खण्डयितव्या ममाज्ञप्तिः । प्रतिश्रतमनेन । तत आलिखितं वैद्यन मन्त्रमण्डलम्, मिलितो नगरीजनवजः, स्थापितो मण्डलेऽर्हद्दतः सर्वजनसमक्षमेवाभिमन्त्र्य प्रयुक्तान्यौषधानि, स्थगितो धवलपटेन, स्मृता मातृस्थानविद्या, देवशक्त्या कोलाहली कृत एषः । ततो मोचयित्वाऽऽक्रन्दभैरवान् लोटयित्वा महोतले भजयित्वाऽङ्गाङ्गानि गमयि वा विचित्रमोहान् (जम्बालकलमलओ दे०) दुर्गन्धी अति भीषणो रूपेग अश्रोतव्यभाषी [श्रवणपथस्यापि च स्पष्ट: किं पुनदर्शनस्य] दुरभिगन्धिना देहेन निजरूपसदृशाष्टोत्तरव्याधिशतपरिवृतो विपाकसर्वस्वमिव पापकर्मणो निष्फेटितस्तस्य मूर्तिमानिव मायाव्याधिरिति । दृष्टश्च लोकेन । ततो विस्मितो लोकः । कृतोऽनेन कोलाहलः । अहो महानुभावता शबरवैद्यस्य, अपर्ववैद्यमार्गेण अदृष्टपूर्वेणास्मादृशैनिष्फेटितो मूर्तिमानिव व्याधिरिति । अहो आश्चर्यम् । प्रगुणोऽर्हद्दत्तः, व्याधिविगमेन समागता तस्य निद्रा । स्तोकवेलायां प्रतिबोधित: शबरवैद्येन । भणितश्चानेन -भद्र ! प्रेक्षस्व आत्मनश्चैव महापापकर्मव्याधिम् । ततस्तथा कुर्याः, न निश्चित होना चाहिए, मोह को नहीं फैलाना चाहिए, अकल्याणकारी मित्र के वचन नहीं सुनना चाहिए, कुशील सेवन नहीं करना चाहिए, ऐहलौकिक पदार्थों को अधिक मान नहीं देना चाहिए, मुझे नहीं छोड़ना, मेरी आज्ञा का खण्डन (उल्लंघन) नहीं करना।' इसने अंगीकार किया। तब वैद्य ने मन्त्र का मण्डल (समूह) लिखा, नगरी के मनुष्य मिले, अर्हद्दत्त को मण्डल में बैठाया, सभी लोगों के समक्ष अभिमन्त्रित कर औषधियां प्रयुक्त की। सफेद वस्त्र से ढक दिया, मातृस्थान विद्या स्मरण की, देव की शक्ति से इसने कोलाहल किया। तब चिल्लाते हुए भैरवों से छुड़ाकर, पृथ्वी पर लोटकर, अङ्ग-अङ्ग को तोड़ते हुए विचित्र मोह को प्राप्त होकर, दुर्गंधयुक्त अति भीषण रूप से अश्रोतव्यभासी (कानों से नहीं सुनने योग्य, देखने की तो बात ही क्या), बदबूदार देह से अपने रूप के सदृश आठ सौ व्याधियों से घिरे हुए, पापकर्म के परिपूर्ण फल के समान मानो शरीरधारिणी माया व्याधि निकली। लोगों ने देखा, तब लोग विस्मित हुए। इसने कोलाहल किया। शबरवैद्य का महान् प्रभाव आश्चर्ययुक्त है जो कि अपूर्व वैद्य मार्ग से हम लोगों ने जिसे पहले नहीं देखा, ऐसी व्याधि को मूर्तिमान के समान निकाल दिया। अरे बड़े आश्चर्य की बात है ! अर्हद्दत्त ठीक हो गया, रोग के नष्ट होने से उसे नींद आ गयी। थोड़ी देर में शबरवैद्य ने उसे जगाया और उससे कहा – 'भद्र ! अपनी महा पापकर्मरूप व्याधि को Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० [समराइचकहा कम्मवाहिं । ता तहा करेज्जासि, न उणो जहा इमेणं घेप्पसि त्ति । दिट्ठो अरहदत्तेणं । विम्हिओ एसो । जायं से भयं । भणिओ य सबरवेज्जेणं- भद्द, मोयाविओ ताव तुमं मए इमाओ पावकम्मवाहिकिलेसाओ, पाविओ आरोग्गसुहेक्कदेसं । अओ परं भद्देण सयमेव तहा कायवं, जहा सयलपावकम्मवाहिविगमो होइ, तविगमे य संपज्जिस्सइ ते जम्मजरामरणविरहियं एगंतनिप्पच्चवायं आसंसारमपत्तपुव्वं' आरोग्गसुहं ति । अहं पि गहिओ चेव इमिणा पावकम्मवाहिणा; अवणीया य भवओ विय काइ मत्ता इमस्स मए, सेसावणयणत्थं च 'अजोगो उत्तिमोवायरसत्ति पयट्टो इमिणा पयारेणं । ता तुम पि उत्तमोवायं वा पतिवज्ज एयं वा मज्झ संतियं चेट्टियं ति । लोएण भणियं-'को उण' एत्थ उत्तमोवाओ। सबरवेज्जण भणियं-जिणसासणम्मि पन्वज्जापवज्जणं । तत्थ खल पडिवन्नाए पव्वज्जाए परिवालिज्जमाणीए जहाविहिं न संभवइ एस वाही, सिग्घमेव य अवेइ अवसेसं ति । ईइसा य मज्झ जाई, जेण न होइ सा इमीए सयलदुक्खसेलवज्जासणी महापव्वज्जा । तुम पुण भद्द उत्तमजाइगुणओ जोग्गो इमीए महापव्वज्जाए। ता एयं वा गेण्ह, गहियगोणतओ मए वा सह विहरसु पुनर्यथाऽनेन गृह्यसे इति । दृष्टोऽर्हद्दत्तेन । विस्मित एषः जातं तस्य भयम् । भणितश्च शबरवैद्येनभद्र ! मोचितस्तावत् त्वं मयाऽस्मात् पापकर्मव्याधिक्लेशात, प्रापित आरोग्यसुखैकदेशम् । अतः परं भद्रेण स्वयमेव तथा कर्तव्यम् यथा सकलपापकर्मव्याधिविगमो भवति, तद्विगमे च सम्पत्स्यते ते जन्मजरामरणविरहितमेकान्तनिष्प्रत्यवायमासंसारमप्राप्तपूर्व मारोग्यसुखमिति । अहमपि गृहीत एवानेन पापकर्मव्याधिना, अपनीता च भवत इव काचिन्मात्राऽस्य मया, शेषापनयनार्थं च 'अयोग्य उत्तमोपायस्य' इति प्रवृत्तोऽनेन प्रकारेण । ततस्त्वमपि उत्तमोपायं वा प्रतिपद्यस्व, एतद्वा मम सत्कं चेष्टितमिति । लोकेन भणितम्-क: पुनरत्र उत्तमोपायः। शबरवैद्येन भणितम्-जिनशासने प्रव्रज्याप्रपदनम् । तत्र खलु प्रतिपन्नायां प्रव्रज्यायां परिपाल्यमानायां यथाविधि न सम्भवत्येष व्याधिः, शीघ्रमेव चापैत्यवशेषमिति । ईदशी च मम जाति:, येन न भवति साऽस्यां सकलदुःखशैलवज्राशनिमहाप्रव्रज्या । त्वं पुनर्भद्र ! उत्तमजातिगुणतो योग्योऽस्याः महाप्रव्रज्यायाः । तत एतां गृहाण, गृहोतगोणत्रयो मया वा सह विहर इति । लोकेन भणितम्-भो ! सुन्दरमिदम्, देखो। अतः ऐसा उपाय करो जिससे इससे पुन: ग्रस्त न हो।' अर्हद्दत्त ने देखा । वह विस्मित हो गया । उसका भय जाता रहा। शबरवैद्य ने कहा--'भद्र ! तुम मेरे द्वारा पापकर्मरूप रोग के क्लेश से मुक्त कर दिये गये हो और आरोग्य रूप सुख के स्थान पर पहुंचा दिये गये हो, अतः भद्र को स्वयं वैसा करना चाहिए जिससे समस्त कर्मरूप व्याधियाँ दूर हों, कर्मरूप व्याधियों के दूर होने पर तुम जन्म, जरा और मरण से रहित, एकान्त बाधा से रहित, संसार में जिसकी प्राप्ति पहले कभी नहीं हुई, ऐसे आरोग्य रूप सुख को प्राप्त होगे । मुझे भी इस पापकर्मरूप व्याधि ने ग्रहण कर लिया था, आपके समान इसकी कुछ मात्रा को मैंने दूर कर दिया है, शेष को दूर करने के लिए उत्तम उपाय के अयोग्य हूँ। अतः आप उत्तम उपाय को प्राप्त हों, यही मेरी चेष्टा है।' लोगों ने कहा'यहाँ उत्तम उपाय क्या है ?' शबर वैद्य ने कहा--'जिनशासन में दीक्षा धारण करो। इसके प्राप्त होने तथा पालन करने पर यह रोग नहीं उत्पन्न होता है और शेष बचा शीघ्र दूर हो जाता है। मेरी जाति ऐसी है कि समस्त दुःखरूप पर्वतों को वज्र के समान यह प्रव्रज्या नहीं होती है। भद्र ! तुम उत्तम जाति में उत्पन्न होने रूप गुण के कारण इस प्रव्रज्या के योग्य हो, अतः इसे ग्रहण करो अथवा तीन बैल लेकर मेरे साथ विचरण करो।' १. -मेवमपत्त-क । २. वुण-क, ख । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो भवो ] ५४१ त्ति । लोएण भणियं- भो सुंदरमिम, तुज्झ भाया वि पव्वइओ चेव; ता एयं ववससु' ति। तओ अरहदत्तेण अणिच्छमाणेणावि चित्तेणं पडिवन्नमेय। आगओ कोइ तहाविहो साह। तओ पडिवन्नो एयस्त समीवे पव्वज्जं दव्वओ, न उण भावओ ति । गओ तबरवेज्जो। ____ अइक्कंता कइवि दियहा । मिच्छत्तोदएणं च समुप्पन्ना इमस्स अरई। तओ परिच्चइय पोरुसं, अणवेक्खिऊण निययकुलं, अगणिऊण वयणिज्जं, अणालोइऊण आयइं परिच्चत्तमणेण दवलिंग। आगओ सगिहं। पवतो पडिकलसेवणे । गया कइवि वासरा। आभोइयं देवेण । कओ से पुन्ववाही। विसण्णो एसो। निदिओ लोएणं । संसारसिणेहेणं गविट्ठो से बंधवेहि सबरवेज्जो। लद्धो देव्वजोएणं । भणिओ य णेहि - भद्द, कुविओ सो तस्स वाही। ता करेहि से अणुग्गह, उवसामेहि एवं' ति। सबरवेज्जेण भणियं-कि कयमपच्छति। बंधहि भणियं-भद्द, लज्जिया अम्हे तस्स चरिएणं; तहावि करेह अणग्गहं ति । सबरवेज्जेण भणियं-जइ एवं पुणो वि पव्वयइ। तओ अणिच्छमाणो विहियएण पव्वडओ। तहेव उवसामिऊण वाहि गओ सबरवेज्जो। तव भ्राताऽपि प्रव्रजित एव, तत एतद् व्यवस्येति । ततोऽर्हद्दत्तेनानिच्छताऽपि चित्तेन प्रतिपन्नमेतद् । आगतः कोऽपि तथाविधः साधुः । ततः प्रतिपन्न एतस्य समीपे प्रव्रज्यां द्रव्यतः, न पुनर्भावत इति । गतः शबरवैद्यः । अतिक्रान्ताः कत्यपि दिवसाः । मिथ्यात्वोदयेन च समुत्पन्नाऽस्यारतिः। ततः परित्यज्य पौरुषम् अनपेक्ष्य निजकुलम्, अगणयित्वा वचनीयम् , अनालोच्यायति परित्यक्तमनेन द्रव्यलिङ्गम् । आगतः स्वगृहम् । प्रवृत्तः प्रतिकूलसेवने। गताः कत्यपि वासराः । आभोगितं देवेन। कृतस्तस्य पूर्वव्याधिः । विषण्ण एषः । निन्दितो लोकेन । संसारस्नेहेन गवेषितस्तस्य बान्धवैः शबरवैद्यः । लब्धो दैवयोगेन । भणितश्च तैः-भद्र ! कुपितः स तस्य व्याधिः । ततः कुरु तस्यानुग्रहम् , उपशमय एतमिति । शबरवैद्येन भणितम्-किं कृतमपथ्यमिति । बान्धवैर्भणितभ- भद्र ! लज्जिता वयं तस्य चरितेन, तथापि कुर्वनुग्रहमिति । शबरवैद्येन भणितम्-यद्येवं पुनरपि प्रव्रजति । ततोऽनिच्छन्नपि हृदयेन प्रव्रजितः । तथैवोपशमय्य व्याधि गतो शबरवैद्यः । लोगों ने कहा-'यह सुन्दर है, आपका भाई भी प्रवजित हुआ था अतः इसी का निश्चय करो।' तब अर्हद्दत्त ने मन में न रहते हुए भी इसे स्वीकार कर लिया। कोई उस प्रकार का साधु आया । वह इसके समीप द्रव्य से दीक्षित हो गया, भाव से नहीं । शबरवैद्य चला गया। कुछ दिन बीत गये । मिथ्यात्व के उदय से उसे (तपस्या के प्रति) अरुचि पैदा हुई । तब पुरुषार्थ को त्यागकर अपने कल की अपेक्षा न कर, निन्दा को न मानकर, भावी कल को न सोचकर इसने द्रव्यलिंग का त्याग कर दिया । अपने घर आ गया। प्रतिकूल वस्तुओं के सेवन करने में प्रवृत्त हो गया। कुछ दिन बीत गये । देव को ज्ञात हुआ । उसकी पहले की व्याधि (देव ने) उत्पन्न कर दी। यह खिन्न हुआ। लोगों ने निन्दा की। संसार के स्नेह से उसके बान्धवों ने शबरवैद्य को खोजा । दैवयोग से (वह वैद्य) मिल गया। उन्होंने कहा – 'भद्र ! यह व्याधि कुपित हो गयी, अतः उसके ऊपर अनुग्रह कीजिए, इसे शान्त कर दीजिए।' शबरवैद्य ने पूछा-'क्या अपथ्य सेवन किया है ?' बान्धवों ने कहा-- 'भद्र ! हम लोग उसके आचरण से लज्जित हैं, तथापि अनुग्रह करो।' शबरवैद्य ने कहा-'यदि ऐसा है तो पुनः दीक्षा धारण कर ले ।' तब हृदय से न चाहता हुआ भी वह प्रवजित हो गया। उसी प्रकार व्याधि का उपशमन कर शबरवैद्य चला गया। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ [ समराइच्चकहा ___ अइक्कतेसु कइवयदिणेसु तहेव उप्पव्वइओ। 'आहोइयं देवेणं । कओ से तिव्वयरवेयणो वाही । भणिओ य बंधहिं -कि पुण तुमं एवं पि अताणयं न लखेसि। ता परिच्चयसु वा जीवियं, करेहि वा तत्स वयगं ति । तेण भणियं-करेमि संपयं, जइ तं पेच्छामि ति। गवेसिओ सबरवेज्जो, बंधहि दिट्टो य देव्वजोएणं। लज्जावण यवयणं भणिओ य हिं-अजुत्तं चेव ववसियं ते पुत्तएण, गहिओ य एसो तिव्वयरेण वाहिणा; ता को उण इह उवाओ त्ति। सबरवेज्जेण भणियं-नत्यि तस्स उवाओ; विसयलोलुओ ख एसो पुरितयाररहिओ य। ता थेवमियमेयस्स, बहुयबराओ य अग्गओ तिरियनारएसु विडंबणाओ। तहावि तुम्हाण उवरोहओ चिकिच्छामि एवकसि जइ मए चेव सह हिंडइति। पडिवन्नमहि, साहियं च अरहदत्तस्स । संखुद्धो य एसो। तहावि 'का अन्ना गइ' त्ति चितिऊण पडिवन्नमणेण । आणिओ सबरवेज्जो। भणिओ य णेणं-भद्द, पच्छिमा खेड्डिया; ता सुंदरेण होयव्यं । सव्वहा जमहं करेमि, तं चेव तुमए कायव्वं; न मोत्तत्वो य अहयं ति । पडिवन्नं अरहदत्तेणं । तिगिच्छिओ य एसो। भणिओ य लोएणं --भो सत्थवाहपुन, मा संपयं पि कुपुरिस अतिक्रान्तेषु कतिपयदिनेषु तथैवोत्प्रवजितः। आभोगितं देवेन। कृतस्तस्य तीव्रतरवेदनो व्याधिः । भणितश्च बान्धवैः-किं पुनस्त्वमेवमपि आत्मानं न लक्षयसि । ततः परित्यज वा जीवितं कुरु वा तस्य वचनमिति । तेन भणितम् – करोमि साम्प्रतम्, यदि तं पश्यामीति । गवेषितः शबरवैद्यो बान्धवैः, दृष्टश्च दैवयोगेन। लज्जावनतवदनं भणितश्च तैः-अयुक्तमेव व्यवसितं ते पुत्रकेण, गृहीतश्चैष तीव्रतरेण व्याधिना, ततः कः पुनरिहोपायः इति । शबरवैद्येन भणितम्-नास्ति तस्योपायः, विषयलोलुपः खल्वेष पुरुषकाररहितश्च । ततः स्तोकमिदमेतस्य, बहुतराश्चाग्रतः तिर्यग्नारकेषु विडम्बनाः । तथापि युष्माकमुपरोधतश्चिकित्साम्येकशः, यदि मयैव सह हिण्डते इति । प्रतिपन्नमेभिः, कथितं चाहद्दतस्य । संक्षुब्धश्चैषः । तथापि 'काऽन्या गतिः' इति चिन्तयित्वा प्रतिपन्नमनेन । आनीतः शबरवैद्यः। भणितश्च तेन-भद्र ! पश्चिमा (खेड्डिया दे०) द्वारिका (चरम उपाय इत्यर्थः), ततः सुन्दरेण भवितव्यम् । सर्वथा यदहं करोमि तदेव त्वया कर्तव्यम्, न मोवतव्यश्चाहमिति । प्रतिपन्नमर्हद्दत्तेन । चिकित्सितश्चैषः । भणितश्च लोकेन-भो सार्थवाहपुत्र ! मा साम्प्रत___ कुछ दिन बीत जाने पर उसी प्रकार प्रव्रज्या छोड़ दी। देव को ज्ञात हुआ। उसने उसे तीव्रतर व्याधि उत्पन्न कर दी। बान्धवों ने कहा- 'तुम अपने आपको भी नहीं देखते हो । अतः या तो जीवन का त्याग कर दो या उसके वचनों का पालन करो।' उसने कहा कि यदि वह (शबरवैद्य) मिल जाय तो करूंगा। बान्धवों ने शबरवैद्य को ढूंढ़ा, दैवयोग से दिखाई पड़ गया। लज्जा से चेहरे झुकाकर उन्होंने कहा- 'उस पुत्र ने अयोग्य कार्य किया, अतः उसे तीव्रतर व्याधि ने घेर लिया, अत: अब क्या उपाय है ?' शबरवैद्य ने कहा- 'कोई उपाय नहीं है, यह विषयलोलुप और पौरुषहीन है अतः यह (वेदना) तो थोड़ी-सी ही है, आगे तिर्यंच और नरक गतियों में और भी अधिक पीड़ा होगी; तथापि आप लोगों के अनुरोध से एक बार पुनः चिकित्सा करता हूँ। यदि वह मेरे साथ भ्रमण करना स्वीकार करे तो।' इन लोगों ने स्वीकार कर लिया और अर्हद्दत्त से कहा। यह क्षुभित हुआ, तथापि अन्य क्या उपाय है ? ऐसा सोचकर इसने अंगीकार कर लिया। शबरवैद्य को लाया गया। उसने कहा-'भद्र, उत्कृष्ट उपाय है, अतः (आपको) ठीक हो जाना चाहिए; किन्तु जो मैं करता हूँ वही तुम्हें करना होगा और मुझे नहीं छोड़ना होगा।' अर्हद्दत्त ने स्वीकार कर लिया। इसकी चिकित्सा की गयी । लोगों ने कहा १. आभोइर्य-क । २. दिव-ख। ३. तेण-क। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो भवो] ५४३ चेट्रियं करिस्ससि'। समप्पिओ मे गोणत्तओ। निग्गया नयरीओ, गया य गामंतरं । कया देवेण माया। दिट्ठच हि धूमधयारियं नहयलं, सुओ हाहारवभिणो 'वंसफुट्टणसहो, पुलइया दिट्ठिदुक्खया जालावली । विन्नायं य हि, जहा पलित्तो एस गामो त्ति। तओ विज्झवणनिमित्तं घेत्तूण तगभारयं धाविओ देवो। भणिओ य णं-भो कि तणभारएणं पलित्तं विज्झविज्जइ । देवेण भणियं-किमेत्तियं वियाणासि। तेण भणियं-कहं न याणामि । देवेण भणियं-जइ जाणसि, ता कहमन्नाणपव गसंधुक्कियं अणेगदेहिंधणं कोहाइसंपलितं गहियदेहिंधणो पुणो वि गिहवासं पविससि । ठिओ तुहिक्को, न संबद्धो य। गया कंधि भूमिभाग। पयट्टो देवो तिखकंटयाउलेणं अटविमग्गेणं । इयरेण भणियं-भ fr पुण तुमं पंथं मोतूण अडविं पविससि । देवेण भणियं-किमेत्तियं जाणा । तेण भणियं-कही न याणामि । देवेण भणियं-जइ जाणसि, ता कहं मोखमगं मोत्तूण अणेगवसणसाव्यसंकलं संसारावि पविससि । ठिओ तुहिय को न संबुद्धो य । गया कंचि भूमिभागं। आवासिया गाममपि कुपुरुषचेष्टितं करिष्यसि । समर्पितस्तस्य गोणत्रिकः । निर्गतौ नगर्याः, गतौ च ग्रामान्तरम् । कृता देवेन माया । दृष्टं च ताभ्यां धूमान्धकारितं नभस्तलम् । श्रुतो हाहारवगभितः वंशस्फुट्टनशब्दः, दृष्टा दृष्टिदुःखदा ज्वालावलिः । विज्ञातं च ताभ्याम, यथा प्रदीप्त एष ग्राम इति । ततो विध्यापननिमित्तं गृहीत्वा तृणभारकं धावितो देवः । भणितश्च तेन-भोः किं तृणभारकेण प्रदीप्तं विध्याप्यते। देवेन भणितम्-किमेतावद् विजानासि ? तेन भणितम्-कथं न जानामि ? देवेन भणितम् - यदि जानासि ततः कथमज्ञानपवनसन्धुक्षितमनेकदेहेन्धनं क्रोधादिसम्प्रदीप्तं गृहीतदेहेन्धनः पुनरपि गहवासं प्रविशसि ? स्थितः तूष्णिकः, न सम्बुद्धश्च । ___ गतौ कञ्चिद् भूमिभागम् । प्रवृत्तो देवः तीक्ष्णकण्टकाकुलेनाटवीमार्गेण । इतरेण भणितम्-भोः किं पुनस्त्वं पन्थानं मुक्त्वाऽटवीं प्रविशसि ? देवेन भणितम्-किमेतावद् जानासि ? तेन भणितम्कथं न जानामि ? देवेन भणितम् --यदि जानासि, ततः कथं मोक्षमार्ग मुक्त्वाऽनेकव्यसनश्वापदसंकूला संसाराटवीं प्रविशसि? स्थितः तूष्णिकः, न सम्बुद्धश्च । गतौ कञ्चिद् भूमि भागम् । आवासितो 'हे सार्थवाहपुत्र ! पुन: बुरे पुरुष के समान आचरण मत करना।' उसको तीन बैल समर्पित कर दिये । नगरी से निकले, दूसरे ग्राम को गये । देव ने माया की। उन दोनों ने धुएं से अन्धकारित (काले-काले) आकाश को देखा। हा हा शब्द जिसमें गभित था, ऐसे बांसों के फूटने से होनेवाले शब्द को सुना। नेत्रों को दुःख देने वाली ज्वाला पंक्ति दिखाई दी। उन दोनों ने जाना कि गाँव जल रहा है । तब तृणों के ढेर को लेकर देव बुझाने के लिए दौड़ा । उसने (अर्हद्दत्त ने) कहा—'क्या तृणों के समूह से अग्नि की ज्वाला बुझायी जाती है ?' देव ने कहा'यदि जानते हो तो अज्ञानरूपी पवन के द्वारा, जिसमें अनेक देहरूपी ईंधन झोंके गये हैं, क्रोधादि से जलते हुए देह रूप ईधन को धारण कर क्यों पुनः गृहस्थाश्रम में प्रवेश करते हो?' (अर्हद्दत्त) चुप रहा, बोधि को प्राप्त नहीं हुआ। दोनों कुछ दूर गये । देव तीक्ष्ण काँटों से व्याप्त जंगल के मार्ग से प्रविष्ट हुआ । दूसरे (अर्हद्दत्त) ने कहा'अरे ! क्यों रास्ते को छोड़ कर जंगल में प्रवेश करते हो ?' देव ने कहा-'क्या इतना जानते हो ?' उसने कहा'क्यों नहीं जानता हूँ ?' देव ने कहा-'यदि जानते हो तो मोक्षमार्ग छोड़कर क्यों अनेक व्यसनरूपी हिंसक पशुओं से व्याप्त संसाररूप वन में भ्रमण (प्रवेश) करते हो ?' (यह) चुप रहा, जागृत नहीं हुआ। दोनों कुछ दूर गये । गांव १. करेजसु ति - क । २. वंसफुडण-के । ३, धणिय - * । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइच्चकहा देवउले । तत्थ पुग वाण मंतरो लोएण अच्चिज्जमाणो हेटामहो पडइ; पुणो विठविओ, पुणो वि पडइ। तेण भणियं-अहो वाणमंतरस्स अहन्नया, जो अच्चिओ उवरिहत्तो य कओ हेढामहो पडइ । देवेण भणियं-किम वियाणसि । तेण भणियं - किमत्थ जाणियव्वं । देवेण भणियं-जइ एवं, ता कीस तुमं अच्चणिज्जटाणे देवगइसिद्धिगईओ पडच्च उवरिहुत्तो वि किज्जमाणो परिणामदारुणगिहवासपवज्जणेगं निरयगइतिरियगइगमणभावओ हेट्ठामहो पडसि । ठिओ तुण्हिवको, न संबद्धोय।। ___ गया कंचि भूमिभागं । दिट्ठो य नाणापयारे कणियकुंडए चइऊण अच्चतदुरहिगंधअसुइयं भुंजमाणओ सुयरो। तेण भणिय - अहो अविवेगो सूयरस्स, जो कणियकुंडए चइऊण असुइयं भंजइ ति । देवेण भणियं-किमेत्ति यं वियागसि । तेण भणियं-किमेत्थ वियाणियन्वं । देवेण भणि-जइ एवं, ता कोस तुमं अच्चंतसुहरूवं समणतण चइऊग असुइए विसए बहु मन्नसि ति। ठिओ तुण्हिक्को न संबुद्धो य। गया थेवं भूमिभागं। कया देवेण माया। दिट्ठो य हिं छेत्तरोवारियाद्रदेसट्टियविमुक्कग्रामदेवकुले । तत्र पुनर्वानमन्तरो लोकेनाय॑मानोऽधोमुखः पतति, पुनरपि स्थापितः पुनरपि पतति । तेन भणितम-अहो वानमन्तरस्याधन्यता, योचित (उवरिहुत्तो दे०) ऊर्वाभिमुखश्च कृतोऽधोमुखः पतति । देवेन भणितम्-किमेतद् विजानासि ? तेन भणितम् - किमत्र ज्ञातव्यम् ? देवेन भणितम्यद्येवं ततः कस्मात्त्वमर्चनीयस्थाने देवगतिसिद्धिगती प्रतीत्य ऊर्ध्वाभिमुखोऽपि क्रियमाणः परिणामदारुणगृहवासप्रपदनेन निरयगतितिर्यग्गतिगमनभावतोऽधोमुखः पतसि?स्थितः तूष्णिको न सम्बुद्धश्च। ___गतौ कञ्चिद् भूमिभागम् । दृष्टश्च नानाप्रकारान् कणिककुण्डान् त्यवत्वाऽत्यन्तदुरभिगन्धाशुचिकं भुजानः सूकरः । तेन भणितम् - अहो अविवेकः सूकरस्य, यः कणिककुण्डान् त्यक्त्वाऽशुचिकं भुङ क्ते इति । देवेन भणितम्- किमेतावद् विजानासि ? तेन भणितम्-किमत्र विज्ञातव्यम् ? देवेन भणितम् -- यद्येवं ततः कस्मात्त्वमत्यन्तसुखरूपं श्रमणत्वं त्यक्त्वाऽशु चिकान् विषयान् बहु मन्यसे इति । स्थितस्तूष्णीकः, न सम्बुद्धश्च । * गतौ स्तोकं भूमिभागम् । कृता देवेन माया। दृष्टश्च ताभ्यां क्षेत्रान्तर- (ओवारिय दे०) के मन्दिर में ठहरे । वहाँ देखा कि लोगों के द्वारा पूजित वानमन्तर (व्यन्तर देव) अधोमुख हो नीचे गिरता है, फिर से रखा जाता है, फिर से गिरता है । उसने (अर्हद्दत्त ने) कहा—'अरे व्यन्तरदेव की अधन्यता, जो पूजित होकर ऊर्ध्वमुख स्थापित किया जाने पर भी अधोमुख हो नीचे गिर पड़ता है।' देव ने कहा - 'क्या यह जानते हो?' उसने कहा-'यहाँ जानने योग्य बात ही क्या है ?' देव ने कहा-'यदि ऐसा है तो तुम क्यों देवगति और सिद्धगति नामक पूजनीय स्थान पर पहुंचाने के लिए ऊर्ध्वमुख किये जाने पर भी जिसका फल कठोर है ऐसे गृहवास में जाकर नरकगति और तियं चगति में जाने के भाव से नीचे की ओर गिरते हो ?' (यह) चुप रहा, जागृत नहीं हुआ। दोनों थोड़ी दूर गये। देखा कि अनेक प्रकार के धान्य से भरे हुए कुण्डों को छोड़कर सूकर अत्यन्त दुर्गन्धयुक्त, अपवित्र पदार्थों का भक्षण कर रहा है । उसने कहा- 'अरे सूकर की अविवेकता देखो, जो कि अनाज से भरे हुए कुण्डों को छोड़कर अपवित्र पदार्थों का भक्षण कर रहा है।' देव ने कहा-'क्या इतना जानते हो?' उसने कहा-'इसमें जानने योग्य बात ही क्या है ?' देव ने कहा-'यदि ऐसा है तो तुम क्यों अत्यन्त सुखरूप मुनिधर्म (श्रमणत्व) का त्याग करके अपवित्र विषयों को अधिक आदर देते हो ?' वह चुप रहा, प्रबुद्ध नहीं हुआ। कुछ दूर गये । देव ने माया की। उन दोनों ने देखा कि दूसरे स्थान पर ढेर लगाये हुए तृणसमूह को छोड़ कर Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ8ो भवो] ५४५ जंज मयचारी सुक्ककवतडेक्कदेससंजायदुरुत्वापवाललवबद्धाहिलासो तन्निमित्तमेव अभवसाएणं क्वपडणेणं अणासाइऊण दुरुत्वापवाललवं विसमपडिकवेक्कदेसेसु संचुण्णि यंगोवंगो बइल्लो त्ति। तं च दठ्ठणं भणियं अरहदत्तण -अहो मुढया बइल्लस्स. जेण मोत्तण जंजमयचारि कववडतडसंठियं दुरुव्वालवमहिलसंतो तत्थेव पडिओ। देवेण भणियं-किमेत्तियं वियाणसि। तेण भणि-कह न याणामि। देवेण भणियं-जइ जाणसि, ता कहं छेत्तरोवारि जूंजमयचारिकप्पं महंत सुरसोक्खमुज्झिय दुरुव्वापवाललवतुल्ले तुच्छे माणससोक्खम्मि बद्धाहिलासो पाडेसि अप्पाणयं सुक्ककवसरिसीए दोग्गईए त्ति। एयमायण्णिऊण वियलिओ से कम्मरासी । चितियं च णे गं । अहो अमाणुसो एसो। कहमन्नहा एवं वाह'इ । सोहणं च एयं । भाया वि मे एवं चेव कहियव्वं ति। ता पुच्छामि 'ताव, को उण एत्य परमत्थो ति। पुच्छिओ य-भो को उण तुमं असोयदत्तो विय मम वच्छलो त्ति। देवेण भणियं-परियायतरगओ सो चेव असोयदत्तो म्हि । इयरेण भणियं-को पच्चओ। देवेण भणियंराणीकृतादूरदेशस्थितविमुक्तजुजुमयचारिः शुष्ककूपतटैकदेशसञ्जातदूर्वाप्रवाललवबद्धाभिलाषस्तन्निमित्तमेवाध्यवसायेन कूपपतनेनासाद्य दूर्वाप्रवाललवं विषमप्रतिकूपैकदेशेषु सञ्चूणिताङ्गोपाङ्गो बलीवई इति । तं च दृष्टवा भणितमर्हहत्तेन--अहो मूढता बलीवईस्य, येन मुक्त्वा जुञ्जमयचारि कूपावटतटसंस्थितं दुर्वालवमभिलषन् तत्रैव पतितः । देवेन भणितम्-किमेतावद् विजानासि ? तेन भणितम् -कथं न जानामि ? देवेन भणितम् - यदि जानासि ततः कथं क्षेत्रान्तरराशीकृत(ओवारियं दे. राशीकृतम्) जुञ्जमयचारिकल्पं महत् सुरसौख्यमुज्झित्वा दूर्वाप्रवाललवतुल्ये तुच्छ मानुषसौख्ये बद्धाभिलाषः पातयस्यात्मानं शुष्क पसदृश्यां दुर्गत्यामिति । ... एतदाकर्ण्य विचलितस्तस्य कर्मराशिः । चिन्तितं च तेन-अहो अमानुष एषः, कथमन्यथैवं व्याहरति । शोभनं चैतद् । भ्रात्राऽपि मे एवमेव कथयितव्यमिति । ततः पृच्छामि तावत्, कः पुनरत्र परमार्थ इति । पृष्टश्च-भोः ! कः पुनस्त्वमशोकदत्त इव मम वत्सल इति । देवेन भणितम् --- पर्यायान्तरगतः स एवाशोकदत्तोऽस्मि । इतरेण भणितम् - कः प्रत्ययः । देवेन भणितम् - त्वया मया हर के किनारे के एक स्थान पर लगी हई सखी दब के समह की अभिलाषा कर, उसी के लिए प्रयत्न करता हुआ दूर्वाकार लटके हुए थोड़े से भाग को प्राप्त करते समय एक बैल कुएं में गिर पड़ा और उसके अंगोपांग टूट गये। उसे देखकर अर्हद्दत्त ने कहा - 'अरे यह बैल कितना मूर्ख है जो कि एकत्रित तृणराशि को छोड़कर कुएँ के किनारे लगी हुई दूब की इच्छा करता हुआ उसी में गिर गया।' देव ने कहा-'क्या इतना जानते हो ?' उसने कहा-'क्यों नहीं जानता हूँ ?' देव ने कहा—'यदि जानते हो तो दूसरे स्थान पर एकत्रित तृणसमूह के सदृश बहुत बड़े स्वर्गसुख को छोड़कर दूब के सदृश मनुष्य-सुख की अभिलाषा में बद्ध हुए अपने आपको दुर्गति रूप शुष्कका में क्यों गिराते हो?' यह सुनकर उसकी कर्म राशि विचलित हो गयी। उसने सोचा-यह दिव्य है, कैसे दूसरे रूप में इस प्रकार कह रहा है। यह सुन्दर है। मेरा भाई भी ऐसा ही कहता, अतः पूछता हूँ (तुम) यथार्थतः कौन हो ? पूछाअशोकदत्त के समान मुझसे स्नेह करने वाले तुम कौन हो?' देव ने कहा-'दूसरी गति में गया हुआ वही मैं अशोकदत्त हूँ ।' अर्ह हत्त ने कहा---'क्या विश्वास है ?' देव ने कहा- 'तुम्हें और मुझे प्रतिबोधित करने में जो कारण थे १. गाव-ख। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइच्चकहा तुमए मए त पडिबोहनिमित्तं आसि जहा वेयड्ढपन्बए कुंडलजुवलयं ठवियं, ता तं चेव' दंसेमि त्ति; किमन्नेग पच्चएगेति । पडिस्सुयमगं। तओ दिव्वरूवेग होऊणं नीओ वेयड्ढपव्वयं, दंसियं से सिद्धाययणकडम्मि रयणावयंसयं कुंडलजुवलयं । तं चैव पेश्खिऊण विचित्तयाए कम्मपरिणामस्स समप्पन्न जाईसरणं । पडिबुद्धो एसो, पव्वइओ य भावओ। खामिओ देवेणं । गओ देवो। ताणं च अहयं, भो धरण, पुरोहियकुमारो त्ति। ता न एवं, देवाणुप्पिया, अणब्भत्थकुसलमूलाणं विराहयाणं च बुद्धी हवइ, न य अविरायाणं विणिज्जियमहामोहसत्तूणं अणुटाणं न निव्वहइ, न य इमाओ अन्नं सुंदरयरं ति । ता समीहियसंपायणेण करेहि सफलं मणुयत्तणं । धरणेण भणियं - जं भयवं आणवेइ, कि तु साहेमि जणणिजणयाणमेयवइयरं, कयाइ संबुज्झति ति । भयवया भणियंजुत्तमेयं । तओ पडिबुद्धवयंसयसमेओ पविट्ठो नरि। कहिओ य ण जणणिजणयाण वइयरो। पडिबुद्धा य एए। सलाहिओ गिहासमपरिच्चाओ। कयं उचियकरणिज्जं। पवन्नो जहाविहीए सह जणणिजणएहि वयंसएहि य अरहदत्तगुरुसमीवे समणत्तणं । च प्रतिबोधनिमित्तमासीद् यथा वैताढयपर्वते कुण्डलयुगलं स्थापितम्, ततस्तदेव दर्शयामीति, किमन्येन प्रत्ययेनेति । प्रतिश्रुतमनेन । ततो दिव्यरूपेण भूत्वा नीतो वैताढयपर्वतम्, दर्शितं तस्य सिद्धायतनकूटे रत्नावतंसकं कुण्डलयुगलम् । तदेव प्रेक्ष्य विचित्रतया कर्मपरिणामस्य समुत्पन्न जातिस्मरणम । प्रतिबुद्ध एषः । प्रवजितश्च भावतः, क्षामितो देवेन । गतो देवः ।। तेषां चाहं भो धरण ! पुरोहितकुमार इति । ततो नैवं देवानुप्रिय ! अनभ्यस्तकुशलमूलानां विराधकानां च बुद्धिर्भवति । न चाविराधकानां विनिजितमहामोहशत्रूणामनुष्ठानं न निर्वहति, न चास्मादन्यत् सुन्दरतरमिति । तत: समीहितसम्पादनेन कुरु सफलं मनुजत्वम् । धरणेन भणितम्-यद् भगवानाज्ञापयति, किन्तु कथयामि जननीजनकयोरेतद्व्यतिकरम्, कदाचित् सम्भोत्स्येते इति । भगवता भणितम्-युक्तमेतद् । ततः प्रतिबुद्धवयस्यसमेतः प्रविष्टो नगरीम् । कथितश्च तेन जननीजनकयोर्व्यतिकरः । प्रतिबुद्धो चैतौ । श्लाघितो गृहाश्रमपरित्यागः । कृतमुचितकरणीयम्। प्रपन्नो यथाविधि स ह जननीजनकाभ्यां वयस्यैश्चार्हद्दत्तगुरुसमीपे श्रमणत्वम् । वैताढ्यपर्वत पर वे कुण्डल स्थापित किये थे। अत: वही दिखलाता हूँ, अन्य विश्वास दिलाने से क्या (लाभ) ? इसने अंगीकार किया। तब दिव्य रूप धारण कर (देव) वैताढ्यपर्वत पर ले गया और सिद्धायतन कूट पर कानों के आभूषण कुण्डल के जोड़े को दिखाया। उसे देखकर कर्मों के परिणाम की विचित्रता से (उसे) जातिस्मरण हो गया । वह जागा । भावपूर्वक दीक्षा धारण कर ली। देव से क्षमा मांगी। देव चला गया। _हे धरण ! मैं उनका पुरोहित कुमार हूँ। अतः हे देवानुप्रिय ! जिनका सत्कर्म का अभ्यास नहीं है, जो दूसरे का अपकार करते हैं, उसकी ऐसी बुद्धि नहीं होती है । जो दूसरे का अपकार नहीं करते हैं, जिन्होंने महामोह शत्रुओं का जीत लिया है उनका कार्य पूरा न हो-ऐसा नहीं है और इससे अधिक सुन्दर बात नहीं अतः इष्टकार्य का सम्पादन कर मनुष्य जन्म को सफल करो।' धरण ने कहा-'जो भगवान आज्ञा दें, किन्त इस सम्बन्ध में मैं माता-पिता से कहूंगा, कदाचित् ये दोनों भी जागृत हो जायँ ।' भगवान ने कहा-'यह ठीक है। अनन्तर जागत हआ, मित्र सहित नगरी में प्रवेश किया। उसने माता-पिता से इस सम्बन्ध में कहा । ये दोनों प्रतिबद्ध हए । गहाश्रम का परित्याग करने की प्रशंसा की। योग्य कार्यों को किया। विधि-पूर्वक माता-पिता और मित्रों के साथ अर्हद्दत्त ने गुरु के समीप मुनिदीक्षा धारण कर ली। 1. तं चेव पच्चयनिमित्त तव दंसेमि-। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४७ छट्ठो भवो ] अइक्कन्तो कोइ कालो । अहिज्जियं सुत्तं, आसेविमो किरियाकलावो । संपत्तो एगल्लविहारपडिमापडिवत्तिजोग्गयं । समुप्पन्ना से इच्छा । पुच्छ्यिा य गेण गुरवो, 'उचिओ' त्ति कलिऊण अणुजाणिओ य हिं। भावियाओ भाषणाओ। पडिवन्नो एगल्लविहारपडिमं। गामे एगराएण नगरे पंचराएण य विहरमाणो समागओ तामलित्ति । ठिओ पडिमाए। ___ इओ य सा लच्छी देवउरनिवासिया गवेसाविया सुवयणेण, दिट्ठा य नंदिवद्धगाभिहाणसन्निवेसे, घडिया य णेणं । तओ सो तं गहेऊण गओ निययदीवं ।। अइक्कन्तो कोइ कालो। पुणो आगओ तामलिति । ठिओ बाहिरियाए । दिट्ठो य सो रिसी उज्जाणमवगयाए कहवि लच्छीए, पच्चभिन्नाओ य णाए। तओ गरुययाए कम्मपरिणामस्स' वियंभिओ से कोवाणलो। आहया विय वज्जेणं । चितियं च णाए। अहो मे पावपरिणई, पुणो वि एसो दिट्टो त्ति । ता इमं एत्थ पत्तयालं। ठवेमि एयस्स समीवे छिन्नकंकणं कंाहरणं, 'अहो मद्रा मुटु' ति करेमि कोलाहलं। तओ विवितयाए उज्जागस्स दरिस गेग कंठाहरणस्स संभावियचोरभावो अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । अधीतं सूत्रम् । आसेवितः क्रियाकलापः । सम्प्राप्त एकाकि विहारप्रतिमाप्रतिपत्तियोग्यताम् । समुत्पन्ना तस्येच्छा, पृष्टाश्च तेन गुरवः । 'उचितः' इति कलयित्वाऽनुज्ञातश्च तैः । भाविता भावनाः । प्रतिपन्न एकाकिविहारप्रतिमाम् । ग्रामे एकरात्रेण नगरे पञ्चरात्रेण विहरन् समागतस्ताम्रलिप्तीम् । स्थितः प्रतिमया। इतश्च सा लक्ष्मीर्देवपुरनिर्वासिता गवेषिता सुवदनेन । दृष्टाश्च नन्दीवर्धनाभिधानसन्निवेशे, घटिता च तेन । ततः स तां गृहीत्वा गतो निजद्वीपम् । अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । पुनरागतस्ताम्रलिप्तीम् । स्थितो बाह्यायाम् । दृष्टश्च स ऋषिरुद्यानमुपगतया कथमपि लक्ष्म्या, प्रत्यभिज्ञातश्च तया । ततो गुरुकतया कर्मपरिणामस्य विजृम्भितस्तस्य कोपानलः । आहतेव वज्रेण । चिन्तितं च तया-अहो मे पापपरिणतिः, पुनरप्येष दृष्ट इति । तत इदमत्र प्राप्तकालम् । स्थापयाम्येतस्य समीपे छिन्नकङ्कणं कण्ठाभरणम्, 'अहो मुषिता मुषिता' इति करोमि कोलाहलम् । ततो विविक्ततयोद्यानस्य दर्शनेन कण्ठाभरणस्य सम्भावितचौरभावश्चण्ड कुछ समय बीत गया । सूत्र का अध्ययन किया। क्रियाओं के समूह का सेवन किया। अकेले विहार करने योग्य ज्ञान प्राप्त किया। उसकी (अकेले विहार करने की) इच्छा उत्पन्न हुई । उचित है, ऐसा मानकर उन्होंने (गुरु ने) आज्ञा प्रदान कर दी । भावनाओं का चिन्तन किया। एकाकी विहार करना आरम्भ किया । ग्राम में एक रात्रि और नगर में पांच रात्रि रहकर विहार करते हुए ताम्रलिप्ती पहुँचे । प्रतिमा रूप में स्थित हो गये । इधर देवपुर से निर्वासित उस लक्ष्मी को सुवदन ने ढूंढा । (वह) नन्दिवर्द्धन नाम के सन्निवेश में दिखाई दी, और उसके साथ हुई । तदनन्तर वह उसे लेकर अपने द्वीप चला गया। कुछ समय बीत गया । पुनः ताम्रलिप्ती आये । बाहर ही ठहर गये। उद्यान में आये हुए उस ऋषि को किसी प्रकार लक्ष्मी ने देख लिया और उसने पहिचान लिया । तब कर्मों के परिणाम की प्रबलता से उसकी क्रोधाग्नि प्रज्वलित हुई, वह मानो वज्र से आहत हुई । उसने सोचा - अरे मेरे पाप की परिणति, यह पुनः दिखाई दिया। अत: यह यहाँ काल प्राप्त हो गया। इसके समीप में जिसका कंकण टूटा हुआ है, ऐसे कण्ठाभरण को रख देती हूँ। हे जनो, 'मेरा सर्वस्व चला गया, सर्वस्व चला गया' इस प्रकार कोलाहल करती हूँ। तब उद्यान सूना होने के कारण, कण्ठाभर के दिखाई दे जाने पर चौरकार्य की सम्भावना कर चण्डशासन राजा १. पावकम्मस्स-का Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइच्चकहो चंडसासणेग राइणा वावाइज्जिस्सइ ति। गहिया य सुर भिक्खुरूवधारिणो सलोत्ता चेव तक्करा वावाइया य । ता लिगिणो वि चोरियं करेंति' समुप्पन्ना पसिद्धि ति। चितिऊण संपाडियमिमीए। धाविया आरक्खिया, गहिओ सो रिसो । बोल्लाविओ तेहि य जाव न जंपइ त्ति, गवेसियं कंठाहरणं; दिट्टच नाइदूरे। तओ 'छिन्नकंकणं' ति सहाविया नयरिजणवया। साहियं नरवइस्स । 'अहो अउवो तक्करो' त्ति विम्हिओ राया । भणियं च णणं-निरूविऊण वावाएह ति। पुच्छिओ दंडवासिएहिं । जाव न जंपइ ति, तओ 'अहो से कवडवेसो' त्ति अहिययरं कुविहिं पाविओ वज्झथाम ति । निहया सूलिया। उक्खितो मुणिवरो : आघोसियं चंडालेणं-भो भो नायरया, एएण समणवेसधारिणा परदव्वावहारो कओ त्ति वावाइज्जइ एसो; ता अन्नो वि जइ परदवावहारं करिस्सइ, तं पि राया सुतिक्खणं दंडेण एवं चेव वावाइस्सइ त्ति । भणिऊण मुक्को यसो भयवं चंडालेहिमवरि सूलियाए। तवप्पहावेण धरणितलमुवगया सूलिया, न विद्धो खु अहासन्निहियदेवयानिओएणं, निवडिया कुसुमवुद्धी । 'जयइ भयवं धम्मो ति उट्ठाइओ' कलयलो । साहियं नरवइस्स । संजायपमोओ शासनेन राज्ञा व्यापादयिष्यते इति । गृहीताश्च श्वो भिक्षुरूपधारिणः सलोत्रा एव तस्करा व्यापादिताश्च । ततो 'लिङ्गिनोऽपि चौर्यं कुर्वन्ति' समुत्पन्ना प्रसिद्धिरिति । चिन्तयित्वा सम्पादितमनया । धाविता आरक्षकाः, गृहीतः स ऋषिः । वादितश्च तेश्च यावन्न जल्पतीति, गवेषितं कण्ठाभरणम्, दृष्टं च नातिदूरे । तत: “छिन्नकङ्कणम्' इति शब्दायिता नगरीजनवजाः । कथितं नरपतये । 'अहो अपूर्वः तस्करः' इति विस्मितो राजा । भणितं च तेन - निरूप्य व्यापादयतेति । पृष्टो दण्डपाशिकः, यावन्न जल्पतीति । ततः 'अहो तस्य कपटवेशः' इति अधिकतरं कुपितैः प्रापितो वध्यस्थानमिति । निहता शलिका उत्क्षिप्तो मनिवरः । आघोषितं चाण्डालेन - भो भो नागरा! एतेन श्रमणवेषधारिणा परद्रव्यापहारः कृत इति व्यापाद्यते एषः, ततोऽन्योऽपि यदि परद्रव्यापहारं करिष्यति तमपि राजा सुतीक्ष्णेन दण्डेन एवमेव व्यापादयिष्यति इति । भणित्वा मुक्तश्च स भगवान् चाण्डालरुपरि शूलिकायाम् । तपःप्रभावेण धरणीतलमुपगता शूलिका, न विद्धः खलु यथासन्निहितदेवतानियोगेन, निपतिता कुसुमवृष्टि: । 'जयति भगवान् धर्मः' इत्युत्थितः कलकलः । कथितं नरपतये । सञ्जात द्वारा मारा जाएगा। कल भिक्षुरूपधारी चोर चोरी से माल के साथ पकड़े गये और मारे गये। अतः श्रमण वेषधारी भी चोरी करते हैं - ऐसी प्रसिद्धि है--- इस प्रकार सोचकर वह चिल्लायी। सिपाही दौड़े और उस ऋषि को पकड़ लिया। उन लोगों ने उनसे पूछा, किन्तु वे नहीं बोले। कण्ठाभरण को खोजा गया, समीप में ही दिखाई पड़ा । तब 'कंकण टूटा हुआ है'-ऐसा नगर के लोगों ने शब्द किया। राजा से कहा गया-अहो ! (यह) अपूर्व चोर है'-इस प्रकार राजा विस्मित हुआ। उसने कहा-'पूछताछ कर मार डालो। सैनिकों ने पूछा, कोई उत्तर नहीं मिला। तब 'अरे इसका कपट वेश'-इस प्रकार अत्यधिक कुपित होकर वध्यस्थान में पहुंचा दिया गया। शली गाडी, मुनिराज को ऊँचा किया। चाण्डाल ने घोषणा की—'हे हे नगरवासियो ! इस श्रमणवेष धारी ने दूसरे के द्रव्य का अपहरण किया अतः यह मारा जाता है, जो कोई दूसरा भी व्यक्ति दूसरे के दव्य का अपहरण करेगा, उसे भी राजा सुतीक्ष्ण दण्ड से इसी प्रकार मार डालेगा' ऐसा कहकर उसने भगवान को शली के ऊपर छोड़ दिया। तप के प्रभाव से शली पृथ्वी पर आ गयी। समीपवर्ती देवता के कारण उसने मुनिराज को नहीं बेधा, फूलों की वर्षा हुई । 'भगवान् का धर्म जयशील हो'- इस १ उद्धाइयो-क-ख। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो भवो] ५४६ य आगओ राया। वंदिओ णेग भयवं। पुच्छिओ विम्हियमणेणं--भयवं, कहं पुण इमं वत्तं ति । न जंपियं भयवया । भणिणं मंतिणा- देव, वयविसेससंगओ खु एसो, कहमियाणि पि मंतइस्सइ। ता तं चेव सत्थवाहपरिणि सद्दावेऊण पुच्छेह । तओ पेसिया दंडवासिया। जणरवाओ' इमं वइयरं आयण्णिऊण पलाणा एसा, न दिट्ठा दंडवासिएहिं । निवेइयं च राइगो-देव, पलाणा खु एसा, न दोसए गेहमाइएसुं । भणियं च णेणं-अरे सम्मं गवेसिऊणं आणेह। गया दंडवासिया। गविट्ठा आरामसुन्नदेवउलाइएसु। न दिट्ठा एसा । दिट्ठो य कुओइ एयमायण्णिय एयवइयरेणेव पलायमाणो सुवयणो। गहिओ दंडवासिएहि, आणोओ नरवइसमीवं । निवेइयं राइणो- देव, नस्थि सा तामलित्तीए: एसो य किल तीए भत्तारो त्ति, दिट्ठो पलायमाणो गहिओ अम्हेहि; संपयं देवो पमाणं ति। निरूविओ सुवयणो, भणिओ य एतो-भद्द, कहिं ते घरिणि त्ति । तेण भणियं-देव, न जाणामि। राइणा भणियं - ता कीस तुमं पलाणो त्ति। सुक्यणेण भणियं -देव, भएण । राइगा भणियं -कुओ निरवराहस्स भयं । सुवयणेण भणियं-देव, प्रमोदश्चागतो राजा। वन्दितस्तेन भगवान् । पृष्टो विस्मितमनसा-भगवन् ! कथं पुनरिदं वृत्तमिति । न जल्लितं भगवता । भणितं मन्त्रिणा-देव ! व्रतविशेषसङ्गत: खल्वेषः, कथमिदानीमपि मन्त्रयिष्यते । ततस्तामेव सार्थवाहगृहिणीं शब्दापयित्वा पृच्छत। ततः प्रेषिता दण्डपाशिकाः। जनरवादिमं व्यतिकरमाकर्ण्य पलायितषा। न दृष्टा दण्डपाशिकैः । निवेदितं च राजे-देव ! पलायिता खल्वेषा, न दृश्यते गेहादिषु । भणितं च तेन-अरे सम्यग्गवेषयित्वाऽऽनयत । गता दण्डपाशिकाः । गवेषिताऽऽरामशून्यदेवकुलादिषु । न दृष्टैषा। दृष्टश्च कुतश्चिदेतदाकर्ण्य एतद्व्यतिकरेणैव पलायमानः सुवदनः । गृहीतो दण्डपाशिकः, आनीतो नरपतिसमीपम् । निवेदितं राजे–देव ! नास्ति सा ताम्रलिप्त्याम, एष च किल तस्या भर्तेति, दृष्टश्च पलायमानो गृहीतोऽस्माभिः, साम्प्रतं देवः प्रमाणमिति । निरूपितः सुवदनः भणितश्चैषः-भद्र ! कुत्र ते गृहिणीति । तेन भणितम् - देव ! न जानामि । राज्ञा भणितम्-तत: कस्मात्त्वं पलायित इति। सुवदनेन भणितम्-देव ! भयेन। राज्ञा भणितम्-कुतो निरपराधस्य भयम् ? सुवदनेन प्रकार का कोलाहल हुआ। राजा से कहा गया। आनन्दित होकर राजा आया। उसने भगवान् की वन्दना की। विस्मित मन से पूछा-'भगवन् ! यह घटना कैसे घटी ?' भगवान् नहीं बोले । मन्त्रियों ने कहा-'देव ! यह व्रतविशेष से युक्त हैं, अत: इस समय कैसे बतलाएँगे ? अतः उसी सार्थवाह की पत्नी को बुलाकर पूछते हैं।' ____ तब सिपाही भेजे गये । मनुष्यों के शब्दों से इस घटना को सुनकर यह भाग गयो। सिपाहियों को नहीं दिखाई पड़ी। राजा से निवेदन किया गया-'महाराज ! यह भाग गयी, घर आदि में नहीं दिखाई पड़ रही है।' राजा ने कहा - 'अरे अच्छी तरह से ढूंढकर लाओ।' सिपाही गये । उद्यानों और शून्य मन्दिरों आदि में ढूंढा । यह दिखाई नहीं दी। इसी घटना को सुनकर भागता हुआ सुवदन दिखाई पड़ा । सैनिकों ने पकड़ लिया, राजा के समीप लाये । राजा से निवेदन किया-'महाराज ! वह (स्त्री) ताम्रलिप्ती में नहीं है, यह उसका पति है, भागता हुआ दिखाई पड़ने के कारण हमने इसे पकड़ लिया, इस विषय में महाराज प्रमाण हैं।' राजा ने सुवदन को देखा और इससे पूछा-'भद्र ! तुम्हारी पत्नी कहाँ है ?' उसने कहा-'महाराज ! (मैं) नहीं जानता हूँ।' राजा ने कहा'तब तुम भागे क्यों ?' सुवदन ने कहा---'महाराज, भय से।' राजा ने कहा- 'निरपराध को भय कहाँ ?' सुवदन ने कहा- 'महाराज ! अपराध है।' राजा ने कहा-'क्या अपराध है !' सुवदन ने कहा-'महाराज ! १. सा य जण-क। २. 'मे समीवं' इत्यधिक:-के। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० [ सनराइचकहा अस्थि अवराहो । राइणा भणियं--को अवराहो । सुवयणेण भणियं - देव, तहाविहकलत्तसंगहो त्ति । राइणा भणियं-भो अभयमेव तुज्झ । ता साहेहि अवितह, को उण भयवओ तीए य वइयरोत्ति । निरूविओ सुवयणेण भयवं, पच्चभिन्नाओ य णेणं। तओ महापुरिसचरियविम्हयक्खित्तहियएणं बाहोल्ललोयणं जंपियमगणं-देव, अणाचिक्खणीओ वइयरो, ताण सक्कुणोमि आचिक्खिउं । राइणा भणियं-भद्द, ईइसो एस संसारो, किमेत्थ अपुव्वयं ति; ता साहेउ भद्दो। सुवयणेण भणियं-देव, जइ एवं, ता विवित्तमाइसउ देवो । तओ राइणा पुलोइओ परियणो ओसरिओ य । तओ धरणदंसणसंजायपच्छायावेण जंपियं सुवयणेणं- देव, पावकम्मो अहं पुरिससारमेओ, न उण पुरिसो ति। निवेइयं देवस्स-पुरिसो खु देव अकज्जायरणविरओ सच्चाहिसंधी कयन्नुओ परलोयभीरू परोवयारनिरओ य हवइ, जहा एस भयवं ति । राइणा भणियं-कहमेवंविहो पुरिससारमेओ हवइ ति, ता पत्थुयं भणसु । तओ साहिओ सुवयणेणं दीवदसणाइओ अट्ठसुवन्नलक्खपयाणपज्जवसाणो धरणवइयरो। तुट्ठो य से राया। मुक्को य ग सुवयगो । वदिऊण भयवंतं लज्जापराहीणयाए तुरियमेव भगितम्-देव ! अस्त्यपराधः । राज्ञा भणितम् - कोऽपराधः ? सुवदनेन भणितम् - देव ! तथाविधकलत्रसंग्रह इति । राज्ञा भणितम्-भो ! अभयमेव तव । ततः कथयावितथम्, कः पुनर्भगवतस्तस्याश्च व्यतिकर इति। निरूपितः सुवदनेन भगवान्, प्रत्यभिज्ञातश्च तेन । ततो महापुरुषचरितविस्मयाक्षिप्तहृदयेन बाष्पार्द्रलोचनं जल्पितमनेन-देव ! अनाख्यानीयो व्यतिकरः, ततो न शक्नोम्याख्यातुम् । राज्ञा भणितम्-भद्र ! ईदृश एष संसारः, किमत्रापूर्वमिति, ततः कथयतु भद्रः । सूवदनेन भणितम-देव ! यद्येवं ततो विविक्तमादिशत देवः । ततो राज्ञा दृष्ट: परिजनोऽपसृतश्च । ततो पण दर्शनसजातपश्चात्तापेन जल्पितं सुवदनेन - देव ! पापकर्माऽहं पुरुषसारमेयः, न पुनः पुरुष इति। निवेदितं देवाय-पूरुषः खलु देव ! अकार्याचरणविरतः सत्याभिसन्धिः कृतज्ञः परलोकभीरुः परोपकारनिरतश्च भवति, यथैष भगवानिति । राज्ञा भणि तम्-कथमेवंविधः पुरुषसारमेयो भवतीति, ततः प्रस्तुतं भण । तत: कथितः सुवदनेन द्वीपदर्शनादिकोऽष्टसुवर्णलक्षप्रदानपर्यवसानो धरणव्यतिकरः । तुष्टश्च तस्य राजा । मुक्तश्च तेन सुवदनः । वन्दित्वा भगवन्तं लज्जापराधीनतया त्वरितमेव गतः इस प्रकार की स्त्री का रखना (आराध है)।' राजा ने कहा-'तुम्हें अभय है। अतः सच कहो, भगवान का और उसका पारस्परिक सम्बन्ध क्या है ?' सुवदन ने भगवान् को देखा और पहिचान लिया । तब महापुरुष की चेष्टा के कारण आकृष्ट हृदय वाले इसने (सुवदन ने) आंखों में आंसू भरकर कहा-'देव ! सम्बन्ध न करने योग्य है, अतः सम्बन्ध के विषय में नहीं कहता हूँ।' राजा ने कहा-'भद्र ! यह संसार ऐसा ही है। यहाँ अपर्व क्या है ? अतः भद्र कहो।' सुवदन ने कहा-'देव ! यदि ऐसा है तो महाराज एकान्त स्थान की आज्ञा दें। तब राजा ने परिजनों को ओर देखा । (वे) चले गये। तब धरण को देखने के कारण जिसे पश्चात्ताप उत्पन्न हो रहा है, ऐसे सुवदन ने कहा --'महाराज ! मैं पापकर्म करनेवाला, मनुष्य के रूप में कुत्ता हूँ, मनुष्य नहीं है। महाराज ! अकार्य न करनेवाला, सत्यप्रतिज्ञ, कृतज्ञ, परलोक से डरने वाला तथा परोपकार में रत पुरुष है, जैसे ये भगवान हैं।' राजा ने पूछा-'इस प्रकार कैसे पुरुष के रूप में कुत्ता होता है ? ठीक-ठीक कहो !' तब सुवदन ने द्वीपदर्शन से लेकर आठ लाख सुवर्णप्रदान तक का धरण का सम्बन्ध सुनाया। उसके ऊपर राजा प्रसन्न हुआ। उसने सुवदन को छोड़ दिया। भगवान की वन्दना कर लज्जा से पराधीन हुआ सुवदन तुरन्त ही Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो भवो ] ५५१ गओ सुवणो । धरणाणुराएणय अज्जमंगुसमीवे सोऊण धम्मं परियाणिऊण मिच्छतं पच्छायावाणलदड्ढकम्मणो पवन्नो समणत्तणं । राया वि पूइऊण भयवंतं पविट्ठो नर्यार । । लच्छी वि महाभयाभिभूया पलाइऊण तामलित्तोओ अवहरियवसणालंकारा तक्करेहिं जाममत्ता सव्वरी पत्ता कुसत्यलाभिहाणं सन्निवेसं । तत्थ पुत्र होए चेव रयणीए पारद्धं पुरोहिएणं रायमहिसीए सव्वविग्घविधाययं चरुकम्मं । पज्जालिओ सन्निवे बाहिरियाए च उप्पहथंडिलम्मि जलणो, विष्णा निसियकड्ढया सिणो दिसावाला, समारोविओ नहभिन्नतं दुलसमेओ चरू, पत्थुओ मंतजावो एत्यंत रम्मि जलं तमवलोइऊण सत्यो, भस्सिइ त्ति' आगया लच्छी, सिवारावसमणंतरं च दिट्ठा दिसावाहि । पेच्छिऊण 'अहो एसा सा रक्खति' त्ति भीया य एए, मुक्काई मंडलग्गाई, थंभिया ऊरुया, पयंपियाओ भुयाओ, विमुक्का विय जीविएणं निर्वाडिया धरणिवट्टे । एत्थंतरम्मि 'भो भो मा बीहसु, इथिया अहं' ति भणमाणो समागया पुरोहियसमीवं । दिट्ठा विगयवसणा । तओ पोरुसमवलंबिऊण ' रक्खसी एस' त्ति केसेसु गहिया अणेणं । 'अरे मा बीहसु' त्ति विबोहिया दिसावाला । उट्टिया य 134561 सुवदनः । धरणानुरागेण च आर्यमङ्गुसमीपे श्रुत्वा धर्मं परिज्ञाय मिथ्यात्वं पश्चादनुतापानलदग्धकर्मेन्धनः प्रपन्नः श्रमणत्वम् । राजापि पूजयित्वा भगवन्तं प्रविष्टो नगरीम् । लक्ष्मीरपि महाभयाभिभूता पलाय्य ताम्रलिप्त्या अपहृतवसनालङ्कारास्तस्करैर्याममात्रायां शर्वर्यां प्राप्ता कुशस्थलाभिधानं सन्निवेशम् । तत्र पुनस्तस्यामेव रजन्यां प्रारब्धं पुरोहितेन राजमहिष्याः सर्वविघ्नविघातकं चस्कर्म । प्रज्वालितः सन्निवेशबाह्यायां चतुष्पथस्थण्डिले ज्वलन:, वितीर्णा निशितकृष्टासयो दिक्पालाः, समारोपितो नखभिन्नतन्दुलसमेतश्चरुः, प्रस्तुतो मन्त्रजापः । अत्रान्तरे ज्वलन्तमवलोक्य 'सार्थो भविष्यति' इत्यागता लक्ष्मीः । शिवारावसमनन्तरं च दृष्टा दिक्पालैः । प्रेक्ष्य 'अहो एषा सा राक्षसी' इति भीताश्चैते, मुक्तानि मण्डलाग्राणि, स्तम्भिता ऊरवः, प्रकम्पिता भुजाः । विमुक्ता इव जीवितेन निपतिता धरणीपृष्ठे । अत्रान्तरे 'भो भो ! मा बिभीत, स्त्री अहम्' इति भणन्ती समागता पुरोहितसमीपम् । दृष्टा विगतवसना । ततः पौरुषमवलम्ब्य 'राक्षसी एषा' इति केशेषु गृहीताऽनेन । 'अरे मा विभांत' इति विबोधिता दिवपालाः । उत्थिता चला गया । धरण के प्रति अनुराग के कारण आर्य मङ्गु के समीप धर्म सुनकर, मिथ्यात्व के विषय में जानकारी प्राप्त कर, पश्चात्ताप के कारण जिसके कर्मों का ईंधन दग्ध हो रहा था, ऐसा वह मुनि हो गया। राजा भी भगवान की पूजा कर नगरी में प्रविष्ट हुआ । लक्ष्मी भी भय से अभिभूत होकर ताम्रलिप्ती से प्रहरमात्र में भागकर रात्रि में कुशस्थल नामक सन्निवेश में पहुँची । उसके वसन अलंकार वगैरह चोरों ने अपहरण कर लिये थे । उसी रात्रि में राजमहिषी ने पुरोहित से समस्त विघ्नों को नष्ट करनेवाला यज्ञ प्रारम्भ कराया । सन्निवेश के बाहरी भाग में यज्ञ के लिए चौरस की हुई भूमि में अग्नि जलायी । दिशाओं की रक्षा करने वाले, तीक्ष्ण तलवारों से युक्त दिक्पालों को नियुक्त किया । नखों से तोड़े गये चावलों से युक्त पूजन सामग्री को चढ़ाया। मन्त्र जाप प्रारम्भ किया। इसी बीच अग्नि को देखकर सुवदन होगा - ऐसा सोचकर लक्ष्मी आई और शृगाली की आवाज के बाद दिक्पालों ने (उसे ) देखा । देखकर - 'अरे, यह वही राक्षसी है— इस प्रकार ये लोग भयभीत हो गये । तलवारों को छोड़ा, जंघाएँ स्तम्भित हो गवीं, भुजाएँ काँपने लगीं । मानो प्राण छूट गये हों, इस प्रकार जमीन पर गिर पड़े। इसी बीच 'अरे अरे ! मत डरो—मैं स्त्री हूँ' - ऐसा कहती हुई पुरोहित के समीप आ गयी । ( इसे ) नग्न देखा । तब पौरुष का अवलम्बन कर 'यह राक्षसी है' - यह कहकर इसके बाल पकड़ लिये । 'अरे डरो मत' - ऐसा दिक्पालों Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ [ समराइच्चकहा एए। बद्धा खु एसा । पेसिया सन्निवेसं। साहियं नरवइस्स । तेण वि य 'न पोइसज्झा रक्खसित्ति खाविऊण निययमंसं, विट्टालिऊण असुइणा, कयत्थिऊण नाणाविडंबणाहि, निभच्छिऊण य सरोसं तओ निव्वासिय ति । अलभमाणी य गामाइसु पवेसं परिब्भमंती अडवीए पुवकय कम्मपरिणामण विय घोररूवेण वावाइया मइंदे ग । समुप्पन्ना य एसा धूमप्पहाए निरयपुढवीए सत्तरससागरोवमट्ठिई नारगो त्ति। धरणो वि भगवं अहासंजमं विहरिऊण पवड्ढमाणसुहपरिणामो काऊण संलेहणं पवन्नो पायवगमणं । विवन्नो कालक्कमेणं, समुप्पन्नो आरणाभिहाणे देवलोए चंदकते विमाणे एक्कवीससागरोवमाऊ वेमाणिओ त्ति । छठे भवग्गहणं समत्तं ॥ श्चते । बद्धा खल्वेषा। प्रेषिता सन्निवेशम् । कथितं नरपतेः । तेनापि च 'न प्रीतिसाध्या राक्षसी' इति खादयित्वा निज मांसं संसृज्याशुचिना, कदर्थ यित्वा नानाविडम्बनाभिनिर्भय॑ च सरोषं ततो निर्वासितेति । अलभमाना च ग्रामादिषु प्रवेशं परिभ्रमन्त्यटव्यां पूवंकृतकर्मपरिणामेनेव घोररूपेण व्यापादिता मृगेन्द्रेण । समुत्पन्ना चैषा धूमप्रभायां निरयपृथिव्यां सप्त दशसागरोपमस्थिति रक इति । धरणोऽपि च भगवान् यथासंयमं विहृत्य प्रवर्धमानशुभपरिणामः कृत्वा संलेखनां प्रपन्नः पादपगमनम् । विपन्न: कालक्रमेण, समुत्पन्न आरणाभिधाने देव लोके चन्द्रकान्ते विमाने एकविंशतिसागरोपमायुर्वैमानिक इति। इति श्री किनीमहत्तरासूनु ारमगुणानुरागिभगवछोहरिभद्रसूरिविरचितायां समरादित्यकथायां पण्डितभगवानदासकृते संस्कृतछायानुवादे षष्ठो भवः समाप्तः । ने प्रबुद्ध किया । ये लोग उठे, इसे बांधा । सन्निवेश में भेजा। राजा से कहा । उसने भी 'राक्षसी प्रीति से साध्य नहीं होती है'..ऐसा सोचकर उसी का मांस खिलाकर, अपवित्र पदार्थों से संयोग कराकर, तरह तरह से अपमानित करके और फटकार कर रोषपूर्वक बाहर निकाल दिया । ग्रामादि में प्रवेश न पाने के कारण जंगल में भ्रमण करती हुई पूर्वकृत कर्मों के फलस्वरूप (उसे) घोररूप वाले सिंह ने मार डाला। यह धूमप्रभा नामक नरक की भूमि में उत्पन्न हुई, उसकी आयु सत्रह सागरोपम थी। वह भगवान् धरण भी संयमपूर्वक विहार करते हुए, शुभ परिणामों का विकास करते हुए, सल्लेखना को स्त्रीकार करके समाधिमरण को प्राप्त हुए । कालक्रम से मर कर आरण नामक स्वर्ग के चन्द्रकान्त नामक विमान में इक्कीस हजार सागरोपम आयुवाले वैमानिक देव हुए। इस प्रकार या किनीमहत्तरा के पुत्र, परमगुणों के अनुरागी भगवान् श्री हरिभद्रसूरि विरचित समरादित्य कथा का छठा भव समाप्त हआ। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | सत्तमो भवो ॥ वक्खायं जं भणियं धरणो लच्छी य 'तह य पइभज्जा । एतो सेणविसेणा पित्तियपुत्त त्ति वोच्छामि ।। ५५५ ।। अथ व जम्बुद्दीवे दीवे भारहे वासे सेसफणाभोयसन्निहेण पायारेण हिमगिरिसिहरसरिसेहि भवणेहि लहुइयनंदणवणेह उववणेहिं विणिज्जिय माणससरेहिं सरेहिं चंपा नाम नयरी । जीए अहिद्वाणं विय रुवस्स बीयं विय सुंदरयाए जोणी विय विणयस्स चेट्टियं विय मयरकेउणो संसारम्मि विरमणीय बुद्विजणओ इत्थियायणो । जोए य अपिसुणो अमच्छरो कयन्नू दक्खो सुहाभिगमणोओ पुरिसवग्गो | तीए य दरियारिमद्दणो अनरसेणो नाम नरवई होत्था । जो माणविक्कमपणो पसाहिया से सदिसिवहुभएन । ईसानडियाए व निच्चमेव लच्छीए 'उवऊढो ।। ५५६ ॥ व्याख्यातं यद् भणितं धरणो लक्ष्मीश्च तथा च पतिभार्ये । इतः सेनविषेण पितृव्यपुत्राविति वक्ष्ये ।। ५५५ ॥ अस्तीहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे शेषफणाभोगसन्निभेन प्राकारेण हिमगिरिशिखरसदृशैर्भवनैर्लघूकृतनन्दनवनै रुप वनैर्विनिर्जितमानसरोभिः सरोभिः सुशोभिता चम्पा नाम नगरी । यस्यामधिष्ठानमिव रूपस्य बीजमिव सुन्दरताया योनिरिव विनयस्य चेष्टितमिव मकरकेतोः संस। रेsपि रमणीयबुद्धिजनकः स्त्रीजनः । यस्यां चापिशुनोऽमत्सरी कृतज्ञो दक्षः सुखाधिगमनीयः पुरुषवर्गः । तस्यां च दृप्ता रिमर्दनोऽमरसेनो नाम नरपतिरभवत् । यो मानविक्रमवनः प्रसाधिताशेषदिग्वधूभयेन । ईर्ष्याव्याकुलयेव नित्यमेव लक्ष्म्योपगूढः ।। ५५६ ॥ धरण और लक्ष्मी के रूप में पति-पत्नी के विषय में जो कहा गया, उसकी व्याख्या हो चुकी । अब सेन और विषेण के रूप में चचेरे भाइयों के विषय में कहता हूँ ।। ५५५ ।। इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में शेषनाग के फण के समान विस्तारवाले प्राकार से हिमालय के शिखर के सदृश भवनों से, नन्दनवन को तिरस्कृत करनेवाले उपवनों से तथा मानसरोवर को जीतनेवाले सरोवरों से सुशोभित चम्पा नाम की नगरी है। जिसमें रूप की अधिष्ठान जैसी, सौन्दर्य की बीज जैसी, विनय की योनि जैसी, काम की चेष्टा जैसी तथा संसार में रमणीयता की बुद्धि उत्पन्न करनेवाली स्त्रियाँ थीं। जिस नगरी में पुरुष वर्ग कृतज्ञ, दक्ष तथा सुख से प्राप्त करने योग्य था, चुगलखोर और द्वेषी नहीं था, उस नगरी में अभिमानी शत्रुओं का मर्दन करनेवाला अमरसेन नामक राजा हुआ । वह राजा मान और पराक्रम रूप धन से युक्त था। सजी हुई समस्त दिशाओं रूप वधुओं के भय और ईर्ष्या के कारण ही मानो व्याकुल हुई लक्ष्मी से सदैव आलिङ्गित रहता था ।। ५५६ ।। १. तह पईक । २, पागारेण । ३. नरवती - क, ख । ४. अवऊढो - ख । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ [समराइच्चकहा तस्स सयलंतेउरपहाणा जयसुंदरी नाम भारिया । स इमीए सह विसयसुहमणुहवंतो' चिट्ठइ। ___ इओ य सो आरणकप्पवासी देवो अहाउयं पालिऊण तओ चुओ समाणो जयसुंदरीए गब्भम्मि उववन्नो ति। दि@ो य णाए सुविणयम्मि तीए चेव रयणीए पहायसमयम्मि कणयमयतुंगदंडो अणेयरयणभूसिओ देवदूसावलंबियपडाओ महूरपवणंदोलिरो निवासो व्व रम्मयाए भूसणं विय नहयलस्स उप्पत्ती विय विभ्हयाणं चक्करयणचूडामणी महाधओ वयणेणमुयरं पविसमाणो ति । पासिऊण तं सुहविउद्धा एसा। सिट्ठो य णाए जहाविहिं दइयस्स। हरिसवसपयट्टपुलएण भणिया य णं सुंदरि, सयलनरिंदकेउभूओ पुत्तो ते भविस्सइ। पडिस्सुमिमीए। अहिययरं परितुट्ठा एसा। तओ य सविसेसं तिवग्गसंपायणरयाए पत्तो पसूइसमओ। पसूया एसा । जाओ से दारओ। निवेइयं च राइणो अमरसेणस्स हरिसमइनामाए चेडियाए, जहा 'महाराय, देवी जयसुंदरी दारयं पसूय' ति । परितुट्ठो राया। दिन्नं इमीए पारितोसियं। कयं उचियकरणिज्ज। अइक्कतो मासो। पइट्ठावियं तस्य सकलान्तःपुरप्रधाना जयसुन्दरी नाम भार्या । सोऽनया सह विषयसुखमनुभवन् तिष्ठति। इतश्च स आरण कल्पवासी देवो यथायुः पालयित्वा ततश्च्युतः सन् जयसुन्दर्या गर्भे उपपन्न इति । दृष्टश्चानया स्वप्ने तस्यामेव र जन्यां प्रभातसमये कनकमयतुङ्गदण्डोऽनेकरत्नभूषितो देवदुष्यावलम्बितपताको मधुरपवनान्दोलनशीलो निवास इव रम्यताया भूषणमिव नभस्तलस्य उत्पत्तिरिव विस्मयानां चक्ररत्नचूडामणिमहाध्वजो वदनेनोदरं प्रविशन्निति । दृष्ट्वा तं सुखविबुद्धषा । शिष्टश्चानया यथाविधि दयिताय। हर्षवशप्रवृत्तपुलकेन भणिता च तेन - सुन्दरि ! सकलनरेन्द्रकेतुभूतः पुत्रस्ते भविष्यति । प्रतिश्रुतमनया। अधिकतरं परितुष्टषा । ततश्च सविशेष त्रिवर्गसम्पादनरतायाः प्राप्तः प्रसूतिसमयः । प्रसूतैषा। जातस्तस्य दारकः । निवेदितं च राज्ञोऽमरसेनस्य हर्षवतीनामया चेटिकया, यथा ‘महाराज ! देवी जयसुन्दरी दारकं प्रसूतेति।' परितुष्टो राजा। दत्तमस्य पारितोषिकम् । कृतमुचितकरणीयम्। अतिक्रान्तो मासः। प्रतिष्ठापितं नाम उसकी समस्त अन्तःपुर में प्रधान जयसुन्दरी नामक पत्नी थी। वह इसके साथ विषय मुख का अनुभव करते हुए रहता था। ___ इधर वह आरण स्वर्ग का वासी देव आयु पूर्ण कर वहाँ से च्युत होकर जयसुन्दरी के गर्भ में आया । इसने स्वप्न में उसी रात्रि को प्रात: समय महाध्वज को मुख से उदर में प्रवेश करते हुए देखा। वह ध्वज स्वर्णमय उन्नत दण्डवाला था, अनेक रत्नों से भूषित था, देववस्त्र की लटकती हुई पताकावाला था और मधुर पवन से फहरा रहा था। वह रम्यता का मानो निवास, आकाश का मानो भूषण, विस्मयों का मानो उद्गमस्थल तथा चक्ररत्न रूपी चूडामणि से युक्त था। उसे देखकर यह सुखपूर्वक जाग गयी। इसने विधिपूर्वक स्वामी से निवेदन किया। हर्ष के वश जिसे रोमांच हो आया है. ऐसे राजा ने उससे कहा--'सून्दरि ! समस्त राजाओं के ध्वज के समान (अग्रणी) तुम्हारा पुत्र होगा।' इसने स्वीकार किया। यह अत्यधिक सन्तुष्ट हुई। अनन्तर विशेष रूप से धर्म, अर्थ और काम के सम्पादन में रत रहते हुए इसका प्रसूतिसमय आया। इसने प्रसव किया। इसके पुत्र उत्पन्न हुआ। हर्षवती नामक दासी ने अमरसेन राजा से निवेदन किया कि महाराज ! देवी जयसुन्दरी के पुत्र उत्पन्न हुआ है। राजा सन्तुष्ट हुआ। (उसने) दासी को पारितोषिक दिया। योग्य क्रियाओं को किया । एक मास १. मणुहविसु त्ति-क। .. सिमिणयम्मि-के । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो भवो ] नामं दारयस्स सेणो त्ति । अइक्कंतो संवच्छरो । एत्यंत रम्म सो लच्छी जीवनारओ तओ 'नरयाओ उव्वट्टिय पुणो य संसारमा हिडिय अणंतरभवे तहाविहं किंपि अणुट्ठाणं काऊण समुप्पन्नो अमरसेणभाउणो हरिसेणजुवरायस्स तारप्पहाए भारिया कुच्छसि पुत्तत्ताए ति । जाओ उचियसमएणं । पइट्ठावियं च से नामं विसेणो त्ति । अइariat को कालो | afडओ कुमारसेणो देहोवचएणं कलाकलावेण य । अत्थि य इमस्स पीई विसेणकुमारे, न उण तस्स इयरम्मि । अन्न समुद्धइओ नयरीए जयजयरवो, अहिट्ठियं नहयलं सुरसिद्धविज्जाहरेहिं, निर्वाडिया कुसुमबुट्ठी । तओ राइणा भणियं - भो भो किमेयं ति गवेसिऊण लहुं संवाएह । तओ गवेसिऊण निवेइयं से पडिहारे – देव, समुप्पन्नमेत्थ भूयभविस्सवत्तमाणत्थगाहयं सयललोयालोयविसयं साहूte hamari ति | आनंदिया नयरी, पमुइया सुरसिद्धविज्जाहरा थुणंति महुरवग्गूहि । एयं सोऊण देवोपमाणं ति । तओ हरिसिओ राया पयट्टो वंदनिमित्तं भयवईए । ५५५ दारकस्य सेन इति । अतिक्रान्तः संवत्सरः । अत्रान्तरेस लक्ष्मीजीवनारकस्ततो नरकादुद्धृत्य पुनश्च संसारमा हिण्ड्यानन्तरभवे तथाविधं किमप्यनुष्ठानं कृत्वा समुत्पन्नोऽमरसेन भ्रातुर्हरिषेणयुवराजस्य तारप्रभाया भार्यायाः कुक्षौ पुत्रः तयेति । जात उचितसमयेन । प्रतिष्ठापितं च तस्य नाम विषेण इति । अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । वृद्धः कुमारसेनो देहोपचयेन कलाकलापेन च । अस्ति चास्य प्रीतिर्विषेणकुमारे, न पुनस्तस्येतरस्मिन् । अन्यदा च समुद्धावितो जयजयरवः, अधिष्ठितं नभस्तलं सुरसिद्धविद्याधरैः, निपतिता कुसुमवृष्टिः । ततो राज्ञा भणितम् - भो भोः किमेतदिति गवेषयित्वा लघु संवादयत । ततो गवेषयित्वा निवेदितं तस्य प्रतीहारेण - देव ! समुत्पन्नमत्र भूतभविष्यद्वर्तमानार्थग्राहकं सकललोकालोकविषयं साध्व्याः केवलज्ञानमिति । आनन्दिता नगरी, प्रमुदिता सुरसिद्धविद्याधराः स्तुवन्ति मधुरवाग्भिः । तछत्वा देवः प्रमाणमिति । ततो हर्षितो राजा प्रवृत्तो वन्दननिमित्तं भगवत्याः । व्यतीत हुआ । पुत्र का नाम सेन रखा गया। एक वर्ष बीता । इसी बीच वह लक्ष्मी का जीव नारकी उस नरक से निकलकर पुनः संसार में घूमकर अनन्तर भव में उस प्रकार का कोई अनुष्ठान करके अमरसेन के भाई हरिषेण युवराज की तारप्रभा नामक स्त्री के गर्भ में पुत्र के रूप में आया । उचित समय पर उत्पन्न हुआ । उसका नाम विषेण रखा गया । कुछ समय बीता । कुमार सेन कलाओं के समूह और वृद्धि को प्राप्त होता गया । सेन की विषेणकुमार के प्रति तो प्रीति थी, किन्तु विषेण की सेन के प्रति प्रीति नहीं थी । एक बार 'जय जय' शब्द उठा। आकाश सुर, सिद्ध और विद्याधरों से अधिष्ठित हो गया । फूलों की वर्षा हुई । अनन्तर राजा ने कहा - 'हे हे ! यह क्या है ? पता लगाकर शीघ्र ही कहो ।' अनन्तर पता लगाकर उससे प्रतीहार ने कहा - 'महाराज ! यहाँ पर भूत, भविष्यत् और वर्तमान कालीन पदार्थ को जाननेवाला, समस्त लोक और अलोक को विषय करनेवाला केवलज्ञान एक साध्वी के उत्पन्न हुआ है। नगरी आनन्दित है, प्रमुदित होकर देव, सिद्ध तथा विद्याधर मधुरवचनों से स्तुति कर रहे हैं । यह सुनकर महाराज प्रमाण हैं । तब राजा हर्षित होकर भगवती की वन्दना के लिए गया । १. निरयाओ-ख । २ समुट्ठाइओ क Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइच्चकहा पत्तो य सो कमेणं पडिस्सयं धम्मनिहियणियचित्तो। वरसिप्पिसिप्पसव्वस्सनिम्मियं सुरविमाणं व ॥ ५५७ ।। निम्मलफलिहच्छायं कंचणकयवालिकयपरिवखेवं । पायडियविज्जुवलयं सरयंबुहरस्स सिहरं व ॥५५८।। विप्फुरियजच्चकंचकिकिणिकिरणाणुरंजियपडायं। रययमयगिरिवरं पिव पज्जलियमहोसहिसणाहं ॥५५६॥ कयविमलफलिहनिम्मलकोट्टिमसंकेतकंचणत्थंभं । थंभोचियविद्दुमकिरणरत्तमत्ताहलोऊलं ॥५६०।। ओऊललग्गमरगयमऊहहरियायमाणसियचमरं । सियचमरदंडचामीयरप्पहापिंजरदायं ॥५६१।। अदायगयविरायंतपवरमणिरयणहारनिउरुंबं । हारनिउरुंबलंबियकंचणमयकिंकिणीजालं ॥५६२॥ प्राप्तश्च स क्रमेण प्रतिश्रयं धर्मनिहितनिजचित्तः । वरशिल्पिशिल्पसर्वस्वनिर्मितं सुरविमानमिव ॥५५७।। निर्मलस्फटिकच्छायं काञ्चनकृतपालिकृतपरिक्षेपम् । प्रकटितविद्युद्वलयं शरदम्बधरस्य शिखरमिव ॥५५८।। विस्फूरितजात्यकाञ्चनकिङ्किणीकिरणानुरञ्जितपताकम् । रजतमयगिरिवरमिव प्रज्वलितमहौषधिसनाथम् ॥५५६।। कृतविमलस्फटिकनिर्मलकुट्टिमसंक्रान्तकाञ्चनस्तम्भम् । स्तम्भोचितविद्रुमकिरण रक्तमुक्ताफलावचूलम् ।। ५६०॥ अवचूललग्नमरकतमयूखहरितायमानसितचामरम् । सितचामरदण्डचामी करप्रभापिञ्जरादर्शम् ॥५६१।। आदर्शगतविराजप्रवरणिरत्नहारनिकुरम्बम् । हारनिक रम्बलम्बितकाञ्चनमय किङ्किणीजालम् ॥५६२।। वह राजा अपने चित्त में धर्म धारण कर क्रम से सभामण्डा में पहुँचा। वह सभामण्डप श्रेष्ठ शिल्पियों द्वारा शिल्प के सर्वस्व से निर्मित देवविमान के समान था, स्वच्छ स्फटिक के समान उसकी कान्ति थी, स्वर्ण निर्मित किनारे से उसका घेरा बनाया गया था, शरत्कालीन मेव के शिखर के सदृश बिजली के समूह को प्रकट कर रहा था, चमकदार तपाये हुए सोने से निर्मित छोटी-छोटी धषियों की किरणों से उसकी पताकाएँ अनुरजित थीं. वह कैलाशपर्वत के समान देदीप्यमान महौषधियों से युक्त था। स्वच्छ स्फटिक के साफ फर्श पर सोने के खम्भे प्रतिबिम्बित हो रहे थे, स्तम्भ के अनुरूप मूंगे की किरणों से मोतियों के गुच्छे रंगीन हो रहे थे, गुच्छों में लगे हुए मरकतमणियों की किरणों से सफेद चंवर हरे-हरे हो रहे थे, सफेद चँवर के दण्ड की किरणों की प्रभा से दर्पण पीले-पीले हो रहे थे, दर्पण में उत्कृष्ट मणियों के हारों का समूह शोभित हो रहा था, हारों के समूह पर स्वर्णमय छोटी-छोटी बण्टियाँ लटक रही थीं ॥५५७-५६२।। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो भवो ] जालंतरनितपरिष्कुरं तदी संतविविमणिकिरणं । मणिकिरणज्जलम उडाहि कणयपडिमाहि 'पज्जुतं ॥५६३ ॥ दिट्ठा य तेण तेहि' य नित्थिष्णभवण्णवा तहिं गणिणी । सिरिसfreeवसोहा गुणरयणविभूसिया सोम्मा ।। ५६४ ।। आसीणा समणोवासियाहि तह साहूणीहि परिकिष्णा । संपुष्णमुहमियंका निसि व्व नक्खत्तपंतीहि ॥ ५६५।। विच्छद सतिमिरा फुरंत बिबाहरारुणच्छाया । उज्झिताराहरणा रयणिवरामे व्व पुवदिसा || ५६६।। धवलपडपायंगी तिव्वत बोलुग्गमुद्धमुहयंदा ! जलर हियतलिणजलहरपडलपिहिय व्व सरयनिसा ॥ ५६७ ।। अहिनंदिया राणा भवई । विमुक्कं दुसुमवरिसं उग्गाहिओ धूवो । करयलकयंजलिउड ५५७ जालान्तरगत परिस्फुरदृश्यमानविविधमणिकिरणम् । मणि किरणोज्ज्वलमुकुटाभिः कनकप्रतिमाभिः प्रयुक्तम् ॥ ५६३ ।। दृष्टा च तेन तैश्च निस्तीर्णभवार्णवा तत्र गणिनी । श्रीसदृश रूपशोभा गुणरत्नविभूषिता सौम्या | ५६४।। आसीना श्रमणोपासकाभिस्तथा साध्वीभिः परिकीर्णा । सम्पूर्ण मुखमृगाङ्का निशेव नक्षत्रपंक्तिभिः ।। ५६५।। विक्षिप्त रोषतिमिरा स्फुरद्बिम्बाधरारुणच्छाया । उज्झितताराभरणा रजनीविरामे इव पूर्वदिक् ।। ५६६ ।। धवलपप्रावृताङ्गी तीव्रतपोऽवरुग्ण (कृश ) मुग्धमुखचन्द्रा । जल रहिततलिन (कृश) जलवरपटलपिहितेव शरन्निशा ।। ५६७ ।। अभिनन्दिता राज्ञा भगवती विमुक्तं कसुमवर्षम् । उद्ग्राहितो धूपः । करतलकृताञ्जलिपुटं घण्टियों के समूह के मध्य चमकते हुए रत्नों की किरणें दिखाई दे रही थीं, मणियों की किरणों से उज्ज्वल मुकुटों में स्वर्णप्रतिमाएँ लगायी गयी थीं। वहाँ पर राजा तथा अन्य लोगों ने संसाररूपी समुद्र को पार हुई गणिती देखी। लक्ष्मी के समान उसकी रूपशोभा थी, वह गुणरूपी रत्नों से विभूषित तथा सौम्य थी । साध्वियों, श्रमणों और उपासिकाओं से घिरी हुई वह विराजमान थी तथा सम्पूर्ण चन्द्रमा को धारण किये हुए नक्षत्रपति से युक्त रात्रि के समान प्रतीत हो रही थी। रोषरूपी अन्धकार का उसने त्याग कर दिया था । बिम्बाफल के समान उसके अबर से बाल कान्ति विकीर्ण हो रही थी । वह ताराओं रूपी आभरण का त्याग किये हुए रात्रि के अन्तवाली पूर्वदिशा के समान लग रही थी । सफेद वस्त्रों से वह अंगों को ढके हुए थी और तीव्र तप के कारण उसका मुग्ध मुखरूप चन्द्रमा कृश (दुर्बल) हो रहा था और वह जल से रहित ( कृश) मेघसमूह से ढकी हुई शरत्कालीन रात्रि के समान लग रही थी ।।५६३-५६७।। राजा ने भगवती का अभिनन्दन किया, फूलों की वर्षा की। धूप उठायी। हाथ जोड़कर पैरों में पड़ १. पज्जत । २. तहियं - क, ख । ३. निच्छुक । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ [समराइच्चकहा निवडिओ चलणेसु, उवविट्ठो कुट्टिमतले । पत्थुया धम्मकहा। एत्थंतरम्मि समहिलिया चेव समागया बंधदेवसागरनामा सत्यवाहपुत्ता। पणमिऊण भयवई भणियं सागरेण - महाराय, न एत्थ खेवो' कायन्वो त्ति । दिद मए अच्चब्भुयं असंभावणीयं महारायस्स वि एगंतविम्हयजणयं किंचि वत्थं । विम्हियक्रुित्तहियओ अमणियतयत्थो न चएमि चिट्रिउं । ता कि तयं ति पुच्छामि भयवइं। राहणा भणियं-भो सत्थवाहपुत्त, कि तमच्चन्भुयं असंभावणीयं च । सागरेण भणियं-देव सुण।। अस्थि इओ कोइ कालो पणइणीए मे पणदृस्स हारस्स । विसुमरिओ एसो। गओ य अहमज्ज भत्तत्तरसमयम्मि चित्तसालियं, जाव अयंडम्मि चेव चित्तंतरालगएण ऊससियं मोरेण उन्नामिया गोवा विहयं 'पक्खजालं पसारिओ बरिहभारो। तओ ओयरिऊण तओ विभागाओ कुसुम्भरत्तवसणसंगयम्मि पडलए विमुक्को गेण हारो। गओ निययथाम, ठिओ निययरूवेणं । समुप्पन्नो य मे विम्हओ 'हंत किमेयं' ति। तओ थेववेलाए चेव समुद्धाइओ जयजयारवो, विभूसियमंबरं सुरसिद्धनिपतितश्चरणयोः । उपविष्ट: कुट्टिमतले । प्रस्तुता धर्मकथा। अत्रान्तरे समहिलावेव समागतो बन्धुदेवसागरनामानी सार्थवाहपुत्री। प्रणम्य भगवती भणितं सागरेण-महाराज ! नात्र खेदः कर्तव्य इति । दृष्टं मयाऽत्यद्भुतमसम्भावनीयं महाराजस्यापि एकान्तविस्मयजनक किञ्चिद् वस्तु । विस्मयाक्षिप्तहृदयोऽज्ञाततदर्थो न शक्नोमि स्थातुम् । ततः किं तदिति पृच्छामि भगवतीम् । राज्ञा भणितम्-भो सार्थवाहपुत्र ! किं तदत्यद्भुतमसम्भावनीयं च ? सागरेण भणितम्-देव शृणु। अस्तीतः कोऽपि कालः प्रणयिन्या मे प्रनष्टस्य हारस्य । विस्मृत एषः । गतश्चाहमद्य भुक्तोत्तरसमये चित्रशालिकाम्, यावदकाण्डे एव चित्रान्तरालगतेनोच्छ्वसितं मयूरेण, उन्नामिता ग्रीवा, विधूतं पक्षजालम्, प्रसारितो बहभारः। ततोऽवतीर्य ततो विभागात् कुसुम्भरक्तवसनसङ्गते पटलके विमुक्तस्तेन हारः । गतो निजस्थानम्, स्थितो निजरूपेण । समुत्पन्नश्च मे विस्मयो 'हन्त किमेतद्' इति । ततः स्तोकवेलायामेव समुद्धावितो जयजयारवः, विभूषितमम्बरं सुरसिद्धविद्याधरैः, गया। फर्श पर बैठ गया । धर्म कथा प्रस्तुत हुई। इसी बीच दो महिलाओं के साथ बन्धुदेव और सागर नाम के दो वणिकपुत्र आये । भगवती को नमस्कार कर सागर ने कहा-'महाराज ! आप अब खेद न करें, मैंने अत्यन्त अद्भुत और असम्भावनीय तथा महाराज को एकान्तरूप से विस्मय में डाल देनेवाली कोई वस्तु देखी है। विस्मय से पूर्ण हृदयवाला मैं उसके अर्थ का निश्चय नहीं कर पा रहा हूँ। अतः वह क्या है, यह भगवती से पूछता हूँ।' राजा ने कहा-'हे वणिकपुत्र ! वह अत्यन्त अद्भुत और असम्भावनीय वस्तु क्या है ?' सागर ने कहा-'सुनो। कुछ समय पहले मेरी प्रिया का हार नष्ट हो गया था। यह भूल गयी । आज मैं भोजन के बाद चित्रशाला में गया, तब असमय में ही चित्रशाला के बीच में ही मोर ने लम्बी सांस ली, गर्दन ऊँची की, पंखों को फड़फड़ाया, पूंछ फैलायी। फिर उस भाग से उतरकर कुसुम्भी रंग के वस्त्र से युक्त पेटी में उसने हार छोड़ा। वह मोर अपने स्थान पर चला गया और अपने स्वाभाविक रूप में खड़ा हो गया। मुझे विस्मय हुआ-आश्चर्य है, यह क्या है ! अनन्तर थोड़े ही समय में जय जय शब्द उठा । सुर, सिद्ध और विद्याधरों से आकाश विभूषित हो गया, १. खेयो-क । २. पक्खजालियं-क । ३. नियमेव-क । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो भवो ] ५५६ विज्जाहरेहि, पवुटुकुसुमवरिसं । आयण्णियं च लोयाओ जहा समुप्पन्नं भयवईए केवलनाणं ति । तओ भत्तिविम्हयक्खितहियओ समागओ इहई ति। राइणा भणियं-अहो सच्चमच्चभुयं असंभावणिज्जं च । भयवइ किमेयं ति। भयवईए भणियं-सोम, किमच्चन्भुयं असंभावणिज्जं च कम्मपरिणईए। णियफलदाणसमुज्जयम्मि एयम्मि नत्थि तं, जं न होइ ति। तत्थ असहम्मि ताव जलं पि हुयासणो, चंदो वि तिमिरहेऊ, नओ वि अणओ, मित्तो वि वेरिओ, अत्थो वि अणत्थो, भवणोयरगयस्स वि य सध्वस्सपाणनासयं अप्पतक्कियं चेव निवडइ नहयलाओ वि असणिवरिसं। सहम्मि विवज्जओ । तं जहा-विसं पि अमयं, दुज्जणो वि सज्जणो, कुचेट्ठा वि फलहेऊ, अयसो वि हु जसो, दुव्वयणं पि सुवयणं, गिरिमत्थयगयस्स वि य सयलजणपीइकारयं सपराहमेव लोयंतरे वि सुहावहं कुओ वि संपज्जए महानिहाणं ति। राइणा भणियं-भयवइ, अह कस्स पुण एसा कम्मपरिणई । भयवईए भणियं - सोम, मज्झेव आसि त्ति । राइणा भणियं-कहं किंनिमित्तस्स वा कम्मरस । भयवईए भणियं - सुण। प्रवृष्टं कुसुमवर्षम् । आकणितं च लोकाद् यथा समुत्पन्नं भगवत्याः केवलज्ञानमिति। ततो भक्तिविस्मयाक्षिप्तहृदयः समागत इहेति । - राज्ञा भणितम् -अहो सत्यमद्भुतमसम्भावनीयं च। भगवति ! किमेतदिति । भगवत्या भणितम् ---सौम्य ! किमत्यद्भुतमसम्भावनीयं च कर्मपरिणत्याः? निजफलदानसमुद्यते एतस्मिन् नास्ति तद् यन्न भवतीति । तत्राशुभे तावज्जलमपि हुताशनः, चन्द्रोऽपि तिमिरहेतुः, नयोऽप्यनयः, मित्रमपि वैरिकः, अर्थोऽप्यनर्थः, भवनोतरगतस्यापि च सर्वस्वप्राणनाशकमप्रतकितमेव निपतति नभस्तलादप्यशनिवर्षम् । शुभे विपर्ययः । तद् यथा--विषयप्यमृतम्, दुर्जनोऽपि सज्जनः, कुचेष्टाऽपि फलहेतुः, अयशोऽपि खलु यशः, दुर्वचनमपि सुवचनम्, गिरिमस्तकगतस्यापि च सकलजनप्रीतिकारक शीघ्रमेव लोकान्तरेऽपि सुखावहं कुतोऽपि सम्पद्यते महानिधानमिति । राज्ञा भणितम्-भगवति ! अथ कस्य पुनरेषा कर्मपरिणतिः ? भगवत्या भणितम्-सौम्य ! ममैव आसीदिति। राज्ञा भणितम्-कथं किंनिमित्तस्य वा कर्मणः ? भगवत्या भणितम् - शृणु। फूलों की वर्षा हुई और लोगों ने सुना कि भगवती को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है। पश्चात् भक्ति के कारण विस्मय से भरे हुए हृदयवाला मैं यहाँ आ गया।' राजा ने कहा – 'ओह ! सचमुच अत्यन्त अद्भुत और असम्भावनीय है । भगवती ! यह क्या है ?' भगवती ने कहा- 'हे सौम्य ! कर्म की परिणति के लिए क्या अद्भुत और असम्भावनीय है ! जब यह अपना फल देने के लिए उद्यत होती है तो ऐसा कुछ नहीं, जो न होता हो । अशुभकर्म आने पर जल भी अग्नि हो जाता है, चन्द्रमा भी अन्धकार का कारण हो जाता है, नीति भी अनीति हो जाती है, मित्र भी वैरी हो जाता है, अर्थ भी अनर्थ हो जाता है, भवन के अन्दर रहनेवाले के सर्वस्वभूत प्राणों का नाश अनायास ही हो जाता है तथा बिना किसी सम्भावना के आकाश से भी वज्र की वर्षा हो जाती है ! शुभकर्म आने पर विपरीत बात होती है। जैसे-विष भी अमृत हो जाता है, दुर्जन भी सज्जन हो जाता है, कुचेष्टा भी फल का कारण होती है, अयश भी यश हो जाता है, दुर्वचन भी सुवचन हो जाते हैं, पर्वत की चोटी पर गये हुए का भी समस्त मनुष्यों के लिए प्रीतिकारक, दूसरे लोक में भी सुखावह, महानिध न की शीघ्र ही कहीं से प्राप्ति हो जाती है ।' राजा ने कहा- 'भगवती ! यह कर्मपरिणति किसकी थी ?' भगवती ने कहा-'सौम्य ! मेरी ही थी।' राजा ने कहा-'किस कारण (अथवा किस कर्म के कारण) यह परिणति थी ?' भगवती ने कहा- 'सुनो Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्च कहा after sea जम्बुद्दta chवे भारहे वासे संखवद्धगं नाम नयरं । तत्थ संखवालो नाम नरवई अर्हसि । तस्स अच्चंत बहुमओ धणो नाम सत्यवाहो, धण्णा से भारिया, धणवइधणावहा पुत्ता गुणसिरीय धूप त्ति । सा पुण अहमेव, परिणीया तन्नयरवत्थव्वएणं सोमदेवेणं । अविन्नायविसयसंगाए य उवरओ मे भत्ता । जाओ मे निव्वेओ । चितियं मए । एवमवसाणो खु एस सयणसंगमो; ता अलं एत्थ पडिबंधेणं । रया तवविहाणम्मि । अइक्कंतो कोइ कालो । अन्नयाय समागया तत्थ चंदताभिहाणा गणिणो । साहिया से सहियाहि । गया तीए वंदननिमित्तं जिणहरं । दिट्ठा य एसा । our fa निविवयारा कलासु कुसला वि माणपरिहीणा । सुयदेवय व्व धम्मं साहेंती सावियाणं तु ॥ ५६८ ।। जाओ य मे विम्हओ । अहो से रूवसोम्मया । पविट्ठा जिणहरं । चालियाओ घंटाओ । पज्जालिया 'बीवया । विमुक्कं कुसुमवरिसं । पूयाओ वीयरायपडिमाओ । उग्गा हिओ धूवो । वंदिया परम गुरवो । समागया गणिणीसमीवं । पणमिया एसा । धम्मलाहिया य णाए । उवविट्ठा तीए पुरओ । ५६० अस्तीहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे शङ्खवर्धनं नाम नगरम् तत्र शङ्खपालो नाम नरपतिरासीत् । तस्यात्यन्तबहुमतो धनो नाम सार्थवाहः, धया तस्य भार्या, धनपतिधनावहौ पुत्रौ गुणश्रीश्च दुहितेति । सा पुनरहमेव, परिणीत। तन्नगरवास्तव्येन सोमदेवेन । अविज्ञातविषयसङ्गयाश्च उपरतो मे भर्ता । जातो मे निर्वेदः । चिन्तितं मया - एवमवसानः खलु एष स्वजनसङ्गमः, ततोऽलमत्र प्रतिबन्धेन । रता तपोविधाने । अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । अन्यदा च समागता तत्र चन्द्रकान्ताभिधाना गणिनी । कथिता मे सखीभिः । गता तस्या वन्दननिमित्तं जिनगृहम् । दृष्टा चैषा । रुचिराऽपि निर्विकारा कलासु कुशलाऽपि मानपरिहीना । 1 श्रुतदेवतेव धर्मं कथयन्ती श्राविकाणां तु ॥ ५६८ः । जातश्च मे विस्मयः । अहो तस्य रूपसौम्यता । प्रविष्टा जिनगृहम् । चालिता घण्टाः । प्रज्वालिता दीपाः । त्रिमुक्तं कुसुमवर्षम् । पूजिता वीतरागप्रतिमः । उद्गाहितो धूपः । वन्दिता परमगुरवः । समागता गणिनोसमीपम् । प्रणतैषा । धर्मलाभिता च तया । उपविष्टा तस्याः पुरतः । इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में शंखवर्धन नाम का नगर है। वहाँ पर शंखपाल नामक राजा था। उसके द्वारा अत्यधिक सम्मानित 'धन' नाम का व्यापारी था। उस व्यापारी की धन्या नामक स्त्री थी । धनपति और धनावह दो पुत्र तथा गुणश्री नाम की पुत्री थी। वह पुत्री मैं ही हूँ। मेरा विवाह उसी नगर के निवासी सोमदेव के साथ हुआ था । विषयसुख का अनुभव न कर मेरे पति की मृत्यु हो गयी। मुझे वैराग्य उत्पन्न हो गया । मैंने सोचा - स्वकीयजनों के संगम का इस प्रकार अन्त होता है, अतः इसमें बँधने से कोई लाभ नहीं । तप में रत हो गयी। कुछ समय बीता। एक बार चन्द्रकान्ता नामक गणिनी आयीं। मुझे सखियों ने बताया । मैं उनकी वन्दना के लिए जिनमन्दिर गयी और उनके दर्शन किये। वह सुन्दर होने पर भी निर्विकार थीं, कलाओं में कुशल होने पर भी मानरहित थीं, श्रुतदेवता के समान वह श्राविकाओं को धर्मोपदेश दे रही थीं ।। ५६८ ।। मुझे विस्मय हुआ - 'ओह ! उनकी सौम्यता !' ( मैं ) जिनमन्दिर में प्रविष्ट हुई घण्टा बजाया । दीपक जलाये फूलों की वर्षा की। वीतराग प्रतिमा की पूजा की धूप जलायी । परमगुरुओं को प्रणाम किया। (और) गणित के पास आयी । उन्हें प्रणाम किया। उन्होंने ( गणिनी ने ) धर्मलाभ दिया और मैं उनके सामने बैठ गयी । १. दिवियाक । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो भवो ] भणियं च जाए- 'कतो तुम्भे' त्ति । मए भणियं - भयवइ, इओ चेव । एत्थंतरम्मि जंपियं मे सहीए ras, एसा खुणसत्यवाहधूया गुणसिरी नाम । इमीए य विचित्तयाए कम्मपरिणामस्स विवाहसमणंतरमेव पंचत्तमुवगओ भत्ता । वेरग्गिया य एसा खवेद अत्ताणयं नियमोववासेहि । सुयं च जाए, जहा भयवई आगय त्ति । तओ भत्तिनिम्भरा अणुन्नविय जणणिजणए तुह चलणवंदणनिमितमागयति । गणिणीए भणियं - साहु कयं जमागया वेरग्गिया य । 'ईइसो एस संसारो, दुक्खभायणं चैव एत्थ पाणिणो ति । कहिओ मे धम्मो, परिणओ पुव्वपओएण। पडिवन्ना देसविरई । अइ क्तो कोइ कालो । तओ पंचत्तमुवगएसु जणणिजणएस जाया य मे चिंता । अलं गिहासमेणं, पवज्जामि समलिंगं । पुच्छिया य भायरो, नाणुमयमेएसि । भणियं च हि - एत्थेव ठिया जहासमीहियं कुणत्ति । तओ कारावियं जिणहरं, भरावियाओ पडिमाओ, फुल्लब लिगंधचंदनाइस पारो महावओ । कुरुगुरॅति भाइजायाओ । तओ मए चितियं - पेच्छामि ताव भाइचित्तं । कि माहिति । अन्नया जाममेत्ताए जामिणीए वासहरमुवगए षणवइम्मि आलोचिऊण नियडीए भणितं च तया 'कुतो यूयम्' इति । मया भणितम्-भगवति ! इत एव । अत्रान्तरे जल्पितं मे सख्या - भगवति ! एषा खलु धनसार्थवाहदुहिता गुणश्रीर्नाम । अस्याश्च विचित्रतया कर्मपरिणामस्य विवाहसमनन्तरमेव पञ्चत्वमुपगतो भर्ता । वैराग्यिता चैषा क्षपयत्यात्मानं नियमोपवासः । श्रुतं चानया यथा भगवत्यागतेति । ततो भक्तिनिर्भरा अनुज्ञाय जननीजनको तव चरणवन्दननिमित्तमागतेति । गणिन्या भणितम् -- साधु कृतं यदागता वैराग्यिता च । ईदृश एष संसारः, दुःखभाजनमेवात्र प्राणिन इति । कथितो मे धर्मः, परिणतः पूर्वप्रयोगेण । प्रतिपन्ना देशविरतिः । अतिक्रन्तः कोऽपि कालः । ततः पञ्चत्वमुपगतयोर्जननीजनकयोर्जाता च मे चिन्ता । अलं गृहाश्रमेण, प्रपद्ये श्रमणलिङ्गम् । पृष्टौ च भ्रातरौ नानुमतमेतयोः । भणितं च ताभ्यां - अत्रैव स्थिता यथासनीहितं कुर्विति । ततः कारितं जिनगृहम्, भारिताः प्रतिमाः, पुष्पबलिगन्धचन्दनादिभिः प्रारब्धो महाव्ययः । कुरकुर येते भ्रातृजाये । ततो मया चिन्तितम् - प्रेक्षे तावदम् भ्रातृचित्तम, कि मर्मताभ्यामिति । अन्यदा याममात्रायां यामिन्यां वासगृहमुपगते धनपतो आलोच्य निकृत्या रति ५६१ उन्होंने पूछा - 'तुम सब कहाँ से आये ?' मैंने कहा- 'भगवती ! यहीं से ।' इसी बीच मेरी सखी ने कहा'भगवती ! यह धन व्यापारी की गुणश्री नाम की पुत्री है। इसके कर्मपरिणाम की विचित्रता से विवाह के बाद ही पति की मृत्यु हो गयी। इसे वैराग्य हो गया। अपना समय नियम और उपवासों में व्यतीत करती है । इसने सुना कि भगवती आयी हैं तो भक्ति से भरकर माता-पिता से पूछकर चरणवन्दना के लिए आयी है ।' गणिनी ने कहा - 'ठीक किया जो चली आयी और वैराग्य धारण किया। यह संसार ऐसा ही है, इसमें प्राणी दुःखों के ही पात्र होते हैं ।' गणिनी ने मुझसे धर्म कहा, पूर्वाभ्यास के कारण समझ में आ गया। मैंने देशविरति प्राप्त की। कुछ समय बीता । माता-पिता की मृत्यु के बाद मुझे चिन्ता हुई गृहस्थाश्रम व्यर्थ है, मैं श्रमणलिंग धारण करती हूँ। दोनों भाइयों से पूछा- दोनों ने अनुमति नहीं दी। उन दोनों ने कहा- यहीं रहकर इष्टकार्य करो ।' अनन्तर मन्दिर बनवाया, जिनप्रतिमा की स्थापना करायी, पुष्प, गन्ध, चन्दनादि से पूजाकर महान् व्यय प्रारम्भ किया । दोनों भाभियों ने अव्यक्त शब्द किये । तब मैंने सोचा- भाई का चित्त देखूं, मुझे इन दोनों से क्या ? एक बार रात्रि का प्रहर मात्र बीतने पर जब धनपति शयनगृह में चला गया तो विचारकर रतिमन्दिर में प्रवेश १. एरिसोक । २. से - ख । ३ तओ गिहासन्ने के । ४, कारावियाओ क । 21 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ [ समाइचकहा 1 सोवण पवेसकालम्मि चेव जहा सो सुणेइ तहा धम्मदेसणापुव्वयं मनिया से भारिया - सुंदरि, कि बहुना जंपिणं; साडियं रक्खेज्जसु त्ति । तओ एवं ति भणिऊण पविट्ठा वासगेहं । चितियं च से भत्तारेणं । 'नूणमेसा दुच्चारिणी, कहमन्नहा मे ससा एवं जंप त्ति; ता अलमिमीए । कयं पसुत्तagi | विट्ठाय एसा सयणीए । संवाहिया से चलणा । उस्सिक्किओ दीवओ । निरूवियं तंबोलपडलयं । तओ निवज्जमाणी वारिया दइएणं 'मा निवज्जसु' त्ति । तीए चितियं । हंत किमेयं, परिहासो भविस्सइ ति । नुवन्ना एसा । उट्ठिओ से दइओ । 'कहं कुविओ खु एसो त्ति संबुद्धा एसा । भणियं च णाए - 'अज्जउत्त, किमेयं' ति । तेण भणियं न किचि, अवि य नीसरसु मे गेहाओ । तओ सा कि मए दुक्कडं कथं ति चितयंती उट्टिया सयणीयाओ । नुवन्नो एसो । थेत्रबहुचितावसाणे य उaगया से निद्दा | इयरी वि उवविट्टा मसूरए । न सुमरिओ अत्तणो दोसो । गहिया महासोएणं । fati च णाए । को मे गुणो अज्जउत्तस्स वि उव्वेवकारएणं जीविएणं । ता परिच्चयामि एवं । अहवा दुज्जणो खु लोओ । एवं पि मा अज्जउत्तस्स लाघवं संभावइस्सइति । न किंचि एएणं । मन्दिरप्रवेशकाले एव यथा स शृणोति तथा धर्मदेशनापूर्वकं भणिता तस्य भार्या - सुन्दरि ! किं बहुता जल्लिते, शाटिकां रक्षेति । तत एवमिति भणित्वा प्रविष्टा वासगेहम चिन्तितं च तस्य भर्त्रा नूनमेषा दुश्चारिणी, कथमन्यथा मे स्वसा एवं जल्पतीति ततोऽलमनया । कृतं प्रसुप्त चेष्टितम् । उपविष्टा चैषा शयनीये । संवाहितौ तस्य चरणौ । 'उज्ज्वालितो दीपः । निरूपितं ताम्बूलपटनकम् । ततो निपद्यमाना (शयाना) वारिता दयितेन 'मा निपद्यस्व' इति । तया चिन्तितम्हन्त किमेतद् परिहासो भविष्यतीति । निपन्नैषा । उत्थितस्तस्य दयितः । 'कथं कुपितः खल्वेषः' इति संक्षुषा । भणितं चानया - 'आर्यपुत्र ! किमेतद्' इति । तेन भणितम् न किञ्चिद् अपि च निःसर मे गेहाद् । ततः सा किं मया दुष्कृतं कृतम्' इति चिन्तयन्ती उत्थिता शयनीयात् । निष्पन्न एषः । स्तोकबहु चिन्तावसाने चोपगता तस्य निद्रा । इतराऽपि उपविष्टा मसूरके । न स्मृत आत्मनो दोष: । गृहीता महाशोकेन । चिन्तितं चानया । को मे गुण आर्यपुत्रस्यापि उद्वेगकारकेन जीवितेन । ततः परित्यजाम्येतद् । अथवा दुर्जनः खलु लोकः । एवमपि मा आर्यपुत्रस्य लाघवं करते समय, वह सुन ले, इस प्रकार छल से, धर्मोपदेशपूर्वक मैंने उसकी पत्नी से कहा 'सुन्दरि, अधिक कढ़ने से क्या, साड़ी की रक्षा करो।' तब 'ठीक है' - ऐसा कहकर वह (भाभी) शयनगृह में प्रविष्ट हुई । उसके पति ने सोचा निश्चित ही यह दुराचारिणी है, नहीं तो बहिन ऐसा क्यों कह रही है ? अतः इससे बस अर्थात् इससे कोई नाता नहीं । उसने सोने की चेष्टा की। यह (भाभी) शय्या पर बैठ गयी, उसके (पति के) चरण दबाये । दीपक जलाया। पान का डिब्बा देखा । अनन्तर जब सोने लगी तो पति ने मना किया--मत सोओ ! उसने सोचा हाय, यह क्या ? हँसी कर रहे होंगे। यह सो गयी। उसका पति उठ गया । 'यह क्षुब्ध क्यों हैं' ऐसा सोचती हुई यह भी क्षोभित हुई । इसने कहा - 'आर्यपुत्र ! क्या बात है ?' उसने कहा कुछ नहीं, बल्कि मेरे घर से निकल जाओ ।' तब 'मैंने क्या बुरा कार्य किया' सोचती हुई शय्या से उठ गयी। यह सो गया। थोड़ी-बहुत चिन्ता के बाद उसे नींद आ गयी। दूसरी (भाभी) भी सिरहाने बैठी रही । ( उसे ) अपना दोष याद नहीं आया। उसे बहुत अधिक शोक हुआ । उसने सोचा आर्यपुत्र को उद्विग्न करनेवाली मेरे जीने में कौन-सा गुण है ! अतः इस जीवन का परित्याग करती हूँ। अथवा लोक दुर्जन है । यों भी आर्यपुत्र का लाघव न हो। इससे कुछ नहीं १. नूणं मे भारिया रु २. संक्कियं उद्दीरियं उज्जालियं च तेत्रविअं । अंदुमियं कसिविफलं उन्मुत्तिअयं न तेअनियं ॥ ( पाइयलच्छी, १६ ।) ➖➖➖ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो भवो] ५६३ दुस्सहं चिमं पढमं दुक्खं । ता न याणामि, किमेत्थ जुत्तयं ति। अहवा सम्भाविणी बहुबुद्धिसंगया य में नणंदा। ता तयं पुच्छिय जहाजुत्तमणुचिट्ठिस्सं ति। चितयंती अणवरयपयट्टबाहसलिला माणसदक्खाइरेएणं खणं पि अलद्धनिदा ठिया तत्थ रयणीए। पहायसमए य विद्दाणवयणकमला ओलग्गमगमन्वहंती निग्गया वासगेहाओ। दिट्ठा सा मए भणिया य-सुंदरि, कोस तुमं अज्ज अप्पोयगा विय कूमइणी पवाया दीससि । तओ परुण्णवयणाए जंपियं धणसिरीए-न याणामि अवराह, रुट्रो य मे भत्ता । कोवाइसयसंभमेण भणियं च णेणं-'नीसरसु मे गेहाओ' ति । तओ मए भणियं-सुंदरि, धीरा होहि; अहं ते भलिस्सामि । पडिस्सुयमिमीए । भणिओ य भाया- 'भो किमेयमेवं ति। तेण भणियं-अलं मे एयाए दूद्रसीलाए। दुट्रसीला ख इत्थिया विणासेइ संतई, करेइ वयणिज्जं, मइलेइ कुलहरं, वावाएइ दइयं । ता कि उभयलोयगरहणीएणं तीए परिग्गहेणं ति। मए भणियं-कहं वियाणसि, जहा एसा दुटुसोल ति । तेणं भणियं-किमेत्थ जाणियन्वं । सुयं मए तूझ चेव सयासाओ इमीए देसणापुव्वयं निवारणं । मए भणियं-अहो ते पंडियत्तणं, अहो ते वियारक्खसम्भावयिष्यतीति । न किञ्चिदेतेन । दुःसहं चेदं प्रथमं दुःखम् । ततो न जानामि किमत्र युक्तमिति । अथवा सद्भाविनी बहुबुद्धिसङ्गता च मे ननान्दा । ततस्तां पृष्ट्वा यथायुक्तमनुष्ठास्यामि इति । चिन्तयन्ती अनवरतप्रवृत्तवाष्पसलिला मानसदुःखातिरेकेण क्षणमप्यलब्धनिद्रा स्थिता तत्र रजन्याम । प्रभातसमये च विद्राणवदनकमलाऽवरुग्णमङ्गमुद्वहन्ती निर्गता वासगृहात्। दृष्टा सा मया भणिता च–सुन्दरि ! कस्मात्त्वमद्य अल्पोदकेव कुमुदिनी म्लाना दृश्यसे ? ततः प्ररुदितवदनया जल्पितं धनश्रिया-न जानाम्यपराधम्, रुष्टश्च मे भर्ता । कोपातिशयसम्भ्रमेण भणितं चानेन'निःसर मे गेहाद' इति । ततो मया भणितम्-सुन्दरि ! धीरा भव, अहं ते भलयिष्ये ( निरूपयिष्यामि)। प्रतिश्रुतमनया । भणितश्च भ्राता 'भो किमेतदेवम्' इति । तेन भणितम् - अलं मे एतया दुष्टशीलया। दुष्टशीला खल स्त्री विनाशयति सन्ततिम्, करोति वचनीयम्, मलिनयति कुलगृहम्, व्यापादयति दयितम् । ततः किमुभयलोकगर्हणीयेन तस्या: परिग्रहेणेति । मया भणितम्कथं विजानासि, यथेषा दुष्टशीलेति । तेन भणितम् - किमत्र ज्ञातव्यम् । श्रुतं मया तवैव सकाशादस्या देशनापूर्वकं निवारणम् । मया भणितम् -- अहो ते पण्डितत्वम्, अहो ते विचारक्षमता, होता। पहले यह दुःख दुःसह है, अतः मैं नहीं जानती हूँ क्या करना उचित है। अथवा मेरी ननद अच्छे भावों वाली और बुद्धिमती है अत: उससे पूछकर ठीक-ठीक कार्य करूंगी, इस प्रकार सोचती हुई निरन्तर आँसू छोड़कर मानसिक दुःख की अधिकता के कारण क्षण भर भी न सोकर उस रात बैठी रही। प्रातःकाल नींद से जागे हुए मुखकमल वाली, बीमार शरीर को धारण किये हुए (भाभी) शयनगृह से निकल गयी। उसे मैंने देखा और कहा'सुन्दरि ! अल्प जलयुक्त कमलिनी के समान क्यों म्लान (फीके मुंह वाली) दिखाई दे रही हो?' तब अत्यधिक रुआंसे मुख से धनश्री ने कहा – 'अपराध नहीं जानती हूँ और मेरे पति रुष्ट हैं । कोप की अधिकता के कारण हड़बड़ाकर इन्होंने (पति ने) कहा-'मेरे घर से निकल जाओ।' अनन्तर मैंने कहा---'सुन्दरि ! धीर होओ, मैं उससे विचारविमर्श करूंगी।' इसने स्वीकृति दी । मैंने भाई से कहा- 'हे भाई ! यह ऐसा क्या है ?' उसने कहा----'मुझे इस दुष्ट. शील वाली से क्या प्रयोजन ? दुष्टशीला स्त्री सन्तति का विनाश करती है, कलंक लगाती है, कुलगृह को मलिन करती है, पति को मार देती है। अतः दोनों लोकों के लिए निन्दित उसके स्वीकार करने से क्या ?' मैंने कहा'कैसे जानते हो कि दुष्ट चरित्र वाली है ?' उसने कहा-'यहाँ क्या जानना है ? मैंने तुम्हारे ही साथ इसका उपदेशपूर्वक निवारण सुना है ।' मैंने कहा-'ओह ! तुम्हारा पाण्डित्य, तुम्हारी क्षमला, तुम्हारा महार्थत्व, स्नेह Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चकहा मया, अहो 'महत्थत्तणं, अहो सिणेहाणुबंधो, अहो लोइयत्तणं । मए सामन्नेण 'बहूदोसमेयं भयक्या भणिय' ति उवट्ठ, न उण दोसदसणेण निवारिया एसा। ता किमद्दहमेत्तेणं चेव दुच्चारिणी हवइ त्ति । तओ विलियो ख एसो। हंत असोहणं अशुचिट्ठियं ति' जाओ से पच्छायावो । पसाइया तेणं। तओ चितियं मए । एस ताव कसणधवलपडिवज्जओति । बिइओ वि एवं चेव विन्नासिओ। नवरं भणिया य से भारिया। किं बहुणा जंपिएणं; हत्थं रक्खेज्जसु त्ति जाव एसो वि कसणधवलपडिवज्जओ चेव। एत्थंतरम्मि बद्धं मए नियडिअनुभक्खाणदोसो तिनकम्म । अइक्कंतो कोइ कालो। पव्वइया अहयं सह भाउजायाहिं भाउएहि य । पालियं अहाउयं । गयाणि सुरलोयं । तत्थ वि य अहाउयं पालिऊणं पढममेव चुया मे भायरो, समुप्पन्ना इमीए चेव चंपानयरीए पुन्नयत्तस्स इन्भस्स संपयाए भारियाए कुच्छिसि पुत्तत्ताए ति। कयाइं च तेसि नामाइं बंधुदेवो सागरो य । अइक्कतो कोइ कालो । तओ चुया अहयं । समुप्पन्ना गयउरे संखस्स इम्भस्स सुहकंताए भारियाए कुच्छिसि इत्थियत्ताए ति। जाया कालक्कमेणं, पइटावियं च मे नामं सव्वंगसुंदरि ति । एत्थंतरम्मि ताओ अहो महार्थत्वम्, अहो स्नेहानुबन्धः, अहो लौकिकत्वम् ।' मया सामान्येन 'बहुदोषमेतद् भगवता भणितम्' इत्युपदिष्टम्, न पुनर्दोषदर्शनेन निवारितैषा । तत: किमेतावन्मात्रेणैव दुश्चारिणी भवतीति । ततो वीडितः (लज्जितः) खल्वेषः । 'हन्त अशोभनमनुष्ठितम्' इति जातस्तस्य पश्चात्तापः । प्रसादिता तेन । ततश्चिन्तितं मया। एष तावत्कृष्णधवलप्रतिपद्यमान इति । द्वितीयोप्येवमेव विन्यासितः । नवरं भणिता च तस्य भार्या । कि बहुना जल्पितेन, हस्तं रक्षेति यावदेषोऽपि कृष्णधवलप्रतिपद्य मान एव । अत्रान्तरे बद्धं मया निकृत्यभ्याख्यानदोष : तीव्रकर्म । अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । प्रवजिताऽहं सह भ्र तृजायाभ्यां भ्रातृभ्यां च । पालितं यथाऽऽयुः, गताः सुरलोकम् । तत्रापि च यथायुः पालयित्वा प्रथममेव च्युतौ मे भ्रातरौ, समुत्पन्नौ अस्यामेव चम्दानगर्यां पुण्यदत्तस्येभ्यस्य शम्पाया भार्यायाः कक्षौ पुत्रतयेति । कृते च तयोर्नाम्नी बन्धुदेवः स.गरश्च । अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । ततश्च्युताऽहम् । समुत्पन्ना गजपुरे शंखस्येभ्यस्य शुभकान्त यः भार्यायाः कुक्षौ स्त्रीतयेति । जाता कालबन्धन, लौकिकता आश्चर्यकारक है। मैंने सामान्य से 'ये बहुत सारे दोष भगवान ने कहे थे'-ऐसा उपदेश दिया था, इसके दोष देखने के कारण इसे नहीं रोका । अतः क्या इतने मात्र से (यह) दुराचारिणी हो जायेगी ?' अनन्तर यह लज्जित हुआ । हाय मैंने बुरा किया-इस प्रकार उसे पश्चात्ताप हुआ। उसने अपनी पत्नी को प्रसन्न किया। तब मैंने सोचा-ये जोड़ा मेरे प्रति काला और धवल है अर्थात भाभी मेरे प्रति अधिक श्रद्धा नहीं रखती है, भाई रखता है। दूसरे भाई के प्रति भी यही किया। उसकी पत्नी से दूसरे प्रकार से कहा - 'अधिक कहाँ से क्या, हाथ की रक्षा करो।' ये जोड़ा भी (श्रद्धा की दृष्टि से) काला और सफेद निकला। इसी बीच मैंने कपट वचन कहने के दोष से तीव्र कर्म बाँधा । कुछ समय बीता। मैं दोनों भाइयों और भाभियों के साथ प्रजित हुई। आयु पूरी कर स्वर्गलोक गये । वहाँ भी आयु पूरी कर पहले मेरे दोनों भाई च्युत होकर इसी चम्मा नगरी के पुष्यदत्त धनी (इभ्य) के शम्पा नामक स्त्री के गर्भ से पुत्र के रूप में उत्पन्न हुए । उन दोनों के नाम बन्धुदेव और सागर रखे गये। कुछ समय बीता। अनन्तर मैं (स्वर्गलोक से) च्युत हुई (और) गजपुर में 'शंख' धनी की शुभकान्ता नामक स्त्री के गर्भ में कन्या के रूप में आयी। कालक्रम से (मेरा) १. महत्वन्नुतणं (महार्थज्ञत्व)-ख । २. परलोयं-ख। ३. संपाए-ख । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत्तमोभवो] वि भाउज्जायाओ चविऊण देवलोगाओ कोसलाउरे नयरे नंदणाभिहाणस्स इभस्स देविलाए मारियाए कुच्छिसि इत्थियत्ताए उववन्नाओ ति । जायाओ कालक्कमेणं, पइट्टावियाइं च नामाइ सिरि. मई कंतिमई य। अइक्कंतो कोइ कालो। सावयकुलुप्पत्तोए य पाविओ मए जिणिवमासिनो धम्मो । पत्ता जोवणं। दिट्ठा य अहमिगो गयउरगएणं लीलावणुज्जाणाओ सभवणमुवागच्छमागी बंधदेवेण । पुच्छियं च णं 'कस्स एसा कन्नय' ति। साहियं च से बद्धणाहिहाणेणं 'संखस्स धूया सम्वंगसुंदरि' त्ति । मग्गिया णेणं। भणियं च ताएणं-जोग्गो तुम, किं तु न साहम्मिओ ति। अभिग्गहो स मज्झं 'न संजोएमि अवच्चं असाहम्मिएणं ।' बंधुदेवेण भणियं-करेहि साहम्मियं । ताएण भणियं-सुणसु जिगवरपणीयं धम्मं, पडिवज्जसु य भावओ। तओ मज्झ लोभेण गओ साहसमीवं, आणिो धम्मो, भाविओ नियडिभावेणं न उण भावओ ति। पारखं अणदाणं, पवत्तियं दाणाइयं । अइक्कंतो कोई कालो। गओ तायसमीवं । भणियं च जेणं-अज्ज, न अन्नहा तए घेत्तव्यं । धन्नो खु अहं, जस्स मे अज्जेण उवएसो दिन्नो ति । तुह पसाएण मए पाविओ जिणभासियो क्रमेण । प्रतिष्ठापितं च मे नाम सर्वाङ्गसुन्दरीति । अत्रान्तरे तेऽपि भ्रातृजाये च्युत्वा देवलोकाद् कोशलापुरे नगरे नन्दनाभिधानस्येभ्यस्य देविलाया भार्यायाः कुक्षौ स्त्रीतयोफ्पन्ने इति। जाते कालक्रमेण । प्रतिष्ठापिते नामनी श्रीमती कान्तिमती च। अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । श्रावककलोत्पत्त्या च प्राप्तो मया जिनेन्द्रभाषितो धर्मः । प्राप्ता यौवनम् । दृष्ट। चाहमितो गजपुरगतेन लीलावनोद्यानात स्वभवनमुपागच्छन्ती बन्धुदेवेन । पृष्टं च तेन 'कस्यैषा कन्यका' इति । कथितं तस्य वर्धनाभिधानेन 'शङ्खस्य दुहिता सर्वाङ्गसुन्दरीति । मागिता ते । भणितं च तातेन--योग्यस्त्वम्, किन्तु न सार्मिक इति । अभिग्रहः स मम 'न संयोजयऽपत्यमसामिकेण' । बन्धुदेवेन भणितम्- कुरु सार्मिकम । तातेन भणित-शृणु जिनवरप्रणीतं धर्मम्, प्रतिपद्यस्व च भावतः । ततो मम लोभेन गतः साधुसमीपम्, आव णितो धर्मः, भावितो निकृतिभावेन न पुनर्भावत इति । प्रारब्धमनुष्ठानम्, प्रवर्तितं दानादिकम् । अतिक्रान्तः कोऽपि काल: गतः तातसमीपम् । भणितं च तेन-आर्य ! नान्यथा त्वया गृहीतव्यम् । धन्यः खल्वहम् , यस्य मे आर्येणोपदेशो दत्त इति। तव प्रसादे न मया प्राप्तो जिनभाषितो धर्मः । जन्म हुआ। मेरा नाम सर्वांगसुन्दरी रखा गया। इसी बीच वे दोनों भाभियाँ भी स्वर्गलोक से च्युत होकर कोशलापुर नगर में नन्दननामक धनी की देविला (नामक) स्त्री के गर्भ में कन्या के रूप में आयीं । कालक्रम से दोनों का जन्म हुआ। दोनों के नाम क्रमशः 'श्रीमती' और 'कान्तिमती' रखे गये । कुछ समय बीता। श्रावककूल में जन्म लेने के कारण मैंने जिनेन्द्रभाषित धर्म पाया। यौवनावस्था को प्राप्त हुई। यहाँ से गजपुर की ओर जाते हुए बन्धुदेव ने लीलावनोद्यान से अपने भवन को जाती हुई मुझको देखा। उसने पूछा-'यह किसकी कन्या है ?' उसने कहा- 'वर्धन नाम वाले शंख (स्तुतिपाठक) की पुत्री सर्वांगसुन्दरी है । उसने (पिताजी से याचना की और पिताजी ने कहा—'तुम योग्य हो, किन्तु साधर्मी नहीं हो । मेरा यह नियम है कि मैं (अपनी) सन्तान का सम्बन्ध असाधर्मी से नहीं करूँगा।' बन्धुदेव ने कहा-'साधर्मी बना लो।' पिताजी ने कहा-'जिनवर प्रीत धर्म को सुनो और भावपूर्वक उसे प्राप्त करो।' अनन्त र मेरे लोभ से वह साधु के पास गया, धर्म सुना और कपटपूर्वक धर्म स्वीकार किया, भावपूर्वक नहीं। उसने अनुष्ठान प्रारम्भ किया और दानादि दिया। कुछ समय बीत गया। (वह) पिताजी के पास गया और कहा-'आर्य ! आप अन्यथा न लें। मैं धन्य हैं जो कि आर्य ने Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइच्चकहा धम्मो । ता तुम मज्न परलोयबंधवो देवया गुरू, न कोइ सो जो न होहि ति । विइयसंसारसहावस्स य मज्झं थेवमियाणि कन्नयाए पओयणं ति। पयट्टो संपयं अहं निययदेसं । ता दिट्ठो तुमं । वहियव्वो मज्झ सासणाणुराएण वावारो, थिरीकरेयन्वो धम्मे, आइसियध्वं उचियकरणिज्ज, दढव्वो निययबुद्धीए त्ति । भणिऊण निवडिओ चलणेसु। सुद्धसहावत्तणेण बहुमन्निओ ताएणं, भणिओ य णेणं-वच्छ, धन्नो तुम, जेण सयलतेलोक्कदुल्लहा लद्धा जिणधम्मबोही, पावियं परमत्थपावियत्वं । ता एत्थ अप्पमत्तेण होयत्वं ति । पडिस्सुयमणेणं । निग्गओ गेहाओ। तारण वि सयणमेलयं काऊण साहिओ एस वइयरो। सुद्धसहावयाए जंपियमणेण --उचिओ खु एसो सव्वंगसुंदरोए भतारो त्ति पडिहाइ मज्झं । संपयं तुम्भे पमाणं ति। सयणेण भणियं-तुमं चेव जाणसि ति। सुंदरो य एसो सत्थवाहपुत्तो अम्हाणं पि बहुमओ चेव । तओ विइण्णा अहं। 'वत्तो विवाहो। दीणाणाहाण कयं उचियकरणिज्जं । तओ अइक्कतेसु कइवयदिणेसु अणुन्नविय तायं समागओ निययदेसं । अइक्कतो कोइ कालो। आगो विसज्जावओ पविट्ठो य गेहं। संपाडिओ से विहवसंभवाणुरूवो उवयारो। ततस्त्वं मम परलोक बान्धवो देवता गुरुः, न कोऽपि स यो न भवतीति । विदितसंसारस्वभावस्य च मम स्तोकमिदानीं कन्य काया: प्रयोजनमिति । प्रवृत्तः साम्प्रतमहं निजदेशम् । ततो दष्टस्त्वम् । वोढयो मम शासनानुरागेण व्यापारः, स्थिरीकर्तव्यो धर्म, आदेष्टव्यमुचिकरणीयम्, द्रष्टव्यो निजबुद्धयति । भणित्वा निपतितश्चरणयोः । शुद्धस्वभावत्वेन बहुमः नितस्तातेन, भणितस्तेन . . वत्स! धन्यस्त्वम्. येन सकललोक्यदुर्लभा लब्ध! जिनधर्मबोधिः, प्राप्तं परमार्थप्राप्तव्यम् । ततोऽत्राप्रमत्तेन भवितव्यमिति । प्र तेश्रुतमनेन । निर्गतो गेहाद् । तातेनापि स्वजनमेलकं कृत्वा कथित एष व्यतिकरः । शुद्धस्वभावतया जल्पितमनेन । उचितः खल्वेष सर्वाङ्गसुन्दर्या भर्तेति प्रतिभाति मम । साम्प्रतं यूयं प्रमाणमिति । स्वजनेन भणितम्-त्वमेन जानासीति सुन्दर श्चैष सार्थ व हपुत्रोऽस्माकमपि बहुमत एव । ततो वितीर्णाऽहम् । वृत्तो विवाहः । दीनानाथाना कृतम चतं करणीयम्। ततोऽतिक्रान्तेषु कतिपयदिनेष अनुज्ञाप्य तातं सम गतो निजदेशम् । अतिक्रान्तः कोऽपि कालः। आगत आयनार्थः प्रविष्टश्च गहम। सम्पादितस्तस्य विभवसम्भवानुरूप उपवार: । अतिक्रान्तो मुझे उपदेश दिया। आपकी कृपा से मैंने जिनोक्तधर्म पाया। अत: आप मेरे परलोक के बान्धव, देव । और ऐसा नहीं जो (आप) न हों। संसार के स्वभाव को जाननेवाले मुझे इस समय कन्या से क्या प्रयोजन ? अब मैं अपने देश को जाता है । आप मुझे दिखाई दिये, शासन के प्रति अनुराग होने से आप मेरे व्यापार के वाहक बनें, धर्म में स्थिर करें, योग्य कार्यों का आदेश दें और अपने समान देखें' -- ऐसा कहकर उनके चरणों में गिर गया। शुद्ध स्वभाव वाले होने के कारण पिताजी ने बहत सम्मान किया और उससे कहा-'वत्स ! तुम धन्य हो, जिसने समस्त लोकों में दुर्लभ जिनधर्मरूपी बोधि को प्राप्त कर लिया है, जो वास्तव में पाना चाहिए उसे पा लिया है । इस विषय में अप्रमत्त रहो।' इसने स्वीकार किया। (वह) घर से चला गया। पिताजी ने भी अपने लोगों को इकटठा कर यह घटना कही। शुद्ध स्वभाव वाला होने के कारण उन्होंने कहा - 'सर्वांगसुन्दरी के लिए मुझे यह योग्य पति प्रतीत होता है। आप लोग प्रमाण हैं।' स्वजनों ने कहा---'आप ही जानें । यह वणिकपुत्र सुन्दर है, हम लोगों की भी सम्मति है।' अनन्तर मुझे दे दिया गया। विवाह हुआ। दीन और अनाथों के योग्य कार्य (दानादि) को किया । अनन्तर कुछ दिन बीत जाने पर पिताजी से अनुमति लेकर अपने देश आया। कुछ १. वित्तो-के। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो भवो] ५६७ अइक्कतो वासरो, सज्जियं वासगेहं, पज्जालिया मंगलदोवा, विमुक्कं कुसुमरिसं, पत्थुया सेज्जा, उल्लंबियाई, कुसुमदामाइं, दिन्नाओ धूववट्टीओ, पणामिया पडवासा, ढोवियं उवगरणपडलयं, पविट्ठो बंधुदेवो। एत्थंतरम्मि उइयं मे नियडिबंधणं पढमं कम्मं । तओ अचितसामत्थयाए कम्मपरिणामस्स आगओ कहवि तत्थ खेत्तवालो। दिटुं च णेण तं बहुवरं। समुप्पन्ना य से चिता। पेच्छामि ताव खेड्ड। विप्पलंभेमि बंधुदेवं, मा होउ एएसि समागमो ति। अन्नपुरिसरूवेण बंसेमि अप्पाणयं बंधदेवस्स, सविसयजायावाहरणेण य जणेमि आसंकं ति। चितिऊण संपाडियं जहा चितियमणेण - दिट्टा य बंधुदेवेण वायायणनिमियवयणा ‘कहिं अज्ज एत्थ सव्वंग सुंदरि' त्ति जंपिरी दइ विगी पुरितागिई। समप्पन्नो य से वियप्पो, अवगया आलोयणा, वियम्भिया अरई, गहिओ कसाहिं । चितियं च ण - दुट्ठसीला मे महिलिया; अन्नद्दा कहं कोइ अवलोइउं एवं च वाहरिउंगओ त्ति । विगलिओ नेहाणुबंधो, जाया से अमेत्ती। एत्थतरम्मि समागया अहं वासभवणं। कयमणेण 'पसुत्तवेड्डयं । तओ ‘सामिणि निवजसु' ति मणिऊण निग्गयाओ सहीओ। विइण्णं वासरः, मज्जितं वासगृहम्, प्रज्वालिता मङ्गलदीपाः, विमुक्तं कुसुमवर्षम् । प्रस्तृता शय्या, उल्लम्बिा न कुसुमदामानि, दत्ता धूपवर्तयः, अर्पिताः पटवासाः, ढौक्तिमुपकरणपटलम्, प्रविष्टो बन्धुदेवः । अत्रान्तरे उदितं मे निकृति बन्धनं प्रथम वर्म। ततोऽचिन्यसामर्थ्यतया कर्मपरिणामस्यागतः कथमपि तत्र क्षेत्रपालः । दृष्टं च तेन तद् वधूवरम् । समुत्पन्ना च तस्य चिन्ता । प्रेक्षे तावत् कौतुकम् । विप्र नम्मयामि वन्धुदेवम्, मा भवत्वेतयोः समागम इति । अन्यपुरुषरूपेण दर्शयाम्यत्रास्मानं बन्धुदेवस्य. स्वविष जायाव्याहरणेन च जनयाम्याशङ्कामिति । चिन्तयित्वा सम्पादितं यथा चिन्तितमनेन । दृष्टा च बन्धुदेवेन वातायनन्यस्तवदना 'कुत्राद्यात्र सर्वाङ्गसुन्दरी, इति जल्पयन्ती दैविकी पुरुषाकृतिः । समुत्पन्नश्च तस्य विकल्पः, अपगता कष यः । चिन्तितं च तेन-दुष्टशाला मे महिला, अन्यथा वथं कोऽप्यवलोक्य एवं च व्याहृत्य गत इति । विगचितः स्नेहानुबन्धः, जाता तस्यामैत्री। अत्रान्तरे समागताऽहं वासभवनम् । कृतमनेन प्रसुप्तवेष्टितम । ततः 'स्वामिनि ! निपद्यस्व' इति भणित्वा निर्गताः सख्यः । वितीर्ण भवनद्वारम् । समय बीता । (वह) लेने के लिए आया और उसने घर में प्रवेश किया। उसके वैभव और कुल के अनुरूप सत्कार किया। दिन व्यतीत हुआ, शयनगृह को सजाया, मंगलदीपक जलाये, फूलों की वर्षा की। शय्या बिछायी, फूलों की मालाएं लटकायीं, धूपबती जलावी, सुगन्धित द्रव्य लगाया, उपकरणों का समूह भेंट किया, बन्धुदेव प्रविष्ट हुआ । इसी बीच कपट के कारण बाँधा हुआ मेरा पहला कर्म उदित हुआ। अनन्तर कर्मपरिणाम की अचिन्त्यता के कारण किसी प्रकार वहा क्षेत्रपाल आ गया । उसने उस वधू और वर को देखा। उसे चिन्ता उत्पन्न हुई-कोतूहल देखू, बन्धुदेव को धोखा दूं, इन दोरों का समागम न हो । अन्य पुरुष के रूप में अपने आपको बन्धुदेव को दिया और पीसी समान सागमन्दरी से व्यवहार कर शंका उत्पन्न करूँगा-ऐसा सोचकर उसने जैसा सोचा था, वैमा किया। बन्धुदेव ने खिड़की से झांक कर देखा - कोई दैवी पुरुषाकृति कह रही है - 'आज यहाँ सर्वांगसुन्दरी कहाँ ?' उसके मन में विकल्प हुआ, विचार जाता रहा, अरति बढ़ गयी । (बन्धुदेव को) कष यों ने जकड़ लिया। उसने सोचा-मेरी स्त्री दुष्ट शीलवाली है। नहीं तो कोई देखकर ऐसा कहकर कैसे बला गया? उहा स्नेह सम्बन्ध टुट गया, उसके प्रति अमैत्री उत्पन्न हो गयी। इसी बीच मैं शयनागार में अायी। १. परिसागिती-कम्, पसनचेट्टयं-ख । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइच्चकहा भवणारं। कहकहवि उपविट्ठा सयणीएगदेसे । तओ झत्ति उट्रिओ बंधुदेवो । ससज्भसा य अहयं । तमो भए चित्तियं हंत किमे' ति। सज्झसेणं न पुच्छिो एसो। अजंपिऊण निमित्तं सयणीयमुवनओ ति। जाया से मिच्छा वियप्पा, अडाणखेएण य समागया कहवि निहा । अहं पि कम्मपरि. जामाणुरूवेण गहिया महासोएणं। संपत्ता अणाचिक्षणीयमवत्यंतरं। उवविट्ठा धराए। तओ नारयस्स विय महाउपद्धा कहकहवि चोलिया मे रयणी। समागयाओ सहीओ। निग्गओ बंधुदेवो । तओ में अस्थाणसंठियं सहा पेच्छिऊण जंपियं मे सहीहिं 'सामिणि, किमयं' ति । तओ उक्कडयाए सोगाणलस्स निपाए सरणीणं पणयाए मईए अहणोययाए पओयणस्स न जंपियं मए ति। विद्दाणाओ सहीओ । संगग्गयक्खरं पुणो जंपियमिमीहि सामिणि, किमयं' ति । तओ तव्वयणसवणसमागयमईए पिकं मए-हला, न याणामि, भागधेयाणि मे पुच्छह ति। साहिओ रयणिवइयरो। चितियं च जाहि। किमेत्य कारणं ति । न ताव इहलोयदोसो सामिणीए, न यावि सो अकुसलो सत्थवाहपुत्तो; तामवियन्वं एत्य कम्मपरिणईए ति। एत्यंतरम्मि अपुच्छिऊण सय णवग्गं निग्गओ बंधुदेवो 'महंत कथं कथमपि उपविष्टा शयनीयैकदेशे । ततो झटित्युत्थितो बन्धुदेवः । सस ध्वसा चाहम् । ततो मया चिन्तितम्-'हन्त किमेतद्' इति । साध्वसेन न १ष्ट एषः । अजल्पित्वा निमित्तं शयनीयमपगतइति । जातास्तस्य मिथ्याविकल्पाः, अध्वखेदेन च समागता कथमपि निद्रा। अहमपि कर्मपरिणामानुरूपेण गृहीत महाशोकेन । सम्प्राप्ताऽनाख्यानीयम वस्थान्तरम् । उपविष्टा धरायाम्। ततो नारकस्येव यथाऽऽयुष्काद्धा कथं कथमपि व्यतिक्रान्ता मे रजनी । समागताः सख्यः । निर्गतो बन्धुदेवः । ततो मामास्यानसंस्थितां तथा प्रेक्ष्य जल्पितं मे सखीभिः 'स्वामिनि ! किमेतद्' इति । तत उत्कटतया शोकानलस्य निरुद्धतया सरणीनां प्रनष्टतया मत्या अकथनीयतया प्रयोज-स्य न जल्पतं मयेति । विद्राणाः सख्यः । सगदगदाक्षरं पुनर्जल्पितमाभिः 'स्वामिनि किमेतद' इति । ततस्तद्वचनश्रवणसमागत मत्या जल्पितं मया--सख्यो ! न जानामि, भागधेया न मे पृच्छतेति । कथितो रजनीव्य तकरः । चिन्तितं चाभिः । किमत्र कारणमिति । न तावदिहलोकदोषः स्वामिन्याः, न चापि सोऽक शलः सार्थवाहपुत्रः, ततो भवितव्यमत्र कर्मपरिणत्येति । अत्रान्तरे अपृष्ट वा स्वगनवर्ग निर्गतो बन्ध देवो 'महन्मे बन्धुदेव ने सोने की चेष्टा की । अनन्तर स्वामिनी ! 'सो जाइए'- ऐसा कहकर सखियाँ निकल गयीं। भवनद्वार बन्द कर दिया। जिस किसी प्रकार शय्या के एक ओर बैठी। अनन्तर शीघ्र ही बन्धुदेव उठ खड़ा हुआ और घबरायी हुई मैं भी खड़ी हो गयी। पश्चात् मैंने सोचा-हाय, यह क्या ? घबराहट के कारण बन्धुदेव से नहीं पूछा। कारण न कहकर (यह) शय्या पर आ गया। उसे झूठा विकल्प उत्पन्न हुआ और मार्ग की थकावट के कारण किसी प्रकार नींद आ गयी। कर्म के परिणाम के अनुरूप मुझे भी महाशोक ने जकड़ लिया। मैं अकथनीय अवस्था को प्राप्त हो गयी। धरती पर बैठ गयी। अनन्तर नरक जैसी जिस किसी प्रकार रात बितायी। सखियाँ आयीं, बन्धदेव निकल गया । पश्चात मुझे अस्थान में स्थित देख मेरी सखियों ने कहा- 'स्वामिनी ! यह क्या ?' अनन्तर शोकरूपी अग्नि की उत्कटता, मागों की रुकावट, बद्धि का नष्ट हो जाना तथा प्रयोजन की अकथनीयता के कारण मैं नहीं बोली । सखियाँ द:खी हो गयीं। गदगद अक्षरों में इन लोगों ने पुनः कहा'स्वामिनी, यह क्या ? अनन्तर उनके वचनों के सनने से बुद्धि आ जाने के कारग मैंने कहा-'सखियो, मैं नहीं जानती हैं। मेरे भाग्य से पूछो।' रात्रि का वत्तान्त कहा। इन लोगों ने सोचा-क्या कारण है ? स्वामिनी का इस लोक का कोई दोष नहीं है, वह वणिकपुत्र अकुशल भी नी है अत: यहाँ कर्म की परिणति ही होनी Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो भवो] ५६६ मे पओयणं' ति साहिऊण सूरिलस्स समागओ चंपं। अवच्चसिणेहाणुबंधेण कुविया य मे जणणिजणया बंधुदेवस्स। को असंववहारो। अइक्कंतो कोइ कालो। जाया य मे चिता। ईइसो एस संसारो, सुलहाणि एत्थ दुक्खाणि, दुल्लहा चरणपडिवत्ती, चंचलं जीवियं । ता अलं मे किलेसायासकारएण संसारहेउणा गिहासमेणं: पवज्जामि पव्वज्ज ति। एत्थंतरम्मि समागया अहासंजमविहारेणं विहरमाणो जसमई नाम पवत्तिणि ति । साहिओ मए निययाहिप्पाओ जणणिजणयाणं, बहुमओ य तेसि । अणुसासिया य हिं पवन्ना जहाविहीए पव्वज ति। इओ य परिणीया बंधुदेवेण कोसलाउरे नंदस्स धूया सिरिमई, भाउणा य से तीए चेव भइणी कतिमइ ति। अइक्कतो कोइ कालो। समुप्पन्नो पणओ, आणीयाओ चंपं, पबूढो घरवासो। एत्थंतरम्मि अहं अहासंजमं विहरमाणी समं पवत्तिणीए समागया चंपं। अप्पमायओ पणटपुव्ववइयरसइया पविट्टा गोयरं। तत्थ वि गया बंधुदेवगेहं । दिट्ठा सिरिमइकंतिमईहिं। पुत्वभवन्भासओ जाया ममोवरि पोई। पडिलाहिया फासुपदाणेणं । समागयाओ डिस्सयं । साहिओ तासि धम्मो, परिणओ प्रयोजनम' इति कथयित्वा सूरिलस्य (श्वसुरस्य) समागतश्चम्पाम् । अपत्यस्नेहानुबन्धेन कुपितौ च मे जननीजनको बन्धुदेवस्य । कृतोऽसंव्यवहारः । अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । जाता च मे चिन्ता । ईदश एष संसारः, सुलभान्यत्र दुःखानि, दुर्लभा चरणप्रतिपत्तिः, चञ्चलं जीवितम् । ततोऽलं मे क्लेशायासकारकेन संसारहेतुना गृहाश्रमेण, प्रपद्ये प्रव्रज्यामिति । अत्रान्तरे समागता यथासंयमविद्वारेण विहरन्ती यशोमति म प्रतिनीति । कथितो मया निजाभिप्रायो जननीजनकयोः, बहमतश्च तयोः । अनुशिष्टा च ताभ्यां प्रपन्ना यथाविधि प्रव्रज्यामिति । इतश्च परिणीता बन्धुदेवेन कोशलापुरे नन्दस्य दुहिता श्रीमती, भ्राता च तस्य तस्या एव भगिनी कान्तिमतीति । अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । समुत्पन्नः प्रणयः, आनीते चम्पाम । प्रव्यूढो (प्रवत्तो) गहवासः । अत्रान्तरेऽहं यथासंयम विहरन्ती समं प्रवर्तिन्या समागता चम्पाम् । अप्रमादतः प्रनष्टपूर्वव्यतिकरस्मतिका प्रविष्टा गोचरम् । तत्रापि गता बन्धुदेवगृहम् । दृष्टा श्रीमतीकान्तिमतीभ्याम् । पूर्वभवाभ्यासतो जाता ममोपरि प्रीतिः। प्रतिलाभिता प्रासुकदानेन । समागते प्रतिश्रयम। चाहिए । इसी बीच स्वजनों से बिना पूछे 'श्वसुर से मुझे बहुत बड़ा कार्य है'--- ऐसा कहकर बन्धुदेव निकल गया और चम्पानगरी में आया। सन्तान के प्रति स्नेह होने के कारण मेरे माता-पिता बन्धुदेव पर कुपित हुए। उससे सम्बन्ध नहीं रखा। कुछ समय बीत गया। मुझे चिन्ता उत्पन्न हुई- यह संसार ऐसा ही है, यहाँ पर दुःख सुलभ हैं, चारित्र की प्राप्ति दुर्लभ है, जीवन चंचल है। अतः क्लेश और परिश्रम करनेवाले संसार के हेतुभूत गृहस्थाश्रम से मेरा कोई प्रयोजन नहीं है, दीक्षा लेती हूँ। इसी बीच संयमानुसार विहार करती हुई यशोमति नाम की प्रवर्तिनी (साध्वियों की अध्यक्ष) आयी। मैंने अपना अभिप्राय माता-पिता से कहा, उन दोनों ने स्वीकृति दे दी। उन दोनों की आज्ञा लेकर मैंने विधिपूर्वक दीक्षा ले ली। इधर बन्धुदेव ने कोशलापुर में नन्द की पुत्री 'श्रीमती' से विवाह किया और उसके भाई के साथ श्रीमती की बहिन कान्तिमती का विवाह हुआ। कुछ समय बीता। प्रेम उत्पन्न हुआ, दोनों को चम्पा में ले आया । बन्धुदेव गृहवास में प्रवृत्त हो गया। इसी बीच मैं संमयानुसार प्रवर्तिनी के साथ विहार करती हुई चम्पा आयी। पहली घटना की जिसकी स्मृति नष्ट हो गयी थी, ऐसी मैं प्रमादरहित होकर मार्ग में प्रविष्ट हुई। उस पर भी बन्धुदेव के घर प्रविष्ट हुई । वहाँ पर श्रीमती और कान्तिमती ने देखा। पूर्वभव के अभ्यास के कारण उन दोनों की मुझ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्च कहा । तओ जायाओ सावियाओ । भणियं च णाहि कायव्वो तए अम्ह गेहागमणेण पसाओ, जेण परियो वि णे उवसमइति । अणुन्नाया पवत्तिजोए समारद्धा जाइउं । ५७० एत्थंतरम्मि उइणं मे नियडिनिबंधणं बीयं कम्मं । तओ सिरिमइकंतिमईणं ममोवरि असाहारणभत्तिबहुमाणेह विहिओ एयासि भवणवाणमंतरो । चितियं च णेणं पेच्छामि ताव अत्थावहारेण यासि कीsi साहुणीए उवरि चित्तं ति । अन्नया गया अहमिमीण गेहं । दिट्ठा य कंतिमई वासभवणम्मि पडलयट्ठियं हारं पोयमाणी । अन्भुट्टिया अहमणाए, कयं विहिवंदणयं, उवणीयाई आसणाई, उवविट्टा अहयं साहुणीओ य । कया धम्मदेसणा । पयट्टा अहयं पडिस्सयं । तओ तीए भणियं - अज्जे, अज्ज तुह पारणयं ति; ता गेण्हावे हि एवं फासुयपहेणयं । तओ मए भणियाओ साहुजीओ 'गेहह' त्ति । निग्गयाओ साहुणीओ कंतिमई य । एत्थंतरम्मि वाणमंतरपओएण चित्त माओ चेव ओरिओ मोरो । गहिओ णेण हारो, पविखत्तो उयरम्मि, ठिओ य निययथामे । तओ मए चितिथं - किमेयमच्छरीयं, अहवा मयहरियं पुच्छिस्सामि ति । निग्गया वासगेहाओ, कथितस्तयोर्धर्मः परिणतश्च । ततो जाते श्राविके । भणितं च ताभ्याम् - कर्तव्यस्त्वया आवयोगृहागमनेन प्रसादः, , येन परिजनोऽप्यावयोरुपशाम्यति इति । अनुज्ञाता प्रवर्तिन्या समारब्धा यातुम् । अत्रान्तरे उदीर्णं मे निकृतिनिबन्धनं द्वितीयं कर्म । ततः श्रीमतीकान्तिमत्योर्ममोपरि असाधारणभक्ति बहुमानाभ्यां विस्मित एतयोर्भवनवानमन्तरः । चिन्तितं च तेन - प्रेक्षे तावदर्थापहारेण एतयोः कीदृशं साध्या उपरि चित्तमिति । अन्यदा गताऽहमनयोर्गृहम् । दृष्टा च कान्तिमती वासभवने पटकस्थितं हारं प्रोयमाना । अभ्युत्थिताऽहमनया, कृतं विधिवन्दन कम्, उपनीतान्यासनानि, उपविष्टाऽहं साध्व्यश्च । कृता धर्म देशना । प्रवृत्ताऽहं प्रतिश्रयम् । ततस्तया भणितम् - आयें ! अद्य तव पारणकमिति, ततो ग्राहयैतत्प्रासुकखाद्यम् । ततो मया भणिताः साध्यो 'गृह्णीत' इति । निर्गताः साध्व्यः कान्तीमतो च । अत्रान्तरे वानमन्तरप्रयोगेण चित्रकर्मण एवावतीर्णो मयूरः । गृहीतस्तेन हारः, प्रक्षिप्त उदरे, स्थितश्च निजस्थाने । ततो मया चिन्तितम् - किमेतदाश्चर्यम्, अथवा महत्तरां प्रक्ष्यामि इति । निर्गता वासगृहात्, संक्षुब्धा हृदयेन । आगताः साध्व्यः कान्तिमती च । ततो गता में प्रीति हो गयी। उन्होंने प्रासुकदान देकर सत्कार किया। दोनों आश्रम में आयी। उन दोनों को धर्म का उपदेश दिया, उन्होंने माना। अनन्तर वे दोनों श्राविकाएँ हो गयीं। उन दोनों ने कहा कि आप हम दोनों के घर आने की कृपा करें, जिससे हमारे परिजन भी निवृत्ति को प्राप्त हों । प्रवर्तिनी ने आज्ञा दे दी, मैं जाने लगी । इसी बीच कपट से बाँधा हुआ मेरा दूसरा कर्म उदय में आया। उससे श्रीमती और कान्तिमती को मुझपर असाधारण भक्ति और सम्मान होने के कारण इन दोनों के भवन का वानमन्तर विस्मित हुआ । उसने सोचाइन दोनों का साध्वी के प्रति किस प्रकार चित्त है, यह मैं धन चुराकर देखता हूँ। एक बार मैं उन दोनों के घर गयी और कान्तिमती को शयनागार में पेटी में रखे हार को पिरोते हुए देखा। यह मुझे देखकर उठ गयी, विधिपूर्वक बन्दना की । आसन लायी गयीं। मैं और साध्वियां बैठ गयीं। मैंने धर्मोपदेश दिया । प्रतिश्रय निवास को चल पड़ी । अनन्तर उसने कहा- आयें ! आज आपका भोजन है, अत: यह प्रासुक ( स्वच्छ, जीवजन्तु से रहित ) भोजन ग्रहण कीजिए।' तब मैंने साध्वियों से कहा- 'ग्रहण कर लो।' साध्वियों औ कान्तिमती निकल गयीं। इसी बीच व्यन्तर के प्रयोग से चित्र से ही मोर उतरा। उसने हार ले लिया, उदर में डाला और अपने स्थान पर स्थित हो गया। पश्चात् मैंने सोचा - यह आश्चर्य है अथवा मालकिन से पूछूंगी। मैं निवासगृह से निकली, हृदय क्षुब्ध हो गया । साध्वियाँ आयीं और कान्तिमती आ गयी । अनन्तर हम लोग गये। कान्तिमती शयन Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो भवो] संखुद्धा हियएणं । आगयाओ साहुणीओ कंतिमई य । तओ गया अम्हे । पविट्ठा कंतिमई वासभवणं । तयणंतरमेव निरूविओ हारो, जाव नत्थि त्ति । तओ तीए चितियं-किमयं वड्डखेड्डु। पुच्छिओ परियणो। तेण भणियं--न याणामो, न य कोइ एत्थ अज्ज मोत्तूण पविट्ठो; ता तयं निरूवेहि । कंतिमईए भणियं-किमेवमसंबद्धं पलवह । समतणमणिमुत्तलेठुकंचणा भयवइ त्ति । अंबाडिओ परियणो, फट्टच लोए। मए वि आगंतूण साहियं पवत्तिणीए । भणियं च णाए-वच्छे, विचित्तो कम्मपरिणामो, नत्थि किंचि वि एयस्स असंभावणिज्जं ति । ता अहिययरं तवचरणसंगयाए होयध्वं । न गंतव्वं च तं सत्थवाहगेहं । न याणामि कस्सवि इयमणिट्ठति। अन्नं च । दुहा वि पवयणलाघवं, रक्खियव्वं च एवं महापयत्तेणं। अरक्खमाणे य जोवे जणेइ एयस्स सरयचंदचंदिमासच्छहस्स मालिन्न, आवाएइ परमपयहेउणो अहम्मबुद्धि, विपरिणामेइ अहिणवधम्मसंगयं जणं, लंघेइ अलंघणिज्जं परमगरुआणं ति। तओ य से जीवे अणेयसत्ताण पडिवज्जिऊण संसारहेउभावं मज्झिऊण कज्जाकज्जेसु पउस्सिऊण गुणाणं बहुमन्निऊणमगुणे संचिऊणमबोहिमूलाइ दोहमद्धं संसारवयम् । प्रविष्टा कान्तिमती वासभवनम् । तदनन्तरमेव निरूपितो हारः, यावद् नास्तीति । ततस्तया चिन्तितम् । किमेतद् महत्कुतूहलम् । पृष्टः परिजनः । तेन भणितम्-न जानीमः, न च कोऽप्यत्र आर्यां मुक्त्वा प्रविष्टः, ततस्तां निरूपय । कान्तिमत्या भणितम्-किमेवमसम्बद्धं प्रलपत, समतृणमणिमुक्तालेष्टुकाञ्चना भगवतीति । तिरस्कृतः परिजनः। प्रसृतं च लोके । मयाप्यागत्य कथितं प्रवतिन्याः । भणितं च तया-वत्से ! विचित्रः कर्मपरिणामः, नास्ति किञ्चिदप्येतस्यासम्भावनीयमिति । ततोऽधिकतरं तपश्चरणसङ्गतया भवितव्यम् । न गन्तव्यं च तत्सार्थवाहगृहम् । न जानामि कस्यापीदमनिष्टमिति । अन्यच्च द्विधापि प्रवचनलाघवम्, रक्षितव्यं चैतन्महाप्रयत्नेन । अरक्षति च जीवे जनयत्येतस्य शरच्चन्द्रचन्द्रिकासच्छायस्य मालिन्यम्, आपादयति परमपदहेतोरधर्मबुद्धिम्, विपरिणामयत्यभिनवधर्मसङ्गतं जनम्, लङ्घयति अलङ्घनीयां परमगुर्वाज्ञामिति । ततश्च स जीवोऽनेकसत्त्वानां प्रतिपद्य संसारहेतुभावं मोहित्वा कार्याकार्ययोः प्रद्विष्य गुणान् बहु मत्वाऽगुणान् सञ्चित्याबोधिमूलानि दीर्घाध्वानं संसारसागरं पयटतीति। एतच्छ् त्वा समुत्पन्ना मे संवेगभावना. गृह में प्रविष्ट हुई। तदनन्तर हार देखा, नहीं था। उसने सोचा-यह कैसा बड़ा कौतूहल है ? सेवक से पूछा। उसने कहा -'नहीं जानते हैं और आर्या को छोड़कर कोई भी यहाँ प्रविष्ट नहीं हुआ अत: उन्हीं को देखो।' कान्तिमती ने कहा-'यह असम्बद्ध बकवास क्यों करते हो? भगवती की दृष्टि तृण, मणि, मोती, ढेला, स्वर्ण, सबमें समान है ।' सेवक का तिरस्कार हुआ। बात लोगों में फैल गयी। मैंने भी आकर प्रवर्तिनी (साध्वियों की अध्यक्ष) से कहा । उसने कहा-'वत्से ! कर्म की परिणति विचित्र है, उसके लिए कुछ भी असम्भव नहीं है । अतः अत्यधिक तप करना होगा और उस व्यापारी के घर नहीं जाना होगा। नहीं जानती हूँ यह किसका अनिष्ट है। फिर, प्रवचनलाघव भी दो प्रकार का होता है, इसकी बड़े प्रयत्न से रक्षा करनी चाहिए । जो जीव इसकी रक्षा नहीं करता यह उसकी शरत्कालीन चन्द्रमा की किरणों को मलिन कर देता है, परमपद के हेतुभूत धर्म में अधर्मबुद्धि ला देता है, मनुष्य को नये धर्म से युक्त बना देता है और अलंघनीय परमगुरु की आज्ञा का उल्लंघन करा देता है। वह जीव अनेक प्राणियों को संसार के कारणरूप भावों को प्राप्त कराकर कार्य-अकार्य के विषय में मोहित कर, गुणों से द्वेष कर, अगुणों को बहुत मानकर, अबोधि के मूल में संचित कर लम्बे मार्गवाले संसारसागर में लपेटता है।' यह सुनकर उदासीन भावना उत्पन्न हुई, गुरु के वचन प्रस्तुत हुए, तपविशेष Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइच्चकहा सायरं परियडइ ति । एवं सोऊण समुप्पन्ना में संवेगभावणा, पत्थुयं गुरुवयणं, अंगीकओ तवविसेसो, परिचत्तं बंधुदेवगिहगमणं । आसंकियं परियणेणं । न संकियाओ सावियाओ। चितियं च णाहिं । उवलद्धं एत्थ किंपि अज्जाए, तेण नागच्छइ 'मा मे संकडं भविस्सइत्ति । जुत्तं च एवं इहलोयनिप्पिवासस्स मुणिजणस्स । अणेयदोसो खु परघरपवेसो। पडिवन्नो य णाए धम्माणुराएण। ता अलं णे एत्थ अणुबंधणं । अम्हे चेव तत्थ गच्छिस्सामो त्ति । चितिऊण संपाडियं समीहियं । अइक्कता कइवि दियहा। परिणया मे भावणा, विसुद्धं चित्तरयणं, नियत्तो अग्गहो, आवडियं परमज्झाणं, वियलिओ कम्मरासी, जायं अपुव्वकरणं, समुप्पन्ना खवगसेढी; उल्लसियं जीववीरिएणं, वढिओ सुहपरिणामो, समुप्पन्नं केवलं । खविज्जमाणे य तन्निबंधणभूए कम्मए अभावेण य निमित्तस्स संजायपच्छायावेण वाणमंतरपओगेण विमुक्को मोरेण हारो। ता एवं जहुत्तनिमित्तस्स कम्मुणो एस विवागो ति। एत्यंत रस्मि विम्हिया परिसा । अहो एद्दहमेत्तस्स वि दुक्कडस्स ईइसो विवागो त्ति चितिऊण प्रस्तुतं गुरुवचनं, अङ्गीकृतो तपोविशेषः, परित्यक्तं बन्धुदेवगृहगमनम् । आशङ्कितं परिजनेन, न शङ्क्तेि श्राविके। चिन्तितं च ताभि:-उपलब्धमत्र किमप्यार्यया, तेन नागच्छति ‘मा मे संकटं भविष्यति' इति । युक्तं चैतदिहलोकनिष्पिपासस्य मुनिजनस्य । अनेक दोषः खलु परगृहप्रवेशः । प्रतिपन्नश्च तथा धर्मानरागेण । ततोऽलमावयोरत्रानुबन्धेन। आवामेव तत्र गमिष्याव इति । चिन्तयित्वा सम्पादितं समीहितम । अतिक्रान्ता: कत्यपि दिवसाः। परिणता मे भावना, विशुद्धं चित्तरत्नम , निवृत्तोऽग्रहः, आपतितं परमध्यानम्, विचलितः कर्मराशिः, जातमपूर्वकरणम् , समुत्पन्ना क्षपकश्रेणिः, उल्लसितं जीववीर्येण, वृद्धः शुभपरिणामः, समुत्पन्नं केवलम् । क्षीयमाणे च तन्निबन्धनभूते कर्मणि अभावेन च निमित्तस्य सजातपश्चात्तापेन वानमन्तरप्रयोगेण विमुक्तो मयरेण हारः । तत एवं यथोक्तनिमित्तस्य कर्मण एष विपाक इति ।। अत्रान्तरे विस्मिता परिषद् । अहो एतावन्मात्रस्यापि दुष्कृतस्य ईदृशो विपाक इति अंगीकार किया, बन्धुदेव का घर छोड़ दिया। सेवक को शंका हुई। किन्तु दोनों श्राविकाओं ने शंका नहीं की। उन्होंने सोचा-कोई आर्या को मिल गया होगा, अत: नहीं आती होंगी। मुझ पर संकट न आ जाय। इस लोक के प्रति पिपासा से रहित मुनिजन के लिए यह युक्त ही है। दूसरे के घर में प्रवेश करना अनेक दोषों वाला है । वह धर्मानुराग से आती थीं । अतः भावी अशुभपरिणामों से हम दोनों बस करें अर्थात् आगे के लिए अशुभपरिणाम रखना व्यर्थ है। 'हम दोनों ही वहाँ जाया करेंगी'-ऐसा सोचकर इष्ट कार्य सम्पन्न किया अर्थात् वे दोनों ही प्रतिश्रय में आने लगीं। कुछ दिन बीत गये। मेरी भावना फलित हुई, चित्तरत्न विशुद्ध हो गया, बुरे ग्रह समाप्त हो गये, उत्कृष्ट ध्यान हुआ, कर्मराशि विचलित हो गयो, अपूर्वकरण हुआ, क्षपकश्रेणी उत्पन्न हुई। आत्मा वीर्य से उल्लसित हुई, शुभपरिणाम बढ़ा, केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। उस कारणभूत कर्म के क्षीण होने और निमित्त के अभाव होने पर वानमन्तर को पश्चात्ताप हुआ और उसके प्रयोग से मोर ने हार छोड़ दिया। तो कहे हुए कर्म के निमित्त का यह फल है । इसी बीच सभा विस्मित हुई। 'ओह, इतने से दुष्कृत का ऐसा फल !'- ऐसा सोचक र राजदेव और बन्धुदेव Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो भवो ] पिबंधु देहि | अहो दारुणं महंतं दुक्खमणुभूयं भयवईए । तीए भणियं - सोम्म, केतियमिणं ति सुण । सुरनरनरयतिरिक्खेसु वट्टमाणाणमेत्थ जीवाणं । को संखं पि समत्यो काउं तिवखाण दुक्खाणं ॥ ५६६ ॥ अच्छंतु तिरियनरएसु ताव अइदुस्सहाइ दुक्खाई । मणुयाण वि जाइ हवंति ताण को वच्चए अंतं ।। ५७० ॥ जं होइ जियाण दुहं कलमलभरियम्मि गन्भवासम्मि । एक्कं पिय वच्चs नवरि' तस्स नरएण सारिच्छं ॥ ५७१ ॥ जायाणवि जम्मजरामरणेहि अहिदुयाण किं सोक्खं । पियविरहपरम्भत्थणवमुह महाव सण गहियाणं ॥ ५७ ॥ जं पि सुरयम्मि सोक्खं जायइ जीवस्स जोन्वणत्थत्स । तंपि हु चितिज्जंत दुक्खं चिय केवलं नूणं ॥ ५७३ ।। चिन्तयित्वा जल्पितं नरेन्द्र बन्धुदेवाभ्याम् । अहो दारुणं महद, दुःखमनुभूतं भगवत्या । तया भणितम् - सौम्य ! कियदिदमिति । शृणु सुरनरनरकतिर्यक्ष वर्तमानानामत्र जीवानाम् । कः संख्यामपि समर्थः कर्तुं तीक्ष्णानां दुःखानाम् ।। ५६६॥ आसतां तिर्यङ नरकेषु तावदतिदुःसहानि दुःखानि । मनुजानामपि यानि भवन्ति तेषां को व्रजत्यन्तम् ।। ५७० ।। यद, भवति जीवानां दुःखं कलमलभृते गर्भवासे । एकमपि च व्रजति नवरं तस्य नरकेण सादृश्यम् ।। ५७१।। जातानामपि जन्मजरामरणैरभिद्रुतानां कि सौख्यम् । प्रियविरहपराभ्यर्थनाप्रमुख महाव्यसनगृहीतानाम् । ५७२ ।। यद्यपि सुरते सौख्यं जायते जीवस्य यौवनस्थस्य । तदपि खलु चिन्त्यमानं दुःखमेव केवलं नूनम् ॥५७३ ॥ ५७३ ने कहा - ओह ! भगवती ने दारुण दुःख का अनुभव किया ।' भगवती ने कहा - 'सौम्य ! यह भला कितना है । सुनो देव, मनुष्य, नरक और तिर्यंच गतियों में वर्तमान जीवों के तीक्ष्ण दुःखों की गणना भी करने में कौन समर्थ है ? तिर्यंच और नरकगतियों में रहनेवाले जीवों के दुःख अत्यन्त दुःसह हैं। मनुष्यगति में भी जो दुःख होते हैं, उनका कौन अन्त पा सकता है ? अपक्व मल से भरे हुए गर्भवास में जीवों को जो दुःख होता है, एक नरक का दुःख ही उसकी समानता पा सकता है। जन्म, जरा और मरण से आक्रामित तथा इष्टवियोग, अनिष्ट संयोगादि प्रमुख आपत्तियों से जकड़े हुए जन्म लेनेवाले प्राणियों को क्या सुख होता है ? यद्यपि युवावस्था जीव को सम्भोग में सुख उत्पन्न होता है, किन्तु विचार करने पर वह दु:ख ही है ॥ ५६६-५७३ ॥ में १. नवरं तस्स तं चैव सारिक्खक को तस्स नवरि वच्चइ उवमं तं चेव सारिच्छं - ख । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ | समराइच्चकहा पामागहियस्स जहा कंडुयणं दुक्खमेव मूढस्स । पडिहाइ सोक्खमतुलं एवं सुरयं' पि विन्नेयं ॥५७४।। वंचिज्जइ एस जणो अचेयणो पमुहमेतरसिएहि । खलसंगएहि व सया विरामविरसेहि भोएहि ॥५७५।। ता उज्झिऊण एए अणवज्ज परमसोक्खसंजणयं । तित्थयरभासियं खलु पडिवज्जह भावओ धम्मं ॥५७६।। एत्यंतरम्मि संविग्गा सभा'। भणियं रायबंधुदेवेहि-भयवइ, एवमेयं जं तए आणत्तं ति । पडिवज्जामो अम्हे गिहासमपरिच्चाएण तित्थयरभासियं धम्म। भयवईए भणियं-अहासुहं देवाणप्पिया, मा पडिबंध करेह । तओ दवावियं रायबंधुदेवेहि आघोसणापुव्वयं महादाणं, काराविया जिणाययणाइसु अट्ठाहिया महिमा, संमाणिओ पणइवग्गो, अहिणंदिया पउरजणवया। दिन्नं हरिसेणजुवरायस्स रज्जं । पवन्ना सयलपहाणपरियणसमेया पुरिसचंदगणिसमीदे समणत्तणं ति। पामागृहीतस्य यथा कण्डूयनं दुःखमेव मूढस्य । प्रतिभाति सौख्यमतुलमेव सुरतमपि विज्ञ यम् ।।५७४।। वञ्च्यते एष जनोऽचेतनः प्रमुखमात्ररसिकैः । खलसङ्गगतैरिव सदा विरामविरसै गैः ।।५७५॥ तत उज्झित्वा एतान् अनवद्यं परमसौख्यसञ्जनकम् । तीर्थकरभाषितं खलु प्रतिपद्यध्वं भावतो धर्मम ॥५७६।। अत्रान्तरे संविग्ना सभा। भणितं राजबन्धुदेवाभ्याम् -- भगवति ! एवमेतद, यत्त्वयाऽऽज्ञप्तमिति । प्रतिपद्याव आवां गृहाश्रमपरित्यागेन तीर्थंकरभाषितं धर्मम् । भगवत्या भणितम्--यथासुखं देवानुप्रियौ ! मा प्रतिबन्धं कुरुतम्। ततो दापितं राजबन्धुदेवाभ्यामाघोषणापूर्वकं महादानम्, कारिता जिनायतनादिष्वष्टाह्निका महिमा, सन्मानितः प्रणयिवर्गः, अभिनन्दिताः पौरजन व्रजाः । दत्तं हरिषेणयुवराजाय राज्यम् । प्रपन्नौ सकलप्रधानपरिजनसमेतौ पुरुषचन्द्रगणिसमीपे श्रमणत्वमिति। जिसे खाज हो गयी है, ऐसे मूढ़ व्यक्ति का उसे खुजलाना दुःख ही है उसी प्रकार सम्भोग में जो अनुपम सुख प्रतीत होता है उसके विषय में भी जानना चाहिए। यह मनुष्य मात्र अचेतन प्रमुख रसों द्वारा ठगा जाता है । जैसे दुष्टों की संगति अन्त में नीरस होती है, उसी प्रकार भोग भी अन्त में नीरस होते हैं। अतः इन्हें छोड़कर निर्दोष, परम सुख के जनक, तीर्थकर भाषित धर्म को ही भाव से प्राप्त करें ॥५७४-५७६॥ इसी बीच सभा भयभीत हो गयी। राजदेव और बन्धुदेव ने कहा- 'भगवति ! जैसी आपने आज्ञा दी वैसा ही है । हम दोनों गृहाश्रम का त्याग कर तीर्थंकर भाषित धर्म को प्राप्त करते हैं ।' भगवती ने कहा -- 'जैसे देवानुप्रियों को सुख लगे। रुकावट मत करो।' तब राजदेव और बन्धुदेव ने घोषणा कराकर महादान दिलाया, जिनायतनों में अष्टाह्निक महोत्सव या, याचकों का सम्मान किया, नगरवासियों का अभिनन्दन किया । हरिषेण युवराज के लिए राज्य दिया। दोनों सभी प्रमुख परिजनों के साथ पुरुषचन्द्र गणि के समीप श्रमण हो गये। १. सुरयम्मि-क। २. सहा-ग । ३. -यपाइएसुख । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो भवो] ५७५ अइक्कंतो कोइ कालो। इओ य पउत्ता अहिमरया' विसेणेण सेणस्स । न छलिओ यहि । अन्नया य अत्थमुवगयप्पाए दिणयरम्म पुफिया तत्थ अयालपुरिफणो रायभवणुज्जाणपायवा । दिट्ठा उज्जाणपालेणं । साहिया अमच्चस्स । निरूवाविया जेणं। तहेवोवलद्धा य । पेच्छमाणाण य निरूवयाणं पुणो पयइभावमुवगय त्ति। निवेइयं अमच्चस्स । चितियं च ण-कस्स पुण एए निवेयया। एत्थंतरम्मि समागओ तत्थ अटठंगमहानिमित्तपारओ अम्महंडो नाम सिद्धपुत्तो। सुओ य मंतिणा। सद्दाविऊण पुच्छिओ एगदेसम्मि -भो किरिवागो पुण एस वइयरो ति। तेण भणियं-भो न तए कुप्पियव्वं, सत्थयारवयणं खु एयं। मंतणा भणियं--अज्ज, को कोवो देव्वपरिणईए; ता साहेउ अज्जो। तेण भणियं -भो सुण। रज्जपरिवत्तणविराओ अयालकुसुमुग्गमो, खीणवेलाबलेण य पहूयकालफलओ, थेवकालोवलंभेण य न चिरयालटिई। एस सत्थयाराहिप्पाओ त्ति । मंतिणा भणियं-- अज्ज, एवं ववत्थिए को उण उवाओ। नेमित्तिएण भणियं-अत्थपयाणाइयं संतिकम्म । ता देह दीणाणाहाण दविणजायं, पूएह गुरुदेदए परिच्चयह अहाउयमेव किंचि सावज्ज, अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । इतश्च प्रयुक्ता अभिमरका (घातकाः) विषेणेन सेनस्य । न छलितश्च तैः। अन्यदा च अस्तमुपग प्राये ‘दनकरे पुष्पितास्तत्राकालपुष्पिणो राजभवनोद्यानपादपाः । दृष्टा उद्यानपालेन । कथिता अमात्यस्य । निरूपितास्तेन । तथैवोपलब्धाश्च । प्रेक्षमाणानां च निरूपकानां पुनः प्रकृतिभावमुपगता इति । निवेदितममात्यस्य । चिन्तितं च तेन - कस्य पुनरेते निवेदकाः । अत्रान्तरे समागतस्तत्राष्टाङ्गमहानिमित्तपारग आम्रहुण्डो नाम सिद्धपुत्रः । श्रुतश्च मन्त्रिणा । शब्दयित्वा पृष्ट एकदेशे---भोः किविपाकः पुनरेष व्यतिकर इति । तेन भणितम्भो न त्वया कुपितव्यम्, शास्त्रकारवचनं खल्वेतद् । मन्त्रिणा भणितम्- आर्य, क: कोपो दैवपरिणतौ, ततः कथयत्वार्यः । तेन भणितम् - भोः शृणु। राज्यपरिवर्तनविपाकोऽकालकुसुमोद्गमः, क्षीणवेलाबलेन च प्रभूतकालफलदः, स्तोककालोपलम्भेन च न चिरकाल स्थितिः। एष शास्त्रकाराभिप्राय इति । मन्त्रिणा भणितम-आर्य ! एवं व्यवस्थिते कः पुनरुपाय: । नैमित्तिकेन भणितम्अर्थप्रदानादिकं शान्तिकर्म । ततो दत्त दीनानाथेभ्यो द्रविणजातम्, पूजयत गुरुदेवते, परित्यजत ___ कुछ समय बीता। इधर विषेण ने सेन के घातक भेजे। उनसे नहीं छला गया। एक दिन जब सूर्य अस्तप्राय हो गया था तो राजभवन के उद्यान के वृक्षों में असमय में ही फूल लग गये। उद्यानपाल ने देखे । (उसने) मन्त्री से कहा । मन्त्री ने देखा, (पेड़) फूले हुए उपलब्ध हुए । दर्शकों ने जब देखे तो पुन: स्वभाव को प्राप्त हो गये । मन्त्री से निवेदन किया गया, मन्त्री ने सोचा ये किसके निवेदक (सूचक) हैं । इसी बीच वहाँ पर अष्टांग महानिमित का ज्ञाता आम्रहुण्ड नामक सिद्धपुत्र आया। मन्त्री ने सुना। बुलाकर एकान्त में पूछा - 'हे सिद्धपुत्र ! इस घटना का क्या फल है ?' उसने कहा - 'हे मन्त्रिन ! आप कुपित न हों, यह वचन शास्त्र का अनुगामी है।' मन्त्री ने कहा --'भाग्य की परिणति पर क्या कोप करना, अतः आर्य कहें।' उस सिद्धपुत्र ने कहा-'सुनो। असमय में फूलों के उद्गम का फल राज्य परिवर्तन है, अनवसर में शक्तिशाली होने पर बहुत समय तक फलदायी होता है और थोड़े समय के लिए प्राप्ति हो तो चिरकाल तक स्थिति नहीं रहती है - यह शास्त्र का अभिप्राय है।' मन्त्री ने कहा'आर्य ! ऐसी स्थिति में क्या उपाय है ?' नैमित्तिक ने कहा---'धनप्रदान आदि शान्तिकर्म । अतः दीन और अनाथों को धन दो, गुरु और देवताओं की पूजा करो, आयु के अनुसार कुछ पापों को छोड़ो, अधिक गुणस्थानों १. अहिमा रया-क । अहिम रा-ख। २. पालएणं-ख । ३. ममहुडो-के। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइचकहा पवज्जह अहिए गणट्ठाणे त्ति । ___एत्थंतरम्मि य समागओ रायपडिहारो। भणियं च णेणं-भो भो अमच्च, महाराओ आणवेइ 'सिग्घमागंतव्वं' ति । तेण भणियं -जं देवो आणवेइ ति। वच्च तुम, एस आगच्छामि। पुच्छिओ नेभित्तिओ --अज्ज, किं पुग आह व मितं । मेरित्तिएण भणियं--संखेवो ताव एयं । समागओ रायपुरसामिणो सयासाओ एत्थ रायपुरिसो, आणंदहेऊ य सो नरवइस्स । ता तन्निमित्तमाहवणं ति। मंतिणा भणियं-अज्ज, कहं आणंदहेउ ति। नेमित्तिएण भणियं-जइ एवं, ता पढसु किंचि ति। मंतिणा भणियं-जयति' जयलच्छिनिलओ) अवगयं नेमित्तियस्स । भणियं च णेण। सोम, समागओ ख एसो कुमाराण कन्नयापयाणनिमितं; महापुरिससंबंधेण य महंतो आणंदो त्ति । अन्नं च । ईइसं एत्थ लग्गं जओ एवं पि मुणिज्जइ 'जो चैव कुमाराण एवं कन्नयं परिणइस्सइ, सो चेव एवं विवन्नं पि राजधुरमुव्वहिस्सइ'त्ति। आणंदिओ मंती। पूइओ नेमित्तिओ। तओ आइसिय संतिकम्मं गओ रायउलममच्चो । दिट्ठो णेण राया दूओ य । अब्भुटिओ राइणा, पणामियं आसणं, उवविट्ठो अमच्चो। यथायुष्कमेव किञ्चित् सावद्यम् , प्रपद्यध्वमधिकानि गुणस्थानानीति । ___अत्रान्तरे च समागतो राजप्रतीहारः । भणितं च तेन-भो भो अमात्य ! महाराज आज्ञापयति 'शीघ्रमागन्तव्यम्' इति । तेन भणितम् यद्देव आज्ञापयति इति। व्रज त्वम्, एष आगच्छामि । पृष्टो नैमित्तिकः --आर्य ! किं पुनराह्वाननिमित्तम् । नैमित्तिकेन भणितम्-संक्षेपतप्तावदेतद । समागतो राजपुरस्वामिनः सकाशादत्र राजपुरुषः, आनन्दहेतुश्च स नरपतेः। ततस्तन्निमित्तमाह्वानमिति । मन्त्रिणा भणितम्--आर्य ! कथमानन्दहेतुरिति । नैमित्तिकेन भणितम्- यद्येवं ततः पठ किञ्चिदिति। मन्त्रिणा भणितम् - जयति जयलक्ष्मीनिलयः। अवगतं नैमित्तिकस्य । भणितं च तेन-सौम्य ! समागतः खल्वेष कुमारयोः कन्याप्रदाननिमित्तम्, महापुरुषसम्बन्धेन च महानानन्द इति। अन्यच्च ईदृशमत्र लग्नम्, यत एतदपि ज्ञायते 'य एव कुमारयोरेतां कन्यकां परिणेष्यति स एवैतां विपन्नामपि राजधुरमुद्वक्ष्यति' इति । आनन्दितो मन्त्री। पूजितो नैमित्तिकः । तत आदिश्य श तिकर्म गतो राजकुलममात्यः । दृष्टस्तेन राजा दूतश्च । अभ्युत्थितो राज्ञा, अर्पित को प्राप्त करो।' इसी बीच राजा का द्वारपाल आया। उसने कहा-- 'हे हे मन्त्री ! महाराज आज्ञा देते हैं, शीघ्र आओ।' मन्त्री ने कहा - 'जो महाराज की चलो। तुम चलो, मैं आता हूँ।' (मन्त्री ने) नैमित्तिक से पूछा-'आर्य ! बुलाने का क्या कारण है ?' नैमित्तिक ने कहा--'संक्षेप में बात यह है । राजपुर के स्वामी के पास से यहाँ एक राजपुरुष आया है, वह महाराज के आनन्द का कारण है । अत: उसके लिए महाराज ने बुलाया है।' मन्त्री ने कहा---'आर्य, (वह पुरुष) महाराज के आनन्द का कारण कैसे है ?' नैमित्तिक ने कहा-'यदि ऐसा है तो कुछ पढ़ो।' मन्त्री ने कहा ---'विजयलक्ष्मी के निवास की जय हो।' नैमित्तिक ने जान लिया और उसने कहा--सौम्य ! यह दोनों कूमारों को कन्या प्रदान करने के लिए आया है। महापुरुष के सम्बन्ध के कारण महान् आनन्द है। दूसरी बात यह है-यहाँ पर ऐसी लग्न है, जिससे यह भी ज्ञात होता है कि दोनों कुमारों में से जो इस कन्या को विवाहेगा वह इसके मरने पर भी राज्य की धुरी को धारण करेगा।' मन्त्री आनन्दित हुआ । (उसने) नैमित्तिक की पूजा की। अनन्तर शान्तिकर्म का आदेश देकर मन्त्री राजदरबार में गया। उसने राजा और दूत को देखा । राजा ने अगवानी की, १. जयइ-ख । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो भवो ] भणियं नरदेण- अज्ज, एसो खु रायउरसामिणा पेसिओ संखराएण । भणियं च णेणं-अस्थि मे हिया संतिमई नाम जीवियाओ वि अहियपरी । सा मए अणुमएण भवओ तुह बहुमयस्स अन्नयरकुमारस्स पडिवाइय ति । अमच्चेण भणियं - देव, सुंदरमेयं । अणुरूवो खु एस संबंधो; ता कीरउ इस ari | राइणा भणियं - 'तुमं पमाणं' ति । अमच्चेण भणियं - ता आइसउ देवो कुमाराणमन्नयरं ति । राइणा भणियं - किमेत्थ आइसियन्वं; कुमारसेणस्स एसा पढमधरिणित्ति । अमच्चेण भणियं -- देव, सोहणमिणं; ता पयासीयउ सामंतनायरयाणं । राइणा भणियं - जमेत्थ अणुरूवं, तं सयमेव अणु चिट्ठ अज्जो । तओ पयासियं सामंतनायरयाणं, करावियं वद्धावणयं, पहयाई मंगलतराई, नच्चियं अंतेउरे (रिया) हिं, जाओ महापमोओ ति । prasadi च दूमिओ विसेणकुमारो। चितियं च णेणं । अणत्थो मे एस जीवमाणो; न सक्कु णोम एयं संपयं सोउं पि किमंग पुण पेच्छिउं । अहवा नत्थि तुक्करं कम्मपरिणईए । अइक्कंतेसु य कवयदिणे संतिमई विवाहनिमित्तं महया चडयरेण पहाणामच्चसंगओ रायपुरमेव पेसिओ ५७७ मासनम्, उपविष्टोऽमात्यः । भणितं नरेन्द्रेण -आर्य ! एष खलु राजपुरस्वामिना प्रेषितः शङ्खराजेन । भणितं च तेन - अस्ति मे दुहिता शान्तिमती नाम जीवितादप्यधिकतरा सा मयाऽनुमतेन भवतस्तव बहुमतस्यान्यतरकुमारस्य प्रतिपादितेति । अमात्येन भणितम् - देव ! सुन्दरमेतद् । अनुरूपः खल्वेष सम्बन्धः, ततः क्रियतामस्य वचनम् । राज्ञा भणितम् – 'त्वं प्रमाणम' इति । अमात्येन भणितम् - आदिशतु देवः कुमारयोरन्यतरमिति । राज्ञा भणितम् - किमवादेष्टव्यम्, कुमारसेनस्यैषा प्रथमगृहिणीति । अमात्येन भणितम् - देव ! शोभनमिदम्, ततः प्रकाश्यतां सामन्तनागरकानाम् । राज्ञा भणितम् - यदत्रानुरूपं तत्स्वयमेवानुतिष्ठत्वार्यः । ततः प्रकाशितं सामन्तनागरकानाम्, कारितं वर्धापनकम्, प्रहतानि मङ्गलतूर्याणि, नर्तितमन्तःपुरिकाभिः, जातो महाप्रमोद इति 1 एतद्वयतिकरेण च दूनो विषेणकुमारः । चिन्तितं च तेन । अनर्थो मे एष जीवन्, न शक्नोयेतं साम्प्रतं श्रोतुमपि किमङ्ग पुनः प्रेक्षितुम् । अथवा नास्ति दुष्करं कर्मपरिणत्याः । अतिक्रान्तेषु च कतिपयदिनेषु शान्तिमतीविवाहनिमित्तं महता चटकरेण ( आडम्बरेण ) प्रधानामात्य आसन दिया, मन्त्री बैठ गया। राजा ने कहा - 'आर्य ! इसे राजपुर के स्वामी शंखराज ने भेजा है और उसने कहा है— मेरे प्राणों से अधिक (प्रिय) 'शान्तिमती' नामक कन्या है । उसे आप जिस कुमार को अधिक मानते हों, उस एक को देने की मैं अनुमति देता हूँ ।' मन्त्री ने कहा- 'महाराज ! यह ठीक है । निश्चित रूप से यह सम्बन्ध अनुरूप है, अत: इसके वचनों को पूरा करें।' राजा ने कहा- 'आप प्रमाण हो ।' मन्त्री ने कहा- 'महाराज ! दोनों कुमारों में से एक को आदेश दें।' राजा ने कहा- 'यहाँ क्या आदेश देना है ? प्रथम कुमार सेन की यह गृहिणी हुई ।' अमात्य ने कहा - 'महाराज ! यह ठीक है, अतः सामन्त और नागरिकों को यह बात प्रकट की जाय !' राजा ने कहा- 'जो यहाँ पर अनुरूप हो, उसे आर्य स्वयं ही पूरा करें ।' अनन्तर सामन्त और नागरिकों पर यह बात प्रकट की गयी । महोत्सव कराया, मंगल बाजे बजाये गये, अन्तःपुरिकाओं ने नृत्य किया, बहुत आनन्द आया । इस घटना से विषेणकुमार दुःखी हुआ और उसने सोचा- मेरा यह जीवन व्यर्थ है, इस समय मैं इसे सुन भी नहीं सकता, , देखने की तो बात ही क्या है । अथवा कर्म की परिणति के लिए कुछ भी कार्य कठिन नहीं है। कुछ दिन बीत जाने पर शान्तिमती से विवाह के लिए बड़े ठाठ-बाट से प्रधानमन्त्री के साथ सेनकुमार को Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७८ [समराहच्चकहा सेणकुमारो। पत्तो कालक्कमेण । निवेइयं संखरायस्स। परितुट्टो य एसो। दिन्नं पारिओसियं । समाइटुं च णेणं । हरे, मोयावेह सव्वबंध गाणि, दवावेह महादाणं, सोहावेह रायमग्गे, करावेह हट्टसोहाओ, पयसह सयलपायमूलाई, बायावेह हरिसजमलसंखे, सज्जेह मंगलाई, दवावेह परमाणंदतरं, ढोयावेह वारूयं निग्गच्छामो कूमारपच्चोणि ति। संपाडियं रायसासणं । निग्गओ राया। दिट्रोय णेण रईसमागमसुओ विय पंचबाणो कुमारसेणो त्ति। पणमिओ कुमारेण। अहिणंदिओ राइणा। पवेसिओ माविभईए। दिन्नो जन्नावासओ। कयं उचियकरणिज्ज। समागओ विवाहदिवसो। निवत्तं ण्हवणयं । एत्थंतरम्मि संखकाहलासद्दगंभीरतूरनिग्धोसबहिरियदिसामंडलो गहियवरकणयदंडधयवडुग्घायनच्चंततरुणनिवहो मंगलपहाणगायंतचारणवियड्ढऐच्छणयसंघायसंकुलो पइण्णपडवास. धूलिधसरियमणहरुत्तालनच्चंतवेसविलओ महया गइंदपीढेण समागओ विवाहमंडवं कुमारसेणो त्ति। कयं उचियकरणिज्जं । पवेसिओ कोउयहरं । दिट्ठा य णेण वहुया पसाहिया सुरहिवण्णएहि विभूसिया दिव्वालंकारेणं परिहिया खोमजुयलं पडिछन्ना कुसुमदामेहि समोत्थया सहिणदेवदूसेणं । तं च दळूणसंगतो राजपुरमेव प्रेषितः सेनकमारः। प्राप्तः कालक्रमेण । निवेदितं शङ्ख राजस्य । परितुष्टश्चैषः । दत्तं पारितोषिकम् । समादिष्टं च तेन-अरे मोचयत सर्वबन्धनानि, दापयत महादानम्, शोधयत राजमार्गान्, कारयत हट्टशोभाः, प्रवर्तयत सकलपादमूलानि (नर्तकान्), वादयत हर्षयमलशङ्ख, सज्जयत मङ्गलानि, दापयत परमानन्दतूर्यम्, ढौकयत हस्तिनीम्, निर्गच्छाम कुमारसन्मुखमिति । सम्पादितं राजशासनम् । निर्गतो राजा । दृष्टस्तेन रतिसमागमोत्सुक इव पञ्चबाण: कुमारसेन इति । प्रणतः कुमारेण । अभिनन्दितो राज्ञा। प्रवेशितो महाविभूत्या । दत्तो जन्यावासः । कृतमुचितकरणीयम् । समागतो विवाहदिवसः । निर्वृतं स्नपनकम् । अनान्तरे शङ्खकाहलाशब्दगम्भीरतूर्यनिर्घोषबधिरितदिग्मण्डलो गृहीतवरक नकदण्डध्वजपटोद्घातनृत्यत्तरुणनिवहो मङ्गलप्रधानगायच्चारणविदग्धप्रेक्षणकसंघातसंकुल: प्रकीर्णपटवासधूलिधूसरितमनोहरोत्ताल नृत्यद्वेश्यावनितो महता गजेन्द्रपीठेन समागतो विवाहमण्डपं कुमारसेन इति । कृतमुचितकरणीयम्। प्रवेशितः कौतुकगृहम् । दृष्टा च तेन वधूः प्रसाधिता सुरभिवर्णकैविभूषिता दिव्यालङ्कारेण परिहिता क्षौ युगलं प्रतिछन्ना कुसुमदामभिः समवस्तृता श्लक्ष्णदेवदूष्येण : तां च दृष्ट्वाऽनादिभवा राजपूर ही भेजा । कालक्रम से वह पहँच गया। शंखराज से निवेदन किया गया। यह सन्तुष्ट हुआ। (इसने) पारितोषिक दिया और उसने आज्ञा दी- अरे, समस्त बन्दियों को छोड़ दो, महादान दिलाओ, मार्ग साफ कराओ, बाजार की शोभा कराओ, समस्त नृत्यकारों को प्रवृत्त करो, हर्ष से शंखयुगल बजाओ, मांगलिक वस्तुओं को सजाओ, उत्कृष्ट आनन्द के बाजे बजाओ, हथिनी को ले चलो, कुमार के सम्मुख निकलें। राजा की आज्ञा को पूरा किया गया। राजा निकला, उसने रति से समागम के लिए उत्सुक कामदेव के समान कुमार सेन को देखा। कुमार ने (राजा को) प्रणाम किया । राजा ने अभिनन्दन किया। बड़ी विभूति से प्रवेश कराया। जनवास दिया । योग्य कार्यों को किया । विवाह का दिन आया। स्नान से निवृत्त हुए। इसी बीच बहुत विशाल हाथी की पीठ पर सवार होकर कभार सेन विवाहमण्डप में आया। उस समय शंख, काहला के शब्द से, गम्भीर मदंग की आवाज से दिशाएँ बधिर हो रही थीं। श्रेष्ठ स्वर्णदण्डों में ध्वज-वस्त्रों को लगाये हए तरुणों का समूह नत्य कर रहा था। मंगल प्रधान गीत गाते हए चारण, विदग्ध और नाटककारों के समूह व्याप्त हो रहे थे, वेश्याएँ बिखेरे गये सुगन्धित द्रव्य की धूल से धूसरित होकर मनोहर नृत्य कर रही थीं। योग्य कार्यों को किया गया। कौतुकगृह में प्रवेश कराया गया। कुमार ने वधू को देखा । उसे सुगन्धित अनुलेपन से सजाया गया था, दिव्य अलंकारों से विभूषित किया गया.था, रेशमी वस्त्रों का युगल पहिनाया गया था, फलों की मालाओं से आच्छादित किया गया Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समभवो ] माइभवभासदो सेण वियंभिओ कुमारस्स पेम्मसायरो । चितियं च णेण । अहो से रूवसोम्मया, संसार व ईसा भाव त्ति । 'कराविओ कोउयाई । पूइया देवगुरवो । निवत्तो हत्थग्गहो । सम्माणिया सामंता, अहिदिया नायरया, परिओसिओ तक्कुयजणो सि । भमियाइं मंडलाई । वत्तो विवाहजानो। अमरकुमरोवनं च सोक्खमणुहवंतस्स अइक्कता कवि दियहा । समुप्पन्नो पणओ । तओ 'कज्जपहाणा राइणो' त्ति सम्माणिओ नरिंदेण, पूइओ सामंतेहि, अहिणंदिओ नयरिजणवरणं, घेत्तूण संतिमई महया चडयरेण समागओ नियनयर । आनंदिओ राया, हरिसियाई अंतेउराई, तुट्ठो नयरिजणवओ, दूमिओ विसेणो, कया अयालमहिमा, पविट्ठो महाविभूईए । पणमिओ राया, अहिनंदिओ णेण, गओ निययावासं । तत्थ वि य अइक्कंतो कोइ कालो विसयसुमहत । अन्नयाय समागओ वसंतसमओ । सो उण उद्दामकामिणीयण वियं भियमयण पसरो महुरपरयास वित्तासिय हिययणनिवहो पिययमामाण कलिकेउ भूयवियंभियमलयाणिलो कुसुममहुमत्त ५७१ भ्यासदोषेण विजृम्भितः कुमारस्य प्रेमसागरः । चिन्तितं च तेन - अहा तस्य रूपसौम्यता, संसारेऽ-: पीदृशा भावा इति । कारितः कौतुकानि । पूजिता देवगुरवः । निर्वृत्तो हस्तग्रहः | सन्मानिताः सामन्ताः, अभिनन्दिता नागरकाः, परितोषितः 'स्वजनजन इति । भ्रान्तानि मण्डलानि । वृत्तो विवाहयज्ञः । अमरकुमारोपमं च सौख्यमनुभवतोऽतिक्रान्ताः कत्यपि दिवसाः । समुत्पन्नः प्रणयः । ततः ' कार्यप्रधाना राजानः' इति सन्मानितो नरेन्द्रेण पूजितः सामन्तः, अभिनन्दितो नगरीजनव्रजेन । गृहीत्वा शान्तिमतीं महताऽऽडम्बरेण समागतो निजनगरीम् । आनन्दितो राजा, हृषितान्यन्तः पुराणि तुष्टो नगरीजनव्रजः, दूनो विषेणः कृताऽकालमहिमा, प्रविष्टो महाविभूत्या । प्रणतो राजा, अभिनन्दितस्तेन, गतो निजावासम् । तत्रापि च गतः कोऽपि कालो विषयसुखमनुभवतः । अन्यदा च समागतो वसन्तसमयः । स पुनरुद्दामकामिनीजनविजृम्भितमदनप्रसरो मधुरपरभृताशब्दवित्रासितपथिकजननिवहः प्रियतमामानकलिकेतुभूतविजृम्भितमलयानिलः कुसुममधमत्तथा, महीन दैवीय वस्त्र उसके ऊपर फैलाया गया था। उसे देखकर अनादि भव के अभ्यास के दोष से कुमार का प्रेमरूपी सागर बढ़ गया। उसने सोचा- अहा, इरा राजकन्या की रूपसौम्यता, संसार में भी ऐसी वस्तुएं हैं ? कौतुक कराये गये । देव और गुरुओं की पूजा की। पाणिग्रहण संस्कार पूरा हुआ । सामन्तों का सम्मान किया गया, नागरिकों का अभिनन्दन किया गया, स्वजन सन्तुष्ट हुए । फेरे हुए। विवाह-यज्ञ सम्पन्न हुआ । देवकुमारों के समान सुख का अनुभव करते हुए कुछ दिन बीत गये । प्रणय उत्पन्न हुआ । अनन्तर राजा लोग कार्यप्रधान होते हैं - ऐसा सोचकर राजा ने सम्मान किया, सामन्तों ने पूजा की, नगर के जन-समूह ने अभिनन्दन किया । शान्तिमती को लेकर कुमार ठाठ-बाट के साथ अपनी नगरी में आया । राजा आनन्दित हुआ, अन्तःपुर हर्षित हुआ, नगरी के लोग सन्तुष्ट हुए । विषेण दुःखी हुआ, असामयिक महोत्सव किया गया, बड़ी विभूति के साथ कुमार प्रविष्ट हुआ । ( उसने) राजा को प्रणाम किया। राजा ने अभिनन्दन किया । ( वह) अपने निवास पर गया । वहाँ पर भी विषयसुख का अनुभव करते हुए कुछ समय बीत गया । एक बार वसन्त समय आया । उसमें उत्कट कामिनियों के द्वारा काम का विस्तार बढ़ा दिया गया । कोयल की मधुर आवाज ने पथिकों के समूह को दुःखी कर दिया, प्रियतमाओं के मान से उत्पन्न कलह के लिए १. कारावियो क । २: सक्कुय (वे०) स्वजद ! Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८० [ समराइच्चकहा भमिरभमरउलकयवमालो वियसियसहयाररेणुधूलिधूसरियनहयलो कुरुबयकुसुमामोयहरिसियमुद्धमहुयरिगणो सुइसुहसुव्वंतचच्चरीतूरमहरनिग्योसो भवणंगणुब्बद्ध विविहविडवहिंडोलयाउलो, महुमहो व्व महुयररिंछोलिसामलच्छाओ लच्छिपडिवन्नवच्छो य, पसाहियवारविलयानिवहो व तिलउज्जलो जणियमयणपसरो य, मुणियपरमत्थजोइनाहो व्व अइमुत्तयालंकिओ दढमसोयचित्तो य, सुरासुरमहिज्जतदुद्धोयहि व्व "वियंभियसुरापरिमलो विइण्णभुवणलच्छी य। अवि य नलिणीए बद्धराओ त्ति जमि मणिउं व दक्खिणदिसाए। विच्छभइ दियसयरो मलयाणिलमक्कनीसासं ॥५७७॥ वियसियपंकयनयणा जम्मि य वोलेंति मंथरं दियहा। उउसिरिदसणसंभमपहरिसहीरतहियय व ॥५७८।। भ्रमभ्रमरकुलकृत 'कलकलो विकसितसहकाररेणुधूलिधूसरितनभस्तलः कुरुबककुसुमामोदहृषितमुग्धमधुकरीगण: श्रुतिसुखश्रूयमाणचर्चरीतूर्यमधुरनिर्घोषो भवनाङ्गणोबद्धविविधविटपहिन्दोलाकुलो मधमथ इव मधुकरश्रेणि श्यामलच्छायो लक्ष्मीप्रतिपन्नवक्षाश्च, प्रसाधितवारवनितानिबह इव तिलकोज्ज्वलो जनितमदनप्रसरश्च, ज्ञातपरमार्थयोगिनाथ इवातिमुक्तका(ता)लंकृतो दृढमशोकचित्र (त) श्च, सुरासुरमथ्यमानदुग्धोदधिरिव विजृम्भितसुरापरिमलो वितीर्णभुवनलक्ष्मीश्च । अपि च नलिन्यां बद्धराग इति यस्मिन् ज्ञात्वेव दक्षिण दिशा । विक्षिप्यते दिवसकरो मलयानिलमुक्तनिःश्वासम् ।।५७७॥ विकसितपङ्कजनयना यस्मिश्च व्यतिक्रामन्ति मन्थरं (मन्द) दिवसाः । ऋतुश्रीदर्शनसम्भ्रमप्रहर्षह्रियमाणहृदया इव ॥५७८॥ ध्वजास्वरूप मलयपवन बढ़ गया, फूलों के मधु से मतवाले होकर धूमनेवाले भौंरों का समूह गुंजार करने लगा, विकसित आम के पराग की धूलि से आकाश धूसरित हो गया, कुरबक के फूलों की सुगन्धि से हर्षित भौरियों का समूह मुग्ध हो गया, नृत्यमण्डली के वाद्यों की मधुर आवाज कानों में सुख देती हुई सुनाई देने लगी, भवन के आंगन अनेक प्रकार के वृक्षों में बाँधे गये झूलों से व्याप्त हो गये। भौंरों की पंक्तियाँ मधुमथ की भाँति श्याम कान्तिवाली हो रही थीं। वृक्ष शोभासम्पन्न हो गये थे। काम के प्रसार को उत्पन्न करनेवाला उज्ज्वल तिलक (वृक्षसमूह) सज्जित वाराङ्गनाओं के समूह की तरह लग रहा था अत्यधिक मोतियों से अलंकृत दृढ़ अशोक परमार्थ को जाननेवाले योगिनाथ की भांति लग रहा था। सुर और असुरों के द्वारा मथे जाते हुए क्षीरसागर के समान मद्य की सुगन्धि को बढ़ाती हई ही मानो भवनलक्ष्मी उतर आयी थी। और भी - जिस वसन्त ऋतु में दक्षिण दिशा सूर्य को कमलिनी के प्रति राग में बँधा हुआ जानकर मलयपवन के द्वारा लम्बी साँस छोड़कर विकल हो रही थी, जिसमें ऋतुरूप लक्ष्मी के दर्शन के उत्साह से हर्षित होकर हरे गये हृदयवालों के समान विकसित नेत्रकमलों वाले दिन मन्द गति से व्यतीत हो रहे थे ॥५७७-५७८।। १. सुरहिपरिमलो-क।२. रोलो रावो वयलो हलबोलो कययलो वमालोय ॥ (पाइयलच्छी, ४७) । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो भवो] जम्मि सहयारपरिमलखित्तो भरियावराहविणियत्तो। अंदोलइ दोलासु व माणो गरुओ वि विलयाणं ॥५७६।। मुच्छानिमीलियच्छे जम्मि य पहिए 'विसंथुलोअल्लो। विसकुसुमाण व गंधो पसरंतो कुणड बउलागं ॥५८०।। दटुं नवमंजरिए चुए गुंजतभमरपरिथरिए। जम्मि अइमच्छरेण व धणियं फुति अंकोल्ला ॥५८१॥ वज्जंतभमरवंसं कोइलकलसद्दबद्धसंगीयं । पवणधुयपल्लवकरं नच्चंति व जत्थ रण्णाई॥५८२॥ जम्मि य गयणविलग्गा सहति पवियसियकुसुमपभारा। मयगयवइगहिओल्लोल्लसोल्लभारा इव पलासा॥५८३॥ जम्मि य सहति किसुयकुसुमाइं थलोण पदणपडियाई। तक्खणसमागयाइं महणा सह नहवयाइ व्व ॥५८४ । यस्मिन् सहकारपरिमलक्षिप्तः स्मृतापराधविनिवृत्तः । आन्दोलयति दोलास्विव मानो गुरुरपि वनितानाम् ॥५७६।। मच्छानिमीलिताक्षान् यस्मिश्च पथिकान विसंस्थुलपर्यस्तः । विषकुसुमानामिव गन्धः प्रसरन् करोति बकुलानाम् ॥५८०॥ दष्टवा नवमञ्जरीकान चतान गञ्जदभ्रमरपरिकरितान । यस्मिन्नतिमत्सरेणेव गाढं स्फुटन्ति अङ्कोठाः ।।५८१॥ वाद्यमानभ्रमरवंशं कोकिलकलशब्दबद्धसङ्गीतम्। पवनधूतपल्लवकरं नृत्यन्तीव यत्रारण्यानि ॥५८२ । यस्मिश्च गगनविलग्ना राजन्ते प्रविकसितकुसुमप्राग्भाराः। मृतगजपतिगृहीतार्द्रमांसभारा इव पलाशाः ॥५८१॥ यस्मिश्च राजन्ते किंशुककुसुमानि स्थलीनां पवनपतितानि । तत्क्षणसमागता मधुना सह नखवजा इव ॥५८४॥ जिसमें आम की मुगन्ध्रि के रूप में फेंका हुआ स्मरण रूप अपराध से लौटाया हुआ स्त्रियों का भारी मान भी मानो झूलों पर झूलता था, जिसमें मूर्छा से नेत्र बन्द किये हुए पथिकों के ऊपर विषम रूप से फेंके गये नीलकमलों के समान गन्ध बकुलों का प्रसार करती थी, जिन पर गुंजार करते हुए भ्रमरों से युक्त नवमञ्जरी वाले आमों को देखकर मानो अत्यन्त ईर्ष्या से ही अंकोष्ठ अत्यधिक रूप से विकसित हो रहे थे, जहाँ पर भ्रमररूपी बाँसुरी को बजाकर कोयलों की मधुर ध्वनि के रूप में गाना गाकर वायु के द्वारा पल्लवरूपी हाथों को हिलाते हुए वन मानो नृत्य कर रहे थे, जहाँ पर आकाश में लगे हुए अत्यधिक विकसित फूलों के समूहवाले पलाश मरे हुए सिंहों से गृहीत आर्द्र मांस के भार के समान शोभित हो रहे थे, जिसमें वायु के द्वारा पृथ्वी पर गिरे हुए किंशुक के फूल उसी क्षण मधु के साथ आये हुए नखवज्रा के समान शोभित हो रहे थे । ॥५७९-५८४ ॥ १. -थलयिल्लो । २. वठण व.- क, ख । ३. भरियं लढिय सुमरियं-(पाइयलच्छी, ५६४) । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ जत्थ य पिर्यति तरुणा पवरमहुं कामिणीण 'अहरे य । वति यखेडाई सुरयाइं बहुवियारायाई ॥। ५८५॥ एवंगुणाहिरा य पत्ते वसंतसमए सो सेणकुमारो कीलानिमित्तमेव विसे सुज्जलनेवच्छ्रेण संगओ परियणं पयट्टो अमरनंदणं उज्जाणं । दिट्ठो य पासायतलगएणं विसेणकुमारेणं निम्मलfafaadaaraant बहलहरियंदण विलित्तदेहो विमलमाणिक्ककयभूसियकरो पउमरायखचियकेर पडिवाहू भुवणसार कडि सुत्तन्छ इयक डियडो निम्मलकबोल घोलं तसवणकुंडलो विविहवररयण कलियम उडपसाहिउत्तिमंगो आरूढो धवलवारणं पवज्जमाणे णं वसंतचच्चरीत्रेणं नच्चमाणेहिं किंकरगणेहिं एरावणगओ विय तियसकुमारपरियरिओ देवराओ त्ति । वच्छलाभोयविरइयवररयणपालंबो संतिमई विभूसियसहियण परिवारिया विसालच्छी । पवरदुगुलनिवसणा चंदणनिम्मज्जियसरीरा ॥ ५८६ ॥ यत्र पिबन्ति तरुणाः प्रवरमधु कामिनीनामधरांश्च । वर्तते खेलानि सुरतानि बहुविकाराणि ॥५८५|| एवंगुणाभिरामे च प्रवृत्ते वसन्तसमये स सेनकुमारः क्रीडानिमित्तमेव विशेषोज्ज्वलनेपथ्येन सङ्गतः परिजनेन प्रवृत्तोऽमरनन्दनमुद्यानम् । दृष्टश्च प्रासादतलगतेन विषेणकुमारेण निर्मल विचित्रदेवाङ्गनिवसनो बहलहरिचन्दनविलिप्तदेहो विमलमाणिक्य कट कभूषितकरः पद्मरागखचितकेयूरप्रतिपन्न हुर्भुवनसारकटिसूत्रावच्छादितकटितटो वक्षःस्थलाभोगविरचितवररत्नप्रालम्बो निर्मलकपोल 'भ्रमच्छ्रवणकुण्डलो विविधवर रत्नकलित मुकुटप्रसाधितोत्तमाङ्ग आरूढो धवलवारणं प्रवाद्यमानेन वसन्तचर्चरीतूर्येण नृत्यद्भिः किङ्करगणैरैरावणगत इव त्रिदशकुमारपरिकरितो देवराज इति । [ समराइच्चका शान्तिमत्यपि च भूषितसखीजनपरिवृता विशालाक्षी । प्रवरदुकूलनिवसना चन्दननिर्मार्जित (उपलिप्त ) शरीरा ॥ ५८६ ॥ जहाँ पर तरुण लोग मधु और स्त्रियों के अधर का पान कर रहे थे तथा जहाँ बहुत-सी विकारयुक्त, सम्भोगकीड़ाएँ हो रही थीं । ५८५॥ इस प्रकार के गुणों से सुन्दर लगनेवाले वसन्त समय के आने पर वह सेनकुमार क्रीड़ा के लिए विशेष उज्ज्वल पोशाक पहिनकर परिजनों के साथ 'अमरनन्दन' उद्यान में गया । भवन के नीचे गये हुए कुमार विषेण ने उसे देत्रकुमारों से घिरे हुए इन्द्र के समान देखा । वह निर्मल, विचित्र, दैवीय वस्त्र पहिने था, अत्यधिक हरिचन्दन से उसका शरीर लिप्त था, निर्मलमणियों से निर्मित कड़ों से उसके हाथ भूषित थे, भुजाओं में पद्मरागमणि से जड़े हुए भुजबन्द थे, लोकों के साररूप कटिसूत्र ( करधनी) से उसकी कमर का तट आच्छादित था, वक्षःस्थल के विस्तृत भाग पर श्रेष्ठ रत्नहार लटक रहा था, स्वच्छ गालों पर कर्णकुण्डल डोल रहे थे, अनेक प्रकार के श्रेष्ठ रत्नों से युक्त मुकुट से उसका सिर सजा हुआ था, वह सफेद हाथी पर सवार था, वसन्त मास की नृत्यमण्डलियों के बाजों के साथ किकर नृत्य कर रहे थे, ऐसा मालूम पड़ रहा था जैसे ऐरावत हाथी पर सवार होकर इन्द्र जा रहा हो । कुमार विषेण ने शान्तिमती को भी देखा। वह शान्तिमती भी भूषित सखीजनों के साथ थी । उसके नेत्र विशाल थे । वह उत्कृष्ट रेशमी वस्त्र पहिने हुए थी । चन्दन से उसका शरीर लिप्त था ।। ५६६ ॥ १. अहरेण । २. घोलियढ़ लियाइ भमिअत्थे ( पाइयलच्छी ५२९) । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो भवो ] नियतिसच्छहेण य कुंकुमराएण विजरियदेहा । सुरहिबहुवणवण कवोलकयपत्तलेहा य ॥५८७ ॥ हररइय विसेस विसे सभंगुर कयालयसणाहा । सविसेसपेच्छणिज्जा सोहियसं जमियधम्मेल्ला १५८८ । नेउररणामणिवलमहारकुंडलविभूसणेहिं च । पडवन्नचलण तियहत्थकंठसवणा मियंकमही ॥ ५८६ ।। धरियसि हिपिच्छविरइयकं चणमय दंडसाहुलिस मेया । बहुरयणभूसियं दंतघडियजंपाणमारूढा ॥५६० ओ तं दद्दू पुव्वकय कम्मरुययाए समुप्पन्नो विसेणस्स मच्छरो, वडियं अहमज्झाणं । चितियं च णेणं । वावामि एवं दुरायारं । पउत्ता वावायगा । पत्तो य सेणकुमारो अमरणंदणं उज्जाणं । तं पुण सुसिद्धिपायवं उद्दाममाहवीलयालिंगियसहयारं बउलतरुकुसुमसुरहिगंधाय ड्डियभमंत भमरो लिमंजुगुजियर वावरियदिसं महल्लपाडलावडिय सुर हिकुसुमनियर पच्छाइय भूमिभाग ५८३ निजकान्तिच्छायेन (सदृशेण) च कुंकुमर गेण पिञ्जरित देहा । सुरभिबहुवर्णवर्णककपोलकृतपत्रलेखा च । ।। ५८७ । मनोहररचित विशेषक विशेषभङ, गुरकृताल कसनाथा । सविशेष प्रेक्षणीया शोभितसंयमितधम्मिला ॥ ५८८ ॥ नूपुररसनामणिवल यहा र कुण्डलविभूषणैश्च । प्रतिपन्नचर णत्रिक हस्तकण्ठश्रवणा मृगाङ्कमुखी ॥ ५८६ ॥ धृतशिखिपिच्छविरचितकाञ्चनमयदण्डसखी समेता । रत्नभूषितं दन्तघटितजम्पानमारूढा || ५६० । ततस्तां दृष्ट्वा पूर्वकृत कर्मगुरुकतया समुत्पन्नो विषेणस्य मत्सरः, वृद्धमधमध्यानम् । विन्तितं च तेन - व्यापादयाम्येतं दुराचारम् । प्रयुक्ता व्यापादकाः । प्राप्तश्च सेनकुमारोऽमरनन्दनम्द्यानम् । तत्पुनः सुस्निग्धपादपम्, उद्दाममाधवीलतालिङ्गितसहकारम्, बकुलतरुकुसुमसुरभिगन्धाकृष्टभ्रमद्भ्रमरालिमञ्जुगुञ्जितरवापूरितदिशं महत्पाटलापतितसुरभिकुसुमनिकरप्रच्छादित अपनी दक्षिणागिरि कान्ति के समान कुंकुम के रंग से उसका शरीर पीला पीला हो रहा था। अनेक प्रकार सुगन्धित रंगों से उसके गालों पर पत्ररचना की गयी थी। उसके माथे पर मनोहर विशेष तिलक लगा था । वह घुंघराले बालों से युक्त थी, उसके बालों का सुशोभित बांधा हुआ जूड़ा विशेष रूप से देखने योग्य था, ( वह) चन्द्रमुखी चरण और हाथ, कण्ठ तथा कान में नूपुर, रसना, मणि चूड़ी, हार तथा कुण्डल ( इन ) आभूषणों को धारण किये हुए थी । मयूरपिच्छों को धारण किये हुए, रची हुई सोने की छड़ियों और सखियों से युक्त, अनेक रत्नों भूषित, हाथीदाँत से निर्मित जम्पान (एक प्रकार की पालकी) पर वह सवार थी ।।५८७-५६० ॥ - अनन्तर उसे देखकर पूर्वकर्म की प्रबलता से विषेण को डाह हुई । नीचा ध्यान ( कुध्यान) बढ़ा। उसने सोचा इस दुराचारी को मार डालूं । मारनेवालों को प्रयुक्त किया। सेनकुमार अमरनन्दन उद्यान में गया । उस उद्यान के वृक्ष बहुत मनोहर थे। उत्कट माधवी लता से आम्रवृक्ष आलिंगित थे, बकुल ( मौलसिरी) के फूलों की सुगन्धित गन्ध से आकृष्ट होकर घूम रहे भौंरों की मधुर गुंजार की ध्वनि से दिशाएँ व्याप्त हो रही थीं। बहुत बड़े लाल लोध से गिरे हुए सुगन्धित पुष्पसमूह से भूमिभाग आच्छादित हो रहा था, नववधू का Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइच्चकहा नवववयणं पिव तिलयउज्जलं असोयपल्लवकयावयंसयं च, माहवपणइणीसरीरं पिव दोहियाकमलोवसोहियं भमंतमुहलालिउलजालपरिगयं च, रिद्धिमंतं पिव सच्छायं सउणजणसेवियं च, नवजोव्वणं पिव उम्मायजणणं विलोहणिज्जं च, कामिणी ओहरजुयलं विय परिमंडलं चंदणपंडुरं च, वासहरं पिव अणंगपणइणोए, संगमो विय उउलच्छोणं, कारणं पिव आणंदभावस्स, सहोयरं पिव सुरलोयवेसाणं। तं च दठूण अब्भहियजायहरिसो ओइण्णो करिवराओ पविट्ठो अमरनंदणं । पवत्तो कीलिउ' विचित्तकोलाहिं । परिणओ वासरो। पविट्ठो नार । एवं च अइवता कइवि दियहा।। __ अन्नया य नियभवणगयस्स चेव गयणयलमज्झसंटिए दिणयरम्म विरलीहूए परियणे नियनियनिओयवावडेसु निओयपुरिसेसु समागया तावसवेसधारिणो गहियनलियापओगखग्गा विसेणकुमारसंतिया चत्तारि महाभयंग त्ति' । विट्ठा सेण कुमारेण । मणियं च ण 'भो पविसह' त्ति। पविट्ठा एए। भूमिभागम् , नववधूवदनमिव तिलकोज्ज्वलम शोकपल्लवकृतावतंसकं च, माधवप्रणयिनीशरीरमिव दीपिकाकमलोपशोभितं भ्रमन्मुखरालिकल ना परिगतं च, ऋद्धिमदिवसच्छायं शकुन(सगुण)जनसेवितं च, नवयौवन मिवोन्मादज-न विलोभनीयं स, कामिनीपयोधरयुगल मिव परिमण्डलं चन्दनपाण्डुरं च, वासगृहमिवान ङ्गप्रणयिन्याः संगम इव ऋतुलक्ष्मीनासङ्गम्, कारणमिवानन्दभावस्य, सहोदरमिव सुरलोकदेशानाम् । तच्च दृष्ट्वाऽभ्यधिकजातहर्षोऽवतीर्णः करिवगत् प्रविष्टोऽ मरनन्दनम् । प्रवृत्तः क्रीडितुं विचित्रक्रीडाभिः । परिणतो वासरः। प्रविष्टो नगरीम् । एवं चातिक्रान्ताः कत्यपि दिवसाः। ___ अन्यदा च निजभवनगतस्यैव गगनतलमध्यसंस्थिते दिनकरे विरलीभूते परिजने निजनिज नियोगव्याप्तेषु नियोग गि)पुरुषेषु समागताः तापसवेषधारिणो गृहीतनलिकाप्रयोगखड्गा विषेणकुमारसत्काश्चत्वारो महाभुजङ्गा इति । दृष्टा: सेनकुपारेण । भणितं च तेन 'भोः प्रविशत' इति । मुख जिस प्रकार तिलक से उज्ज्वल होता है उसी प्रकार वह तिलक से उज्ज्वल था। अशोक के कोमल पत्तों से (उस वनरूपी नववधू ) का कर्णकुण्डल बन रहा था, माधव (विष्णु) की प्रणयिनी का शरीर जिस प्रकार कमला (लक्ष्मी) से शोभित होता है, उसी प्रकार उस वन की बावड़ियाँ कमलों से सुशोभित थीं। घूम-घूमकर शब्द करते हुए भौंरों के समूह से वह घिरा हुआ था। ऋद्धिमान् के समान कान्तिवाले (सउण) गुणयुक्त व्यक्तियों के समान वह पक्षियों (सउण) से शोभित था । नव यौवन जिस प्रकार उन्मादजनक और विलोभनीय होता है उसी प्रकार वह विलोभनीय था। स्त्रियों के स्तन जैसे गोल-गोल और चन्दन (के लेप) से पीले-पीले होते हैं उसी प्रकार वह वन भी चारों ओर बिस्त तथा चन्दन वृक्षों से पीला-पीला था। काम की प्रेमी स्त्रियों के लिए वह वासगृह (शयनगृह) के समान था। ऋतुलक्ष्मी का मानो वह संगम था। आनन्दभाव का मानो कारण था । स्वर्ग के स्थलों का तो वह वन मानो सहोदर था। उसे देख कर जिसे अत्यधिक हर्ष हुआ है ऐसा कुमार सेन श्रेष्ठ हाथी से उतरा और अमरनन्दन उद्यान में प्रविष्ट हुआ। अनेक प्रकार की क्रीडाओं से वह क्रीडा करने में प्रवृत्त हुआ। दिन ढल गया । (कुमार सेन) नगरी में प्रविष्ट हुआ । इस प्रकार कुछ दिन बीत गये । एक बार जब कुमार सेन अपने ही भवन में था, सूर्य जब आकाश के मध्य में आ गया था, परिजन विरल हो गये थे तथा नियुक्त पुरुष अपने-अपने कार्यों में लग गये थे तब विषेण कुमार के साथ म्यान (पद्मदण्ड) में तलवार लिये हुए तापसवेषधारी चार बड़े गुण्डे (वहाँ) प्रविष्ट हुए । सेन कुमार ने (उन्हें) देखा और उसने कहा १. कोलियो चित्तकोलाहि-क । २. पडिहारिया पडिहारेण पविट्ठा कुपाराणनाथा --' Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो भवों ] ५८५ सेणकमारेण भणियं-भो किनिमितमागया। तेहि भणियं-अस्थि किंचि गुरुनिदेसवतव्वं; ता विवित्तदेसमाहिह। तओ परत्थसंपायणसुद्धचित्तयाए 'गुरुवच्छला तवस्सिणो, थेवो य न एत्थ दोसो' ति चितिऊण गओ भवणुज्जाणभूसणं एलालयावणं । तत्थ पुण तक्खणा चेव अवहडा से छरिया, कढियाइं मंडलग्गाई. पहओ एगेण खंघदेसे। तओ 'हा किमेयं' ति चितिऊण आसुरुत्तो कुमारो वलिओ वामपासेण । तओ अचलिययाए सत्तस्स उकडयाए पुरिसयारस्स संखद्धयाए वावायगाणं जेऊण ते गहियाइं मंडलग्गाई। दिळं चिमं उज्जाणवालियाए । घोसियं च णाए। 'किमयं ति उद्धाइओ कलयलो। समागया अट्ट पाहरिया। कढियाइं करवालाइं। उद्धाइया पहरिउं । निवारिया कमारेण । हरे किमेएण मयमारणेणं। खुद्धा खु एए तवस्सिया। वावन्नो य एएसि पुरिसयारो। परिचत्ता एए सफलजीवियनिवासेणमहिमाणेणं । पडिवन्ना विसयभावं दयाए, अद्धासिया निरत्थयजीयलोहेण । ता अलमेएसि वावायणेणं । एत्थंतरम्मि इमं चेव वइयरमायणिऊण समागओ राया। बंधाविया णेण वावायगा । भणिओ य कुमारसेणो 'वच्छ, किमेयं' ति । तेण भणियं-'ताय न याणामि'। प्रविष्टा एते। सेनकुमारेण भणितम्-भोः किंनिमित्तमागताः । तैर्भणितम्-अस्ति किञ्चिद् गुरुनिदेशवक्तव्यम् , ततो विविक्तदेशमधितिष्ठत । ततः परार्थ सम्पादनशुद्धचित्ततया 'गुरुवत्सलाः तपस्विनः, स्तोकश्च नात्र दोषः' इति चिन्तयित्वा गतो भवनोद्यानभूषणमेलालतावनम् । तत्र पुनः तत्क्षणादेवापहृता तस्य छुरिका, कृष्टानि मण्डलामाणि, प्रहत एकेन स्कन्धदेशे। ततो 'हा किमेतद्' इति चिन्तयित्वा आसुरुत्तो (अतिकुपितः) कुमारो वलितो वामपाश्र्वेण । ततोऽचलिततया सत्त्वस्य उत्कटतया पुरुषकारस्य संक्षुब्धतया व्यापादकानां जित्वा तान् गृहीतानि मण्डलाग्राणि । दृष्टं चेदमुद्यानपालिकया । घोषितं चानया। 'किमेतद्' इति उद्धावितः (प्रसृतः) कलकलः । समागता अष्ट प्राहरिकाः। कृष्टानि करवालानि । उद्घाविताः प्रहर्तुम् । निवारिताः कुमारेण । अरे ! किमेतेन मृतमारणेन । क्षुब्धाः(द्राः) खल्वेते तपस्विकाः । व्यापन्नश्चतेषां पुरुषकारः । परित्यक्ता एते सफलजीवितनिवासेनाभिमानेन । प्रतिपन्ना विषयभावं दयायाः, अध्यासिता निरर्थकजीवितलोभेन । ततोऽलमेतेषां व्यापादनेन । अत्रान्तरे इमं चैव व्यतिकरमाकर्ण्य समागतो राजा। बन्धितास्तेन व्यापादकाः । भणितश्त्र कुमारसेन: 'वत्स ! किमेतद्' इति । तेन भणितम् -तात ! न 'अरे, प्रवेश करो।' ये लोग प्रविष्ट हुए । सेनकुमार ने कहा-'(आप लोग) किस लिए आये हैं ?' उन्होंने कहागुरु की 'कुछ आज्ञा कहना है अतः एकान्त स्थान में चलें ।' तब परार्थ का सम्पादन करने में शुद्धचित्त वाला होने के कारण 'तपस्वी लोग गुरु के प्रति प्रेम रखनेवाले होते हैं (यह सामान्य बात है), इसमें कोई दोष नहीं'- ऐसा सोचकर मदन के उद्यान के भूषणस्वरूप इलायची के लतावन में गया। वहां पर उसी क्षण उसकी छुरी छीन ली गयी, तलवारें खिंच गयीं । एक ने (उसके) कन्धे पर प्रहार किया। अनन्तर हाय ! यह क्या ? ऐसा सोचकर अत्यन्त कुपित होकर कुमार बायीं ओर मुडा। पश्चात वीर्य की स्थिरता, पुरुषार्थ की उत्कटता, मारने वाले की संक्षब्धता के कारण उन्हें जीतकर (उनसे तलवारें ले लीं। यह उद्यानपालिका ने देख लिया। इसने आवाज दी-'यह क्या हो रहा है !' का शोर उठा । आठ प्रहरी आये । तलवारें खींचीं। प्रहार करने के लिए दौड़े। कुमार ने रोक लिया। 'अरे ! इन मरे हुओं को मारने से क्या लाभ ? ये तपस्वी क्षब्ध हए । इनका पुरुषार्थ मर गया है। सफल जीवन में निवास करनेवाले अभिमान ने इन्हें छोड़ दिया है, ये दया के विषयभाव को प्राप्त हुए हैं, निरर्थक जीवन के लोभ से ये अधिष्ठित हैं, अतः इनके मारने से बस, अर्थात् इनका मारना व्यर्थ है।' इसी बी व इसी घटना को सुनकर राजा आया। उसने मारनेवालों को बंधवाया और कुमार सेन से कहा- 'वत्स ! यह Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ [ समराइच्चकहा पुच्छिया धाय ।। हरे, कि पुण तुमहिं एवं वसिय ति। तेहि भणियं-देव्वं पुच्छह ति। राइणा भणियं-केण देवो चोइओ। तेहि मषियं देव, न याणामो त्ति। राइणा भगियं - नाणिमित्तं बाबायणं ति । ता कि पुण निमित्तं कुओ वा तुम्भे, कस्स वा संतिय त्ति। तओन जंपियमेएहि। पुणो पुछिय, पुणो दिन जंपति । कविओ राया। अच्छोडाविया कसेहिं । तओ कापरयाए भावस्स दुनिसहयाए कसप्पहाराणं सावेरखयाए जोवियस्स कुविययाए नरिदम्स जपियमणेहिं - देव, न किचि एत्थ निमितं; अवि य एत्थेव अम्हे कुमारविसेणसंतिया, तस्सेव सासगणं इमं अमोहि वसियं । संस्यं देवोपमाणं ति कहं कुमारबिसेणसासणं ति कुविओ राया विसेण स भणियं च सेणेण - ताय, न खलु इम एवं वेवावगंतव्वं ति । कहं पुण सो महाणुभावो अमच्छरिजोस पबग्गे दइओ माहुवाए लोलुमो निम्मल जसे अवच्चं तायस्स इमं ईइसं उभयलोयविरुद्धं मंतइस्सइ। ता जहा कहंचि जीवियभीरुपयाए इमं जंपियमिमेहिं । करेउ ताओ पसायं, मोयावेउ ए जीवियभीरुए ति । तओ 'कस्स संतिय' त्ति गवेसावियं राइणा । मुणियं पहाणपरियणाओ, जहा कुमारसंतिय ति। तओ 'न जानामि' | पृष्टा घातका:-अरे ! किं पुनर्युष्माभिरेतद् व्यवसितमिति । तैर्भणितम् दैवं पच्छतेति । राज्ञा भणितम्-केन देवश्चोदितः । तैर्भणितम्-देव ! न जानीम इति । राज्ञा भणितम -- नानिमित्तं व्यापादन मिति । ततः किं पुननिमित्तम्, कुतो वा यूयम्, कस्य वा सत्का इति । ततो न जल्पित मेतैः। पुनः पृष्टाः, पुनरपि न जल्पन्ति । कुपितो राजा। आच्छोटिताः कषः । ततः कातरतया भावस्य दुर्विषहतया कषप्रहाराणां सापेक्षतया जीवितस्य कुपिततया नरेन्द्रस्य जल्पित मेभिःदेव ! न किञ्चिदत्र निमित्तम्, अपि चात्रैव वयं कुमारविषेणसत्काः, तस्यैव शासनेनेदमस्माभिव्यंव सतम, साम्प्रतं देवः प्रमाणमिति । 'कथं कुमारविषेणशासनम्' इति कणितो राजा विषणस्य । भणितं च सेनेन--तात ! न खल्विदमेवमेवावगन्तव्यमिति । कथं पुनः स महानुभावोऽमत्सरिक: स्वजनवर्गे दयितः साधुवादे लोलुपो निर्मलयशसि अपत्यं तातस्येदमीदृशमुभयलोकविरुद्ध मन्त्रयिष्यति । ततो यथाकथंचिज्जीवितभीरुकतयेदं जल्पितमेभिः । करोतु तातः प्रसादम, मोचयत्वेतान जीवितभी रुकानीति । ततः 'कस्य सत्काः' इति गवेषितं राज्ञा। ज्ञातं प्रधानपरि जनाद् यथा कमा क्या है ?' उसने कहा -'पिता जी ! नहीं जानता हूँ।' घातकों से पूछा गया- 'अरे तुम लोगों ने ऐसा कार्य क्यों किया?' उन्होंने कहा-'भाग्य से पूछो!' राजा ने कहा --'किस भाग्य से प्रेरित हुए हो?' उन्होंने कहा नहीं जानते हैं।' राजा ने कहा-'मारना बिना कारण नहीं है । अतः क्या कारण है, तुम लोग वहाँ से आये हो और किसके साथ हो ?' उस पर भी ये लोग नहीं बोले । बार-बार पूछा फिर भी नहीं बोले ।' राजा कुपित हुआ। कोड़ों का प्रहार किया गया । अनन्तर भावों की विकलता, कोडों के प्रहारों का कठिनाई से सहन होना, प्राणों की सापेक्षता तथा राजा के कुपित होने के कारण ये लोग बोले-'महाराज ! इसका कोई दूसरा कारण नहीं है अपितु हम लोग यहाँ विषेणकुमार के साथ हैं, उन्हीं की आज्ञा से हम लोगों ने यह कार्य किया है। अब महाराज प्रमाण हैं।' 'कैसी कुमार विषेश की आज्ञा?' कहकर राजा विषेण पर कूपित हआ। सेन ने कहा---'इसको ऐसा ही मत मानो। वह महानुभाव जो कि स्वजनों के प्रति दाह से रहित है, मधुर बोलने का प्रेमी है, निर्मल यश का लोभी है और पिताजी की सन्तान है, कैसे इस प्रकार दोनों लोकों के विरुद्ध सलाह देगा ? अत प्राणों के प्रति भयभीत होने के कारण इन लोगों ने जो कुछ भी कह दिया है। पिता जी प्रसन्न हों, प्राणों से भयभीत इन लोगों को छोड़ दें।' अनन्तर 'किसके साथ हैं'-- राजा ने इसका पता लगाया । प्रधान परिजनों से ज्ञात हुआ कि कुमार Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो भवो] ५८७ अन्नहा एवं ति कुविओ राया विसे गस्स। समाणतं च णेणं-हरे, नियासेहतं मम रज्जाओ कुलदूसणं विसेणं ति वावाएह एए महासामिसालवच्छले सुभिच्चे। एत्थंतरम्मि चलणे निधडिऊण जंपियं सेणेग ताय, मा साहसं मा साहसं ति। कज्जमाणे य एम्मि पावेमि अहं नियमेणं तायसोगकारिणि अवत्थं ति निवेइयं तायस्स। तओ 'अहो पुरिसाणमंतरं' ति चितिऊण जंपियं नरिदेण-- वच्छ, जइ एवं, ता हुमं देव जाणसि; न उण जुत्तमेयं ति । तेणेण भणियं ताय, अणुरि, हिओ म्हि एएस अवावायणेण कुमारसंगहेण य । मोयाविधा वावायगा थेवावराह ति । पूरुण पेसिया सेणेण । एत्थंतरम्मि वणसुत्थभाइसिऊण निग्गओ राया। जाओ लोयवाओ। अहो विसेणेण असोहणमणुचिट्ठियं । तमागओ सेणकुमारकण्णविसयं । चितियं च णेण । अहो निरवराहा वि नाम पाणिणो एवं अयभायणं हवंति । अन्नहा कहं कुमारो, कहमीइसमसज्जणचरियं । असंभावणीयमेयं । निरंकुसो य लोओ, न जुत्ताजत्तं वियारेइ। अहवा नस्थि दोसो जमस्स कुमारस्स चेव पुवकयकम्मपरिणई एस त्ति । निमित्तं चाहमेत्थं ति दूमिओ नियचित्तेणं । सत्का इति । ततो 'नान्यथैतद' इति कपितो राजा विषेणस्य । समाज्ञप्तं च तेन- अरे निर्वासयत तं मम राज्य त् कुलदूषणं विषेणमिति । व्यापादयतैतान् महारवामिसालवत्सलान् सुभत्यान् । अत्रान्तरे चरणयोनिपत्य जल्पितं सेनेन--तात ! मा साहसं मा साहसमिति । क्रियमाणे चैतस्मिन प्राप्नोम्यहं नियमेन तातशोककारिणीमवस्थामिति निवेदितं तातस्य । ततोऽहो पुरुषाणामन्तरमिति चिन्तयित्वा जल्पितं नरेन्द्रेण- वत्स ! यद्येवं ततस्त्वमेव जानासि, न पुनर्युक्तमेतदिति । सेनेन भणितम्--तात ! अनुगृहोतोऽस्मि एतेषामव्यापादनेन कुमारसंग्रहेण च। मोचिता व्यापादकाः स्तोकापराधा इति । पूजयित्वा प्रेषिता सेनेन । अत्रान्तरे व्रणसुस्थमादिश्य निर्गतो राजा। जातो लोकवादः । अहो विषेणेनाशोभन मनुष्ठितम् । समागतः सेनक मारकर्णविषयम्। चिन्तितं च तेनअहो निरपराधा अपि नाम प्राणिन एवमयशोभाजनं भवन्ति । अन्यथा कथं कुमारः, कथमीदृशमसज्जनचरितम् । असम्भावनीयमेतद् । निरंकुशच लोकः, न युक्तायुक्त विचारयति । अथवा नास्ति दोषो जनस्य, कमारस्यैव पूर्वकृतकर्मपरिणतिरेषेति । निमित्तं चाहमति दूनो निजचित्तेन । के साथ हैं । पश्चात् 'यह बात अन्यथा नहीं है'-ऐपा सोचकर राजा विषेण पर कुपित हुआ। उसने आज्ञा दी- 'अरे, मेरे राज्य से कुलदुषण विषेण को निकाल दो। महास्वामी रूपी सियार के प्रेमी इन सुभत्यों को मार दो।' इसी बीच दोनों पैरों में पड़कर सेन ने कहा - "पिता जी ! दण्ड मत दो, हण्ड मत दो। ऐसा किये जाने पर मैं निश्चित ही पिता जी को शोक उत्पन्न करनेवाली अवस्था को प्राप्त हो जाऊँगा' ऐसा पिता जी से निवेदन किया। अनन्तर 'ओह, पुरुषों का अन्तर !'- ऐसा सोचकर राजा ने कहा---'वत्स ! यदि ऐसा है तो तुम ही जानो; किन्तु यह ठीक नहीं है ।' सेन ने कहा-'पिता जी ! इनको न मारने और कुमार की रक्षा के कारण मैं अनुगृहीत है।' सेन ने 'साधारण अपराध है'-- कहकर आदर के साथ मारनेवालों को छोड़ दिया। इसी बीच घाव को ठीक करने का आदेश देकर राजा निकल गया। लोगों में चर्चा फैल गयी। ओह ! विषेण ने बुरा किया। (यह बात) सेन के भी कानों में आयी । सेन ने सोचा -निरपराध भी प्राणी इस प्रकार अपश के पात्र होते हैं नहीं तो कैसे कुमार और कैसा यह असज्जनों क" आचरण ! वह असम्भव है और लोक निरंकुश है, युक्त-अयुक्त का विचार नहीं कर रहा है। अथवा लोगों का दोष नहीं है, यह कुमार के ही पहिले किये हुए कर्मों की परिणति है। मैं यहाँ पर निमित्त हुआ - ऐसा सोचकर वह अपने मन में युःखी हुआ। १. किग्जमाणे-क। , वायगा-क, ख। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८ [समराइच्चकहा ___ अइक्कता कइवि वासरा । पउणो वणो। हाओ सोहणदिणं । कयं राइणा जहोचियं करणिज्ज। वायाविया चारयकालघंटा। दवावियं महादाणं । पूइयाओ नयरिदेवयाओ। आहणाविया आणंदभेरी। समागया विसेसुज्जलनेवत्थधारिणो रायनायरा। तओ वज्जतमंगलतूररवावरिय दसामंडलं नच्चतरायनायरलोयं तूरियविइज्जमाणकडिसुत्त कंठयं विइण्णपडवासधूसरियनहयलं सयलनयरिजणच्छेरयभयं कयं वद्धावणयं ति । इओ य सो विसेणकुमारो तप्पभिइमेव 'हा न संपन्नमहिलसियं' ति अच्चंतदुंमणो अपेच्छमाणो नरवई असंपाययंतो उचियकरणिज्ज अणिग्गच्छमाणो निययगेहाओ अजंपमाणो सह परियणेणं ठिओ एत्तिए दिवसे, नागओ य बद्धा वणए । मणिओ एस वइयरो धणगुणभंडारियाओ सेणकुमारेण । चितियं च ण । जुत्तमेवं एयं कुमारस्स । दुस्प्तहो असंताभिओगो । महसिणेहमोहिएण य दारुणमणचिट्टियं ताइणं, जमत्तिय पिकालं कमारदसणं परिहरियं ति। ता विन्नवेमि तायं. जेण कमारं इह आणे त्ति। कीडसो तेण विणा आणंदो। तओचलणेस निडिऊण विन्नत्तो नरवई - ताय, आणेह इह विसेणकुमारं । तईसणूसुओ अहं। कोइसो तेण विणा पमोओ। अतिक्रान्ताः कत्यपि वासराः। प्रगुणो व्रणः। स्नातः शोभनदिवसे । कृतं राज्ञा यथोचितं करणीयम्। वादिता चारककालघण्टा । दापितं महादानम्। पूजिता नगरीदेवताः आघातिता आनन्दभेरी । समागता विशेषोज्ज्वलनेपथ्य धारिणो राजनागरकाः। ततो वाद्यमानमङ्गलतूर्य रवापूरितदिग्मण्डलं नृत्यद्राजनागरलोकं त्वरितवितीर्यमाणकटिसूत्रकण्ठकं वितीर्णपटवासधूसरितनभस्तलं सकलनगरीजनाश्चर्यभूतं कृतं वर्धापनकमिति । इतश्च स विषेणकुमारस्तत्प्रभृत्येव 'हा न सम्पन्नमभिलषितम्' इत्यत्यन्तदुर्मना अप्रेक्षमाणो नरपतिमसम्पादयन् उचितकरणीयमनिर्गच्छन् निजगेहाद् अजल्पन सह परिजनेन स्थित एतावतो दिवसान्, नागतश्च वर्धापनके । श्रुत एष व्यतिकरो धनगुणभाण्डागारिकात् सेनकुमारेण । चिन्तितं च तेन-युक्तमेवैतत्कुमारस्य । दुःसहोऽसदभियोगः । मम स्नेहमोहितेन च दारुणमनुष्ठितं तातेन यदेतावन्तमपि कालं कुमारदर्शनं परिहृतमिति । ततो विज्ञपयामि तातं येन कुमारमिहानयतीति कीदृशस्तेन विनाऽऽनन्दः । ततश्चरणयोनिपत्य विज्ञप्तो नरपतिः । तात ! आनयतेह । विषेणकुमारम् । तद्दर्शनोत्सुकोऽहम् । कीदृशस्तेन बिना कुछ दिन बीत गये। घाव ठीक हुआ। शुभ दिन में स्नान किया। राजा ने यथायोग्य कार्य किया । प्रयाणकालीन घण्टा बजवाया। महादान दिलाया। नगरदेवी की पूजा की। आनन्दभेरी पिटवायी। विशेष उज्ज्वल वेष धारण कर राज्य के नागरिक आये। अनन्तर नगर के समस्त लोगों को आश्चर्य में डालनेवाला महोत्सव किया। उस समय बजाये जाते हुए मंगलवाद्यों के शब्द से आकाशमण्डल गूंज रहा था। राजकीय पुरुष और नागरिक नाच रहे थे, जल्दी-जल्दी कटिसूत्र और हार धारण किये जा रहे थे, फैलाये हुए सुगन्धित द्रव्य से आकाशतल धूसरित हो रहा था। इधर वह विषेणकुमार उसी समय से ही-'हाय ! मनोरथ सम्पन्न नहीं हुआ'--- इस प्रकार अत्यन्त दुःखी मन हो, राजा को दिखाई न देता हुआ, योग्य कार्यों को न करता हुआ, अपने घर से न निकलता हुआ, सेवकों से बातचीत न करता हुआ इतने दिनों तक रहा, महोत्सव में नहीं आया । इस वृत्तान्त को धनगुण नापक भण्डारी से सेनकुमार ने सुना । उसने सोचा-कुमार के लिए यह उचित ही है । झूठा अभियोग सहन करना कठिन है। मेरे स्नेह से मोहित हुए पिता जी ने कठिन कार्य किया जो कि इतने समय तक कुमार के दर्शनों से बचाया। अतः तात से निवेदन करता हूँ जिससे कुमार यहाँ लाये जाएँ। उसके बिना कैसा आनन्द ? अनन्तर दोनों चरणों में गिरकर राजा से निवेदन किया, 'पिता जी ! विषेणकुमार को यहाँ लाओ । मैं उसके दर्शन का उत्सुक हूँ। उसके बिना प्रमोद कैसा ?' राजा ने कहा--'वत्स ! उस कुलदूषण से बस अर्थात् कुल को Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो भवो] ५५९ राइणा भणियं-बच्छ, अलं तेण कुलदूसणेणं। कुमारेण भणियं - ताय, परिच्चय इमं मिच्छावियप्पं। कहं कुमारो अकज्जमणुचिट्ठिस्सइ' ति। राइणा भणियं-सुद्धसहावो तुमं, न उण सो एरिसो त्ति । कुमारेण भणियं- ताय, कहं न ईइसो जो इमीए वयणिज्जलज्जाए उज्झिऊण कुमारभावोवियं चावल्लं' अवलंबिऊग गंभीरयं अपसायमंते वि य तुमम्मि असंपाययंतो उचियकरणिज्जं अपरिच्चयंतो कुलहरं एवं चिटुइ ति । राइणा भणियं-वच्छ, जइ एवं तुझ निबंधो, ता पेसेहि से आहवणनिमित्तं कंचि निययं ति । कुमारेण भणियं-ताय, अहमेव गच्छामि । राइणा भणियं-एवं करेहि ति। गओ सेणकुमारो। पविट्ठो विसेणमंदिरं । दिट्ठो तव्वइयरचिताए चेव अच्चंतदुम्बलो उज्झिएहिं आहरणएहिं परिमिलाणेणं वयणकमलेणं विमणपरियणसमेओ असुंदरं सयणीयमवगओ विसेणकमारो ति। चि तयं च णेणं-अहो सच्चयमिणं ।। संतगुणविप्पणासे असंतदोसुब्भवे य जं दुक्खं । तं सोसेइ समुदं कि पुण हि यं मणुस्साणं ॥५६०॥ प्रमोदः । राज्ञा भणितम्-वत्स ! अलं तेन कुलदूषणेन । कुमारेण भणितम्-तात ! परित्यजेमं मिथ्याविकल्पम्। कथं कुमारोऽकार्यमनुष्ठास्यतीति । राज्ञा भणितम् - शुद्धस्वभावस्त्वम्, न पुन:स ईदृश इति । कुमारेण भणितम्-तात ! कथं नेदृशो योऽनया वचनीयलज्जया उज्झित्वा कुमारभावोचितं चापलमवलम्ब्य गम्भीरतामप्रसादवत्यपि त्वयि असम्पादयन् उचितकरणीयमपरित्यजन् कुलगृहमेवं तिष्ठतीति । राज्ञा भणितम्-वत्स ! यद्येवं तव निर्बन्धस्ततः प्रेषय तस्या ह्वान निमित्तं कञ्चिद् निजकमिति । कुमारेण भणितम्-तात ! अहमेव गच्छामि। राज्ञा भणितम्-एवं कुर्विति । गतः सेनकुमारः। प्रविष्टो विषेणमन्दिरम् । दृष्टस्त द्वयतिकरचिन्तयैवात्यन्त दुर्बल उज्झितैराभरणैः परिम्लानेन वदन कमलेन विमनःपरिजनसमेतोऽसुन्दरं शयनीयमुपगतो विषेणकुमार इति । चिन्तितं च तेन-अहो सत्यमिदम् सद्गुणविप्रणाशे असदोषोद्भवे च यद दुःखम् । तच्छोषयति समुद्रं किं पुनर्ह दयं मनुष्याणाम् ॥५६०।। दूषित करने वाले से सम्बन्ध रखना व्यर्थ है।' कुमार ने कहा-'पिता जी ! इस मिथ्या विकल्प को छोड़ दीजिए, कुमार कैसे अकार्य करेंगे ?' राजा ने कहा---'तुम शुद्ध स्वभाव वाले हो, वह ऐसा नहीं है।' कुमार ने कहा'पिता जी ! कैसे ऐसा नहीं है जो कि इस निन्दा की लज्जा से कुमारोचित चंचलता को छोड़कर, गम्भीरता का अवलम्बन कर, आप पर प्रसन्न न होकर भी, योग्य कार्यों को न कर, कुलगृह (पितृगृह) को न छोड़ता हुआ वह इस तरह रह रहा है।' राजा ने कहा - 'वत्स ! यदि तुम्हारी हठ ऐसी है तो उसको बुलाने के लिए किसी अपने आदमी को भेजो।' कुमार ने कहा-'पिता जी ! मैं ही जाता हूँ।' राजा ने कहा- 'यही करो।' सेनकुमार गया । विषेण के महल में प्रविष्ट हुआ। उसी घटना की चिन्ता से ही अत्यन्त दुर्बल, आभूषणों का परित्याग किये हुए, म्लान मुखवाला, दुःखी परिजनों के साथ, असुन्दर शय्या पर स्थित विषेणकुमार दिखाई दिया। उसने सोचा - ओह ! यह सत्य है सद्गुणों का विनाश और असदोषों का उद्भव होने पर जो दुःख होता है वह समुद्र को भी सुखा देता है मनुष्यों के हृदय की तो बात ही क्या है ॥५६०॥ १. -सत्ति-ख । २. चावल-क...३. -यंतुचिय-क । ४. दिट्ठो य णे -क। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चकहा अन्नहा कहं कुमारस्स ईइसी अवत्थ ति । उपसप्पिऊण भणियं च णं । कुमार, किमेयं बालचेद्रियं । तेण भणियं पायपरिणइं मे पुच्छसु । सेणकमारेण भणियं अलं पावचिताए। धन्नो तुम, जेण तायस्स पुत्तो ति। ता करेहि रायकमारोचियं किरियं, जेण तारसमीवं गच्छामो ति। तओ अणिज्छमाणो विभूसिओ सहत्थेण, विलित्तो मलयचंदणरसेण, परिहाविओ खोमजुवलयं, गेहाविओ तंबोलं नीओ नरवइसनीवं । पाडिओ चलणेसु । वोलियं बद्धावणयं । अइक्कंतो कोइ कालो वीसंमगमिणं परमसुहमगुहवंतस्स सेगकुमारस्स, संकिलिवित्तस्स य अणभिन्नसुहसरूवस्स विसेणस्स। अन्नया य पवत्ते कोमइमहसवे उज्जाणगएस नायरएस निग्गए नरवइम्मि भरमवगए कोलापमोए अप्पक्किओ चेव वियरिओ मत्तवारणो, तोडियाओ अंदुयाओ, दलिओ आलाणखंभो, भग्गा महापायवा, गालिओं' आहोरणो, धाविओ जणवयाभिमुहं, उद्धाइओ कलयलो, भिन्नाइं आवाणयाई, पणढाओ चच्चरीओ, 'हा कहमियं' ति विसंणो नयरिलोओ। एत्थंतरम्मि इमं चेवावगच्छिय जंपियं अन्यथा कथं कुमारस्येदृश्यवस्थेति । उपसl भणितं च तेन-कुमार ! किमेतद् बालचेष्टितम् । तेन भणितम् - पापपरिणति में पृच्छ । सेनकुमारेण भणितम् -अलं पापचिन्तया। धन्यस्त्वं येन तातस्य पुत्र इति । ततः कुरु राजकुमारोचितां क्रियाम्, येन तातसमीपं गच्छाव इति । ततोऽनिच्छन् वि दूषितः स्वहस्तेन, विलिप्तो मलयचन्दनरसेन, परिधापितः क्षौमयुगलं, ग्राहितस्ताम्बूलं नोतो नरपतिसमोपम् । पातितश्चरणयोः। व्यतिक्रान्तं वर्धापनकम् । अतिक्रान्तः कोऽपि कालो विश्रम्भगभितं परमसुखमनुभवतः सेनकुमारस्य, संक्लिष्टचित्तस्य च अनभिज्ञ (ज्ञात) सुखस्वरूपस्य विषेणस्य। अन्यदा च प्रवृत्ते कौमुदीमहोत्सवे उद्यानगतेषु नागरकेषु निर्गते नरपतौ भरमुपगते क्रीडाप्रमोदे अप्रतकित एव विचरितो मत्तवारणः । नोटिता अन्दुकाः (शृङ्खला:), दलित आलानस्तम्भः, भग्ना महापादपाः, गालितः (पातितः) आधोरणः, धावितो जनवजाभिमुखम्, उद्घावितः (प्रसृतः) कलकल:, भिन्नान्यापणानि, प्रनष्टाश्चर्चयः, 'हा कथमिदम्' इति विषण्णो नगरीलोकः। अत्रान्तरे अन्यथा कुमार की ऐसी अवस्था कैसे होती ? समीप में पहुंचकर उसने कहा---'कुमार ! यह क्या बालकों जैसी चेष्टा है ?' उसने कहा--'मेरी पापपरिणति से पूछो।' सेनकुमार ने कहा-'पाप की चिन्ता से बस अर्थात् पाप की चिन्ता व्यर्थ है । तुम धन्य हो जो कि पिता जी के पुत्र हो । अत: राजकुमारोचित क्रियाओं को करो, जिससे पिता जी के पास दोनों चलें।' अनन्तर उसके न चाहने पर अपने हाथों से उसे विभूषित किया, मलय चन्दन के रस से लिप्त किया, वस्त्रयुगल को पहिनाया। पान लिवाया (और) राजा के पास ले गया। दोनों चरणों में गिराया । महोत्सव समाप्त हुआ। विश्वास से गर्भित परमसुख का अनुभव करते हुए सेनकुमार का कुछ समय व्यतीत हो गया और सुख के स्वरूप को न जानते हुए दुःखी मनवाले विषेण का भी कुछ समय व्यतीत हुआ। एक बार कौमुदी महोत्सव आने पर जब नागरिक उद्यान में गये, राजा बाहर निकला, क्रीड़ा प्रमोद अतिरेक को प्राप्त हो गये तब बिना सम्भावना के ही मतवाला हाथी विचरण करने लगा। उसने साँकलें तोड़ दी, बन्धन-स्तम्भ को चीर डाला, बड़े-बड़े वृक्ष नष्ट कर दिये, महावत को गिरा दिया, लोगों के समूह के सामने दौड़ा, कोलाहल उठा, दुकानेंट गयीं। आमोद-प्रमोद नष्ट हो गया, 'हाय यह क्या हुआ'-इस प्रकार नगर के लोग दुःखी हुए। इसी बीच यह जानकर राजा ने कहा, 'अरे शीघ्र ही दुष्ट हाथी को पकड़ो। उसने लोक का १. गाहियो आरोहणो-क । २, सयं इम-क। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो भवो] नारदेण - हरे गेण्हह लहु दुवारणं कयत्यिओ णेणं लोओ ति। तओ गहणसुओ वि नरवइअगाएसभोरू आएससमणंतरमेव पुलोइज्जमाणो भयविन्भमाहियविभूसियाहि पुरसुंदरोहिं धाविओ सेणकुमारो। सीहकि पोरओ विय दिट्ठो मत्तवारणेणं । तं च दळूण अचितणीययाए पुरिससामत्थस्स विपलिओ से नओ। निरुद्धमगेण गमणं । चित्तगओ विय ठिओ पयइभावे । अहो कुमारस्स सामत्थं ति विम्हिया नायरया, हरिसियाओ पुरसंदरोओ, परितुट्ठो मरवई । एत्थंतरम्मि सिक्खाइसयकोविओ विज्जाहरकुमारओ विय नहगमगेणं समारूढो मतवारणं, निबद्धं आसणं, गहिलो वारुअंकुसो, अप्फालिओ कुंनभाए, गुलगुलियमणेणं । 'जयइ कुमारो' त्ति समुद्धाइओ कलयलो, पाहयाई तुराई, नीओ आलाणखभं । एयवइयरेण दूनिओ विशेगो। चितियं च णेणं । न चएमि ईइसे इमस्स संतिए अणक्खे सोउं पि किमंग पुग पेच्छिउं। ताज होउ, तं होउ। समारंभेमि महासाहसं । वावाएमि सयमेव एवं ति। अन्नया य संतिमईसमेयम्मि उज्जाणसंठिए कुमारे परिणयप्पाए वासरे कसाओदएणमणालो. इदं चैवावगत्य जल्पितं नरेन्द्रेण - 'अरे गृहाण लघु दुष्टवारणम् , कथितस्तेन लोक'इति । ततो ग्रहणोत्सुकोऽपि नरपत्यनादेशभीरुरादेशसमन्तरमेव प्रलोक्यमानो भयविभ्रमाधिकविभूषिताभिः परसुन्दरीभिर्धावितः सेनकुमारः । सिंहकिशोरक इव दृष्टो मत्तवारणेन । तं च दृष्ट्वाऽचिन्तनीयतया पुरुषसामर्थ्यस्य विचलितस्तस्य मदः । निरुद्धमनेन गमनम् । चित्रगत इव स्थितः प्रकृतिभावे । अहो कुमारस्य सामर्थ्य मिति विस्मिता नागरकाः, हषिताः पुरसुन्दर्यः, परितुष्टो नरपतिः। अत्रान्तरे शिक्षातिशयकोविदो विद्याधरकमार इव नभोगमनेन समारूढो मत्तवारणम, निबद्धमासनम, गहीतः शीघ्राऽङ कुशः, आस्फालितः कुम्भ भागे, गुलुगुलितं (गजितं) अनेन । 'जयति कुमारः' इति समुद्धावितः कलकलः, आहतानि तूर्याणि, नीत आलानस्तम्भम् । एतद्वयतिकरेण दूनो विषेणः । चिन्तितं च तेन-न शक्नोमीदृशान् अस्य सत्कानि यशांसि (?) श्रोतुमपि, किमङ्ग पुनः प्रेक्षितुम् । ततो यद् भवतु तद् भवतु । समारम्भे महासाहसम् । व्यापादयामि स्वयमेव एतमिति ।। ___ अन्यदा च शान्तिमतीसमेते उद्यानसंस्थिते कुमारे परिणतप्राये वासरे कषायोदयेनानालोच्य तिरस्कार किया है।' अनन्तर पकड़ने को उत्सुक होने पर भी राजा का आदेश न होने से डरनेवाला कुमार सेन राजा के आदेश के तुरन्त बाद ही भय के विभ्रम से अधिक विभूषित नगरसुन्दरियों के द्वारा देखा जाता हुआ दौड़ा । सिंह-शावक के समान इसे हाथी ने देखा । उसे (सेन कुमार को) देखकर पुरुष के सामर्थ्य की अचिन्तनीयता के कारण उस (हाथी) का मद दूर हो गया। उसने गमन रोक दिया और चित्रलिखित के समान स्वाभाविक रूप में ही खड़ा हो गया। 'ओह कुमार का सामर्थ्य !' इस प्रकार नागरिक विस्मित हुए, नगरसुन्दरियाँ हर्षित हुई। राजा सन्तुष्ट हुआ। इसी बीच शिक्षा-अतिशय के ज्ञाता विद्याधर कुमार के समान आकाश गमन से (कुमार सेन) मतवाले हाथी पर सवार हुआ, आसन जमाया, शीघ्र ही अंकुश लिया. गण्डस्थल को दबाया। इसने (हाथी ने) गर्जना की। 'कुमार की जय हो'-ऐसा कोलाहल उठा, बाजे बजाये गये, हाथी को बाँधने के खम्भे तक लाया गया । इस घटना से विषेण दुःखी हआ और उसने सोचा-इसके इस प्रकार के यगों को सुन भी नही सकता हूं, देखने की तो बात ही क्या है । अतः जो हो सो हो, महान पराक्रम आरम्भ करता हूँ । इसे स्वयं ही मारता हूँ। एक बार शान्तिमती के साथ जब कुमार उद्यान में था और दिन प्रायः ढल रहा था, तब कषाय के Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइचकहा चिऊण परिणइं अगवेक्खिऊण नियमबले अचितिऊण कुमारसत्ति कुमारवावायणनिमित्तमेव कहवय. पुरिसपरिवारिओ गओ तमुज्जाणं। कुमारचित्तवित्तीए अपडिहारिओ चेव पंविट्ठों चंदणलयाहरय । दिदो य ण केवलो चेव कुमारो संतिमई य । वीसत्थो त्ति कढियं मंडलग्गं । दिळं संतिमईए भणियं चणाए अज्जउत्त, परित्तायहि परित्तायहि । तओ 'किमेयं ति उढिओ कुमारी। दिट्ठो य णेण विसेणो। छूढं तेणोहरणं । सिक्खाइसएण वंचियं कुमारेणं, 'किमयं ति चिंतासुम्नहियएणावि भुये रुभिऊण अव हडं से खग्गं । भणिओ य एसो 'कुमार, किमेयं' ति। तओ निरंभमाणेण कढ़िया छुरिया। दरविइण्णे पहारे बाहं वालिऊण अवहडा य णेणं । बाहवलणपीडाए निवडिओ विरुणो। उद्याविओ जेणं, निवेसिओ सयणिज्जे, पुरिछओ संभमेणं 'कमार किमयं ति । तओ अदाऊण उत्तरं निग्गओ चंदणलयाहराओ। भणियं च संतिमईए-अज्जउत, किमयं ति । कुमारेणं भणियं-- सुंदरि, अहं पि न मुणेमि। एत्तिएण पुण एत्थ होयत्वं रज्जमुद्दिसिऊण पयारिओ केणइ कुमारो ति। ता अलं मे इहथिएणं जत्थ पहाणसयणरस कुमारस: वि ईइसो उन्वेवो। अवत्थाणे य अवस्समेव केणइ परिणतिमनवेक्ष्य निजवलमचिन्तयित्वा कुमारशक्ति कुमारव्यापादननिमित्तमेव कतिपयपरुषपरिवतो गतस्तमुद्यानम् । कुमारचित्रवेत्र्या(प्रतीहार्या) अप्रतिहारित (अनवरुद्धः) एव प्रविष्टश्चन्दनलतागृहम् । दृष्टश्च तेन केवल एव कुमारः शान्तिमती च । विश्वस्त इति कृष्टं मण्डलाग्रम् । दष्टं शान्तिमत्या। भणितं च तया आर्यपुत्र ! परित्रायस्व, परित्रायस्व । ततः 'किमेतद' इत्युत्थितः कमारः । दृष्टस्तेन विषेणः । क्षिप्तं तेन शस्त्रम् । शिक्षातिशयेन वञ्चितं कुमारेण । 'किमेतद' इति चिन्ताशून्यहृदयेनापि भुजं रुद्ध्वाऽपहृतं तस्य खङ्गम् । भणितश्चैष: 'कुमार ! किमेतद्' इति । ततो निरुध्यमानेन कृष्टा रिका । दरवितीर्णे (ईषद्दत्ते) प्रहारे बाहुं वालयित्वा अपहृता च तेन । बाहवलनपीडया निपतितो विषेणः । उत्थापितोऽनेन, निवेशितः शयनीये, पृष्ट: सम्भ्रमेण 'कमार ! किमेतद' इति । ततोऽदत्त्वोत्तरं निर्गतश्चन्दनलतागृहात । भणितं च शान्तिमत्या- आर्यपत्र ! किमेतदिति । कुमारेण भणितम्-सुन्दरि ! अहमपि न जानामि । एतावता पुनरत्र भवितव्यम् , राज्य मुद्दिश्य प्रसारित: केनचित्कुमार इति । ततोऽलं मे इह स्थितेन, यत्र प्रधानस्वजनस्य कुमारउदय से फल का विचार न कर, अपनी शक्ति को न देखकर, कुमार की शक्ति का विचार न कर, कुमार को मारने के लिए ही कुछ पुरुषों के साथ (कुमार विषेण) उस उद्यान में गया। चित्रवेत्री (प्रतीहारी) के द्वारा न रोके जाने पर कुमार चन्दनलतागृह में बेरोक-टोक प्रवेश कर गया । उसने केवल कुमार और शान्तिमती को देखा । विश्वस्त होकर तलवार खींची। शान्तिमती ने देख लिया। उसने कहा'आर्यपुत्र ! रक्षा करो, रक्षा करो।' अनन्तर यह क्या !-ऐसा कहकर कुमार उठ गया। उसने विषेण को देखा । विषेण ने शस्त्र चलाया। शिक्षा के अतिशय से कूमार ने उसे रोक लिया। 'यह क्या !'--इस प्रकार चिन्ताशून्य हृदयवाला होते हुए भी भुजा रोककर उसकी तलवार छीन ली। इससे कहा---'कुमार ! यह क्या है ?' अनन्तर रोके जाने पर भी विषेण ने छुरी छीन ली। (तब) कुछ प्रहार कर (तथा) बाहु को मोड़कर सेन ने उसे भी छीन लिया। बाहु के मुड़ने की पीड़ा से विषेण गिर गया। सेन ने (उसे) उठाया, शय्या पर रखा, घबराकर पूछा---'कुमार! यह क्या है ?' अनन्तर उत्तर न देकर विषेण चन्दन लतागृह से निकल गया । शान्तिमती ने कहा -'आर्यपुत्र ! यह सब क्या है ?' कुमार ने कहा-'सुन्दरि ! मैं भी नहीं जानता हूँ। यहाँ इतनी ही बात होना चाहिए कि राज्य को उद्देश्य कर किसी के द्वारा कुमार ठगा गया है। अतः मेरा यहाँ रहना व्यर्थ है, जहाँ पर कि प्रधान स्वजन कुमार को भी इस प्रकार उद्वेग होता है । (मेरे यहाँ) ठहरने पर Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो भवो ] ५६३ लिंगेण जाणइ कुमारचेट्ठियं ताओ । तओ य घेपइ उम्माहएणं, निव्वासइ य कुमार, आवहइ सोयमंबा 'लाघवं कुलहरस्स कुपुरिसो ति । अन्नत्य विलज्जियं जीवइ कुमारो । परत्थ संपायणाणुगयं च कुलवणिज्जरक्खणामेत्तफलं सुपुरिसाण चेट्ठियं एत्थ पुण उभयविवज्जओ त्ति । संतिमईए भणियं - अज्जउत्त, एवमेयं किं तु कहं पुण गुरू अज्जउत्तं विसज्जिस्संति । कुमारेण भणियं - अइपंडिए, को गुरूणं । अत्थ ईसो नाओ 'बहुयरगुणे कज्जे नेहकायरयाए विग्धकारिणो गुरू अपुच्छिकण वि पट्टिज्जइ' त्ति । संतिमईए भणियं अज्जउत्तो पमाणं । कुमारेण भणियं - सुंदरि, जइ एवं, ता अहिऊण परियणस्स इओ चेवावक्कमामो । अलं कालहरणेणं । मा इमं चेव कुमारो संपाडइस्सह; लज्जिओ खु सो वि इमिणा चेट्ठिएण । संतिमईए भणियं - अज्जउत्तो पमाणं । एत्थंतरम्मि अत्थमिओ सूरिओ । कयं पओसावस्सयं । भणिओ य परियणो । अज्ज मए एत्थेव सव्वं ति । तओ सज्जियं उज्जाणवासभवणं । सीसं मे दुक्खड़ त्ति भणिऊण लहुं चैव विसज्जिओ परियो । अइक्कता काइ वेला । तओ पसुते परियणे अडयणाए विय अहिसरणगमणम्मि कसणपडएण स्यापीदृश उद्व ेगः । अवस्थाने चावश्यमेव केनचिद् लिङ्गेन जानाति कुमारचेष्टितं तातः । ततश्च गृह्यते उन्मान (विनाशन), निर्वासयति च कुमारम्, आवहति शोकमम्बा ' लाघवं कुलगृहस्य कुपुरुषः ' इति । अन्यत्र विलज्जितं जीवति कुमारः । परार्थसम्पादनानुगतं च कुलवचनीयरक्षणमा फलं सुपुरुषाणां चेष्टितम् अत्र पुनरुभयविपर्यय इति । शान्तिमत्या भणितम् - आर्यपुत्र ! एवमेतद्, किन्तु कथं पुनर्गुरवः आर्यपुत्रं विसर्जयिष्यन्ति । कुमारेण भणितम् - अतिपण्डिते ! को गुरून् कथयति । अस्तीदृशो न्याय: 'बहुतरगुणे कार्ये स्नेहकातरतया विघ्नकारिणो गुरूनपृष्ट्वाऽपि प्रवर्त्यते इति । शान्तिमत्या भणितम् -- आर्यपुत्रः प्रमाणम् । कुमारेण भणितम् - सुन्दरि ! यद्येवं ततोऽकथयित्वा परिजनस्य इतश्चैवापक्राम्यामः । अलं कालहरणेन । मा इदमेव कुमारः सम्पादयिष्यति, लज्जितः खलु सोऽप्यनेन चेष्टितेन । शान्तिमत्या भणितम् - आर्यपुत्रः प्रमाणम् । अत्रान्तरे अस्तमितः सूर्यः । कृतं प्रदोषावश्यकम् । भणितश्च परिजनः । अद्य मयातैव वस्तव्यमिति । ततः सज्जित मुद्यानवासभवनम् । 'शीर्ष मे दुःखयति' इति भणित्वा लघ्वेव विसर्जितः परिजनः । अतिक्रान्ता काचिद्वेला । ततः प्रसुप्ते परिजने कुलटायामिवाभिसरणगमने कृष्णपटेनेव किसी चिह्न से पिता जी कुमार विषेण की चेष्टा को अवश्य ही जान लेंगे । पश्चात् विनाशक द्वारा पकड़वाकर कुमार को बाहर निकाल देंगे, माता को शोक होगा । 'कुलगृह का कुपुरुष है' - इस प्रकार लघुता होगी। दूसरी जगह कुमार लज्जित होकर जीवित रहेगा । सत्पुरुषों की चेष्टाएँ परार्थ का सम्पादन करनेवाली और कुल की निन्दा की रक्षामात्र फलवाली होती हैं, यहाँ पर दोनों विपरीत हो रही हैं। शान्तिमती ने कहा- 'आर्यपुत्र ! यह ठीक है, किन्तु माता-पिता आर्यपुत्र को कैसे जाने देंगे ?' कुमार ने कहा- 'अतिपण्डिते ! माता-पिता से कौन कहता है ? इस प्रकार का न्याय है कि बहुत गुणवाले कार्य में स्नेहातिरेक से दुःखी होने के कारण विघ्न करने वाले माता-पिता से बिना पूछे ही प्रवृत्ति की जाती है । शान्तिमती ने कहा - 'आर्यपुत्र प्रमाण हैं ।' कुमार ने कहा - ' सुन्दरि ! यदि ऐसा है तो परिजनों से न कहकर यहीं से भाग चलें। समय बिताना व्यर्थ है । यही कुमार न कर बैठे, वह इस चेष्टा से लज्जित है ।' शान्तिमती ने कहा- 'आर्यपुत्र प्रमाण हैं ।' इसी बीच सूर्य अस्त हो गया । सन्ध्याकालीन क्रियाओं को किया। परिजनों से कहा- 'आज में यहीं निवास करूँगा । अत: उद्यान के निवासभवन को सजाओ । मेरा सिर दुःख रहा है'-- ऐसा कहकर शीघ्र ही परिजनों को विदा कर दिया। कुछ समय बीता । अनन्तर परिजनों के सोने पर कुलटा स्त्री जिस प्रकार अभिसरण के लिए Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ [समराइच्च कहा विय तिमिरनिवहेण 'ओत्थयाए रयणोए उढिओ कुमारो संतिमई य। भणियं च णेण--सुंदरि, बीहाणि देसंतराणि, विचित्ता कम्मपरिगई, आवयाभायणं च एत्थ पाणिणो। बाहेइ य म कुमारनेहाणबंधो, उपपेक्खामि य इह अवत्थाणम्मि तस्स आवयं, अणिवईए य चित्तस्स न सक्कुणोमि इह चिद्विलं, अणुचिया य तुमं किलेसायासस्स । ता न याणामि, किमेत्य जुत्तं ति। संतिमईए भणियंअज्जउत्तचित्तनिव्वुइसंपायणं ति । को य मम अज्जउत्तसहियाए किलेसायासो त्ति । तओ भवियन्वयाए' निओएण संतिमईसमेओ घेत्तण असिवरं अलविखओ परियण निग्गओ उज्जाणाओ। गओ रयणीए चेव चंपावासयं सन्निवेसं। एत्थंतरम्मि अइक्कंता रयणी, उग्गओ अंसुमाली। परिस्पंता संतिमइ त्ति ठिओ एगमि बणनिगुंजे। दिट्ठो य तत्थ तामलित्तिपत्थिएण रायउरनिवासिणा साणुदेवनामेण सत्थवाहपुत्तेण, पच्चभिन्नाओ म णेण । जाया य से चिता । कि पुण एसो रइदुइओ विय मयरकेऊ रायधूयामेत्तपरियणो एवं वट्टइ। कि राइणा निव्वासिओ ति । अहवा न संभवइ एवं रायधूयापयाणाणुमाणमुणियसिणेहाइतिमिरनिवहेनावस्तृतायां रजन्यामुत्थितः कुमारः शान्तिमती च । भणितं च तेन-सुन्दरि ! दीर्घाणि देशान्तराणि, विचित्रा कर्मपरिणतिः, आपद्भाजनं चात्र प्राणिनः । बाधते च मां कुमारस्नेहानुबन्धः, उत्प्रेक्षे चेहावस्थाने तस्यापदम् । अनिर्वृत्या च चित्तस्य न शक्नोमीह स्थातुम , अनुचिता च त्वं क्लेशायासस्य । ततो न जानामि किमत्र युक्तमिति। शान्तिमत्या भणितम्-आर्यपुत्रचित्तनिर्वतिसम्पादनमिति । कश्च ममार्यपुत्रसहितायाः क्लेशायास इति । ततो भवितव्यताया नियोगेन शान्तिमतीसमेतो गृहीत्वाऽसिवरमलक्षितः परिजनेन निर्गत उद्यानात् । गतो रजन्यामेव चम्पावासं सन्निवेशम् । अत्रान्तरे अतिक्रान्ता रजनी, उद्गतोऽशुमाली। परिश्रान्ता शान्तिमतीति स्थित एकस्मिन् वननिकुञ्ज । दृष्टश्च तत्र ताम्रलिप्तीप्रस्थितेन राजपरनिवासिना सानुदेवनाम्ना सार्थवाहपुत्रेण, प्रत्यभिज्ञातश्च तेन । जाता च तस्य चिन्ता। किं पुनरेष रतिद्वितीय इव मकरकेतू राजदुहितमात्रपरिजन एवं वर्तते । किं राज्ञा निर्वासित इति । अथवा न सम्भवत्येतद् राजदुहितप्रदानानुमानज्ञातगमन करती है, उसी प्रकार कुमार सेन और शान्तिमती उठे। उस समय रात्रि काले वस्त्र के समान अन्धकार समूह से आच्छादित हो रही थी। कूमार सेन ने कहा- 'सन्दरि ! देशान्तर दीर्घ होते हैं, कर्मों की परिणति विचित्र है, यहाँ प्राणी आपत्ति के पात्र होते हैं। कुमार के प्रति स्नेह का सम्बन्ध मुझे पीड़ित कर रहा है। यहाँ पर ठहरने में उसकी आपत्ति देखता हूँ । चित्त की शान्ति न होने के कारण यहाँ नहीं रह सकता हूँ। तुम क्लेश और थकावट के योग्य नहीं हो, अत: नहीं जानता हूँ, यहाँ क्या युक्त है ।' शान्तिमती ने कहा---'आर्यपुत्र के चित्त की शान्ति का सम्पादन (करना ही यहाँ उचित है । अतः आर्यपुत्र के साथ मुझे क्लेश और थकावट कहाँ ?' मनन्तर भवितव्यता के नियोग से शान्तिमती के साथ श्रेष्ठ तलवार लेकर परिजनों के द्वारा न दिखाई देते हुए उद्यान से निकल गया। रात्रि में ही चम्पावास नामक सन्निवेश में पहँचा। इसी बीच रात्रि बीत गयी, सूयंदिय हुआ। शान्तिमती थक गयी है-ऐसा सोचकर एक वनकंज में ठहर गया। वहाँ पर ताम्रलिप्ती को जाते हुए राजपुर के निवासी 'सानुदेव' नामक सार्थवाहपुत्र ने देख लिया और पहिचान लिया . उसे चिन्ता हुई । रति के साथ कामदेव की तरह राजकुमारी मात्र ही जिसकी सेवक है, ऐसा (यह कुमार सेन) इस अवस्था में क्यों है ? क्या राजा ने निकाल दिया? अथवा राजपुत्री के प्रदान के अनुमान १, उच्छइया रयणीक । २. -यानिओ----क । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो भवो] ५६५ सयस्स राइणो हरिसेणस्स । गणायरो य एसो, गुणेगंतपक्खवाई य राया। अओ अपक्खो चेव एसो त्ति । न य अन्नो कोइ निवासणसमत्थो। एत्थ एहमेत्तपरियणो य एसो। ता भवियश्वमणेणं नियनिव्वेयनिग्गएणं । विचित्ताणि य विहिणो विलसियाणि । ता इमं एत्य पत्तयालं, पणमिऊण पुच्छामि एयं ति । चितिऊण पणमिओ कुमारो संतिमई य । भणियं च णेणं-देव, अमणियवृत्तंतो ति बिन्नविस्सं देवं । तओ न कायव्वो खेओ। कुमारेण भणियं-मद्द, को एत्थ अवसरो खेयस्स; ता भगाउ भद्दो। साणुदेवेण भणियं - देव, अहं खु रायउरवस्थव्वओ साणुदेवो नाम सत्थवाहपुत्तो, पयट्टो सत्थेन तामलित्ति । आवासिओ य णे सत्थो एत्थ सन्निवेसे । आयमणनिमित्तं च समागओ इओ नाइदूरदेसवत्तिणं सरं । उवलद्धं च एवं वणनिजं । तओ समपन्नो मे पमोओ.। आचिक्खियं विय हियएणं, जहा एत्थ कल्लाणं ते भविस्सइ ति। तओ भवियव्वयानिओएण समागओ इहइं। उवलद्धो य देवो सामिधूया य। रायउरोवलद्धसंगयाणस्सरणगुणेण य समुप्पन्न पच्चभिन्नाणं । तओ आणंदियं पि विसणं विय मे चित्तं, 'कहिं देवो, कहिं एहमेत्तपरियणो' ति। ता आइसउ देवो, जइ अकहणीयं न स्नेहातिशयस्य राज्ञो हरिषेणस्य । गणाकरश्चैषः, गुणकान्तपक्षपाती च राजा । अतोऽपक्ष एष इति । न चान्यः कोऽपि निर्वासनसमर्थः । अत्र एतावन्मात्रपरिजनश्चैषः। ततो भवितव्यमनेन निजनिर्वेदनिर्गतेन । विचित्राणि च विधेविलसितानि । तत इदमत्र प्राप्तकालम्, प्रणम्य पृच्छाम्येतमिति । चिन्तयित्वा प्रणतः कुमारः शान्तिनती च । भणितं च तेन-देव ! अज्ञातवृत्तान्त इति विज्ञपयिष्ये देवम्, ततो न कर्तव्यः खेदः । कुमारेण भणितम्-भद्र ! कोऽत्रावसरः खेदस्य, ततो भणतु भद्रः। सानुदेवेन भणितम्-अहं खलु राजपरवास्तव्यः सानुदेवो नाम सार्थवाहपत्रः प्रवृत्तः सार्थेन ताम्रलिप्तीम् । आवासितश्चास्माभिः सार्थोऽत्र सन्निवेशे। आचमननिमित्तं च समागत इतो नातिदूरदेशवर्ति सरः । उपलब्धं चैतद् वननिकजम् । ततः समुत्पन्नो मे प्रमोदः । आख्यातमिव हृदयेन, यथाऽत्र कल्याणं ते भविष्यतीति । ततो भवितव्यतानियोगेन समागत इह। उपलब्धश्च देव स्वामिदुहिता च। राजपरोपलब्धसङ्गतानुस्मरणगुणेन च समुत्पन्न प्रत्यभिज्ञानम् । तत आनन्दितमपि विषण्णमिव मे चित्तम, कत्र देवः, कत्र एतावन्मानपरिजन इति । तत आदिशतु देवो यद से जिसका स्नेहातिशय ज्ञात होता है-ऐसे राजा हरिषेण में यह बात सम्भव नहीं है। यह राजा गुणों की खान और गुणों का एकान्त रूप से पक्षपाती है। अतः यह पक्ष नहीं हो सकता है। दूसरा कोई निकालने में समर्थ है नहीं। यहाँ पर इतने मात्र परिजन से यह युक्त है । अतः अपनी ही विरक्ति से इसे निकला हुआ होना चाहिए । भाग्य के विलास विचित्र हैं । तो अब समय आ गया है, प्रणाम कर इसी से पूछू-ऐसा सोचकर उसने कुमार और शान्तिमती को प्रणाम किया और कहा-'महाराज ! मुझे चूंकि वृत्तान्त ज्ञात नहीं है, अतः महाराज से निवेदन करना चाहता हूँ, अतः खेद न करें।' कुमार ने कहा--'भद्र ! यहाँ पर खेद का क्या अवसर, अतः भद्र, कहिए।' सानुदेव ने कहा-'मैं राजपुरी का निवासी सानुदेव नामक वणिक्पुत्र सार्थ (काफिले) के साथ ताम्रलिप्ती जा रहा हूँ। हम लोगों के सार्थ ने यहाँ सन्निवेश में डेरा डाला है । पानी पीने के लिए यहाँ समीपवर्ती तालाब पर आया और इस वन-निकुंज तक आ पहुँचा। अनन्तर यहाँ मुझे हर्ष हुआ। हृदय ने मानो कहा कि यहाँ तुम्हारा कल्याण होगा। अतः होनहार के नियोग से यहाँ आया हूँ। यहाँ पर महाराज और स्वामिपुत्री मिले। राजपुर में प्राप्त मेल के स्मरणरूप गुण से पहिचान लिया। उससे आनन्दित होने पर भी मेरा मन खिन्नसा है । कहाँ तो महाराज और कहां इतने मात्र परिजन ! अतः महाराज ! यदि अकथनीय न हो तो कहिए।' Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चकहा ५६६ Tas | कुमारेण चितियं - अहो वच्छलया सत्यवाहपुत्तस्स, अहो निम्भराजुराओ, अहो वयणको सल्लं ति । चितिऊण जंपियं च णेणं-- सत्यवाहपुत्त, अत्थि एत्थ कारणं । किं तु अहं पितामलिति चेव •पस्थिओ । ता पुणो साहइस्सं । साणुदेवेण भणियं - देव, पसाओ त्ति अणुग्गिहीओ देवेणं । तहावि सत्यगमणेण आणंदे मं देवो । कुमारेण भणियं - सत्थवाहपुत्त, अत्थि एयं । किं तु कयाइ तत्थ ताय• पैसिया अन्ने सयपुरिसा पेच्छति । तओ न संपज्जइ मे समीहियं । साणुदेवेण भणियं - देव, जइ एवं, ता चिट्ठामि ताव एत्थ कवि दियहे । वोलोणेसु पुरिसेसु पयत्तगोविएणं देवेणं सह पुणो गमिस्सं ति । कुमारेण भणियं - सत्थवाहपुत्त, अलं इमिणा निब्बंधेण गच्छ तुमं । साणुदेवेण भणियं - देव, मा एवमाणवेह । समुप्पज्जइ मे दुक्खं निरत्थयं च मन्नेमि देवस्स दंसणं । कुमारेण भणियं - जइ ते मिन्बंधो, ता एवं हवउत्ति । साणुदेवेण भणियं - देव, पसाओ । कुमारेण भणियं - जइ एवं, ता गच्छ नित्थं । न जंपियन्दो एस व इयरो, नागंतव्यभिहई' । तओ जं देवो आणवेइ' त्ति जंपिऊण साणुदेवो गओ सत्यं । थेववेलाए य आगया आसवारा । पुच्छिया य णेहि सत्थिया । भो न तुम्भेहि एवं अकथनीयं न भवति । कुमारेण चिन्तितम् - अहो वत्सलता सार्थवाहपुत्रस्य, अहो निर्भरानुरागः, अहो वचन कौशल्यमिति चिन्तयित्वा जल्पितं च तेन - सार्थवाहपुत्र ! अस्त्यत्र कारणम्, किन्त्वहमपि ताम्रलिप्तीमेव प्रस्थितः, ततः पुनः कथयिष्ये । सानुदेवेन भणितम् - देव ! प्रसाद इत्यनुगृहीतो देवेन तथापि सार्थ गमनेनानन्दयतु मां देवः । कुमारेण भणितम् - सार्थवाहपुत्र ! अस्त्येतद्, किन्तु कदाचित् तत्र तातप्रेषिता अन्वषक पुरुषाः प्रेक्षन्ते, ततो न सम्पद्यते मे समीहितम् । सानुदेवेन भणितम् - देव ! यद्येवं ततस्तिष्ठामि तावदत्र कत्यपि दिवसान् । व्यतिक्रान्तेषु पुरुषेषु प्रयत्नगोपायितेन देवेन सह पुनर्गमिष्ये इति । कुमारेण भणितम् - सार्थवाहपुत्र ! अलमनेन निर्बन्धेन, गच्छ त्वम् । सानुदेवेन भणितम् - देव ! मैवमाज्ञापय । समुत्पद्यते मे दुःखम्, निरर्थकं च मन्ये देवस्य दर्शनम् । कुमारेण भणितम् - यदि ते निर्बंन्धस्तत एवं भवत्विति । सानुदेवेन भणितम् - देव ! प्रसादः । कुमारेण भणितम् - यद्येवं ततो गच्छ निजसार्थम् । न जल्पितव्य एष व्यतिकरः, देव, नागन्तव्यमिह । ततो 'यद्देव आज्ञापयति' इति जल्पित्वा सानुदेवो गतः सार्थम् । स्तोकवेलायामागता कुमार ने सोचा - ओह वणिक्पुत्र का प्रेम, अत्यधिक अनुराग, वचनों की कुशलता आश्चर्यजनक है । और ऐसा सोचकर उसने कहा - 'इसका कारण है, किन्तु मैं ताम्रलिप्ती ही जा रहा हूँ, अतः फिर बताऊँगा ।' सानुदेव ने कहा - 'महाराज ! आपने कृपा की अतः मैं अनुगृहीत हुआ तो भी साथ ( काफिला ) तक पहुँचकर हे देव ! मुझे आनन्दित करें ।' कुमार ने कहा- 'सार्थवाहपुत्र ! ठीक है, किन्तु कदाचित् पिता जी के द्वारा भेजे हुए अन्वेषक पुरुष देख लेंगे, अतः आपका मनोरथ पूर्ण नहीं कर सकता हूँ ।' सानुदेव ने कहा- 'महाराज ! यदि ऐसा है तो यहीं कुछ दिन ठहर जाता हूँ । पुरुषों के चले जाने पर प्रयत्न से छिपाये हुए महाराज के साथ पुनः चल दूँगा ।' कुमार ने कहा - ' इस प्रकार की हठ मत करो, तुम जाओ।' सानुदेव ने कहा- 'महाराज ! ऐसी आज्ञा मत दो। मुझे दुःख होता है और महाराज का दर्शन व्यर्थ मानता हूँ । कुमार ने कहा--' - 'यदि तुम्हारी हठ है तो ऐसा ही हो ।' सानुदेव ने कहा - 'महाराज ! अनुगृहीत हूँ ।' कुमार ने कहा - 'यदि ऐसा है तो अपनी टोली के पास जाओ। यह घटना मत कहना, यहाँ मत आना।' अनन्तर 'जो महाराज आज्ञा दें' - ऐसा कहकर सानुदेव व्यापारियों की टोली में चला गया। कुछ ही देर में घुड़सवार आये । उन्होंने टोली के व्यापारियों से पूछा- 'अरे ! आप लोगों १. • ब्वं केणइ इहईक | Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो भवो] ५६७ विहजायासमेओ एवंविहो पुरिसो समुवलखो ति। तेहि भणियं-'नोवलद्धो' । मिहो पियमणेहिहरे, भणियं मए 'अवदिसा खु एसा कुमारस्स'; ता एहि, रायउरवत्तिणीए लग्गामो त्ति । नियत्ता आसवारा। थेववेलाए य पच्चइयपुरिसहत्थम्मि पेसिऊण भोयणं आगओ साणदेवो । निवेइओ आसवारवुत्तंतो। कराविओ पाणवित्ति । अइक्कन्ते य वासरे अत्थमिए दिणयरम्मि नक्खत्तमालापसाहियाए नहयलसिरीए आणिओ सत्यनिवेसं। कओ उचिओवयारो। जामावसेसाए जामिणीए कुमाराएसेण विदिन्नं पयाणयं । समप्पियं पहाणजपाणं संतिमईए कुमारस्स य । गया कंचि भूमिभागं । आवासिओ सत्थो। निविटुं चेलहरयं । ठिया तत्थ संतिमई कुमारसेणो य । संपाडियं उचियकरणिज्ज। एवं च अणवरयपयाणएहि वच्चमाणाणमइक्कंता कइवि वासरा। पत्ता दंतरत्तियाभिहाणं महाडवि । आवासिओ सत्थो। 'भयाणया अडवि' त्ति निविट्ठाई थाणयाई। पहायसमए य विसंसरिएसुं थाणएसुं सत्थलद्दणवावडेसु कम्मयरेसु आवस्सयकरणुज्जएहि आडियत्तिएहि अप्पतक्किया चेव अश्ववाराः । पृष्टाश्च तैः सार्थिका:-भो ! न युष्माभिरेवंविधजायासमेत एवंविधपुरुषः समुपलब्ध इति । तैर्भ णितम् -नोपलब्धः । मिथो जल्पितमेभिः- अरे भणितं मया अपदिक् खल्वेषा कुमारस्य, तत एहि राजपुरवर्तिन्यां लगाम इति । निवृत्ता अश्ववाराः । स्तोकवेलायां च प्रत्ययितपुरुषहस्ते प्रेषयित्वा भोजनमागतः सानुदेवः । निवेदितोऽश्ववारवृत्तान्तः । कारितः प्राणवृत्तिम् । अतिक्रान्ते च वासरे अस्तमिते दिनकरे नक्षत्रमालाप्रसाधितायां नभस्तल श्रियामानीतः सार्थनिवेशम् । कृत उचितोपचारः । यामावशेषायां यामिन्यां कुमारादेशेन विदत्तं प्रयाणकम् । समर्पितं प्रधानजम्पानं शान्तिमत्याः कमारस्य च । गताः कञ्चिद भमिभागम। आवासितः सार्थः । निविष्टं चेलगहम । स्थिता तत्र शातिमती कमारसेनश्च । सम्पादितमूचितकरणीयम।। एवं चानवरतप्रयाणकैर्वजतामतिक्रान्ताः कत्यपि वासराः । प्राता दन्तरनिकाभिधानां महाटवीम् । आवासितःसार्थः । 'भयानका अटवी' इति निविष्टानि स्थानकानि। प्रभातसमये च विसंसृतेषु (अपगतेषु) स्थानकेषु सार्थभारारोपणव्यापृतेषु कर्मकरेषु आवश्यककरणोद्यतेषु सुभटेषु अप्रतकितैव को इस प्रकार की स्त्री के साथ इस प्रकार का पुरुष तो नहीं मिला ?' उन्होंने कहा-'नहीं ।' इन घुड़सवारों ने आपस में कहा-'अरे; मैंने कहा था, यह कुमार का मार्ग नहीं है अतः आओ राजपुरी की ओर चलें।' घुड़सवार लौट गये। थोड़ी देर में विश्वस्त पुरुषों के हाथ भोजन भेजकर सानुदेव आया। (उसने) घुड़सवारों का वृत्तान्त निवेदन किया। भोजन कराया। दिन बीत गया, सूर्य अस्त हो गया और जब नक्षत्रमाला से प्रसाधित आकाशमण्डल विशेष शोभायुक्त हो गया तब उन्हें वह व्यापारियों के पड़ाव पर लाया। (उनका) उचित सत्कार किया। रात्रि का प्रहर मात्र शेष रह जाने पर कुमार की आज्ञा से प्रयाण किया। शान्तिमती और कुमार को मुख्य जम्पान (पालकी) में बैठाया । थोड़ी दूर गये । व्यापारियों की टोली ने पड़ाव डाला। रावटी (चेलगृह) बाँधी । वहाँ पर कुमार सेन और शान्तिमती ठहर गये । योग्य कार्यों को किया । इस प्रकार निरन्तर चलते हुए कुछ दिन बीत गये। दन्त रत्निका नामक बहुत बड़ी पहाड़ी आयी । टोली ने पड़ाव डाला । पहाड़ी भयानक है-ऐसा सोचकर प्रहरियों को तैनात किया गया। प्रात:काल प्रहरियों को चले जाने पर जब मजदूर टोली के माल को चढ़ाने में लग गये, सुभट आवश्यक कार्यों के करने में उद्यत हो गये तो Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ [ समराइच्चकहा विमुक्कबाणवरिसा निवडिया सबरधाडी। वाइयाई सिंगाई, हण हण ति उद्धाइओ कलयलो, विसण्णा कम्मारया, वण्णो इत्थियायणो। पइट्ठिया आडियत्तिया, पवत्तमाओहणं --'सुंदरि, धीरा होहि' त्ति परिसंठवेऊण संतिमइं धाविओ कुमारसेणो, कड्ढियं मंडलग्गं । तओ केसरिकिसोरएण विय हरिणजूहं भग्गं सबरसेन्नं । अन्नदिसाए य भेल्लिओ सत्थो, विलुत्तं सारभंडं, पाडिया आडियत्तिया नट्ठो इत्थियायणो। 'कहं इओ विणिज्जिओ त्ति वलिओ कुमारसेणो । पलाणा सबरपुरिसा। तओ एगागी अवेक्खिऊण कुमारसेणं उवट्टिओ' पल्लीवई, मिलिओ य तस्स । छूढं च णोहरणं । वंचियं कुमारेणं, परिछूढं च तस्स। पाडिओ पल्लीवई, मच्छिओ य एसो। वीजियो कुमारेणं, जाव न चेयइ ति। तओ आसन्नवत्तिसराओ घेत्तण नलिपिपत्तण दिन्नं से सलिलं । तओ चेइयमणेणं' । दिट्ठो कुमारो। चितियं च णेणं । को पुण एसो महापुरिसो, सुकुमारदेहो वि दढप्पहारी, असहाओ वि ववसायजुत्तो, केसरी विय परक्कमेणं, मणिकुमारो विय दयाए, कुसुमाउहो ।वय रूवेण, सत्तूण वि असत्तू । ता आगिईओ चेवावगच्छामि, जहा परमेसरो खु एसो। ता न जुत्तमम्हेहि ववसियं ति । विमुक्तबाणवर्षा निपतिता शबरघाटी। वादितानि शृङ्गाणि, 'जहि जहि' इत्युद्धावितः कलकलः, विषण्णाः कर्मकारकाः, भीतः स्त्रीजनः । प्रतिष्ठिताः सुभटाः । प्रवृत्तमायोधनम् । 'सुन्दरि ! धीरा भव' इति परिसंस्थाप्य शान्तिमती धावितः कमारसेनः, कृष्टं मण्डलाग्रम् । ततः केसरिकिशोरकेनेव हरिणयूथं भग्नं शबरसैन्यम् । अन्य दिशि च भेदितः सार्थः, विलुप्तं सारभाण्डम्, पातिता:सुभटाः, नष्ट: स्त्रीजनः । 'कथमितो विनिर्जितः' इति वलित: कुमारसेनः । पलायिताः शबरपुरुषाः । तत एकाकी अवेक्ष्य कुमारसेनमुपस्थितः पल्लीपतिः मिलितश्च तस्य । क्षिप्तं च तेन शस्त्रम् । वञ्चितं कुमारेण, प्रतिक्षिप्तं च तस्य । पातित: पल्लीपतिः, मूच्छितश्चैषः । वीजितः कुमारेण, यावन्न चेतयते इति । तत आसन्नवतिसरसा गृहीत्वा नलिनीपत्रेण दत्तं तस्य सलिलम् । ततश्चेतितमनेन । दृष्ट: कुमारः । चिन्तितं च तेन । कः पुनरेष महापुरुषः, सुकुमारदेहोऽपि दृढप्रहारी, असहायोऽपि व्यवसाययुक्तः, केसरीव पराक्रमेण, मुनिकुमार इव दयया, कुसुमायुध इव रूपेण, शत्रूणामप्यशत्रुः । तत आकृत्या एवावगच्छामि, यथा परमेश्वर: खल्वेषः । ततो न युक्तमस्माभिर्व्यवसितमिति । अत्रान्तरे भणितं अनायास ही बाणों की वर्षा छोड़ती हुई भीलों की सेना ट पड़ी। सिंगा बजाये गये । 'मारो-मारो'--ऐसा कोलाहल उठा, मजदूर दुःखी हुए, स्त्रियाँ भयभीत हो गयीं। योद्धा अवस्थित हो गये । युद्ध होने लगा। 'सुन्दरि ! धीर धरो'----इस प्रकार शान्तिमती को ठहराकर कुमार सेन दौडा, तलवार खींची। अनन्तर जिस प्रकार सिंह का बच्चा हरिणों के झण्ड को पराजित कर देता है, उसी प्रकार शबर सेना को (कूमार सेन ने) पराजित कर दिया। अन्य दिशाओं में टोली टूट गयी, कीमती माल लुप्त हो गया, सुभट गिर गये, स्त्रियाँ नष्ट हो गयीं । 'यहाँ से कैसे जीतकर जाओगे'--ऐसा कहकर कुमार सेन मुडा। शबरपुरुष भागे। अनन्तर कुमार सेन को अकेला देख भीलों का स्वामी आया, उससे मिला। उसने शस्त्र छोड़ा, कुमार ने चकमा दे दिया और उत्तरस्वरूप उसके ऊपर फेंका। भीलों का स्वामी गिरा दिया गया। वह मूच्छित हो गया। कुमार ने हवा की। (उसे) होश नहा आया। तब समीप के तालाब से कमलिनी के पत्ते में पानी लाकर उसे पानी दिया। उससे इसे होश आया। (उसने) कुमार को देखा और सोचा---यह महापुरुष कौन है ? सुकुमार देहवाला होने पर भी दृढ़ता से प्रहार करनेवाला है । असहाय होने पर भी उद्योगी है । पराक्रम में सिंह के समान है। शत्रुओं का भी मित्र है । इसकी १. पइदिओ-क.ख। २. -मणेणं । उम्मिलियं लोयणजयलं-क। ३. सत्तण कयंतो। ता आगिईओ यवगच्छामि भवियवमणेण परमेसणेण-के। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो भवो] एत्यंतरम्मि भणियं कमारेणं-भद्द, वीसत्थो होहि । तेण भणियं - अज्ज, कोइसी अम्हारिसाणं वीसत्थया। एत्यंतरमि कहियमेगेण सबरेण सेणाए, जहा पल्लीवई पाडिओ ति। अमरिसावेसेण 'हण हण' त्ति जंपमाणा धाविया सबरपुरिसा। 'विणिज्जिओ अहं, महापुरिसो य एसो, ता न पहरियव्वं तु हि' ति सन्नासंपायणत्थं चेट्टियं पहिलणाहेणं। कयमणेण गोमाजवासियं। तओ तमवगच्छिऊण विमुक्कचावपरसू सिरकयंजलिउडा समागया सबरपुरिसा। भणियं च हिं--अज्ज, अभयं देहि त्ति । कुमारेण भणियं-अभयं मुक्काउहाणं । एत्थंतरम्मि चलणेसु निवडिओ पल्लीवई । भणियं च जेण-अज्ज, खमियन्वो एस अवराहो । कुमारेण भणियं-भद्द, को एत्थ अवराहो । तेण भणियंजं सत्थो लडिओ ति । कुमारेण चितियं । हंत किमयं ति । एत्थंतरम्मि जंपियं पल्लिणाहेणं- अरे करेह आघोसणं, निवारेह आओहणं । आणेह जं जेण गहियं; पुणोवलद्धे य न खमेमि अहयं ति। आएससमणंतरं च संपाडियमणेहिं । भणियं च पहिलवइणा-अज्ज, निरूवेहि एयं, कि एत्थ नत्थि त्ति । कुमारेण भणियं--भद्द, असामिओ अहं एयस्स; ता निरूविऊण सत्यवाहपुत्तं पुच्छसु त्ति । निरूवाविओ कमारेण-भद्र ! विश्वस्तो भव । तेन भणितम्-आर्य ! कीदृशी अस्मादृशानां विश्वस्तता। अत्रान्तरे कथित मेकेन शबरेण सेनायाः, यथा पल्लीपतिः पातित इति । अमर्षावेशेण 'जहि जहि' इति जल्पन्तो धाविता: शबरपुरुषाः । 'विनिर्जितोऽहम्, महापुरुषश्चैषः, न प्रहर्तव्यं युष्माभिः' इति संज्ञासम्पादनार्थे चेष्टितं पल्लीनाथेन ! कृतमनेन गोमायुवाशितम् । ततस्तमवगत्य विमुक्तचापपरशवः शिरःकृतालिपुटाः समागताः शबरपुरुषाः। भणितं च तै:-आर्य ! अभयं देहीति । कुमारेण भणितम्-अभयं मुक्तायुधानाम् । अत्रान्तरे चरणयोर्निपतितः पल्लीपतिः । भणितं च तेन --आर्य ! क्षमितव्य एषोऽपराधः । कुमारेण भणितम् --भद्र ! कोऽत्रापराधः। तेन भणितम्-यत्सार्थो लुण्ठित इति । कुमारेण चिन्तितम् । हन्त किमेतदिति । अत्रान्तरे जल्पितं पल्लीनाथेन-अरे कुरुताघोषणाम्, निवारयतायोधनम्। आनयत यद् येन गृहीतम्, पुनरुपलब्धे च न क्षाम्याम्यहमिति । आदेशसमनन्तरं च सम्पादितमेभिः । भणितं च पल्लीपतिना-निरूपयैतत्, किमत्र नास्तीति । कुमारेण भणितम्-भद्र ! अस्वाम्यहमेतस्य ततो निरूप्य सार्थवाहपुत्रं पृच्छेति । निरूपितः सार्थवाहपुत्रः, आकृति से लगता है कि यह परमेश्वर है। अतः (हमारा कार्य ठीक नहीं है), हम लोगों ने यह ठीक नहीं किया है। इसी बीच कूमार ने कहा-'भद्र! विश्वस्त होओ। उसने कहा-'आर्य ! हम जैसे लोगों की विश्वस्तता कैसी?' इसी बीच किसी ने शबरसेना से कह दिया कि स्वामी गिरा दिया गया। क्रोध से आविष्ट होकर 'मारोमारो'-ऐसा कहते हुए शबरपुरुष दौड़ पड़े। 'मैं जीत लिया गया और यह महापुरुष हैं, इन पर प्रहार मत करो', इस प्रकार का इशारा करने के लिए भिल्लराज ने चेष्टा की। इसने सियार की आवाज की। अनन्तर उसे जानकर धनुष और परशुओं को छोड़कर अंजलि को सिर पर बाँधे हुए शवरपुरुष आये और उन्होंने कहा'आर्य ! अभय दो।' कुमार ने कहा-'आयुधों को छोड़नेवालों को अभय है।' इसी बीच भिल्ल राज चरणों में गिर गया । उसने कहा- 'आर्य ! यह अपराध क्षमा करें।' कुमार ने कहा-'भद्र ! कैसा अपराध !' उसने कहा-'जो कि सार्थ को लूटा।' कुमार ने सोचा - हाय ! यह क्या ? इसी बीच भिल्लराज ने कहा- 'अरे ! घोषणा करो, योद्धाओं को रोको। जिसने जो ग्रहण किया हो, उसे लाओ। बाद में मिलने पर मैं क्षमा नहीं करूंगा।' आदेश के बाद इन्होंने (भीलों ने) उसे पूरा किया। भिल्लराज ने कहा -- इसे देखो, यहाँ क्या नहीं है ?' कुमार ने कहा-'भद्र ! मैं इनका स्वामी नहीं हूँ, अतः देखकर सार्थवाहपुत्र से पूछो। सार्थवाहपुत्र को देखा गया, Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराहच्चकहा सस्थवाहपुत्तो, उवलद्धो वणनिउंजे, आणीओ य हिं। भणिओ पल्लिवइणा-अज्ज, न विन्नायं अम्हेहि, जहा एसो महापुरिसो इह गच्छह त्ति । विणिज्जिया य णेण अम्हे । महाणभावयाए पडिवन्नो य एस अम्हेहि सामी। अओ संबंधिओ तुमं ति। अदोहया' णे तुज्झ रित्थस्स। ता निरूवावेहि एयं, कि एत्थ नत्थि त्ति । तओ 'अहो महाणभावया कुमारस्स, एयाइणा विणिज्जिया सबरसेणा। भिच्चभावमवगओ पल्लीव; अहवा थेवमियमिमस्स कि करेंति हरिणया केसरिकिसोरयस्स' त्ति चितिऊण जंपियंसाणदेवेण - भह, सामिसालम्मि अज्जउत्ते तुम्मि य संबंधिए कि ममं नत्थि त्ति । तेण भणियं -तहावि निरूवावसु त्ति, न मे अन्नहा चित्तनिव्वुई होइ । तओ निरूवावियमणेणं, जाव 'पुज्जइ'त्ति साहियं पल्लिणाहस्स । परितुट्ठो य एसो। चितियं कुमारेणं । अहो महाणुभावया एयस्स । एहमेत्तेणावि एवं चिट्टइत्ति--अहवा सुगेज्झाणि सज्जणहिययाणि। भंजाविओ से पहारो, विइण्णं कडिसुत्तयं । महापसाओ ति भणिऊण गहियं पहिलवइणा। निरूवाविया पडिहयपुरिसा । कयाई वणपरिकम्माइं । भणियं च णेण-अज्ज, पच्चासन्ना चेव एत्थ अम्हाण पल्ली; ता तीए दंसणेण अणुग्गहेउ में उपलब्धो वननिकुञ्ज, आनीतश्च तैः । भणित: पल्लीपतिना। आर्य ! न विज्ञातमस्माभिः, यथैष महापुरुष इह गच्छतीति। विनिजिताश्च तेन वयम् । महानुभावतया प्रतिपन्नश्चैषोऽस्माभिः स्वामी। अतः सम्बन्धी त्वमिति । अद्रोहका वयं तव रिक्थस्य । ततो निरूपयैतत् किमत्र नास्तीति । ततः 'अहो महानुभावता कुमारस्य, एकाकिना विनिजिता शबरसेना, भृत्यभावमुपगतः पल्लीपतिः, अथवा स्तोकमिदमस्य, किं कुर्वन्ति हरिणकाः केसरिकिशोरकस्य' इति चिन्तयित्वा जल्पितं सानुदेवेन–भद्र ! स्वामिनि आर्यपुत्रे त्वयि च सम्बन्धिनि किं मम नास्तीति । तेन भणितम्-तथापि निरूपयेति, न मेऽन्यथा चित्तनिर्वृत्तिर्भवति । ततो निरूपितमनेन, यावत् 'पूर्यते' इति कथितं पल्लीनाथस्य । परितुष्टश्चैषः । चिन्तितं कुमारेण-अहो महानुभावतैतस्य । एतावन्मात्रेणापि एवं तिष्ठतीति । अथवा सुग्राह्याणि सज्जनहृदयानि । भजितस्तस्य प्रहारः, वितीर्णे कटिसूत्रम् । 'महाप्रसादः' इति भणित्वा गृहीतं पल्लिपतिना। निरूपिता: प्रतिहतपुरुषाः । कृतानि व्रणपरिकर्माणि । भणितं च तेन -आर्य ! प्रत्यासन्नैवात्रास्माकं पल्ली, ततस्तस्या दर्शनेनानुगृह्णातु मामार्य इति । (वह) वननिकज में प्राप्त हुआ, वे लोग (उसे) ले आये। भिल्लराज ने कहा-'आर्य ! हम लोगों ने नहीं जाना कि यह महापुरुष जा रहा है। उसने हम लोगों को जीत लिया। महानुभावता के कारण यह हम लोगों का स्वामी हो गया, अत: तुम सम्बन्धी हो। हम लोग तुम्हारी सम्पत्ति के द्रोही नहीं हैं। अतः इसे देख लो, यहाँ क्या नहीं है ? (इसमें क्या नहीं है ?) ।' अनन्तर, ओह कुमार की महानुभावता, अकेले ही शबरसेना को जीत लिया, भिल्लराज सेवक बन गया । अथवा इसके लिए यह बहुत थोड़ा है, सिंह के बच्चे का हरिण क्या कर पाते हैं ? ऐसा सोचकर सानुदेवं ने कहा----'भद्र ! आर्यपुत्र के स्वामी होने और तुम्हारे सम्बन्धी होने पर मेरा क्या नहीं है ?' भिल्लराज ने कहा--'तो भी देख लो (अन्यथा मेरे मन को शान्ति नहीं होगी)।' अनन्तर सानुदेव ने देखा, 'पूरी है'-ऐसा भिल्लनाथ से कहा । भिल्ल राज सन्तुष्ट हुआ। कुमार ने सोचा-ओह इसकी महानुभावता । इतने मात्र से ही यह इस प्रकार बैठा है अथवा सज्जनों के हृदय सुग्राह्य हैं । उसके प्रहार को विफल किया, कटिसूत्र दिया। बहुत बड़ी कृपा-ऐसा कहकर भिल्लराज ने ले लिया। घायल पुरुषों को देखा। उनके घाव पर मरहमपट्टी वगैरह की। भिल्लराज ने कहा- 'आर्य ! समीप में ही हमारी बस्ती है, अत: दर्शन कर मुझे अनुगृहीत करें।' १. अदोहणया-क । २. •मुव णीयो-क। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मतमो भवो] अन्जो ति। कुमारेण भणियं-सत्थवाहपुत्तो पमाणं। साणुदेवेण भणियं---भद्द, दिळे तुमम्मि दिट्टा चेव पल्लि त्ति। एत्थंतरम्मि बाहुप्फुल्ललोयणो समागओ साणुदेवसूवयारो। भणियं च ण-अज्ज, परित्तायाहि परित्तायाहि । पण8 सव्वसारं, न दोसए रायधूय त्ति। तओ आउलीहूओ कुम रो। विसण्णो साणुदेवो। किमेयं' ति मूढो पल्लोवई । भणियं च णेण-- अज्ज, का एसा रायधय त्ति। सागुदेवेण भणियंभद्द, रायउरसामिणो संखरायस्स धूया, कुमारं उद्दिसिऊण देवस्स घरिणी संतिम इति । तेण भणियंकहं न दीसह ति। सूत्रधारेण भणियं-सुण । पवत्ते आओहणे सबरसेणासम्मुहम्मि गए रायउत्त अन्न. दिसाए य भेल्लिए सत्थे विलुप्पमाणे सारभंडे पाडिएहि आडियत्तिएहि 'हा, अज्जउत्त हा अज्जउत्त' त्ति भणमाणी निग्गया चेलहराओ, पहाविया अडवित्तं । 'न मोत्तव्वा एस त्ति सत्थवाहपुत्तस्स क्यणमणुसरंतो लग्गो अहं तीए मगाओ। गओ थेवं भूमिभागं । आहओ लउडेण सबरजवाणेण । नियडिओ धरणिवठे। समागया मुच्छा । अइक्कंता काइ वेला। पडिलद्धा चेयणा । उद्विओ संभमेणं । पवतो गवेसिउं। तओ गुविलयाए रणस्स मूढयाए दिसाविभायाणं अन्नेसमाणेणावि न दिट्ठा रायधूया मए । कुमारेण भणितम्-सार्थवाहपुत्रः प्रमाणम् । सानुदेवेन भणितम् --दृष्टे त्वयि दृष्टव पल्लीति । ___ अत्रान्तरे बाष्पोत्फुल्ललोचनः समागतः सानुदेवसूपकारः। भणितं च तेन -आर्य ! परित्रायस्व परित्रायस्व प्रनष्टं सर्वप्रारम्, न दृश्यते राजदुहितेति । तत आकुलीभूतः कुमार: विषण्ण: सानुदेवः किमेतद्' इति मूढः पल्लीपतिः । भणितं च तेन --आर्य ! का एषा राजदुहितेति । सानुदेवेन भणितम् -'भद्र ! राजपुरस्वामिनः शङ ख राजस्य दुहिता, (कुमार मुद्दिश्य) देवस्य गृहिणी शान्तिमतीति । तेन भणितम्-कथं न दृश्यते इति । सूपकाण भणितम्-शृणु । प्रवृत्ते आयोधने शबरसेनासम्मुखे गते राजपत्रे अन्यादशि च भेदिते सार्थे विलुप्यमाने सारभाण्डे पातितेषु सुभटेषु 'हाआर्यपुत्र ! हा आर्यपुत्र !' इति भणन्ती निर्गता चेलगृहात् । प्रधाविता अटवीसम्मुखम्। 'न मोक्तव्या एषा' इति सार्थवाहपुत्रस्य वचन पनुस्मरन् लग्नोऽहं त्स्या पृष्ठतः । गतः स्तोकं भूमिभागम् । आहतो लकुटेन शबरयूना। निपतितो धरणीपृष्ठे । समागता मर्जी। अतिक्रान्ता काचिद् वेला । प्रतिलब्धा चेतना । उत्थितः सम्भ्रमेण । प्रवृत्तो गवेषयितुम् । ततो गहनतयाऽरण्यस्य मूढतया दिग्विभागानाकुमार ने कहा---'सार्थवाहपुत्र प्रमाण हैं ।' सानुदेव ने कहा- 'तुम्हारे देखने पर बस्ती देख ही ली।' __ इसी बीच आँसुओं से गीले नेत्रों वाला सानुदेव का सोइया आया और उसने कहा-'आर्य ! बचाओ, बचाओ, सब धन नष्ट हो गया ! राजपुत्रीन ही दिखाई दे रही है।' अनन्तर कुमार आकुलित हुआ, सानुदेव खिन्न हुआ। 'यह क्या !' -इस प्रकार भिल्लराज मूढ़ हुआ। उसने कहा- 'आर्य ! यह राजपुत्री कौन है ?' सानुदेव ने कहा--'भद्र ! राजपुर के स्वामी शंखराज की पुत्री (कुमार की ओर इशारा कर) महाराज की गृहिणी शान्तिमती। उसने कहा-'दिखाई क्यों नहीं देती है ?' रसोइए ने कहा--'सुनो। युद्ध प्रारम्भ होने पर जब राजपुत्र शबरसेना के सम्मुख चला गया और टोली अन्य दिशाओं में छिन्न भिन्न हो गयी, कीमती माल लुट गया। तबसुभटों के टूट पड़ने पर 'हाय आर्यपुत्र ! हाय आर्यपुत्र ! ऐसा कहती हुई रावटी से निकल गयी। वन की ओर दौड़ी। 'इसे नहीं छोड़ना चाहिए- इस प्रकार वणिकपुत्र के वचनों का स्मरण कर मैं उसके पीछे लग गया। थोड़ी दूर तक गया। शबरयुवक ने डण्डे से प्रहार किया, पृथ्वी पर गिर गया। मूर्छा आ गयी। कुछ समय बीत गया। चेतना प्राप्त हुई। घबराहट से उठ गया। ढूंढ़ने लगा। अनन्तर जंगल की गहनता, दिशाओं के विभागों की मूढ़ता के कारण ढूंढ़ने पर भी वह राजपुत्री मुझे नहीं दिखाई Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ [समराइच्चकहा संपयं तब्भे पमाणं ति। तओ 'हा देवि' ति भणमाणो मच्छिओ कुमारसेणो । समासासिओ पल्लिणाहेणं । भणियं च णणं-देव, अलं विसाएणं । कत्तियमियमरणं', थेवा य वेला सत्थविब्भमस्स, अणचियधरणिपरिसक्कवणा य देवो, परगवेगगमणा य मुणियसयलरणभावा य सबरपुरिसा। ता कहि गमिस्सइ त्ति । गवेसिऊण संजोएमि देवं रायधूयाए। विसज्जिया णेण दिसो दिसि निययपूरिसा। भणिओ य साणुदेवो-अज्ज, अइक्कंतो ताय कालो पल्लीदंसणस्स । ता समासासेउ देवं अज्जो। अहं पुण देवि चेव अन्नेसामि त्ति । पडिस्सुयं साणुदेवेण । तओ कुमारसमोवम्मि निरूविऊण कइवयनिययपूरिसे पयट्रो पल्लिणाहो । भणियं च णेणं-देव, परिच्चय विसायं, अवलंबेहि उच्छाहं, गवेसामो देवि ति। पडिस्सुयं कुमारेणं । पयट्टो सबरपुरिससमेओ गवेसिउं । इओ य रायध्या 'कहिं अज्जउत्त' त्ति गवेसमाणी निवडिया कंतारमझे। मढाओ दिसाओ। अपेच्छमाणी दइययं भमिया महाडवीए । परिणयप्पाए वासरे समागया गिरिनइं। न दिट्ठो अज्जउत्तो मन्वेषमाणेनापि न दृष्टा राजदुहिता मया। साम्प्रतं यूयं प्रमाण मिति । ततो 'हा देवि !' इति भणन् मूच्छितः कुमारसेनः । समाश्वासित: पल्लीनाथेन । भगितं च तेन-देव ! अल विषादन । कियदिद परण्यम्, स्तोका च वेला सार्थविभ्र मस्य, अनुचितधरणीपरिष्वष्कणा (-परिचंक्रमणा) च देवी, पवनवेगगमनाश्च ज्ञातसकलारण्यभावाश्च शबरपुरुषाः । ततः कुत्र गमिष्यतीति । गवेषयित्वा संयोजयामि देवं राजदुहित्रा । विसर्जितास्तेन दिशि दिशि निजपुरुषमः । भणितश्च सानुदेवः-आर्य ! अतिक्रान्तस्तावत्काल: पल्लीदर्शनस्य । ततः समाश्वासयतु देवमार्यः । अहं पुनर्देवीमेवान्वेष्ये इति । प्रतिश्रुतं सानुदेवेन । ततः कुमारसमीपे निरूप्य नियोज्य) कतिपय निजपुरुषान् प्रवृत्तः पल्लीनाथः । भणितं च तेन-देव ! परित्यज विषादम्, अवलम्ब स्वोत्साहम्, गवेषयामो देवीमिति । प्रतिश्रतं कुमारेण । प्रवृत्तः शबरपुरुषसमेतो गवेषयितुम् । इतश्च सा राजदुहिता 'कुत्र आर्यपुत्रः' इति गवेषयन्ती निपतिता कान्तारमध्ये। मूढा दिशः । अप्रेक्षमाणा दयितं भ्रान्ता महाटव्याम् । परिणतप्राये वासरे समागमा गिरिनदीम् । न दृष्ट आर्यपुत्र दी, इस समय आप प्रमाण हैं। अनन्तर हा देवी'--ऐसा कहता हुआ कुमार मूच्छित हो गया। भिल्लराज ने आश्वस्त किया। उसने कहा---'महाराज ! विषाद मत कीजिए । यह जंगल कितना-सा है, सार्थ के घूमने का समय थोड़ा है और देवी पृथ्वी पर चलने में असमर्थ है, समस्त वन से परिचित शवरपुरुष वायु के वेग के समान गमन करने वाले हैं। अत: कहाँ जाएगी ? ढूंढकर महाराज को राजपुत्री से मिलाये देता हूँ।' उसने प्रत्येक दिशा में आदमी भेजे । सानुदेव से कहा --'आर्य ! भीलों की बस्ती देखने का काल बीत गया है, अतः आर्य महाराज को सान्त्वना दें। मैं देवी की खोज करता हूँ।' सानुदेव ने स्वीकार किया। अनन्तर कुमार के पास कुछ निजी पुरुषों को नियुक्त कर भिल्ल राज चल पड़ा। (जाते हुए) उसने कहा -'महाराज ! विषाद छोड़िए, उत्साह का अवलम्बन कीजिए, (हम लोग) देवी को खोजते हैं ।' कुमार ने स्वीकार किया। (भिल्ल !ज) शवरों के साथ ढूँढ़ने लग गया। इधर वह राजपुत्री 'आर्यपुत्र कहाँ हैं ?'---इस प्रकार ढूंढ़ती हुई वन के बीच गिर गयी। दिशाएँ मूढ़ हो गयीं। पति को न देखती हुई विशाल वन में भटक गयी। दिन ढलने पर पर्वतीय नदी के पार आयी। १, केत्तिय-ख। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो भवो ] ६०३ त्ति विसण्णा हियएणं । चितियं च णाए। अलं मे अज्जउत्तविरहियाए जीविएणं । ता एयम्मि असोअपायवे उक्कलंबेमि अत्ताणयं । निबद्धो वल्लीए पासओ। निमिया सिरोहरा। भणियं च णाएभयवईओ वणदेवयाओ, न मए अज्जउत्तं सोत्तूण अन्नो मणसा वि चितिओ। इमिणा सच्चेण जम्मरम्मि वि अज्जउत्तो चेव भत्ता होज्ज त्ति कयं नियाणं । पवाहिओ अप्पा, तुट्टो से पासओ, निवडिया धरणिठे, गया मुच्छं। दिवा आसन्नतवोवणवासिणा संझोवासणनिमित्तमागएणं मणिकुमारएणं । चितियं च णेणं-हा का उण एसा वणदेवया विव इत्थिया निवाडया धरणिवठे। अहवा कि मम इत्थियाए । अन्नओ गच्छामि। वारियं खु समए इत्थियादसणं । भणियं च तत्थ--अवि य अंजियव्वाइं तत्तलोहसलायाए अच्छीणि, न दट्टव्वा य अंगपच्चंगसंठाणेणं इत्थिया; अवि य भक्खियध्वं विसं, न सेवियत्वा विसया; छिदियव्वा जीहा न जंपियत्वमलियं ति। ता कि मम इमीए, अणहियारो ये एसो मणिजणस्स । अहवा दीणजणअब्भुद्वरणं पि समसत्तुमित्तयाए पडिवाइयमेव । भणियं च तत्थअत्ताणनिदिवसेसं दट्टव्वा सव्वपाणिणो, पवत्तियव्वं हिए जहासत्तीए, अब्भुद्धरेयव्वा दोणया, न खलु इति विषण्णा हृदयेन । चिन्तितं च तया । अलं मे आर्यपुत्रविरहिताया जीवितेन । तत एतस्मिन्नशोकपादपे उल्लम्बे आत्मानमिति । निबद्धो वल्ल्या पाशः । न्यस्ता शिरोधरा । भणितं च तयाभगवत्यो वनदेवता: ! न मयाऽऽर्यपुत्रं मुक्त्वाऽन्यो मनसाऽपि चिन्तितः । अनेन सत्येन जन्मान्तरेऽप्यार्यपत्र एव भर्ता भवेदिति कृतं निदानम्। प्रवाहित (मुक्त:) आत्मा, त्रुटितस्तस्याः पाशः, निपतिता धरणीपृष्ठे, गता मूर्छाम् । दृष्टाऽऽसन्नतपोवनवासिना सन्ध्योपासननिमित्तमागतेन मनिकमारकेन । चिन्तितं च तेन-हा का पुनरेषा वनदेवतेव स्त्री निपतिता धरणीपृष्ठे । अथवा कि मम स्त्रिया। अन्यतो गच्छामि । वारितं खलु समये स्त्रीदर्शनम् । भणितं च तत्र-अपि चाजितव्यानि तप्तलोहशलाकयाऽक्षीणि, न द्रष्टव्या च अङ्गप्रत्यङ्गसंस्थानेन स्त्री, अपि च भक्षितव्यं विषम, न सेवितव्या विषयाः, छेत्तव्या जिह्वा, न जल्पितव्यमलीकमिति । ततः किं ममानया, अनधिकारश्चैष मनिजनस्य । अथवा दीनजनाभ्युद्धरण पपि समशत्रुमित्रतया प्रतिपादितमेव । भणितं च तत्र-आत्मनिर्विशेषं द्रष्टव्याः सर्वप्राणिनः, प्रवर्तितव्यं हिते यथाशक्ति, अभ्युद्धर्तव्या दीनाः, न खल्वहिंसातो आर्यपुत्र दिखाई नहीं दिये, अतः हृदय से दुःखी हुई। उसने सोचा-आयेपुत्र के बिना मेरा जीना व्यर्थ है । अतः इस अशोकवृक्ष पर अपने को लटकाती हूँ। लताओं से पाश बाँधे । गर्दनी रखी। उसने कहा-'भगवती वनदेविओ ! मैंने आर्यपुत्र को छोड़कर अन्य का मन से भी चिन्तन नहीं किया है। इस सत्य से अन्य जन्म में भी आर्यपुत्र ही पति हों' इस प्रकार निदान किया। अपने आपको छोड़ दिया, उसका पाश टूट गया, (वह) धरती पर गिर गयी, मूच्छित हो गयी। समीप के तपोवन में रहनेवाले मुनिकुमार को, जो कि सन्ध्योपासना के लिए आया था, वह दिखाई दी। उसने सोचा-हाय ! यह कौन वनदेवी के समान स्त्री धरती पर पड़ी है ! अथवा मूझे स्त्री से क्या? दूसरी ओर जाता हूँ। शास्त्रों में स्त्री का देखना निषिद्ध है। कहा गया है-तपाये हुए लोहे की सलाई से आंखों को आंज ले, किन्तु अङ्ग-प्रत्यङ्ग के आकार से स्त्री को न देखे। और भी-विष को खा लेना चाहिए किन्तु विषय का सेवन नहीं करना चाहिए, जीभ काट लेनी चाहिए, किन्तु झूठ नहीं बोलना चाहिए। अतः इससे क्या, यह मुनिजन का अधिकार नहीं है। अथवा शत्रु और मित्रों पर समान दृष्टि होने के कारण दीनजनों का उद्धार करना भी प्रतिपादित ही है। उसमें कहा गया है--अपने समान सभी प्राणियों को देखना चाहिए, हित में यथाशक्ति प्रवृत्त होना चाहिए, दीनों का उद्धार करना चाहिए, अहिंसा के अतिरिक्त अन्य कोई धर्म का साधन नहीं Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | समराइज्यकहा 11 अहिंसाओ अन्नं धम्मसाहणं ति । दीणा य एसा । अन्नहा कहि रण्णं, कहिं एगागिणी इत्थिया । ता पेच्छामि ताव, का उण एसा; मा नाम विज्जाहरी पत्ता भवे । पुलइया मुणिकुमारेणं । दिट्टो से पासओ । विसण्णो मणिकुमारो । चितियं च णेण - अहो एसा आगिई, एसो य पासओ त्ति विरुद्धमेयं । अहवा नत्थि कम्मपरिणईए विरुद्धं ति । चितिऊण अब्भुविखया कमंडलुपाणिएणं । समागया चेयणा, ऊससियं मणागं, उम्मिल्लियाइं लोयणाई, दिट्ठो मुणिकुमारओ । संतत्था य एसा । भणिया य ण - वच्छं, अलं संतासेण, मुणिकुमारओ अहं । तओ पणमिओ इमीए । 'अविहवा हवसु' त्ति भणिया अणेण - भयवं, कहिं तुमं एत्थं' ति पुच्छिओ' संतिमईए । भणिय च णेण - आसन्नं मे तवोवणं । पट्ट संभोवाणनिमित्तं गिरिनई, अंतराले य दिट्ठा तुमं ति बलियो वत्तिणीओ । ता साहेहि अज्जे, का तुमं, कहं वा एयाइणी, किं वा ते इमस्स ववसायस्स कारणं ति । तओ चितियं संतिमईए-हद्धी मुणिकुमारओ खु एसो, न जुत्त च अप्पणा अप्पाणयं कहेउं, एसो य एवं बाहरइ; ता किमेत्थ उचियं । अहवा माणणीया तवसिणो । वरं अत्तणो लहुत्तणं ति । साहेमि' भयवओ, न एत्थ अत्तणो वि ६०४ ऽन्यद् धर्मसाधनमिति । दीना चैषा । अन्यथा कुत्रारण्यम्, कुत्रैकाकिनी स्त्री । ततः प्रेक्षे तावत् का पुनरेषा, मा नाम विद्याधरी प्रसुप्ता भवेद् । दृष्टा मुनिकुमारेण । दृष्टस्तस्याः पाशः । विषण्णो मुनिकुमार: । चिन्तितं च तेन -- अहो एषाऽऽकृतिः, एष च पाश इति विरुद्धमेतद् । अथवा नास्ति कर्मपरिणत्या विरुद्धमिति । चिन्तयित्वा अभ्युक्षिता कमण्डलुपानीयेन । समागता चेतना, उच्छ्वसितं मनाक्, उन्मिलिते लोचने, दृष्टो मुनिकुमारकः । सन्त्रस्ता चैषा । भणिता च तेन - वत्से ! अलं सन्त्रासेन, मुनिकुमारकोऽहम् । ततः प्रणतोऽनया । 'अविधवा भव' इति भणिताऽनेन । 'भगवन् ! कुत्र ( कुतः ) त्वमत्र' इति पृष्टः शान्तिमत्या । भणितं च तेन - आसन्नं मे तपोवनम् । प्रवृत्तः सन्ध्योपासननिमित्तं गिरिनदीम्, अन्तराले च दृष्टा त्वमिति वलितो वर्तिनीतः । ततः कथय आयें ! का त्वम् कथं वा एकाकिनो, किं वा तेऽस्य व्यवसायस्स कारणमिति । ततश्चिन्तितं शान्तिमत्या - हा धिक, मुनिकुमारकः खल्वेषः, न युक्तं चात्मनाऽऽत्मानं कथयितुम्, एष चैवं व्याहरति, ततः किमत्रो - चितम् । अथवा माननीयाः तपस्विनः, वरमात्मनो लघुत्वमिति । कथयामि भगवतः । नात्रात्म हैं । यह दीन है, अन्यथा कहाँ तो जंगल और कहाँ अकेली स्त्री । अतः देखता हूँ, कौन है । विद्याधरी सोयी हुई हो ! कुमार ने देखा । उसके पाश दिखाई दिये । मुनिकुमार खिन्न हुआ । उसने सोचा- 'ओह ! यह आकृति और यह पाश' - यह विरुद्ध है । अथवा कर्म की परिणति के विरुद्ध नहीं है- ऐसा सोचकर कमण्डलु के जल से सींचा । चेतना प्राप्त हुई, आँखें खोलकर थोड़ी साँस ली, मुनिकुमार दिखाई दिया। यह डर गयी । उस मुनिकुमार ने कहा - 'वत्से ! मत डरो, मै मुनिकुमार हूँ ।' तब इसने प्रणाम किया । 'अविधवा ( सौभाग्यवती) होओ' - ऐसा मुनिकुमार ने कहा । 'भगवन् ! आप यहाँ कहाँ से ?' - इस प्रकार शान्तिमती ने पूछा। उसने कहा -- समीप में मेरा तपोवन है | सन्ध्योपासना के लिए पर्वतीय नदी की ओर जा रहा था, बीच में तुम दिखाई दी, अतः रास्ते से लौट आया। अतः आयें ! कहें, तुम कौन हो अथवा अकेली कैसे हो, तुम्हारे इस प्रकार के निश्चय का क्या कारण है ?' तब शान्तिमती ने सोचा- हाय धिक्कार ! यह मुनिकुमार है, अपने आपके विषय में कहना उचित नहीं है और यह ऐसा पूछ रहा है, अतः यहाँ क्या उचित है । अथवा तपस्वी लोग माननीय होते हैं, अपनी लघुता ठीक है | भगवान् से कहती हूँ । इसमें अपनी भी लघुता नहीं है । यह आपत्ति है और भगवान् देवता के समान 1. एसाक २. पुच्छिक । ३. भगवओ साहिएणग । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो भवो] ६०५ लाघवं । आवया खु एसा, देवयाकप्पो य भयवं ति । चितिऊण जंपियमिमीए- भयवं, रायउरसामिणो संखरायस्स धूया अहं, सत्थभंगविन्भमेण एगागिणी, अज्जउत्तो न दीसइ त्ति इमस्स दवसायस्स कारणं ति भणिऊण रोविउं पयत्ता। भणिया य ण-अज्जे, मा रुय । ईइसो एस संसारो, विचित्तयाए कम्मपरिणामस्स अणुगरेइ नडपेडयं । खणेण विओगो, तेणेव संगमो; खणेण सोगो, तेणेव पमोओ; खणेण आवया, तेणेव संपय त्ति। एवंविहे य एयम्मि बुद्धिमंतेण सत्तेण आवडिए वि विसमदसाविभाए न सेवियव्वो विसाओ, न कायध्वमणुचियं, न मोत्तव्वं सत्तं, न उज्झियम्वो उच्छाहो । एवं च वटमाणो सत्तो पुरिसयारजेयं कम्मं खविऊणं लंघेइ आवयं। ता अज्जे मंच विसायं। पुणो विय करुणापवन्नचित्तेण 'कालोचियमिणं' ति विसेसओ निरूविऊण भणियं मुणिकुमारएणं । अन्नं च। लक्खणओ अवगच्छामि, न विवन्नो ते भत्ता, जओ सुहफलोदओ आभोगो, कणगावदाया देहच्छवी, परहुयालवियमणहरो सद्दो, सुपइडिया चलणा, वियर्ड नियंबफलयं, दाहिणावत्तसंगया नाही, अमिलाणकंतिसोहा करा, संपुण्णकलामियो व्व परिमंडलं वयणकमलं, महुगुलियासरिसाई लोयणाई, सुपइनोऽपि लाघवम् । आपद् खल्वेषा, देवताकल्पश्च भगवानिति । चिन्तयित्वा जल्पितमनया-भगवन ! राजपुरस्वामिनः शङ्खराजस्य दुहिताऽहम, सार्थभङ्गविभ्रमेणैकाकिनी, आर्य पुत्रो न दृश्यते इत्यस्य व्यवसायस्य कारणमिति भणित्वा रोदितुं प्रवृत्ता। भणिता च तेन-आर्य ! मा रुदिहि । ईदश एष संसारः, विचित्रतया कर्मपरिणामस्यानुकरोति नटपेटकम् । क्षणेन वियोगः, तेनैव सङ्गमः, क्षणेन शोकः, तेनैव प्रमोदः, क्षणेनापद, तेनैव सम्पदिति । एवंविधे चैतस्मिन् बुद्धिर ता सत्त्वेन आपतितेऽपि विषमदशाविभागे न सेवितव्या विषादः, न कर्तव्यमनुचितम्, न मोक्तव्यं सत्त्वम्, न उज्झितव्यं उत्साहः । एवं च वर्तमानः सत्त्वः पुरुषकारजेयं कर्म क्षपयित्वा लङ्घयत्यापदम् । तत आर्ये ! मुञ्च विषादम् । पुनरपि च करुणाप्रपन्नचित्तेन 'कालोचितमिदम्' इति विशेषतो निरूप्य भणितं मनिकुमारकेन । अन्यच्च, लक्षणतोऽवगच्छामि, न विपन्नस्ते भर्ता, यतः शुभफलोदय आभोगः, कनकावदाता देहच्छवि:, परभृतालपितमनोहर: शब्द:, सुप्रतिष्ठितो चरणौ, विकटं नितम्बफलकम, दक्षिणावर्तसङ्गता नाभिः, अम्लानकान्तिशोभौ करौ, सम्पूर्णकलामृगाङ्क इव परिमण्डलं वदनकमलम, मधहैं - ऐसा सोचकर यह बोली-'भगवन् ! मैं रामपुर के स्वामी की पुत्री हूँ, व्यापारियों की टोली के छिन्न-भिन्न हो जाने के विभ्रम से अकेली हो गयी, आर्यपुत्र नहीं दिखाई दे रहे हैं, यह इस निश्चय का कारण है'-ऐसा कहकर रोने लगी । मुनिकुमार ने कहा-'मत रओ। यह संसार ही ऐसा है । यह संसार कर्म के परिणामों की विचित्रता से नट की पेटी का अनुसरण करता है। क्षण में वियोग होता है, क्षण में संयोग होता है, क्षण में शोक होता है, क्षण में हर्ष होता है, क्षण में आपत्ति आती है, क्षण में सम्पत्ति प्राप्त होती है। इसके इस प्रकार होने पर बुद्धिमान प्राणी को विषमदशा का विभाग आने पर विषाद का सेवन नहीं करना चाहिए (विषाद नहीं करना चाहिए), अनुचित कार्य नहीं करना चाहिए, शवित नहीं छोडनी चाहिए, उत्साह का त्याग नहीं करना चाहिए। इस प्रकार की अवस्था वाला प्राणी पूरुषार्थ के द्वारा जीतने योग्य कर्म का नाश कर भापत्ति को लाँघ जाता है। अतः आर्ये ! विषाद छीड़ो। पुनः करुणायुक्त चित्त होकर 'यह समयोचित है'- इस प्रकार विशेष विचार कर मुनिकुमार ने कहा--'दूसरी बात यह है कि लक्षण से जानता हूं कि तुम्हारे पति की मृत्यु नहीं हुई है। क्योंकि शुभ फल के उदय वाला विस्तार है, स्वर्ण के समान उज्ज्वल देहकान्ति है, कोयल की आवाज-जैसे शब्द हैं, सुप्रतिष्ठित चरण हैं, विकट नितम्ब भाग है, दक्षिणावर्त से युक्त नाभि है, जिनकी कान्ति और शोभा म्लान नहीं हुई १. संतो-क। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चकहा द्वियनिद्धतिलयभूसियं निडालं, सिहिकिंडकुडिला सिरोरुहा। ता एवंविहेहि लक्खणेहि न नारी वेहव्वदुक्खमणुहवइ, पुत्तभाइणी य होइ त्ति। ता एहि वच्छे, कुलवइं वंदसु ति। तओ 'जं भयवं आणवेइ' त्ति भणिऊण गया तवोवणं । वंदिओ कुलवई, अहिणंदिया य ण । साहिओ वइयरो मुणिकुमारएणं । समासासिया कुलवइणा, भणिया य णेणं-वच्छे, न संतप्पियन्वं । नाणओ अवगच्छामि, थेवदियहेहि चेव एत्थं तवोवणे भविस्सइ ते समागमो पिययमेणं ति । तओ 'अन्नहा रिसिवयणं' ति पडिम्सुयमिमीए । समप्पिया तावसीणं कुलवइणा'। इओ य अन्नेसमाणाणं सबरपुरिसपल्लिणाहकुमाराणं अइक्कंतो वासरो। 'न दिट्टा देवि' त्ति विसण्णा एए, मिलिया एगओ, समागया सत्थं । भणियं पल्लिणाहेणं-देव, न कायव्वो विसाओ, अवस्समेव जुज्जइ देवो देवीए । कस्स वा विसमदसाविभागो न होइ। ता परिसंथवेउ देवो परियणं, 'कालसज्झं चिमं पओयणं' ति करेउ सयलपरियणसाहारणं पाणवित्ति। तओ 'जत्तमेयं' ति चितिऊण परियणाणुरोहेणं कया पाणवित्ती । अत्थुयं सयणिज्ज, णुवण्णो एसो तओ नाइदूरम्मि पल्लीवई य । गुलिकासदृशे लोचने, सुप्रतिष्ठितस्निग्धतिलकभूषितं ललाटम्, श्लक्ष्णकृष्णकुटिला: शिरोरुहाः । तत एवंविधैर्लक्षणैर्न नारी वैधव्य दुःखमनुभवति, पुत्रभागिनी च भवतीति । तत एहि वत्से ! कुलपति वन्दस्वेति । ततो 'यद् भगवान् आज्ञापयति' इति भणित्वा गता तपोवनम् । वन्दित: कुलपतिः, अभिनन्दिता च तेन। कथितो व्यतिकरो मुनिकुमारकेन । समाश्वासिता कुलपतिना, भणिताच तेन-वत्से ! न सन्तप्तव्यम् । ज्ञानतोऽवगच्छामि, स्तोकदिवसैरेवात्र तपोवने भविष्यति ते समागमः प्रियतमेनेति । ततो 'नान्यथा ऋषिवचनम्' इति प्रतिश्रुतमनया। समर्पिता तापसीनां कलपतिना। इतश्चान्वेषमाणानां शबरपुरुषपल्लीनाथकमाराणामतिक्रान्तो वासरः । 'न दृष्टा देवी' इति विषण्णा एते, मिलिता एकतः, समागताः सार्थम् । भणितं पल्लीनाथेन-देव ! न कर्तव्यो विषाद:, अवश्यमेव युज्यते देवो देव्या। कस्य वा विषमदशाविभागो न भवति । ततः परिसंस्थापयतु देवः परिजनम्, 'कालसाध्यं चेदं प्रयोजनम्' इति करोतु सकलपरिजनसाधारणां प्राणवृत्तिम् । ततो 'युक्तमेतद्' इति चिन्तयित्वा परिजनानुरोधेन कृता प्राणवृत्तिः । आस्तृतं शयनीयम्. निपन्न एषः, ऐसे दोनों हाथ हैं, सम्पूर्णकलाओं से युक्त चन्द्रमण्डल के समान मुखकमल है, मधु की गोली के समान नेत्र हैं, सुप्रतिष्ठित सुन्दरतिलक से भूषित मस्तक है, चिकने, काले और धुंघराले बाल हैं। इस प्रकार लक्षणों वाली स्त्री वैधव्य के दुःख का अनुभव नहीं करती है और पुत्रवती होती है, अतः आओ वत्से ! कुलपति की वन्दना करो।' अनन्तर 'भगवान् की जैसी आज्ञा'- ऐसा कहकर (वह) तपोवन में गयी । कुलपति की वन्दना की । कुलपति ने अभिनन्दन किया । मुनिकुमार ने घटना बतायी। कुलपति ने धैर्य बंधाया और कहा---'वत्से ! दुःखी मत होओ। ज्ञान से जानता हूँ कि थोड़े ही दिनों में इसी तपोवन में तेरा प्रियतम से समागम होगा।' तब-'ऋषि के वचन अन्यथा नहीं होते'-ऐसा सोचकर इसने स्वीकार किया। कुलपति ने इसे तापसियों को सौंप दिया। __ इधर शबरपुरुष, भिल्लराज और कुमार का ढूंढ़ते हुए दिन बीत गया। देवी दिखाई नहीं दी, अत: ये दुःखी हो गये, एक स्थान पर मिले, व्यापारियों की टोली के पास आये । भिल्लराज ने कहा-'महाराज ! विषाद न करें, महाराज का देवी से अवश्य मिलन होगा । अथवा विषम अवस्था का विभाग किसका नहीं होता है ? अतः महाराज परिजनों को निर्देश दें। यह प्रयोजन समय पर सिद्ध होगा, अतः समस्त लोगों के लिए साधारण आहार ग्रहण करें।' अनन्तर, ठीक है-ऐसा सोचकर परिजनों के अनुरोध से आहार किया। शय्या बिछायी गयी, यह १. पडिजागरणीया एसा । ज भयवं अणवेइति भणिऊण णीया णिययमासनं । इत्यधिकः पाठ; क-पुस्तकप्रान्ते । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो भवो ] ६०७ तओ बहवोलियाए रयणीए थाणयनिविद्वा तुरियतुरियमागया सबरपुरिसा । भणिओहि पल्लीवईसामि, परो मरइ, परो मरई त्ति । तओ उदिओ एसो, चडावियं धणवर, निबद्धा नाहला । पुच्छिया य एए - हरे किमेयंति । तेहि भणियं- सामि, न निस्संसयं वियाणामो। एत्तियं पुण तक्केमो, 'महंतो सत्यो पविट्ठो' त्ति अवगच्छिय अवस्समेत्य नीसरइ द्रोणीओ पल्लीवइ त्ति संपहारिऊण वीसउरसामिणा धाडी पेसिय त्ति, जओ समागयं साहणं । पल्लिणाहेण भणियं-अहो न साहियं सामिज्ज ति । अविसाई वि विहुरेसु विसणं मे चित्तं । अहवा न एस कालो विसायस्स। एह तत्थेव गच्छामो; मा इह सामिसत्थपीडा भविस्सइ । साहिओ एस वइयरो साणुदेवस्स । भणिओ य एसो - कुमारे अप्पमत्तण होयध्वं । कज्जगरुययाए पडिस्सुयमणेण । तओ दूरओ चेव पणमिऊण कुमारं पयट्टो पल्लीवई। सुओ एस वइयरो कुमारेण । चितियं च णेणं-अहो महाणुभावया पल्लिणाहस्स। पडिवन्नभिच्चभावो य एसो। ता जइवि अजुत्तयारी तहावि न जुत्तमेयम्मि पयट्टे उयासीणयं भाविउंति। उदिओ कुमारो, गहियं खग्गरयणं, करम्मि घेत्तूण भणिओ साणुदेवो। सत्थवाहपुत्त, न मे पणयभंगो कायव्वो ततो नातिदूरे पल्लीपतिश्च । ततो बहुव्यतिक्रान्तायां रजन्यां स्थानकनिविष्टास्त्वरितत्वरितमागताः शबरपुरुषाः । भणितस्तैः पल्लीपतिः-स्वामिन् ! परो म्रियते परो म्रियते इति । तत उत्थित एषः, आरोपितं धनुर्वरम्, निबद्धा नाहला (इषुधिः ?) । पृष्टाश्चैते--अरे किमेतदिति । तैर्भणितम्स्वामिन् ! न निःसंशयं विजानीमः । एतावत् पुनः तर्कयामः 'महान् सार्थः प्रविष्टः' इत्यवगत्यावश्यमत्र निःसरति द्रोणीतः पल्लीपतिरिति सम्प्रधार्य विश्वपुरस्वामिना धाटिः प्रेषितेति, यतः समागतं साधनम् । पल्लीनाथेन भणितम्-अहो न साधितं स्वामिकार्यमिति । अविषाद्यपि विधुरेषु विषण्णं मे चित्तम्। अथवा नैष कालो विषादस्य । एत तत्रैव गच्छामः, मेह स्वामिसार्थपीडा भविष्यति । कथित एष व्यतिकर: सानुदेवस्य । भणितश्चैषः-कुमारेऽप्रमत्तेन भवितव्यम् । कार्यगुरुकतया प्रतिश्रुतमनेन। ततो दूरत एव प्रणम्य कुमारं प्रवृत्त: पल्लीपतिः । श्रुत एष व्यतिकर: कुमारेण । चिन्तितं च तेन -अहो महानुभावता पल्लीनाथस्य । प्रतिपन्नभृत्यभावश्चैषः । ततो यद्यपि अयुक्तकारी, तथापि न युक्तमेतस्मिन् प्रवृत्ते उदासीनतां भावयितुमिति । उत्थितः कुमारः, गृहीतं खड्गपड़ गया । उसी के समीप भिल्लराज भी पड़ गया। अनन्तर जब रात्रि बहुत अधिक बीत गयी तो नगर (स्थानक) में नियुक्त शबरपुरुष जल्दी-जल्दी आये। उन्होंने भिल्ल राज से कहा-- 'स्वामी ! शत्रु मर रहा है, शत्रु मर रहा है।' तब यह उठ खड़ा हुआ, धनुष चढ़ाया, शरसन्धान किया और इन लोगों से पूछा-'अरे यह क्या? उन्होंने कहा --'स्वामी, ठीक से नहीं जान पा रहे हैं। यह अनुमान करते हैं कि बहुत बड़ी टोली प्रविष्ट हुई है--- यह जानकर अवश्य यहां द्रोणी (दो पर्वतों के बीच के नगर) से भिल्लराज निकल रहा है। अतः निश्चय ही विश्वपुर के स्वामी ने सेना भेजी है; क्योंकि सेना आ गयी है। भिल्लराज ने कहा-- ओह ! स्वामी के कार्य को नहीं साधा; विधुर के विषादी न होने पर भी मेरा चित्त खिन्न है। अथवा यह समय विषाद (करने) का नहीं है । यहाँ से वहीं जायेंगे, इस स्वामी की टोली को पीड़ा न हो। यह घटना सानुदेव से कही। और इससे कहा---'कुमार के विषय में अप्रमादी होना अर्थात प्रमाद मत करना, तत्पर रहना।' कार्य के भारी होने के कारण इसने स्वीकार किया। अनन्तर दूर से ही कुमार को प्रणाम कर भिल्ल राज चल दिया। इस घटना को कुमार ने सुना । उसने विचार किया-ओह भिल्लराज की महानुभावता, यह मृत्यपने को प्राप्त हुआ है। यद्यपि यह अयुक्तकारी है तो भी इसके विषय में उदासीन रहना ठीक नहीं है। कुमार उठा, खड्गरत्न को ग्रहण किया। हाथ में लेकर सानुदेव से १. सरइ-४ । २. धणुहूं-क। ३. निपुच्छा-क, निविट्ठा-ख । ४, दरविउद्धेण - इत्यधिकः पाठः क-पुस्तके । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ [समराइच्चका 1 त्ति । पत्थमित्थवाहपुत्तं । साणुदेवेण भणियं - आणवेउ देवो । कुमारेण भणियं - तए इहेव चिट्ठियां कालं वा नाऊण पाणयं दायव्वं । अहं पुण पेच्छामि ताव, किमेपस्स पल्लिवइणो संजायं ति । किंकायव्वमूढे य साणुदेवे अइन्नपडिवयणे य 'अलमन्नहावियप्पेणं' ति भणिऊण धाविओ कुमारसेणो । जाव आवडयम ओहणं सबरधाडीणं । 'हण हण' त्ति उद्धाइओ कलयलो । छाइयं नहं सायएहि । एत्थंतमि मिलिओ कुमारी, दिट्ठो पल्लिवइणा, भणियो य णेण - देव, कि बहुणा जंपिएण; कालोचियमियं पेक्खउ देवो भिच्चावयवपरक्कमं ति । तओ कुमारेण कड्ढियं मंडलग्गं । केसरिकिसोरओ विय अणaftary रिउबलं पविट्ठो सबरमज्झे । अहो देवस्स परक्कमो ति हरिसिओ पल्लीवई । आवडियं पहाणजुज्झं, पाडिया कुल उत्तया, भग्गा धाडी, वाणरेहि विय वुक्कारियं सबहिं । तओ अमरिसेण नियत्ता ठकुरा थेवा सबर त्ति वेढिया अस्ससाहणेणं ।' संपलग्गं जुज्झं । महया विमद्देण निज्जिया सबरा । पाडिया कुमारपल्लीवई, गहिया य हि । कुमारचरिएण विम्हिया ठकुरा । को उण एसो रत्नम् । करे गृहीत्वा भणितः सानुदेवः । सार्थवाहपुत्र ! न मे प्रणयभङ्गः कर्तव्य इति । प्रार्थये सार्थवाहपुत्रम् । सानुदेवेन भणितम् - आज्ञापयतु देवः । कुमारेण भणितम् — त्वया इहैव स्थातव्यम् कालं वा ज्ञात्वा प्रयाणकं दातव्यम् । अहं पुनः प्रेक्षे तावत् किमेतस्य पल्लीपतेः सञ्जातमिति । किंकर्तव्यमूढे च सानुदेवेऽदत्तप्रतिवचने च 'अलमन्यथा विकल्पेन' इति भणित्वा धावितः कुमारसेनः । यावदापतितमायोधनं शबरघाटीनाम् । 'जहि जहि ' इत्युद्धावित: कलकलः । छादितं नभः सायकैः । अत्रान्तरे मिलितः कुमारः, दृष्ट: पल्लीपतिना, भणितश्च तेन | देव ! किं बहुना जल्पितेन, कालोचितमिदं प्रेक्षतां देवो भृत्यावयवपराक्रममिति । ततः कुमारेण कृष्टं मण्डलाग्रम् । केसरिकिशोरक इवानपेक्ष्य रिपुबलं प्रविष्टः शबरमध्ये | अहो देवस्य पराक्रम इति हर्षितः पल्लीपतिः । आपतितं प्रधानयुद्धम्, पातितः - कुलपुत्रकाः, भग्ना घाटी । वानरैरिव बूत्कारितं ( शब्दितम् ) शबरैः । ततोऽमर्षेण निवृत्ताः ठक्कुराः । स्तोकाः शबरा इति वेष्टिता अश्वसाधनेन । सम्प्रलग्नं युद्धम् । महता विमर्देन ( विनाशेन ) निर्जिताः शराः । पातितौ कुमारपल्लीपती, गृहीतौ च तैः । कुमारचरितेन विस्मिताः ठक्कुराः । कः पुनरेष इति चिन्तितमेभिः । कहा - 'सार्थवाहपुत्र ! मेरी प्रार्थना भंग मत करना, यह मैं सार्थवाहपुत्र से प्रार्थना करता हूँ ।' सानुदेव ने कहा'महाराज आज्ञा दें ।' कुमार ने कहा- 'आप यहीं रहें अथवा उचित समय पर प्रयाण कर दें। मैं देखता हूँ कि इस भिल्लराज का क्या हुआ है ।' सानुदेव किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया । उसके उत्तर न देने पर अन्यथा सोचना व्यर्थ है -- ऐसा कहकर कुमार सेन दौड़ा। तब तक शबरसेनाओं का युद्ध छिड़ गया । 'मारो मारों' ऐसा कोलाहल उठा । आकाश बाणों से आच्छादित हो गया । इसी बीच कुमार मिल गया, पल्लीपति ( भिल्लराज ) ने देखा और उसने कहा - 'देव ! अधिक कहने से क्या इस भृत्य का कालोचित पराक्रम देखिए ।' अनन्तर कुमार ने तलवार खींची | सिंह के बच्चे के समान शत्रुबल की अपेक्षा न करता हुआ शबरों के बीच में प्रविष्ट हुआ । 'ओह सहाराज का पराक्रम ' - इस प्रकार पल्लीपति हर्षित हुआ । प्रधानयुद्ध आ गया, कुलपुत्र गिरा दिये गये, सेना नष्ट हो गयी । शबरों ने बन्दरों के समान शब्द किया । अनन्तर क्रोध से ठक्कुर ( ठाकुर ) लौट आये । 'शबर थोड़े हैं' - ऐसा सोचकर अश्वसाधन से वेष्टित हो गये । युद्ध शुरू हो गया। बड़े विनाश के साथ शबर जीत लिये गये । कुमार और पल्लीपति गिरा दिये गए और ठक्कुरों ने दोनों को पकड़ लिया । कुमार के आचरण से ठक्कुर १, 'दरिया' इत्यधिकः क - पुस्तके | Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो भवो ६०६ त्ति चितियमणेहिं । नीया वीसउरं. कुमारचरियसणाहं च निवेइया सरवकेउणो, परक्कमवल्लहत्तणेण दिट्ठा य जेणं । कुमाररूवाइसएण विम्हिओ गया। चितियं चणेण-अहो को उण एसो महाणुभावो। अहवा भवियन्वमण नरवइसुएणं । अन्नहा कह ईइसा रूवपरक्कम त्ति । ता गर्वसिस्सामि ताव एयं, इम पुण तक्करं वावाएमि त्ति । आइट्ठच गं-हरे वावाएह एवं दुरायारं तक्कर, इमं पुण महाणुभावं पडियग्गह ति। कुमारेण भणियं-अहो मे महाणभावया, जो एयम्मि वावाइज्जमाणे पाणे रक्खेमि। ता किं इमिणा; ममं चेव वावायसु त्ति । तओ 'अहो से धीरगरुओ आलावो: अहवा उचियमेव एवं इमाए आगिईए'त्ति चितिऊण जंपियं नरिदेणं- भो महाणुभाव, कं पुण भवंतमवगच्छामि । तओ कुमारेण निरूवियाई पासाइं। एत्थंतरम्मि मणियकुमारवृत्तंतो कइवयपुरिसेहि' घेत्तूण दरिसणिज्जं कुमारवुत्तंतसाहणत्थमेव राइणो समागओ साणुदेवो। पडिहारिओ पडिहारेणं । अणुमओ राइणा। पविट्ठो य एसो। दिट्ठो नरवई। समप्पियं दरिसणिज्जं बहुमन्निओ राइणा। दवावियं आसणं । भणिओ य णेणं- 'उविससुत्ति । सो य तहा अणेयपहारपोडियं पेच्छिऊण कुमार नीतौ विश्वपुरम्, कमारचरितसनाथं च निवेदितौ शबरकेतोः, पराक्रमवल्लभत्वेन दृष्टौ च तेन । कुमाररूपातिशयेन विस्मितो राजा। चिन्तितं च तेन -- अहो कः पुनरेष महानुभावः । अथवा भवितव्यमनेन नरपतिसुतेन । अन्यथा कथमीदशौ रूपपराक्रमौ इति । ततो गवेषयामि तावदेतम्, इमं पुनः तस्करं व्यापादयामीति । आदिष्टं च तेन-अरे व्यापादयतैतं दुराचार तस्करम्, इमं पुनमहानुभावं प्रतिजागृतेति । कुमारेण भणितम्-अहो मे महानुभावता, य एतस्मिन् व्यापाद्यमाने प्राणान् रक्षामि । ततः किमनेन, मां चैव व्यापादयेति । ततो 'अहो तस्य धीरगुरुक आलापः, अथवोचितमेवैतदस्या आकृत्याः' इति चिन्तयित्वा जल्पितं नरेन्द्रेण । भो महानुभाव ! कं पुनर्भवन्तमव. गच्छामि । ततः कुमारेण निरूपितानि पाश्र्वाणि । अत्रान्तरे ज्ञात कुमारवृत्तान्त: कतिपय पुरषैगहीत्वा दर्शनीयं कुमारवृत्तान्तकथनार्थमेव राज्ञः समागतः सानुदेवः । प्रतिहारितः (अवरुद्धः) प्रतीहारेण । अनुमतो राज्ञा। प्रविष्टश्चषः । दृष्टो नरपतिः । समर्पितं दर्शनीयम् । बहुमानितो राज्ञा । दापितमासनम् । भणितश्च तेन 'उपविश' इति । स च तथाऽनेकप्रहारपीडितं प्रेक्ष्य कुमारं विस्मित हुए। 'यह कौन है'-ऐसा इन लोगों ने विचार किया। दोनों को विश्वपुर ले गये, कुमार के चरित के साथ दोनों को शबरकेतु से निवेदन किया। पराक्रम के प्रति प्रेम रखने के कारण उसने दोनों को देखा । कुमार के रूप की अतिशयता से राजा विस्मित हुआ। उसने सोचा-ओह ! यह कौन महानुभ व है ! अथवा इसे राजपुत्र होना चाहिए, नहीं तो इस प्रकार का रूप और पराक्रम कैसे होता? अत: इसके विषय में खोज करता हूँ और इस चोर को मार डालता हूँ। उसने आदेश दिया- 'अरे ! इस दुराचारी चोर को मार डालो और इन महानुभाव (कुमार) के प्रति सावधान रहो।' कुमार ने कहा-'ओह, मेरी महानुभावता ! जो कि इसके मारे जाते हुए मैं प्राणों की रक्षा कर रहा हूँ ? अत: इससे क्या, मुझे ही मार दो।' तब ओह ! इसका धीरता के गौरव से युक्त कथन अथवा इसकी आकृति के यह योग्य है - ऐसा सोचकर राजा ने कहा -- 'हे महानुभाव ! मैं आपको कौन ज यूँ ?' अनन्तर कुमार ने आस-पास देखा। इसी बीच कुमार का वृत्तान्त जानकर कुछ पुरुषों के द्वारा लाया हुआ, दर्शनीय कुमार के वृत्तान्त को राजा से कहने के लिए ही मानो सानदेव आ गया। द्वारपाल ने रोक दिया। राजा ने अनुमति दे दी। यह प्रविष्ट हुआ । राजा को देखा ! देखने योग्य वस्तु भेंट की। राजा को सम्मान दिया, आसन १. परियरिओ' इत्यधि: कापूस्तके। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइच्चकहा गहिओ महासोएणं । निवडिओ धरणिवठे। तओ राइणा 'हा किमयं' ति सिंचाविओ उदएणं, वीयाविओ चेलकणेहि । समागया से चेयणा । भणिओ य राइणा-भद्द, किमयं ति। साणदेवेण भणियं-देव, सच्चमेयं रिसिवयणं 'असारो संसारो, आवयाभायणं च एत्थ पाणिणो', जेण चंपा. हिवसुयस्स कुमारसेणस्य वि ईइसी अवत्थ त्ति । तओ 'न अन्नहा मे वियप्पियंति चितिऊण जपियं नरिदेणं-भद्द, कहं पुण एस एहमेत्तपरियणो इमं अरण्णमुवगओ ति। साणदेवेण भणियं-देव, न याणामि परमत्थं; मए वि एस रायउराओ तामनित्ति पत्थिएणं चंपावासए सन्निवेसे कलत्तमेत्तपरिवारो वणनिउंजे उवलतो ति। रायउरदसणाणुसरणेण पच्चभिन्नाओ य एसो। जाया य मे चिता। किं पुण एस रइदुइओ विय मयरकेऊ रायधूयामत्तपरियणो एवं वट्टइ ति । एवमाई साहिओ पत्थणापज्जंतो सयलवइयरो। तओ देव, आयणियं मए सबरपुरिसेहितो, जहा देवाएसागयाए धाडीए नीया कुमारपल्लोवइणो । एयं च सोऊण इमस्स चेव वइयरस्स विन्नवणनिमित्तं आगओ देवसमीवं । संपयं देवो पमाणं ति। राइणा भणियं-भद्द, साहु कयं ति । जुत्तमेव एवं तएजारिसाणं गहीतो महाशोकेन, निपतितो धरणीपृष्ठे। ततो राज्ञा 'हा किमेतद्' इति सिञ्चित उदळेन, वीजितश्च चेलकर्णैः । समागता तस्य चेतना। भणितश्च राज्ञा-भद्र ! किमेतदिति । सानुदेवेन भणितम्-देव ! सत्यमेतद् ऋषिवचनम्, 'असार: संसारः, आपद्भाजनं चात्र प्राणिनः', येन चम्पाधिपसुतस्य कुमारसेनस्यापीदृश्यवस्थेति । ततो 'नान्यथा मे विकल्पितम्' इति चिन्तयित्वा जल्पितं नरेन्द्रेण-भद्र ! कथं पुनरेष एतावन्मात्रपरिजन इदमरण्यमुपगत इति । सान्देवेन भणितम -देव ! न जानामि परमार्थम्, मयाऽपि एष राजपुरात् ताम्रलिप्ती प्रस्थितेन चम्पावासके सन्निवेशे कलत्रमात्रपरिवारो वननिकुञ्ज उपलब्ध इति । राजपुरदर्शनानुस्मरणेन प्रत्यभिज्ञातश्चैषः । जाता च मे चिन्ता । किं पुनरेष रतिद्वितीय इव मकरकेतू राजदुहितृमात्रपरिजन एवं वर्तत इति । एवमादिः कथितः प्रार्थनापर्यन्तः सकलव्यतिकरः । ततो देव ! आकणितं मया शबरपुरुषेभ्यः, यथा देवादेशादागतया धाट्या नीतौ कुमारपल्लीपती। एतच्च श्रुत्वा अस्य चैव व्यतिकरस्य विज्ञापननिमित्तमागतो देवसमीपम् । साम्प्रतं देवः प्रमाणमिति । राज्ञा भणितम् .. भद्र, साधु कृतमिति । युक्त दिया और उससे कहा-'बैठो।' वह अनेक प्रहारों से पीड़ित कुमार को वसा देखकर बहुत दुःखी हुआ और (दुःखातिशय के कारण वह) धरती पर गिर गया। तदनन्तर राजा ने---'हाय यह क्या' ऐसा कहकर पानी से सीचा और कपड़े के पखों से हवा की। उसे होश आया। राजा ने कहा--'भद्र ! यह क्या है ?' सानुदेव ने कहा---'महाराज ! ऋषि के वचन सत्य हैं कि संसार असार है और यहाँ प्राणी आपत्ति के पात्र होते हैं, जिससे कि चम्पानगरी के राजपुत्र कुमारसेन की यह अवस्था है।' अनन्तर 'मैंने भिन्न प्रकार से नहीं सोचा था' - ऐसा विचारकर राजा ने कहा- 'भद्र! यह कैसे इतने मात्र परिजनों से युक्त होकर इस वन में आया ?' सानदेव ने कहा -- 'महाराज, वास्तविक बात नहीं जानता हूँ। राजपुर से ताम्रलिप्ती को जाते हुए 'चम्पावास' नामक सन्निवेश में स्त्री मात्र परिवार के साथ यह वन के निकुंज में प्राप्त हुआ था। राजपुर में चूंकि इसे देखा था, अतः पहिचान लिया और मुझे चिन्ता हुई-रतियुक्त कामदेव के समान राजपूत्री मात्र परिजन युक्त यह ऐसा क्यों ? इस प्रकार आदि में लेकर प्रार्थना पर्यन्त समस्त घटना कही । अनन्त र महाराज ! मैंने शबरपुरुषों से सुना कि महाराज के आदेश से सेना आकर कुमार और पल्लीपति को ले गयी। यह सुनकर इसी घटना का निवेदन करने के लिए महाराज के पास आया हूँ । अब महाराज प्रमाण है।' राजा ने कहा - 'भन्द ! सीक किया ! Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो भवो] महाणुभावाणं । समाणतो य परियणो। हरे एयाणं जत्तं करेहि ति। तओ आएसाणंतरमेव पेसिया 'कच्छंतरं । निनियाओ पवरसेज्जाओ। सद्दाविया वेज्जा। पत्थुयं वणकम्मं । पेसिया य रायधूयागवेसणनिमित्तं निययपुरिसा। ___ अइक्कतेसु य कइवयदिणेसु 'विसमभूमिसंठिओ से सत्थोत्ति अवच्छिऊण सद्दाविओ साणुदेवो । भणिओ य राइणा-भद्द, विसमभूमिसंठिओ ते सत्थो। दूरं च गंतव्वं, पच्चासन्नो य घणसमओ; थाणे य रायपुत्तो, ता गच्छ तुमं ति। साणुदेवेण भणियं-देव, रायपुत्तं वज्जिय न मे पाया वहति । 'कुमारेण भणियं - भद्द, अलं इमिणा अधीरपुरिसोचिएणं चेट्टिएणं। कज्जपहाणा खु पुरिसा हवंति । ता कीरउ महारायवयणं । अकीरमाणे य एम्मि अहिया मे अणिव्वुई। साणुदेवेण भणियं-देव, जं तुम आणवेसि त्ति। [ततो पणमिऊणं कुमारं] गओ साणुदेवो। अइक्कंतो घणसमओ। पउणा कुमारपल्लीवई । कयं वद्धावणयं । भणिओ राइणा कुमारो-वच्छ, किं ते पियं करेमि । मेवैतत् त्वादृशानां महानुभावानाम् । समाज्ञप्तश्च परिजनः-अरे एतयोर्यत्नं कुर्विति । तत आदेशानन्तरमेव प्रेषितौ कक्षान्तरम् । निनिते प्रवरशय्ये । शब्दायिता वैद्याः। प्रस्तुतं वणकर्म। प्रेषिता राजदुहितृगवेषण निमित्तं निजपुरुषाः । अतिक्रान्तेषु च कतिपयदिनेषु 'विषमभूमिसंस्थितस्तस्य सार्थः' इत्यवगत्य शब्दायितः सानुदेवः । भणितश्व राज्ञा--भद्र ! विषमभूमिसंस्थितस्ते सार्थः, दूरं च गन्तव्यम्, प्रत्यासन्नश्च घनसमयः, स्थाने च राजपुत्रः, ततो गच्छ त्वमिति । सानुदेवेन भणितम्-देव ! राजपुत्रं वजित्वा न मे पादौ वहतः । कुमारेण भणितम्-भद्र ! अलमनेनाधारपुरुषोचितेन चेष्टितेन । कार्यप्रधानाः खलु पुरुषा भवन्ति । ततः क्रियतां महाराजवचनम् । अक्रियमाणे चैतस्मिन् अधिका मेऽनिर्वृतिः । सानुदेवेन भणितम - देव ! यत्त्वमाज्ञापयसीति । [ततः प्रणम्य कुमारं] गतः सानुदेवः । अतिक्रान्तो धनसमयः। प्रगुणौ कुमारपल्लीपती। कृतं वर्धापनकम् । णितो राज्ञा कुमारः-वत्स ! कि ते प्रियं आप जैसे महानुभावों के लिए यह उचित है ।' परिजनों को आज्ञा दी-'अरे, इन दोनों की (दवा वगैरह का) प्रयत्न करो।' अनन्तर आदेश के बाद ही दोनों को कमरे में भेज दिया गया । उत्कृष्ट शय्याएँ बिछायी गयीं । वैद्य बुलाये गये । घावों की चिकित्सा की गयी। (राजा ने) राजपुत्री की खोज के लिए अपने आदमी भेजे। कुछ दिन बीत जाने पर 'उसका सार्थ विषमभूमि में स्थित है'-- ऐसा जानकर सामुदेव को बुलाया और राजा ने कहा--'भद्र ! तुम्हारा सार्थ (टोली) विषमभूमि में स्थित है और गन्तव्य दूर है तथा मेघ का समय समीप है, राजपुत्र ठीक है, अत: तुम जाओ । सानुदेव ने कहा-'महाराज ! राजपुत्र को छोड़कर मेरे दोनों पैर आगे नहीं चलते हैं।' कुमार ने कहा-'भद्र ! इस प्रकार की अधीर पुरुषों के योग्य चेष्टा न करो। पुरुष निश्चित रूप से कार्यप्रधान होते हैं अतः महाराज के वचन (पूरे) करो। इसे न मानने पर मुझे अधिक अशान्ति होगी।' सानुदेव ने कहा-'महाराज जो आज्ञा दें। (तब कुमार को प्रणामकर) सानुदेव चला गया। वर्षाकाल बीत गया। कुमार और भिल्लराज ठीक हो गये । बधाई महोत्सव किया। राजा ने कुमार से कहा - 'वत्स ! तुम्हारा क्या १. कल्छंतरमिम --ख। २. 'गओ साणु देवो सेणकुमार समीवं । साहियं से नरवइसासणं' इत्यधिक: ख-पुस्तके । १. समागओ घणसमओ। ततो पुरिऊण कासयमणोरहे निफाइऊण सनसस्से-- : स-पुस्तके। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चकहा सिया ताव मए तुह जायागवेसण निमित्तं निययपुरिसा । तत्थ उण केइ आगया अवरे न वत्ति । एत्थंतरम्मि विइयकुमारवत्तंतेणेव भणियं सोमसूरेण देव, सुमरियं मए कुमारस्स पिययमासंजोयकारणं ति । राइणा भणियं -- कहेउ अज्जो, कीइसं । सोमसूरेण भणियं - देव, अत्थि कायंबरी अडवीए पियमेलयं नाम तित्थं । तस्स किल एसा उद्वाणपा रावणिया । sire व कायम्बरीए विसाहवद्धणं नाम नयरं अहेसि । अजियबलो राया, वसुंधरो सेट्ठी, पियमित्तो से सुओ। लद्धा य णेण तन्नयरवत्थव्वयस्स ईसरखंदस्स धूया नीलुया' नाम कम्नया । अइक्तो कोइ कालो । अवत्ते विवाहे पत्ताणि जोव्वणं । एत्थंतरम्मि विचित्तयाए कम्मपरिणामस्स, 'चंचला सिरि' ति सच्चयाए लोयपवायस्स' वसुंधरसे द्विणो विद्यलिओ विहवो । 'वुड्ढो चेव अहयं; ता अलं मे परमत्थ संपायणरहिएणं जीविएणं' ति चितिऊण य अहिमाणेवकरसियाए परिचत्तमण जीवियं । पियमित्तो वि य 'अमाणणीया दरिद्द' त्ति परिभूओ परियणेणं 'करेंतस्स वि य अणुट्ठाणं विहलं संपज्जइ' त्ति गहिओ विसाएणं । तओ 'किमिह अत्तणा विडंबिएणं' ति असाहिऊण ६१२ करोमि । प्रेषितास्तावन्मया तव जायागवेषणनिमित्तं निजपुरुषाः । तत्र पुनः केऽप्यागता अपरे नवेति । अत्रान्तरे विदितकुमारवृत्तान्तेनैव भणितं सोमसूरेण - देव ! स्मृतं मया कुमारस्य प्रियतमासंयोगकारणमिति । राज्ञा भणितम् - कथयत्वार्यः कीदृशम् ? सोमसूरेण भणितम् - देव ! अस्ति कादम्बर्यामटव्यां प्रियमेलकं नाम तीर्थम् । तस्य किलैषा उत्थानपर्यापनिका । अस्यामेव कादम्बर्यां विशाखवर्धनं नाम नगरमासीद् । अजितबलो राजा, वसुन्धरः श्रेष्ठी, प्रिय मित्रस्तस्य सुतः । लब्धा च तेन तन्नगरवास्तव्यस्येश्वरस्कन्दस्य दुहिता नीलुका नाम कन्यका । अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । अवृत्ते विवाहे प्राप्तौ यौवनम् । अत्रान्तरे विचित्रतया कर्मपरिणामस्य ' चञ्चला श्रीः' इति सत्यतया लोकप्रवादस्य वसुन्धरश्रेष्ठिनो विचलितो विभवः । 'वृद्ध एवाहम्, ततोऽलं मे परमार्थ सम्पादन रहितेन जीवितेन' इति चिन्तयित्वा च अभिमानैकरसिकतया परित्यक्तमनेन जीवितम् । प्रियमित्रोऽपि च 'अमाननीया दरिद्रा:' इति परिभूतः परिजनेन 'कुर्वतोऽपि चानुष्ठानं विफलं सम्पद्यते ' गृहीतो प्रिय करूँ ? तुम्हारी पत्नी को ढूंढ़ने के लिए मैंने अपने आदमी भेजे थे । उनमें कुछ लोग आ गये हैं, कुछ लोग नहीं ।' इसी बीच मानो वृत्तान्त विदित हो इस प्रकार सोमसूर ने कहा - 'महाराज ! मुझे कुमार की प्रियतमा के संयोग का कारण स्मरण है।' राजा ने कहा- 'कहो आर्य, कैसा ( स्मरण ) ?' सोमसूर ने कहा - 'महाराज ! कादम्बरी नामक वन में प्रियमेलक नाम का तीर्थ है। उसकी यह भूमिका और उपसंहार है । इसी कादम्बरी में विशाखवर्धन नाम का नगर था । ( वहाँ का ) राजा अजितबल (और) सेठ वसुन्धर था । उस सेठ का प्रियमित्र ( नाम का ) पुत्र था। उसने उसी नगर के वासी ईश्वरस्कन्द की पुत्री नीलुका नामक कन्या प्राप्त की। कुछ समय बीता। दोनों ने यौवनावस्था प्राप्त की, विवाह नहीं हुआ । इसी बीच कर्मपरिणाम की विचित्रता से, 'लक्ष्मी चंचल होती है' ऐसे लोकापवाद की सत्यता से वसुन्धर सेठ का वैभव चला गया। मैं वृद्ध ही हूँ, अत: दूसरे के प्रयोजन को पूरा किये बिना मेरा जीना व्यर्थ है - ऐसा सोचकर अभिमान मात्र का ही रसिक होने के कारण इसने प्राण त्याग दिये । प्रियमित्र भी 'दरिद्र लोग माननीय नहीं होते हैं'- - इस तरह परिजनों से तिरस्कृत होकर 'कार्य करते हुए भी विफलता मिलती है' - ( इस कारण ) विषाद से जकड़ लिया गया । अनन्तर अपने उपहास से क्या ? १. नीलया - क । २. लोयवायरस क । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो भवो ] परियणस्स निग्गओ नयराओ । निव्वेयगरुययाए अचितिऊण गंतव्वं अवियारिऊण दिसिवहं पयट्टो उत्तराहिमुहं । गओ थेवं भूमिभागं । दिट्ठो य णेण पियवयंसओ नागदेवो नाम पंडरभिक्खू | वंदिओ afari | कहकहवि पच्चभिन्नाओ भिक्खुणा । भणिओ य णेण-वच्छ पियमित्त, कहं ते ईइसी अवस्था, कहिं वा तं एयाई पत्थिओ सित्ति । पियमित्तेण भणियं-भयवं, परोप्परविरुद्धकारिणं देव्त्रं पुच्छति, जेण तायपुत्तो करिय निरवराहो चेए ईइस अवत्थं पाविओ म्हि । नागदेवेण भणियं वच्छ, अवि कुसलं ते तायस्स । पियमित्तेण भणियं भयवं, परिवालिय सप्पुरिसमग्गस्स सुरलोयमणुगयस्स वि कुसलं; अकुसलं पुण तायवंसविडंबयस्स जंतपुरिसाणुधारिणो पियमित्तस्स, जस्स उभयलोयफलसाहणे असमत्था ईइसी अवत्थ त्ति | नागदेवेण भणियं - वच्छ, अवि अत्यमिओ सो बंधवकुमुपायरसी । अहो दारुणया संसारस्स, अहो निरवेक्खया मच्चुणो । अहवा सुरासुरसाहारणो अप्पडियारो खु एसो । ता कि एत्थ करीयउ । अणुवाओ खु एसो, उवाओ य धम्मो, जओ जेऊण धम्मेण मच्चं अयरामरगइमुवगया मुणओ त्ति । अन्नं च । वच्छ, कहं ते उभयलोयफल साह - विषादेन । ततः किमिहात्मना विडम्बितेन' इत्यकथयित्वा परिजनस्व निर्गतो नगरात् । निर्वेदगुरुकतयाऽचिन्तयित्वा गन्तव्यमविचार्य दिक्पथं प्रवृत्त उत्तराभिमुखम् । गतः स्तोकं भूमिभागम् । दृष्टश्च तेन पितृवयस्यो नागदेवो नाम पाण्डरभिक्षुः । वन्दितः सविनयम् । कथं कथमपि प्रत्यभिज्ञातः भिक्षुणा । भणितश्च तेन वत्स प्रियमित्र ! कथं ते ईदृश्यवस्था, कुत्र वा त्वमेकाकी प्रस्थितोऽसि इति । प्रियमित्रेण भणितम् - भगवन् ! परस्परविरुद्धकारिणं दैवं पृच्छेति येन तातपुत्रः कृत्वा निरपराध एव ईदृशीमवस्थां प्रापितोऽस्मि । नागदेवेन भणितम् - वत्स ! अपि कुशलं ते तातस्य । प्रियमित्रेण भणितम् - परिपालितसत्पुरुषमार्गस्य सुरलोकमनुगतस्यापि कुशलम्, अकुशलं पुनस्तातवंशविडम्बकस्य यन्त्रपुरुषानुकारिणः प्रियमित्रस्य यस्योभयलोकफलसाधनेऽसमर्था ईदृश्यवस्थेति । नागदेवेन भणितम वत्स ! अपि अस्तमितः स बान्धवकुमुदाकरशशी । अहो दारुणता संसारस्य, अहो निरपेक्षता मृत्योः । अथवा सुरासुरसाधारणोऽप्रतिकारः खल्वेषः । ततः किमत्र क्रियताम् । अनुपायः खल्वेषः, उपायश्च धर्मः, यतो जित्वा धर्मेण मृत्युमजरामरगतिमुपगता मुनय इति । अन्यच्च वत्स ! कथं ते उभयलोकफलसाधनेऽसमर्थाऽवस्था, यतः पुरुषकारसाध्यं फलम्, ६१३ अर्थात् अपनी हँसी उड़वाना व्यर्थ है - ऐसा सोचकर परिजनों से बिना कहे ही नगर से निकल गया । वैराग्य की अधिकता से गन्तव्य का विना विचार किये ही उत्तरापथ की ओर चला गया। थोड़ी दूर गया। उसने पिताजी के मित्र नागदेव नामक, गेरुए रंग के वस्त्र पहिने हुए, भिक्षु को देखा । विनय सहित ( उसकी ) वन्दना की। जिस किसी प्रकार भिक्षु ने पहिचाना। उसने कहा - 'वत्स प्रियमित्र ! तुम्हारी ऐसी अवस्था कैसे हुई ? अकेले कहाँ जा रहे हो ?' प्रियमित्र ने कहा- 'भगवन् ! परस्पर विरुद्ध ( कार्य ) करनेवाले भाग्य से पूछो, जिसके द्वारा पिताजी का पुत्र बनाकर बिना अपराध के ही ऐसी अवस्था को पहुँचाया गया हूँ ।' नागदेव ने कहा- 'वत्स ! आपके पिता जी कुशल तो हैं ?' प्रियमित्र ने कहा - 'सत्पुरुषों के मार्ग का पालन करते हुए सुरलोक का अनुसरण करनेवाले ( पिताजी ) का भी कुशल है, किन्तु पिताजी के वंश की हँसी उड़वाने वाले मन्त्रपुरुष का अनुसरण करनेवाले 'प्रियमित्र' का कुशल नहीं है जिसकी दोनों लोकों के फल साधने में असमर्थ ऐसी अवस्था है ।' नागदेव ने कहा--- 'वत्स ! बान्धवरूपी कमलों से भरे हुए तालाब के लिए चन्द्रमा के समान वह अस्त हो गया ? ओह संसार दारुण है, मृत्यु निरपेक्ष है अथवा यह सुर असुर सभी के लिए साधारण है, इसका प्रतीकार नहीं किया जा सकता । इस विषय में क्या किया जा सकता है ? मृत्यु अनुपाय है; उपाय धर्म है; क्योंकि धर्म से मृत्यु जीतकर मुनिजन अजर-अमर गति को प्राप्त हुए हैं। दूसरी बात यह है, वत्स ! तुम्हारी अवस्था उभयलोक का साधन करने में Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४ [ सपराइच्चकहा असमत्था अवत्था; जओ पुरिसयारसझं फलं, विवेगउच्छाहमूलो य पुरिसयारो, उभयसंपन्नो य तुमं । पयइनिग्गुणे य संसारे परलोयफलसाहणं चेव सुंदरं न उण इहलोइयं ति। जोग्गो य तुम धम्मसाहणे; ता कहमसमत्यो ति । पियमित्तण भणियं-भयवं, जइ जोग्गो, ता आइसउ कि मए कायव्वं ति। नागदेवेग भणियं-वच्छ, इमं चेव भिक्खुत्तणं। पडिस्सुयमणेण। साहिओ से गोरसपरिवज्जणाइओ नियकिरियाकलावो। परिणओ य एयस्स । अइक्कंता कइवि दियहा । दिन्ना य से दिक्खा। करेइ विहियाणुट्ठाणं । इओ य सा नीलुया कुओ वि एयमवगच्छिऊण 'भत्तारदेवया नारि' त्ति धम्मपरा जाया विसयनिप्पिवासा वि तहसणूसुया, विरहदुब्बलंगी दढं खिज्जइ ति। अइक्कतो कोइ कालो। विहरमाणो य समागओ से भत्ता तन्नयरपच्चासन्नं तवोवणं । सुओ नीलयाए। तओ अणन्नविय जणणिजणए गया वंदणनिमित्तं । दिवो य णाए माणजोयमवगओ पियमित्तो। समुप्पन्न सझसं, वेवियाई अंगाई, विमूढा चेयणा, संभमाइसएण मुच्छ्यिा एसा। 'परित्तायह परित्तायह' त्ति अक्कंदियं परियणेणं। 'करुणापहाणा मणि' त्ति परिच्चइय झाणजोयं उढिओ पियमित्तो। विवेकोत्साहमूलश्च पुरुषकारः, उभयसम्पन्नश्च त्वम् । प्रकृतिनिर्गणे च संसारे परलोकफलसाधनमेव सुन्दरम्, न पुनरैहलौकिक मिति । योग्यश्च त्वं धर्मसाधने, ततः कथमसमर्थ इति । प्रियमित्रेण भणितम्-भगवन् ! यदि योग्यस्तत आदिशतु कि मया कर्तव्यमिति । नागदेवेन भणितम्-वत्स ! इदमेव भिक्षत्वम् । प्रतिश्रुतमनेन । कथितस्तस्य गोरसपरिवर्जनादिको निजक्रियाकलापः । परिणतश्चैतस्य । अतिक्रान्ताः कत्यपि दिवसाः। दत्ता च तस्य दीक्षा । करोति विहितानुष्ठानम्। इतश्च सा नीलुका कुतोऽप्येतदवगत्य ‘भर्तृ देवता नारी' इति धर्मपरा जाता विषयनिष्पिपासाऽपि तद्दर्शनोत्सुका विरहदुर्बलाङ्गी दृढं क्षीयते इति । अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । विहरंश्च समागतस्तस्य भर्ती तन्नगरप्रत्यासन्नं तपोवनम् । श्रतो नीलुकया। ततोऽनुज्ञाप्य जननीजनको गता वन्दन निमित्तम् । दष्टश्च तया ध्यानयोगमुपगतः प्रियमित्रः । समुत्पन्नं साध्वसम, वेपितान्यङ्गानि, विमूढा चेता, सम्भ्रमातिशयेन मूच्छितैषा। 'परित्रायध्वं परित्रायध्वम्' इत्याक्रन्दितं परिजनेन । करुणाप्रधाना मुनयः' इति परित्यज्य ध्यानयोगमुत्थितः प्रियमित्रः । “किमेतत् किमेतद्' इति पृष्टमनेन । :थितं तस्याः सखीभिः । एषा खलु ईश्वरस्कन्ददुहिता नीलुका नाम कन्यका देवतागुरुवितीर्णं भवन्तमेव असमर्थ कैसे; क्योंकि फल पुरुषार्थ से सिद्ध होता है, विवेक और उत्साह पुरुषार्थ का मूल है और तुम इन दोनों से सम्पन्न हो । स्वभाव से निर्गुण संसार में परलोक का साधन करना ही सुन्दर है, इह-लौकिक फल का साधन करना सुन्दर नहीं। तुम धर्मसाधन के योग्य हो अत: असमर्थ कैसे ?' प्रियमित्र ने कहा-'यदि योग्य हूँ तो आदेश दो मैं क्या करूँ ?' नागदेव ने कहा---'वत्स, यही भिक्षुपना (धारण करो)।' उसने अंगीकार किया। उसरो गोरस का छोड़ना आदि क्रियाकलाप कहे । वह पालन करने लगा। कुछ दिन बीत गये । उसे दीक्षा दी। निहित अनुष्ठानों को प्रियमित्र करने लगा। इधर वह नीलका कहीं से इस समाचार को जानकर 'नारी का देवता पति होता है'-ऐसा मानकर धर्मपरायणा हो गयी। विषयों के प्रति प्यासी न होने पर भी उसके दर्शन की उत्सूक और विरह से दुर्बल अंगोंवाली होने से और अधिक दुर्बल होती गयी। कुछ समय बीता। विहार करते हुए उसके पति उसी नगर के समीपवर्ती तपोवन में आये। नीलुका ने सुना । अनन्तर माता-पिता से आज्ञा लेकर वन्दना के लिए गयी। उसने ध्यान लगाये हुए प्रियमित्र को देखा। घबराहट उत्पन्न हुई, अंग काँपने लगे, चेतना मूढ़ हो गयी, घबराहट की अधिकता के कारण वह मच्छित हो गयी। 'बचाओ-बचाओ'-इस प्रकार परिजन चिल्लाये। मुनिजन करुणाप्रधान होते।" सोचकर ध्यानयोग छोड़कर प्रियमित्र उठ गया। 'यह क्या, यह क्या' Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो भवो] ६१५ 'किमेयं किमयं' ति पुच्छियमणेणं । साहियं से सहियाहिं । एसा खु ईसरखंदध्या नीलुया नाम कन्नया देवयापुरुविइन्नं भवंतमेव भत्तारं एयावत्थमवलोइऊण मोहमुवगय ति। तओ सुमरियमणेणं । 'अहो मे पणइणोए दढाणुराएवं' ति गहिओ सोएणं । वियलिओ झाणासओ, उल्लसिओ सिणेहो । 'समासस समासत'त्ति अब्भक्खिया कमंडलुपाणिएणं। लद्धा याणाए चेयणा । उम्मिलियं लोयणजयं । दिवा य एसो । सज्झसपवेविरंगो उद्विया एसा। हरिसविसायगभिणं नीससियमिमोए, फुरियं बिबाहरेणं, पुलइयाई अंगाई, ईसिवलियतारयं च पुलोइउमारद्धा, एत्थंतरम्मि दुज्जययाए मयणस्स रम्मयाए विलासाण विवित्तयाए काणणस्स आवज्जियं से चित्तं। चितियं च णेण-हंत किमेत्थ जुत्तं ति । एगओ गुरुवयणभंगो, अन्नओ अणरत्तजणवज्जणं ति । उभयं पि गरुय। अहवा सुयं मए भयको सयासे, जहा अखंडियवयाणं जम्मंतरिओ हिययइच्छियवत्थलाभो हवइ; हिययइच्छिओ य मे इमीए समागमो। ता अखडिऊण वयं परिच्चएमि जीवियं, जेण उभयं पि गरुयं अवियलं सपज्जइ ति। अहवा इमं चेव साहेमि एयाए। पेच्छामि ताव किमेसा जंपइ त्ति। चितिऊण भणिया यणेण-सुंदरि, अलं खिज्जिएणं । आवज्जियं मे हिययं तुह सिणेहेण। कि तु अणुचिओ अंगीकयपरिच्चाओ, अजुत्तो भर्तारमेतदवस्थामवलोक्य मोहमुपगतेति । ततः स्मृतमनेन । 'अहो मे प्रणयिन्या दृढानुरागता' इति गृहीतः शोकेन । विचलितो ध्यानाशयः, उल्लसितः स्नेहः । समाश्वसिहि समाश्वसिहि' इत्यभ्युक्षिता कमण्डलुपानीयेन । लब्धा च तया चेतना। उन्मीलितं लोचनयुगम् । दृष्टश्चैषः। साध्वसप्रवेपमानाङ्गी उत्थितैषा। हर्षविषादभितं निःश्वसितमनया, स्फुरितं बिम्बाधरेण, पुलकितान्यङ्गानि, ईषद्वलिततारकं च प्रलोकितुमारब्धा । अत्रान्तरे दुर्जयतया मदनस्य रम्यतया विलासानां विविक्ततया काननस्यावजितं तस्य चित्तम् । चिन्तितं च तेन-हन्त किमत्र युक्तमिति । एकतो गुरुवचन जोऽन्यतो नुरक्तजनवर्जनमिति । उभयमपि गुरुवम् । अथवा श्रत मया भगवतः सकाशे, यथाsखण्डितव्रतानां जन्मान्तरितो हदयेप्सितवस्तलाभो भवति, हृदयेप्सितश्च मेऽस्याः समागमः। ततो अखण्डित्वा व्रतं परित्यजामि जीवितम्, येनोभयमपि गुरुकमविकलं सम्पद्यते इति । अथवेदमेव कथयाम्येतस्याः । प्रेक्षे तावत् किमेषा जल्पतीति । चिन्तयित्वा भलिता च तेन-सुन्दरि ! अलं खेदितेन । आवजितं मे हृदयं तव स्नेहेन । किन्तु अनुचितोऽङ्गोकृतपरित्यागः, अयुक्तो गुरुवचनभङ्गः। श्रुतं च -इस प्रकार इसने पूछा । नीलुका की सखियों ने कहा-'यह ईश्वरस्कन्द की पुत्री नीलुका नाम की कन्या देवता तथा माता-पिता के द्वारा दिये हुए पति आप ही को देखकर मोह को प्राप्त हुई है।' अनन्तर इसे स्मरण हुआ। 'ओह ! मेरी प्रगयिनी का दढ़ अनुराग' इस प्रकार शोक को प्राप्त हुआ। ध्यान का आशय विचलित हो गया, स्नेह उल्लसित हो गया। 'आश्वस्त हो, आश्वस्त हो' - ऐसा कहकर कमण्डलु के जल से सींचा। उसे होश आया ! (उसने दोनों नेत्र खोले। यह दिखाई दिया। घबराहट के कारण काँपते अंगों वाली नीलका उठ गयी। उसने हर्ष और पिपद युक्त होकर लम्बी साँस ली, बिम्बाफल के समान ओठ फड़काये, अंग पुलकित हुए, पूतलियों को कुछ मोड़कर देखने लगी। इसी बीच कामदेव की दुर्जयता, विलासों की रमणीयता और वन की एकान्तता से उसका चित्त वशीभूत हो गया। उसने सोचा-हन्त ! यहाँ पर क्या उचित है? एक ओर गुरु-वचनों का भंग, दसरी ओर अनुरक्त जन का त्याग--- दोनों भारी हैं । अथवा मैंने भगवान के समीप में सूना था कि जो अखण्डित व्रत वाले होते हैं, उनको दूसरे जन्म में हृदय के लिए इष्टवस्तु का लाभ होता है। मेरा हृदय इसके समागम का अभिलाषी है। अतः व्रत का खण्डन करते हुए प्राण त्यागता हूँ जिससे दोनों भारी (कार्य) अविकल सम्पन्न हो । अथवा इससे यही कहता हूँ। देखता हूँ, क्या कहती है---ऐसा सोचकर प्रिय मित्र ने कहा-'सुन्दरि ! खेद मत करो । पेरा हृदय तुम्हारे स्नेह के वशीभूत है किन्तु स्वीकार किये हुए का त्याग अनुचित है, गुरु के वचनों Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइच्चकहा गुरुवयणभंगो । सुयं च मए भयवओ सयासे, जहा अखंडियवयाणं जम्मंतरिओ हिययइच्छियवत्थलाहो, हिययइच्छिओ मे इमिणा सम्भावसंभमेणं तुमए सह समागमो। ता आचिक्ख, कि मए कायन्वं ति। नीलुयाए भणियं-अज्जउत्त, जहा उभयं पि संपज्जइ आसन्नं च जम्मंतरं अप्पवसयाणं बहुमओ य मे इमस्स किलेसायासहेउणो देहस्स चाओ, ता एवं वथिए अज्जउत्तो पमाणं ति । पियमित्तण भणियं-संदरि, अभिन्नचित्ता मे तुम। ता कि एत्थ अवरं भणीयइ। पडिवन्नं मए अणसणं। हिययइच्छिओ य मे जम्मंतरम्मि वि तुमए सह समागमो त्ति। नीलयाए भणियं-अज्जउत्तो पमाणं । पुज्जंतु ते मणोरहा। अन्नं च। अणुजाणेउ मं अज्जउत्तो हिययइच्छियमणोरहावूरणेण । अहवा भत्तारदेवया इत्थिया; जं सो करेइ, तं तीए अणुचिट्ठियत्वं । कयं चेयं तुमए, अओ अत्थओऽणुमयमेवं ति । आपुच्छियाओ 'सहीओ, खामिया जणणिजणया। 'मा साहसं मा साहसं' ति वारिज्जमाणी सहोहि पडिवन्ना अणसणं । जम्मंतरम्मि वि इमिणा चेव भत्तणा अविउत्ता हवेज्ज त्ति संपाडिओ पणिही। ठियाइं अइमत्तलयालिगियस्स असोयपायवस्स हेठे। एत्थंतरम्मि सोऊअ नीलुयासहियणमया भगवतः सकाशे, यथाऽखण्डितव्रतानां जन्मान्तरितो हृदयेप्सितवस्तुलाभः, हृदयेप्सितश्च मेऽनेन सद्भावसम्भ्रमेण त्वया सह समागमः । तत आचक्ष्व, कि मया कर्तव्यमिति । नीलुकया भणितम्आर्यपुत्र ! यथोभयमपि सम्पद्यते, आसन्न च जन्मान्तरमात्मवशगानाम, बहुमतश्च मेऽस्य क्लेशायासहेतोर्देहस्य त्यागः, तत एवं व्यवस्थिते आर्यपुत्रः प्रमाणमिति । प्रियमित्रेण भणितम् - सुन्दरि ! अभिन्नचित्ता मे त्वम्। ततः किमत्रापरं भण्यते। प्रतिपन्नं मयाऽनशनम् । हृदयेसितश्च मे जन्मान्तरेऽपि त्वया सह समागम इति । नीलुकया भणितम्-आर्यपुत्रः प्रमाणम् । पूर्वन्तां ते मनोरथाः। अन्यच्च, अनुजानातु म मार्यपुत्रो हृदयेप्सितमथोरथापूरणेन । अथवा भर्तदेवता स्त्री, यत्स करोति तत् तयाऽनुष्ठातव्यम् । कृतं चेदं त्वया, अतोऽर्थतोऽनुमतमेवमिति । आपृष्टाः सख्यः, क्षामितौ जननी जनकौ। ‘मा साहसं मा साहसम्' इति वार्यमाणा सखीभिः प्रतिपन्नाऽनशनम् । जन्मान्तरेऽप्यनेनैव भाऽवियुक्ता भवेयमिति सम्पादितः प्रणिधिः (संकल्पः) । स्थितावतिमुवतलतालिङ्गितस्याशोकपादपस्याधः । अत्रान्तरे श्रुत्वा नीलुकासखीजनकोलाहलमागतो नागदेवः । दृष्टः का भंग करना अनुचित है। मैंने भगवान् के समीप सुना था कि अखण्डित व्रत वालों को दूसरे जन्म में इष्ट वस्तु का लाभ होता है। इस सद्भाव से उत्पन्न घबराहट के कारण मेरा तुम्हारे साथ मिल न हृदय का इष्ट है अत: कहो, मैं क्या करूँ ?' नीलुका ने कहा- 'आर्यपुत्र ! जिससे दोनों कार्य सम्पन्न हों, जो जितेन्द्रिय हैं उनका दूसरा जन्म समीप है, मुझे इस क्लेश और थकावट के कारण शरीर का त्याग इष्ट है - अत: ऐनी स्थिति में आर्यपुत्र प्रमाण हैं।' प्रियमित्र ने कहा - 'सुन्दरि ! तुम मेरी अभिन्नचित्त हो अत: दूसरी बात क्या कही जाय ! मैंने अनशन धारण कर लिया। हृदय के लिए इष्ट मेरा दूसरे जन्म में भी तुम्हारे साथ समागम हो ।' नीलुका ने कहा-'आर्यपुत्र प्रमाण हैं। तुम्हारे मनोरथ पूर्ण हो। और यह कि आर्यपुत्र मुझे अपना मनोरथ पूरा करने की आज्ञा दें । अथवा स्त्री का देवता पति होता है। जो वह करता है, वह उसे करे । चूँकि तुमने इसे किया अतः यथार्थतः अनुमति दे ही दी। सखियों से पूछा, माता-पिता दुर्बल हो गये । 'साहस मत करो, साहस मत करो' इस प्रकार सखियों द्वारा रोकी जाने पर भी इसने अनशन धारण कर लिया 'दूसरे जन्म में भी इसी पति से समागम हो' ऐसा संकल्प कर लिया। दोनों अतिमुक्तक लता से आलिगित अशोकवृक्ष के नीचे बैठ गये । तभी नीलुका की सखियों का कोलाहल सुनकर नागदेव आया। प्रियमित्र ने देखा। दोनों उठे और अत्यधिक १. तत्यट्टियाए चेव-इत्यधिक: क---पुस्तके । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . सत्तमो भवो] ६१७ कोलाहलं आगओ नागदेवो। दिट्ठो पिमित्तेणं । विलिओ य एसो। अब्भुट्टिओ हिं, वंदिओ य अईवविलिएहिं । 'अहिलसियं संपज्जउ' त्ति अहिणंदियाई नागदेवेण। चितियं च जेणं- का उण एसा इत्थिया समाणरूवा उचियवया य पियमित्तस्स । वयणवियारेणं सिणेहनिब्भरा एयम्मि लक्खिज्जए, विलिओ य एसो; ता कि पुण इमं ति। एत्थंतरम्मि सगग्गयक्खरं जंपियं सहीहि-भयवं एसा ख ईसरखंदध्या नीलया नाम कन्नवा, विइन्ना पितमित्तस्स, पडिकलयाए देव्वस्स न परिणीया य गणं । 'पव्वइओ एसो' त्ति कुओ वि वियाणियभिमीए। तओ 'भत्तारदेवया नारि' त्ति धम्मपरा जाया विसयनिप्पिवरसा वि य पिययमदंसणूसुया विरहपरिदुब्बलंगी दढं खिज्जइ ति। एवमाइ साहियमणसणावसाणं । चितियं नागदेवेण - अहो दारुणया मयणवियारस्स, जेण पियमित्तणावि एवं ववसियं ति । अहवा ईइसो एस मयणो मोहणं विवेयस्स तिमिरं सणस्स ओच्छायणं चरित्तस्स। एएणभिभूया पाणिगो नत्थितं जं न समायरंति ति। तेण अविसओ उवएसस्स। ता इमं एत्थ पत्तयालं, जं किंचि भणिय अवकमामि इमाओ विभागाओ; अभिप्पेयकारावओ माणणीओ वि प्रियमित्रेण । वीडितश्चषः । अभ्युत्थित आभ्याम्, वन्दितश्चातीववीडिताभ्याम् । 'अभिलषितं सम्पद्यताम्' इति अभिनन्दितौ नागदेवेन । चिन्तित च तेन--का पुनरेषा स्त्री, समानरूपा उचितवयाश्च प्रियमित्रस्य । वदनविकारेण स्नेहनिर्भरा एतस्मिन् लक्ष्यते, वोडितश्चैषः, ततः किं पुनरिदमिति । अत्रान्तरे सगदगदाक्षरं जल्पितं सखीभि:--भगवन् ! एषा खलु ईश्वरस्कन्ददुहिता नीलुका नाम कन्यका, वितीर्णा प्रियमित्रस्य, प्रतिकूलतया देवस्य न परिणीता च तेन । 'प्रवजित एषः' इति कृतोऽपि विज्ञातमनया। ततो 'मर्तृ देवता नारी' इति धर्मपरा जाता विषयनिष्पिपासाऽपि च प्रियतमदर्शनोत्सुका विरहपरिदुर्बलङ्गी दृढं खिद्यते इति । एवमादि कथितमनशनावसानम् । चिन्तितं नागदेवेन-अहो दारुणता मदनविकारस्य, येन प्रिय मित्रेणाप्येतद व्यवसितमिति । अथवेदश एष मदनो मोहनं विवेकस्य तिमिरं दर्शनस्य अवच्छादनं चारित्रस्य । एतेनाभिभूतः प्राणिनो नास्ति तद् यन्न समाचरन्तीति । तेनाविषय उपदेशस्य । तत इदमत्र प्राप्तकालम्, यत्किञ्चिद् भणित्वाऽपक्रम मि अस्माद्विभागात, अनभिप्रेतकारको माननीयोऽपि दृढमुद्वेगजनक इति । चिन्त लज्जित होकर दोनों ने वन्दना की । अभिलषित कार्य पूरा करो, इस प्रकार नागदेव ने अभिनन्दन किया । नागदेव ने सोचा- प्रियमित्र के समान रूप और अवस्था वाली यह स्त्री कौन है ? मुख-विकार से यह इस पर अत्यधिक स्नेहयुक्त दिखाई दे रही है, प्रियमित्र लज्जित है, अत: यह सब क्या है? तभी गद्गद अक्षरों के साथ सखियों ने कहा- 'भगवन ! यह ईश्वरस्कन्द की पुत्री नीलुका नामक कन्या है. प्रियमित्र को दी गयी, किन्तु भाग्य की प्रतिकूलता से उसके द्वारा परिणीत नहीं हुई। 'यह प्रवजित हो गये'--ऐसा इसे कहीं से पता चला। अनन्तर 'नारी का देवता पति होता है'--ऐसा सोचकर धर्मपरायण हो गयी, विषयों के प्रति पिपासा रहित होने पर भी प्रियतम के दर्शन की उत्सुकता से और विरह से दुर्बल होकर अत्यधिक दुखी हो गयी।' यहाँ से लेकर अनशन तक की बात कह दी। नागदेव ने सोचा--ओह ! काम के विकार की दारुणता, जिससे प्रिय मित्र ने भी ऐसा निश्चय किया। अथवा इस प्रकार का यह काम विवेक को मोहित करनेवाला, दर्शन का अन्धकार और चारित्र को ढाँकनेवाला है। इससे अभिभूत प्राणी ऐसा कुछ नहीं है जो न करते हों। अत: (यह) उपदेश का विषय नहीं है। अब समय आ गया है कि किचित् कहकर इस स्थान से चला जाऊँ, अनिष्ट कार्य को करनेवाले Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८ [समराइच्चकहा दढमवेयजणओ ति । चितिऊण जंपियमणेणं-वच्छ ! पियमित्त, जाणामि अहमिणं, नत्थि दुक्करं सिणेहस्स, सब्भावगेज्झाणि य सज्जणहिययाणि । एयावत्थेण वि न कओ अंगीकयपरिच्चाओ। ता कोस तुम खिज्जसि त्ति । परिच्चय विसायं । ईइसो एस संसारो, किमेत्थ करीयउ। तहावि तत्तभावणा कायव्व ति भणिऊण गओ नागदेवो । इयरो वि पियमित्तो तप्पभूइमेव पूइज्जमाणो सयणवग्गेण अहिणंदिज्जमाणो राइणा अपरिवडियतहाविहपरिणामो जीविऊण दुमासमेत्तं कालं चइऊण देहपंजरं सह नोलुयाए उववन्नो किन्नरेसु। पउत्तो ओही, विइओ पुववृत्तंतो, समागओ सह पिययमाए तमुज्जाणं । कया उज्जाणपूया। निम्मियं असोयपायवासन्नम्मि देउलं । निविट्ठो आणंददेवो निव्वुई य तस्स सहचरी देवया। गयाणि नंदणवणं । दिट्ठा य तत्थ एगा विज्जाहरी पिययमविओयदुखेण अच्चंतदुब्बला दोहदोहं नीससंती इओ तओ परिम्भममाणि त्ति । पुच्छिया य हिं-- संदरि, का तुमं किनिमित्तं वा एवमेयाइणी परिभमसि । तीए भणियं- मयणमंजुया नाम विज्जाहरी अहं । पिययमाणरायनिन्भराए य खंडिओ मए विज्ादेवओक्यारो । अहिमत्ता य णाए आ दुरायारे, ................................. यित्वा जल्पितमनेन - वत्स प्रियमित्र ! जानाम्यहमिदम्, नास्ति दुष्करं स्नेहस्य, सद्भावग्राह्याणि च सज्जनहृदयानि । एतदवस्थेनापि न कृतोऽङ्गोकृतपरित्यागः। ततः कस्मात्त्वं खिद्यसे इति । परित्वज विषादम् । ईदृश एष संसारः, किमत्र क्रियताम् । तथापि तत्त्वभावना कर्तव्येति भणित्वा गतो नागदेवः । इतरोऽप प्रिय मित्रः तत्प्रभृत्येव पूज्यमानः स्वजनवर्गेण अभिनन्द्य मानो राज्ञा अपरिपतिततथाविधारिणामो जीवित्वा द्विमासमात्रं कालं त्यक्त्वा देहपञ्जरं सहनीलु कयोपपन्न: किन्नरेष । प्रयुक्तोऽवधिः, विदितः पूर्ववृत्तान्तः समागतः सह प्रियतमया तमुद्यानम् । कृतोद्यानपूजा । निमित. मशोकपादपासन्नं देवकुलम् । निविष्ट आनन्ददेवो निर्वृतिश्च तस्य सहवरी देवता । गतौ नन्दनवनम् । दृष्टा च तत्रं का विद्याधरी प्रियतमवियोगदुःखेनात्यन्त दुर्बला दीर्घदीर्घ निःश्वसती इतस्ततः परिभ्रमन्तीति । पृष्ठा च ताभ्याम् - सुन्दर ! का त्वम्, किनिमित्तं वा एवमेकाकिनी परिभ्रमसि । तया भणितम् -- मदनमजला नाम विद्याधरी अहम् । प्रियतमानुरागनिर्भरया च खण्डितो मया विद्यादेवतोपचारः । अभिशप्ता च तया-आ दुराचारे ! अनेनावद्यविलसितेन पाण्मासिकस्ते भर्ना माननीय भी अत्यधिक उद्वेग के जनक होते हैं - ऐसा सोचकर नागदेव ने कहा-'वत्स प्रियमित्र ! मैं यह जानता हूँ कि स्नेह के लिए कोई कार्य कठिन नहीं है और सज्जनों के हृदय सदभाव से ग्रहण करने योग्य हैं। इस अवस्था में भी अंगीकृत का परित्याग नहीं किया, अतः क्यों खिन्न होते हो ? विपाद छोड़ो। यह संसार ऐसा ही है, इस विषय में क्या किया जाय, तथापि तत्त्वचिन्तन करो'- ऐसा कहकर नागदेव चला गया। प्रियमित्र भी उसी समय से स्वजनों द्वारा पूजित होकर, राजा द्वारा अभिनन्दित होकर, उस प्रकार के परिणामों से पतित न माह जीकर देहपजर का त्याग कर नीलका के साथ किन्नरों में उत्पन्न हआ। अवधिज्ञान का प्रयोग किया, पूर्ववृत्तान्त जाना, प्रियतमा के साथ उस उद्यान में आया। उद्यान की पूजा की। अशोक वृक्ष के नीचे मन्दिर बनाया । आनन्द देव और उसकी सहचरी देवी 'निर्वृति' की स्थापना की। दोनों नन्दनवन गये । वहाँ पर एक विद्याधरी को देखा। (वह) प्रियतम के वियोगरूपी दुःख से अत्यधिक दुर्बल होकर लम्बी-लम्बी सांसें लेती हुई इधर-उधर घूम रही थी। उन दोनों किन्नरों ने पूछा-'सुन्दरि ! तुम कौन हो? किस कारण अकेली घूम रही हो ?' उसने कहा---'मैं मदनमंजुला नामक विद्याधरी हूँ। प्रियतम के प्रति अत्यधिक अनुराग होने के कारण मैंने विद्यादेवी की पूजा का खण्डन किया। उस देवी ने शाप दिया- अरी दुराचारिणी ! इस दोषयुक्त चेष्टा से Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो भवो] ६१६ इमिणा अवज्जाविलसिएणं छम्मासिओ ते भत्तुगा सह पिओओ 'भविस्सइ। तंनिमित्तं विउत्ता पिययमेणं, समाउत्ता अरईए, गहिया रणरणएणं, अद्धमुक्का पाणेहि भमिसि' (हिसि) ति। भणिऊण तुहिक्का ठिया भयवई । तओ मए भयसंभंताए चलणेसु निवडिऊण विन्नत्ता भयवई। देवि, कयं मए अपुग्णभायणाए एयं', दिट्ठो य कोवो । ता करेउ पसायं भयवई अणुग्गहेणं ति। भणमाणी पुणोवि निवडिया चलणेसु। तओ अणुकंपिया भयवईए । भणियं च गाए - वच्छे, आयइअपेच्छयाणि अणुराइहिययाणि हवंति । ता न सुंदरमणुचिट्ठियं तए। तहावि एस ते अणुग्गहो । गच्छ नंदणवणं; तत्थ अमुगदेसम्मि सिणिद्धमाहवीलयालिगिओ धवलजमलकुसुमो पियमेलओ नाम रुवखो। तस्स अहोभायसंठियाए भविस्सइ ते पिययमेणं समागमो त्ति। तओ समागया नंदणवणं तं च उद्देसयं । न पेच्छामि य तं रुक्खयं । अओ परिब्भमामि त्ति ॥ किन्नरेण भणियं-संदरि, धीरा होहि; अहं ते निरुवेमि । निरूविओ लद्धो य । साहिओ विज्जाहरीए। समागया तस्स हेळं। तओ तवखणमेव अचितसामत्थयाए पायवस्स घडिया पिययमेणं । साहिओ अणाए' वुत्तंतो पिययमस्स, बहुमन्निओ य तेणं । जाया विज्जाहरकिन्नराणं पीई । अन्नोन्ननेहाणुबंधेणं गमिऊण कंचि वेलं गयाइं विज्जाहराइं। सह वियोगो भविष्यति । तन्निमित्तं वियुक्ता प्रियतमेन, समायुक्ताऽरत्या, गृहीता रणरणकेन, अर्ध. मुक्ता प्रणभ्रमिष्यसि इति । भणित्वा तूष्णिका स्थिता भगवती। ततो मया भयसम्भ्रातया चरणयोनिपत्य विज्ञप्ता भगवती । देवि ! कृत मयाऽपुण्यभाजनया एतद्, दृष्टश्च कोपः । ततः करोतु प्रसादं भगवत्यनुग्रहेणेति । भगन्तो पुनरपि निपतिता चरणयोः । ततोऽनुकम्पिता भगवत्या । भणितं च तया-वत्से ! आयत्यप्रेक्षकाणि अनुरागिहृदयानि भवन्ति । ततो न सुन्दरमनुष्ठितं त्वया । तथाप्येष तेऽनुग्रहः । गच्छ नन्दनवनम् तत्रामुकदेशे स्निग्धमाधवीलताऽऽलिङ्गितो धवलयमलकुसुमः प्रियमेलको नाम वृक्षः। तस्याधोभागसंस्थिताया भविष्यति ते प्रियतमेन समागम इति । ततः समागता नन्दनवनं तं चोद्देशम् । न प्रेक्ष च तं वृक्षम् । अतः परिभ्रमामीति । किन्नरेण भणितम्सुन्दरि! धोरा भव, अहं ते निरूपयामि । निरूपितो लब्धश्च । कथितो विद्याधाः । समागता तस्याधः । ततस्तत्क्षण नेवाचिन्त्यसामर्थ्यतया पादपस्य घटिता प्रियतमेन । कथितोऽनया वृत्तान्तः प्रियतमस्य, बहुमानितश्च तेन । जाता विद्याधरकिन्नरयोः प्रीतिः । अन्योन्यस्नेहानुबन्धेन गमयित्वा तेरा छह मास तक पति से वियोग होगा। उस कारण पति से वियुक्त, अरति से युक्त, उत्कण्ठा से गृहीत हो अर्धविमुक्त प्राणों से भ्रमण करोगी-ऐसा कहकर भगवती चुप हो गयी। अनन्तर मैंने भय होने से चरणों में पड़कर देवी से निवेदन किया--'देवी ! मुझ पापिन ने यह किया और कोप देखा, अत: भगवती अनुग्रह करने की कृपा करें।' ऐसा कहती हुई पुन: चरणों में पड़ गयी। तब भगवती ने दया की। उसने कहा- 'अनुरागी हृदय भावी फल को नहीं देखते हैं। अत: तुमने अच्छा नहीं किया । फिर भी तुम पर यह अनुग्रह है। नन्दनवन जाओ, वहाँ पर अमुक स्थान पर कोमल माधवी लता से आलिंगित स्वच्छ जुड़वे फूलवाला प्रियमेलक नाम का वृक्ष है । उसके नीचे जाने पर तेरा प्रियतम से समागम होगा।' अनन्तर मैं नन्दनवन और उस स्थान पर आयी (किन्तु) उस वृक्ष को नहीं देख रही हूँ। अतः भ्रमण कर रही हूं। किन्नर ने कहा-'सुन्दरि ! धीर होओ, मैं तुम्हें (वह वृक्ष) दिखलाता हूँ।' देखा और प्राप्त हो गया। (किन्नर ने) विद्याधरी से कहा। (वह) उसके नीचे आयी। उसी समय वृक्ष की अचिन्त्य सामर्थ्य से प्रियतम से मिल गयी। इसने प्रियतम से वृत्तान्त कहा, उसने सत्कार किया। विद्याधर और किन्नर में प्रीति हो गयी। एक-दूसरे के प्रति स्नेह रखते हुए कुछ समय बिताकर १. भमामि-+ । २. सबमेयं-क। ३. णाए-क। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० [समराइच्चकहा किन्नरोए य भणिओ पिययमो-अज्जउत्त, दुन्विसहं पियविओयदुक्खं, परत्थसंपायणफलो य जीवाणं जम्मो पसंसोयइ । ता नेहि केणइ उवाएण एवं तत्थ पायवं, जत्थ मे अज्जउत्तेण सह दसणं संजायं ति । निवेसेहि नियय निवि देवउलसमीवे। साहेहि य इमस्स माहप्पं, जणाण, जेण पियविउत्ता वि पाणिणो एयं समासाइऊण पणपियविरहदुक्खा सुहभाइणो हवंति। अणुचिट्ठियं च तं किन्नरेणं । निविट्ठो नियदेवउलसमीवे पायवो। साहिओ जणवयाणं । विन्नासिओ गहि जाव तहेव त्ति । जाया य से पसिद्धी, अहो पियमेलओ ति। समुप्पन्नं तित्थं, कयं च से नामं पियमेलयं ति। __ अओ अवगच्छामि, तहिं गयस्स अचिंतसामत्थयाए कप्पपायवाणं नियमेण पिययमासंजोओ जायइ ति। ता इमं एत्य कारणं । संपइ देवो पमाणं ति। एयं सोऊण हरिसिओ राया कुमारसेणो य। चितियं च राइणा । एयमेयं, न एत्थ संदेहो। अचितसामत्था कप्पपायवा । ता इमं एत्थ पत्तयालं, पेसेमि विइन्ननियपुरिसपरिवारं तहिं कुमारं । अवि नाम पुज्जंतु से मणोरह त्ति। समालोचिओ पल्लिणाहो। भणियं च णेण -देव, सुयपुव्वं मए, वियाणामि य अहयं तवोवणासन्नं तमुद्देसं । काञ्चिद् वेलां गतौ विद्याधरौ। किन्नर्या च भणितः प्रियतमः-आर्यपुत्र ! दुर्विषहं प्रियवियोगदुःखम्, परार्थसम्पादनफलं च जीवानां जन्म प्रशस्यते, ततो नय केनचिदुपायेनैतं तत्र पादपम, यत्र मे आर्यपुत्रेण सह दर्शनं सजातमिति । निवेशय निजनिविष्टदेवकुलसमीपे। कथय चास्य माहात्म्यं जनानाम्, येन प्रियवियुक्ता अपि प्राणिन एतं समासाद्य प्रनष्टप्रियविरहदुःखाः सुखभागिनो भवन्ति। अनुष्ठितं च तत् किन्नरेण । निविष्टो निजदेवकुलसमीपे पादपः । कथितो जनवजानाम्। विन्यासितोऽ (परीक्षितो) नेकवित्तथैवेति। जाता च तस्य प्रसिद्धिः, अहो प्रियमेलक इति । समुत्पन्न तीर्थम्, कृतं च तस्य नाम प्रियमेलकमिति। ____ अतोऽवगच्छामि, तत्र गतस्याचिन्त्यसामर्थ्यतया कल्पपादपानां नियमेन प्रियतमासंयोगो जायते इति । तत इदमत्र कारणम् । सम्प्रति देवः प्रमाणमिति । एतच्छ त्वा हृष्टो राजा कुमारसेतश्च । चिन्तितं च राज्ञा एवमेतद् नात्र सन्देहः। अचिन्त्यसामर्थ्याः कल्पपादपाः । तत इदमत्र प्राप्तकालम्, प्रेषयामि वितीर्णनिजपुरुषपरिवारं तत्र कुमारम् । अपि नाम पूर्यन्तां तस्य मनोरथा इति । समालोचितः पल्लीनाथः । भणितं च तेन-देव ! श्रुतपूर्व मया, विजानामि चाहं तपोवनासन्नं विद्याधरयुगल चला गया। किन्नरी ने प्रियतम से कहा-'आर्यपुत्र ! प्रिय का वियोग सहना कठिन है, दसरे के प्रयोजन का सम्पादन करनेवाले जीवों का जन्म प्रशंसनीय होता है, अतः किसी उपाय से वहाँ पर वृक्ष को ले चलो जहाँ मैंने आर्यपुत्र के दर्शन किये थे। अपने द्वारा स्थापित मन्दिर के समीप रखो और इसका माहात्म्य लोगों से कहो, जिससे प्रिय से वियुक्त भी प्राणी इसको पाकर प्रिय के विरहजन्य दुःख को नष्ट कर सुख के पात्र हों।' किन्नर ने इस कार्य को पूरा किया। अपने मन्दिर के पास वृक्ष को रख दिया। लोगों से कहा। अनेक लोगों ने परीक्षा की, उसी प्रकार सिद्ध हुआ। उस वृक्ष की प्रसिद्धि हुई--ओह ! प्रियमेलक है। तीर्थ उत्पन्न हुआ, उसका नाम प्रियमेलक रखा गया। अतः जानता हूं कि वहाँ जाने पर कल्पवृक्ष की अचिन्त्य सामर्थ्य से नियम से ही प्रियतमा के साथ संयोग होता है । तो अब समय आ गया है। अब महाराज प्रमाण हैं । यह सुनकर राजा और कुमारसेन प्रसन्न हुए। राजा ने सोचा-यह ठीक है, इसमें सन्देह नहीं कि कल्पवृक्षों की अचिन्त्य सामर्थ्य होती है । तो यह यहाँ समय आ गया है, अपने आदमियों के साथ कुमार को वहाँ भेजता हूँ। हो सकता है उसके मनोरथ पूर्ण हों। भिल्ल राज से विचार-विमर्श किया। उसने कहा-'महाराज ! मैंने पहले ही सुना था और मैं तपोवन के समीपवर्ती उस Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सतमो भवो ] संपयं देवोपमाणं ति । तओ पेसिओ महया चडयरेणं कुमारो । हत्थे गहिऊण भणिओ राइणावच्छ, संपाविऊण पत्ति अवस्समिहेवागंतव्व ति । पडिस्सुयं कुमारेणं । सो तओ पणमिव रायाणं अणवरयपयाणेहि पत्तो कइवयदिह तवोवणं । तावसजणोवरोहtory वपुरिसपरिवारिओ चेव पविट्टो एसो । वंदिया तावसा । अणुसासिओ हि । नीओ य पल्लिणाहेण अतरुसंकुलं तमुद्देसं । दिट्ठ जिष्णदेवउलं । भणिओ कुमारो -- देव, एसो खु उद्देसो, न याणामि य विसेसओ कप्पपायवं ति । तओ विसण्णो कुमारो। सुमरियं संतिमईए । सा उतावसिसमेया विणिग्गया कुसुमसामिधेयस्स । गेव्हिऊण य तं समागच्छमाणी तवोवणं विचित्तयाए कम्मपरिणामस्स भविव्वयाए निओएण उवविट्ठा पियमेलयसमीवे । दिट्ठो य णाए नागवल्लीलयालिगिओ असोओ। सुमरियं कुमारस्स, उक्कंठियं से चित्तं, फुरियं वामलोयणेणं । तओ हिययनिग्गओ विय परिभमंतो दिट्ठो इमोए कुमारो । तओ सा 'अज्जउत्तो' ति हरिसिया, 'चिराओ दिट्ठो' त्ति 'उक्कंठिया, 'परिक्खामो' त्ति उब्विग्गा, 'विरहम्मि जीविय' त्ति लज्जिया, 'कुओ वा एत्थ अज्जउत्तो' तमुद्देशम् । साम्प्रतं देवः प्रमाणमिति । ततः प्रेषितो महता चटकरेण (आडम्बरेण ) कुमारः । हस्ते गृहीत्वा भणितो राज्ञा - वत्स ! सम्प्राप्य पत्नीमवश्यमिहैवागन्तव्यमिति । प्रतिश्रुतं कुमारेण । ततः प्रणम्य राजानमनवरतप्रयाणैः प्राप्तः कतिपयदिवसः तपोवनम् । तापसजनोपरोधभोरुतया च स्तोक पुरुषपरिवृत एव प्रविष्ट एषः । वन्दिताः तापसाः । अनुशिष्टस्तैः । नीतश्च पल्लीनाथेन ने कतरुसंकुलं तमुद्देशम् । दृष्टं जीर्णं देवकुलम् । भणितः कुमारः - देव ! एष खलु स उद्देशः, न जानामि च विशेषतः कल्पपादमिति । ततो विषण्णः कुमारः । स्मृतं शान्तिमत्याः । सा पुनः तापसीसमेता विनिर्गता 'कुसुमसामिधेयाय । गृहीत्वा च तं समागच्छन्ती तपोवनं विचित्रतया कर्मपरिणामस्य भवितव्यताया नियोगेनोपविष्टा प्रियमेलकसमीपे । दृष्टश्च तया नागवल्लीलता ङ्गितशोकः । स्मृतं कुमारस्य, उत्कण्ठितं तस्याश्चित्तम्, स्फुरितं वामलोचनेन । ततो हृदयनिर्गत इव परिभ्रमन् दृष्टोऽनया कुमारः । ततः सा 'आर्यपुत्र:' इति हृष्टा, 'चिराद् दृष्टः' इत्युकण्ठिता, 'परीक्षे' इत्युद्विग्ना, 'विरहे जीविता' इति लज्जिता, कुतो वाऽत्रार्यपुत्र इति सवितर्का, स्थान को जानता हूँ । इस समय महाराज प्रमाण हैं । अनन्तर बड़े ठाठ-बाट से कुमार को भेजा । हाथ में हाथ लेकर राजा ने कहा- 'वत्स ! पत्नी को पाकर अवश्य ही यहीं आना ।' कुमार ने स्वीकार किया । अनन्तर राजा को प्रणाम करः निरन्तर चलते हुए, कुछ दिन में तपोवन में पहुँच गया । तापसजनों को विघ्न न हो अतः कुछ लोगों के साथ ही यह प्रविष्ट हुआ। तापसों की वन्दना की । उन लोगों ने आज्ञा दी । भिल्लराज अनेक वृक्षों से व्याप्त उस स्थान पर ले गया । पुराना मन्दिर देखा । कुमार से कहा - 'महाराज ! यह वही स्थान है। मैं कल्पवृक्ष विशेष को नहीं जानता । अनन्तर कुमार खिन्न हुआ । शान्तिमती का स्मरण किया । वह तापसियों के साथ फूल तथा समिधा लाने के लिए निकली। उसे लेकर तपोवन को आती हुई, कर्मपरिणाम की विचित्रता (तथा) भवितव्यता के नियोग से वह प्रियमेलक वृक्ष के पास आकर बैठ गयी । उसने नागवल्लीलता से आलिंगित अशोकवृक्ष को देखा । कुमार का स्मरण हो आया, उसका चित्त उत्कण्ठित हो गया, बायीं आँख फड़की । अनन्तर हृदय से निकले हुए के समान इसने वहाँ घूमते कुमार को देखा । फिर वह 'आर्यपुत्र हैं' यह सोचकर हर्षित हुई, 'बहुत समय बाद देखा' अतः उत्कण्ठित हुई, 'देखा' अत: उद्विग्न हुई, 'विरह में जीवित हैं अतः लज्जित हुई, 'आर्यपुत्र कहाँ से आ गये !' अतः सोचने लगी, 'स्वप्न हो सकता है' ऐसा विचार १- कुसुमानां समिधा — काष्ठानां च समूहाय, कुसुमानि काष्ठानि चाहर्तुं मित्यर्थः । ६२१ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२ [ समराइच्चकहा त्ति सवियका, 'सिविणो हवेज्ज' ति विसण्णा, 'थरो पच्चओ' ति समासत्था संकिण्णरसनिम्भर अंगमन्वहंती अविभावियपरमत्था नेहनिब्भरयाए मोहमुवगय त्ति । तओ 'हा किमेयं' ति विसण्णाओ तावसीओ । समासासिया य णाहि, जाव न जंपइ ति। तओ बप्फपज्जाउललोयणाहिं परिसित्ता कमंडलपाणिएणं, तहावि न चेयइ ति । तओ अक्कंदियमिमोहिं । तं च अइकलणमक्कंदियरवं सोऊण 'न भाइयव्वं न भाइयव्वं' ति भणमाणो धाविओ कुमारो। दिवाओ तावसीओ; न दिठं भयकारणं । पुच्छियाओ णेण-कुओ भयं भयवईणं । ताहि भणियं-महासत्त, संसाराओ। कुमारेण भणियं-- ताकि इमं अक्कंदियं । तावसीए भणियं-एसा खु तवस्सिणी रायउरसामिणो संखरायस्स धूया संतिमई नाम । एसा य देवनिओएण विउत्तभत्तारा पाणपरिच्चायं ववसमाणी कहंचि मणिकुमारएणं धरिऊण कुलवइणो निवेइया । अणुसासिया य णेणं । समाइट्ठो य से एत्थेव तवोवणम्मि भत्तारेण समागमो। जाव एसा कुलवइसमाएसेणेव कुसुमसामिधेयस्स गया, तं गेण्हिऊण वच्चमाणी तवोवणं वोसमणनिमित्तं एत्थ उवविट्ठा, न याणामो कारणं, अयण्डम्मि चेव मोहमुवगय ति। तओ अक्कंदियं 'स्वप्नो भवेद' इति विषण्णा, 'स्थिरः प्रत्ययः' इति समाश्वस्ता संकीर्णरसनिर्भरमङ्गमुद्वहन्ती अविभावितपरमार्था स्नेहनिर्भरतया मोहमुपगतेति । ततो 'हा किमेतद्' इति विषण्णाः तापस्यः । समाश्वस्ता च ताभिः, यावन्न जल्पतीति । ततो बाष्पपर्याकुललोचनाभिः परिषिक्ता कमण्डलुपानीयेन, तथापि न चेतयते इति । तत आक्रन्दितमाभिः । तं चातिकरुणमाक्रन्दितरवं श्रुत्वा 'न भेतव्यं न भेतव्यम्' इति भणन् धावित: कुमारः । दृष्टाः तापस्याः, न दृष्टं भयकारणम् । पृष्टास्तेन-कुतो भयं भगवतीनाम् । ताभिर्भणितम्- महासत्त्व ! संसारात् । कुमारेण भणितम्-ततः किमिदमाक्रन्दितम् । तापस्या भणितम्-एषा खलु तपस्विनो राजपुरस्वामिनः शङ्खराजस्य दुहिता शान्तिमती नाम । एषा च दैवनियोगेन वियुक्तभर्तृका प्राणपरित्यागं व्यवस्यन्ती कथञ्चिद् मुनिकुमारकेन धृत्वा कलपतये निवेदिता । अनुशिष्टा च तेन । समादिष्टश्च तस्या अत्रैव तपोवने भर्ना समागमः । यावदेषा कुलपतिसमादेशेनैव कुसुमसामिधेयाय गता, तद् गृहीत्वा वजन्ता तपोवनं विश्रमण निमित्तमत्रोपविष्टा, न जानोमो कारणम्, अकाण्डे एव मोहमुपगतेति । तत आक्रन्दितमस्माभिः। एतच्छ् त्वा कर दु:खी हुई, 'दृढ़ विश्वास है'. ऐसा मानकर आश्वस्त हुई। इस प्रकार मिश्रित रस से भरे हुए अंग को धारण करती हुई, परमार्थ को न जानकर स्नेह की अधिकता के कारण मूच्छित हो गयी। अनन्तर 'हाय, यह क्या हुआ'-इस प्रकार तापसियाँ दुःखी हुई। उन लोगों ने आश्वस्त किया, फिर भी यह नहीं बोली। अनन्तर आँसू भरे नेत्रों से युक्त होकर कमण्डलु के जल से सींचा तो भी होश में नहीं आयी तो ये चिल्लायीं। उस अत्यन्त करुण चिल्लाहट के शब्द सुनकर 'मत डरो, मत डरो'- कहता हुआ कुमार दौड़ा। तापसियों को देखा, भय का कारण दिखाई नहीं दिया। उसने पूछा-'आप लोगों को किससे भय है ?' उन्होंने कहा-'महानुभाव, संसार से भय है।' कुमार ने कहा-'तो यह चिल्लाहट क्यों ?' तापसियों ने कहा-'यह बेचारी राजपुर के स्वामी शंखराज की पुत्री शान्तिमती है । भाग्यवश पति से वियुक्त होकर यह प्राणपरित्याग कर रही थी तो किसी प्रकार मुनिकुमार ने लाकर कुलपति से निवेदन किया। कुलपति ने उपदेश दिया और इससे कहा कि इसी तपोवन में पति के साथ समागम होगा। जब यह कुलपति के आदेश से पुष्प समिधा लाने के लिए गयी तो लेकर तपोवन में जाती हुई विश्राम के लिए यहाँ गेली, हम नहीं जानती हैं कि किस कारण असमय में ही यह मूच्छित हो गयी। अत: Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सतमो भवो ] अम्हे । एवं सोऊण हरिसविसायगभिणं अवत्थमणुहवंतेणं पुलोइया कुमारेणं । वीइया तावसीहि । कमंडलुजलसिंचणेण समासत्था एसा । दिट्ठो य गाए पच्चासन्न कुमारो | संभंता एसा, भणिया - सुंदरि, अलं संभमेण; न अन्नहा कुलवइसमाएसो; अमोहवयणा खु तवस्सिणो हवंति । कुसलोदएण संपन्नं तं भयवओ वयणं । ता एहि, गच्छामो तवोवणं, निवेएहि एयं कुलवइस्स, जेण सो वि अकारणवच्छलो एवं मुणिऊण णिव्बुओ होइ । तावसोहि चितिथं - नूणमेसो चेव से भत्ता; कहमन्नहा एवं जंप त्ति । कल्लाणागिई य एसो । अहो णु खलु जुत्तयारी विही, सरिसमेयं जुवलयं ति । एत्थंतरम्मि आणंदबाहजलभरियलोयणा अणाचिक्खणीयं अवत्थंत रमणुहवंती पयडपुलया उट्ठिया संतिमई । निरूविया पल्लिणाहेण । हरिसिओ एसो । विम्हयाखित्तहियएण चिंतियं च णेण - अहो देवस्स घरिणीए रूवiपया अहवा ईइसस्स पुरिसरयणस्स ईइसेण चैव कलत्तेण होयव्वं ति । सयलसुंदरसंगया चेव महापुरिसा हवंति । ता किमत्थ अच्छरियं; न वंचिजइ सुरो दिवसलच्छी ति । ओ मेण पिव सलज्जसुहहेउभूयं देवस्स पणमामि एवं ति । तओ सविणओत्तिमंगेण जंपियहर्षविषादगर्भितामवस्थामनुभवता प्रलोकिता कुमारण । वीजिता तापसीभिः । कमण्डलुजलसेचनेन समाश्वस्तैषा । दृष्टश्च तया प्रत्यासन्नः कुमारः । सम्भ्रान्तैषा, भणिता तेन -- सुन्दरि ! अलं सम्भ्रमेण नान्यथा कुलपतिसमादेशः, अमोघवचनाः खलु तपस्विनो भवन्ति । कुशलोदयेन सम्पन्नं तद् भगवतो वचनम् । तत एहि, गच्छामः तपोवनम् । निवेदयैतत् कुलपतये, येन सोऽप्यकारणवत्सल एतज्ज्ञात्वा निर्वृतो भवति । तापसी भिश्चिन्तितम् - नूनमेष एव तस्या भर्ता, कथमन्यथैवं जल्पतीति । कल्याणाकृतिश्चैषः । अहो नु खलु युक्तकारी विधिः, सदृशमेतद् युगलकमिति अत्रान्तरे आनन्दवाष्पजलभृतलोचनाऽनाख्यानीयमवस्थान्तरमनुभवन्ती प्रकटपुलकोत्थिता शान्तिमती । निरूपिता पल्लीret | हृष्ट एषः । विस्मयाक्षिप्तहृदयेन चिन्तितं च तेन -: - अहो देवस्य गृहिण्या रूपसम्पद् । अथवे - दृशस्य पुरुष रत्नस्येदृशेणैव कलत्रेण भवितव्यमिति । सकल सुन्दर सङ्गता एव महापुरुषा भवन्ति । ततः किमत्राश्चर्यम्, न वञ्च्यते सूरो दिवसलक्ष्म्येति । अतो मेदिनीमिव सकलराज्यसुखहेतुभूतां देवस्य प्रणमाम्येतामिति । ततः सविनतोत्तमाङ्गेन जल्पितमनेन - स्वामिति ! अग्रहीतव्यनामा देवस्य भृत्या हम लोग चिल्लायीं ।' यह सुनकर हर्ष और विषाद से युक्त अवस्था का अनुभव करते हुए कुमार ने देखा ' तपस्विनियों ने हवा की । कमण्डलु के जल के सींचने से यह आश्वस्त हुई। उसने समीपवर्ती कुमार को देखा । वह घबरा गयी। कुमार ने उससे कहा - 'सुन्दरि ! घबराओ मत, कुलपति की आज्ञा अन्यथा नहीं थी, तपस्वी जन अमोघवचन वाले होते हैं । शुभकर्म के उदय से भगवान् का वह वचन सम्पन्न हो गया। तो आओ, तपोवन को चलें । इस घटना को कुलपति से निवेदन करो, जिससे अकारण स्नेह रखनेवाले वे इसे जानकर सुखी हों ।' तापस्विनियों ने सोचा- निश्चित रूप से यही उसका पति है, अन्यथा कैसे इस प्रकार बोलता । इसकी आकृति कल्याणमय है । ओह ! विधाता उचित कार्य करनेवाला है, यह जोड़ा समान है। इसी बीच आनन्द से आँखों में आँसू भरे हुए, अनिर्वचनीय अवस्था का अनुभव करती हुई, रोमांच प्रकट करती हुई शान्तिमती उठ गयी । भिल्लराज ने (उसे ) देखा । यह प्रसन्न हुआ । विस्मय से आकृष्ट हृदयवाले उसने सोचा- ओह ! महाराज की गृहीणी की रूपसम्पत्ति । अथवा ऐसे पुरुषरत्न की ऐसी ही भार्या होनी चाहिए। महापुरुष समस्त सुन्दर वस्तुओं से युक्त होते हैं । अतः यहाँ क्या आश्चर्य है ? सूर्य दिवस लक्ष्मी से वंचित नहीं होता । अस्तु महाराज के समस्त राज्यसुख का कारणभूत पृथ्वी की तरह इसे प्रणाम करता हूँ । अनन्तर सिर झुकाकर इसने कहा'स्वामिनि ! नाम लेने योग्य महाराज का तुच्छ भृत्य आपको प्रणाम करता है ।' अनन्तर उसने 'स्वामी के महलों ६२३ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चकहा ६२४ मणं - सामिणि, अघेत्तव्वनामो देवस्त भिच्चावयवो ते पणमइ । तओ तीए 'सामिसालागुरूवे साए पावसु' त्ति भणिऊण पुलोइयं कुमारवयणं । भणियं च णेण सुंदरि, नत्थि एक्स्स संभमाणुरूवो पसायविसओ ति । तओ लज्जिओ पल्लिणाहो । एत्थंतरम्म ' अह किंनिमित्तं पुण एसा अणल्भा वुट्ठि' त्ति निरूविओ कुमारेण पायरूवो, जाव अच्चंतसुंदरी अदिट्ठपुव्वो य । तओ हरिसिएण पुच्छिओ पल्लिणाहो-भद्द, किनामधे ओ खु एसो पायवो । तेण भणियं - देव, न याणामि, अदिट्ठपुत्त्रो य एसो । तओ पुच्छियाओ तावसीओ। ताहि बि इमं चैव संलत्तं ति । कुमारेण भणियं - कहं तवोवणासन्नो वि न दिट्ठो भवहिं । तावसहि भणित्रं- कुमार, नाइबहुकालागया अम्हे, जम्मापुग्यो य एसो पएसो ति । कुमारेण चितियं नूणमेसो खु सो पियमेलओ; कहमन्ना एवमेयं हवइ । निरूवियाई कुसुमाई; दिट्ठाणि य घणपत्तसाहाविवरंतरेणं, जाव धवलाई जमलाणिय। दंसियाई पल्लिणाहस्स । तेण भणियं - देव, सो चेव एसो जहाइट्ठकुसुमो । कुमारेण भणियं - ता पूएमि एवं कप्पपायवं ति । -- वस्त्रे प्रणमति । ततस्तया 'स्वामिशालानुरूपान् प्रसादान् प्राप्नुहि' इति भणित्वा प्रलोकितं कुमारवदनम् । भणितं च तेन - सुन्दरि ! नास्त्येतस्य सम्भ्रमानुरूपः प्रसादविषय इति । ततो लज्जित: पल्लीनाथः । अत्रान्तरे 'अथ किंनिमित्तं पुनरेषाऽनभ्रा वृष्टिः' इति निरूपितः कुमारेण पादरः, यावदत्यन्तसुन्दरोऽदृष्टपूर्वश्च । ततो हर्षितेन पृष्टः पल्लीनाथः - 'भद्र ! किनामधेयः खत्वेष पादपः । तेन भणितम् - देव ! न जानामि, अदृष्टपूर्वश्चैषः । ततः पृष्टाः तापस्यः । ताभिरपीदमेव संलपितमिति । कुमारेण भणितम् — कथं तपोवनासन्नोऽपि न दृष्टो भगवतीभिर्भणितम् - कुमार ! नातिबहुकालागता वयम्, जन्मापूर्वश्चैष प्रदेश इति । कुमारेण चिन्तितम् - नूनमेष खलु स प्रियमेलः, कथमन्यथैवमेतद् भवति । निरूपितानि कुसुमानि दृष्टानि च घनपत्रशाखाविवरान्तरेण यावद्भवलानि यमलानि च । दर्शितानि पल्लीनाथस्य । तेन भणितम् - देव ! स एवैष यथादिष्ट कुसुमः । कुमारेण भणितम् - : - ततः पूजयाम्येतं कल्पपादपमिति । समादिष्टो भिल्लनाथः - भद्र ! उपनय मे पूजोप के अनुरूप महल प्राप्त करें - ऐसा कहकर कुमार के मुँह की ओर देखा । कुमार ने कहा - 'सुन्दरि ! प्रसन्नता का विषय घबराहट इसके अनुरूप नहीं है । अनन्तर भिल्लराज लज्जित हुआ । इसी बीच 'बिना बादल के यह वर्षा क्यों हो रही है' ऐसा कहकर कुमार ने वृक्ष देखा । वह वृक्ष अत्यन्त सुन्दर था और ऐसा वृक्ष पहिले कभी नहीं देखा था । अनन्तर हर्षित होकर ( कुमार ने भिल्लराज से पूछा- 'भद्र ! इस वृक्ष का क्या नाम है ?' उसने कहा - 'महाराज नहीं जानता हूँ, यह मैंने पहिले नहीं देखा ।' अनन्तर तपस्विनियों से पूछा । तापस्विनियों ने भी यही कहा । कुमार ने कहा -- तपोवन के समीप होने पर भी आप लोगों ने नहीं देखा ?' तापस्विनियों ने कहा - ' कुमार ! हम लोगों को आये हुए अभी अधिक समय नहीं हुआ है, यह प्रदेश जन्म से अपूर्व है ।' कुमार ने सोचा - निश्चित ही यह वह प्रियमेलक है, अन्यथा यह ऐसा कैसे होता ? फूलों को देखा, घने पत्तों वाली शाखा के छेद से देखा, (पुष्प) सफेद और जुड़वे हैं । भिल्लराज को (फूल) दिखलाये । भिल्लराज ने कहा- 'महाराज ! वही वह निर्दिष्ट फूल हैं ।' कुमार ने कहा 'तो इस कल्पवृक्ष की पूजा करता हूँ ।' मिल्लराज को आदेश दिया -भद्र ! मेरे लिए पूजा की सामग्री ले आओ, अचिन्त्य सामर्थ्य Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो भवो ] ६२५ समाट्ट भिल्लाहो । भद्द, उवणेहि मे पूओवगरणं, पूएमि एयं अचितसामत्थं कप्पपायवं । तओ ते समाहूओ परियणो, उवणीयं फुल्लचंदणाइयं पूओवगरणं । कुमारेण विसुद्धचित्तयाए पसत्यभाणमहतेण पूइओ कप्पपायवो महापुरिसगुणा वज्जियाए य अहासन्निहियाए पायडरूवाए चेव होऊण जंपियं खेत्तदेवयाए । वच्छ, परितुट्ठा ते अहं इमाए सुद्धचित्तयार पूइओ देवाणुप्पिएणं पियमेलओ । आवज्जियं मे चित्तं, अमोहदंसणाणि य देवयाणि हवंति । ता भण, किं ते पिये करीयउ । कुमारेण भणियं - भयवइ, तुह दंसणाओ वि कि अवरं पियं ति । देवयाए चितियं-अहिमाणधणो खु सो, कहं किंपि पत्थे । ता सयमेव उवणेमि एयं सव्वरोगविसनिग्धायणसमत्थं आरोग्यमणिरयणं ति । चितिऊण भणिओ कुमारो - वच्छ, अणुरूवो ते विवेगो अलुद्धया य, तहावि परोवयारनिमित्तं मज्भ बहुमाणेण गेहाहि एवं आरोग्गमणिरयणं ति । तओ 'माणणीयाओ देवयाओ' त्ति चितिऊण 'जं भवई आणवे 'ति भणिऊण सबहुमाणमेव पडिच्छियं आरोग्गमणिरयणं कुमारेण । वंदिया देवा । 'चिरं जीवसु' त्ति भणिऊण निरोहिया एसा । ताबसीहि चितियं - अहो कुमारस्स पहावो, जेण करणम्, पूजय म्येनमचिन्त्यसामर्थ्यं करपवादम् । ततस्तेन समहूतः परिजनः उपनीतं पुष्पचन्दनादिकं पूजोपकरणम् । कुमारेण विशुद्धचित्ततया प्रशस्तध्यानमनुभवता पूजितः कल्पपादपः । मह - महापुरुषगुणावता च यथासन्निहितया प्रकटरूपयैव भूत्वा जल्पितं क्षेत्रदेवतया - वत्स ! परितुष्टा तेऽहननया शुद्धचित्ततया । पूजितो देवानुप्रियेण प्रियमेलक । आवजितं मे चित्तम्, अमोघदर्शनानि च दैवत नि भवन्ति । ततो भण, किं ते प्रियं क्रियताम् । कुमारेण भणितम् - भगवति ! तव दर्शनादपि किमपरं प्रियमिति । देवतया चिन्तितम् - अभिमानधनः खल्वेषः कथं किमपि प्रार्थयते । ततः स्त्रयमेवोपनयाम्येतत् सर्वरोगविषनिर्धातनसमर्थमारोग्यमणिरत्नमिति । चिन्तयित्वा भणितः कुमारः - वत्म ! अनुरूपस्ते विवेकोऽलुब्धता च तथापि परोपकारनिमित्त मम बहुमानेन गृहाणैतद् आरोग्यमणिरत्नमिति । ततो 'माननीया देवता:' इति चिन्तयित्वा 'यद् भगवत्याज्ञापयति' इति भणित्वा बहुमानमेव प्रतीष्टमारोग्यमणिरत्न कुमारेण । वन्दिता देवता 'चिरं जीव' इति भहितं । तापसीभिश्चिन्तितम् अहो कुमारस्य प्रभाव:, येन देवता अपि एवं बहु 1 । प्रशस्त वाले इस कल्पवृक्ष की पूजा करता हूँ। अनन्तर उसने सेवकों को बुलाया, फूल चन्दन आदि पूजा के उपकरण लाये. की पूजा की गये। विशुद्धचित्त वाला होने के कारण कुमार ने शुभध्यान का अनुभव करते हुए कल्पवृक्ष महापुरुष के गुणों से आकृष्ट हो पास आकर मानो प्रकट रूप वाली होकर क्षेत्रदेवी ने कहा- 'वत्स ! इस विशुद्ध वित्तपने के कारण मैं तुमसे सन्तुष्ट हूँ । देवानुप्रिय ने प्रियमेलक की पूजा की, मेरा चित्त आकृष्ट हो गया, देवता जन अमोघ दर्शनवाले होते हैं । अतः कहो, तुम्हारा क्या प्रिय करूँ ?' कुमार ने कहा- 'भगवति ! आपके दर्शन मे भी अधिक क्या दूसरा प्रिय ?' देवी ने सोचा- यह अभिमान रूपी धन वाला है, अतः कुछ कैसे माँगेगा ? अतः समस्त रोग और विष को नष्ट करने में समर्थ 'आरोग्यमणिरत्न' इसे देती हूँ--ऐसा सोचकर कुमार से कहा'वत्स ! तुम्हारा विवेक और निर्लोभता उचित है तथापि मेरे प्रति आदर होने के कारण परोपकार के लिए इस आरोग्यमणिरत्न को ग्रहण करो।' अनन्तर 'देवता माननीय होते हैं—ऐसा सोचकर 'जैसी भगवती आज्ञा दें' ऐसा कहकर कुमार ने आदरपूर्वक आरोग्यमणिरत्न स्वीकार कर लिया। देवी की पूजा की। 'चिरायु हों'-- ऐसा कहकर यह (देवी) तिरोहित हो गयी । तापसनियों ने सोचा- ओह कुमार का प्रभाव, जिससे देवता भी Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६ [समराइच्चकहा देवयाओ वि एवं बहु मन्नंति त्ति । भणिय च णाहि-कुमार, अइक्कमइ णे मज्झण्हसमयविहिवेला; ता गच्छामो ति। कुमारेण भणियं - मए वि भयवं कुलवई। वदियन्वो ति, ता समगमेव गच्छम्ह । तओ परियणसमेयो गओ कुलवइसमीवं वंदिओ यण भयवं कुलवई । तेण वि विइन्न ससमयपसिद्धा आसीसा । दवावियं आसणं । उवविट्ठो कुमारो सह परियणेण । निवेइओ से कुमारवुत्तंतो तावसोहि । तओ दत्तावहाणो कुमारं निरूविऊण परितुट्ठो कुलवई । सबहुमाणं समप्पिया से भारिया । भणिओ कुलवइणा --कुमार, किमवरं भणोयइ। एसा खु मे धम्मसुया, परिच्छिन्नसंसारस्स वि य गुणपक्खवाएण महंतो मम इमीए पडिबंधो; ता अणुरूवं दटुव्व ति। कुमारेण भणियं--जं भयवं आणवेइ। एत्यंतरम्मि 'कहमियाणि न दटुव्वो भव' ति मन्नुसिया संतिमई । परिसंथविया कुलवइणा, भणिया यण-वच्छे, अलं उब्वेवेणं, परिच्चय विसायं। धम्मनिरया तुमं; ता निच्चसन्निहिओ ते अहं । उवएसपडिवत्ती दंसणं मुणियणस्स; सा य अवियला तुज्झं ति। तओ पणमिओ इमीए कुलवई, आउच्छियाओ तावसीओ, समागया कुमारसमीवं । सो वि पूइऊण सपरिवारं कुलवई समं संतिमईए मन्यन्ते इति । भणितं च ताभिः- कमार ! अतिक्रामत्यस्माकं मध्याह्नसमयविधिवेला, ततो गच्छाम इति । कुमारेण भणितम-मयाऽपि भगवान कुलपतिर्वन्दितव्य इति, ततः - मकमेव गच्छामः । ततः परिजनसमेतो गतः कुलपतिसमीपम् । वन्दितश्च तेन भगवान् कुलपतिः । तेनापि वितीर्णा स्वसमयप्रसिद्धाऽऽशीः। दापितमासनम् । उपविष्ट: कुमारः सह परिजनेन । निवेदितस्तस्य कुमारवृत्तान्तस्तापसीभिः । ततो दत्तावधानः कुमारं निरूप्य परितुष्ट: कुलपतिः । सबहमानं समर्पिता तस्य भार्या । भणितः कुलपतिना-कुमार ! किमपरं भण्यते । एषा खलु मे धर्मसुता, परिछिन्नसंसारस्यापि च गुणपक्षपातेन महान ममास्यां प्रतिबन्धः, ततोऽनुरूपं द्रष्टव्येति । कुमारेण भणितम् यद् भगवान् आज्ञापयति । अत्रान्तरे 'कथमिदानीं न द्रष्टव्यो भगवान्' इति मन्यश्रिता शान्तिमती। परिसंस्थापिता कुलपतिना, भणिता च तेन - वत्से ! अलमुद्वेगेन, परित्यज विषादम्। धमनिरता त्वम्, ततो नित्यसन्निहितस्तेऽहम् । उपदेशप्रतिपत्तिदर्शनं मुनिजनस्य, सा चाविकला तवेति । ततः प्रणतोऽनया कुलपतिः, आपृष्टास्तापरयः, समागता कुमारसमीपम । सोऽपि पूजयित्वा सपरिवारं इस प्रकार सत्कार करते हैं। उन्होंने (तापसिनियों ने) कहा-'कुमार, हमारी मध्याह्नकालीन नियम की वेला बीत रही है, अत: (हमलोग) जा रही हैं । कुमार ने कहा- 'मुझे भी भगवान् कुलपति की वन्दना करना है । अतः साथ ही चलते हैं।' अनन्तर परिजनों के साथ कुलपति के पास (कुमार) गया। उसने भगवान कुलपति की वन्दना की। कुलपति ने भी स्व-समय प्रसिद्ध आ गीर्वाद दिया। आसन दिलाया। कुमार स्वकीयजनों के साथ बैठा। तापसनियों ने कुमार का वृत्तान्त निवेदन किया। अनन्तर ध्यान देकर कुमार को देखकर कुलपति सन्तुष्ट हुए। आदरपूर्वक उसकी पत्नी को समर्पित कर दिया । कुलपति ने कहा--'कुमार ! और क्या कहा जाय, यह मेरी धर्मपुत्री है, संसार को छोड़ देने पर भी गुणों के प्रति पक्षपात होने के कारण मेरा इसके प्रति दृढ़ अनुराग है, अत्तः (इस पर) योग्य दृष्टि रखना कुमार ने कहा- 'जो भगवान आज्ञा दें।' इसी बीच 'क्या अब भगवान के दर्शन नहीं होंगे ?'-ऐसा सोचकर शान्तिमती शोकाकुल हो गयी। कुलपति ने उसे धर्य बंधाया और उन्होंने कहा-'पुत्रो ! उद्वेग मत कगे, विषाद छोड़ो। तुम धर्म में रत हो, अत: मैं तुम्हारे समीप सदैव हूँ। मुनिजन का दर्शन उसके उपदेश के प्रति श्रद्धा है। वह (उपदेश के प्रति श्रद्धा) तुममें अविकल रूप से है ।' अनन्तर इसने (शान्तिमती ने) कुलपति को प्रणाम किया, तापसनियों से पूछा (आज्ञा ली), कुमार के पास आ गर्यो । कुमार Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो भवो ] ६२७ निग्गओ तवोवणाओ । कइवयदिणेह च समागओ वीसउरं । निवेइओ संतिमइलाहो राइणो । परितुट्ठो राया । कारात्रियं वद्धावणयं । कयसम्माणो विसज्जिओ भिल्लणाहो | कुमारस्स वि पेइए विव रज्जे समं संतिमईए विसयहमणवंतस्स अइक्कंता कद वि वासरा । अन्नया य विचित्तयाए कम्मपरिणामस्त असारयाए संसारस्स महाराय समर के उणो कथंतो विव आवडिओ सज्जधाई आमओ उम्मूलयंतं विय अंते समुद्वाइयं सूलं, उक्खणंती जिय लोयणाई जाया सीसवेयणा; आयंपियाओ संधीओ, पर्यालिया दंता, समद्धाइओ सासो, भग्गाई लोयणाई, निरुद्धा वाणी । समागया वेज्जा, पउत्ताइं नाणाविहाई ओसहाई, न जाओ य से विसेसो । तओ विसण्णं वेज्जमंडलं, याओ अंते उरियाओ । निवेइओ एस वृत्तंतो पडिहारेणं कुमारम्स । सो वुण 'मए जीवंतयम्मि परमोवयारिणो दुहियसत्तवच्छलस्स महारायस्स ईइसी अवस्था; असमत्यो य अहयं पडिविहाणे; ता धिरत्थ मे जीविएणं' ति चितिऊण मोहमुवगओ त्ति । बीइओ वायचीराए समासासिओ संतिमईए । भणियं च णाए-अज्जउत्त, न सुमरेसि तं देवयाविइन्नं आरोग्गमणिरयणं । ता तस्स कुलपति समं शान्तिमत्या निर्गतस्तपोवनात् । कतिपय दिनैश्च समागतो विश्वपुरम् । निवेदितः शान्ति ती लाभो राज्ञः । परितुष्टो राजा । कारितं वर्धापनकम् । कृतसम्मानो विसर्जितो भिल्लनाथः । कुमारस्यापि पैतृके इव राज्ये समं शान्तिमत्या विषयसुखमनुभवतोऽतिक्रान्ताः कत्यपि वासराः । अन्यदा च विचित्रतया कर्मपरिणामस्य असारतया संसारस्य महाराजसम रकेतोः कृतान्त इव आपतितः सद्योघात्यामयः । उन्मूलयदिवान्त्राणि समुद्धावितं शूलम्, उत्क्षण्वतीव लोचने जाता शीर्ष वेदना, कम्पिताः सन्धयः, प्रचलिता दन्ताः समुद्धावितः श्वासः, भग्ने लोचने, निरुद्धा वाणी । समागता वैद्याः प्रयुक्तानि नानाविधान्यौषधानि न जातश्च तस्य विशेषः । ततो विषण्णं वैद्यमण्डलम्, प्ररुदिता अन्तःपुरिकाः । निवेदित एष वृत्तान्तः प्रतीहारेण कुमारस्य । स पुनः 'मयि जीवति परमोपकारिणो दुःखितसत्त्ववत्सलस्य महाराजस्येदृश्यवस्था, असमर्थश्चाहं प्रतिविधाने, ततो धिगस्तु मे जीवितेन' इति चिन्तयित्वा मोहमुपगत इति । वीजितो वातचीरेण समाश्वस्तः शान्तिमत्या | भणितं च तथा - आर्यपुत्र ! न स्मरसि तद् देवतावितीर्ण दारोग्यमणिरत्नम् । ततस्त भी सपरिवार कुलपति की पूजा कर शान्तिमती के साथ तपोवन से निकल गया। कुछ दिन में विश्वपुर आया । राजा से शान्तिमती की प्राप्ति के विषय में निवेदन किया। राजा सन्तुष्ट हुआ । ( उसने ) उत्सव कराया। सम्मान कर मिल्लराज को विदा कर दिया। पैतृक राज्य के समान शान्तिमती के साथ विषय-सुख का अनुभव करते हुए कुमार के भी कुछ दिन बीत गये। एक बार कर्मों के परिणाम की विचित्रता तथा संसार की असारता से महाराज समरकेतु को यम के समान 'सद्योघाती' नामक बीमारी आ लगी । मानो आतें उखड़ गयी हों - इस प्रकार शूल उठा। दोनों नेत्रों को उखाड़ती हुई-सी शिरोवेदना उत्पन हुई। जोड़ों में कम्पन होने लगा, दाँत किटकिटाने लगे, श्वास छूटने लगी, दोनों नेत्र फट गये, वाणी रुक गयी । वैद्य आये, अनेक प्रकार की औषधियां प्रयुक्त की गयीं, किन्तु राजा को कोई लाभ नहीं हुआ । अनन्तर वैद्य दुःखी हो गये, अन्तःपुरिकाएँ रोने लगीं। इस वृत्तान्तको द्वारपाल ने कुमार से निवेदन किया । पुनश्च वह 'मेरे जीवित रहते हुए परमोपकारी, दुःखियों के प्रति स्नेह रखनेवाले महाराज की ऐसी अवस्था और मैं इसे दूर करने में असमर्थ हूँ, अतः मेरे जीवन को धिक्कार है' - ऐसा सोचकर मूच्छित हो गया । वस्त्र से हवा की गयी, शान्तिमती ने आश्वस्त किया। उसने कहा - 'आर्यपुत्र ! क्या देवी के द्वारा दिये हुए उस आरोग्यमणिरत्न का स्मरण नहीं है ? अतः उसका यह समय Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२८ [समराइच्चकहा एस कालो, परिच्चय विसायं, उवणेहि तं महारायस्स । तओ ‘सुंदरि, साहु सुमरिय' ति हरिसिओ कुमारो। गहियं आरोग्गमणिरयणं । निग्गच्छंतस्स भवणाओ केणइ संलत्तं 'निए अत्थे चिरंजीवसु' त्ति। तओ 'अणुकूलसउणो' ति हरिसिओ लहु चेव गओ नरिंदभवणं, पविठ्ठो नरवइसमीवं । तो सोचिऊण हत्थपाए आरोग्गमणिरयणेण ओमज्जिओ राया। अचितसामत्थयाए मणिरयणस्स उवसंतं सूतं, पगट्ठा सोसवेपणा, घडियाओ संधीओ, थिरीहया दंता, उवसंतो सासो, उम्मिल्लियाई, लोयणाई 'अहो किमयं' ति पयट्टा वाणी । थेववेलाए य पुव्वसामत्थओ वि अहिययरसामत्थजुत्तो उढिओ राया। 'अहो कुमारस्स पहावो' त्ति जंपियं वेजेहिं । हरिसिया मंतिणो। 'पच्चियाओ देवीओ। राइणा भणियं-भो पणट्रसरणा मे अवत्था अहेसि; ता न विन्नायं मए, किमेत्थ संजायं ति । साहेह तुब्भे। साहियं जीवाणंदेण। हरिसिओ राया। भणियं च ण-कहं णु खलु अमयभूए कुमारे पहवंतम्मि मच्चणो अवयासो त्ति । लज्जिओ कुमारो। भणियं च णेण-देवयागुरुपसाओ एसो त्ति । राइणा भणियं-वच्छ, तुह संतिया इमे पाणा; ता जहिच्छं जोएयव्व ति। कुमारेण भणियं-गुरू तुन्भे। स्यैष कालः, परित्यज विषादम्, उपनय तद् महाराजस्य । ततः 'सुन्दरि ! साधु स्मृतम्' इति हर्षितः कुमारः। गृहीतमारोग्यमणिरत्नम्। निर्गच्छतो भवनात् केनचित् संलपितं 'निजेऽर्थे चिरं जीव' इति । ततो 'ऽनुकूलशकुनः' इति हृष्टो लघ्वेव गतो नरेन्द्रभवनम्, प्रविष्टो नरपतिसमीपम् । ततः शोचयित्वा (क्षालयित्वा) हस्तपादान आरोग्यमणिरत्नेनावमा जितो राजा । अचिन्त्यसामर्थ्यतया मणिरत्नस्योपशान्तं शूलम्, प्रनष्टा शीर्ष वेदना, घटिताः सन्धयः, स्थिरीभूता दन्ताः, उपशान्तः श्वासः, उन्मिलिते लोचने, 'अहो किमेतद्' इति प्रवृत्ता वाणी। स्तोकवेलायां च पूर्वसामर्थ्यादप्यधिकतरसामर्थ्ययुक्त उत्थितो राजा। 'अहो कुमारस्य प्रभावः' इति जल्पित वैद्यैः। हृषिता मन्त्रिणः । प्रतिता देव्यः । राज्ञा भणितम्-भोः प्रनष्टस्मरणा मेऽवस्थाऽऽसीदिति, ततो न विज्ञातं मया, किमत्र सजातमिति । कथयत यूयम् । कथितं जीवानन्देन । हृष्टो राजा । भणितं च तेन-कथं नु खल्वमतभूते कुमारे प्रभवति मृत्योरवकाश इति । लज्जितः कुमार इति । भणितं च तेन-देवतागुरुप्रसाद एष इति । राज्ञा भणितम्---वत्स ! तव सत्का इमे प्राणाः, है। विषाद छोड़ो, उस औषधि को महाराज के पास ले जाओ।' अनन्तर 'सुन्दरि ! (तुमने) ठीक स्मरण किया-इस प्रकार कुमार हर्षित हआ। (उसने) आरोग्यमणि रत्न को लिया। जब वह भवन से निकल रहा था तो किसी ने कहा-'अपने प्रयोजन में लगे रहकर चिरकाल तक जीवित रहो।' अनन्तर 'शकुन अनुकूल है' इस प्रकार हर्षित होता हुआ शीघ्र ही राजभवन में गया। राजा के समीप प्रविष्ट हआ। पश्चात हाथ-पैर धोकर आरोग्यमणिरत्न से राजा को आवजित किया। मणिरत्न की अचिन्त्य सामर्थ्य से शूल शान्त हो गया, शिरोवेदना नष्ट हो गयी, जोड मिल गये, दाँत स्थिर हो गये. श्वास शान्त हो गया. दोनों नेत्र खल गये । ओह ! यह क्या ! - इस प्रकार वाणी खल गयी। थोड़े ही समय में पहले की सामर्थ्य से अधिक सामर्थ्य युक्त हो राजा उठ गया। 'ओह कुमार का प्रभाव !'-ऐसा वैद्यों ने कहा । मन्त्रिगण हर्षित हो गये। देवियाँ नृत्य करने लगीं। राजा ने कहा- 'मैं नष्ट स्मृति को प्राप्त हो गया था, अतः मैंने नहीं जाना, यहाँ क्या हुआ। तुम सब कहो।' जीवानन्द ने बताया । राजा प्रसन्न हुआ। राजा ने कहा-'अमृतभूत कुमार के समर्थ रहते हुए मत्य को अवकाश कहाँ !' कुमार लज्जित हुआ। उसने कहा---'यह देवता और गुरुजनों का प्रसाद है। राजा १. आइटें बद्धावयणं मतीहिं । पण--क। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो भवो] पिएण राणा भणि-कमार, अलंधणोयवषणा गरू ता मज्झ बहमाणण अणचिटियम्वमेयं देवाण एणं । कुमारेण भाणय-आणवउ ताओ। राइणा भणिय-न मोत्तव्यो अहं ति। कूमारेण भणिय -जं तुम्भे आणवेह । राइणा भणियं-वच्छ, गुरुबहुमाणाणुरूवं फलं पावसु त्ति । 'निययावासे होहि' ति भणिऊण विसज्जिओ कुमारो । सद्दाविऊण भणिओ से निउत्तपरियणो। न तुब्र्भहिं मम अणिवेइऊण समागओ वि कुमारसंतिओ को वि कुमारस्स पेसियन्वो ति । तेण भणियं-जं देवो आणवेइ। .. अइक्कंतो कोइ कालो। अन्नया य कहिंचि वियाणिऊणमेयं वत्तंतं समागओ पहाणामच्चपुत्तो अमरगुरू । निवेइओ राइणो। सद्दाविऊण पूइओ ण, भणिओ य नेहसारं - भद्द, कि बहुणा जंपिएणं; जीवियाओ वि अहिओ मे कुमारो। पडिवन्नं च एएण, जहा मए तुमं न मोत्तव्वो। ता तहाणुचिट्टियव्वं, जहा दो वि अम्हे सुहं चिट्ठामो त्ति। मंतिपुत्तेण भणियं-देव, धन्नो कुमारो, जस्स देवो वि एवं मंतेइ । ता जमाणतं देवेण; एत्थ भयवं विही विय उवउत्तो अहं। राइणा भणियं-- ततो यथेच्छ द्रष्टव्या इति । कुमारेण भणितम्-गुरवो यूयम् । राज्ञा भाणतम् .. कुमार ! अलङ्घनीयवचना गुरव, ततो मम बहुमानेनानुष्ठातव्यमेतद् देवानुप्रियेण । कुमारेण भणितम्- आज्ञापयतु तातः । राज्ञा भणितम् न मोक्तव्योऽहमिति । कुमारेण भणितम्-- यद् यूयमाज्ञापयत। राज्ञा भणितम्-'वत्स ! गुरुबहुमानानुरूपं फलं प्राप्नुहोति । नियतावासो भव' इति भणित्वा विसजितः कुमारः । शब्दयित्वा भणितस्तस्य नियुक्तपरिजनः । न युष्माभिर्ममानिवेद्य समागतोऽपि कुमारसत्कः कोऽपि कुमारस्य प्रेषयितव्य इति । तेन भणितम् -- यद्देव आज्ञापयति । अतिक्रान्त: कोऽपि कालः । अन्यदा च कुत्रचिद् विज्ञायतं वृत्तान्तं समागतःप्रधानामात्यपुत्रोऽमरगुरुः । निवेदितो राज्ञाः। शब्दाय यत्वा पूजितस्तेन, भणितश्च स्नेहसारम्- भद्र ! कि बहना जल्पितेन, जो वितादप्यधिको मे कुमारः । प्रतिपन्नं चैतेन, यथा मया त्वं न मोक्तव्यः । ततस्तथाऽनुष्ठातव्यं यथा द्वावप्यावां सुखं तिष्ठाव इति । मन्त्रिपुत्रेण भणितम् -देव ! धन्यः कमारः, यस्य देवोऽप्येवं मन्त्रयते । ततो यदाज्ञप्तं देवेन, अत्र भगवान् विधिरिव उपयुक्तोऽहम् । राज्ञा भणितम् ने कहा-'वत्स ! ये प्राण तुम्हारे हैं, अत: इच्छानुसार दृष्टि रखो।' कुमार ने कहा-'आप माता-पिता हैं।' राजा ने कहा-'कुमार ! माता-पिता के वचनों का उल्लंघन नहीं किया जाता है, अत: मेरे कथनानुसार देवानुप्रिय इसे पूरा करें।' कुमार ने कहा-'पिताजी आज्ञा दीजिए !' राजा ने कहा-'मुझे मत छोड़ना।' कुमार ने कहा-'जैसी आपकी आज्ञा।' राजा ने कहा – 'वत्स ! माता-पिता के सम्मान के अनुरूप फल को प्राप्त करो। नियत रूप से रहने वाले होओ-' ऐसा कहकर कुमार को विदा किया। कुमार द्वारा नियुक्त परिजन को बुलाकर कहा'मुझसे बिना निवेदन किये कुमार के पास आनेवाले को कुमार के पास मत भेजना।' उसने कहा- 'जो महाराज आज्ञा दें।' कछ समय बीत गया। एक बार कहीं से यह वत्तान्त जानकर प्रधानमन्त्री का पुत्र 'अमरगुरु' आया। राजा से निवेदन किया गया। बुलाकर उसने (राजा ने) उसका सत्कार किया और स्नेहयुक्त होकर कहा'भद्र! अधिक कहने से क्या, मुझे कुमार प्राणों से भी अधिक प्रिय है। कुमार ने स्वीकार कर लिया है-मैं तुम्हें नहीं छोडूंगा। अत: वैसा करें जिससे हम दोनों सुख से रहें ।' मन्त्रिपुत्र ने कहा- 'महाराज ! कुमार धन्य हैं, जिसके विषय में महाराज भी ऐसा कहते हैं।' अनन्तर 'महाराज की जैसी आज्ञा, इस विषय में भगवान् ब्रह्मा के समान Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चकहा वडावेह कुमारं एयस्स समागमणेण । गया वद्धावया। भणिो य एसो-भद, कुमारं पेच्छसु त्ति । निग्गओ मंतिपुत्तो, चितियं च णेण-इमं चेव एत्थ पत्तयालं, जमेस राया न परिच्चईयइ त्ति । जओ वसीकयं रज्जं विसेणेण, साणुक्कोसो य कुमारो। तमंतरेण पवज्जमाणेण य पव्वज्ज भणिओ अहं ताएण । 'हारविस्सइ विसेणो रज्जं, पणठं च एवं सेणो उद्धरिस्सइ' ति नेमितियाएसो। पारद्धं च तं विसेणेण, जओ अवमाणिया सामंता, पोडियाओ पयाओ, लंघिओ उचियायारो, बहुमन्निओ लोहो। ता इहेव अवत्थाणं सोहणं ति। एत्यंतरम्मि निवेइयं कुमारस्स, जहा देव, अमच्चपुत्तो अमरगुरू आगओ; संपइ देवो पमाणं त्ति। कुमारेण वद्धावयस्स दाउं जहोचियं भणियं-लहं पवेसेह । हरिसवसेण उढिओ कुमारो, पविट्ठो अमरगुरू, समाइच्छिओ णेण, पुच्छिओ सबहुमाणं- 'अज्ज, कुसलं तायकुमाराणं ।' तेण भणियं-देव, कुसलं । अन्नं च। देव, 'तुम न दिट्टो त्ति संजायनिव्वेओ विसेणस्स रज्जं दाऊण तायप्पमूहप्पहाणपरियणसमेओ पव्वइओ महाराओ। तओ 'अहो ममोवरि सिणेहाणुबंधो तायस्स' त्ति चितिऊण जंपियं कुमारेण-अज्ज, बहुमया विय मे तायपव्वज्जा कुमार वर्धापयत कुमारमेतस्य समागमनेन । गता वर्धापकाः। भणितश्चैषः-भद्र ! कुमारं प्रेक्षस्वेति । निर्गतो मन्त्रिपुत्रः । चिन्तितं च तेन-इदमेवात्र प्राप्तकालम, यदेष राजा न परित्यज्यते इति । यतो वशीकृतं राज्यं विषेणेन, सानुक्रोशश्च कुमारः । तमन्तरेण प्रपद्यमानेन च प्रव्रज्यां भणितोऽहं तातेन । 'हारयिष्यति विषणो राज्यम्, प्रनष्टं चैतत् सेन उद्धरिष्यति' इति नैमित्तिकादेशः । प्रारब्धं तद् विषणेन, यतोऽवमानिता: सामन्ताः, पीडिताः प्रजाः, लङ्कित उचिताचारः, बहुमतो लोभः । तत इहैवावस्थानं शोभनमिति । अत्रान्तरे निवेदितं कुमारस्य, यथा देव ! अमात्यपुत्रोऽमरगुरुरागतः, सम्प्रति देव: प्रमाणमिति । कुमारेण वर्धापकाय दत्त्वा यथोचितं भणितम्-लघु प्रवेशय । हर्षवशेनोत्थितः कुमारः, प्रविष्टोऽमरगुरुः, समागतः (आगतः) तेन, पृष्टः सबहुमानम-आर्य ! कुशलं तातकुमारयोः । तेन भणितम्- देव ! कुशलम्। अन्यच्च, देव ! 'त्वं न दृष्टः' इति सजातनिर्वेदो विषणस्य राज्यं दत्त्वा तातप्रमुखप्रधानपरिजनसमेतः प्रव्रजितो महाराजः । ततोऽहो ममोपरि स्नेहानुबन्धस्तातस्य' इति चिन्तयित्वा जल्पितं कुमारेण-आर्य ! बहुमतेव मे तातप्रव्रज्या मैं उपयुक्त हूँ।' राजा ने कहा-'इन्हें मिलाकर कुमार को बधाई दो।' बधाई देनेवाले गये । इससे (मन्त्रिपुत्र से) कहा-'भद्र ! कुमार को देखो।' मन्त्रिपुत्र निकला । उसने सोचा-अब यही देव आ गया है कि इसे राजा नहीं छोड़ते हैं। विषेण ने राज्य को वश में कर लिया है और कुमार दयायुक्त हैं । कुमार के बिना, दीक्षा लेते हुए पिताजी ने मुझसे कहा था-'विषेण राज्य हार जायगा, नष्ट हुए इस राज्य का सेन उद्धार करेगा'-ऐसा निमित्तज्ञानी का आदेश है । विषेण ने वह प्रारम्भ कर दिया है; क्योंकि सामन्तों का तिरस्कार हुआ है, प्रजा पीड़ित है, उचित आचार का लंघन हुआ है (और) लोभ का सम्मान हुआ है। अतः यहीं रहना ठीक है। इसी बीच कुमार से निवेदन किया गया कि 'महाराज ! मन्त्रिपुत्र अमरगुरु आये हैं, अब महाराज प्रमाण हैं।' कुमार ने वर्धापक (बधाई देनेवाले) को योग्य वस्तु देकर कहा-'शीघ्र प्रवेश कराओ।' हर्षवश कुमार उठ गया, अमरगुरु प्रविष्ट हुआ, कुमार ने अगवानी की, आदरपूर्वक पूछा- 'आर्य ! पिताजी और कुमार दोनों की कुशल है ?' मन्त्रिपुत्र ने कहा-'महाराज ! कुशल है । दूसरी बात यह है महाराज, कि 'आप दिखाई नहीं दिये' अतः जिन्हें वैराग्य उत्पन्न हो गया है ऐसे महाराज, विषेण को राज्य देकर तातप्रमुख प्रधान परिजनों के साथ प्रवजित हो गये हैं। अनन्तर 'ओह मुझ पर महाराज का दृढ़ प्रेम !' ऐसा सोचकर कुमार ने कहा-'कुमार को राज्य प्रदान कर पिताजी की Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो भवो] रज्जपयाणेण । अन्नं च। कुलट्ठिई एसा अम्हाणं, जं रज्जभरधुरक्खमे जुवरायम्मि पव्वज्जापवज्जणं ति । अमच्चपुत्तेण भणियं-जं देवो आणवेइ। कुमारेण भणियं-अवि सुंदरो पयाणं कुमारो। अमच्चपुत्तेण भणियं- देव, सुंदरो; किं तु देवनिगमणेणं महारायपव्वज्जाए य पोडियाओ फ्याओ असामिसालं चिय अत्ताणयं मन्नंति। कुमारेण भणियं-- कहं विसेणकुमारे जीवमाणम्मि असामिसालाओ। एत्थन्तरम्मि छिक्कियं पडिहारेण । 'देवो जीवउ' ति भणियं अमरगुरुणा। फरियं च वामलोयणेणं कुमारस्स । तओ चितियमणेणं-हा किमेयमनिमित्तं ति । अहवा अलमनिमित्तासंकाए; देवयाओ सिवं करिस्संति । भणिया संतिमई- सुंदरि, संपाडेहि कालोचियं अज्जस्स। तीए भणियंजं अज्जउत्तो आणवेइ। काराविया सरीरट्टिई। समप्पिओ निययाहियारो। पडिच्छिओ ण । पउत्ता विसेणरज्जम्मि पणिही । पइदिणं च नियरियणेण पवड्ढमाणस्स' कुमारस्स अइवकतो कोइ कालो। इओ य संतिमई अणेयसउणगणनिसेवियं कलयंठिवालेण सवणसुहयं छप्पयकुलबद्धसंगीयं कमारराज्यप्रदानेन। अन्यच्च, कुलस्थितिरेषाऽस्माकम् , यद् राज्यभरधुःक्षमे युवराजे प्रव्रज्याप्रपदनमिति । अमात्यपुत्रेण भणितम्-यद् देव आज्ञापयति । कुमारेण भणितम्-अपि सुन्दरः प्रजानां कुमारः । अमात्यपुत्रेण भणितम्-देव ! सुन्दर:, किन्तु देवनिर्गमनेन महाराजप्रव्रज्यया च पीडिताः प्रजा अस्वामिशालमिवात्मान मन्यन्ते। कुमारेण भणितम्-कथं विषेणकुमारे जीवति अस्वामिशालाः [प्रजाः] । अत्रान्तरे क्षुत प्रतीहारेण । 'देवो जीवतु' इति भणितममरगुरुणा। स्फुरितं च वामलोचनेन कुमारस्य । ततश्चिन्तितमनेन-'हा किमेतदनिमित्तमिति । अथवा ऽलमनिमित्ताशङ्कया, देवता: शिवं करिष्यन्ति । भणिता शान्तिमती-सुन्दरि ! सम्पादय कालोचितमार्यस्य । तया भणितम् - यदार्यपुत्र आज्ञापयति । कारिता शरीरस्थितिः । समर्पितो निजाधिकारः। प्रतीष्टस्तेन। प्रयुक्ता विष्णराज्ये प्रणिधयः । प्रतिदिन निजपरिजनेन प्रवर्धमानस्य कुमारस्यातिक्रान्तः कोऽपि कालः। इतश्च शान्तिमती अनेकशकुनगणनिषेवितं कलकण्ठी कोलाहलेन श्रवणसुखदं षट्पदकुलदीक्षा का मैं आदर करता हूँ। दसरी बात यह है कि युवराज के राज्यरूपी भार को धारण करने में धुरा के समान समर्थ होने पर राजा का दीक्षा धारण करना-यह हमारे कुल की मर्यादा है।' मन्त्रि पुत्र ने कहा- 'जो महाराज की आज्ञा ।' कुमार ने कहा-'प्रजाओं के लिए कुमार ठीक है ?' मन्त्रिपत्र ने कहा-'महाराज ! ठीक हैं; किन्तु आपके निकलने और महाराज के प्रवजित होने से पीड़ित प्रजा अपने को बिन स्वामी के समान मानती है।' कुमार ने कहा- "विषेण कुमार के जीवित होते हुए प्रजा बिना स्वामी के कैसे है ?' इसी बीच द्वारपाल ने छींका। महाराज जीवित रहें- ऐसा अमरगुरु ने कहा । कमार की बायीं आँख फडकी । तब कुमार ने सोचा-हाय ! क्या अपशकुन है ! अथवा अपशकुन की शंका से बस अर्थात् इस प्रकार की शंका नहीं करनी चाहिए, देवता कल्याण करेंगे। शान्तिमती से कहा-'सुन्दरि ! आर्य का समयानुरूप कार्य करो।' शान्तिमती ने कहा-'जो आर्य पूत्र आज्ञा दें।' भोजन कराया। अपना अधिकार समर्पित किया। उसने स्वीकार किया । कमार ने विषेण के राज्य पर ध्यान दिया। प्रतिदिन अपने परिजनों के साथ बढ़ते हए कमार का कुछ समय बीत गया। इधर शान्तिमती अनेक पक्षिगणों से सेवित, कोयल के कोलाहल से कानों को सुख देनेवाले, भौंरों के १. पवट्टमाणस्स-क। २. •सुहं -- 1 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२ [समराइच्चकहा पुष्फफलनिमियसयसाहं तमालघणभमरंजणसरिसं वणेण पत्तयपयरेण निविवरं-कि बहुणा वायाडम्बरेण तेलोक्कस्स वि नयणमणाणंदयारिणं गयणयलमलिहंतं चितामणिकप्पं कप्पपायवं वयणमयरं पविसमाणं सुमिणयम्सि पासिऊण पडिबुद्धा। हरिसवसपुलइयंगीए सिट्ठो दइयस्स सुमिणओ। तेण वि य पफालवयणकमलेण भणियं-सुंदरि, सयलतइलोक्कपिहणीओ ते पुत्तो भविस्सइ ति। पडिस्सुणेऊण अहिययरं तिवग्गसंपायणरयाए अइक्कंतो कोइ कालो। तओ सोहणे तिहिमुहुत्तनक्खत्तकरणजोए कमेण पसू पा संतिमई । जाओ से दारओ । कथं उचिय करणिज्ज राहणा समरके उणा कुमारेण य । पइट्ठावियं से नामं पियामहसंतियं अमरसेणो त्ति। अन्नया य आगओ चंपाओ अमरगुरुपउत्तो पणिही। निवेइयं च ण, जहा विरत्तमंडलं विसेणं जाणिऊण अयलउरसामिणा मुत्तावीढेण सयमेवागच्छ्यि थेवदियहेहि चेव गहिया चंपा, नट्ठो विसेणो, गहियं च णेण भंडायारं, वसीक्यं रज्जं; संपइ अज्जो पमाणं ति । तओ कुविओ अमरगुरू । साहियमणेणं कुमारस्स । 'पेइयं मे रज्जमवहरियं' ति जाओ से अमरिसो। भणियं--च बद्धसंगोतं पुष्पफनन्यस्तशत शाखं तमालघनभ्रमर जनसदृश वर्णेन पत्रप्रकरेण निविवरम्, कि बहना वाताडम्बरेण त्रैलोक्यस्यापि नयनमनआनन्दकारिण गगनतलमनु ल हन्तं चिन्तामणिकर पं कल्पपादयं वदनेनोदरं प्रविशन्तं स्वप्ने दृष्ट्वा प्र तबद्धा । हर्षवश पुलकिताङ्गया शिष्टो दयितस्य स्वप्नः । तेनापि च प्रफुल्लबदन कमलेन भणितम्-सुन्दरि ! सकल त्रैलोक्यस्पृहणीयस्ते पुत्रो भविष्यात इति । प्रतिश्रुत्याधि कतरं त्रिवर्गसम्प दन रताया अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । तत: शोभने तिथिमुहूर्त नक्षत्रकरणयोगे क्रमेण प्रसूता शान्तिमती । जातस्तस्या दा रकः । कृतमुक्तिकरणीयं राज्ञा समरकेतुना कुमारेण च । प्रतिष्ठापितं तस्य नाम पितामहसत्कममरसेन इति। अन्यदा चागश्चम्पाया अमरगुरुप्रयुक्तो प्रणिधिः । निवेदितं च तेन, यथा विरक्तमण्डलं विषेणं ज्ञात्वा अचलपुर स्वामिना मुक्तापोठेन स्वयमेवार त्य स्तोक दिवसरेव गृहीता चम्पा, नष्टो विषेणः, गहीतं च तेन भाण्डागारम्, वशीकृतं राज्यम्, सम्प्रति आर्यः प्रमाणमिति । तत: कुपितोऽम र गुरुः । कथित पनेन कम रस्य । पतक मे राज्य मपहृतम्' इति जातस्तस्यामर्षः । भणितं च तेन-आर्य ! को समूह द्वारा जहाँ संगीत हो रहा था, जिसकी सैकड़ों शाखाएँ फूल और फलों को धारण किये हुए थी, रंग में तमाल, मेघ, भ्रमर और अंजन के समान काले वर्णवाले पत्तों के समूह से जो छिद्र रहित था; अधिक कहने से क्या, वायु के आरम्भ से तीनों लोकों के नेत्रों और मनों को आनन्द देनेवाले, आकाशतल को छनेवाले, चिन्तामणिरत्न के सदृग कल्पवृक्ष को स्वप्न में मुंह से उदर में प्रवेश करते हुए देखकर जाग गयी। हर्षवश जिसके अंग पुलकित हो रहे थे, ऐसी शान्तिमती ने पति से स्वप्न निवेदन किया। उसने भी खिले हए मुखक वाला होकर कहा- 'सुन्दरि ! समस्त त्रैलोक्य स्पृहणीय तुम्हारा पुत्र होगा।' स्वीकार कर अत्यधिक रूप से धर्म, अर्थ, कामरूप त्रिवर्ग के सम्पादन में रत रहते हुए इसका कुछ समय व्यतीत हो गया। अनन्तर शुभतिथि, मुहूर्त, नक्षत्र और करण के योग में क्रमश: शान्तिमती ने प्रसव किया। उसके पुत्र उत्पन्न हुआ । राजा समरकेतु और कुमार ने उचित कार्यों का सम्पादन किया। पितामह के समान उसका नाम अमरसेन रखा गया। एक बार चम्पा से अमरगुरु के द्वारा भेजा हुआ गुप्तचर आया और उसने निवेदन किया कि विषेण को राज्य से विरक्त हुआ जान अचलपुर के स्वामी 'मुक्तापीठ' ने स्वयं आकर थोड़े ही दिनों में चम्पा ले ली, विषेण नष्ट हुआ। मुक्तापीठ ने भण्डार ले लिया, राज्य को अधिकार में कर लिया। अब आप ही प्रमाण हैं। अनन्तर अमर गुरु कुपित हुआ । इसने (अम गुरु ने) कुमार से कहा । 'मेरा पैतृक राज्य छीन लिया' इस प्रकार Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो भवो ] - अज्ज, को मए जीवमाणम्मि कुमारं परिहवइ । कस्स वा विसमदसाविभाओ न होइ । ता न संतपव्वं अज्जेण । पट्टावेमि थेव दियहे हि' चेव कुमारं नियरज्जे । एत्थं तरम्मि गुलुगुलियं मत्तवारणेण, 'जयउ देवो' त्ति जंपियं अमरगुरुणा, फुरिओ दक्खिणभुओ कुमारस्स । तओ चितियमणेणं - जिओ कुमार परिहवणसोलो अयलउरसामी । भणिओ य अमरगुरू- अज्ज, निवेएहि एवं वृत्तंतं महारायस्स | विन्नवेहि एयं, जहा एवं ववत्थिए तुम्भं समाएसेण अवस्सं मए गंतव्वं ति । farasi अमरगुरुणा । कुबिओ समरकेऊ । भणियं च णेणं- भद्द, न एस कुमारस्स परिहवा, अवि यमज्झति । ता अलं तमंतरेण संरंभेणं । विक्खेवसज्भो खु एसो । पेसेमि य अज्जेव तत्थ विक्खेवं ति । अमच्चपुत्तेण भणियं देव, एवमेयं, तहा वि गहिओ कुमारी अमरिसेणं । ता सो चैव विक्खेवसामी पेसोयउ त्ति । समरकेउणा भणियं - भद्द, जं बहुमयं कुमारस्स । दिन्नो पहाणविक्खेवो । तओ अमरसवसे रायाणं पणमिय तम्मि चेव दिवसे चलिओ कुमारी । कहं मयि जीवति कुमारं परिभवति । कस्य वा विषमदशाविभागो न भवति । ततो न सन्तपितव्यमार्येण । प्रतिष्ठापयामि स्तोकदिवसंरेव कुमारं निजराज्ये । अत्रान्तरे गुलुगुलितं मत्तवारणेन, 'जयतु देवः ' इति जल्पितममरगुरुणा, स्फुरितो दक्षिणभुजः कुमारस्य । ततश्चिन्तितमनेन । जितः कुमारपरिभवनशोलोवल पुरस्वामी । भणितश्चामरगुरुः- आर्य ! निवेदयतं वृत्तान्तं महाराजस्य । विज्ञपर्यंतम्, यथे व्यवस्थिते युष्माकं समादेशेनावश्यं मया गन्तव्यमिति । निवेदितसमरगुरुणा । कुपितः समरकेतुः । भणितं च तेन-भद्र ! नैष कुमारस्य परिभवः, अपि च ममेति । ततोऽलं तदन्तरेण ( तत्सम्बन्धिना ) संरम्भेण ( गमनोद्योगेन) । विक्षेप (सैन्य) साध्यः खल्वेषः । प्रेषयामि च अद्यैव तत्र विक्षेपमिति (सैन्यमिति ) । अमात्यपुत्रेण भणितम् - देव ! एवमेतद्, तथापि गृहीतः कुमारोऽमर्षेण । तत स एव विक्षेपस्वामी प्रेष्यतामिति । समरकेतुना भणितम्[-भद्र ! यद् बहुमतं कुमारस्य । दत्तः प्रधानविक्षेपः । ततोऽमर्षवशेन राजानं प्रणम्य तस्मिन्नेव दिवसे चलितः कुमारः । कथम् - ६३३ उसे दुख हुआ । उसने कहा- 'आर्य मेरे जीवित रहते हुए कौन कुमार का तिरस्कार करता है । अथवा विषम दशा किसकी नहीं होती है ? अतः आर्य दुःखी न हों। कुमार को थोड़े ही दिनों में अपने राज्य पर बिठाऊँगा।' इसी बीच मतवाले हाथी ने दहाड़ा। 'महाराज की जय हो' - अमरगुरु ने कहा । कुमार की दायीं भुजा फड़की । अनन्तर इसने सोचा- कुमार का तिरस्कार करनेवाला अचलपुर का स्वामी जीत लिया गया | अमरगुरु से कहा - 'आर्य' ! इस वृत्तान्त को महाराज से निवेदन करो। यह निवेदन करो कि ऐसी स्थिति में • आपकी आज्ञा से मुझे अवश्य जाना होगा ।' अमरगुरु ने निवेदन किया। समरकेतु कुपित हुआ और उसने कहा-'भद्र ! यह कुमार का तिरस्कार नहीं; अपितु मेरा है । अत: उसके गमन के उद्योग से कोई लाभ नहीं। यह सेना द्वारा साध्य है। आज ही वहाँ पर सेना भेजता हूँ ।' मन्त्रिपुत्र ने कहा - 'महाराज ! यह ठीक है; तथापि कुमार क्रुद्ध हो गये हैं, अतः उन्हें ही सेनापति के रूप में भेजिए।' समरकेतु ने कहा- 'भद्र ! जो कुमार को स्वीकार हो ।' प्रधान सेना दे दी । अनन्तर राजा को प्रणाम कर क्रोधवश कुमार उसी दिन चल पड़ा। कैसे - १. | Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइकहा ६३४ चलिओ चलंतचामरगमणंदोलंतकुंडलसणाहो। ऊसियसियायवत्तो रायगइंदं समारूढो ॥५६२॥ सियवरवसणनिवसणो सियमुत्ताहारभूसियसरीरो। सियकुसुमसेहरो सियसुर्यधहरियंदणविलित्तो ॥५६३॥ सामंतेहि समेओ दोघट्टतुरंगरहवरसएहि। नीसरिओ नयराओ इंदो व्व सुरोहपरिवारो॥५६४॥ तूररववहिरियदिसं बंदिसमुग्घटुविविहजयसई। अहिवंदिऊण पुरओ कंचणकलसं सलिलपुण्णं ॥५६५॥ सोऊण पडहसई विलयायणहिययदूसहं तुरियं । आयण्णिउ च वयणं एस कुमारो पयट्टो त्ति ॥५६६॥ तो भरिया निवमग्गा निरंतरूसियसियायवत्तेहि। खयकालखुहियखोरोयसलिलनिवहेहि व बलेहि ॥५६७॥ चलितश्चलच्चामरगमनान्दोलयत्कुण्डलसनाथः । उच्छितसितातपत्रो राजगजेन्द्रं समारूढः ।।५६२।। सितबरवसननिवसनः सितमुक्ताहारविभूषितशरीरः । सितकुसुमशेखरः सितसुगन्धहरिचन्दनविलिप्तः ।। ५६३।। सामन्तैः समेतो दोघट्ट (हस्ति) तुरङ्गरथवरशतैः । निःसतो नगराद् इन्द्र इव सुरौघपरिवारः ।।५९४॥ तूर्य रववधिरितदिशं बन्दिस पद्घष्टविविधजयशब्दम । अभिवन्द्य पुरतः काञ्चनकलशं सलिलपूर्णम् ॥५६५॥ श्रुत्वा पटहशब्दं वनित जनहृदयदुःसहं त्वरितम् ।। आकर्ण्य च वचनं एष कुमारः प्रवृत्त इति ॥५६६॥ ततो भृता नृपमा निरन्तरोछितसितातपत्रैः । क्षयकालक्षब्धक्षीरोदस लिल निव हैरिव बलैः ।।५६७॥ गमन करते समय वह हिलते हुए कुण्डलों से युक्त था, उसका चंचल चंवर चलायमान हो रहा था। उसके ऊपर सफेद छत्र लगा हुआ था, वह राजकीय हाथी पर सवार था। अत्यधिक सफद वस्त्र पहिने था। सफेद मोतियों के हार से उसका शरीर विभूषित था। सिर पर सफेद सेहरा था। सफेद सुगन्धित हरिचन्दन का उसके ऊपर लेप किया गया था। संकड़ों हाथी, घोड़े, रथ तथा सामन्तों से युक्त वह देवताओं से घिरे हुए इन्द्र के समान नगर से निकला। उस समय बाजों के शब्द से दिशाएँ बधिर हो रही थीं, बन्दिजन नाना प्रकार से जय-शब्द उच्चार रहे थे । नारी हृदय के लिए दुःसह नगाड़े के शब्द को सुनकर स्त्रियाँ सामने जल से पूर्ण स्वर्णमयी कमशों से अभिनन्दन कर रही थीं। 'यह कुमार चल पड़ा'---यह वचन सुनाई दे रहा था। प्रलयकाल में क्षुध क्षीरसागर के जलसमूह के समान सेनाओं के निरन्तर उठे हुए सफेद छत्रों से राजपथ भरे हुए थे ॥५६२-५६७।। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमों भवो] ६३५ पेल्लेसि' अइतुरंतो कोस ममं कि न पेच्छसि च्चेयं । गरुयगयगज्झिउप्पित्थवुण्णतुरयं रह पुरओ ॥५६८।। मह रुंभिऊण पंथं हरिसोल्लेंतस्स रूससे कोस । एंतमणुमग्गलग्गं न पेच्छसे मत्तमायंगं ॥५६६॥ खंचियखलोणतुरयं खणंतरं कुणसु सारहि रहं ता। जा जाइ एस पुरओ निब्भरमयमंथरं हत्थी ॥६००।। इय निताणं ताहे रायपहेसु विउलेसु वि नराणं। करिरहसंकडपडियाण पायडा आसि आलावा ॥ ६०१॥ अह बलसमुक्यसहियस्स तस्स नयराउ निम्फिडंतस्स। निग्घोसपूरियदिसं गुलुगुलियं वाणिदेणं ॥६०२।। जय कुमारो ति तओ हरिसभरिजंतसव्वगतेहिं । भणियमह सेणिएहिं अहवा को एत्थ संदेहो ॥६०३॥ पीडयसि अतित्वरमाणः कलमाद् मम किं न प्रेक्षसे चैतम् । गुरुकगजगजितव्याकुल भीत'तुरगं रथ पुरतः ॥५६८।। मम रुद्ध्वा पन्थानं हर्षोल्लसतो रुष्यसि कस्मात् । यन्तमनुमार्गलग्न न प्रेक्षसे मत्तमातङ्गम् ॥५६॥ आकृष्टखलीनतुरगं क्षणान्तरं कुरु सारथे ! रथं ततः । यावद् याति एष पुरतो निर्भरमदमन्थरं हस्ती ।।६००॥ इति गच्छतां तदा राजपथेषु विपुलेष्वपि नराणाम् । करिरथसङ्कटपतितानां प्रकटा आसन् आलापाः ॥६०१।। अथ बलसमुदायसहितस्य तस्य नगराद् निष्फेटयत: (निष्कामतः)। निर्घोषपूरितदिशं गुलुगुलितं (गजितं) वारणेन्द्रेण ॥६०२॥ जयति कुमार इति ततो हर्षभ्रियमाणसर्वगात्रंः । भणितमथ सैनिकैरथवा कोऽत्र सन्देहः ।।६०३।। अत्यन्त जल्दी करते हुए मुझे क्यों पीड़ित कर रहे हो ? क्या भारी हाथी की इस गर्जना से आकुल भयभीत घोड़े के रथ को नहीं देख रहे हो? हर्ष और उल्लासवश मेरा मार्ग रोक कर क्यों रुष्ट हो रहे हो? उस मार्ग में लगे हुए मतवाले हाथी को नहीं देख रहे हो ? घोड़ों की लगाम खींचकर हे सारथी, रथ को कुछ समय के लिए दूर कर दो; जिससे कि यह अत्यधिक मद से मन्थर हाथी सामने जा सके। इस प्रकार विस्तीर्ण राजपथों में जब मनुष्य जा रहे थे तब हस्तिरथ से घिरने के कारण गिरे हुए लोगों की बातचीत प्रकट हो रही थी। अनन्तर सैन्यसमूदायसहित उस नगर से निकलते हए गजेन्द्र ने अपने निर्घोष से दिशाओं को पूर्ण कर दिया। हर्ष से जिसका सारा शरीर भरा हुआ था ऐसे सैनिकों ने 'कुमार की जय हो'-कहा। अथवा इसमें सन्देह ही क्या है? ॥५६८-६०३॥ १. पल्पेहिसि-ख । .. उप्पिथ (दे.) व्याकुलः । 'आउल साहित्य उम्पीय'-(पायलच्छी, ४७५)। ३. बुन्न (दे.) भीतः। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चकहा 'पत्तो य विसयसंधि अणवरयपयाणएहि इयरो वि। दरिओ मुत्तावीढो समागयो नवर तत्थेव ॥६०४॥ एत्थंतरम्मि दूओ पट्टविओ तस्स अह कुमारेण । भणिऊण भणिइकुसलो वयणमिणं नीइसारेणं ॥६०५॥ मोत्तण पेइयं मे रज्जं निययं च जाहि किं बहुणा। इय मज्झ होइ पोई ठायसु वा जुज्झसज्जो त्ति ॥६०६॥ गंतण तेण भणिओ मुत्तावीढो ससंभमं एयं । भणियं च तेण वि इमं सकक्कसं वंकणिईए॥६०७॥ एवं चिय तुह पोई होइ वियाणामि निच्छियं एयं । किं पुण मए न गहियं रज्जमिणं मोयणटाए ॥६०८।। जुज्झेण उ अप्पीई तुझं तुह जाइयाण य भडाणं । जमलोयदंसणभया तहवि ठिओ जुज्झसज्जो म्हि ॥६०६॥ प्राप्तश्च विषयसन्धिमनवरतप्रयाणकैरितरोऽपि । दृप्तो मुक्तापीठ: समागतो नवरं तत्रैव ॥६०४॥ अत्रान्तरे दूतः प्रस्थापितस्तस्याथ कुमारेण । भणित्वा भणितिकुशलो वचनमिदं नीतिसारेण ॥६०५।। मुक्त्वा पैतृकं मे राज्यं निजकं (राज्य) च याहि किं बहुना । इति मम भवति प्रीतिः तिष्ठ वा युद्धसज्ज इति ॥६०६॥ गत्वा तेन भणितो मुक्तापीठ: ससम्भ्रममेतत्। भणितं च तेनापीदं सकर्कशं वक्रभणित्या ॥६०७।। एवमेव तव प्रीतिर्भवति विजानामि निश्चितमेतद् । किं पुनर्मया न गृहीतं राज्यमिदं मोचनार्थम् ॥६०८॥ युद्धेन तु अप्रीतिस्तव तव याचितानां च भटानाम् । यमलोकदर्शनभयात् तथापि स्थितो युद्धसज्जोऽस्मि ॥६०६।। निरन्तर प्रयाण करते हुए देश की सीमा पर पहुँचे। दूसरा (राजा) गर्वीला मुक्तापीठ भी वहीं आ गया। इसी बीच कुमार ने सूक्तिनिपुण दूत को इन वचनों को कहकर भेजा कि अधिक कहने से क्या, 'मेरे पैतृक राज्य को छोड़कर अपने राज्य को जाओ। इस प्रकार मुझे प्रीति होगी। यदि ठहरते हो तो युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।' उसने जाकर मुक्तापीठ से शीघ्र ही यह समाचार कह दिया। मुक्तापीठ ने कर्कशयुक्त कुटिल वाणी में यह कहा-'इसी तरह तुम्हें प्रीति होगी' यह निश्चितरूप से जानता है। परन्तु मैंने इस राज्य को छोड़ने के लिए ग्रहण नहीं किया है। युद्ध से अप्रीति तो तुम्हें और तुम्हारे मांगे हुए सैनिकों को है; क्योंकि तुम्हें यमलोक के दर्शन से भय है। फिर भी यदि तुम ठहरे रहते हो तो मैं युद्ध के लिए तैयार हूँ।' ॥६०४-६०६॥ १. तो रोसाइस एण अक्खलियपयाणएहि सो धीरो। पत्तो हु विसयमधि दुमासमेत्तेण कालेण ॥ नाउ सेणागमणं अणवरयपयाणएहि चंपाओ । दरियो...-क। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो भवो ] कुविओ य तओ दूओ जमलोयं पत्थिओ तुमं नूणं । रोडिसि जो कुमारं इय भणिउं निग्गओ चेव ॥ ६१०॥ आगंतून य सिट्ठ सयराहं चैव अमरिसवसेण । परिक्के नरवइणो जहट्टियं चेव दूएण || ६११॥ सोऊण इमं वयणं विरसं दूयमुहनिग्गयं तस्स । हिययम्मि तक्खणं चिय अहियं कोवाणलो 'जाओ ॥७१२ ॥ धीरधरिओ वि रोसो कहवि पयत्तेण निययहिययम्मि । विसमफुरियाहरोट्ठे पायडभिउडीए पायडिओ ॥ ६१३ ॥ जायं च पयइसोमं पि भीसणं तक्खणम्मि से वयणं । कोवाण दुप्पेच्छं पलयम्मि मियंकबिम्बं व ॥ ६१४।। हंतूण करेण करं कहकहवि खलंतवण्णसंचारं । भणियं च णेण अम्ह वि मणोरहो चेव एसो ति ॥ ६१५ ।। कुपितश्च ततो दूतो यमलोकं प्रस्थितस्त्वं नूनम् । रोडसि' (अनाद्रिय से ) यः कुमारं इति भणितं निर्गत एव ॥ ६१० ॥ आगत्य च शिष्टं शीघ्रमेवामर्षवशेन । परिरिक्ते नरपतेर्यथास्थितमेव दूतेन ।।६११॥ श्रुत्वेदं वचनं विरसं दूतमुखनिर्गतं तस्य । हृदये तत्क्षणमेवाधिकं कोपानलो जातः ।। ६१२।। धैर्यं धृतोऽपि रोषः कथमपि प्रयत्नेन निजहृदये । विषमस्फुरिताधरोष्ठं प्रकटभृकुट्या प्रकटितः ।। ६१३॥ जातं च प्रकृतिसौम्यमपि भीषणं तत्क्षणे तस्य वदनम् ॥ कोपा दुष्प्रेक्षं प्रलये मृगाङ्कबिम्बमिव ।। ६१४ ॥ हत्वा करेण करं कथं कथमपि स्खलद्वर्णसञ्चारम् । भणितं च तेनास्माकमपि मनोरथ एव एष इति ॥ ६१५ ।। तब दूत क्रुद्ध होकर - 'तुम कुमार का अनादर कर रहे हो अतः निश्चित रूप से यमलोक में जाओगे' -- यह कह कर निकल गया । अमर्ष के वश होकर दूत ने शीघ्र ही राजा से यथास्थित बात कह सुनायी । दूत के से निकले हुए इस विरस वचन को सुनकर उसके हृदय में उसी क्षण अत्यधिक क्रोधाग्नि उत्पन्न हुई। अपने हृदय में प्रयत्न से धैर्यपूर्वक धारण किया भी रोष विषमरूप से फड़कते हुए अधरोष्ठ तथा प्रकट हुई भृकुटी से प्रकट हो गया । स्वभाव से सौम्य भी उसका मुख उसी क्षण भीषण हो गया । प्रलयकाल में चन्द्रबिम्ब के समान मुख रूपी अग्नि के कारण उसका मुख कठिनाई से देखा जानेवाला हो गया। हाथ से हाथ को मारकर फिसलती हुई जबान से उसने कहा कि हमारा भी यही मनोरथ है ।। ६१०-६१५।। १. जलिओक । २. रोड् अनादरे हैमधातुपाठः । ६३७ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३८ बिदियहम्मि घट्टो दोसु वि य बलेसु तह य संगामो । गया कया पसाया दोहि वि सुहडेहि भिच्चाणं ॥ ६१६ ॥ दाणं च बहुविष्पं दिन्नं दीणस्स अत्थिनिवहस्स । रणक्खिसंठियाणं तुरियं रयणी अइक्कंता ॥। ६१७ ।। ताव य विसालभयगलगलंतमय सलिलपसमियरयाई । पुल इयतरल तुरंगमगमण विसंवइयचंदाई' ॥ ६१८ ॥ पढमपट्ठियसा रहिरहरहसारूढपत्थिवसयाइं । निसियासितपट्टि समऊहविज्जो वियदिसाई' ॥ ६१६॥ धुवंतधवलधय वडचलिरबला ओलिजनियसंकाई । उद्दामसद्द बंदिणवंद्रसमुग्घुटुनामाई ॥ ६२० ॥ पपडपडहपडिरवभरिय दिसायक्क बहिरियजयाई । सामिपसायवसाइयपत्तिसमभिन्नपुलयाई ।। ६२१॥ fatafat घोषितो द्वयोरपि च बलयोस्तथा च संग्रामः । गुरुकाः कृताः प्रसादा द्वयोरपि सुभटैर्भृत्यानाम् ।।६१६ ॥ दानं च बहुविकल्पं दत्तं दीनस्यार्थिनिवहस्य | रणदीक्षा संस्थितानां त्वरितं रजन्यतिक्रान्ता ॥ ६१७॥ तावच्च विशाल मदकलगलद्द्मदस लिल प्रशमितरजस्कानि । पुलकिततरलतुरङ्गमगमनविसंवादित चन्द्राणि ।। ६१८ ॥ प्रथमप्रतिष्ठितसारथिरथ रभसारूढपार्थिव शतानि । निशिता सिकुन्तपट्टिशमयूख विद्योतितदिशानि ॥६१६ ॥ धूयमानधवलध्वजपटचलद्वलाकालिजनितशङ्कानि । उद्दामशब्द बन्दिवन्द्रसमुद्घोषितनामानि ॥ ६२० ॥ पहतपटुपटहप्रति रवभृतदिक्चक्रवधिरितजगन्ति । स्वामिप्रसादप्रसादितपार्थिवसमुद्भिन्नपुलकानि ॥ ६२१॥ दूसरे दिन दोनों सेनाओं का संग्राम घोषित हुआ। दोनों ओर के सुभटों ने भृत्यों पर अत्यधिक कृपा की और दीन व्यक्तियों तथा याचकों को अनेक प्रकार का दान दिया । रणदीक्षा में स्थित हुए लोगों की शीघ्र ही रात्रि बीत गयी । विशाल मतवाले हाथियों के गण्डस्थलों से गिरते हुए मद के जल से धूलि शान्त हो गयी । पुलकित चंचल घोड़ों के गमन से चन्द्र निराश हो गया । जिन पर पहले से सारथी बैठे हुए थे ऐसे रथों पर वेग से सैकड़ों राजा बैठ गये । तीक्ष्ण तलवार, कुन्त और भालों की किरणों से दिशाएँ चमक उठी । फहराती हुईं सफेद ध्वजाओं के वस्त्र चलती हुई बगुलों की पंक्ति की शंका उत्पन्न कर रहे थे। बन्दिसमूह के उत्कट शब्दों से नामों की घोषणा हो रही थी । पीटे गये विशाल नगाड़े की प्रतिध्वनि से भरी हुई दिशाओं के कारण संसार बहरा हो रहा था । स्वामी की कृपा से प्रसन्न हुए राजाओं के रोमांच प्रकट हो रहा था ।। ६१६-६२१ ।। १. चंहाईक । २. नहाई - क । [ समराइच्चकहा Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो भवो] ६३१ सूरुग्गमवेलाए धणियं अन्नोन्नबद्धवेराई। आवडियाइ सहरिसं परोप्परं दोन्नि वि बलाइं॥ ६२२॥ जायं च महासमरं सरनियरोत्थइय नहयलाभोयं । निसियासिपहरदारियपडतवरदरियपाइक्कं ॥६२३॥ तुरयारूढमहाभडसेल्लसमुभिन्नमत्तमायंगं । मायंगचलणचमढणभीयविसटतभीरुजणं ॥६२४॥ रहसारहिधणुपेसियखुरुप्पछिज्जंतछत्तधयनिवहं । निवहट्ठियनियसाहणसरहससम्मिलियनरणाहं ॥६२५।। एहि इओ कि इमिणा हक्कारिज्जंतलियभडनियरं । अन्नोन्नगंर्धाजघणमच्छरियपहावियगइंदं॥६२६॥ परितसुहडपुलइयरुहिरारु विसमच्चिरकबंधं । अन्नोन्नरहसपरिणयगइंदरचलित इंधं ॥६२७॥ सूरोद्गमवेलायां गाढमन्योन्यबद्धबैराणि । आपतितानि सहर्ष परस्परं द्वयोरपि बलानि ॥६२२॥ जातं च महासमरं शरनिक रोत्स्थगितनभस्तलाभोगम् । निशितासिप्रहारदारितपत दुरदप्तपदातिकम् ॥६२३॥ तुरगारूढमहाभट कुन्तसमुदभिन्नभत्तमातङ्गम् । मातङ्गचरणमर्दनभीतपतझोरुजनम् ॥६२४॥ रथसारथिधनुःप्रेषितक्षरप्र (बाणविशेष) छिद्यमानछत्रध्वजनिवहम् । निवहस्थितनिजसाधनसरभससम्मिलितनरनाथम् ॥६२५॥ एहि इतः किमनेन [इति] आकार्यमाण वलितभटनिकरम् । अन्योन्यगन्धघ्राणमत्सरितप्रधावितगजेन्द्रम् ॥६२६॥ परितुष्टसुभटपुलकितरुधिरारुणविषमनत्यत्कबन्धम् । अन्योन्य रभसपरिणतगजेन्द्रविगलद्भटचिह्नम् ॥६२७॥ सूर्योदय की वेला में एक दूसरे के प्रति गाढ़ वर में बंधी दोनों ओर की सेनाएँ हर्षित होती हुई आ गयीं और परस्पर महायुद्ध आरम्भ हो गया। उस समय आकाश का विस्तार बाणों से स्थगित हो गया, तीक्ष्ण तलवारों के प्रहार से विदीर्ण हुए श्रेष्ठ अभिमानी पैदल सिपाही गिरने लगे। घोड़े पर सवार महायोद्धाओं के कुन्तों (भालों) से मतवाले हाथी भिद गये। हाथियों के पैरों तले दबने से भयभीत हए डरपोक आदमी गिरने लगे। रथों के सारथियों के धनुषों से प्रेषित क्षुरप्र नामक बाणविशेषों से ध्वजाओं का समूह छिदने लगा। समूह में स्थित राजा अपनी सेना से शीघ्र मिलने लगा। इससे क्या, इधर आओ-इस प्रकार योद्धाओं का समूह मुड़कर (एक-दूसरे को) बुलाने लगा। एक दूसरे की गन्ध को सूंघने से मात्सर्ययुक्त हुए हाथी दौड़ने लगे। सन्तुष्ट हुए योद्धाओं के खून से लाल धड़ पुलकित हो विषम नृत्य करने लगे। हाथियों के एक दूसरे पर वेग से झपटने के कारण योद्धाभों के चिह्न नष्ट हो गये ॥६२२-६२७॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४० [समराइच्चकहा आमिसगंधवसागयबहुरावारावबहिरियदियंतं। बहुकंकगिद्धवायससहस्ससंछाइयनहग्गं ।। ६२८॥ एवंविहम्मि समरे मत्तावीडेण दप्पियं पि दढं। उठेऊण य निहयं' सेणबलं अमरिसवसेण ।।६२६॥ भग्गम्मि सेणराया बंदिसमग्घटुपवरनियगोत्तो। समुवढिओ समाहयतूररवप्फुग्णसव्वदिसं ॥६३०।। आवडियं तेण समं तो समरं मुक्कतियसकुसुमोहं । पडिभडसंघडियभडोहसंकुलं तक्खणं चेव ॥६३१॥ आयण्णायढियजीवकोडिचक्कलियचावमक्केहि। अप्फण्णं गयणयलं सरेहि घणजलहरेहि व ।। ६३२।। वरतुरयखरखुरुक्खयधरणिरओहेण' ठइयसुरसिद्धं । संजणियबहलतिमिरं भरियाइ नहंतरालाई ॥६३३॥ आमिषगन्धवशागत बहुरावारावबधिरितदिगन्तम् । बहुकङ्कगृध्रवायससहस्रसंछादितन मोऽग्रम् ॥६२८।। एवं विधे समरे मुक्तापीठेन दर्पितमपि दृढम् । उत्थाय च निहतं सेनबलममर्षवशेन ॥६२६॥ भग्ने (सैन्ये) सेनराजो बन्दिसमुद्घोषितप्रवरनिजगोत्रः । समुपस्थित: समाहततूर्यरवापूर्णसर्वदिशम् ॥६३०॥ आपतितं तेन समं ततः समरं मुक्तत्रिदशकुसुमौघम् । प्रतिभटसंघटितभटौघसंकुलं तत्क्षणमेव ।।६३१॥ आकर्णाकृष्टजीवाकोटिवक्रीकृत चापमुक्तः । आपूर्ण गगनतलं शरैर्घनजलधरैरिव ।।६३२।। वरतुरगखरखुरोत्खातधरणीरजओघेन स्थगितसुरसिद्धम् । सञ्जनितबहलतिमिरं भृतानि नभोऽन्तरालानि ।'६३३॥ ___ मांस की गन्ध के वश आये हुए, अनेक प्रकार के शब्दों से दिशाओं के छोर को बहरा करते हुए, कई हजार कंक, गीध और कौओं से आकाश का अग्रभाग ढक गया। इस प्रकार के युद्ध में मुक्तापीठ अत्यधिक गर्वयुक्त हो क्रोधवश बढकर सेना को मारने लगा। सेना के नष्ट होने पर बन्दियों द्वारा जिसके उत्कृष्ट स्वकीय गोत्र की घोषणा की गयी थी ऐसा सेन राजा बजाये हुए वाद्यों के शब्द से दिशाओं को पूरता हुआ उपस्थित हुआ। अनन्तर मुक्तापीठ के साथ उसका युद्ध हुआ। देवताओं ने फूल बरसाये । योद्धाओं का समूह उसी क्षण प्रतिपक्षी योद्धाओं से भिड़कर व्याप्त हो गया। कानों तक खींची गयी प्रत्यंचा के कारण गोलाकार हुए धनुषों से छोड़े गये बाणों से आकाशतल उसी तरह व्याप्त हो गया, जिस तरह घने मेघों से व्याप्त हो जाता है। श्रेष्ठ अश्वों के खुरों से ऊपर उड़ी हुई धरातल की धूलि-समूह से सुर और सिद्धों (के मार्ग) अवरुद्ध हो गये, गहरा अन्धकार आकाश के अन्तरालों में भर गया ॥६२८-६१३॥ १. भगक । २. क्या-क । १. बहराता (दे.) गाली । ४, अपकलिय (ई.) मन:। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो भवो] ६४१ अन्नोन्नावडणखणक्खणंतकरवालनिवहसंजणिओ। तडिनियरो व्व समंता विप्फुरिओ सिहिफुलिंगोहो ॥६३४॥ रणतूररवायण्णणदूरुद्धयघोलिरग्गघोरकरा। मेह व्व गलगलिता रसिसु वरमत्तमायंगा ।। ६३५॥ तिक्खखुरुप्पुक्खुडिया रहाण धुव्वतया चिरं नट्ठा । सरघणजालंतरिया धवलधया रायहंस व्व ॥६३६।। सुहडासिवियडदारियकुभयडा गरुयजलयनिवह व्व । वरिसिसु वरगइंदा जलं व मुत्ताफलुग्घायं ।। ६३७॥ निहयहयह त्थिपाइक्कचक्कवणविवरनिज्झरपलोट्टा। वरभडसीसुक्कत्तियसिरयसमुल्लसियसेवाला ॥६३८॥ मायंगकरफालणविसमसमुत्थल्लहल्लिरतरंगा। गयदंतावरवडिया लोलंतच्छलियडिण्डीरा ॥६३६॥ अन्योन्यापतनखणखणत्करवालनिवहसञ्जनितः । तडिन्निकर इव समन्ताद् विस्फुरितः शिखिस्फुलिङ्गौघः ।।६३४।। रणतूर्य रवाकर्णनदूरोद्धतभ्राम्यदग्रघोरकराः । मेघा इव गलुगुलन्तोऽरसिषुर्मत्तमातङ्गाः ॥६३५।। तीक्ष्णक्षरप्रोत्खण्डिता रथानां धूयमानाश्चिरं नष्टा । शरघनजालान्तरिता धवलध्वजा राजहंसा इव ॥६३६।। सुभटासिविकटदारितकुम्भतटा गुरुकजल दनिवहा इव । अवषिपुर्वरगजेन्द्रा जलमिव मुक्ताफलोद्घातम् ।। ६३७।। निहत यहस्तिपदातिचक्रवणविवरनिर्झरपर्यस्त।। वरभट शीर्षोत्कतितशिरोजसमुल्लसित शेवाला ।।६३८।। मातङ्गकरास्फालनविषमसमुच्छलच्चलत्तरङ्गा। गजदत्तावरपतिता लोलदुच्छलितडिण्डीरा ॥६३६।। एक दूसरे पर गिरायी हुई 'खन खन' करती तलवारों के समूह से उत्पन्न अग्नि की चिनगारियाँ चारों ओर विजली के समूह के समान चमक उठी । युद्ध के वाद्यों को सुनकर अपनी विकट संडों को ऊपर उठाकर घमाते हए मतवाले हाथी अत्यधिक शब्द करने वाले मेघों के समान दहाडने लगे। रथों की फहराती हई सफेद ध्वजाएँ पैने क्षुरप्र नामक वाणों से उखाड़ी जाती हुई, बाणरूपी मेघसमूह में छिपे हुए राजहंसों की तरह चिरकाल के लिए नष्ट हो गयीं। योद्धाओं की तलवारों से जिनका भयंकर कुम्भस्थल विदीर्ण कर दिया गया था, ऐसे उत्तम हाथी भारी मेघसमूह के द्वारा की गयी जलवृष्टि के समान मोतियों के समूह वी वर्षा करने लगे । मारे गये घोड़े, हाथी तथा पैदल सैनिक-समूह के घावों के छिद्रों से झरने बहने लगे। श्रेष्ठ योद्धाओं के सिरों के काटे गये बाल शैवाल की तरह प्रतीत होने लगे। हाथियों द्वारा सूड़ों के चलाने से भयंकर चंचल तरंग उछलने लगीं। श्रेष्ठ हाथीदांतों के गिरने से चंचल फेनपिराड़ उछलने लगे ॥६३४-६३६॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ [समराइच्चकहा कंजरवरवियडतडा विउडियभडविडवपायडियकला। करिमयपंकक्खउरा' रुहिरवसावाहिणी बूढा ॥६४०।। इय भोसणसंगामे जलहरसमए व्व निहयनियसेन्ने । गाढं मुत्तावीढो सेणकुमारेण पढिरुद्धो ।।६४१।। आयारेऊण दढं काउं सुरसिद्धबहुमयं जुज्झं । पडिपहरं पहरंतो पहओ तिक्खेण खग्गेण ॥६४२॥ तत्तो य विसमदट्ठोट्रभिउडिरत्तंतनेत्तदुप्पेच्छो। आयड्ढेतो पडिओ मुच्छाविहलो महीवठे ॥६४३।। उग्घटो जयसद्दो जियं कुमारेण पेच्छयजणेहि । जयसिरिपवेसमंगलतूरं व समाहयं तूरं ॥ ६४४॥ कुमारेण वि य मुत्तावोढपोरुसायढियहियएण तालयंटवाएण चंदणसलिलाम्भुक्खणेण सयमेवासासिओ मुत्तावोढो । लद्धा णणं चेयणा। भणिओ कुमारेण-साहु भो नरिंद, साहु अणुचिट्ठियं कुजरवरविकटतटा विकुटितभटविटपप्रकटितकूला। करिमदपङ्ककलुषिता रुधिरवसावाहिनी व्यूढा (प्रवृत्ता) ॥६४०॥ इति भीषणसंग्रामे जलधरसमये इव निहतनिजसैन्यो । गाढं मुक्तापीठः सेनकुमारेण प्रतिरुद्धः ॥६४१॥ आकार्य दृढं कृत्वा सुरसिद्धबहुमतं युद्धम् । प्रतिपहारं प्रहरन प्रहतस्तीक्ष्णेन खड्गेन ॥६४२॥ ततश्च विषमदष्टौष्ठरक्तान्तनेत्रदुष्प्रक्षः । आकृषन् पतितो मूर्छाविह्वलो महीपृष्ठे ॥६४३॥ उद्घोषितो जयशब्दो जितं कुमारेण प्रेक्षकजन. । जयश्रीप्रवेशमङ्गल तूर्यमिव समाहतं तूर्यम् ॥६४४॥ कुमारेणापि च मुक्तापीठपौरुषाकृष्टहृदयेन तालवृन्तवातेन चन्दनसलिलाभ्युक्षणेन स्वयमेवाश्वस्तो मुक्तापीठः । लब्धा तेन चेतना। भणितः कुमारेण-साधु भो नरेन्द्र ! साध्वनुष्ठितं श्रेष्ठ हाथियों के भयंकर तट से नष्ट हुर योद्धारूपी वृक्षों से किनारे प्रकट हो गये। हाथियों के मदरूपी कीचड़ से कलुषित हुई खून और चरबी की नदी बहने लगी। इस प्रकार वर्षाकाल के समान भीषण संग्राम में अपनी सेना के मारे जाने पर मुक्तापीठ सेनकुमार के द्वारा दृढ़तापूर्वक रोक लिया गया। ललकार कर सुरों और सिद्धों के द्वारा मान्य किये गये युद्ध को दृढ़ करके प्रतिक्षण तीक्ष्ण तलवारों से परस्पर प्रहार करते हुए मारने लगे। अनन्तर भयंकर दांत, ओठ और लाल नेत्रप्रान्त से कठिनाई से देखे जानेवाला मुक्तापीठ खींचा जाने पर मूर्छा से विह्वल हो पृथ्वीतल पर गिर गया । 'कुमार ने (मुक्तापीठ को) जीत लिया'-इस प्रकार दर्शक जनों ने जय शब्द की घोषणा की। विजयलक्ष्मी के प्रवेश के समय बजाये जानेवाले मंगलवाद्यों के समान बाजे बजाये गये ॥६४०-६४४॥ ... मुक्तापीठ के पुरुषार्थ से जिसका हृदय आकृष्ट था, ऐसे कुमार ने पंखे को हवा कर चन्दन के जल को सींचकर मुक्तापीठ को स्वयं आश्वस्त किया । उसे होश आया। कुमार ने कहा-'हे नरेन्द्र ! ठीक है, तुमने १. खउरा (वे.) कत षिता । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो भवो] ६४३ तुमए नरिंदाणुरूवं, न मुक्को पुरिसयारो, न पडिवन्नं दोणतणं; उज्जालिया पुवपुरिसदिई । गहियं मए इमं रज्ज, न उण तुज्य कित्ती । ता न संतप्पियव्वं तुमए । विसेणराइणो वि अहिओ भाय तुमं ममंति। सबहुमाणमेव नेयाविओ आवासं । बद्धा वणपट्टया, पइऊण पेसिओ निययरज्ज।। भणिओ अमरगुरू --अज्ज, गवेसिऊण पेसेहि चंपाए विसेणमहारायं। तेण भणियं-जं देवो आणबेइ । अवि य, देव, तुम्हाणं पि जुत्तमेव चंपागमणं । तहिं गओ सयमेव कुमारं पेसइस्सइ महाराओ। सेणकुमारेण भणियं-अज्ज, गच्छामो चंपं । महाराओ पुण विसेणो, जस्स ताएण अहिसेओ को ति। मंतिणा भणियं-जं देवो आणवेइ । पेसिया गेण विसेणसमीवं केइ पुरिसा, भणिया य एए। वत्तव्वो तुम्भेहि कुमारो, जहा देवो आणवेइ 'एहि, पिइपियामहोवज्जियं रज्ज कुणसु त्ति । गया ते विसेणसमोवं ।। कुमारसेणो वि अणवरयपयाणएहि समागओ चंपं । परितुद्वा पउरजणवया, निग्गया पच्चोणि, पूइया कुमारेण । विन्नत्तो यहि-देव, पविससु त्ति । कुमारेण भणियं-अपविठे महारायविसेम्मि त्वया नरेन्द्रानुरूपम्, न मुक्तः पुरुषकारः, न प्रतिपन्नं दीनत्वम्, उज्ज्वालिता पूर्वपुरुषस्थितिः । गृहीतं मयेदं राज्यम्, न पुनस्तव कीर्तिः, ततो न सन्तप्तव्यं त्वया । विषेणराजादपि अधिको भ्राता त्वं ममेति । सबहुमानं नायित आवासम । बद्धा व्रणपट्टाः । पूजयित्वा प्रेषितो निजराज्यम्। भणितोऽमरगुरुः-आर्य ! गवेषयित्वा प्रेषय चम्पायां विषेणमहाराजम् । तेन भणितम्यद्देव आज्ञाप यति । अपि च, देव ! युष्माकमपि युक्तमेव चम्पागमनम्। तत्र गतः स्वयमेव कुमारं प्रेषयिष्यति महाराजः । सेनकुमारेण भणितम् -आर्य ! गच्छामो चम्पाम्, महाराजः पुनविषणः, यस्य तातेनाभिषेकः कृतः इति । मन्त्रिणा भणितम्-यद्देव आज्ञापयति । प्रेषितास्तेन विषणसमीपं केऽपि पुरुषाः, भणिताश्चैते । वक्तव्यो युष्माभिः कुमारः, यथा देव आज्ञापयत 'एहि पितृपितामहोपाजितं राज्यं कुरु' इति । गतास्ते विषेणसमीपम् । कुमारसेनोऽपि अनवरतप्रयाणकैः समागतश्चम्पाम् । परितुष्टाः पौरजनवजाः। निर्गताः सम्मुखम् । पूजिताः कुमारेण । विज्ञप्तश्च तैः-देव ! प्रविशेति । कुमारेण भणितम् - अप्रविष्टे राजा के अनुरूप उचित कार्य किया, पुरुषार्थ को नहीं छोड़ा, दीन भाव को प्राप्त नहीं हुए, पूर्वजों की मर्यादा को प्रकाशित किया। मैंने इस राज्य को ले लिया है, तुम्हारी कीर्ति को नहीं, अतः तुम्हें दुःखी नहीं होना चाहिए । विषेण राजा से भी अधिक (प्यारे) तुम मेरे भाई हो । (इस प्रकार) आदरपूर्वक निवास पर ले गये । घावों पर पट्टी बांधी। पूजा कर अपने राज्य को भेज दिया। (कुमार ने) अमरगुरु से कहा-'आर्य ! ढूंढकर चम्पा में विषेण महाराज को भेजो।' उसने कहा-'जो महाराज की आज्ञा । दूसरी बात यह है महाराज कि आपका भी चम्पा जाना उचित ही है । वहाँ पर जाने पर महाराज स्वयं ही कुमार को भेजेंगे।' सेनकुमार ने कहा-'आर्य, चम्पा को चलते हैं, किन्तु महाराज विषेण ही हैं, जिनका पिता जी ने अभिषेक किया है।' मन्त्री ने कहा -- 'जो महाराज आज्ञा दें।' उसने विषेण के पास कुछ आदमियों को भेजा और इन लोगों से कहा कि आप लोग कूमार से कहिए कि महाराज आज्ञा देते हैं - 'आओ, पितपितामह द्वारा उपाजित राज्य को करो।' वे विषेण के पास गये। __कुमारसेन भी निरन्तर गमन करते हुए चम्पानगरी में आया। नगरवासियों के समूह आनन्दित हुए। सामने निकले । कुमार ने सम्मान किया। उन्होंने निवेदन किया-'महाराज ! प्रवेश कीजिए।' कुमार ने कहा Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्च कहा न जुत्तं मे पविसिउं । तेहि वि य विरत्तचित्तेहि होऊण विसेणं पइ कुमारसेणस्स महाणुभावयं नाऊण 'अम्हाणं चैव भविव्वया जं कुमारो एवं मंत' त्ति चितिऊण अभिप्पेयं भणियं-देवो चेव बहु जाणइति । आवासिओ बाहिरियाए । अइक्कता कहवि वासरा । समागया ते विसेणसमोवमणपेसिया पुरिसा । निवेइयं च गेहि अमरगुरुणो, जहा कयंगलाए नयरीय दिट्ठो कुमारो त्ति । विन्नाओ णं कुओवि एसो देवपरक्कमो । विवेइओ य से अम्हेहि अज्जसंदेसओ । तओ दूमिओ विसेणो, 1 विद्दापि मिलाणं से वयणं । पावेण विय गहिओ मच्छरेण । निरुद्धा से भारही । कहकहवि जंपियमणेण । नाहमेवं परभुयवलोवज्जियं करेमि रज्ज । ता गच्छह तुब्भे, न य पुणो वि आगंतव्वं ति । भणिऊण अबहुमाणं च नीसारिया अम्हे । संपइ अज्जो पमाणं ति । अमच्चेण चितियं - अभव्वो खु सोमीए संपाए, जम्मंतरवेरिओ विय महारायस्स । ता इमं चैव निवेएमि देवस्सति । निवेइयं चणे । 'निष्फलो मे परिस्समो' ति विसण्णो कुमारो । भणियं च णेण -अज्ज, अंधयारनच्चियं खु एयं; विणा ताण महारायविसेषेण य को गुणो रज्जेणं ति । अमच्चेण भणियं - एवमेयं, तहावि ६४४ महाराजविषेणेन युक्तं मया प्रवेष्टम् । तैरपि च विरक्तचित्तर्भूत्वा विषेणं प्रति कुमारसेनस्य महानु भावतां ज्ञात्वा 'अस्माकमेव भवितव्यता, यत् कुमार एवं मन्त्रयति' इति चिन्तयित्वाऽभिप्रेतं भणितं 'देव एव बहु जानाति' इति । आवासितो बाहिरिकायाम् । अतिक्रान्ताः कत्यपि वासराः । समागतास्ते विषेणसमीपमनुप्रेषिताः पुरुषाः । निवेदितं च तैरमरगुरवे यथा कृतङ्गलायां नगर्यो दृष्टः कुमार इति । विज्ञातस्तेन कुतोऽप्येष देवपराक्रमः । निवेदितश्च तस्यास्माभिरार्यसन्देशकः । ततो दूनो विषेणः, प्रकृतिविद्राणमपि ( निस्तेजस्कमपि ) म्लानं तस्य वदनम् । पापेनेव गृहीतो मत्सरेण । निरुद्धा तस्य भारती । कथं कथमपि जल्पितमनेन - नाहमेवं परभुजबलोपार्जितं करोमि राज्यम् । ततो गच्छत यूयम्, न च पुनरप्यागन्तव्यमिति । भणित्वाऽबहुमानं च निःसारिता वयम् । सम्प्रत्यार्यः प्रमाणम् । अमात्येन चिन्तितम् - अभव्यः खलु सोऽस्याः सम्पदः, जन्मान्तरवैरिक इव महाराजस्य । तत इदमेव निवेदयामि देवस्येति । निवेदितं च तेन । 'निष्फलो मे परिश्रमः' इति विषण्णः कुमारः । भणितं च तेन-आर्य ! अन्धकारनतितं खल्वेतत्, विना तातेन महाराजविषेणेन च को गुणो 'महाराज विषेण के प्रवेश न करने पर मेरा प्रवेश करना उचित नहीं है।' उन्होंने भी विरक्त चित्त होकर कुमारसेन की विषेण के प्रति महानुभावता को जानकर 'हमारी ही होनहार है जो कुमार इस प्रकार कह रहे हैं' ऐसा सोचकर इष्ट बात कही - ' महाराज ही अधिक जानते हैं ।' नगर के बाहरी प्रदेश में ठहरे। कुछ दिन बीत गये 1 विषेण के पास भेजे गये वे पुरुष आ गये । उन्होंने अमरगुरु से निवेदन किया कि कृतमंगला नगरी में कुमार दिखाई दिये । इन्होंने कहीं से महाराज का पराक्रम जान लिया है। उनसे हम लोगों ने आर्य का सन्देश निवेदन किया । अनन्तर विषेण दुःखी हुआ, स्वभाव से निस्तेज होने पर उसका मुख और भी फीका पड़ गया । पाप के समान ईर्ष्या ने ग्रस लिया। उसकी वाणी रुद्ध हो गयी। उसने जिस किसी प्रकार कहा- 'मैं दूसरों की भुजाओं से उपार्जित राज्य नहीं करता हूँ । अतः तुम लोग जाओ, पुनः मत आना।' इस प्रकार कहकर निरादरपूर्वक हमलोगों को from faया । आप ही प्रमाण हैं ।' मन्त्री ने सोचा- वह ( राज्य ) सम्पदा के योग्य नहीं है मानो महाराज का दूसरे जन्म का बैरी है। तो यही महाराज से निवेदन करता हूँ । मन्त्री ने निवेदन कर दिया । 'मेरा परिश्रम निष्फल हुआ' इस प्रकार कुमार दुःखी हुआ । उसने कहा- 'आर्य ! यह तो अन्धकार में नृत्य करने जैसा हुआ, पिता जी और महाराज विषेण के बिना राज्य में कौन-सा गुण है ?' मन्त्री ने कहा - 'यह ठीक Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो भवो। ६४५ एसा जीवलोयदिइ ति। परिच्चयउ विसायं देवो। पयापरिरक्खणं पि फलं चेव महापुरिसाणं ति । कुमारेण भणियं-अज्ज, सपुण्णपरिरक्खियाओ धन्नाओ पयाओ। एत्थंतरम्मि कुओइ कुमारवुत्तं आयण्णिय 'महापुरिसो खु एसो, उचिओ संजमधुराए, कयं च ण निरत्थयं अहिगरणं; ता उद्धरेमि एवं संसाराओ' ति करुणापवन्नहियओ परियरिओ अणेयसाहहि समागओ कुमारस्स चुल्लबप्पो हरिसेणायरिओ ति। ठिओ नट्ठसोए काणणे। विन्नाओ लोएण, जहा एसो भयवं हरिसेणरायरिसि ति। सवणपरंपराए य समागओ लोयपउत्तिपरियाणणापउत्ताणं सवणगोयरं । गवेसिओहि जाव दिटो त्ति । तओ निवेइयं पडिहारीए, तीए वि य कुमारसेणस्स। हरिसिओ कुमारो। विइन्नं पारिओसियं पडिहारीए निउत्तपुरिसाण य। भणिओ णेण अमरगरू-अज्ज, अणब्भा अमयवट्ठी तायागमणं । तेण भणियं-देव, धन्नो तुम, भायणं कल्लाणाणं । कुमारेण भणियं-ता एहि, वंदामि तायं, करेमि सफलं जीवलोयं ति । अमच्चेण भणियं-जं देवो आणवेइ । गओ नट्ठसोयं काणणं । दिट्टो य णेण सारओदयं विय विसुद्धचित्तो विरहिओ मोहतिमिरेणं राज्येनेति । अमात्येन भणितम् -एवमेतद्, तथाप्येषा जीवलोकस्थिरिति । परित्यजतु विषादं देवः । प्रजापरिरक्षणमपि फलमेव महापुरुषाणामिति । कुमारेण भणितम् -- आर्य ! स्वपुण्यपरिरक्षिता धन्याः प्रजाः। __अत्रान्तरे कुतश्चित् कुमारवृत्तान्तमाकर्ण्य 'महापुरुष: खल्वेषः, उचितः संयमधुरः, कृतं च तेन निरर्थकमधिकरणम्, तत उद्धराम्येतं संसाराद्' इति करुणाप्रपन्नहृदयः परिवृतोऽनेकसाधुभिः समागतः कुमारस्य लघुपिता (पितृव्यः) हरिषेणाचार्य इति । स्थितो नष्टशोके कानने। विज्ञातो लोकेन, यथैष भगवान् हरिषेणराजर्षिरिति । श्रवणपरम्परया च समागतो लोकप्रवृत्तिपरिज्ञानप्रयुक्तानां श्रवणगोचरम् । गवेषितस्तैर्यावद् दृष्ट इति । ततो निवेदितं प्रतीहार्या, तयापि च कुमारसेनस्य । हृषितः कुमारः । वितीर्ण पारितोषिकं प्रतीहार्या नियुक्तपुरुषाणां च । भणितस्तेनामरगुरुः---- आर्य ! अनभ्रा अमृतवृष्टिस्तातागमनम् । तेन भणितम्-देव ! धन्यस्त्वम्, भाजनं कल्याणानाम् । कुमारेण भणितम् - तत एहि, वन्दे तातम्, करोमि सफलं जीवलोकमिति । अमात्येन भणितम् -यदेव आज्ञापयति । गतो नष्टशोकं काननम् । दृष्टस्तेन शारदोदकमिव विशुद्धचित्तो विरहितो है, फिर भी यह संसार की स्थिति है। महाराज विषाद छोड़ें। प्रजा की रक्षा भी महापुरुषों का फल ही है।' कुमार ने कहा-'आर्य ! अपने ही पुण्यों से रक्षित प्रजा धन्य है।' इसी बीच कहीं से कुमार के वृत्तान्त को सुनकर 'यह महापुरुष है, संयम का भार धारण करने के योग्य है। उसने निरर्थक निर्णय किया है, अत: उसे संसार से निकालता हूँ- इस प्रकार करुणा से पूर्ण हृदयवाले चाचा हरिषेणाचार्य अनेक साधुओं के साथ कुमार के पास आये। नष्टशोक नामक उद्यान में ठहर गये। लोगों को ज्ञात हुआ कि ये भगवान् हरिषेण राजर्षि हैं । लोक की प्रवृत्ति की जानकारी के लिए प्रयुक्त लोगों के कान में यह बात श्रवण-परम्परा से आयी । उन्होंने राजर्षि की खोज की और उनके दर्शन किये । अनन्तर प्रतीहारी से निवेदन किया। प्रतीहारी ने भी कुमारसेन से निवेदन किया। कुमार हर्षित हुआ । प्रतीहारी तथा नियुक्त पुरुषों को पारितोषिक दिया। कुमार ने अमरगुरु से कहा-'आर्य! चाचा जी का आगमन बिन बादल वर्षा के समान है ।' अमरगुरु ने कहा-'महाराज ! आप धन्य हैं, कल्याणों के पात्र हैं।' कुमार ने कहा-'तो आओ, तात की वन्दना करें, संसार को सफल बनायें ।' मन्त्री ने कहा- 'जो महाराज की आज्ञा ।' कुमार नष्टशोक उद्यान में गया। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४६ | समराइच्चकहा संगओ नाणसंपयाए निरइयारवंभयारी परिणओ सुद्धभावणाहि संखविसेसो विय निरंजणो अपडिबद्धो उभयलोएसं निदंसणं धम्मनिरयाणं चितामणी सिस्सवग्गस्स मुत्तिमंतो विय मुत्तिमग्गो भयवं हरिसेणायरिओ त्ति। वंदिओ अच्चंतसोहणं झाणमणुहवंतेणं कुमारेणं । धम्मलाहिओ य जेणं । तओ भयवंतमवलोइऊण रोमंचिओ कुमारो। समागयं आणंदबाहं । भणिओ य भयवया-वच्छ, भावधम्मो विय सयलचेटासुंदरो तुम, जेण तुह निग्गमणनिव्वेयाइसएण मए पत्तं समणत्तणं। उवाएयं च एयं पयइनिग्गणे संसारवासम्मि, न पुण किंचि अन्नं। किलेसायासबहुलं खु मणुयाण जीवियं । संपयासंपायणथं पि आहोपुरिसियापायं निरत्थयमण्टाणं, जेण परपीडायरी दुहावहा संपया। अयंडमणोरहभंगसंपायणुज्जओ पहवइ विणिज्जियसुरासुरो मच्चू। बहुयाणत्थफलं चेव थेवं पि पमायचेट्ठियं । एत्थ सुगिहीयनामधेयगुरुसाहियं मे सुणसु वत्तयं ति। ____ अस्थि इहेव जम्बुद्दीवे दोवे भारहे वासे उत्तरावहे विसए वद्धणाउरं नाम नयरं, अजियवद्धणो मोहतिमिरेण सङ्गतो ज्ञानसम्पदा निरतिचारब्रह्मचारी परिणतः शुद्धभावनाभिः शङ्गविशेष इव निरञ्जनोऽप्रतिबद्ध उभयलोकेषु निदर्शनं धर्मनिरतानां चिन्तामणिः शिष्यवर्गस्य मूर्तिमानिव मुक्तिमार्गो भगवान् हरिषेणाचार्य इति । वन्दितोऽत्यन्तशोभनं ध्यानमनुभवता कुमारेण । धर्मलाभितश्च तेन । ततो भगवन्तमवलोक्य रोमाञ्चितः कुमारः। समागत आनन्दवाष्पः । भणितश्च भगवतावत्स ! भावधर्म इव सकलचेष्टासुन्दरस्त्वम्, येन तव निर्गमननिर्वेदातिशयेन मया प्राप्तं श्रमणत्वम् । उपादेयं चैतत् प्रकृतिनिर्गुणे संसारवासे, न पुनः किञ्चिदन्यद् । क्लेशायासबहुलं खलु मनुजानां जीवितम् । सम्पत्सम्पादनार्थम प आहोपुरुषिकाप्रायं निरर्थकमनुष्ठानम्, येन परपीडाकरी दुःखावहा सम्पद् । अकाण्डमनोरथभङ्गसम्पादनोद्यतः प्रभवति विनिजितसुरासुरो मृत्युः। बहुकानर्थफलमेव स्तोकमपि प्रमादचेष्टितम् । अत्र सुगृहीतनामधेयगुरुकथितं मे शृणु वृत्तमिति । अस्तीहैव जम्बूद्वीपे भारते वर्षे उत्तरापथे विषये वर्धनापुरं नाम नगरम् । अजितवर्धनो राजा। उसने भगवान् हरिषेणाचार्य को देखा। वे शरत्कालीन जल के समान विशुद्धचित्त थे, मोहान्धकार से रहित थे, ज्ञानसम्पत्ति से युक्त थे, अविचार रहित ब्रह्मचर्य का पालन कर रहे थे, शुद्ध भावनाओं में परिणत थे, शंख विशेष के समान निरंजन थे, दोनों लोकों से मुक्त थे, धर्म में रत हुए लोगों के उदाहरण थे, शिष्यवर्ग के लिए चिन्तामणि रत्न के समान थे, मानो शरीरधारी मुक्तिमार्ग थे। अत्यन्त शुभध्यान का अनुभव करते हुए कुमार ने वन्दना की। राजर्षि ने धर्मलाभ दिया । अनन्तर भगवान् को देखकर कुमार अत्यन्त रोमांचित हुए, आनन्द के आँसू आ गये । भगवान् ने कहा-'वत्स ! भावधर्म के समान समस्त चेष्टाओं में तुम सुन्दर हो, जिससे तुम्हारे निकलने के दुःख की अधिकता से मैंने श्रमण धर्म पाया। स्वभाव से निर्गुण इस संसार-वास में यही उपादेय (ग्रहण करने योग्य) है, अन्य कुछ उपादेय नहीं है। निश्चित रूप से मनुष्यों के जीवन में क्लेश और परिश्रम की बहुलता है। सम्पत्ति की प्राप्ति के लिए प्रायःकर भभिमान से भरा हुआ कार्य निरर्थक है, क्योंकि सम्पत्ति दूसरों को पीड़ा देनेवाली और दुःख लानेवाली है। असमय में मनोरथ को नष्ट करने के लिए उद्यत मृत्यु सुर और असुरों को भी जीतने में समर्थ है। बोड़ा भी प्रमादभरा कार्य अत्यधिक अनर्थरूप फल देनेवाला होता है । इस विषय में सुगृहीत नामबाले गुरु के द्वारा कहा हुआ वृत्तान्त सुनो इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष द्वीप में उत्तरापथ देश में 'वर्धनापुर' नामक नगर है। वहाँ का राजा Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो भवो] ६४७ राया। तत्थ सद्धडो नाम गाहावई होत्था, चंदाय से भारिया, सुओ य से सग्गो। पुवकयकम्मपरिणामओ दारिद्दाणि य एयाणि । अन्नया य मरणपज्जवसाणयाए जीवलोयस्स विवन्नो सद्धडो। कयं उद्धदेहियं । अइक्कंतो कोइ कालो। अजीवमाणा य चंदा उयरभरणनिमित्तं परगिहेसु कम्म करिउमाढता, सग्गो वि अडवोए सागिंधणाइयं आणे ति । अइक्कंतो कोइ कालो । अन्नया य आगमणवेलाए चेव सग्गस्स 'पासंडसेविगेहे जामाउओ आगओ ति। उययाणयणनिमित्तं हक्कारिया चंदा। 'पुत्तो मे भुक्खिओ आगमिस्सइ'त्ति ठविऊण सिक्कए भोयणं साणाइभएणं च बंधिऊण किढियादुवारं गया तत्थ एसा। थेववेलाए य समागओ सग्गो। विमुक्कं सागिंधणं। निरूविया जणणी। जाव नत्थि ति खुहापिवासाहिभूयत्तणेण कुविओ एसो। न निरूवियमणेण सिक्कयं । थेववेलाए य वूढे वि पाणिए वावडयाए सेटिमाणुसेहि न किंचि वि दिन्नं ति पडिवन्ना दीणयाए अवठ्ठद्धा महाविसाएणं विद्दाणचित्ता समागया चंदा। तं च तहा पेच्छिऊण कोहवसएणं जंपिय सग्गेणं । तहिं गया चेव सूलियाए भिन्ना तुम ति। वोसरिया वेला अम्हाणं छुहाभिभूयाणं । तीए वि तत्र सधडो नाम गृहपतिरभवत् । चन्द्रा च तस्य भार्या, सुतश्च तस्य स्वर्गः । पूर्वकृतकर्मपरिणामतो दरिद्राश्चैते। अन्यदा च मरणपर्यवसानतया जीवलोकस्य विपन्न: सधडः। कृतमौर्ध्वदेहिकम् । अतिक्रान्तः कोऽपि काल: । आजीवन्ती च चन्द्रा उदरभरणनिमित्तं परगृहेषु कर्म कर्तु मारब्धा, स्वर्गोऽप्यटव्या: शाकेन्धनादिकमानेतुमिति । अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । अन्यदा चागमनवेलायामेव स्वर्गस्य पाषण्डश्रेष्ठिगृहे जामातृक आगत इति । उदकानयननिमित्तमाकारिता चन्द्रा। 'पुत्रो मे बुभुक्षित आगमिष्यति' इति स्थापयित्वा शिक्यके भोजनं श्वानादिभयेन च बद्ध्वा किटिकाद्वारं गता तत्रैषा । स्तोकवेलायां च समागतः स्वर्गः । विमुक्तं शाकेन्धनम् । निरूपिता जननी, यावन्नास्तीति क्षुत्पिपासाभिभूतत्वेन कुपित एषः । न निरूपितमनेन शिक्यम् । स्तोकवेलायां च व्यूढेऽपि पानी ये व्याप्ततया श्रेष्ठिमनुष्यन किञ्चिदपि दत्तमिति प्रतिपन्ना दीनतया अवष्टब्धा महाविषादेन विद्राणचित्ता समागता चन्द्रा। तां च तथा प्रेक्ष्य क्रोधवशगेन जल्पितं स्वर्गेण-तत्र गतैव शूलिक । भिन्ना त्वमिति। विस्मता वेलाऽस्माकं क्षदभिभूतानाम् । तयाऽपि कृपणभावेन अजितवर्धन था ! वहाँ पर सद्धट नाम का गृहस्थ हुआ। उसकी पत्नी चन्द्रा और उसका पुत्र 'स्वर्ग' था । पूर्वकृत कर्म के परिणाम से ये दरिद्र थे। एक बार संसार का अन्त मरणरूप में होने के कारण सद्धट मर गया। पारलौकिक त्रिाएं कीं । कुछ समय बीत गया । पेट भरने के लिए आजीविकार्थ चन्द्रा ने दूसरों के घरों में काम करना आरम्भ किया और स्वर्ग ने भी जंगल से लकडी, इंधन आदि लाना प्रारम्भ किया। कुछ समय बीत गया। एक बार आते समय 'स्वर्ग' के 'पाखण्ड' नामक सेठ के घर जमाई आया। जल लाने के लिए चन्द्रा को बुलाया। 'मेरा पुत्र भूखा आयेगा' अतः सीके में भोजन रखकर कुत्ते आदि के भय से खिड़की के द्वार में बाँध दिया और यह पानी लाने के लिए चली गयी। थोड़ी देर में 'स्वर्ग' आया । लकड़ी, ईंधन को रखा । माता को देखा, वह नहीं थी, अत: भूख-प्यास से व्याकुल होकर वह कुपित हो गया। उसने सींका नहीं देखा। थोड़ी देर में, (चन्द्रा के) पानी लाने में लगी होने पर भी काम में लगे सेठ के मनुष्यों ने कुछ भी नहीं दिया अतः दीनता को प्राप्त होकर, मान विषाद से घिरकर मलिनचित्त वाली चन्द्रा वापस आयी। उसे वैसा देखकर क्रोधवश स्वर्ग ने कहा --- 'वहीं जाते ही तुम शूली से भिद गयी थी जो भूख से व्याकूल हमारा समय भूल गयी !' उसने भी असहाय १. ईमद-पा. ज्ञा.। २. कहिया-हे. झा, । कोटिका खडकीति भाषायां । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४८ [ समराइच्चकहा किवणभावेण तहा दुक्खपीडियाए जंपियमिणं । तुज्झ पुण छिन्ना हत्थ त्ति, जेण सिक्कयाओ वि गेण्हिऊण न भुंजसि। एत्थंतरम्मि एवंविहवसणदुच्चरियपच्चयं बद्धमिमेहि कम्म। अइक्कंतो कोइ कालो। अन्नया य विचित्तयाए कम्मपरिणामस्स भवियव्वयाए य एएसि विसिट्ठफलसाहगत्तणेण जीववीरियस्स माणतंगगणिसमीवे पत्ता इमेहि जिणधम्मबोही, गहियं सावयत्तणं, पालियं कंचि कालं। पवड्ढमाणसुहपरिणामाण य जाओ चरणपरिणामो। पवन्नाणि पध्वजं । पालियं चारितं । चरिमकाले य काऊण सलेहणं आगमणिएण विहिणा चइऊण देहपंजरं समुप्पन्नाणि सुरलोए। तत्थ वि य अहाउयं पालिऊण पढमयरमेव चओ सग्गदेवो। समप्पन्नो इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे तामलितीए नयरीए कुमारदेवस्स सेटिस्स जुज्जियाए भारियाए कुच्छिसि पुत्तत्ताए त्ति । जाओ कालक्कमेणं । पइट्ठावियं च से नाम अरुणदेवो त्ति। पत्तो कुमारभावं । एत्थंतरम्मि चुओ चंदाजीवदेवो । समुप्पन्नो पाडलावहे नयरे जसाइच्चसेटिस्स ईलुयाए भारियाए कुच्छिसि इत्थियत्ताए। जाया ............... तथा दुःखपीडितया जल्पितमिदम् - तव पुनदिछन्तौ हस्ताविति, येन शिवयकादपि गृहीत्वा न भङ क्षे। अत्रान्तरे एवंविधवचनदुश्चरितप्रत्ययं बद्धमाभ्यां कर्म । अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । अन्यदा विचित्रतया च कर्मपरिणामस्य भवितव्यतायाश्चैतयोविशिष्टफलसाधकत्वेन जीववीर्यस्य मानतुङ्गगणिसमीपे प्राप्ताऽऽभ्यां जिनधर्मबोधिः, गृहीतं श्रावकत्वम, पालितं कञ्चित्कालम् । प्रवर्धमानशभपरिणामयोश्च जातश्चरणपरिणामः । प्रपन्नौ प्रवज्याम् । पालितं चारित्रम्। चरमकाले च कृत्वा संलेखनामागमभणितेन विधिना त्यक्त्वा देहपज्जरं समुत्पन्नौ सुरलोके । तत्रापि च यथायुष्कं पालयित्वा प्रथमतरमेव च्युतः स्वर्ग देवः । समुत्पन्न इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे ताम्रलिप्त्यां नगर्यो कुमारदेवस्य श्रेष्ठिनो युजिकाया भार्यायाः कुक्षौ पुत्रतयेति । जातः कालक्रमेण । प्रतिष्ठापितं च तस्य नाम अरुणदेव इति । प्राप्तः कमारभावमा अत्रान्तरे श्च्यूतश्चन्द्राजीवदेवः, समुत्पन्नः पाटलापथे नगरे यशआदित्यवेष्ठिन ईलुकाया भार्यायाः कुक्षौ स्त्रोतया। जाता कालत्रमेण । प्रतिष्ठापितं च तस्या होने तथा दुःख से पीडित होने के कारण यह कहा-'क्या तुम्हारे दोनों हाथ टूट गये थे जो कि छीके से भी लेकर नहीं खा सके ? इसी बीच इस प्रकार के वचनरूप दुश्चरित के कारण दोनों ने कर्म बाँधा । कुछ समय बीत गया। एक बार कर्म के परि गाम की विचित्रता से इन दोनों की होनहार से लोगों को सामर्थ्य विशिष्ट फल की साधक होने से दोनों ने मानतंग गणि के समीप जैन धर्म का ज्ञान प्रप्त कर लिया, श्रावकधर्म ग्रहण किया और कुछ समय पाला। दोनों के शुभपरिणामों की वृद्धि होने के कारण चारित्ररूप भाव हुए। दोनों ने दीक्षा ले ली। चारित्र को पाला। अन्त समय सल्लेखना धारण कर शास्त्रोक्त विधि से शरीररूपी पिंजड़े को त्यागकर स्वर्गलोक में उत्पन्न हुए । वहाँ पर आयु पालन कर पहले स्वर्ग का देव च्युत हुआ। इसी जम्बूदीप के भारतवर्ष में 'ताम्रलिप्ती नगरी में 'कुमार देव' सेठ की 'युजिका' नामक पत्नी के गर्भ में पुत्र के रूप में आया। कालक्रम से उत्पन्न हुआ। उसका नाम अरुणदेव रखा गया। कुमारावस्था को प्राप्त हुआ। इसी बीच चन्द्रा का जीव देव च्युत हुआ। पाटलापथ नगर में यशादित्य सेठ की ईलुका पत्नी के गर्भ में स्त्री के रूप में आया । कालक्रम से (वह) उत्पन्न Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो भवो ६४६ 1 कालक्कमेणं । पइट्टावियंच से नामं देइणि त्ति । पत्ता कुमारिभावं । भविषव्वयानिओगेण दिन्ना अरुणदेवस्स | अवत्ते चैव विवाहे जाणवत्तेण ववहरणनिमित्तं महाकडाहं गओ अरुणदेवो । समागच्छमाणस्स विचित्तयाए कम्परिणामस्स दिवन्नं जाणवत्तं । तन्नयरवत्थव्वयमहेसर दुइओ फलहएण लंधिऊण जलनिहि लग्गो समुद्दतीरे ! कहाणयविसेसेण समागओ पाडलावहं । मणिओ य महेसरेण - कुमार, एत्थ भवओ ससुरकुलं ति; ता तहि पविसम्ह । अरुणदेवेण भणियं - अज्ज, न जुत्तो मे एयावत्थगयस्स ससुर कुलपवेसो । महेसरेण भणियं-कुमार, जइ एवं ता चिट्ठ ताव तुमं एत्थ देवउले, जाव आणेमि हट्टाओ अहं किंचि भोयणजायं ति । पडिस्सुयमरुणदेवेणं । तओ महेसरो पविट्ठो पाडलावहं । नुदन्नो अरुणदेवो तत्थ देवउले | अद्धाणखेएण य समागया से निद्दा । एत्थंतरम्मि उइण्णं देइणीए पुव्वभवसंचियं 'तुज्झ' पुण छिन्ना हत्थ त्ति, जेण सिक्कयाओ वि गिव्हिऊण सयं न भुजसि त्ति एवंविहवयणदुच्चरियपच्चयं संकिलिट्ठकम्मं । भवणुज्जाणसंठिया नाम देविनीति । प्राप्ता कुमारीभावम् । भवितव्यतानियोगेन दत्ताऽरुणदेवस्य । अवृत्ते एव विवाहे यानपात्रेण व्यवहरणनिमित्तं महाकटाहं गतोऽरुणदेवः । समागच्छतो विचित्रतया कर्मपरिणामस्य विपन्नं यानपात्रम् । तन्नगरवास्तव्य महेश्वर द्वितीयः फलकेन लङ्घित्वा जलनिधि लग्नः समुद्रतीरे । कथानकविशेषेण समागतः पाटलापथम् । भणितश्च महेश्वरेण कुमार ! अत्र भवतः श्वसुर - कुलमिति, ततस्तत्र प्रविशावः । अरुणदेवेन भणितम् - आर्य ! न युक्तो मे एतदवस्थागतस्य श्वसुर - कुलप्रवेशः । महेश्वरेण भणितम् कुमार ! यद्येवं ततस्तिष्ठ तावत् त्वमत्र देवकुले यावदानयामि हट्टादहं किञ्चिद् भोजन जातमिति । प्रतिश्रुतमरुणदेवेन । ततो महेश्वरः प्रविष्टः पाटलापथम् । निपन्नो (शयितो ) रुण देवस्तत्र देवकुले | अध्वखेदेन च समागता तस्य निद्रा । अत्रान्तरे उदीर्णं दविन्या पूर्वभवसञ्चितं ' तव पुनश्छिन्नो हस्तो इति, येन शिक्यकादपि गृहीत्वा स्वयं न भुङक्षे' इति एवंविधवचनदुश्चरितप्रत्ययं संक्लिष्टकर्म । भवनोद्यानसस्थिता हुई। उसका नाम देविनी रखा। वह कुमारीपने को प्राप्त हुई। होनहार के नियोग से अरुणदेव को दी गयी । विवाह न किये ही अरुणदेव व्यापार के लिए जहाज से महाकटाह चला गया । आते समय कर्मपरिणाम की विचित्रता से जहाज टूट गया। उस नगर के वासी महेश्वर के साथ लकड़ी के तख्ते से समुद्र पार कर समुद्र के किनारे जा लगा। कथानक विशेष से पाटलापथ आया। महेश्वरदत्त ने कहा- 'कुमार ! यहाँ पर आपके श्वसुर का निवास है अतः दोनों वहाँ प्रवेश करें (चलें ) ।' अरुणदेव ने कहा- 'आर्य ! इस अवस्था को प्राप्त हुए मुझे श्वसुर के घर में प्रवेश करना उचित नहीं है ।' महेश्वर ने कहा- 'यदि ऐसा है तो तुम यहाँ देवमन्दिर में ठहरो । जब तक मैं बाजार से कुछ भोजन सामग्री लाता हूँ ।' अरुणदेव ने स्वीकार किया। अनन्तर महेश्वरदत्त पाटलापथ में प्रविष्ट हुआ । अरुणदेव वहाँ मन्दिर में सो गया । मार्ग की थकावट के कारण उसे नींद आ गयी । इसी बीच देविनी का पूर्वभव में संचित किया हुआ, 'क्या तुम्हारे हाथ टूट गये जो कि सींके से भी लेकर स्वयं नहीं खा सकते हो' इस प्रकार के वचनरूप दुश्चरित का कारण पापकर्म उदय में आया। भवन के १. जं भणियं आमि तुझा ला Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० [समराइचकहा गहिया तक्करेण। दिठं से महामहग्धं माणिक्ककडयजवलं । अद्धगहियमणेणं जाव अइगाढत्तणेणं न तोरइ गेण्हिलं, कढ़िया णेण रिया। गुज्जियं' से वयणं, छिन्ना य हत्था। गेण्हिऊण कडयजुयलं पलाइउमारद्धो। विट्ठो उज्जाणवालोए। अक्कंदियं च णाए। धाविया दंडवासिया। पलाणो तक्करो। दिट्ठो य दंडवासिएहि । धाविया एए तक्कराणुसारेण । तक्करो वि दुयगमणखीणसत्ती साससमावरियाणणो 'न चएमि अओ परं पलाइउ' ति पुव्वभंडियं चेव पविट्ठो तं जिण्णदेवउलं, जत्थ अरुणदेवो त्ति। एत्यंतरम्मि य उइण्णं अरुणदेवस्स पुटवभवसंचियं, जहा 'तहिं गया चेव सूलियाए भिन्ना तुमं, वीसरिया वेला अम्हाणं छुहाभिभूयाणं' एवंविहवयणदुच्चरियपच्चयं संकिलिटु कम्मं । तक्करो वि य 'एस एत्थ उवाओ' ति अरुणदेवसमीवे मेल्लिऊण कडयजुवलयसणाहं छुरियं पुटवभंडियं चेव अहिडिओ अंधयारसंगयं सिहरदेसं । उढिओ अरुणदेवो। दिटुमणेण कडयजवलं छुरिया य। कम्मपरिणइवसेण गहियं च ण । 'नूणमेयं देवयाविइन्न' ति संगोवियं उड्ढियाए। गहिया छुरिया । ‘एसा पुण कह' ति निस्वयंतस्स समागया दंडवासिया। ते पेच्छिऊण संखद्धो अरुणदेवो । गहीता तस्करेण । दृष्टं तस्या महामहाघ माणिक्यकटक युगलम् । अर्धगृहीतम नेन यावदतिगाढत्वेन न शक्यते ग्रहीतुम् । कृष्टा तेन छुरिका, मुद्रितं तस्या वदनम्, छिन्नौ च हस्तौ। गृहोत्वा च कटकयुगलं पलायितुमारब्धः । दृष्ट उद्यानपाल्या। आक्रन्दितं च तया। धाविता दण्डपाशिकाः । पलायितस्तस्करः । दृष्टश्च दण्डपाशिकः । धाविता एते तस्करानुसारेण । तस्करोऽपि द्रुतगमनक्षीणशक्तिः श्वाससमापूरिताननो 'न शक्नोम्यतःपरं पलायितुम्' इति पूर्वभाण्डिकमेव प्रविष्टस्तद् जीर्णदेवकुलम्, यत्रारुणदेव इति । अत्रान्तरे चोदीर्णमरुणदेवस्य पूर्वभवसञ्चितम्, यथा 'तत्र गतव शलिकया भिन्ना त्वम्, विस्मृता वेलाऽस्माकं क्षुदभिभूतानाम्' एवंविधवचनदुश्चरितप्रत्ययं संक्लिष्टकर्म । तस्करोऽपि च ‘एषोऽत्रोपायः' इति अरुणदेवसमीपे मुक्त्वा कटकयुगलसनाथां छुरिकां पर्वभाण्डिकमेवाधिष्ठितोऽन्धकारसङ्गतं शिखरदेशम् । उत्थितोऽरुणदेवः । दृष्टमनेन कटकयुगलं छरिका च। कर्मपरिणतिवशेन गहीतं च तेन । 'ननमेतद देवतावितीर्णम' इति सङ्गोपितमध्विकायाम् । गृहीता छरिका । 'एषा पुनः कथम्' इति निरूपयत: समागता दण्डपाशिका । तान् प्रेक्ष्य उद्यान में स्थित देविनी को चोर ने पकड़ लिया। उसके अत्यधिक कीमती मणिनिर्मित कड़े का जोड़ा देखा। चोर ने आधा ग्रहण किया, अत्यन्त गाढ़ा होने के कारण ले नहीं सका । उसने तलवार खींची, उसके मुंह को ढंक दिया और दोनों हाथ काट डाले । कड़े के जोड़े को लेकर भागने लगा । उद्यानपाली ने देख लिया। वह चिल्लायी। सिपाही दौड़े। चोर भागा। सिपाहियों ने देख लिया। वे चोर के पीछे भागे। चोर भी शीघ्रगति के कारण क्षीणशक्ति वाला होकर श्वास से भरे हुए मुँहवाला हो गया। 'इससे आगे भागने में समर्थ नहीं हूँ' - ऐसा भूषण के साथ ही उस पुराने देवमन्दिर में घुस गया, जहाँ पर कि अरुणदेव था। इसी बीच अरुणदेव का वहाँ जाते ही, 'तुम शूली से भिद गयी थीं जो कि भूख से व्याकुल हमारा समय भूल गयीं'--ऐसे वचन रूप दुश्चरित का कारण, पूर्वभव में संचित बुरा कर्म उदय में आया। चोर भी 'यहाँ यह उपाय है' ऐसा सोचकर अरुणदेव के पास कड़े के जोड़े सहित छुरी को छोड़कर अन्धकार से युक्त शिखर पर जा बैठा । अरुणदेव उठा - इसने कड़े का जोड़ा और छुरी देखी । कर्म के फलवश उसने ग्रहण कर लिया। 'निश्चितरूप से देवी का दिया है'-ऐसा सोचकर पोटली में छुपा लिया। छुरी ली । 'यह छुरी कैसे आयी'- इस प्रकार सोचता 1. जिथं (दे०) मुदितम् । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो भवो] ६५१ भणिओ यहि-अरे दुरायार, कहिं वच्चसि । तओ हत्थाओ चेव निडिया छुरिया। गहिओ दंडवासिएहि । भणियं च ण-अज्ज, कि मए कयं । दंडवासिएहि भणियं-जं देव्वचोइया करेंति; ता समप्पेहि तं कडयजुयलं । अरुणदेवेण भणियं-अज्ज, न याणामि कडयजुयलं ति । तओ कुविया दंडवासिया। ताडिओ यहि । भयाभिभूयस्स अजत्तगोवियं पडियं कडयजुयलं। गहियं दंडवासिएहि । नियमिओ एसो। नीओ नरवइसमीवं। साहिओ एस वइयरो नरवइस्स सरित्थं पेच्छिऊण अजायसंकेण भणियं राइणा-नेह, सूलाए भिदह ति। तओ नरवइसमाएसाणंतरमेव नीओ वज्झत्यामं ति । भिन्नो सूलियाए। एत्यंतरम्मि घेत्तण भोयणं आगओ महेसरो। निरूवियं देवउलं। न दिट्टो अरुणदेवो। गवेसिओ आसन्नदेसेसु, तहवि न विट्ठो ति। आउलीहूओ महेसरो। पुच्छिया गेण देवउलसमीवारामवासिणो मालिया-भो, एवंविहो सेट्टिपुत्तो इमाओ देवउलाओ कुओइ गच्छमाणो न दिट्ठो भवंतेहिं । तेहि भणियं-अज्ज, न दिट्ठो; गहिओ एत्थ चोरो, संपयं वावाइओ य । ता न याणामो जइ कोउएण संक्षब्धोऽरुणदेवः । भणितश्च तैः- अरे दुराचार ! कुत्र व्रजसि । ततो हस्तादेव निपतिता छुरिका । गहीतो दण्डपाशिकः। भणितं च तेन-आर्य! किं मया कृतम् । दण्डपाशिकर्भणितम्-यद् दैव चोदिताः कुर्वन्ति, ततः समर्पय तत्कटकयुगलम् । अरुणदेवेन भणितम्-आर्य ! न जानामि कटकयुगलमिति । ततः कुपिता दण्डपाशिकाः। ताडितश्च तैः । भयाभिभूतस्यायत्नगोपितं पतितं कटक युगलम् । गृहीतं दण्डपाशिकैः । नियमित एषः । नीतो नरपतिसमीपम् । कथित एष व्यतिकरो नरपतये। सरिक्थं प्रेक्ष्याजातशङ्कण भणितं राज्ञा-नयत, शलया शिन्देति । ततो नरपत्सिमादेशानन्तरमेव नीतो वध्यस्थानमिति । भिन्नः शूलिकया। अत्रान्तरे गृहीत्वा भोजनमागतो महेश्वरः । निरूपितं देवकलम् । न दृष्टोऽरुणदेवः । गवेषित आसन्नदेशेषु, तथापि न दृष्ट इति । आकुलीभूतो महेश्वरः । पृष्टास्तेन देवकुलसमीपारामवासिनो मालिकाः - भो! एवंविधः श्रेष्ठिपुत्रोऽस्माद् देवकुलात् कुतश्चिद् गच्छन् न दृष्टो भवद्भिः ? तैभणितम्-~-आर्य ! न दृष्टः । गृहीतोऽत्र चौरः, साम्प्रत व्यापादितश्च । ततो न जानीमो यदि हुआ जब वह देख रहा था कि तभी सिपाही आ गये। उन्हें देखकर अरुणदेव क्षुब्ध हुआ। सिपाहियों ने कहा'अरे दुराचारी ! कहाँ जाते हो ?' तब हाथ से छुरी गिर पड़ी। सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया। अरुणदेव ने कहा'आर्य ! मैंने क्या किया ?' सिपाहियों ने कहा- 'जो भाग्य से प्रेरित करते हैं, अतः उस कड़े के जोड़े को सौंप दो।' अरुणदेव ने कहा ---'आर्य ! कड़े के जोड़े का मुझे पता नहीं।' अनन्तर सिपाही कुपित हुए। उन्होंने मारा । भयभीत होने के कारण बिना प्रयत्न का छिपाया हुआ कड़े का जोड़ा गिर पड़ा। सिपाहियों ने जब्त कर लिया। इसे बांधा। राजा के पास ले गये। राजा से यह घटना कही। माल के साथ देखकर बिना शंका किये ही राजा ने कहा--'ले जाओ, शूली से भेद डालो।' अनन्तर राजा के आदेश के तत्काल बाद उसे बध्यस्थान में ले जाया गया और शूली से भेद दिया गया। इसी बीच भोजन को लेकर महेश्वर आया। देवमन्दिर में देखा। अरुणदेव दिखाई नहीं दिया। समीप के स्थानों में देखा तो भी नहीं दिखाई दिया। महेश्वर आकूल हो गया। उसने देवमन्दिर के समीप उद्यान में रहनेवाले मालियों से पूछा-'हे (मालियो) ! इस प्रकार का सेठ का पूत्र देवमन्दिर से कहीं जाता हुआ आप लोगों ने तो नहीं देखा?' उन्होंने कहा-'आर्य, नहीं देखा। यहाँ पर एक चोर पकड़ा गया है और अभी-अभी मार डाला Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२ [ समराइच्चकहा तत्थ गओ त्ति । तओ संखुद्धो महेसरो। भणियं च णेण-भद्दा भद्दा, कहिं तं वज्झथामं । साहियं मालिएहि । विसण्णचित्तो गओ महेसरो। दिट्ठो य णेण सूलियाविभिन्नदेहो दारुणं अवत्थमणुहवंतो अरुणदेवो । 'हा सेट्टिपुत्त' ति भणमाणो निडिओ महेसरो; मुच्छिओ य एसो। कोउयाणुयंपाहि समासासिओ पेच्छ्यजहि । पेच्छिओ यहि-अज्ज, को एसो सेट्टिपुत्तो ति । तओ सगग्गय भणियं महेसरेण हन्त, किमेयाए कहाए। निव्वत्तं' कहाणयं। एसो खु तामलित्तितिलयभूयस्स पुत्तो कुमारदेवस्स इह नयरवत्थव्वयस्स जामाउओ जसाइच्चस्स वहणभंगेण विउत्तपरियणो अज्जेव इमं नयरमागओ त्ति । भणिओ य मए-कुमार, एत्थ भवओ ससुरकुलं ति; तातहिं पविसम्ह । तओ जंपियमणेणअज्ज, न जुत्तो मे एयावत्थगयस्स ससुरकुलपवेतो। मए भणियं- कुमार, ज इ एवं, ता चिट्ठ ताव तुम एत्थ देवउले, जाव आणेमि हट्ठाओ अहं किपि भोयणजायं ति। तो पडिस्सुयमणेण । गओ य अहयं पावकम्मो। समागओ घेत्तूण भोयणं । निरूवियं देवउलं, जाव न दिट्ठो त्ति । तओ पुच्छ्यिा मालागारा। पिसुणियमणेहि, जहा 'गहिओ संपयं चेव एत्थ देवउलाओ चोरो वावाइओ य; ता निरूवेहि तत्थ; कौतुकेन तत्र गत इति । ततः संक्षब्धो महेश्वरः। भणितं च तेन-भद्र ! भद्र ! कत्र तद वध्यस्थानम् । कथितं मालिकः । विषण्णचित्तो गतो महेश्वरः । दृष्टस्तेन शूलिकाविभिन्नदहो दारुणामवस्थामनुभवन्नरुणदेवः । 'हा श्रेष्ठिपुत्र' इति भणन् निपतितो महेश्वरः, मूच्छितश्चैषः । कौतुकानुकम्पाभ्यां समाश्वासितः प्रेक्षकजनः । पृष्टश्च तैः-आर्य ! क एष श्रेष्ठिपुत्र इति। ततः सगद्गदं भणितं महेश्वरेण-हन्त किमेतया कथता । निर्वृत्तं कथानकम् । एष खलु ताम्रलिप्तीतिलकभूतस्य पुत्रः कुमारदेवस्येह नगरवास्तव्यस्य जामातको यशआदित्यस्य वहनभङ्गेन वियुक्तपरिजनोऽद्य वेदं नगरमागत इति । भणितश्च मया-कुमार ! अत्र भवतः श्वसुरकुलमिति, ततस्तत्र प्रविशावः । ततो जल्पितमनेन-~-आर्य ! न युक्तो मे एतदवस्थागतस्य श्वसुरकुलप्रवेशः । मया भणितम्कुमार! यद्येवं ततस्तिष्ठ तावत् त्वमत्र देवकुले, यावदानयामि हट्टादहं किमपि भोजनजातमिति । ततः प्रतिश्रुतमनेन । गतश्वाहं पापकर्मा । समागतो गृहीत्वा भोजनम् । निरूपितं देवकुलम्, यावन्न दृष्ट इति । ततः पृष्टा मालाकाराः। पिशुनित मेभिः, यथा 'गृहीतः साम्प्रतमेवात्र देवकलाच्चौरो गया। अत: नहीं हमें नहीं मालूम । यदि कौतूहल हो तो वहाँ जाओ।' अनन्तर महेश्वर क्षुब्ध हुआ। उसने कहा'भद्र ! भद्र ! यह वध्यस्थान कहाँ है ? मालियों ने बताया। खिन्नचित्त होता हुआ महेश्वर गया। उसने शूली से भेदे हुए शरीरवाले, भयंकर अवस्था का अनुभव करते हुए अरुणदेव को देखा । 'हाय श्रेष्ठिपुत्र'- ऐसा कहता हुआ महेश्वरदत्त गिर गया। इसे मूर्छा आ गयी। कोतूहल और दया से दशकों ने आश्वस्त किया और उन्होंने पूछा-'आर्य ! यह श्रेष्ठिपुत्र कौन है ?' तब गद्गद होकर महेश्वर ने कहा-'खेद है, इस कथा से क्या, कथानक समाप्त हो गया। ह ताम्रलिप्ती के तिलकभूत कुमारदेव का पुत्र और इस नगरवासी यशादित्य का दामाद जहाज टूट जाने के कारण परिजनों से वियक्त हआ आज ही इस नगर में आया था। मैंने कहा-कमार ! यहाँ पर तुम्हारे श्वसुर का घर है, अत: वहाँ दोनों प्रवेश करें। तब इसने कहा-इस अवस्था में आये हए मेरा श्वसुर के घर जाना उचित नहीं है । मैंने कहा-यदि ऐसा है तो तुम यहाँ देवमन्दिर में ठहरो, जब तक मैं बाजार से कुछ भोजन-सामग्री लाता हूँ । अनन्तर इसने स्वीकार किया और मैं पापी चला गया। भोजन लेकर आया। देवमन्दिर में देखा, वहाँ पर दिखाई नहीं दिया । अनन्तर मालियों से पूछा । इन्होंने सूचना दी कि 'अभी १. निवृत्तं-च। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो भवो ] ६५३ जइ कोउगेण गओ' ति। निरूविओ वज्झथामे। अओ परं 'एस दिट्ठो' त्ति भणिऊण निवडिओ धरणिवठे तत्तवालयागओ विय मच्छओ तडफडिओ धराए। उट्ठिऊण सिलाओ अप्पाणयं वहिउमाढत्तो त्ति । धरिओ पेच्छ्यजणेहिं । फुट्टो य एस वइयरो लोए । तओ आयणिओ जसाइच्चेण । देइणि घेत्तूण आगओ एसो। दिट्ठोणेण अरुणदेवो पच्चभिन्नाओ य । 'अहो मे अहन्नय' तिमुच्छिओ सह देइणीए । समासासिओ परियणेण । भणियं जसाइच्चेण-कट्ठाणि मे नोसारेड् । न सबकुणोमि एवं सोयसंतावं विसहिउं; ता परिच्चएमि जीवियं ति । सवणपरंपराए एवं सोऊण कुविओ दंडवासियाण राया। भणियमणेहि--देव, सलोत्तओ एस दिट्ठो, न उण अम्हे जोइणो ति। पच्चाइओ णेहिं राया। समागओ जसाइच्चपच्चायणनिमित्तं वज्झत्थामं राया। भणिओ य ण सेट्ठी-- अज्ज, देव्वं एत्थ अवरज्झइ, न उण अम्हाण बुद्धी। ता अलं इमिणा ववसाएणं । एवं विहा देवपरिणइ ति। एत्थंतरम्मि 'एयवइयरेणं पडिबुझंति एत्थ बहवे पाणिणो' ति मुणिऊण समागओ भयवं व्यापादितश्च, ततो निरूपय तत्र, यदि कौतुकेन गतः' इति । निरूपितो वध्यस्थाने । अतः परं 'एष दृष्टः' इति भणित्वा निपतितो धरणीपृष्ठे तप्तवालुकागत इव मत्स्यो व्याकुलितो धरायाम् । उत्थाय शिलाया आत्मानं घातयितुमारब्ध इति । धतः प्रेक्षकजनः । स्फुटितश्चैष व्यतिकरो लोके। ततः आकर्णितो यशआदित्येन। देविनी गृहीत्वा आगत एषः । दृष्टस्तेनारुणदेव: प्रत्यभिज्ञातश्च । 'अहो मेऽधन्यता' इति मच्छितः सह देविन्या। समाश्वासितः परिजनेन । भणितं यशआदित्येन - काष्ठानि मे निःसारयत । न शक्नोम्येतं शोकसन्तापं विसोढम्, ततः परित्यजामि जीवितामति । श्रवणपरम्परयतच्छ त्वा कुपितो दण्डपाशिकेभ्यो राजा। भणितमेभिः--देव ! सलोप्त्रक एष दृष्टः, न पुनर्वयं योगिन इति । प्रत्यायितस्तै राजा । समागतो यशआदित्यप्रत्यायननिमित्तं वध्यस्थानं राजा। भणितश्च तेन श्रेष्ठो-आर्य ! दैवमत्रापराध्यति, न पुनरस्माकं बुद्धिः । ततोऽलमनेन व्यवसायेन । एवंविधा देवपरिणतिरिति । अत्रान्तरे 'एतद्व्यतिकरेण प्रतिबुध्यन्तेऽत्र बहवः प्राणिनः' इति ज्ञात्वा समागतो भगवान् यहाँ देवमन्दिर से एक चोर पकड़ा गया और मार डाला गया है, अत: यदि कौतूहल हो तो वहाँ देखो । वध्यस्थान में देखा । अनन्तर यह देखा'---ऐसा कहकर तपी हुई बालू में पड़ी हुई मछली के समान व्याकुल होकर पृथ्वी पर गिर गया। उठकर शिला से अपने को मारना प्रारम्भ किया। दर्शकों ने पकड़ लिया। यह घटना लोक में फैल गयी। यशादित्य ने सुना। देविनी को लेकर वह आया। उसने अरुणदेव को देखा और पहिचान लिया। 'ओह मेरी अधन्यता !' इस प्रकार देविनी के साथ मच्छित हो गया। परिजनों ने आश्वस्त किया। यशादित्य ने कहा 'मेरे लिए लकड़ियाँ लाओ, मैं इस शोक के सन्ताप को सहन नहीं कर सकता, अतः प्राण त्याग करता हूँ।' कानों-कान यह बात सुनकर राजा सिपाहियों पर कुपित हुआ। सिपाहियों ने कहा- 'यह चोरी के माल के साथ देखा गया, हम लोग योगी तो नहीं हैं।' उन्होंने राजा को विश्वास दिला दिया। राजा यशादित्य को विश्वास दिलाने के लिए वध्यस्थान में आया। उसने सेठ से कहा---'आर्य ! दैव ही अपराध कराता है, न कि हमारी बुद्धि । अत: ऐसा निश्चय मत करो । भाग्य की परिणति ही इस प्रकार की होती है।' इसी बीच 'इस घटना से यहाँ बहत से प्राणी प्रतिबोधित होंगे'-ऐसा जानकर मति, श्रुति, अवधि और १. अब 'ओयारिओ सलियाओं पडिमणुहवंती अरुणदेवो' इत्यधिक: पाठ:--डे. ज्ञा.।' Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । समराइच्चकहा चउणाणो देवसाहुसमेओ अमरेसरो नाम गणहरो। तप्पहावेण महेसराईणं वियलिओ सोयाणुबंधो। अहो अउव्वदंसणो भयवं पसंतो तियसपूइओ य। जाया धम्मसवणबुद्धी। कयं भयवओ तियसेहि उचियकरणिज्ज, सोहिओ धरणिभाओ, वरिसियं गंधोदयं, विमुक्कं कुसुमवरिसं, विउव्वियं कंचणपउमं। उवविट्ठो तत्थ भयवं अमरेसरो, पत्थुया धम्मकहा। भणियं च ण-भो भो देवाणुप्पिया, परिच्चयह मोहनि, जग्गेह धम्मजागरेणं, परिहरह पाणवहाइए पावट्ठाणे, अंगीकरेह खंतिपमुहे गुणे, उज्झेह भाववेरियं पमायं । पमायवसओ हि जीवो थेवेण वि अणायारदोसेण विवायदारुणाई पभूयकालवेयणिज्जाइं बंधेइ कम्माई, तविवाएणं च पावेइ सारीरमाणसे दुक्खे, जहा एस अरुणदेवो देइणो य। तओ नरवइपमुहेहिं पुच्छिओ गणहरो-भयवं, कि कयमणेहिं । एत्यंतरम्मि साहियं भयवया नाणसूरेण पुवकहियं कहाणयं । अहो एहहमेत्तस्स वि दुक्कडस्स ईइसो विवागो त्ति संविग्गा परिसा । मच्छिओ अरुणदेवो देइणी य। लद्धा चेयणा, समुप्पन्नं जाइसरणं, अवगओ संकिलेसो, आवडिओ सुहपरिणामो। भणियं च हिं–भयवं, एवमेयं, जं भयवया आइलैं ति। चतुर्ज्ञानी देवसाधसमेतोऽमरेश्वरो नाम गणधरः । तत्प्रभावेन महेश्वरादीनां विचलितः शोकानुबन्धः । अहो अपूर्वदर्शनो भगवान् प्रशान्तस्त्रिदशपूजितश्च । जाता धर्मश्रवणबुद्धि। कृतं भगवतस्त्रिदशैरुचितकरणीयम, शोभितो धरणीभागः, वृष्टं गन्धोदकम्, विमुक्तं कुसुमवर्षम्, विकुर्वितं काञ्चनपद्मम् । उपविष्टस्तत्र भगवान् अमरेश्वरः, प्रस्तुता धर्मकथा । भणितं च तेन-भो भो देवानुप्रियाः ! परित्यजत मोहनिद्राम्, जागृत धर्मजागरेण, परिहरत प्राणवधादिकानि पापस्थानानि, अङ्गीकुरुत क्षान्तिप्रमुखान् गणान्, उज्झत भाववैरिकं प्रमादम् । प्रमादवशगो हि जोवः स्तोकेनापि अनाचारदोषेण विपाकदारुणानि प्रभतकालवेदनीयानि बध्नाति कर्माणि, तद्विपाकेन च प्राप्नोति शरीरमानसानि दुःखानि, यथेषोऽरुणदेवो देविनी च । ततो नरपतिप्रमुखैः पृष्टो गणधरः-भगवन् ! किं कृतमाभ्याम् । अत्रान्तरे कथित भगवता ज्ञानसूरेण पूर्वकथितं कथानकम् । अहो एतावन्मात्रस्यापि दुष्कृतस्येदशो विपाक इति संविग्ना परिषद् । मूच्छितोऽरुणदेवो देविनी च । लब्धा चेतना, समूत्पन्नं जातिस्मरणम, अपगतः संक्लेशः, आपतितः शभपरिणामः । भणितं च ताभ्याम्-भगवन् ! एवमेतद्, यद् भगवताऽऽदिष्ट मिति । संस्मृताऽऽवाभ्यां पूर्वजातिः । मन:पर्यय-इन चार ज्ञान के धारी अमरेश्वर नाम के गणधर आये। उनके प्रभाव से महेश्वर आदि का शोक दूर हो गया। ओह ! भगवान् अपूर्वदर्शी, प्रशान्त और देवों से पूजित हैं । धर्म सुनने की बुद्धि हुई । देवताओं ने भगवान् के योग्य कार्यों को किया, पृथ्वी शोभित हो गयी, गन्धोदक की वर्षा हुई । फूलों की वर्षा की, स्वर्णकमलों की रचना की। वहां पर भगवान् अमरेश्वर विराजमान हुए। धर्मकथा प्रस्तुत की । उन्होंने कहा—'हे देवानुप्रियो ! मोहनिद्रा को छोड़ो, धर्म जागरण से जागो, प्राणिवध आदि पाप के स्थानों का परिहार करो, क्षमादि प्रमुख गुणों को अंगीकार करो, भावों के वैरी प्रमाद को छोड़ो। प्रमाद के वश होकर जीव थोड़े से भी अनाचार के दोष से परिणामस्वरूप दारुण, बहुत काल तक अनुभव किये जानेवाले कर्मों को बाँधता है और उसके फलस्वरूप शारीरिक और मानसिक दुःखों को पाता है, जिस प्रकार अरुणदेव और देविनी ने प्राप्त किये। तब राजादि प्रमुख पुरुषों ने गणधर से पूछा-'भगवन् ! इन दोनों ने क्या किया था ?' तब भगवान् ज्ञानसूर्य ने पहिले कहे हुए कथानक को कहा। ओह , इतने से पाप का यह फल होता है !-ऐसा सोचकर सभा भयभीत हुई । अरुणदेव और देविनी मूच्छित हुए। होश आया, जातिस्मरण उत्पन्न हुआ, दुःख दूर हुआ, शुभ परिणाम हुए। उन दोनों ने कहा-'भगवन् ! जो भगवान् ने आज्ञा दी यह वैसा ही है। हम दोनों को पूर्वजन्म का स्मरण हो आया । जिन Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो भवो ] ६५५ संभरिया अम्हेहिं पुव्वजाई । पाविया जिणधम्मबोही । एवंविहा कम्मपरिणइ त्ति अवगयं अट्टज्झाणं, सप्पन्न संवेगो । तापच्चवखेहि भयवं अम्हाणमणसणं ति । अवणेहि जाइजरामरणरोग सोगभयं । भयवया भणियं - अणुरुवमेयं इमाए अवत्थाए । विसुद्धपच्चक्खाणं हि अवणेइ भयपरंपरं, उच्छाएइ दोग्इं, घडेइ सोगईए, साहेइ सुरनरसुहाई, जणेइ परमनिव्वाणं । तओ नरवइसे ट्टिसंमएण पच्चक्खायमणसणं, अहिणंदिओ र्णोह भयवं अमरेसरो । भणियं च हिं- भयवं, सुलद्धं णे माणुसत्तणं, जत्थ तुमं धम्मसारही । विचित्तकम्मपरिणामवस्याणं च जं किंचि वसणमेयं । ता आइसउ भयवं, कि अम्हेहि कायव्वं ति । भयवया भणियं कथं कायव्वं । तहावि छड्डेह सव्वभावेसु दुक्खमूलं ममत्तं भावेह निरवसेसेसु जीवेसु परमपयकारणं मेत्ति, दुगुंछेह सुद्धभावेणं पुव्वदुक्कडाई, बहुमन्नेह तित्थयरपणीए नाणदंसणचरित्ते, चितेह पमायवज्जणेण परमपयसरूवं ति । पडिस्सुयमणेहिं । पारद्धं च एवं जहासत्तीए । एत्थंतरम्मि संवेगमागएणं जंपियं नरिदेणं - भयवं, जइ एद्दहमेत्तस्स वि टुक्कडस्स ईइसो प्राप्ता जिनधर्मबोधिः । एवंविधा कर्मपरिणतिरित्यपगत मार्तध्यानम्, समुत्पन्नः संवेगाः । ततः प्रत्याख्याहि (प्रत्याख्यापय) भगवन् ! आवयोरनशनमिति । अपनय जातिजरामरणरोगशोकभयम् । भगवता भणितम् - अनुरूपमेतदस्या अवस्थायाः । विशुद्धप्रत्याख्यानं हि अपनयति भवपरम्पराम्, उच्छादयति दुर्गतिम्, घटयति सुगत्या, साधयति सुरनरसुखानि, जनयति परमनिर्वाणम् । ततो नरपतिश्रेष्ठिसम्मतेन प्रत्याख्यातमनशनम्, अभिनन्दितस्ताभ्यां भगवानमरेश्वरः । भणितं च ताभ्याम् - भगवन् ! सुलब्धमावयोर्मानुषत्वम्, यत्र त्वं धर्मसारथिः । विचित्रकर्मपरिणामवशगानां च यत् किञ्चिद् व्यसनमेतद् । तत आदिशतु भगवान्, किमावाभ्यां कर्तव्यमिति । भगवता भणितम् - कृतं कर्तव्यम्, तथापि मुञ्चतं सर्वभावेषु दुःखमूलं ममत्वम् भावयतं निरवशेषेषु जीवेषु परमपदकारणं मैत्रीम्, जुगुप्सेथां शुद्धभावेन पूर्वदुष्कृतानि, बहु मन्येथां तीर्थंकरप्रणीतानि ज्ञानदर्शनचारित्राणि, चिन्तयतं प्रमादवर्जनेन परमपदस्वरूपमिति । प्रतिश्रुतमाभ्याम् । प्रारब्धं चैतद्यथाशक्ति । अत्रान्तरे संवेगमागतेन जल्पितं नरेन्द्रेण भगवन् - यदि एतावन्मात्रस्यापि दुष्कृतस्येदृशो धर्म का ज्ञान प्राप्त हुआ। 'कर्म का फल ऐसा होता है'- इस प्रकार आर्तध्यान जाता रहा, विरक्ति उत्पन्न हुई। अनन्तर 'भगवन् ! हम दोनों के अनशन को तुड़वाओ, जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक और भय को दूर करो।' भगवान् ने कहा - 'इस अवस्था के यह अनुरूप है। विशुद्ध त्याग संसार परम्परा का नाश करता है, दुर्गति को नष्ट करता है, सुगति को प्राप्त कराता है, देव और मनुष्य के सुखों का साधन करता है । उत्कृष्ट मोक्ष को उत्पन्न करता है ।' अनन्तर राजा और सेठ की सम्मति से अनशन तोड़ा, उन दोनों का भगवान् अमरेश्वर ने अभिनन्दन किया। उन दोनों ने कहा- 'भगवन् ! हम लोगों ने सुन्दर मनुष्यभव पाया जहाँ कि आप जैसे धर्मसारथी हैं । विचित्र कर्म परिणामों के वशीभूत हुए लोगों के लिए यह व्यसन है । अतः भगवान् आज्ञा दें, हम दोनों क्या करें ?' भगवान् ने कहा- 'कर्तव्य कर लिया तथापि समस्त पदार्थों में दुःख के मूल ममत्व को त्यागो । सम्पूर्ण जीवों के प्रति मोक्षपद की कारणभूत मंत्री की भावना करो, शुद्धभाव से पहिले किये हुए दुष्कृतों से घृणा करो, तीर्थकरों के द्वारा प्रणीत सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र का आदर करो, प्रमाद छोड़कर मोक्ष के स्वरूप को विचारो ।' इन दोनों ने स्वीकार किया और इसे यथाशक्ति प्रारम्भ कर दिया । इसी बीच वैराग्य को प्राप्त राजा ने कहा- 'भगवन् ! यदि इतने से ही पाप का ऐसा फल हुआ तो उत्कट Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ [ समराइच्चकहा विवाओ, ता किं पुण अणुहविस्सं ति एए उद्दामपमायवसया अणवेक्खियकारिणो अम्हारिसा पाणिणो त्ति। भयवया भणियं-महाराय, ईइसी चेव एसा कम्मपरिणई, एइहमेत्तपमायजणियस्स चेव एवमाइयं फलं; अहिययरसंचियस्स उ तिरियनारएस ति । तत्थ तिव्याओ विडंबणाओ पहयकालाओ य। तयवेक्खाए य ज किंचि एवं ति। एएणं चेव कारणेणं जंपियं तिलोयगुरुणा । सुहाहिलासिणा ख थेवो वि वज्जियव्वो पमाओ। अवि य । भक्खियव्वं विसं, संतप्पियन्वो वाही, कोलियन्वं जलणेणं, कायव्वा सत्तुसंगई, वसियध्वं भयंगेहि न उण कायन्वो पमाओ। इहलोयावगारिणो विसाई, उभयलोयावगारी य पमाओ त्ति । अवि य।पमायसामथओ, महाराय, परिच्चयंति जीवा सयत्थं, पयटंति सरहसमकज्जे. न जोएंति आयई, न पेच्छंति पत्थुयं, न मुणंति गुरुलाघवं, न बहु मन्नंति गुरुं, न भाति सहासियं । तओ य ते बंधिऊण पावकम्मयाइं विवाएण तेसि नारयाइएसु परमासुहट्ठाणेसु नत्थि तं संकिलेसटाणं, जं न पाति ति। राइणा भणियं-भयवं, अस्थि उण कोइ उवाओ इमस्स आसेवियस्स। भयवया भणियं-अत्थि। राइणा भणियं-कोइसो । भयवया भणियं-सव्वारंभपरिग्गहचाएण विपाकस्ततः किं पुनरनुभविष्यन्त्येते उद्दामप्रमादवशगा अनवेक्षित कारिणोऽस्मादशाः प्राणिन इति । भगवता भणितम----महाराज ! ईदृश्येवैषा कर्मपरिणतिः, एतावन्माप्रमादजानतस्यैव एवमादिकं फलम, अधिकतरसंचितस्य तु तिर्यङ नारकयोरिति । तत्र तीव्रा विडम्बनाः प्रभतकालाश्च । तदपेक्षया च यत्किञ्चिदेतदिति। एतेनैव कारणेन जल्पितं त्रिलोकगुरुणा । सुखाभिलाषिणा खल स्तोकोऽपि वर्जयितव्यः प्रमादः । अपि च, भक्षयितव्यं विषम्, सन्तप्तव्यो व्याधिः, क्रीडितव्यं ज्वलनेन, कर्तव्या शत्रसङ्गतिः, वस्तव्यं भुजङ्गः न पुनः कर्तव्यः प्रमादः । इहलोकापकारिणो विषादयः, उभयलोकापकारी च प्रमाद इति । अपि च, प्रमादसामर्थ्यतो महाराज ! परित्यजन्ति जीवाः स्वार्थम्, प्रवर्तन्ते सरभसमकार्ये, न पश्यन्त्यायतिम्, न प्रेक्षन्ते प्रस्तुतम्, न जानन्ति गुरुलाघवम्, न बहु मन्यते गरुम, न भावयन्ति सुभाषितम् । ततश्च ते बद्ध्वा पापकर्माणि विपाकेन तेषां नारकादिकेष परमाशभ स्थानकेष नास्ति तत्संक्लेशस्थानम्, यन्न प्राप्नुवन्ति इति। राज्ञा भणितम्-भगवन ! अस्ति पनः कोप्यपायोऽस्यासेवितस्य । भगवता भणितम्--अस्ति। राज्ञा भणितम् ---कीदृशः । भगवता प्रमाद के वश हए, बिना विचारे कार्य करनेवाले हम जैसे प्राणी क्या अनुभव करेंगे ?' भगवान् ने कहामहाराज ! यह कर्मपरिणति ऐसी ही है, इतने से प्रमाद उत्पन्न होने का इस प्रकार फल है, अत्यधिक संचय करनेवालों का फल तिर्यंच और नरक योनि है। वहाँ एक तो महाकष्ट है और फिर अधिक काल तक इसे सहन करना, उसकी अपेक्षा यह कुछ भी नहीं है, बहुत थोड़ा है। इसी कारण तीनों लोकों के गुरु ने कहा है-'सुख के अभिलाषी को थोडे से भी प्रमाद से बचना चाहिए।' और भी-विष का भक्षण कर ले, रोग से दःखी हो ले. अग्नि से खेल ले, शत्र की संगति कर ले, सर्षों के साथ निवास कर ले, किन्तु प्रमाद न करे । विष आदि तो इस लोक के ही अपकारी हैं, किन्तु प्रमाद उभयलोक का अपकार करनेवाला है। दूसरी बात यह है महाराज ! कि प्रमाद की सामर्थ्य से जीव आत्मार्थ को त्याग देते हैं। सरभ के समान कार्य में प्रवर्तते हैं, आपत्ति को नहीं देखते हैं, प्रस्तुत को नहीं देखते हैं, : गुरुता लघुता को नहीं जानते हैं, गुरु का आदर नहीं करते हैं और सूक्तियों को नहीं भाते हैं। अनन्तर वे पापकर्मों को बाँधकर उनके फलस्वरूप नरकादि परम अशुभ स्थानों में, (अथवा) ऐसा कोई संक्लेश स्थान नहीं, जिसे ये न प्राप्त करते हों। राजा ने कहा-'इसके न सेवन का कोई उपाय है ?' भगवान् ने ...१.. तत्तं-डे. ज्ञा.। . . ..... . .. Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सतमो भवो] ६५७ चरित्तमेत्तधणेहि अप्पमायाराहणं ति। अप्पमाओ हि नाम, महाराय, एगंतियं कम्मवाहिओसहं अणिदियं सव्वलोए, आणंदियं बहाणं, सव्वस्सं महाणुभावस्स, निप्पच्चवायं उभयलोएसं, उच्छायणं मिच्छत्तस्स, संवडढणं नाणपरिणईए, जणयं अप्पमायाइसयस्स, साहणं सयलकल्लाणाणं, निव्वत्तय परमारोग्गसोक्खस्स । पडिवन्नपमाया ख पाणिणो तयप्पभइमेव अप्पमायसामत्थेण पवड्ढमाणसंवेगा निरइयारसोलयाए खर्वेति महापमायसंचियाई कम्माई, अभावओ निमित्तस्स न बंधंति य नवाई। तओ य, ते देवाणप्पिया, खविऊण कम्मजालं संपाविऊण केवलं अपुणरागमणं जाइजरामरणरोगसोगरहियं निरुवमसुहसमेयं मोक्खमणगच्छंति, न सेवंति ते पुणो पमायं ति । राइणा भणियं-भयवं, किन्न पाडवन्नो अप्पमाओ एएहि, जेण एइहमेत्तं पि पमायचेट्टियं एएसिमेवं परिणयं ति । भयवया भणियं-महाराय, पडिवन्नो; कि तु विसमा कम्मपरिणई; न अप्पमायमेत्तण निरवसेसा खवोयइ, अवि य अप्पमापाइसएणं, न पडिवन्नो य एसो इमेहि। अप्पमायमेत्तेण वि य खवियाई एवं विहाई भणितम-सर्वारम्भपरिग्रहत्यागेन चारित्रमात्रधनैरप्रमादाराधनमिति । अप्रमादो हि नाम महाराज ! ऐकान्तिकं कर्म व्याध्यौषधम्, अनिन्दितं सर्वलोके, आनन्दितं बुधानाम्, सर्वस्वं महानुभावस्य, निष्प्रत्यवायमुभयलोकेषु, उत्सादनं मिथ्यात्वस्य, संवर्धनं ज्ञानपरिणत्या:. जनकमप्रमादातिशयस्य, साधनं सकल कल्याणानाम्, निर्वर्तकं परमारोग्यसौख्यस्य। प्रतिपन्नप्रमादा: खल प्राणिनस्त प्रभूत्येवाप्रमादसामोन प्रवर्धमानसंवेगा निरतिचारशीलतया क्षपयन्ति महाप्रमादसञ्चितानि कर्माणि, अभावतो निमित्तस्य न बध्नन्ति च नवानि । ततश्च ते देवानुप्रिय ! क्षपयित्वा कर्मजालं सम्प्राप्य केवलमपुनरागमनं जातिजरामरणरोगशोकरहित निरुपमसुखसमेतं मोक्षमनुगच्छन्ति, न सेवन्ते ते पन: प्रमादमिति । राज्ञा भणितम्-भगवन् ! किन्न प्रतिपन्नोऽप्रमाद एताभ्याम, येन एतावन्मात्रमपि प्रमादचेष्टितमेतयोरेवं परिणतमिति । भगवता भणितममहाराज ! प्रतिपन्नः, किन्तु विषमा कर्मपरिणतिः, नाप्रमादमात्रेण निरवशेषा क्षप्यते, अपि चाप्रमादातिशयेन, न प्रतिपन्नश्चेष आभ्याम् । अप्रमादमात्रेणापि च पितान्येवंविधानि बह कहा-'है ।' राजा ने कहा-'कैसा ?' भगवान् ने कहा -'समस्त आरम्भ और परिग्रह का त्यागकर चारित्रमात्र, धनवालों के द्वारा अप्रमाद की आराधना होती है। महाराज ! अप्रमाद कर्मरूपी रोग की एकमात्र औषधि है, जो समस्त लोक में अनिन्दित है, विद्वानों को आनन्द देनेवाला है, महानुभाव का सर्वस्व है, दोनों लोकों में निर्दोष है, मिथ्यात्व को नष्ट करनेवाला है, ज्ञानरूप फल को बढ़ाता है, अप्रमाद की अतिशयता का जनक है, समस्त कल्याणों का साधन है और परम आरोग्यरूपी सूख की उत्पत्ति करनेवाला है। अप्रमाद को प्राप्त हए प्राणी उसी समय से अप्रमाद के सामर्थ्य से परम सवेग को बढ़ाकर, अतिचार (दोष) रहित आचरण से महाप्रमाद द्वारा संचित कर्मों को नष्ट करते हैं और निमित्त (कारण) के अभाव में नये कर्मों को नहीं बाँधते हैं । अनन्तर हे देवानप्रिय !कर्मसमूह को नाशकर केवलज्ञान प्राप्त कर, जिससे पुन: आगमन नहीं होता ऐसे जन्म, जरा, मरण, रोग और शोक से रहित अनुपम सुख से युक्त मोक्ष को प्राप्त करते हैं, पुनः प्रमाद का सेवन नहीं करते हैं। राजा ने कहा-'क्या इन दोनों ने अप्रमाद प्राप्त नहीं किया था, जिससे इतनी-सी प्रमाद-चेष्टा का फल इन लोगों को इस प्रकार मिला ?' भगवान् ने कहा-'महाराज ! प्राप्त किया था, किन्तु कर्म का फल भयंकर है, अप्रमाद मात्र से वह सम्पर्ण नष्ट नहीं होता है अथवा अप्रमाद की अधिकता से इन दोनों ने (कर्म फल) नहीं प्राप्त किया। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइच्चकहा बहुविहाई बहुयाइं एएहि, छिन्नो य पुणो वि एवंविहदुच्चरियहेऊ अणुबंधो सेस कम्मयाणं, भावियं बीयं अप्पनायाइसयस्स । ता धन्नाणि एयाणि। एदहमेत्तो चेव एएसि एस किलेसो। अओ चेव भणियं भयवया विइय संसारमोक्खसरूवेण पइसमयमेव कायन्वो अप्पमाओ, विसेसेण संभरियव्वाई पुव्वदुक्कडाई, संवेगाइसएण निदियव्वाणि, अप्पणा विसुद्धविरइभावेण निवेइयव्वाणि गुरुणो, निवियप्पेण कायव्वं विहिपुव्वयं पच्छित्तं । एवं विवक्खभूयविसिटुसुहपरिणामनिदिणाइजलणदड्ढाणं कम्मबीयाणं अप्पमायाइसयसमुन्भूयसुहझाणवणदवाणुप्पत्ताण वा न होइ नियमेण विवागंकुरप्पसूई, न उण सेसयाणं । ता एवं ववत्थिए पत्ते वि अप्पमाए पमायचेट्टियसंजायकम्मपरिणई अविरुद्ध ति । तओ पडिबुद्धो राया। करावियं सव्वबंधणविमोयणाइयं उचियकरणिज्ज। पवन्नो पव्वज्जं सह जसाइच्चमहसरेहि । एयं च वइयरमायण्णिऊण संजायपच्छायावो समागओ सो कडयचोरो । निव्वेयसारं भणियं च णेण-भयवं, पावकम्मो अहं। मए कयमिणं निसंसरियं, नावेक्खिओ उभयलोयसाहारणो धम्मो, बहु मन्निओ अहम्मो, दूसियं माणुसत्तणं, अंगीकया दुक्खपरंपरा । ता विधानि बहुकान्येताभ्याम्, छिन्नश्च पुनरप्येवंविधदुश्चरितहेतुरनुबन्धः शेषकर्मणाम्, भावितं बीजमप्रमादातिशयस्य । ततो धन्यावेतौ। एतावन्मात्र एवैतयोरेष क्लेशः। अत एव भणितं भगवता विदितसंसारमोक्षस्वरूपेण प्रतिसमयमेव कर्तव्योऽप्रमाद:, विशेषेण सस्मर्तव्यानि पूर्वदुष्कृतानि, संवेगातिशयेन निन्दितव्यानि, आत्मना विशुद्धविरतिभावेन निवेदयितव्यानि गुरवे, निर्विकल्पेन कर्तव्यं विधिपूर्वकं प्रायश्चित्तम् । एवं विपक्षभूतविशिष्टशुभपरिणामनिन्दनादिज्वलनदग्धानां कर्मबीजानामप्रमादातिशयसमुद्भूतशुभध्यानवनदवानुप्राप्तानां वा न भवति नियमेन विपाकाङ कुरप्रसूतिः, न पुनः शेषाणाम् । तत एवं व्यवस्थिते प्राप्तेऽप्यप्रमादे प्रमादचेष्टितसञ्जातकर्मपरिणतिरविरुद्धेति । ततः प्रतिबद्धो राजा। कारितं सर्वबन्धनमोचनादिकमुचित करणीयम्। प्रपन्नः प्रव्रज्यां सह यशआदित्यमहेश्वराभ्याम । एतं च व्यतिकरमाकर्ण्य सजातपश्चात्तापः समागतः स कटकचौरः । निर्वेदसारं भणितं च तेन-भगवन् ! पापकर्माऽहम् । मया कृतमिदं नृशंसचरितम्, नापेक्षित उभयलोकसाधारणो धर्मः, बहु मतोऽधर्मः, दूषितं मानुषत्वम्, अङ्गीकृता दुःख परम्परा । अप्रमाद मात्र से भी इन दोनों ने इस तरह के अनेक प्रकार के बहुत से कर्मों का नाश किया और इस तरह के दुश्चरित के कारणरूप शेष कर्मों के बन्ध को छेदा है और अप्रमाद के अतिशय के बीज की भावना को।' अनन्तर ये दोनों धन्य हुए। इन दोनों का यह क्लेश इतना ही है । अतएव भगवान् ने कहा है कि संसार और मोक्ष के स्वरूप को जानकर प्रतिसमय अप्रमाद करना चाहिए, पहले किये हुए पागों का विशेष स्मरण रखना चाहिए और वैराग्य की अधिकता से निन्दा करनी चाहिए, अपनी विशुद्ध विरति के भाव से गुरु से निवेदन करना चाहिए, निर्विकल्प रूप से विधिपूर्वक प्रायश्चित्त करना चाहिए। इस प्रकार प्रतिपक्षी विशेष शुभ परिणाम, निन्दनादि की अग्नि में जले हुए कर्मबीज वालों का अप्रमाद की अधिकता से उत्पन्न शुभध्यान रूप वनाग्नि को प्राप्त प्राणियों के नियम से फलरूप (नये) अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती है। बचे हुए कर्मों के विषय में ऐसा नहीं है अर्थात् उनका फल तो भोगना ही पड़ता है। ऐसी स्थिति में अप्रमाद को प्राप्त कर लेने पर भी प्रमादचेष्टा से उत्पन्न कर्म का फल अविरुद्ध है ।' अनन्तर राजा प्रतिबुद्ध (जागृत) हुआ। समस्त बन्धनों को छुड़ाने आदि योग्य कार्यों को कराया। य शादित्य और महेश्वर के साथ दीक्षा प्राप्त कर ली। इस घटना को सुनकर जिसे पश्चात्ताप उत्पन्न हुआ है ऐसा वह कड़े का चोर आया। विरक्त होकर उसने भगवान् से कहा--'भगवन् ! मैंने पापकर्म किया है। मैंने यह नसभापरण किया है। मैंने उभय लोक के लिए समान धर्म की अपेक्षा नहीं की, अधर्म को Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ सत्तमो भवो] कि इमिणा वयणमेतफलेग वायावित्थरेगं । भयवं, अवस्समहं पाणे परिच्चएमि । ता एवं ववथिए जहाजतमाइससु ति। तओ दिन्नो भयवया उवओगो, आहोइओ से नियमकरणाणबंधी निच्छओ। चितियं च णेणं-न तोरए इमो अहिययरगुणभायण काउं, अक्कतो मोहपरमबंधुणा सोएण, पणट्ठा सुद्धधीरया, समागयं लोइयसुंदरतणं । ता इमं एत्थ पत्तयालं ति। समालोचिऊण साहिओ अणसणविही। पडिवन्नं चोरेण अणसणं । दिन्नो से नमोक्कारो, पडिच्छिओ चोरेण । निदिओ बहुविहं अप्पा । वंदिओ भयवं । अहाउयक्खएणं च कालगओ अरुणदेवो देइणो य तक्करो य, समप्पन्नाणि सुरलोए। ता एवं ववत्थिए असाररज्जसंसाहणत्थं महासंगामो त्ति असोहणमणुचिट्ठियं भवया। एवं सोऊण समुत्पन्नचरणपरिणामेण भणियं सेणकुमारण-भयवं, कुलपरिहवामरिसिएणाणुचिट्ठियमिणं, असुंदरं च त्ति अवगमियाणि । सुओ भयवओ सयासे इमस्स उवसमोवाओ। ता किमन्नेण; जइ उचिओ अहं पव्वज्जाए, ता करेह अणुग्गहं, देह मम एवं ति । भयवया भणिय--- साहु, भो देवाणुप्पिया, साहु, सोहणमझवसियं । हेओ चेव एस संसारो। विवेगसंपन्नो गुरुगणबहततः किमनेन वचनमात्रफलेन वागविस्तरेण । भगवन् ! अवश्यमहं प्राणान् परित्यजामि । तत एवं व्यवस्थिते यथायुक्तमादिशेति । ततो दत्तो भगवता उपयोगः, आभोगितस्तस्य नियमकरणानुबन्धी निश्चयः। चिन्तितं च तेन-न शक्यतेऽयमधिकतरगुणभाजनं कर्तुम्, आक्रान्तो मोहपरमबन्धना शोकेन, प्रनष्टा शद्धधीरता, समागतं लौकिकसुन्दरत्वम् । तत इदमत्र प्राप्तकालमिति समालोच्य कथितोऽनशनविधिः । प्रतिपन्न चौरेणानशनम् । दत्तस्तस्य नमस्कारः । प्रतीष्टश्चौरेण । निन्दितो बहुविधमात्मा। वन्दितो भगवान् । यथायुष्कक्षयेण च कालगतोऽरुणदेवो देविनी च तस्कर इच, समुत्पन्नाः सुरलोके । तत एवं व्यवस्थितेऽसारराज्यसंसाधनार्थ महासंग्राम इत्यशोभनमनुष्टितं भवता । एवं श्रुत्वा समुत्पन्नचरणपरिणामेन भणित सेनकुमारेण-भगवन् ! कुलपरिभवाषितेनानुष्ठितमिदम् , असुन्दरं चेत्यवगतमिदानीम् । श्रुतो भगवतः सकाशेऽस्योपशमोपायः । ततः किमन्येन, यद्यचितोऽहं प्रव्रज्यायास्ततः कुरुतानुग्रहम्, दत्त ममैतामिति । भगवता भणितम् - साधु भो देवानप्रिय ! साधु, शोभनमध्यवसितम् । हेय एवैष संसारः। विवेकसम्पन्नो गुरुगुण बहुम, नीति बहुत माना, मनुष्यभव को दूपित किया, दुःख की परम्परा को अंगीकार किया। अतः वचनमात्र फलवाली इस वाणी के विस्तार से क्या, भगवन् ! मैं अवश्य ही प्राणों का परित्याग करता हूँ, तो ऐसी स्थिति में यथायोग्य आदेश दीजिए। अनन्तर भगवान् ने ध्यान लगाया। उसका नियमपूर्वक अपने प्राणों का परित्याग करने सम्बन्धी निश्चय था। भगवान् ने सोचा--इसे अधिक गुण का पात्र नहीं बनाया जा सकता, मोह के परमबन्धु शोक से (यह आक्रान्त है, शुद्ध धैर्य नष्ट हो गया है, लौकिक सुन्दरता (इसके) आ गयी है । तो 'यहाँ यह मृत्यु आ गयी है'--- ऐसा विचारकर अनशन की विधि कही। चोर ने अनशन स्वीकार किया । उसे नमस्कार मन्त्र दिया, चोर ने स्वीकार किया। अनेक प्रकार से अपनी निन्दा की। भगवान की वन्दना की। आयुकर्म के क्षयानुसार मृत्यु को प्राप्त कर अरुणदेव, देविनी और चोर स्वर्ग में उत्पन्न हुए। तो ऐसी स्थिति में असार राज्य का साधन करने के लिए महासंग्राम कर आपने अशुभ कार्य किया है--ऐसा सुनकर जिसे चारित्ररूप (शुभ) परिणाम उत्पन्न हो गये हैं, ऐसा सेनकुमार बोला- 'भगवन् ! कुल के पराभव से उत्पन्न रोष के कारण मैंने यह (संग्राम) किया है, यह ठीक नहीं (असुन्दर) है-ऐसा अब मैंने जाना है। भगवान् के ही सभीप इसके उपशम का उपाय भी सुना । अतः अन्य से क्या, यदि मैं दीक्षा के योग्य हूँ तो अनुग्रह करो, मुझे दीक्षा दो।' भगवान् ने कहा-'हे देवानुप्रिय ! ठीक है, अच्छा निश्चय किया है । यह संसार छोड़ने योग्य ही है । तुम विवेक सम्पन्न हो, गुणों के गौरव से सम्मान Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६० [समराइच्चकहा माणि त्ति उचिओ तुम पव्वज्जाए। ता लहुं संपाडेहि समीहियं । पहवइ मणोरहाचलवज्जासणी अणिच्चया। तओ कुमारेण भगिओ अमच्चो-अज्ज, सुयं तए भयवओ वयणमेयं । संपाडेमि अहमेयं किरियाए। हिचितओ य मे तुमं । ता अणुमन्नसु तुमं ति। अमच्चेण भणियं-अविग्धं देवस्स । कि तु विन्नवेमि देवं; अट्ठ दिवसाणि इमिणा चेव समुदाचारेण अणग्गहेउ मं देवो। तओ परिचत्तमेव मए सावज्ज । 'एसो वि चिरयालोवउत्तो सुही होउ' ति चितिऊण पडिस्सुयं कुमारेण । तओ दवावियममच्चेणाघोसणापुव्वयं महादाणं, कराविया अट्टाहिया महिमा, ठाविओ रज्जे कुमारपुत्तो अमरसेणो, अहिणंदियाओ पयाओ, सम्माणिया सामंता, निउत्ता महंतया। तओ पसत्थे तिहिकरणमहत्तजोए अणकूलेणं सउणसंघाएणं पवयणवण्णिएण विहिणा समं संतिमईए अमरगुरुपमहपहाणपरियणेण य पव्वइओ हरिसेणगुरुसमीवे कुमारो। ___ अइक्कतो कोइ कालो। अहिज्जियं सुत्तं, अवहारिओ तयत्थो, आसेविया किरिया। उचिओ जिणकप्पपडिवत्तीए त्ति अणुन्नविय गुरुयणं बहु मन्निओ तेण अहाविहीए पडिवन्नो जिणकप्पं । कहं उचितस्त्वं प्रव्रज्यायाः । ततो लघु सम्पादय समोहितम् । प्रभवति मनोरथाचलवज्राशनिरनित्यता। ततः कुमारेण भणितोऽमात्यः-आर्य ! श्रुतं त्वया भगवतो वचनमेतद । सम्पादयाम्यहमेतां क्रियया । हितचिन्तकश्च मे त्वम्, ततोऽनुमन्यस्व त्वमिति । अमात्येन भणितम-अविघ्नं देवस्य, किन्तु विज्ञपयामि देवम्, अष्ट दिवसान्यनेन समुदाचारेणानुगृह्णातु मां देवः । ततः परित्यक्तमेव मया सावद्यम् । 'एषोऽपि चिरकालोपयुक्तः सुखी भवतु' इति चिन्तयित्वा प्रतिश्रुतं कुमारेण । ततो दापितममात्येनाघोषणापूर्वकं महादानम्, कारिताऽष्टाहिका महिमा, स्थापितो राज्ये कुमारपुत्रोऽमरसेनः, अभिनन्दिताः प्रजाः, सम्मानिताः सामन्ताः, नियुक्ता महान्तः । ततः प्रशस्ते तिथिकरणमुहर्तयोगेऽनुकलेन शकुनसङ्घातेन प्रवचनवर्णितेन विधिना समं शान्तिमत्या अमरगुरुप्रमुखप्रधानपरिजनेन च प्रबजितो हरिषेणगुरुसमीपे कुमारः। __ अतिक्रान्तः कोऽपि कालः। अधोतं सूत्रम्, अवधारितस्तदर्थः, आसेविताः क्रियाः । उचितो जिनकल्पप्रतिपत्या इत्यनुज्ञाप्य गुरुजनं बहुमानितस्तेन यथा विधि प्रतिपन्नो जिनकल्पम् । कथम् युक्त हो, अतः प्रव्रज्या के योग्य हो । अतएव इष्ट कार्य शीघ्र सम्पन्न करो। मनोरथरूपी पर्वत के लिए वज्र के तुल्य अनित्यता सामर्थ्यबाली है । अनन्तर कुमार ने मन्त्री से कहा-'आर्य! तुमने भगवान् से यह वचन सुना। मैं यह कार्य पूरा करता हूँ। तुम मेरे हितचिन्तक हो अतः तुम अनुमति दो।' मन्त्री ने कहा-'महाराज को कोई विघ्न नहीं है, किन्तु महाराज से निवेदन करता हूँ कि आठ दिन इस समीचीन आचरण के द्वारा मुझे अनुगृहीत करें। अनन्तर मैंने पाप छोड़ ही दिया । 'यह भी चिरकाल तक अच्छी तरह सुखी हो' --ऐसा सोचकर कुमार ने स्वीकृति दे दी । अनन्तर घोषणा कराकर मन्त्री के द्वारा महादान दिलवाया, अष्टाह्निक महोत्सव कराया, राज्य पर कुमार के पुत्र अमरसेन को बैठाया, प्रजाओं का अभिनन्दन किया, सामन्तों का सम्मान किया, बड़े पुरुषों को नियुक्त किया। अनन्तर प्रशस्त तिथि, करण और मुहूर्त के योग में अनुकूल शकुनों के साथ शास्त्रों में वर्णित विधि से शान्तिमती के साथ, अमरगुरु प्रमुख प्रधानपरिजनों के साय कुमार हरिषेण गुरु के पास प्रवजित हो गया। कुछ समय बीता। सूत्र पढ़ा, उसके अर्थ को जाना, क्रियाओं का सेवन किया। 'जिनकल्प की प्राप्ति के योग्य हो' इस प्रकार गुरुजनों से आज्ञा लेकर उनसे सत्कृत हो, विधिपूर्वक जिनकल्प को प्राप्त हुआ। कैसे Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो भवो] ६६१ तवेण सुत्तेण अत्थेणं एगतेण बलेण य। तुलणा पंचहा वुत्ता जिणकप्पं पडिवज्जओ ॥ ६४५ ॥ पढमा उवस्सयम्मी बीया बाहिं तइया चउक्कम्मि। सुन्नहरम्मि चउत्थो तह पंचमिया सुसाणम्मि' ॥ ६४६ ॥ एवमाइ तुलिऊणं अप्पाणं। ___ तओ गामेऽगरायं नगरे पंचराएण विहरमाणो अइक्कते पहूयकाले समागओ कोल्लागसन्निवेसं । ठिओ एगत्थ पडिमाए। दिट्ठो य भटुरज्जेणं कइवयपुरिससहाएण परिन्भमंतेण विसेणेण । दुरंतपुवकयकम्मदोसेण जाओ य से कोवो। चितियं च णेण-अहो मे पावपरिणई, पुणो वि एस दिवो ति। अहवा सोहणमिणं, जओ एस एयाई मुक्काउहो विवित्तदेसटिओ य। ता वावाएमि एयं पावकम्मं, पूरेमि अत्तणो मणोरहे । अहवा न जुत्तमसि नियकुलउत्तयाण पुरओ वावायणं ति । ता पुणो वावाइस्सं ति। चितिऊण पयट्टो तयासन्नदेवउलसमीवं। [मा वियाणिस्संति 'एएण वावाइयंति न साहिउँ निययपुरिसाणं गओ तयासन्नमेवावासथामं देवउलं । थेववेलाए य अइक्कंतो वासरो, तपसा सूत्रेण अर्थन एकान्तेन बलेन च । तुलना पञ्चधोक्ता जिनकल्पं प्रतिपद्यमानस्य ।। ६४५ ।। प्रथमोपाश्रये द्वितीया बहिस्तृतीया चतुष्के । शून्यगृहे चतुर्थी तथा पञ्चमी श्मशाने ॥६४६॥ एवमादि तुलयित्वाऽऽत्मानम् । ततो ग्रामे एकरात्र नगरे पञ्चरानेण विहरन् अतिक्रान्ते प्रभूतकाले समागत: कोल्लाकसन्निवेशम् । स्थित एकत्र प्रतिमया। दृष्टश्च भ्रष्ट राज्येन कतिपयपुरुषसहायेन परिभ्रमता विषणेन । दुरन्तपूर्वकृतकर्मदोषेण जातश्च तस्य कोपः । चिन्तितं च तेन-अहो मे पापपरिणतिः, पुनरप्येष दृष्ट इति । अथवा शोभनमिदम्, यत एष एकाकी मुक्तायुधो विविक्तदेशस्थितश्च । ततो व्यापादयाम्येतं पापकर्माणम्, पूरयाम्यात्मनो मनोरथान् । अथवा न युक्तमेतेषां निजकुलपुत्राणां पुरतो व्यापादन मिति । ततः पुनापादयिष्ये इति । चिन्तयित्वा प्रवृत्तस्तदासन्नदेवकुलसमीपम् । [मा विज्ञास्यन्ति 'एतेन व्यापादितम्' इति अकथयित्वा निजपुरुषेभ्यो गतस्तदासन्नमेवावासस्थानं जिनकल्प को प्राप्त हुए की तुलना तप, सूत्र, अर्थ, एकान्त और बल इस प्रकार से पाँच प्रकार की कही गयी है। प्रथम उपाश्रय में, दूसरी बाहर, तीसरी चौराहे पर, चौथी शून्य गृह में तथा पांचवीं श्मशान में ॥६४५-६४६॥ ---इस प्रकार अपने आपको तोलकर । ___ अनन्तर गाँव में एकरात्रि, नगर में पांच रात्रि विहार करते हुए अधिक समय बीत जाने पर कोल्लक सन्निवेश में आये । वहाँ पर प्रतिमायोग से स्थित हो गये । कुछ पुरुषों के साथ भ्रमण करते हुए राज्य से भ्रष्ट हुए कुमार विषेण ने (उन्हें) देखा। कठिनाई से अन्त होनेवाले पूर्वकृत कर्म के दोष से उसे कोप हुआ और उसने सोचा-'ओह ! मेरे पाप का फल, यह पुनः दिखाई दे गया। अथवा यह ठीक है; क्योंकि यह अकेला अस्त्र त्याग किया हुआ और एकान्त स्थान में है । अतः इस पापी को मारता हूँ, अपने मनोरथ को पूर्ण करता हूँ । अथवा अपने कुलपुत्रों के साथ इसको मारना उचित नहीं है। अतः बाद में मार डालूंगा-ऐसा सोचकर समीपवर्ती देवमन्दिर के पास चला गया ['इसने मारा' ऐसा नहीं जानेंगे अतः अपने आदमियों से बिना कहे ही वहाँ समीप के ही देव १. मसाणम्मि-डे. ज्ञा.। २. विविहतवसोसियदेहो वि ए (स) अभिन्नाओ तेण जाओ-पा. ज्ञा.। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | समराइच्चकहा समागया रयणी । पसुतो देवउलपीढियाए विसेणो । अड्ढरत्तसमए य घेत्तूण मंडलग्गं एक्कओ चेव ओणमुनिवरसम्रीवं । दिट्ठो य णेणं भाणनिच्चलमणो मुणी । वियंभिया से अरई, वड्ढिओ मोहो, अवगया वियारणा, पज्जलिओ को वाणलो, फुरियं दाहिणभुयाए, कड्ढिय मंडलगं, भणिओ य भयवं - अरे दुरायार, सुबिट्ठ जीवलोयं करेहि; विबन्नो संपयं मम हत्थाओ । परमज्याणट्टियमणेण नायfणयं भयवया | आयण्णियं च भयवओ गुणाणुराइणीए खेत्तदेवयाए । कुविया एसा विसेणस्स । वाहियण मंडलग्गं भयवओ, अवहडं खेत्तदेवयाए, थंभिओ एसो, भणिओ य णाए-अहो ते पावकमया, अहो संकिलेसो, अहो अणज्जत्तणं, अहो विवेयसुन्नया, जो एवं वासीचं दणकप्पस्त भयवओ वि एवं बवससि । ता गच्छ, अदट्ठव्वो तुमं ति । भणिय उत्थंभिओ सदयं देवयाए । तिव्वकसाओदएणं च अवगणिऊण देवयाए' वयणं पयट्टो पुणो वि घाइउं भयवंतं । तलप्पहारिओ देवयाए, विणित रुहिरुग्गारं निवडिओ धरणिवट्ठे, मुच्छिओ वियणाए । 'भयवओ उग्गहो' त्ति संबुद्धा देवया । आसासिओ सकरुणं, अवणीओ उग्गहाओ, मुक्को नेऊण वर्णानिउंजे । तिरोहिया देवया । चितियं च णेणं - अहो 1 1 ६६२ देवकुलम् ।] स्तोकवेलायां चातिक्रान्तो वासरः समागता रजनी । प्रसुप्तो देवकुलपीठिकायां विषेणः । अर्ध रात्रसमये च गृहीत्वा मण्डलाग्रमेकक एव गतः सेनमुनिवरसमीपम् । दृष्टस्तेन ध्याननिश्चलमना मुनिः । विजृम्भिता तस्यारतिः, वृद्धो मोहः, अपगता विचारणा, प्रज्वलितः कोपानलः, स्फुरितं दक्षिणभुजया, कृष्टं मण्डलाग्रम्, भणितश्च भगवान् - अरे दुराचार ! सुदृष्टं जीवलोकं कुरु, विपन्नः साम्प्रतं मम हस्ताद् परमध्यानस्थित मनसा नाकणितं भगवता ? आकणितं च भगवतो गुणानुरागिण्या क्षेत्रदेवतया । कुपितैषा विषेणस्य । वाहितमनेन मण्डलाग्रं भगवतः, अपहृतं क्षेत्रदेवतया । स्तम्भित एषः, भणितश्च तथा - अहो ते पापकर्मता, अहो अनार्यत्वम्, अहो विवेकशून्यता, य एवं वासीचन्दनकल्पस्य भगवतोऽपि एवं व्यवस्यसि । ततो गच्छ, अद्रष्टव्यस्त्वमिति । भणित्वोत्तम्भितः सदयं देवतया । तीव्रकषायोदयेन चावगणय्य देवताया वचनं प्रवृत्तः पुनरपि घातयितुं भगवन्तम् । तल प्रहारितो देवतया, विनिर्यद्रुधिरोद्गारं निपतितो धरणीपृष्ठे, मूच्छितो वेदनया । 'भगवतोऽवग्रहः' इति संक्षुब्धा देवता । आश्वासितः सकरुणम् । अपनीतोऽवग्रहात्, मुक्तो नीत्वा वननिकुञ्जे । मन्दिर में चला गया ] थोड़ी देर हुई कि दिन बीत गया, रात आयी । देवमन्दिर के चबूतरे पर विषेण सोया । आधी रात के समय तलवार लेकर अकेला ही सेन मुनिवर के पास गया। उसने ध्यान से निश्चल मन वाले मुनि को देखा । उसका क्रोध बढ़ गया, मोह बढ़ा, विचार नष्ट हुआ, क्रोधाग्नि प्रज्वलित हुई, दाहिनी भुजा फड़की, तलवार खींची और भगवान से कहा - ' अरे दुराचारी ! अच्छी तरह संसार को देख ले, अब तुम मेरे हाथ से मारे गये ।' परमध्यान में स्थित मन बाले भगवान् ने नहीं सुना और भगवान् के गुणों की अनुरागी क्षेत्रदेवी ने सुन लिया । यह विषेण पर कुपित हुई । विषेण ने भगवान् के ऊपर तलवार चलायी, क्षेत्रदेवी ने छीन ली। यह स्तम्भित हो गया । क्षेत्रदेवी ने कहा- 'तेरा पापकर्म, संक्लेश, अनार्यता तथा विवेकशून्यता आश्चर्यकारक है जो कि ऐसे चन्दन के समान सुगन्धि देनेवाले भगवान् के प्रति भी इस प्रकार का कार्य करता है । अतः जाओ, तुम न दिखाई देने योग्य हो ।' ऐसा कहकर दयापूर्वक देवी ने उठा दिया । तीव्रकषाय के उदय से देवी के वचन को न मानकर पुनः भगवान् को मारने के लिए प्रवृत्त हुआ। देवी ने थप्पड़ मार दी । रुधिर का वमन करता हुआ धरती पर गिर गया, वेदना से मूच्छित हो गया । भगवान् को बाधा होगी, यह सोचकर वनदेवी क्षुब्ध हुई । करुणायुक्त १. देवयावयणंपा ज्ञा. । अवमन्निऊण देवयं-- डे. ज्ञा. । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६३ सत्तमो भवो ] मे पावपरिणई । कहं पुण न एस वावाइओ ति। गहिओ अमरिसेण। भावियं रोद्दज्झाणं । बद्धं नरयाउयं, पोसियं अहिणिवेसेण। अइक्कंतो कोइ कालो। अन्नया विउत्ते परियणे वाहिज्जमाणो छहाए एगाई चेव वच्चमाणो वोप्पिलाडवीए, मझभागम्मि गिद्धावयरणनिमित्तं पिच्छसंपायणुज्जएहि सवरेहि पयंपमाणो दीणविस्सरं वावाइओ विसेणो। समुप्पन्नो तमाभिहाणाए नरयपुढवीए बावीससागरोवमाऊ नारगो त्ति । भयवं पि सेणाणगारो विहरिऊण संजमुज्जोएण भाविऊण उवसमसुहं काऊण संलेहणं वंदिऊण वीयराए पडिवज्जिऊणमणसणं काऊण "लगंडसाइतं आराहिऊण भावणाओ चहऊण देहपंजर समुप्पन्नो नवमगेवेज्जए तीससागररोवमाऊ देवो त्ति। ॥ समतो सत्तमो भवो ।। तिरोहिता देवता। चिन्तितं च तेन---अहो मे पापपरिणतिः। कथं पुनर्नैष व्यापादित इति । गृहीतोऽमर्षेग। भावितं रौद्रध्यानम् । बद्धं नरकायः, पोषितमभिनिवेशेन। अतिक्रान्तः कोपि कालः । अन्यदः वियुक्त परिजने बाध्यमानो क्षुधा एकाक्येव व्रजन् वोप्पिलाटव्या मध्यभागे गृध्रावत रणनिमित्तं पिच्छसम्पादनोद्यतैः शबरैः प्रजल्लन दीनविस्वरं व्यापादितो विषेणः । समुत्पन्नस्तमोऽभिधानायां नरकपृथिव्यां द्वाविंशतिसागरोपमायुर्नारक इति । भगवानपि सेनानगारो विहृत्य संयमोद्योगेन भावयित्वोपशमसुखं कृत्वा संलेखनां वन्दित्वा वोतरागान् प्रतिपद्यानशनं कृत्वा लगण्डशायित्वं (वक्रकाष्ठमिव शयनं कृत्वा) आराध्य भावनास्त्यक्त्वा देहपञ्जरं समुत्पन्नो नवमवेयके त्रिंशत्सागरोपमायुर्देव इति । ॥ समाप्तं सप्तमभवग्रहणम् ॥ होकर (विषेण को) आश्वस्त किया। बाधा से दूर किया, वनकुंन में ले जाकर छोड़ दिया। देवी तिरोहित हो गयी। विषेण ने सोचा--ओह मेरे पाप का फल ! यह कैसे नहीं मारा गया ? क्रुद्ध हुआ। रौद्रध्यान किया । नरक की आयु बाँधी । दुष्ट अभिप्राय से नरकायु का पोषण किया । कुछ समय बीता। एक बार परिजनों के वियुक्त हो जाने पर क्षुधा से पीड़ित अकेला ही भ्रमण करते हुए, दीन स्वर में बोलते हुए विषेण को वोप्पिल अटवी (वन) के मध्य भाग में गोधों के उतरने के लिए पंखों के सम्पादन में उद्यत शबरों ने मार डाला । वह तमः नामक नरक की पृथ्वी में बाईस सागर की आयु वाला नारकी हुआ। ___ भगवान् सेन मुनि भी संयमपूर्वक विहारकर उपशम सुख की भावना कर, सल्लेखना कर, वीतरागों की वन्दना कर, अनशन को प्राप्त कर, टेढ़ी लकडो के समान शयन कर, भावनाओं को आराधना कर, शरीररूपी पिंजड़े को छोड़कर नवम ग्रैवेयक में तीस सागर की आयु वाले देव हुए। ||सातवां भव समाप्त ॥ १. लगडं दुसस्थितं (वक्र) काष्ठं तद्वच्छिरः पाणी नां भलग्नेन शेरते ये ते लगडशायिनः, तेषां भावो लगंडशायित्वम् (प्रश्न माया रण टीका प. १०७) Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो भवो वक्खायं जं भणियं सेणविसेणा उ वित्तियसूयति । गुणचंदवाणमंतर तो एयं पवक्खामि ॥ ६४७॥ अस्थि व जम्बुद्दीवे दीवे भारहे वासे महामहल्लुत्तुंगभवणसिह रुप्पं कनिरुद्धरविरहमग्गा देव विहारारामसंगया निच्चुस्सवाणंदपमुइय महाजणा निवासो तिहुयणसिरीए निदरिसणं देवनयरीए विस्सकम्मविणिम्मिया अओज्झा नाम नयरी। जीए उप्पत्ती विव लायण्णस्स आगरो विव विलासाणं कोसल्लपगरिसो विव पयावइस्स जम्मभूमी विव विम्हयाणं विसुद्धसीलसमायारो इत्थिया । जीए गुणक्खवाई अच्चुयारचरिओ निवासो परमलच्छोए पियंवओ पणइवग्गस्स संपाओ समीहिया पुरिसवग्गो त्ति । तीए य अइसइयपुव्वपत्थिवचरिओ पयावसरिसपसायवसीकयसत्तू, रायसिए विय अविउत्तो कित्तीए, नीईए विय अविरहिओ दयाए, अच्चंतपयाहियपीई व्याख्यातं यद् भणितं सेनविषेणी पितृव्यसुताविति । गुणचन्द्रवानव्यन्तरौ इत एतत् प्रवक्ष्यामि ||६४७॥ अस्तीहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे महामहोत्तुङ्गभवन शिखरोत्पङ्क निरुद्ध र विरथमार्गा देवकुलविहारारामसङ्गता नित्योत्सवानन्दप्रमुदितमहाजना निवासस्त्रिभुवनश्रियो निदर्शनं देवनगर्या विश्वकर्मविनिर्मिता अयोध्या नाम नगरी । यस्यामुत्पत्तिरिव लावण्यस्य आकर इव विलासानां कौशल्यप्रकर्ष इव प्रजापतेः जन्मभूमिरिव विस्मयानां विशुद्धशीलसमाचारः स्त्रीजनः । यस्यां च गुणैकान्तपक्षपाती अत्युदारचरितो निवासः परमलक्ष्म्याः प्रियंवदः प्रणयिवर्गस्य सम्पादकः सभीहितानां पुरुषवर्ग इति । तस्यां चातिशयितपूर्व पार्थिवचरितः प्रतापसदृशप्रसादवशीकृतसकलशत्रुः, राजश्रियेवावियुक्तः कर्त्या, नीत्येवाविरहितो दयया, अत्यन्तप्रजाहितप्रातिमैत्रीबलो नाम राजा । सेन और विषेण नामक चचेरे भाइयों के विषय में जो कहा गया, उसकी व्याख्या हो चुकी । अब गुणचन्द्र और बाणमन्तर के विषय में यहाँ से कहूँगा || ६४७ ॥ जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में अयोध्या नामक नगरी है। वहाँ के अत्यधिक ऊँचे भवनों के शिखरसमूह से सूर्य के रथ का मार्ग रुक जाता था । देवमन्दिर, विहार और उद्यानों से वह युक्त थी । नित्य होने वाले उत्सवों के आनन्द से वहाँ लोग बड़े प्रमुदित रहते थे । वह तीनों लोकों की लक्ष्मी का निवास थी (तथा) विश्वकर्मा द्वारा निर्मित देवनगरी का उदाहरण थी, जिसमें विशुद्ध शील और आचार वाली स्त्रियाँ थीं। वे माना सौन्दर्य की उद्गम .विलासों की खान, प्रजापति के कौशल का प्रकर्ष और विस्मयों की जन्मभूमि थीं। वहीं गुणों के प्रति असाधारण पक्षपाती, अत्यन्त उदारचरित वाला, परम लक्ष्मी का निवास, प्रिय बोलने वाला और याचकों की कामनाओं को पूर्ण करनेवाला पुरुषवर्ग था । उस नगरी में पूर्वराजाओं के चरित से भी अधिक उत्कृष्ट चरित्र वाला, प्रताप के समान कृपा से जिसने समस्त शत्रुओं को वश में किया था, राजलक्ष्मी के समान कीर्ति से युक्त, नीति के समान दया से युक्त, प्रजा के हित में अत्यन्त प्रीति रखनेवाला मैत्रीबल नामक राजा था । उसकी Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो भवो ] मेतोबलो नाम राया। तस्स सपलंतेउरप्पहाणा पउमावई नाम देवो। स (सो)इमोए सह विसयसुहमविसु ति। इओ य सो नवमोवेज्जयनिवासी देवो अहाउयं पालिऊण चुओ समाणो समुप्पन्नो पउमावईए कुच्छिसि । दिळं च णाए सुमिणयम्मि तीए चेव रयणीए पहायसमम्मि विमलमहा. सलिलपडिहत्थं समद्धासियं नलिणिसंडेणं विरायमाणं विउद्धकमलायरसिरोए हंसकारंडवचक्कवाओवसोहियं रुणरुणंतेणं भमरजालेणं समन्नियं कप्पपायवराईए समासन्नदिव्योववणसोहियं पणच्चमाणं पिव कल्लोललीलाकरेहि महंत सरवरं वयणेणमयरं पविसमाणं ति । पासिऊण य तं सुहविउद्धा एसा। साहिओ य तीए जहाविहिं दइयस्स । हरिसवसग्घवियपुलएणं भणिया य तेणं-सुंदरि, सयलमेइणोसरनारदकमलायरभोयलालसो महारायहंसो ते पुत्तो भविस्सइ। पडिस्सुयं तीए। अहिययर परितुद्वा एसा। तओ सविसेसं तिवग्गसंपायणरयाए पत्तो पसूइसमओ । तओ पसथतिहिकरणमहत्तजोए सुहंसहेणं पसूया एसा। दसदिसि उज्जोयंतो सुकुमालपाणिपाओ जाओ से दारओ। निवेइओ राइणो मेतीबलस्स पमोयमंजूसाभिहाणाए चेडियाए, जहा 'महाराय, देवी पउमावई दारयं तस्य सकलान्तःपुरप्रधाना पद्यावतो नाम देवी। सोऽनया सह विषयसुखमन्वभूदिति । इतश्च स नवमग्रैवेयकनिवासी देवो यथायुष्कं पालयित्वा च्युतः सन् समुत्पन्नः पद्मावत्याः कुक्षौ । दृष्टं च तया स्वप्ने तस्थामेव रजन्यां प्रभातसमये विमलमहासलिलपरिपूर्ण समध्यासितं नलिनीषण्डेन विराजमानं विबुद्धकमलाकरश्रिया हंसकारण्डवचक्रवाकोपशोभितं रुण रुणायमानेन भ्रमरजालेन समन्वितं कल्पपादपराज्या समासन्नदिव्योपवनशोभितं प्रनत्यदिव कल्लोललीलाकरैर्महत् सरोवरं वदनेनोदरं प्रविशदिति । दृष्ट्वा च तत् सुखविबुद्धषा । कथितश्च तया यथाविधि दयितस्य । हर्ष वशपूर्णपुलकेन भणिता च तेन-सुन्दरि ! सकलमेदिनीश्वरनरेन्द्रकमलाकरभोगलालसो महाराजहंसस्ते पुत्रो भविष्यति । प्रतिश्रुतं तया। अधिकतरं परितुष्टैषा। ततः स विशेष त्रिवर्गसम्पादनरतायाः प्राप्तः प्रसूतिसमयः । ततः प्रशस्ततिथिकरणमूहर्तयोगे सूखसुखेन प्रसूतैषा । दश दिश उद्योतयन् सुकुमार. पाणि दो जातस्तस्या दारकः । निवेदितो राज्ञो मैत्रीबलस्य प्रमोदमञ्जूषाभिधानया चेटिकया, यथा 'महाराज ! देवी पद्मावती दारकं प्रसूता' इति । परितुष्टो राजा । दत्तं तस्यै पारितोषिकम् । समस्त अन्तःपुर में प्रधान पद्मावती नामक रानी थी । वह इस के साथ विषयसुख का अनुभव कर रहा था । इधर वह नवम ग्रैवेयक का निवासी देव आयु पूरी कर च्युत होकर पद्मावती की कुक्षि में उत्पन्न हुआ। पद्मावती ने उसी रात स्वप्न में प्रात: समय स्वच्छ जल से परिपर्ण, कमलिनी समूह से युक्त, विकसित कमलों के समूह की शोभा से सुशोभित, हंस, कारण्डव तथा चक्रवों से शोभित, भ्रमरसमूह से गुंजायमान, कल्पवृक्षों की पंक्ति से युक्त, समीपवर्ती दिव्य उद्यान से शोभित, तरंगरूपी हाथों की लीलाओं से मानो नृत्य करता हुआ, एक महान् सरोवर मुख से उदर में प्रवेश करता हुआ देखा। उसे देखकर यह सुखपूर्वक जाग गयी और उसने विधिपूर्वक पति से स्वप्न के विषय में कहा। हर्षवश रोमांचयुक्त होकर उसने कहा---'सुन्दरि ! कमलों के समूह (सरोवर, लक्ष्मी) के भोग की लालसा वाले राजहंस के समान समस्त पृथ्वीपतियों का स्वामी तुम्हारा पुत्र होगा।' उसने स्वीकार किया। यह (रानी) अत्यधिक सन्तुष्ट हुई। अनन्तर विशेष रूप से धर्म, अर्थ और काम में रत रहते हुए इसका प्रसति समय आया। तब प्रशस्त तिथि, करण और महतं के योग में अत्यधिक सखपर्वक इसने प्रसव ! दिशाओं को प्रकाशित करता हुआ, सुकुमार हाथ-गरों वाला उसके बालक हुआ । प्रमोदमंजूषा नामक दासी ने मैचीबल में निवेदन किया कि महाराज देवी प्रधानतीने पुत्र पसव किया है। राजा सन्तुष्ट हुआ द्वामी को Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चकहा पसूय' त्ति । परितुद्दो राया। दिन्नं तीए पारिओसियं । करावियं बंधणमोयणाइयं उचियकरणिज्ज । हरिसिओ नयरिजणवओ। ऊसियाओ भवणेसु आणंदधयवडायाओ। कयाओ आययणेसु मणहरविसेसपूयाओ, पउत्ताइं च पइभवणेसु वज्जंतेणं परमपमोयतूरेणं गिज्जतेणं जम्ममंगलगेएणं नच्चंतीहिं तरुणरामाहि पेच्छंतीहिं सहरिसं वुड्ढाहि पिज्जमाणपवरासवाई वड्ढमाणहल्लप्फलयाई उल्लासंतेणं तरियसंघाएणं फलं पावें तेणं वेयालियसम हेणं अच्चुदारविच्छड्डाई महापमोयपिसुणयाई ति । उचियवेलाए य सन्वभवणेहितो निग्गया नयरिजणवया, पयट्टा य रायभवणसंमुहं । ते य तहा पेच्छिऊण हरिसवसपयट्टपुलओ संभमाइसएण सहरिसनच्चंतवारविलयासमेओ नयरिजणाभिमुहमेव निग्गओ राया। वद्धाविओ पुत्तजम्मभदएणं नयरिजणवहि । भणिया य राइणा- तुम्हाणं चेव एसा वुद्धि त्ति । अहिणंदिऊण सबहुभाणं पेच्छिऊण तेसि विच्छड्ड सम्माणिऊण जहोचियं पविट्ठो सभवाम्म । एवं च पइदिणं महंतमाणंदसोक्खमणुहवंतस्स समइच्छिओ पढनमासो। पइट्ठावियं नामं दारयस्स 'उचिओ एस एयस्स' कलिऊण पियामहसंतियं गुणचंदो ति । सो य विसिढ़पुण्णफलमणहवंतो पत्तो कुमारभावं। अच्चंताइसएण गहियाओ कलाओ। तं जहा - लेहं गणियं आलेक्खं नट गीयं वाइयं कारितं बन्धनमोचनादिकमुचितकरणीयम्। हर्षितो नगरीजनवजः। उत्सिता (उद्बद्धा) भवनेषु आनन्दध्वजपताकाः । कृता आयतनेषु मनोहरविशेषपूजाः, प्रयुक्तानि च प्रतिभवनं वाद्यमानेन परमप्रमोदतर्येण गीयमानेन जन्ममङ्गलगेयेन नृत्यन्तीभिस्तरुणरामाभिः प्रेक्षमाणाभिः सहर्ष वृद्धाभि: पीयमानप्रवरासवानि वर्धमानत्वराणि उल्लसता तर्यसङ्घातेन (पुष्पाण्युत्कीरता) फलं प्राप्नुवता वैतालिकसमूहेन अत्युदार विच्छर्दानि (-विभवानि) महाप्रमोदपिशुनकानि वर्धापनकानीति । उचितवेलायां च सर्वभवनेभ्यो निर्गता नगरीजनवजाः, प्रवृत्ताश्च राजसम्मुखम । तांश्च तथा प्रेक्ष्य हर्षवशप्रवृत्तपुलक: सम्भ्रमातिशयेन सहर्षनृत्यद्वारवनितासमेतो नगरीजनाभिमुखमेव निर्गतो राजा । वर्धापितः (वधितः) पुत्रजन्माभ्युदयेन नगरोजनवजैः । भणितश्च राज्ञा-युष्माकमेव एषा वृद्धिरिति । अभिनन्द्य सबहुमानं प्रेक्ष्य तेषां विच्छदं (वैभवं) सम्मान्य यथोचितं प्रविष्ट: स्वभवनम् । एवं च प्रतिदिन महद् आनन्दसौख्यमनुभवतः समतिक्रान्तः प्रथममासः । प्रतिष्ठापितं नाम दारकस्य 'उचित एष एतस्य' इति कलयित्वा पितामहसत्कं गुणचन्द्र इति । स च विशिष्टपुण्यफलमनुभवन् प्राप्तः कुमारभावम् । अत्यन्तातिशयेन गृहीताः कलाः। तद्यथा--लेखम्, गणितम्, आलेख्यम्, पारितोषिक दिया। बन्दियों की मुक्ति आदि योग्य कार्य किये। नगर का जन-समूह हर्षित हआ। भवनों में आनन्द से ध्वज और पताकाएं बांधी गयीं। मन्दिरों में विशेष पूजा की, प्रत्येक भवन में अत्यधिक हर्ष के सुचक उत्सव कराये। उस समय अत्यधिक खुशी से बाजे बजाये जा रहे थे, जन्म के मंगल गीत गाये जा रहे थे, तरुणियाँ नाच रही थीं. हर्षपूर्वक वद्धाएँ देख रही थीं, श्रेष्ठ मद्य पी जा रही थी, उत्सूकता बढ़ रही थी, वाद्य उल्लसित हो रहे थे, (फल बिखेरे जा रहे थे), वैतालिकों का समूह फल प्राप्त कर रहा था। ऋद्धियाँ अत्यन्त विशाल हो रही थीं। उचित समय पर समस्त भवनों से नगरी का जन-समूह निकला और राजा के सम्मुख चल पड़ा। उन्हें आते हए देखकर हर्षवश रोमांचित हो राजा अत्यधिक शीघ्रतावश हर्षपूर्वक नृत्य करती हुई वारांगनाओं के साथ नगरी के लोगों के सामने आया । नगरजन ने पूत्रजन्म के अभ्युदय से (राजा को) बधाई दी। राजा ने कहा---'आप लोगों की ही यह वद्धि है।' आदरपूर्वक अभिनन्दन कर, उनके वैभव को देखकर, यथोचित सम्मानकर (राजा) अपने भवन में प्रविष्ट हुआ। इस प्रकार प्रतिदिन बड़े आनन्द और सुख का अनुभव करते हए पहला माह बीत गया। 'यह इसके योग्य है।' ऐसा मानकर पुत्र का नाम पितामह के समान 'गुणचन्द्र' रखा गया। वह विशिष्ट पुण्य के फल का अनुभव करता हुआ कुमारावस्था को प्राप्त हआ। अत्यन्त अतिशयता से कलाएँ सीखीं। जैसे----लेख, गणित, चित्रकला, Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अटठमो भवो] ६६७ सरगयं पुश्खरगयं समतालं जूयं जणवायं होरा कव्वं दगमट्टियं अट्ठावयं अन्नविही पाणविही सयणविही अज्जा पहेलिया माहिया गाहा गोइया सिलोगो महुसित्थं गंधजत्ती आहरणविही तरुणीपडिकम्म इत्थीलक्खणं पुरिसलक्खणं हयलक्खणं गयलक्खणं गोणलक्खणं कुक्कुडलक्खणं मेंढयलक्खणं चक्कलक्खणं छत्तलक्खणं दंडलक्खणं असिलक्खणं मणिलक्खणं कागणिलक्खणं चम्मलक्खणं चंदचरियं सूरचरियं राहुचरियं गहचरियं सूयाकारं दयाकारं विज्जागयं मन्तगयं हस्सगयं संभवं चारं पडिवारं वूहं पडिवूहं खंधावारमाणं नगरमाणं वत्थुमाणं खंधावारनिवेसं नगरनिवेसं वत्थुनिवेसं ईसत्थं तत्तप्पवायं आससिक्खं हथिसिक्खं मणिसिक्खं धणुव्वेयं हिरणवायं सुवण्णवायं मणिवायं धाउवायं बाहुजुद्धं दंडजुद्धं मुटिजद्धं अद्विजुद्धं जुद्धं निजद्धं जद्धनिजुद्धं सुत्तखेड्डं वट्टखेड्डं वज्झखेड्डं नालियाखेड्ड पत्तच्छेज्ज कडयच्छेज्जं पयरच्छेज्जं सज्जीवं निज्जीवं सउणरुयं चेति। सो य संपत्तविसयपसंगसमओ वि आसन्नयाए सिद्धिभावस्स उवसंतयाए किलिट्टकम्मणो अभासपरयाए कलाकलास्मि अदसणयाए कन्नगारूवपरिसस्स विसयपसंगविमुहो तीए चेव नयरीए नाटयम्, गातम्, वादित्रम्, स्वरगतम्, पुष्करगतम्, समतालम्, द्यूतम्, जनवादम्, होरा, काव्यम्, दकमातिकम्, अष्टापदम्, अन्नविधिः, पान विधिः, शयनविधिः, आर्या, प्रहेलिका, मागधिका, गाथा, गीतिः, श्लोकः, मधुसिक्थम्, गन्धयुक्तिः, आभरणविधिः, तरुणीप्रतिकर्म, स्त्रोलक्षणम्, पुरुषलक्षणम्, हयलक्षणं, गजलक्षणम्, गोलक्षणम्, कुर्कुटलक्षणम्, मेषलक्षणं, चक्रलक्षणम्, छत्र लक्षणम् दण्डलक्षणम्, असिलक्षणम्, मणिलक्षणम्, काकिनीलक्षणम्, चर्मलक्षणम् चन्द्रचरितम्, सूरचरितम्, राहुचरितम्, ग्रहचरितम्, सूचाकारम्, दूताकारम्, विद्यागतम्, मन्त्रगतम्, रहस्यगतम्, सम्भवम्, त्रारम्, प्रतिचारम्, व्यहम्, प्रतिव्यूहम्, स्कन्धावारमानम्, नगरमानम्, वास्तुमानम्, स्कन्धावारनिवेशम्, नगरनिवेशम्, वास्तुनिवेशम्, इष्वस्त्रम्, तत्त्वप्रवादम्, अश्वशिक्षाम, हस्तिशिक्षाम्, मणिशिक्षाम, धनुर्वेदम्, हिरण्यवादम्, सुवर्णवादम्, मणिवादम्, धातुवादम्, बाहुयुद्धम्, दण्डयुद्धम्, मुष्टियुद्धम् अस्थियुद्धम्, युद्धम्, नियुद्धम्, युद्धनियुद्धम्, सूत्रक्रीडाम्, वर्तक्रीडाम्, वाह्यक्रीडाम्, नालिकाक्रीडाम्, पत्रछेद्यम् , कटकछेद्यमू, प्रतरछेद्यम्, सजीवम्, निर्जीवम्, शकुन रतं चेति । स च सम्प्राप्तविषयप्रसङ्गसमयोऽपि आसन्नतया सिद्धिभावस्य उपशान्ततया क्लिष्टकर्मणोऽभ्यासपरतया कलाकलापेऽदर्शनतया कन्यकारूपप्रकर्षस्य विषयप्रसङ्गविमुखस्तस्यामेव नगर्यामपहसितनन्दनवनेषुनाट्य, गीत, वादित्र, स्वरगत, पुष्करगत, समताल, छूत, जनवाद, होरा, काव्य, दकमात्तिक (गीली मिट्टी के बर्तन बनाना), अष्टपदी, अन्नविधि, पानविधि, शयनविधि, आर्या, प्रहेलिका, मागधिका, गाथा, गीति, श्लोक, मधुसिक्थ, गन्धयुक्ति, आभरण विधि, तरुणीप्रतिकर्म, स्त्रीलक्षण, पुरुषलक्षण, गजलक्षण, हस्ति लक्षण, गोलक्षण, कुवकुटलक्षण, मेषलक्षण (मेढों के लक्षण), चक्रलक्षण, छत्रलक्षण, दण्डलक्षण, असिलक्षण, मणिलक्षण, काकिनी-(कौड़ी) लक्षण, चर्मलक्षण, चन्द्रदरित, सूर्य चरित, राहुचरित, ग्रहचरित, सूचाकार, दुताकार, विद्यागत, मन्त्रगत, रहस्यगत, सम्भव, चार, प्रतिचार, व्यूह (सैन्यविन्यास), प्रतिव्यूह, स्कन्धावार-(छावनी)मान, नगरमान, वास्तुमान, स्कन्धावारनिवेश, नगरनिवेश, वास्तुनिवेश, इष्वस्त्र, तत्त्वप्रवाद, अश्वशिक्षा, हस्तिशिक्षा, मणिशिक्षा, धनुर्वेद, हिरण्यवाद, सुवर्णवाद, मणिवाद, धातुवाद, बाहुयुद्ध, दण्डयुद्ध, मुष्टियुद्ध, अस्थियुद्ध, युद्ध, नियुद्ध (पैदल युद्ध), युद्धनियुद्ध, सूत्रक्रीडो, वर्तक्रीडा, बाह्यक्रीड़ा, नालिकाक्रीडा, पत्रच्छेद्य, कटकच्छेद्य, प्रतरच्छेद्य, सजीव, निर्जीव और शकुनरुत (पक्षियों की बोली)। वह विषयों के प्रसंग का समय प्राप्त करने पर भी सिद्धिभाव की समीपता, बुरे कर्मों की शान्ति, कलाओं के समूह में अभ्यासपरता, कन्याओं के रूपप्रकर्ष में अदर्शनता से, विषयों के प्रसंग से Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६८ [ समराइन्धकहा ओहसियनंदणवणेसु उज्जाणेसु कलाकलावब्भासतल्लिच्छो आणंदयंतो गरुपयाहिययाइं पूरयंतो पणइमणोरहे संवद्धयंतो भिच्चयणसंघायं अणुहवंतो विसिट्ठपुण्णफलाइं सुहंसुहेण अहिवसइ । इओ य सो विसेणजीवनारओ तओ नरयाओ उवट्टिऊण पुणो संसार माहिडिय अणंतरभवे तहाविहं किंपि अगुट्ठाणं काऊण समुप्पन्नो वेयड्ढपव्वए रहनेउरचक्कवालउरे नयरे विज्जाहरत्ताए ति। कयं से नाम वाणमंतरो ति। अइक्कंतो कोइ कालो। अन्नया समागओ अओज्झातिलयभयं मयणनंदणं नाम उज्जाणं । दिट्ठो य ग तम्मि चेव उज्जाणे आलेक्खविणोयमणुहवंतो कुमारगुणचंदो ति। तं च दळूण उदिण्णपावकम्मो अब्भाससामत्थेणं अकुसलजोयस्स गहिओ परमारईए। चितियं च णेणं-को उण एसो मह दुक्खहेऊ। अहवा किमणेण जाणिएणं; वावाएमि एवं दुरायारं ति । कसायकलुसियमई गओ तस्स समीवं । जाव न चएति तस्सोग्गहं अइक्कमिउं, तओ चितियमणेणं - इहटिओ चेव अदिस्समाणो विज्जासत्तीए भेसेमि भोसणसद्देणं । तओ सयमेव जीवियं परिच्चइस्सइ । कओ णेण वज्जप्पहारफुट्टतगिरिसद्दभीसणो महाभरवसद्दो। न संखुद्धो कुमारो। द्यानेषु कलाकलाप.भ्यासतत्पर आनन्दयन् गुरुप्रजाहृदयानि पूरयन् प्रणयिमनोरथान संवर्धयन् भृत्यजनसङ्घातमनुभवन् विशिष्टपुण्यफलानि सुखसुखेनाधिवसति । ____ इतश्च स विषणजीवनारकस्ततो नरकादुवृत्य पुनः संसारमाहिण्डयानन्त रभवे तथाविधं किमप्यनुष्ठानं कृत्वा समुत्पन्नो वैताढयपर्वते रथनूपुरचक्रवालपुरे नगरे विद्याधरतयेति । कृतं तस्य नाम वानमन्तर इति । अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । अन्यदा समागतोऽयोध्या तिलक भूतं मदननन्दनं नामोद्यानम् । दृष्टश्च तेन तस्मिन्नेवोद्याने आलेख्यविनोदमनुभवन कमारगुणचन्द्र इति। तं च दृष्ट्वोदोर्णपापकर्माऽभ्याससामर्थ्येनाकुशलयोगस्य गृहीतः परमारत्या। चिन्तितं च तेन-कः पुनरेष मम दुःखहेतुः । अथवा किमनेन ज्ञातेन, व्यापादयाम्येतं दुराचारमिति । कषायकलुषितमतिर्गतस्तस्य समीपम, यावन्न शक्नोति तस्यावग्रहमतिक्रमितुम् । ततश्चिन्तितमनेन- इहस्थित एवादृश्यमानो विद्याशक्त्या भीषये (भाषये) भीषणशब्देन । ततः स्वयमेव जीवितं परित्यक्ष्यति । कृतस्तेन वज्रप्रहारस्फुटगिरिशब्द भीषणो महाभैरव शब्दः। न संक्षुब्धः कुमारः। ईषत् संक्षुब्धा अपि धीरिता विमुख होकर उसी नगरी में, नन्दनवन पर हंसनेवाले उद्यानों में कलाओं के समूह के अभ्यास में तत्पर रहकर, माता-पिता और प्रजाओं के हृदयों को आनन्दित करता हुआ, याचकों के मनोरथ को पूर्ण करता हुआ, सेवक-समूह की वृद्धि करता हुआ, विशिष्ट पुण्यों के फल का अनुभव करता हुआ अत्यधिक सुख से रह रहा था। ____ इधर वह विषेण का जीव नारकी उस नरक से निकलकर पुन: संसार में भ्रमण कर उसी प्रकार के किसी अनुष्ठान को कर, वैताढ्यपर्वत के रथनूपुर चक्रवालपुर नगर में विद्याधर के रूप में उत्पन्न हुआ। उसका नाम वानमन्तर रखा गया। कुछ समय बीत गया । एक बार वह अयोध्या के तिलकभूत मदननन्दन नामक उद्यान में आया। उसने उस उद्यान में चित्रकला के विनोद का अनुभव करते हुए कुमार गुणचन्द्र को देखा। उसे देखकर, जिसके पापकर्म का उदय हुआ है और अभ्यास की सामर्थ्य से जिसका अशुभयोग आया है-ऐसे, उस (वानमन्तर) को उत्कृष्ट अरति ने जकड़ लिया। उसने सोचा-मेरे दुःख का कारण यह कौन है ? अथवा इसकी जानकारी से क्या, इस दुराचारी को मार डालता हूँ । कषाय से कलुषित होते हुए उसके समीप गया, उसके आश्रय को लाँघने में समर्थ नहीं हुआ। अनन्तर उसने सोचा-यहीं रुककर अदृश्य रहकर विद्या की शक्ति से भीषण शब्द से डराऊँगा, तब अपने आप ही प्राण त्याग देगा। उसने वज्र के प्रहार से पहाड़ के टने के समान भयानक शब्द Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमो भवो] ६६६ ईसि संखुद्धा वि विलिऊण धीरविया वयंसया । अहिय यरं कुविओवाणमंतरो। चितियं च णेणंअहो से दुरायारस्स धीरया, अहो अवज्जा ममोरि। ता दंसेमि से अत्तणो परक्कम, निवाडेमि एवं महल्लं कंचणपायवं । तओ णेण संचुण्णियंगवंगो नीसंसयं चेव न हविस्सइ ति। सयराहमेव पाडिओ कचणपायवो। कुमारपुष्णप्पहावेण निवडिओ अन्नत्थ । न छिक्को वि सपरिवारो कुमारो। दूमिओ वाणमंतरो। चितियं च णेग -अहो से महापावस्स सामत्थं ति। अहिययरं संकिलिट्ठो वित्तेणं। एत्थंतरम्मि कुओइ समागओ गमगरई नाम खेतवालवाणमंतरो। तं च दळूण थेवयाए सत्तस्स अप्पयाए विज्जाबलस्स पलाणो विज्जाहरवाणमंतरो। कुमारो वि उचियसमए पविट्ठो नार। इओ य उत्तरावहे विसए संखउरे पट्टणे सखायणो नाम राया। कंतिमई से भारिया । धूया य से रयणवई नाम । सा य रूवाइसएण मुणोण वि मणहारिणो कलावियक्खणत्तेण असरिसो अन्नकन्नयाण । तओ विसण्णा से जणणी । न इमीए तिहुयणे वि उचियपुरिसरयणं तक्के मि । अहवा बहुरयगभरिया भयवई मेइणी । ता निरूवावेमि ताव नियनिउगपुरिसेहि, को उण इमीए रूवविन्नावयस्याः । अधिकतरं कुपिता वानमन्तरः । चिन्तितं च तेन-अहो तस्य दुराचारस्य धीरता, अहो अवज्ञा ममोपरि । ततो दर्शयाम्यात्मनः पराक्रमम्, निपातयाम्येतं महान्त काञ्चनपादपम् । ततस्तेन सञ्चणिताङ्गोपाङ्गो निःसंशयमेव न भविष्यतीति । शीघ्रमेव पातितः काञ्चनपादपः । कमारपुण्यप्रभावेण च निपतितोऽन्यत्र । न स्पृष्टोऽपि सपरिवारः कुमारः। दूनो वानमन्तरः। चिन्तितं च तेन-अहो तस्य महापापस्य सामर्थ्य मिति । अधिकतरं संक्लिष्टश्चित्तेन । अत्रान्तरे कतश्चित्समागतो गमनरति म क्षेत्रपालवानमन्तरः । तं च दृष्ट्वा स्तोकतया सत्त्वस्याल्पतया विद्याबलस्य पलायितो विद्याधरवानमन्तरः । कुमारोऽप्युचितसमये प्रविष्टो नगरीम्। इतश्चोत्तरापथे विषये शङ्खपुरे पत्तने शाङ्खायनो नाम राजा। कान्तिमती तस्य भार्या । दुहिता च तस्या रत्नवती नाम । सा च रूपातिशयेन मुनीनामपि मनोहारिणी कलाविचक्षणत्वेनासदशी अन्यकन्यकानाम् । ततो विषण्णा तस्या जननी। नास्यास्त्रिभुवनेऽप्युचितपुरुषरत्नं तर्कये। अथवा बहुरत्नभृता भगवती मेदिनी। ततो निरूपयामि तावन्निजनिपुणपुरुषैः, कः पुनस्या रूपकिया । कुमार क्षुब्ध नहीं हुआ। जो थोड़े से क्षुब्ध हुए थे ऐसे मित्रों को धैर्य बँधाया। वानमन्तर और अधिक कुपित हुआ। उसने सोचा- इस दुराचारी की धीरता आश्चर्यमय है । ओह ! इसने अवज्ञा की, अत: अपना पराक्रम दिखाता हूं, इस पर बहुत बड़ा स्वर्णवृक्ष गिराता हूँ। उससे जिसके अंगोपांग चूर्णचूर्ण हो गये हैं-ऐसा वह पुन: नहीं होगा अर्थात् मर जायेगा। शीघ्र ही स्वर्णवृक्ष गिराया। कुमार के पुण्य के प्रभाव से वह दूसरी जगह गिरा। कुमार को परिवार सहित उस वृक्ष ने छुआ भी नहीं। वानमन्तर (और) दुःखी हुआ। उसने सोचा-इस महापापी की सामर्थ्य आश्चर्य मय है ! वानमन्तर का चित्त अत्यधिक दुःखी हुआ। इसी बीच कहीं से गमनरति नामक क्षेत्रपाल वानमन्तर आया। उसे देखकर शक्ति की कमी तथा विद्याबल की अल्पता के कारण वानमन्तर विद्याधर भाग गया। कुमार भी उचित समय पर नगरी में प्रविष्ट हुआ। इधर उत्तरापथ देश के शंखपुर पत्तन में शांखायन नामक राजा था। कान्तिमती उसकी स्त्री थी। उसकी पुत्री का नाम रत्नवती था। वह रूप की अधिकता के कारण मुनियों के मन को हरने वाली थी तथा कला में विचक्षण होने के कारण अन्य कन्याओं से असाधारण थी। अत: उसकी माता द:खी थी। तीनों लोकों में भी इसके योग्य काई पुरुषरत्न नहीं है'-ऐसा अनुमान करती हूँ अथवा पृथ्वी बहुत रत्नों से भरी हुई है। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० [ समराइच्चकहा हि उचिओ, जओ आसन्नो से विवाहसमओ ति। चितिऊण पेसिया दिसोदिसं रायउत्तरूवविन्नाणपरियाणणनिमित्तं वियड्ढा नियपुरिसा। भणिया य एए-आणेयव्वा तुन्भेहि रयणवईरूवजोग्गा रायउत्तपडिच्छंदया कलाकोसल्लपिसुणयं च किंचि अच्चब्भुयं ति। [जं देवी आणवेइ ति] गया दिसोदिसं। दिवा य हि बहवे रायउत्ता, न उण रयणवईरूवजोग ति। तहावि जे मणागं सुंदरयरा, ते आजिहिया तेहिं । गहियं च कलाकोसल्लपिसुणयं पत्तच्छेज्जाइ। समागया अन्ने अओझाउरि। दि@ो य तेहिं राहावेहेण धणुव्वेयमब्भसंतो गुणचंदो। विम्हिया चित्तेण। पविट्ठो नरि कुमारो। चितियं च हिं - अहो से रूवं, अहो कलापगरिसो। सव्वहा अणुरूवो एस रायधूयाए। कि तु न तीरए एयस्स संपुण्णपडिच्छंदयालिहणं, विसेसओ सइदंसणम्मि। जंपियं चित्तमइणा-अरे भूसणय, दिळं तए अच्छरियं । तेण भणियं-सुठ्ठ दिळं, किं तु विसण्णो अहं । चित्तमइणा भणियंअरे केण कज्जेण। भूसणेण भणियं-असमत्थो जेण देवीसंदेसयं संपाडेउं । चित्तमइणा भणियं'कहं विय' । भूसणेण भणियं-अरे कहमम्हेहि एयस्स पडिच्छंदओ लिहिउं तीरइ ति। चित्तमइणा विज्ञानरुचितः, यत आसन्नस्तस्या विवाहसमय इति । चिन्तयित्वा प्रेषिता दिशि दिशि राजपुत्ररूपविज्ञानपरिज्ञाननिमित्तं विदग्धा निजपुरुषाः। भणिताश्चैते-आनेतव्या युष्माभी रत्नवतीरूपयोग्या राजपुत्रप्रतिच्छन्दकाः कलाकौशल्यपिशुनकं च किञ्चिदत्यद्भुतमिति । (यद् देव्याज्ञापयतीति) गता दिशि दिशि । दृष्टाश्च तैर्बहवो राजपुत्राः, न पुना रत्नवतीरूपयोग्या इति । तथापि ये मनाक सुन्दरतरास्ते आलिखितास्तैः । गृहीतं च कलाकौशल्यपिशुनकं पत्रच्छेद्यादि । समागता अन्येऽयोध्यापुरीम् । दृष्टस्तैः राधावेधेन धनुर्वेदमभ्यस्यन गुणचन्द्रः । विस्मिताश्चित्तेन । प्रविष्टो नगरी कमारः। चिन्तितं च तैः-अहो तस्य रूपम्, अहो कलाप्रकर्षः । सर्वथाऽनुरूप एष राजदुहित: । किन्तु न शक्यते एतस्य सम्पूर्ण प्रतिच्छन्दकालेखनम्, विशेषतः सकृद्दर्शने । जल्पितं चित्रमतिना-अरे भूषणक ! दृष्टं त्वयाऽऽश्चर्यम् । तेन भणितम्-सुष्ठ दृष्टम्, किन्तु विषण्णोऽहम् । चित्रमतिना भणितम् - अरे केन कार्येण । भूषणेन भणितम्-असमर्थों येन देवीसन्देशं सम्पादयितुम् । चित्रमतिना भणितम् - 'कथमिव' । भूषणेन भणितम्-अरे कथमावाभ्यामेतस्य प्रतिच्छन्दको लिखितुं शक्यते इति । चित्र अत: अपने निपुण आदमियों द्वारा दिखलाती हूँ कि इसके रूप और विज्ञान की अपेक्षा कौन योग्य है। क्योंकि विवाह का समय निकट है-ऐसा सोचकर प्रत्येक दिशा में राजपुत्रों के रूप और ज्ञान को जानने के लिए अपने आदमी भेजे और इन लोगों से कहा-'तुम लोग रत्नवती के रूप के योग्य राजपुत्र के कला-कौशल को सूचित करनेवाले कुछ अत्यन्त अद्भुत चित्र लाओ।' (महारानी जो आज्ञा दें---ऐसा कहकर) प्रत्येक दिशा में राजपुरुष गये। उन्होंने बहुत से राजपुत्रों को देखा किन्तु रत्नवती के रूप के योग्य कोई नहीं था। जो भी (उनमें) अपेक्षाकृत अधिक सुन्दर थे उनको लिख लिया-उनके चित्र बना लिये और उनकी पत्रच्छेद्यादि कलाकौशल सम्बन्धी निपुणता को भी देखा-परखा । कुछ लोग अयोध्यापुरी आये। उन लोगों ने राधावेध से धनुर्वेद का अभ्यास करते हुए गुणचन्द्र को देखा । उनका वित्त विस्मित हुआ। कुमार नगरी में प्रविष्ट हुआ। उन्होंने -इसका रूप और कला का प्रकर्ष आश्चर्यमय है। यह राजपूत्री के सर्वथा योग्य है किन्तु इसके समान चित्र नहीं बना सकते हैं, विशेषतः एक बार दर्शन में (तो यह सम्भव नहीं)। चित्रमति ने कहा--'अरे भूषणक ! तूने आश्चर्य देखा ?' उसने कहा—'भली प्रकार देखा, किन्तु मैं खिन्न हूँ।' चित्रमति ने कहा.---'अरे किस बात से खिन्न हो ?' भूषण ने कहा-'क्योंकि महारानी के सन्देश को पूरा करने में असमर्थ हूँ।' चित्रमति ने कहाकैसे ?' भूषण ने कहा- 'अरे, हम दोनों इसका चित्र कैसे बना सकते हैं ?' चित्रमति ने कहा-'अरे, यह Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो भवो] ६७१ भणियं -अरे सव्वसाहारणो एस विसाओ, अन्नेणावि एस न तीरए चेव। भूसणेण भणियं--कि अम्हाण सेसचिताए, निउत्ता एत्थ अम्ह। चित्तमइणा भणियं - अरे उवसप्पम्ह ताव एयं । तओ अणवरयदंसणेण रायधूयपडिच्छंदयं पिव किचिसाहम्मेण लिहिस्सामो एयपडिच्छंदयं ति । भूसणेण भणियं-जुत्तमेयं, ता कहं पुण एस दट्ठव्वो त्ति। चित्तमइणा भणियं-अरे रयणवइरूवमभिलिहिय चित्तयरदारयववएसेण पेच्छामु एयं ति । भूसणेण भणियं-अरे साहु साहु, सोहणो एस उवाओ। एवं च कए समाणे 'रायधूयाए उवरि केरिसो एसो' ति एवं पि विन्नायं भविस्सइ त्ति। मंतिऊण पविट्ठा नयरिं । आलिहिओ अहिमयपडो। घेत्तूण तं गया कुमारभवणं । भणिओ य पडिहारो- भो महापुरिस, चित्तयरदारया अम्हे अत्थिणो कुमारदसणस्स। पडिहारेण भणियं-चिट्ठह ताव तुम्भ, निवेएमि कुमारस्स । निवेइयं पडिहारेण । समाइट्ठ च ण, जहा पविसंतु त्ति । पविट्ठा चित्तमइभूसणा । पणमिओ कुमारो। 'उविसह' त्ति भणियमगेण । 'पसाओ' त्ति भणिऊण उवविट्ठा एए। उवणोओ य अह पडो हरिसियवयणेहि तेहि सपणाम। भणिय च देव अम्हे संखउराओ इहं आया ॥६४८॥ मतिना भणितम -अरे सर्वसाधारण एष विषादः, अन्येनाप्येष न शक्यते एव । भूषणेन भणितमकिमावयोः शेषचिन्तया, नियुक्तावत्रावाम्। चित्रमतिना भणितम्-अरे उपसविस्तावदेतम् । ततोऽनवरतदर्शनेन राजदुहितप्रतिच्छन्दकमिव किञ्चित्साधhण लिखिष्याव एतत्प्रतिच्छन्दकमिति । भूषणेन भणितम्-युक्तमेतत् ततः कथं पुनरेष द्रष्टव्य इति । चित्रमतिना भणितम्-अरे रत्नवतीरूप भिलिख्य चित्रकरदारकव्यपदेशेन प्रेक्षावहे एतमिति । भूषणेन भणितम्-अरे साधु साध, शोभन एष उपायः । एवं च कृते सति 'राजदुहितुरुपरि कीदृश एषः' इत्येतदपि विज्ञातं भविष्यतीति। मन्त्रयित्वा प्रविष्टौ नगरीम् । आलिखितोऽभिमतपट: । गृहीत्वा तं गतौ कुमारभवनम् । भणितश्च प्रतीहार:--भो महापुरुष ! चित्रकरदारकावावामथिनी कमारदर्शनस्य । प्रतीहारेण भणितम् - तिष्ठत तावद् युवाम्, निवेदयामि कुमारस्य। निवेदित प्रतीहारेण । समादिष्टं च तेन-यथा प्रविशतमिति । प्रविष्टौ चित्रमतिभूषणौ । प्रणतः कुमारः । ‘उपविशतम्' इति भणितमनेन । 'प्रसादः' इति भणित्वोपविष्टावेतो। उपनीतश्चाथ पटो हर्षितवदनाभ्यां ताभ्यां सप्रणामम् । भणितं च देव ! आवां शङखपुरादिहायातौ ॥ ६४८ ॥ विषाद तो सभी के लिए सामान्य है, दूसरा भी इस कार्य को नहीं कर सकता।' भूषण ने कहा-'हम दोनों को शेष चिन्ता से क्या, हम इस कार्य में लगते हैं।' चित्रमति ने कहा--'अरे, इस कार्य को आगे बढ़ायें। अनन्तर निरन्तर देखकर राजपुत्री के चित्र की कुछ समानता से इसका चित्र बनायें।' भूषण ने कहा- 'यह ठीक है, तो इसे पून: कैसे देखें?' चित्रमति ने कहा-'अरे, रत्नवती का चित्र बनाकर चित्रकार के बहाने इसे देखेगे।' भूषण ने कहा -'अरे ठीक है, ठीक है, यह उपाय ठीक है। इस उपाय से राजपूत्री के प्रति यह (इसका अभिप्राय) कैसा है-यह भी ज्ञात हो जायेगा।' ऐसी सलाह कर दोनों नगरी में प्रविष्ट हए। इष्ट चित्रपट बनाया। उसे लेकर कुमार के भवन में गये। प्रतीहार से कहा-'हे महापुरुष ! चित्रकार के लडके हम दोनों कुमार के दर्शन के इच्छुक हैं।' द्वारपाल ने कहा-'तो ठहरो, आप दोनों के विषय में कुमार से निवेदन करता हूँ।' द्वारपाल ने निवेदन किया । कूमार ने आज्ञा दी कि प्रवेश करने दो। चित्रमति और भूषण प्रविष्ट हए। कुमार को नमस्कार किया। बैठो-इसने कहा। (आपकी) कृपा-कहकर ये दोनों बैठ गये। उन दोनों ने हर्षितमुख होकर चित्रपट लेकर प्रणामपूर्वक कहा -'महाराज ! हम दोनों शंखपुर से यहाँ आये हैं ॥६४८॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२ [समराइच्चकहा देवं गुणाण निलयं पणईयणवच्छलं च मुणिऊण । ता अम्हे कयउण्णा जेहि तुमं अज्ज दिट्ठो सि ॥६४६॥ सयलपुहईए नाहो तं नरवर तहवि भणिमो एवं । अम्हाण तुमं नाहो निब्भरभत्तीपहावेणं ॥६५०॥ ता देज्जह आणत्ति चित्तकलाए सगुणलवं अम्हे । जाणामो परमेसर इय भणिउं लज्जिया जाया ॥६५१॥ अह तं दळूण पडं पीइभरिज्जंतलोयणजएण। भणियं गुणचंदेणं अहो कलालवगुणो तुभं ॥६५२॥ जइ एस कलाए लवो ता संपुण्णा उ केरिसो होइ। सुंदरअसंभवो च्चिय अओ वरं चित्तयम्मस्स ॥६५३॥ अम्हेहि अस्टिउव्वो अन्नेहि वि नणमेत्थ लोएहि । एवंविहो सुरूवो रेहानासो न दिट्ठो त्ति ॥६५४॥ जइ विय रेहानासो पत्तेयं होइ सुंदरो कहवि । तहवि समुदायसोहा न एरिसी होइ अन्नस्स ॥६५५॥ देवं गुणानां निलयं प्रणयिजनवत्सलं च ज्ञात्वा । तत आवां कृतपुण्यो याभ्यां त्वमद्य दृष्टोऽसि ॥ ६४६ ।। सकलपृथिव्या नायस्त्वं नरवर ! तथापि भणाव एवम् । आवयोस्त्वं नाथो निर्भरभक्तिप्रभावेण । ६५० ।। ततो दत्ताज्ञप्ति चित्रकलायां स्वगुणलवमावाम् । जानीवः परमेश्वर ! इति भणित्वा लज्जिती जातौ ।। ६५१ ।। अथ तं दृष्ट्वा पटं प्रीति भ्रयमाणलोचनयुगेन। भणितं गुण चन्द्रेण अहो कलालवगुणो युवयोः ।। ६५२ ।। यद्येष कलाया लवस्ततः सम्पूर्णा तु कीदृशी भवति । सौन्दर्यासम्भव एव अतः परं चित्रकर्मणः ॥ ६५३ ।। अस्माभिरदृष्टपूर्वोऽन्यैरपि नूनमत्र लोकैः । एवंविधः सुरूपो रेख न्यासो न दृष्ट इति ।। ६५४ ॥ यद्यपि च रेखान्यास: प्रत्येकमपि सुन्दरः कथमपि। तथापि समुदायशोभा नेदशी भवत्यन्यस्य ।। ६५५ ।। महाराज को गणों का भवन और याचक जनों का प्रेमी जानकर हम दोनों ने बड़े पूण्य से आपको आज देखा है । हे न रथेष्ट! अप समस्त पथ्वी के नाथ हैं तयापि इस प्रकार कहते हैं कि अत्यधिक भक्ति के प्रभाव से हम दोनों के आप नाथ हैं । अतः हे परमेश्वर, आज्ञा दो। हम दोनों के पास चित्रकला का लेश है' ऐसा कहकर दोनों नम्र हो गये। अनन्तर उस वस्त्र को देख कर प्रीति से भरे हए नेत्रवले गगचन्द्र ने कहा-'ओह ! आप दोनों के पास कला-गुण का लेश (बहुत थोड़ी मात्रा) है । यदि यह कला का लेश है तो सम्पूर्ण कैसा होता है ? इससे उत्कृष्ट चित्रकर्म का सौन्दर्य असम्भव है। हम लोगों ने और दसरों ने भी निश्चित रूप से इस लोक में इस प्रकार के अच्छे रूपदाला रेखांकन नहीं देखा है। यद्यपि प्रत्येक का रेखांकन किसी प्रकार (किसी विशेष गुण की अपेक्षा) सुन्दर होता है तथापि दूसरे चित्रकारों के चित्र की सम्पूर्ण रूप से शोभा इस प्रकार नहीं होती Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो भवो एसा विसालनयना दाहिणकरधरियरम्म सयवत्ता । रूवि व्व मयणघरिणी चित्तगया हरइ चित्ताइं ॥ ६५६ ॥ जइ पुण मणयसुरासुरलोएसु हविज्ज एरिसी कावि । विग्गहवई सुरूवा निज्जिय रइलच्छिलावण्णा ।। ६५७॥ ता नसिऊण इमीए मयणो नियकज्जभारमुद्दामं । हेला विणिज्जियजओ भुवणम्मि सुवेज्ज वीसत्थो । ६५८ ॥ ता अइसयको सल्लं तुम्हाण इमं दढं महं चित्तं । अवहरइ अहिउवं निउणगुणा के च न हरंति ॥ ६५६ ॥ एवं परिम्मि गुणचंदे तेहि निउणपुरिसेहि । भणियं न एत्थ अहं अइसयनिउणत्तणं नाह ॥ ६६०॥ अइसन णत्तं पुण एत्थं सुण भयवओ पयावइणो । जेण जयसुंदरमिणं लडहं रूवं विणिम्पवियं ॥ ६६१॥ अम्हेहि लिहियमेत्तं नरवर ! दट्ठूण किमिह निउणत्तं । अम्हाण रूवसोहं संपुष्णमणालि हंताणं ॥ ६६२ ॥ एषा विशालनयना दक्षिणकरधृतरम्यशतपत्रा । रूपिणीव मदनगृहिणी चित्रगता हरति वित्तानि ॥ ६५६ ॥ यदि पुनर्मनुजसुरासुरलोकेषु भवेदोदशी काऽपि । विग्रहवती सुरूपा निर्जितरतिलक्ष्मीलावण्या ।। ६५७ ।। ततो न्यस्यास्यां मदनो निजकार्यभारमुद्दामम् ॥ लाविनिर्जितजगद् भुवने स्वप्याद् विश्वस्तः ।। ६५८ ।। ततोऽतिशय कौशल्यं युवयोरिदं दृढं मम चित्तम् । अपहरत्यधिका पूर्वं निपुणगुणाः के च न हरन्ति ।। ६५६ ।। एवं प्रजल्पति गुणचन्द्रे ताभ्यां निपुणपुरुषाभ्याम् । भणितं नात्रावयोरतिशयनिपुणत्वं नाथ ।। ६६० ।। अतिशयनिपुणत्वं पुनरत्र शृणु भगवतः प्रजापतेः । येन जगत्सुन्दरमिदं रम्यं रूपं विनिर्मितम् ॥ ६६१ ॥ आवाभ्यां लिखितमात्रं नरवर ! दृष्ट्वा किमिह निपुणत्वम् । आवयो रूपशोभां सम्पूर्णामनालिखतोः ।। ६६२ ॥ है । यह विशाल नयनोंवाली, दायें हाथ में रमगीय कमल को धारण किये हुए, शरीरधारी कामदेव की पत्नी (रति) जैसी चित्रित होकर चित्त को हर रही है। यदि शरीरधारिणी, अच्छे रूपवाली, रति लक्ष्मी के लावण्य को जीतनेवाली, सुर और असुरों में भी ऐसी कोई हो तो संसार में कामदेव ने विश्वस्त होकर अपने आप इस पर अपने उत्कृष्ट कार्यभार को रखकर खेल ही खेल में जगत् को जीत लिया। अतः आप दोनों की यह अतिशय कुशलता मेरे चित्त को निश्चय ही अपूर्व रूप से अत्यधिक हर रही है। निपुणता रूप गुण वाले किसको ( किसके मन को) नहीं हरते हैं ?' गुणचन्द्र के ऐसा कहने पर उन दोनों निपुण पुरुषों ने कहा - 'नाथ ! यहाँ पर हम लोगों की अतिशय निपुणता नहीं है। अतिशय निपुणता तो यहाँ भगवान् प्रजाति की सुनो, जिसने संसार में सुन्दर ऐसे रमणीय रूप को निर्मित किया है। जब आप उसे देखेंगे तो पायेंगे कि हम दोनों ने कितना सा चित्र ६७३ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७४ [समराइचकहा इय तव्वयणं सोउं हरिसियवयणेण तो कुमारेणं । भणियं तुब्भेहि कहिं एवं आलोइयं रूवं ॥६६३॥ संसारसारभूयं नयणमणाणंदयारयं परमं । तिहयणविम्हयजणणं विहिणो वि अउध्वनिम्माणं ॥६६४॥ भणियं च तेहि नरवर ! सुण संखउरम्मि गुणनिहाणम्मि। दरियारिमद्दणरई राया संखायणो नाम ॥६६५॥ तस्सेसा गुणखाणी ओहामियतियससुंदरिविलासा । धूया पाणब्भहिया रयणवई नाम नामेण ॥६६६॥ अम्हेहि वम्महमहे दिट्ठा एस ति कन्नया नाह । नयराओ निक्खमंती दिव्वं जंपाणमारूढा ॥६६७॥ धरियधवलायवत्ता सहियणपरिवारिया विसालच्छी। उज्जाणं गंतुमणा दाहिणकरनिमियसयवत्ता ॥६६८॥ इति तद्वचनं श्रुत्वा हर्षितवदनेन तत: कमारेण । भणितं युष्माभ्यां कुत्रैतदालोकितं रूपम् ।। ६६३ ।। संसारसारभूतं नयनमन आनन्दकारकं परमम् । त्रिभुवनविस्मयजननं विधेरपि अपूर्वनिर्माणम् ॥ ६६४ ॥ भणितं च ताभ्यां नरवर ! शृण शङ्खपुरे गण निधाने । दप्तारिमर्दनरती राजा शङ्खायनो नाम ।। ६६५ ॥ तस्यैषा गुणखानि र्लघूकृत त्रिदशसुन्दरीविलासा । दुहिता प्राणाभ्यधिका रत्नवती नाम नाम्ना ॥ ६६६ ।। आवाभ्यां मन्मथमहे दृष्टषेति कन्यका नाथ ॥ नगराद् निष्कामन्ती दिव्यं जम्पानमारूढा ।। ६६७ ।। धृतधवलातपत्रा सखोजनपरिवता विशालाक्षी। उद्यानं गन्तुमना दक्षिणकरन्यस्तशतपत्रा।। ६६८ ।' नैपुण्य दिखलाया है । सम्पूर्ण रूप और शोभा का चित्रण हम लोगों ने नहीं किया है। इस प्रकार उनके वचन सुनकर हर्षित मुखवाले कुमार ने कहा -'आप दोनों ने इस रूप को कहाँ देखा ? संसार का सारभूत, नेत्रों को और मन को उत्कृष्ट आनन्द देनेवाला, तीनों लोकों को विस्मय उत्पन्न करनेवाला यह ब्रह्मा का (कोई) अपूर्व ही निर्माण है।' उन दोनों ने कहा-'नरश्रेष्ठ ! सुनो---गुणों के निधान शंखपुर में गर्वीले शत्रुओं के मर्दन में जिसकी रति है-ऐसे शंखायन नाम के राजा हैं। उनकी यह गुणों की खान, देवांगनाओं के विलासों को तिरस्कृत करने वाली, प्राणों से भी अधिक प्यारी रत्नवती नामक पुत्री है। मदनमहोत्सव पर हम दोनों ने, दिव्य पालकी पर आरूढ़ होकर नगर से निकलती हई इस कन्या को देखा है। विशाल नेत्रोंवाली वह सफेद छत्र को धारण किये हए सखियों के साथ उद्यान को जा रही थी । दायें हाथ में उसने कमल ले रखा था ॥६४६.६६८॥ १, लहइ ओहाभियं तुलिय (पायल, ५३९) Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो भवो] ६७५ अम्हेहि तओ हुलियं गेहं गंतूणमह पडं घेत्तुं । लिहिया मुद्धमयच्छी दंसणमणुसम्भरंतेहि ॥६६६॥ न य तीए सुंदरत्तं रूवस्साराहियं इहम्हेहि। मन्ने न विस्सयम्मो वि अवितहं तं खमो लिहिउं॥६७०॥ दर्छ पि जं न नज्जइ अबुहेहिं साहिउं च वायाए। दिलृ पि चितयम्मे तं आराहिज्जए कह ण ॥६७१॥ सोऊण इमं वयणं गणचंदो मयणगोयरं पत्तो। रायाणुभावओ च्चिय आलंबणपगरिसाओ य ॥६७२॥ गृहंतेण तहावि य नियमागारमह जंपियं तेग। भण भो वित्थयबद्धी अन्नं पसिणोत्तरं किंचि ॥६७३॥ जं आणवेइ देवो भणिउ परिओसवियसियच्छेण । अणुसरिऊणमिणं तो पढियं पसिणोत्तरं तेण ॥६७४॥ किं देंति कामिणीओ ? के हरपणया ? कुणंति किं भयगा? कं च मऊहेहि ससी धवलेइ ? आवाभ्यां ततः शोघ्र गेहं गत्वाऽथ पट गृहीत्वा । लिखिता मुग्धमृगाक्षी दर्शनमनुस्मरद्भ्याम् ॥ ६६६ ।। न तस्याः सुन्दरत्वं रूपस्था राधितमिहावाभ्याम् । मन्ये न विश्वकर्माऽप्यवितथं तत् क्षमो लिखितुम् ।। ६७० ।। दृष्टवाऽपि यन्न ज्ञायतेऽबधैः कथयितुं च वाचा। दृष्टमपि चित्रकर्मणि तदाराध्यते कथं नु।। ६७१ ॥ श्रत्वेदं व वनं गुणचन्द्रो मदनगोचरं प्राप्तः । राजानुभावत एव आलम्बनप्रकर्षाच्च ।। ६७२।। गृहता तथापि च निजमाकारमथ जल्पितं तेन । भण' भो विस्तृतबुद्धे ! अन्यत् प्रश्नोत्तरं किञ्चित् ।। ६७३ ।। यदाज्ञापयति देवो भणित्वा परितोषविक सिताक्षण। अनुस्मत्येदं ततः पठितं प्रश्नोत्तरं तेन ॥ ६७४ ।। किं ददति कामिन्यः, के हरप्रणतः, कुर्वन्ति किं भुजगा: ? कं च मयूखैः शशी धवल तब हम दोनों ने शीघ्र जाकर वस्त्र लेकर दर्शन का स्मरण करते हुए, मृग जैसी भोली-भाली आँखोंवाली (इस कन्या को) चित्रित किया। हम दोनों ने उसके रूप की सुन्दरता की यहाँ आराधना नहीं की। मैं मानता हूँ कि विश्वकर्मा भी पूरी तरह से उसे चित्रित नहीं कर सकता है। देखकर भी जिसे अविद्वान लोग नही जान सकते और (जिसका) वाणी से कथन नहीं कर सकते, चित्र में देखी हुई उसकी आराधना कैसे की जा सकती है ?' इस वचन को सुनकर आलम्बन की प्रकर्षता और राजकीय सामर्थ्य के कारण गुणचन्द्र काम-मार्ग को प्राप्त हो गया। तथापि अपने आकार को छिपाकर उसने कहा-'हे विस्तृत बुद्धिवाले ! कुछ अन्य प्रश्नोत्तर करो।' अनन्तर 'महाराज जो आज्ञा दें-ऐसा कहकर सन्तोष से विकसित नेत्रोंवाले उसने स्मरण कर प्रश्नोत्तर पढ़ा !॥६६६-६७४॥ 'कामिनियाँ (स्त्रियां) क्या देती हैं ? शिव को नमस्कार कौन करता है ? साँप (भोगी) क्या करते हैं ? Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइचकहा सिग्घमेवोवलहिऊग भणियं कुमारेणं-'नहंगणाभोयं'। चित्तमइणा भणियं-अहो देवस्स लहणवेगो । कुमारेण भणियं-पढसु किपि अन्नं ति । विसालबुद्धिणा पढियं कि होइ रहस्स वरं ? बुद्धिपसाएण को जणो जियइ? किं च कुणंतो वाला नेउरसदं पयासेइ ? ॥६७५॥ ईसि विहसिऊण भणियं कुमारेण -'चकमंतो' । 'अहो अइसनो' ति जंपियं भूसणेण। भणियं च ण-देव, मए वि किंचि पसिणोत्तरं चितियमासि, तं सुणाउ देवो। कुमारेण भणियं'पढसुत्ति। पढियं भूसणेण कि पियह ? किं च गेण्हह पढमं कमलस्स ? देह कि रिवगो ? नववहरमियं भण कि ? उवहसरं केरिसं वक्कं ? ॥६७६॥ दमइमही (?) का दिज्जइ परलोए ? का दड्ढा वाणरेण? के जाइ वहू ? अमियमहणम्मि यति ? शोघ्रमेवोपलभ्य भणितं कुमारेण-"नहंगणाभोय"। नखम्, गणाः, भोगम, (फणाम), नभोङ्गणाभोगम-नभोङ्गणवस्तारम् । चित्रमतिना भणितम्-अहो ! देवस्य लभनवेगः (लब्धिवेगः) । कमारेण भणितम्-पठ किमप्यन्यदिति । विशालबुद्धिना पठितम् -- ___ किं भवति रथस्य वरं, बुद्धिप्रसादेन को जनो जीवति । किं च कुर्वती बाला नपरशब्दं प्रकाशयति ।। ६७५ ।। ईषद् विहस्य भणितं कुमारेण- "चक्कमंती"। (चक्रम्, मन्त्री, चङ क्रममाणा) 'अहो अतिशयः' इति जल्पितं भूषणेन । भणितं च तेन-देव ! मयाऽपि किञ्चित् प्रश्नोत्तरं चिन्तितमासोत, तच्छ णोतु देवः । कुमारेण भणितं –'पठ' इति । पठितं भूषणेन किं पिबत, किं च गृलोत प्रथमं कमलस्य दत्त किं रिपोः । ___ नववधूरतं भण किं, उपधास्वरं कीदृशं वक्रम् ।। ६७६ ।। दमइमही (?) का दीयते परलोके ? का दग्धा वानरेण ? कं याति वधूः ? अमृतमथने नष्टा: चन्द्रमा किरणों से किसे धवल बनाता है ?' शीघ्र ही कुमार ने ग्रहण कर कहा - 'नहंगणाभोयं' अर्थात् नख, गण, भोग (फग) और आकाश रूपी आँगन के विस्तार को। अर्थात स्त्रियाँ नखक्षत करती हैं, शिव को उनके गण नमस्कार करते हैं, भोगी भोग करते हैं अथवा साँ। फन फैलाते हैं तथा चन्द्रमा अपनी किरणों से आकाशरूपी आँगन के विस्तार को धवल बनाता है।' चित्रमति ने कहा--'कुमार की प्राप्ति (उत्तर ढूंढने) का वेग आश्चर्ययुक्त है !' कुमार ने कहा – 'अन्य कुछ पढ़ो।' विशालबुद्धि ने पढ़ा 'रथ में कौन श्रेष्ठ होता है ? बुद्धि से प्राप्त कृपा के द्वारा कौन मनुष्य जीवित रहता है और बाला क्या करती हुई नूपुर के शब्द प्रकट करती है ?' ॥६७५॥ कुछ मुस्कुराकर कुमार ने कहा-'चक्कमंती'-चक्र, मन्त्री और गमन करती हुई। अर्थात् रथ में श्रेष्ठ चक्र होता है, बुद्धि से प्राप्त कृपा के द्वारा मन्त्री जीवित रहता है और बाला गमन करती हुई नूपुर के शब्द को प्रकट करती है।' 'ओह ! अतिशय है'-ऐसा भूषण ने कहा और वह बोला-'महाराज! मैंने भी कुछ प्रश्नोत्तर सोचे थे, उन्हें महाराज सुनिए।' कुमार ने कहा- 'पढ़ो' । भूषण ने पढ़ा _ 'क्या पिया जाता है ? कमल का पहले क्या पकड़ा जाता है ? शत्रु को क्या दिया जाता है ? नव वधू में रत कौन है ? कहो, उपचा स्वर वाला वाक्य कैसा होता है?' ॥६७६॥ 'दूसरे लोगों को कौन दी जाती है ? वानर ने किसे जलाया ? वधू कहाँ जाती है ? अमृतमन्थन के समय नष्ट Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो भवो ] Kid नट्ठा सुरासुरा रिसे व दसदिसिहत्ता ? किं इच्छइ सयलं चिय तेलोकं ? केरिसं च जुवईहि सया दाविज्जइ नियवयणं ? कुमारेण भणियं - 'पुणो पढसु' त्ति । पढियं भूसणेण । अणंतरमेव लहिऊण भणियं कुमारेण - 'कण्णालंकारमणहरं सविसेस' । चित्तमइणा भणियं - अहो देवस्स बुद्धिपगरिसो, जमेयं लद्धं ति । देव, महंतो एयस्स एत्थ अहिमाणो आसि, न लद्धं च एयमन्नेणं । भूसणेण भणियंअरे, तुझं पि अज्ज अहिमाणो अवेइ । कुमारेण भणियं - 'कहं विय' । भूसणेण भणियं देव, एएण वि एवंविहं चैव चितिथं । कुमारेण भणियं - 'पढसु' ति । पढियं चित्तमइणा - के कढिणा नरिद ? का कसा ? तेओ का सासओ ? उच्छू केरिस व्व ? के य अरहिया ? का उयहिगामिणी ? के धणु पर सुनहर मायाविसवस विसयप्पहाणया जाणसु ? सुरासुरा कीदृशे इव दर्शादिगभिमुखाः ? किमिच्छति सकलमेव त्रैलोक्यं कीदृशं च युवतिभिः सदा दश्यते निजवदनम् ? - 1 कुमारेण भणितं 'पुनः पठ' इति । पठितं भूषणन । अनन्तरमेव लब्ध्वा भणितं कुमारेण - 'कन्न । लङ्कारमणहरं सविसेसं' । कं (जल) नालं, कार - ( तिरस्कारः) मनोहरं, सविशेषम् । कन्या - लङ्का -- रमणगृहं सविषे [ अमृतमथने ], शं ( सुखं), अलङ्कारमनोहरं सविशेषम् । चित्रमतिना भणितम् -- अहो देवस्य बुद्धिप्रकर्षः, यदेतल्लब्धमिति । देव ! महानेतस्यात्राभिमान आसीद्, न लब्धं चैतदन्येन । भूषणेन भणितम् - अरे तवाप्यद्याभिमानोऽपैति । कुमारेण भणितम् - 'कथमिव' । भूषणेन भणितम् - देव ! एतेनाप्येवंविधमेव चिन्तितम् । कुमारेण भणितं 'पठ' इति । पठितं चित्रमतिना - के कठिना नरेन्द्र ? का कृष्णा ? तेज: कासु शाश्वतम् ? इक्षुः कीदृशीव, के च अर्हा ? का उदधिगामिनी ? कान् धनुः - परशु-नखर माया विष वसा-विषयप्रधानान् जानीहि ? सुर और असुर कैसे दश दिशाओं की ओर अभिमुख हुए ? समस्त त्रिलोक क्या चाहता है ? युवतियाँ सदा अपना मुख कैसा दिखलाती हैं ?' कुमार ने कहा - 'पुनः पढ़ो।' भूषण ने पढ़ा। अनन्तर ग्रहण कर कुमार ने कहा - 'कन्नालंकारमणहर सविसेसं' । जल, नाल, तिरस्कार, मनोहर, सविशेष— कन्या, लंका, रमणगृह, सविष होने पर, सुख, अलंकार से विशेष मनोहर । अर्थात् जल पिया जाता है । कमल का पहले 'नाल' (कमलदण्ड ) पकड़ा जाता है । शत्रु को तिरस्कार दिया जाता है। नववधू में मनोहर रत हैं। उपधा का स्वर विशेष होता है। कन्या दी जाती है । वानर ने लंका जलायी । वधू रमणगृह को जाती है । अमृतमन्थन के समय क्षीरसागर के द्वारा विष उगलने या क्षीरसागर के विषयुक्त होने पर सुर और असुर दश दिशाओं की ओर अभिमुख हुए। त्रिलोक सुख ( शं) सुख चाहता है । युवतियाँ अपना मुख सदा 'अलंकार से विशेष मनोहर' दिखलाती हैं । चित्रमति ने कहा - 'महाराज की बुद्धि का प्रकर्ष आश्चर्यमय है; जो कि इसे पा लिया। महाराज ! इसका (मेरा) इस विषय में बड़ा अभिमान था, इसे दूसरे ने नहीं पाया अर्थात् मेरे इन प्रश्नों का उत्तर दूसरा नहीं दे पाया।' भूषण ने कहा- 'अरे! तेरा भी आज अभिमान दूर होता है ।' कुमार ने कहा- 'कैसे ?' भूषण ने कहा - 'महाराज ! इसने भी इसी प्रकार सोचा था !' कुमार ने कहा- 'पढ़ो !' चित्रमति ने पढ़ा- 'राजन् ! कठिन है ? कौन काली है ? किसमें तेज शाश्वत हैं ? ईख कैसी होती है ? कौन मूल्यवान् हैं ? कौन समुद्र तक जाती है ? किन्हें धनुष, परशु, नख, माया, विष, वसा, विषयप्रधान जानें ?' Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७८ [समराइन्धकहा कुमारेण भणियं-'पुणो पढसु' ति। पढियं चित्तमइणा। अणंतरमेव लहिऊण भणियं कुमारेण–'पत्थरामसीहासुरसप्पवराहलावया'। भूसणेण भणियं - अहो अच्छरीयं, नज्जइ देवेण चेव कियं ति। विम्हिया वित्तमइ भूसणा। भणिओ कुमारेण धणदेवाहिहाणो भंडारिओ-भो धणदेव, देहि एयाण दोणारलक्खं ति। धणदेवेण भणियं -जं देवो आणवेइ। चितियं च णेण - अहो मुद्धया कुमारस्स । अलक्खं दाणमेव नस्थि । नणं न याणइ एसो, किंपमाणो लक्खो। ता इमं एत्थ पत्तयालं। संपाडेमि एयमेतसि कुमारपुरओ चेव, जेण विन्नायलक्खमहापमाणो न पुणो वि थेवकज्जे एवमाणवेइ ति। चितिऊण आणाविओ तेण तत्थेव दीणारलक्खो, पुंजिओ कुमारपुरओ। भणियं कुमारेण-भो धणदेव, किमयं ति। धणदेवेण भणियं-देव, एसो सो दोणारलक्खो, जो पसाईकओ देवेण एएसि चित्तयरदारयाणं । कुमारेण वितियं -हंत किमयं अज्ज संपयादसणं । नूणं कुमारेण भणितं- 'पुनः पठ' इति । पठितं चित्रमतिना। अनन्तरमेव लब्ध्वा भणितं कुमारेण - 'पत्थरामसीहासुरसप्पवराहलावया' । [प्रस्तरा:-मषी-ईहा-सुरसप्रवरा-हला-आपगा। 'पत्थ'पार्थः (अर्जुनः), रामः-परशुरामः, 'सीह' सिंहः, (माया-प्रधानः) असुरः, 'सप्प' सर्पः विषप्रधानः, 'वराह' वराहः वसाप्रधान:, 'लावया' विषप्रधाना लवकपक्षिणः । भूषणेन भणितम्- अहो आश्चर्यम्, ज्ञायते देवेनैव कियदिति । विस्मितो चित्रमतिभूषणौ । भणित: कुमारेण धनदेवाभिधानो भाण्डागारिक:-भो धनदेव ! देहि एताभ्यां दीनारलक्षमिति । धनदेवेन भणितम्-यद् देव आज्ञापयति । चिन्तितं च तेन-अहो मग्धता कुमारस्य, अलक्षं दानमेव नास्ति । नूनं न जानात्येषः, किंप्रमाणं लक्षम् । तत इदमत्र प्राप्तकालम् । सम्पादयाम्येतदेताभ्यां कमारपुरत एव, येन विज्ञातलक्षमहाप्रमाणो न पुनरपि स्तोककार्ये एवमाज्ञापयतीति। विन्तयित्वा आनायितं तेन तत्रैव दोनारलक्षम्, पञ्जितं कुमारपुरतः । भणितं कुमारेण-भो धनदेव ! किमेतदिति । धनदेवेन भणितम् - देव ! एतद् तद् दीनारलक्षम्, यत् प्रसादीकृतं देवेनेतयोश्चित्रकरदारकयोः। कुमारेण चिन्ति ___ कुमार ने कहा- 'पुनः पढ़ो।' चित्रमति ने पढ़ा। शीघ्र ही प्राप्तकर (जानकर) कुमार ने कहापत्थरामसीहासुरसप्पवराहलावया' । पत्थर, स्याही, इच्छाएँ, मीठे रस से भरी हुई, हल, नदी, पार्थ, परशुराम, सिंह, असुर, सर्प, शूकर और लावक । तात्पर्य यह कि पत्थर कठिन होता है। स्याही काली होती है । इच्छाओं का तेज शाश्वत है अर्थात् संसार में इच्छाओं का तेज सदा रहता है। ईख मीठे रस से भरी रहती है। हल मूल्यवान् है । समुद्र तक नदी जाती है । धनुषप्रधान अर्जुन था। परशुराम परशुप्रधान था अर्थात् परशुराम सदा फरसा लिये रहते थे। सिंह नखप्रधान होता है । असुर मायाप्रधान होते हैं। सर्प विषप्रधान होते हैं । शूकर चर्वीप्रधान होते हैं (शूकर में चर्बी बहुत होती है।। लावक पक्षी विषयप्रधान होता है।' भूषण ने कहा-'ओह ! आश्चर्य है । महाराज ने ही कितना जान लिया !' चित्रमति और भूषण दोनों विस्मित हुए। कुमार ने धनदेव नामक भण्डारी से कहा-'हे धनदेव ! इन दोनों को एक लाख दीनारें दे दो।' धनदेव ने कहा - 'महाराज की जैसी आज्ञा।' उसने सोचा --ओह ! कुमार का भोलापन, बिना लाख का (कोई) दान ही नहीं है। निश्चित रूप से यह नहीं जानते हैं, लाख कितना होता है । तो यहाँ अवसर आया है। इन दोनों को कुमार के सामने देता हूँ, जिससे एक लाख का महाप्रमाण जानकर पुन: थोड़े से कार्य पर ऐसी आज्ञा न दें--ऐसा सोचकर उसने वहीं कुमार के सामने एक लाख दीनारों का ढेर लगा दिया। कुमार ने कहा-'धनदेव ! यह क्या है ?' धनदेव ने कहा'महाराज ! ये वह एक लाख दीनार हैं जो कि महाराज ने प्रसन्न होकर उन दोनों चित्रकार लडकों को दिया Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो भवो] ६७९ पभूओ खु एस एयस्स पडिहायइ, ता मं सुहित्तणेण किल पडिबोहिऊण एयप्पयंसणेण नियत्तेइ इमाओ सपरिगप्पियमहादाणाओ, नेच्छइ य मज्झ संपयापरिभंसं ति । अहो मूढया धणदेवस्स, जस्स एगंतवज्झे अणाणगामिए सह जीवेणं साहारणे अग्गितक्कराईणं पयाणमेत्तफले परमत्थओ अवधारकारए पारंतरेण अत्थे वि पडिबंधो ति। केत्तिओ वा एस लखो। न खल एएण एत्थं पि जम्मे एए वि चित्तयरदारया परिमिएण वि वएण एयनिमित्तं पि असंकिलेसभाइणो होति। न य असंपयाणेणं अपरिभंसो संपयाए, अवि य पुण्णसंभारेण । खीणे य पुण्णसंभारे अदिज्जमाणा वि अन्नेसि अपरिभज्जमाणा वि अत्तणा गोविज्जमाणा वि पच्छन्ने रक्खिज्जमाणा वि महापयत्तेणं असंसयं न जाय। कि वा दाणपरिभोगरहियाए अगुवयारिणोए उभयलोएसु ओहसणिज्जाए पंडियजणाणं अवित्तीकम्मारयमेत्ताए तचितास केवलाणत्थफलाए सव्वहा सन्नासकापाए ति । ता पडिबोहहस्सं अहमिणं पत्थावेणं । इमं पुण एत्थ पत्तयालं, जमन्ननवि लक्खं एएसि दवावेमि; एसो वि एयस्स पडिवोहणोवाओ चेव ति। चितिऊण भणियं च णेणं-अज्जधणदेव, किमेसो लक्खो ति। धणदेवेण तम् - हन्त किमेतदद्य सम्पद्दर्शनम्। नूनं प्रभूतं खल्वेतद् एतस्य प्रतिभाति, ततो मां सुहृत्त्वेन प्रतिबोध्य एतत्प्रदर्शनेन निवर्तयत्यस्मात् स्वपरिकल्पितमहादानात्, नेच्छति च मम सम्पत्परिभ्रंशमिति । अहो मूढता धनदेवस्य, यस्यै कान्तबाह्येऽनानुगामिके सह जीवेन साधारणेऽग्नितस्करादीनां प्रदानमात्रफले परमार्थतोऽपरकारकारके प्रकारान्तरेण अर्थेऽपि प्रतिबन्ध इति । कीयाद् वैतद् लक्षम् । न खल्वेतेन अत्रापि जन्मनि एतावपि चित्रकरदारको परिमितेनापि व्ययेन एतन्निमित्तमप्यसंक्लेशभाजौ भवतः । न चासम्प्रदानेनापरिभ्रंशः सम्पदः, अपि च पुण्यसम्भारेण । क्षीणे च पुण्यसम्भारे अदीयमाना अप्यन्येषामपरिभुज्यमाना अप्यात्मना गोप्यमाना अपि प्रच्छन्ने रक्ष्यमाणा अपि महाप्रयत्नेनासंशयं न जायते । किंवा दानपरिभोगरहितयाऽनपकारिण्योभयलोकेषपहसनीयया पण्डितजनानामवत्ति कर्मकारकमात्रया तत्त्वचिन्तास केवलानर्थफलया सर्वथा संन्यासकल्पयेति । ततः प्रतिबोधयिष्याम्यहमिदं प्रस्तावेन । इदं पुनरत्र प्राप्तकालम् , यदन्यदपि लक्षमेतयोपियामि, एषोऽप्येतस्य प्रतिबोधनोपाय एवेति। चिन्तयित्वा भणितं च तेन-आर्यधनदेव ! किमेतद् लक्षमिति । धनदेवेन हैं।' कुमार ने सोचा -खेद है, आज यह क्या सम्पत्ति देखी ? निश्चित रूप से यह इसे अधिक लग रही है, अत: मेरे सुहृत् होने के कारण इसके प्रदर्शन द्वारा मुझे प्रतिबोधित कर अपने संकल्पित इस महादान से (वह मुझे) रोक रहा है. यह मेरी सम्पत्ति का नाश नहीं चाहता है। ओह, धनदेव की मूढ़ता जो कि बाहर विशेष रूप से जीव का अनुगामी नहीं होता है (साथ नहीं जाता है), जो अग्नि और चोरों के लिए समान है, दान करना मात्र ही जिसका फल है, परमार्थ रूप से जो अपकार करनेवाला है उस धन पर भी प्रकारान्तर से (दूसरे प्रकार से) रोक लगा रहा है ? अथवा यह लाख कितना-सा है। इससे इसी जन्म में भी ये दोनों चित्रकार लड़के परिमित मात्रा में व्यय करने पर भी इस धन के कारण सूखी नहीं हो सकते हैं। न देने पर सम्पत्ति नष्ट न हो- ऐसा नहीं है, अपितु पुण्य के संचय से सम्पत्ति नष्ट नहीं होती है। पुण्य का समूह नष्ट हो जाने पर दूसरों को न देने, अपने आप भोग न करने, छिपाने, गुप्त स्थान में रक्षा करने तथा महाप्रयत्न करने पर भी नि:सन्देह रूप से यह नहीं रहती है। अथवा दान और उपभोग से रहित, उपकार न करने से दोनों लोकों में उपहास के योग्य, पण्डित जनों के समान आचरण करने मात्र से तत्त्व-चिन्ताओं में केवल अनर्थ फल देनेवाले और सर्वथा संन्यास के समान इस सम्पदा से क्या (लाभ)। अतः इस प्रस्ताव से मैं सम्बोधित करूंगा। यह समय है कि मैं इन दोनों को एक लाख और दूं। यह भी इसके प्रतिबोधन का उपाय है ऐसा सोचकर उसने कहा-'आर्य धनदेव ! क्या Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८० [समराइच्चकहा भणियं-देव, एसो त्ति । कुमारेण भणियं --अलं दोण्हमेयमेतेणं; ता अन्नं पि देहि ति । धणदेवेण भणियं-जं देवो आणवेइ । विम्हिया चित्तमइभूसणा, चितियं च हिं—'अहो उदारया आसयस्स' । निवडिऊण चलणेसु नेयावियं नियमावासं । एत्थंतरम्मि समागओ मज्झण्हसमओ। पढ़ियं कालनिवेयएण मज्झत्थो च्चिय पुरिसो होइ दढं उवरि सवलोयस्स। एवं कहयंतो विय सूरो नहमज्झमारूढो ॥६७७।। वारविलासिणिसत्थो तुरियं देवस्स मज्जणनिमित्तं । हक्खुत्तकणयकलसो मज्जणभूमि समालियइ ॥६७८॥ एवं सोऊण उट्टिओ कुमारो, गओ मज्जणभूमि। मज्जिओ अणेहिं गंधोदएहि । कयं करगिज नसेसं । रयण वइसाहिलासो य ठिओ विचित्तसयणिज्जे। चितियं च णेणं । अहो से रूवं संखायणनरिंदधूयाए। कन्नया य एसा । ता अविरुद्धो संपओओ इमीए ति। चितयंतस्स समागया भणितम्-देव ! एतदिति । कुमारेण भणितम्--अल द्वयोरेतन्मात्रेण, ततोऽन्यदपि देहीति । धनदेवेन भणितम् - यद देव आज्ञापयति । विस्मितो चित्रमति भूषणौ। चिन्तितं च ताभ्याम् - अहो उदारताऽऽशयस्य । निपत्य चरणयोायितं निजमावासम् । अत्रान्तरे समागतो मध्याह्नसमयः। पठितं कालनिवेदकेन - मध्यस्थ इव पुरुषो भवति दृढमुपरि सर्वलोकस्य । एवं कथयन्निव सूरो नभोमध्यमारूढः ।। ६७७ ॥ वारविलासिनीसार्थस्त्वरितं देवस्य मज्जननिमित्तम् । उत्क्षिप्तकनककलशो मज्जनभूमि समालियते ॥ ६७८ ।। एवं श्रुत्वोत्थितः कुमारः, गतो मज्जनभूमिम् । मज्जितोऽनेकैर्गन्धोदकैः । कृतं करणीयशेषम् । रत्नवती पाभिलाषश्च स्थितो विचित्र-शयनीये। चिन्तितं च तेन–अहो तस्या रूपं शाङ्खायननरेन्द्रदुहितु: । कन्या चैषा, ततोऽविरुद्धः सम्प्रयोगोऽनयेति । चिन्तयतः सम गताऽऽस्थानिकावेला। स्थित यह एक लाख है ?' धनदेव ने कहा--'महाराज ! यह एक लाख है !' कुमार ने कहा-'इन दोनों को इतना-सा देना ठीक नहीं है अत: इतना ही और दे दो।' धन देव ने कहा-'महाराज की जैसी आज्ञा ।' चित्रमति और भूषण विस्मित हुए । उन दोनों ने सोचा--भावों की उदारता आश्चर्यमय है ! दोनों (चित्रकार) चरणों में पड़कर धन को अपने डेरे पर ले गये। इसी बीच मध्याह्न समय आया। समय का निवेदन करनेवाले ने कहा 'मध्यस्थ पुरुष के समान दृढ़तापूर्वक सब लोक के ऊपर होता है' ऐसा कहता हुआ मानो सूर्य आवाश के मध्य में आरूढ़ हो गया है। वारांगनाएँ महाराज के स्नान के लिए सुवर्ण कलशों को उठाकर शीघ्र ही स्नानभूमि को जा रही हैं । ६७६-६७॥ यह सुनकर कुमार उठा, स्नानभूमि में गया, अनेक प्रकार की गन्ध से युक्त जल में स्नान किया। शेष कार्यों को किया और रत्नवती की अभिलाषा सहित विचित्र शय्या पर बैठ गया। उसने सोचा-उस शांखायन राजा की पुत्री का रूप आश्चर्यमय है। चूंकि यह कन्या (कुंवारी) है अत: इसके साथ संयोग विरुद्ध नहीं है-- १. हवखुत्त (दे.) उत्क्षिरता, उत्पाटितः । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो भवो ] अत्थाइयावेला | ठिओ अत्थाइयाए । समागया विसालबुद्धिप्पमुहा वयंसया - पत्थुओ चित्तयम्मवि ओ | आलिहिओ कुमारेण सुविहत्तुज्जलेणं वण्णयकम्मेण अलविखज्जमार्णोह गुलियावह अणुरूवाए सुमहाए पयडदंसणेण निन्नुन्नयविभाएणं विसुद्धाए वट्टणाए उचिएणं भूसणकलावेणं अहिणवनेहसुयत्तणं परोप्परं हासुप्फुल्लबद्धदिट्ठी आरूढपेम्मत्तणेणं लंघिओचियनिवेसो विज्जाहरसंघाडओ ति । एत्थंतरम्मि समागया चित्तमइभूसणा । दिट्ठो य णेहिं गुलिया वावडग्गहत्थो तं चैव विज्जाहर संघाडयं पुलोएमाणो कुमारो त्ति । पण मिऊण सहरिसं भणियं च णेहि-देव, किमेयं ति । ओईसि विहसियसनाहं निरूवेह तुम्भे सयमेव' त्ति भणिऊण समप्पिया चित्तवट्टिया । निरूविया चित्तमभूहि । विहिया एए । भणियं च हि- अहो देवस्स सव्वत्य अप्पडियं परमेसरत्तणं । देव, अन्वा एसा चित्तयम्मविच्छित्ती साहेइ विय नियभावं फुडवयणेहिं । चित्तयस्मे देव, दुक्करं भावाराहणं । पसंतिय इणमेव एत्थ आयरिया । अहिणवनेहसुयत्तणेण वि य परोप्परं हासुप्फुल्ल दित्ति तहा आरूढपेम्मत्तणेण वि य लंघिओचियनिवेसयं च एत्थ असाहियं पि देव जाणंति आस्थानिकायाम् । समागता विशालबुद्धिप्रमुखा वयस्याः । प्रस्तुतश्चित्रकर्मविनोदः । आलिखितः कुमारेण सुविभक्तोज्ज्वलेन वर्णककर्मणाऽलक्ष्यमाणैर्गुलिकाव्रजैरनुरूपया सूक्ष्मरेखया प्रकटदर्शनेन निम्नोन्नतविभागेन विशुद्धया वर्तनया उचितेन भूषणकलापेन अभिनवस्ने हो त्सुकत्वेन परस्परं हास्योत्फुल्ल बद्ध दृष्टि रारूढप्रेमत्वेन लङ्घितोचितनिवेशो विद्याधरसङ्घाटक इति । अत्रान्तरे समागतौ चित्रमतिभूषणौ । दृष्टश्च ताभ्यां गुलिकाव्यापृताग्रहस्तस्तमेव विद्याधरसङ्घाटकं प्रलोकयन् कुमार इति । प्रणम्य सहर्षं भणितं च ताभ्याम् - देव ! किमेतदिति । तत ईषद्विहसितसनाथं 'निरूपय तं युवां स्वयमेव' इति भणित्वा समर्पिता चित्रपट्टिका । निरूपिता चित्रमतिभूषणाभ्याम् । विस्मितावेतौ । भणितं च ताभ्याम् - अहो देवस्य सर्वत्राप्रतिहतं परमेश्वरत्वम् । देव ! अपूर्वेषा चित्रकर्मविच्छित्तिः कथयतीव निजभावं स्फुटवचनैः । चित्रकर्मणि देव ! दुष्करं भावाराधनम् । प्रशंसन्ति चेदमेवात्त्राचार्याः | अभिनवस्नेहोत्सुकत्वेनापि च परस्परं हास्योत्फुल्ल बद्धदृष्टित्वं तथाऽऽरूढप्रेमत्वेनापि च लङ्घितोचितनिवेशकं चात्राकथितमपि देव ! जानन्ति बालका अपि, ऐसा विचार कर रहा था कि सभा का समय हो गया। सभा में बैठा । विशालबुद्धि प्रमुख मित्र आये । चित्रकर्म का विनोद प्रस्तुत हुआ 1 कुमार ने एक विद्याधर का जोड़ा चित्रित किया । भलीभाँति विभाग होने के कारण वह उज्ज्वल था, रँगाई के कारण गुलिकाएँ (रँगाई का एक विशेष द्रव्य) दिखाई नहीं पड़ रही थीं, अनुरूप सूक्ष्म रेखाएँ थीं। उसके निम्न और उन्नत विभाग प्रकट रूप से दर्शित हो रहे थे । रंगों से विशुद्ध था, उचित आभूषणों के समूह से युक्त था, नूतन स्नेह व उत्सुकता के कारण परस्पर हास्य के विकास से जिनकी दृष्टि बँधी हुई थी, प्रेमारूढ़ता के कारण जिसमें योग्य सन्निवेश को भी लंघित कर दिया गया था। इसी बीच चित्रमति और भूषण दोनों आ गये। उन दोनों ने गुलिका (रँगाई का एक विशेष द्रव्य) में जिसकी हथेलियाँ व्याप्त थीं, ऐसे कुमार को उसी विद्याधर के जोड़े को देखते हुए देखा । प्रणाम कर हर्षपूर्वक उन दोनों ने कहा- 'महाराज, यह क्या !' तब मुस्कुराकर, 'तुम दोनों स्वयं देखो' - ऐसा कहकर चित्रपट समर्पित कर दिया । चित्रमति और भूषण ने देखा । उन दोनों ने कहा- 'ओह ! महाराज का परमेश्वरपना सब जगह बेरोक-टोक है। महाराज ! यह अपूर्व चित्रकर्म की रचना स्पष्ट वचनों में अपने भावों को कह रही है। महाराज ! चित्र बनाने में भावों की आराधना करना कठिन है। चित्रकला में आचार्य लोग इसी की प्रशंसा करते हैं। नये स्नेह की उत्सुकता होने पर भी परस्पर हास्य के विकास से बद्ध दृष्टिवाले तथा प्रेम में आरूढ़ होने पर भी लंघन के योग्य सजावट को ६८१ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८२ [समराइच्चकहा बालया वि, किमंग पुण इयरे जणा । एवं च देव चित्तसत्थे पढिज्जइ। जहा विणा चरियाइणा अहियारेण जहा कहंचि किल जारिसयभावजतं चित्तयम्म निष्फज्जइ, तारिसयभावसंपत्ती नियमेण चित्तयारिणो। ता देव, आसन्नो देवस्स पियदसणेणं ईइसो भावो त्ति निवेइयं देवस्स । ईसि विहसियं कुमारण। एत्यंतरम्मि समागओ संझासमओ। पढियं कालनिवेयएण-- संझाए बद्धराओ व्व दिणयरो तरियमसिहरम्मि। संकेयगठाणं पिव सुरगिरिगंजं समल्लियइ ॥६७६॥ वित्थरइ कुसुमगंधो अणहं दिज्जंति मंगलपईवा। पूइज्जइ रइणाहो रामाहि रमणभवणेसु ॥६८०॥ एयमायण्णिऊण 'गुरुचलणवंदणासमओ' ति उदिओ कुमारो, गओ जणणिजणयाण सयासं। वदिया तेसि चलणा। बहुमन्निओ हिं । ठिओ कंचि कालं गुरुसमीवे। उचियसमएणं च गओ वासगेहं । अणसरंतस्प्त रयणवईस्व वोलिए उचियसमए समागया निद्दा । पहायसमए य दिढोणेण किमङ्ग पुनरितरे जनाः। एवं च देव ! चित्रशास्त्रे पठ्यते, यथा विना चरितादिना अधिकारेण यथाकथञ्चित् किल यादृशभावयुक्तं चित्रकर्म निष्पद्यते तादृशभावसम्पत्तिनियमेन चित्रकारिणः । ततो देव ! आसन्नो देवस्य प्रियदर्शनेन ईदृशो भाव इति निवेदितं देवस्य । ईषद् विहसितं कुमारेण। अत्रान्तरे समागतः सन्ध्यासमयः । पठित कालनिवेदकेन-- सन्ध्यायां बद्धराग इव दिनकररत्वरितमस्त शिखरे । संकेतस्थानमिव सुरगिरिकुजं समालीयते ।। ६७६ ।। विस्तीर्यते कुसुमगन्धोऽनघं दीयन्ते मङ्गलप्रदीपाः । पूज्यते रतिनाथो रामाभी रमणभवनेषु ॥ ६८० ॥ एवमाकर्ण्य 'गुरुचरणवन्दनासमयः' इत्युत्थितः कुमारः, गतो जननीजनकयोः सकाशम । वन्दितौ तयोश्चरणो। बहुमतस्ताभ्याम् । स्थित: कञ्चित् कालं गुरुसमीपे । उचितसमयेन च गतो वासगेहम् । अनुस्मरतो रत्नवतीरूपं व्यतिक्रान्ते उचितसमये समागता निद्रा। प्रभातसमये च महाराज, बिना कहे बालक भी जानते हैं, दूसरे मनुष्यों की तो बात ही क्या है। महाराज ! चित्रशास्त्र में ऐसा पढ़ा जाता है कि चरितादि अधिकार के बिना जो कुछ, जसे भावों से युक्त चित्रकर्म प्रकट होता है, वैसी भावसम्पत्ति निश्चित रूप से चित्रकार की होती है । अतः महाराज ! महाराज के प्रियदर्शन से ऐसा भाव आया इसलिए महाराज से निवेदन किया।' कुमार कुछ मुस्कुराया। इसी बीच सन्ध्या का समय आया । समयनिवेदकों ने पढ़ा सन्ध्या के प्रति राग में बद्ध हुए के समान सूर्य शीघ्र ही अस्ताचल के शिखर पर सुमेरुपर्वत के कुंजों में लीन हो रहा है, निष्पाप फूलों का गन्ध फैल रहा है, मंगल दीपक जलाये जा रहे हैं, रमणभवनों में स्त्रियों द्वारा कामदेव की पूजा की जा रही है ॥ ६७६-६८०॥ यह सुनकर 'माता-पिता के चरणों की वन्दना का समय है'-ऐसा कहकर कुमार उठा। माता-पिता के पास गया। उन दोनों के चरणों की वन्दना की। दोनों ने सम्मान दिया। कुछ समय तक माता-पिता के पास बैठा । उचित समय पर निवासगृह गया । रत्नवती के रूप का स्मरण करते हुए उचित समय बीत जाने Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अटठमो भवो ] ६८३ सुमिणओ । जहा किल उवणीया केणावि सोमरूवेण दिव्वकुसुममाला । भणियं च णेण -- अहिमया एसा कुमारस्स; ता गिण्हउ इमं कुमारो । गहिया य णेण, घेत्तूण निहिया कंठदेसे । एत्यंतर म्म पहयाई पाहाउयतूर । इं । विउद्धो कुमारो । पढियं कालनिवेयएण-अह निण्णा सितिमिरो विओर्याविहुराण चक्कवायाण । संगमकरणेrरसो वियम्भिओ अरुण किरणो हो ॥ ६८१ ॥ पवियसियकमलवयणा महयरगुंजतबद्धसंगीया । पण 'पत्तहत्था जाया सुहदंसणा नलिणी ॥ ६८२ ॥ एयं सोउण हरिसिओ चित्तेण । चितियं च णेण - भवियव्वं रयणवईलाहेण । न एस सुमिणओ अन्नहा परिणमइ, उववू हिओ पाहाउयतरेणं, नियमिओ मंगलसद्देहि, पहाए य दिट्ठो । ता आसन्नफलेण इमिणा होयव्वं ति । चितिऊण उट्ठिओ सयणीयाओ, कयं गुरुचलणवंदणाइआवस्यं । ठिओ अस्थाइयाए । समागया विसालबुद्धिप्पमुहा वयंसया । समारद्धा गूढच उत्थयगोट्ठी । पढियं दृष्टस्तेन स्वप्नः । यथा किलोपनीता केनापि सौम्यरूपेण दिव्यकुसुममाला । भणितं च तेनअभिमतैषा कुमारस्य, ततो गृह्णात्विमां कुमारः । गृहीता चानेन, गृहीत्वा निहिता कण्टदेशे । अत्रान्तरे प्रतानि प्राभातिकतर्याणि । विबुद्धः कुमारः । पठितं कालनिवेदकेन -- अथ निर्णाशिततिमिरो वियोगविधुराणां चक्रवाकानाम् । सङ्गमकरणैकरसो विजृम्भितोऽरुण किरणौघः ॥ ६८१ ।। प्रविकसितकमलवदना मधुकरगुञ्जद्बद्धसङ्गीता | पवनधुतपत्रहस्ता जाता शुभदर्शना नलिनी ॥ ६८२ ॥ एवं श्रुत्वा हर्षितश्चित्तेन । चिन्तितं च तेन - भवितव्यं रत्नवतीला भेन । नैष स्वप्नोऽन्यथा परिणमति, उपबृंहितः प्राभातिकतूर्येण, नियमितो मङ्गलशब्दः प्रभाते च दृष्टः । तत आसन्न - फलेनानेन भवितव्यमिति । चिन्तयित्वोत्थितः शयनीयात्, कृतं गुरुचरणवन्दनाद्यवश्यकम् । स्थित आस्थानिकायाम् । समागता विशालबुद्धिप्रमुखा वयस्याः । समारब्धा गूढचतुर्थक गोष्ठी । पठितं पर नींद आ गयी । प्रातःकाल उसने स्वप्न देखा कि कोई सौम्य रूपवाला दिव्य फूलों की माला लाया और उसने कहा- यह कुमार के अनुरूप है, अतः कुमार इसे ग्रहण करें । इसने ग्रहण किया (और) लेकर गले में डाल ली । तभी प्रातःकालीन वाद्य बजने लगे। कुमार जागा । समयनिवेदक ने पढ़ा- अब अन्धकार को नाश करने वाला, वियोग से पीड़ित चकवों के मिलाने में एकरस अरुण की किरणों का समूह बढ़ गया है। विकसित कमलमुखवाली, गुंजार करते हुए भौंरों से बद्ध संगीतवाली और वायु के द्वारा हिलाये गये पत्ते रूपी हाथोंवाली कमलिनी (अब) शुभ दर्शनवाली हो गयी है ।।६८१-६८२ ।। यह सुनकर ( उसका ) चित्त हर्षित हुआ और उसने सोचा- रत्नवती की प्राप्ति होनी चाहिए । प्रातःकालीन वाद्यों से ( बढ़ाया गया), मंगल शब्दों से नियमित किया गया और प्रातःकाल देखा गया यह स्वप्न अन्यथा परिणमित नहीं होता है, अतः इस स्वप्न का फल निकट होना चाहिए माता-पिता के चरणों की वन्दना आदि आवश्यक कार्य किये। सभा में आकर ऐसा सोचकर शय्या से उठा । बैठा । विशालबुद्धि प्रमुख मित्र १. - धुयपल्ल वकरा पा. ज्ञा. । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८४ विसालबुद्धिणा । सुरयमणस्स रइहरे नियंबभमिरं बहु धुयकरग्गा । तक्खणवृत्तविवाहा । कुमारेण भणियं - पुणो पढति । पढियं विसालबुद्धिणा । तओ कुमारेण ईसि विहसिऊण भणियं - वरयस्स करं निवारेइ | विसालबुद्धिणा भणियं - अहो देवेण लद्धं ति । चित्तमइणा पढियं । भावियरइसाररसा समाणिउं मुक्कबहल सिक्कारा । न तरइ विवरीयरयं । कुमारेण भणियं - पुणो पढसुति । पढियं चित्तमणा । लद्धं कुमारेण । भणियं च णेण - 'नियंबभारालसा सामा' । भूसणेण पढियं । विउलम्मि मउलिच्छी घणवीसम्भस्स सामली' सुइरं । विवरीयसुरयसुहिया । कुमारेण भणियंपढति । पढियं भूसणेण । लद्ध कुमारेणं । भणियं च णेण - वीसमइ उरम्मि रमणस्स । विशाल बुद्धिना । [समराइच्च कहा सुरतमनसो रतिगृहे नितम्बभ्रमन्तं वधू धुतकराग्रा । तत्क्षणवृत्तविवाहा । कुमारेण भणितं - पुनः पठेति । पठितं विशालबुद्धिना । ततः कुमारेण ईषद् विहस्य भणितम्- 'वरस्य करं निवारयति' । विशालबुद्धिना भणितम् - अहो देवेन लब्धमिति । चित्रमतिना पठितम् - भावित रतिसाररसा भुक्त्वा मुक्त हलसीत्कारा । न शक्नोति विपरीतरतम् । कुमारेण भणितम् - पुनः पठेति । पठितं चित्रमतिना । लब्धं कुमारेण । भणितं च तेन - 'नितम्बभारालसा श्यामा' । भूषणेन पठितम् - विपुले मुकुलिताक्षिर्घनविश्रम्भस्य श्यामा सुचिरम् । विपरीतसुरतसुखिता । कुमारेण भणितम् - पुनः पठेति । पठितं भूषणेन । लब्धं कुमारेण । भणितं च तेन - 'विश्राम्यत्युरसि' रमणस्य' । आये । गूढ़ चतुर्थक गोष्ठी आरम्भ हुई। विशाल बुद्धि ने पढ़ा - 'कामदेव के रतिगृह में नितम्ब को घुमाती हुई वधू हथेलियों को कँपा रही है । तभी विवाह हो गया ।' कुमार ने कहा - 'फिर से पढ़ो।' विशालबुद्धि ने पढ़ा। अनन्तर कुमार ने कुछ हँसकर कहा - ' वर के हाथ को रोक रही है ।' सुरयमणस्स रइहरे नियंबभमिरं वहु धुयकरग्गा । तक्खणवृत्तविवाहा 'वरयस्स करं निवारेइ' ।। विशालबुद्धि ने कहा- 'आश्चर्य है, महाराज ने पा लिया !' चित्रमति ने पढ़ा- 'अनुभूत रति के साररूप रस का भोग कर अत्यधिक सी-सी आवाज छोड़ती हुई, विपरीत ति नहीं कर सकती ।' कुमार ने कहा - 'पुनः पढ़ो।' चित्रमति ने पढ़ा। कुमार ने पा लिया ( समझ लिया और उसने कहा - 'नितम्ब के भार से अलसायी हुई युवती अर्थात् उपर्युक्त विशेषणों से युक्त 'नितम्ब के भार से अलसायी हुई युवती' विपरीत रति नहीं कर सकती । भावियरइसाररसा समाणिउं मुक्कवहल सिक्कारा । न तरइ विवरीयरयं 'णियंबभारालसा सामा' ॥ भूषण ने पढ़ा- 'विस्तृत नेत्रों को मूंदकर देर तक अत्यधिक विश्राम कर विपरीत सम्भोग से सुखी ।' कुमार ने कहा - 'पुन: पढ़ो ।' भूषण ने पढ़ा । कुमार ने पा लिया - 'पति के वक्षःस्थल पर विश्राम करती है ।' विउलम्मि मउलियच्छी घणवीसम्भस्स सामली सुइरं । विवरीय सुरयसुहिया 'वीसमइ उरम्मि रमणस्स' । १. सामिणि - डे, ज्ञा । २ विपरीतसुरतसुखिता मुकुलिताक्षि: श्यामा धनविश्रम्भस्य रमणस्य विपुले उरसि सुचिरं विश्राम्यति । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्टमो भवो ] एवं च जाव कंचि वेलं चिट्ठति, तावागंतूण निवेइयं पडिहारेण । कुमार, आसपरिवाहणनिमितं वाहालि उट्टो देवो कुमारं सद्दावेइ त्ति । कुमारेण भणियं-जं ताओ आणवेइ त्ति । उऊण परियणसमेओ निग्गओ भवणाओ । आरूढो जच्च वोल्लाह; मिलिओ रायमग्गे नरवइस्स, गवाया । वाहिया बहवे वल्हीय तुरुक्कवज्जराइया आसा । उचियसमएण पविट्ठो नयर । करणिज्जसे । एवं च विसिविगोएण सह चित्तमइभूसणेहि अइच्छिया कवि दिया। अन्नया काऊ रयणवई रुव गुणकित्तणं निब्भरुक्कंठापराहीणयाए अच्छंतलालसेणं तीए दंसणम्मि एवं पिताव पेच्छामि' त्ति समत्थिऊण निययहियएणं समालिहिया चित्तवट्टियाए रयणवई । पुलोइया सिणेहसारं अणि मिसलोयणेण लिहिया य हिट्ठे गाहा - ६८५ हियए वि ठियं बालं पेच्छह दिट्ठ पि चित्तयम्ममि । इच्छइ तहावि दट्ठ समूसुओ अंतरप्पा मे ॥ ६८३ ॥ एत्यंत रम्मि समागया चित्तमइभूसणा । 'कुमारवल्लह' त्ति न धरिया पडिहारण । पविट्ठा एवं च यावत् काञ्चित् वेलां तिष्ठन्ति तावदागत्य निवेदितं प्रतीहारेण कुमार ! अश्वपरिवाहननिमित्तं वाह्यालि प्रवृत्तो देवः कुमारं शब्दाययति इति । कुमारेण भणितम् - यत् तात आज्ञापयतीति । उत्थाय परिजनसमेतो निर्गतो भवनात् । आरूढो जात्यवोल्लाहम् । मिलितो राजमार्गे नरपतेः गतो वाह्यालिम् । वाहिता बहवो वालीकतुरुष्कवज्जरादिका अश्वाः । उचितसमयेन प्रविष्टो नगरीम् । कृतं करणीयशेषम् । एवं च विशिष्टविनोदेन सह चित्रमतिभूषणाभ्यां गताः कत्यपि दिवसाः । अन्यदा च कृत्वा रत्नवतीरूपगुणकीर्तनं निर्भरोत्कण्ठापराधीनतया अत्यन्तलालसेन तस्या दर्शने 'एवमपि तावत्प्रेक्षे' इति समर्थ्य निजहृदयेन समालिखिता चित्रपट्टि - कायां रत्नवती । प्रलोकिता स्नेहसारमनिमिषलोचनेन । लिखिता चाधो गाथा - हृदयेऽपि स्थितां बालां पश्यत दृष्टामपि चित्रकर्मणि । इच्छति तथापि द्रष्टुं समुत्सुकोऽन्तरात्मा मे ॥ ६८३ ॥ अत्रान्तरे समागतौ चित्रमतिभूषणौ । 'कुमारवल्लभौ' इति न धृतौ प्रतीहारेण । प्रविष्टो इस प्रकार जब कुछ समय बीत गया तब द्वारपाल ने आकर निवेदन किया- 'कुमार ! घोड़े को चलाने के लिए अश्वशाला में गये हुए महाराज कुमार को बुला रहे हैं।' कुमार ने कहा- 'महाराज की जैसी आज्ञा ।' उठकर परिजनों के साथ भवन से निकला । नवीन वोल्लाह अश्व पर सवार हुआ। राजमार्ग पर राजा से मिला, अश्वशाला में गया । बहुत से बाल्हीक, तुरुष्क, वज्जरादिक घोड़े चलाये। उचित समय पर नगर में प्रविष्ट हुआ । शेष कार्यों को किया । इस प्रकार चित्रमति और भूषण दोनों के साथ कुछ दिन बीत गये। एक बार रत्नवती के गुणों का कीर्तन कर अत्यधिक उत्कण्ठा से पराधीन होने के कारण तथा उसके दर्शन की अत्यधिक लालसा होने से - 'अच्छा, यह भी देखता हूँ' - ऐसा अपने मन से समर्थन कर चित्रपट्टिका पर रत्नवती चित्रित कर दी । (उसे) स्नेह से भरे हुए निर्निमेष नेत्रों से देखा और नीचे गाथा लिख दी - 'देखो, हृदय में स्थित युवती को चित्र में भी देख लिया तो भी मेरी उत्सुक अन्तरात्मा (प्रत्यक्ष ) देखने की इच्छा कर रही है ।' ॥६८३ ॥ इसी बीच चित्रमति ओर भूषण आये । ये दोनों कुमार के प्रिय हैं, अतः द्वारपाल ने नहीं रोका। दोनों Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८६ [समराइच्चकहा कमारसमीवं । दिवा चित्तवट्टिया। 'देव, किमेयं ति जंपियमणेहि । ईसि हसिऊण भणियं कुमारणतुम्भं वयपडिच्छंदयालिहणं ति । तेहि भणियं-देव, महापसाओ ति। तओ घेतूण निरूविया चित्तवट्टिया। विम्हिया एए। वाचिया गाहा। चितियं च हि-धन्ना खु सा रायधूया, जा कुमारणावि एवं बह मन्निज्जइ । अहवा किमेत्थ अच्छरियं, विसओ खु सा एवंविहाए बहमाणणाए। ता इमं एत्थ पत्तयालं, जं सिग्यमेव एवं देवीए निवेइज्जइ ति चितिऊण भणियं चित्तमइणा-देव, अउम्वो एस पडिच्छंदओ। अहो इयमेत्थ अच्छरियं, जमदि8 पि नाम एवमाराहिज्जइ! भसणेण भणियं - देव, एरिसा चेव सा रायधूया, न किचि अन्नारिसं। धन्ना य सा, जा देवेण एवं बहु मन्निज्जइ। एत्यंतरम्मि पविट्ठो पडिहारो । भणियं च ण - कुमार, समागओ देवसंतिओ विस्सभूई नाम गंधविओ कुमारदसणसुहमणुहविउमिच्छ।। कुमारेण भणियं- 'पविसउ त्ति। गओ पडिहारो। पविटो विस्सभूई। पणमिऊण कुमारं भणियं च जेण-देवो आणवेइ। 'अस्थि अम्हाणं पत्थुए गंधववियारे सरे विन्भमो त्ति; तमागंतूणमवणेउ कुमारो'। तओ ईसि विहसिऊण जंपियं कुमारण। कुमारसमीपम् । दृष्टा चित्रपट्टिका। ‘देव ! किमेतद्' इति जल्पितमाभ्याम् । ईषद् हसित्वा भणितं कुमारेण-युवयोवृतप्रतिच्छन्दालेखनमिति । तैर्भणितम्-देव ! महाप्रसाद इति । ततो गृहीत्वा निरूपिता चित्रपट्टिका । विस्मितावेतो। वाचिता गाथा । चिन्तितं च ताभ्याम् । धन्या खलु सा राजदुहिता, या कुमारेणप्येवं बहु मन्यते । अथवा किमत्राश्चर्यम्, विषयः खलु सा एवंविधबहुमाननायाः । तत इदमत्र प्राप्तकालम्, यच्छीघ्रमेवैतद् देव्यै निवेद्यते इति चिन्तयित्वा भणितं चित्रमतिना-देव ! अपूर्व एष प्रतिच्छन्दकः । अहो इदमत्राश्चर्यम्. यददृष्टमपि नाम एवमाराध्यते । भूषणेन भणितम-देव ! ईदृश्येव सा राजदुहिता, न किञ्चिदन्यादृशम् । धन्या च सा, या देवेनैवं बहु मन्यते। अत्रान्तरे प्रविष्टः प्रतीहारः । भणितं च तेन- कमार ! समागतो देवसत्को विश्वभूतिर्नाम गान्धर्विक: कुमारदर्शनसूखमनुभवितुमिच्छति । कुमारेण भणितम्-'प्रविशतु' इति । गतः प्रतीहारः । प्रविष्टो विश्वभूतिः। प्रणम्य कुमारं भणितं च तेन-'देव आज्ञापयति, अस्त्यस्माकं प्रस्तुते गान्धर्वविचारे स्वरे विभ्रम इति, तमागत्यापनयतु कुमारः। तत ईषद् विहस्य जल्पितं कुमारेण - अहो कुमार के पास प्रविष्ट हुए। दोनों ने चित्रपट्टिका को देखा। 'महाराज ! यह क्या है ?' ऐसा उन दोनों ने कहा । कुछ मुस्कराकर कुमार ने कहा-'आप दोनों के बनाये हुए चित्र के समान चित्र है।' उन्होंने कहा'महाराज ! आपकी बड़ी कृपा।' अनन्तर लेकर चित्रपट्टिका देखी। ये दोनों विस्मित हुए । गाथा बांची । उन दोनों ने सोचा -वह राजपुत्री धन्य है, जिसे कुमार भी इस प्रकार सम्मान देते हैं । अथवा इसमें आश्चर्य क्या है, वह इस प्रकार के सम्मान की विषय है। तो अब समय आ गया है कि शीघ्र ही इसे महारानी से निवेदन करें। ऐसा सोचकर चित्रमति ने कहा ----'देव ! यह अपूर्व प्रतिलिपि है। ओह ! यह बड़ा आश्चर्य है कि न देखे हुए की भी इस प्रकार आराधना हो रही है ।' भूषण ने कहा - 'महाराज ! वह राजपुत्री ऐसी ही है, किसी और तरह की नहीं। वह धन्य हैं, जिन्हें महाराज भी इस प्रकार सम्मान देते हैं ?' इसी बीच द्वारपाल प्रविष्ट हुआ। उसने कहा-'कुमार ! महाराज का विश्वभूति नाम का गायक आया हुआ है । कुमार के दर्शनसुख का अनुभव करने की इच्छा कर रहा है।' कुमार ने कहा-'प्रवेश करे।' द्वारपाल चला गया। विश्वभूति ने प्रवेश किया और कुमार को प्रणाम कर बोला-'महाराज आज्ञा देते हैं कि संगीत के विषय में हम लोगों को स्वर का भ्रम है, उसे कुमार आकर दूर करें।' अनन्तर कुछ हँसकर कुमार ने कहा Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८७ अट्ठमो भवो] अहो तायस्स अवच्चम्मि बहुमाणो। विस्सभूइणा भणियं - कुमार, गुणा एत्थ बहुमाणहेयवो, न अवच्चमेतं । चित्तमइभूसणेहि भणियं -एवमेयं, सयलगुणपगरिसो कुमारो ति। तओ 'जं ताओ आणवेइ' ति मणिऊण उढिओ कुमारो, गओ नरिंदभवणं ।। ___इयरे वि चित्तमइभूसणा विम्हिया कुमारविन्नाणाइसएण गया सभवणं । भणिओ य चित्तमई भूसणेण - अरे चित्तमइ, संपन्नमम्हाण समीहियं । ता इमं एत्थ पत्तयालं । आलिहिऊण जहाविन्नाणविहवेण कुमाररूवं असंसिऊण कुमारस्स दुयं गच्छम्ह, जेण दळूण कुमारस्वाइसयं चिय इमस्स विन्नाणाइसयं च देवी लहुं संजोएइ रायधूयं कुमारेण सह। एवं च कए समाणे सा चेव रायधूया सयलगुणसंजुया महादेवी संजायइ ति। वित्तमइणा भणियं-अरे भूसणय, संसिऊण कुमारस्स गच्छंताणं को दोसो ति। भूसणेण भणियं-अरे पत्थुविधाओ, जओ न पेसेइ लहुं अम्हे कुमारो ति। चितमइणा भणियं - अरे अस्थि एयं, ता एवं करम्ह । आलिहिओ कुमारो। तओ घेत्तण तं कुमारालिहियचित्तट्टियादुयं च घेत्तूण निग्गया अओज्झाओ। गया कालक्कमेण संखउरं । पविट्ठा निययभवणेसु। बीयदियहे य गया देवीभवणं । दिट्ठा हि देवी। साहिओ धणुव्वेयगुणणाइओ तातस्यापत्ये बहुमानः । विश्वभूतिना भणितम् - कुमार ! गुणा अत्र बहुमानहेतवः, नापत्यमात्रम् । चित्रमतिभूषणाभ्यां भणितम् - एवमेतद्, सकलगुणप्रकर्षः कुमार इति। ततो 'यत तात आज्ञापयति' इति भणित्वोत्थितः कुमारः, गतो नरेन्द्रभवनम् । इतरावपि चित्रमतिभूषणो विस्मिती कुमारविज्ञानातिशयेन गतौ स्वभवनम् । भणितश्च । चित्रमतिषणेन - अरे चित्रमते ! सम्पन्नमावयोः समीहितम् । तत इदमत्र प्राप्तकालम् । आलिख्य यथाविज्ञानविभवं कुमाररूपमशंसित्वा कुमारस्य द्रुतं गच्छावः, येन दृष्ट्वा कुमाररूपातिशयमेवास्य विज्ञानातिशयं च देवो लघु संयोजयति राजदुहितरं कुमारेण सह । एवं च कृते सति सैव राजदुहिता सकलगुणसंयुता महादेवी सजायते इति । चित्रमतिना भणितम्-अरे भूषणक ! शंसित्वा कुमारं गच्छतोः को दोष इति । भूषणेन भणितम्-अरे ! प्रस्तुतविधातः, यतो न प्रेषयति लघु आवां कुमार इति । चित्रमतिना भणितम - अरे अस्त्येतद्, तत एवं कुर्वः। आलिखितः कुमारः । ततो गृहीत्वा तं कुमारालिखितचित्रपट्टिकाद्विकं च गृहीत्वा निर्गतावयोध्यायाः । गतो कालक्रमेण शङ्खपुरम् । प्रविष्टौ निजभवनेषु । द्वितीय दिवसे च गती देवीभवनम् । दृष्टा ताभ्यां देवी। कथितो 'ओह ! पिताजी का अपनी सन्तान के प्रति सम्मान । विश्वभूति ने कहा--'महाराज ! गुण ही यहाँ पर सम्मान के कारण हैं, सन्तान मात्र नहीं।' चित्रमति और भूषण ने कहा-'सच है, कुमार में समस्त गुणों की चरमसीमा है।' अनन्तर पिताजी की जैसी आज्ञा' कहकर कुमार उठ गया, राजभवन में गया। चित्रमति और भषण भी कुमार के ज्ञान की अधिकता से विस्मित होकर अपने भवन को चले गये। चित्रमति से भषण ने कहा---'चित्रमति ! हम दोनों का इष्टकार्य सम्पन्न हो गया। तो अब समय आ गया है। वैभव और ज्ञान के अनुरूप कुमार के रूप का चित्रण कर कुमार से बिना कहे ही दोनों शीघ्र चलें, जिससे इस कुमार के रूप की इस अतिशयता और ज्ञान को अतिशयता को देखकर महारानी राजपुत्री को शीघ्र ही कुमार से मिला दें। ऐसा करने पर वह राजपूत्री समस्त गणों से युक्त महादेवी हो जाएंगी।' चित्रमति ने कहा-'हे भूषणक ! कुमार से कहकर जाने में क्या दोष है ?' भूषण ने कहा-'अरे ! विघ्न आ जायेगा; क्योंकि हम दोनों को कुमार शीघ्र नहीं भेजेंगे।' चित्रमति ने कहा- 'यह ठीक है, अतः ऐसा (ही) करें।' कुमार का चित्र बनाया। अनन्तर उसे और कूमार के द्वारा बनायो हई चित्रपद्रिका (दोनों) को लेकर वे दोनों अयोध्या से निकल पड़े। दोनों कालक्रम से शंखपुर पहुँचे । अपने भवनों में प्रविष्ट हुए और दूसरे दिन महारानी के भवन में Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८८ [समराइच्चकहा गंधवसरसंसयावणोयणपज्जवसाणो कुमारसंतिओ सयलवुत्तंतो। दंसिओ से कुमारो कुमारालिहियचित्तवट्टियादुयं च । तओ सपरिओसं निरूविऊण कुमाररूवं कलाकोसल्लं च परितुट्ठा एसा । दवावियं चित्तमइभूसणाण पारिओसियं । पुणो वि निरूविओ कुमारो देवीए। चितियं च णाए-अहो से रूवसंपया, अहो अवस्थागगरुओ संठाणविसेसो। तओ अइसयकोउएण अजायसंतोसाए' कुमारदसणस्स निरूवियाओ अन्नाओ वि चित्तवट्टियाओ। 'अहो से रूवपगरिसाणुरूवो विन्नाणपगरिसो' त्ति विम्हिया देवी। वाचिया य णाए सा धूयापडिच्छदयहेतुओ कुमारलिहिया गाहा। हरिसिया चित्तेण । चितियं च तीए-धन्ना खु मे धूया जा कुमारेण एवमहिलसोयइ। पेसिओ य णाए मयणमंजुयाहत्थम्मि कुमारपडिच्छंदओ रयणवईए। भणिया य एसा–हला, भणाहि मे जायं, जहा लहुं एवं सिक्खेहि । गया मयणमंजुया। दिवा रयणवई। उवणीया चित्तवट्टिया। भणियं रयणवईए-हज्जे किमेयं ति । तीए भणि-भट्टिदारिए, पेसिओ खु एस पडिच्छंदओ देवीए, आणत्तं च तीए, जहा लहुं सिक्खाहि एयं ति। रयणवईए भणियं-हला, को उण एस आलिहिओ। धनुर्वेदगणनादिको गान्धर्वस्वरसंशयापनोदनपर्यवसानः कुमारसत्क: सकलवृत्तान्तः । दशितस्तस्याः कमार: कुमारा लिखितचित्रपट्टकाद्विकं च। ततः सपरितोषं निरूप्य कुमाररूपं कलाकौशल्यं च परितुष्टैषा। दापितं चित्रमतिभूषणाभ्यां पारितोषिकम् । पुनरपि निरूपितः कुमारो देव्या। चि न्ततं च तया-अहो तस्य रूपसम्पद्, अहो अवस्थानगुरुकः संस्थानविशेषः । ततोऽतिशयकौतुकेनाजातसन्तोषया कुमारदर्शनस्य निरूपितेऽन्येऽपि चित्रपट्टिके । 'अहो तस्य रूपप्रकर्षानुरूपो विज्ञानप्रकर्षः' इति विस्मिता देवी। वाचिता च तया सा दुहितप्रतिच्छन्दकाधः कुमारलिखिता गाथा। हर्षिता चित्तेन । चिन्तितं च तया-धन्या खल मे दुहिता, या कुमारेणैवमभिलष्यते। प्रेषितश्च तया मदनमञ्जुलाहस्ते कुमारप्रतिच्छन्दको रत्नवत्याः। भणिता चंषा सखि ! भण मे जाताम, यथा लघ्वेतं शिक्षस्व । गता मदनमञ्जला। दृष्टा रत्नवती । उपनीता चित्रपट्टिका । भणितं रत्नवत्या --- सखि ! किमेतदिति । तया भणितम् - भत दारिके ! प्रेषितः खल्वेषः प्रतिच्छन्दको देव्या, आज्ञप्तं च तया, यथा लघ शिक्षस्वैतमिति । रत्नवत्या भणितम् – सखि ! कः पुनरेष आलिखितः । गये । उन दोनों ने महारानी के दर्शन किये। धनुर्वेद के गुण से लेकर संगीतशास्त्र के अनुसार स्वर के विषय में संशय हो जाने पर उसके दूर करने तक का कुमार का वृत्तान्त कहा। महारानी को कुमार का चित्र और कुमार के द्वारा बनायी हुई चित्रपट्टिका को दिखाया। अनन्तर सन्तोष के साथ कुमार के रूप और कलाकौशल को देखकर यह सन्तुष्ट हुई। मित्रमति और भूषण को पारितोषिक दिलाया । महारानी ने कुमार को पुन: देखा और उसने सोचा---कुमार की रूपसम्पति आश्चर्यजनक है । ओह, कितनी जबर्दस्त आकृति विशेष है ! अत्यधिक कौतूहल के कारण जिसे सन्तोष नहीं हुआ है ऐसी महारानी ने कुमार के दर्शन सम्बन्धी दूसरी मी चित्रपट्टिका देखी। उसके रूप की चरमसीमा के अनुरूप ज्ञान का प्रकर्ष है-ऐसा सोचकर महारानी विस्मित हुई। महारानी ने पुत्री के चित्र के नीचे कुमार के द्वारा लिखी हुई वह गाथा बाँची। चित्त से हर्षित हुई और उसने सोचा-मरी पुत्री धन्य है जो कि कगार के द्वारा इस प्रकार अभिलषित है । उसने (महारानी ने) मदनमंजुला के हाथ कुमार का चित्र रत्नवती के पास भेजा और कहा---'सखी ! मेरी पुत्री से कहो कि शीघ्र ही इसका अभ्यास करो।' मदन मंजुला चली गयी। रत्नवती को देखा। चित्रपदिका लायी। रत्नवती ने कहा -- 'सखी! यह क्या है ?' उसने कहा- इस चित्र को देवी ने भेजा है और उन्होंने आज्ञा दी है-शीघ्र ही इसका अभ्यास करो।' रत्नवती ने कहा-'यह १. संजायमंतोसाएडे. ज्ञा. । २. धुयाडि- । ३, -मसिल सीयइतिज्ञा । Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठमो भवो ] ६८६ - मंजुयाए भणियं न याणामि निस्संसयं । एत्तियं पुण तक्केमि, एस भयवं पुरंदरो। रयणवईए भणियं - हला, सहस्सलोयण दूसिओ खु एसो सुणीयइ । मयणमंजुयाए भणियं - जइ एवं; ता नारायणो । रयणवईए भणियं - हला, सो वि न एवं कणयावयायच्छवी । मयणमंजुयाए भणियंजइ एवं ता सव्वजण मणाणंदयारी चंदो । रयणवईए भणियं-हला, न सो वि एवं निक्कलंको । मयणमंजुयाए भणियं - ता कामदेव भविस्सइ । रयणवईए भणियं - हला, कुओ तस्स वि हु हरहुंकार हुयवहसिहापयं गयस्स ईइसो लायण्णसोहावयारो । मयणमंजुयाए भणियं - जइ एवं, ता यमेव निरूds भट्टिदारिया । तओ चिरं निज्झाइओ रयणवईए । भणियं च णाए - हला, तक्केमि न एस अमाणुसो । जओ पवड्ढमाणवयविसेसस्स पुव्वरूवं पिव इमं लक्खीयइ, अवट्ठियवयविसेसा य अमाणुस । तहा निमेसोचियं इमस्स निद्धं लोयणजुयलं, अणिमिसं च एयममाणुसणं । मयण मंजुयाए भणियं - सुठ जाणियं भट्टिदारियाए । एवमेयं, न संदेहो त्ति । अहं पुणतक्कमि, भट्टिदारियाए चेव एसो वरो भविस्सइ । एत्थंतरम्मि नियकज्ज संगयं जंपियं सिद्धाएसपुरोहिए -- को एत्थ संदेहो, असंसयं भविस्सs | एवं सोऊण हरिसिया रयणवई भणियं मदनमञ्जुलया भणितम् - न जानामि निःसंशयम् । एतावत् पुनः तर्कयामि, एष भगवान् पुरन्दरः । रत्नवत्या भणितम् — सखि ! सहस्रलोचनद्धितः खल्वेष श्रूयते । मदनमञ्जुलया भणितम् -- यद्येवं ततो नारायणः । रत्नवत्या भणितम् - सखि ! सोऽपि नैवं कनकावदातच्छविः । मदनमञ्जुलया भणितम् - यद्येवं ततः सर्वजनमन आनन्दकारी चन्द्रः । रत्नवत्या भणितम् - सखि ! न सोऽप्येव निष्कलङ्कः । मदनमञ्जुलया भणितम् ततः कामदेवो भविष्यति । रत्नवत्या भणितम् - सखि ! कृतस्तस्यापि खलु हरहुङ्कारहुतवहशिखापदं गतस्येदृशो लावण्यशोभावतारः । मदनमञ्जुलया भणितम्– यद्येवं ततः स्वयमेव निरूपयतु भर्तृदारिका । ततश्चिरं निध्यातो ( अवलोकितः ) रत्नवत्या । भणितं च तया - सखि ! तर्कयामि नैषोऽम नुषः । यतो प्रवर्धमानवयोविशेषस्य पूर्वरूपमिवेदं लक्ष्यते, अवस्थितवयोविशेषः श्चामानुषाः । तथा निमेषोचितमस्य स्निग्धं लोचनयुगलम्, अनिमिषं चेतदमानुषाणाम् । मदनमञ्जुलया भणितम् - सुष्ठु ज्ञातं भर्तृदारिकया, एवमेतद् न सन्देह इति । अहं पुनः तर्कयामि, भर्तृ दारिका या एवैष वशे भविष्यति । अत्रान्तरे निजकार्यसङ्गतं जल्पितं सिद्धादेश पुरोहितेन । कोऽत्र सन्देहः, असंशयं भविष्यति । एतच्छ ुत्वा हर्षिता रत्नवती । कौन चित्रित हैं ?' मदनमंजुला ने कहा---' निश्चित रूप से नहीं जानती हूँ । पुनः यह सोचती हूँ कि यह भगवान् इन्द्र हैं ।' रत्नवती ने कहा - 'सखी ! इन्द्र तो हजार नेत्रों से दूषित हैं, यह सुना जाता है ।' मदनमंजुला ने कहा - 'यदि ऐसा है तो नारायण हैं।' रत्नवती ने कहा- 'उनकी भी इस प्रकार स्वर्ण के समान उज्ज्वल छवि नहीं है ।' मदनमंजुला ने कहा- 'यदि ऐसा है तो समस्त लोगों के मन को आनन्द देनेवाला चन्द्र है ।' रत्नवती ने कहा - ' वह भी इस प्रकार निष्कलंक नहीं ।' मदनमंजला ने कहा- 'तो कामदेव होगा ।' रत्नवती ने कहा'शिव की हुंकार से अग्नि की ज्वाला में जल गये हुए उस कामदेव के लावण्य - शोभा का ऐसा अवतार कहाँ ?" मदन मंजुला ने कहा - यदि ऐसा है तो स्वामिपुत्री, स्वयं ही देखिए ।' अनन्तर रत्नवती ने बहुत देर तक देखा । उसने कहा 'सखी! (मैं) सोचती हैं, यह अमानुष नहीं है; क्योंकि अवस्था विशेष से बढ़ता हुआ यह पूर्वरूप-सा दिखाई देता है; जबकि अमानुषों की अवस्था विशेष स्थिर रहती है। तथा इसका सुन्दर नेत्रयुगल निमेष योग्य है; जबकि अमानुष निमेषरहित होते हैं।' मदनमंजुला ने कहा- 'स्वामिपुत्री ने ठीक जाना, यह ऐसा ही है, इसमें सन्देह नहीं । पुनः मैं अनुमान करती है कि यह स्वामिपुत्री का ही वर होगा।' इस बीच अपने कार्य में लगे हुए सिद्धान दि पुरोहित में कहा - ' ही prevent इति ई at a Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६० [समराइच्चकहा मयणमंजयाए भट्टिदारियाए सुयं सिद्धाएसक्यणं । तओ हरिसपराहीणयाए ईसि विहसिएण बहु मन्निऊण तीए वयणं समारद्धा पुलोइउं । भणिया य चित्तसुंदरी--हला, उवणेहि मे चित्तट्टियं वट्टियासमग्गयं च, जेण संपाडेमि अंबाए सासणं ति। 'जं भट्टिदारिया आणवेइ' त्ति जंपिऊण संपाडियपिणं चित्तसंदरोए। समारद्धा एसा समालिहिउं। तओ महया अहिणिवेसेण निरूविउं पुणो पुणो तहारूवो चेवालिहिओ तीए पडिच्छंदओ। भणिया य मयणमंजया-हला, उवणेहि एयमंबाए. भणाहि य अंबं 'किमेस आराहिओ न व' ति। मयणमंजुयाए भणियं-जं भट्टिदारिया आणवेइ । गया मयणमंजुया। विन्नत्ता य णाए देवी-भट्टिणि, भट्टिदारिया रयणवई विन्नवेइ 'निरूवेह एयं चित्तपडिच्छंदयं, किमेस आराहिओ न व' ति। समप्पिया चित्तवट्टिया, गहिया देवीए। निरूविऊण चितियमिमीए-अहो मे ध्याए चित्तयम्मचउरत्तणं। सोहणयरो ख एसो पडिग्छंदयाओ। आणाधिया य जाए कुमारलिहिया रयणवइचित्तवट्टिया, आसन्नीकया कुमारपडिच्छंदयस्स, जाव 'अच्चताणुरूवं मिहुणयंति हरिसिया देवी। भणियं च णाए-हला मयणमंजुए, भणाहि मे जायं, जहा सुठ्ठ आराहिओ, अन्नं च; सव्वकालमेव तुमं एयाराहणपरा भणितं मदनमञ्जुलया - भत दारिक या श्रुत सिद्धादेशवचनम् ? ततो हर्षपराधीनतया ईषद विहसितेन बहु मत्वा तस्या वचनं समारब्धा प्रलोकितम् । भणिता च चित्रसुन्दरी सखि ! उपनय मे वित्रपट्टिको वर्तिकासमुद्ग के च, येन सम्पादयाम्यम्बाया: शासनमिति । 'यद् भर्तृ दारिकाऽऽज्ञापयति' इति जल्पित्वा सम्पादितमिदं चित्रसुन्दर्या । समारब्धषा समालिखितुम्। ततो महताऽभिनिवेशेन निरूप्य पुनः पुनस्तथारूप एवालिखितस्तया प्रतिच्छ दकः । भणिता च मदनमञ्जला, सखि ! उपनयैतमम्बाया:, भण चाम्बा 'किमेष आराधितो न वा' इति । मदनमञ्जलया भणितमयद् भर्तृदारिकाऽऽज्ञापयति । गता मदनमजला । विज्ञप्ता च तया देवी-भट्टि नि ! भर्त दारिका रत्नवती विज्ञपयति 'निरूपयतं वित्रप्रतिच्छन्दकं , किमेष आराधितो न वा' इति । समर्पिता चित्रपट्टिका, गृहीता देव्या । निरूप्य चिन्तितमनया-अहो मे दुहितुश्चित्रकर्मचतुरत्वम् । शोभनतर: खल्वेष प्रतिच्छन्दकात् । आनायिता च तया कुमारलिखिता रत्नवतीचित्रपट्टिका, आसन्नीकृता कुमारप्रतिच्छन्दकस्य, यावद् ‘अत्यन्तानुरूपं मिथुनकम्' इति हर्षिता देवी । भणितं च तया-सखि मदनमञ्जुले ! भण मे जाताम्, यथा सुष्ठु आराधितः । अन्यच्च सर्वकालमेव त्वमेतदाराधनपरा मंजुला न स्वाभिपुत्री से कहा- सिद्धादेश के वचनों को सुना?' अनन्तर हर्ष से पराधीन होकर कुछ मुस्कराकर उसके वचनों का आदर कर देखने लगी और चित्रसुन्दरी से बोली-'सखी ! मेरे लिए चित्रपट्टिका और कुची का डिब्बा ले आओ; जिससे माता की आज्ञा पूरी करूं।' 'जो स्वामिपुत्री आज्ञा दें' - ऐसा कहकर इसे चित्रसुन्दरी ने पूर्ण किया। स्वामिपुत्री ने चित्र बनाना आरम्भ कर दिया। अनन्तर बड़ी एकाग्रता से पूनः पुनः देखकर उसी का चित्र बना दिया और मदनमंजला से कहा --- 'सखी! इसे माता जी के पास ले जाओ और उनसे पूछो कि इसमें सफलता पायी या नहीं ?' मदनमंजुला ने कहा---'स्वामिपुत्री जैसी आज्ञा दें।' मदनमजला चली गयी और महारानी से निवेदन किया - 'स्वामिनि ! स्वामिपुत्री रत्नवती निवेदन करती हैं कि इस चित्र के सादश्य को देखो, इसमें सफलता मिनी अथवा नहीं?' ऐसा कहकर चित्रपट्टिका समर्पित कर दी। महारानी ने ले ली। देखकर उस (महारानी) ने सोचा- 'ओह मेरी पुत्री की चित्रकारी में कुशलता ! यह (उस) चित्र से भी अधिक सुन्दर है। उसने कुमार के द्वारा चित्रित रत्नवती वाली चित्रपट्टिका मंगायी और कुमार के चित्र के समीप रखा। जोड़ा अत्यन्त अनुरूप था, अतः महारानी हर्षित हुई और उसने कहा- 'सखी मदनमंजला ! मेरी पुत्री से कहो कि बहुत अच्छी सफलता प्राप्त की। दूसरी बात यह है कि सब समय तुम इसकी आराधना में रत होओ' -- यही Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो भवो] ६६१ हवेज्जसु त्ति; एयं च ते पारिओसियं, तुम पि एएण एवं चेवाराहिय ति; निरूवेहि एयस्स चित्तकोसल्लं ति । भणिऊण समप्पियं से चित्तवट्टियादुयं । 'जं मए वियप्पियं, तं तह' त्ति हरिसिया मयणमंजुया। गया रयणवईसमीवं । भणियं च णाए-भट्टिदारिए, परितुट्टा ते देवी; भणियं च णाए, जहा सुठ्ठ आराहिओ त्ति । पेसियं च ते पारिओसियं। तं पुण न अन्नपारिओसियप्पयाणमंतरेण समप्पिउं जुज्जइ। रयणवईए भणियं-हला, देस्सामि ते पारिओसियं । पेच्छामि ताव, कि पुण अंबाए पेसियं पारिओसियं । मयणमंजुयाए भणियं-जं भट्टिदारिया आणवेइ। उवणोया से कुमारलिहिया चित्तवट्टिया। दिट्ठा 'रयणवईए। चितियं च णाए-हंत अहं पिव एत्थ आलिहिय ति। भणियं च णाए -हला मयणमंजुए, किमेयं ति। तीए भणिय-भट्टिदारिए, देवीए जहा सुठ्ठ आराहिओ ति आणवेऊण पुण इमं आणतं; "अन्नं च, सव्वकालमेव तुमं एयाराहणपरा हवेज्जासु त्ति; एयं च ते पारिओसिय; तुम पि एएण एवं चेवाराहिय त्ति निरूवेहि एयस्स चित्तकोसल्लं ति," तहा जं मए तक्कियं, 'भट्टिदारियाए एसो वरो हविस्सइ,' तं तह त्ति तक्केमि । भवेरिति, एतच्च ते पारितोषिकम् । त्वमपि एतेनैवमेवाराधितेति, निरूपयतस्य चित्रकौशल्यमिति। भणित्वा समर्पितं तस्याश्चित्रपट्टिकाद्विकम् । 'यन्मया विकल्पितं तत्तथा' इति हर्षिता मदनमञ्जुला। गता रत्नवतीसमीपम् । भणितं च तया- भर्तृदारिके ! परितुष्टा ते देवी, भणितं च तया, यथा सुष्ठ आराधित इति । प्रषितं च ते पारितोषिकम् । तत्पुनर्नान्यपारितोषिकप्रदानमन्तरेण समपितुं युज्यते । रत्नवत्या भणितम् – सखि ! दास्यामि ते पारितोषिकम् । प्रेक्षे तावत् किं पुनरम्बया प्रेषितं पारितोषिकम । मदनमञ्जुलया भणितम्- यद् भर्तृदारिकाऽऽज्ञापयति । उपनीता तस्याः कुमारलिखिता चित्रपट्टिका । दृष्टा रत्नवत्या । चिन्तितं च तया-हन्त अहमिवात्रालिखितेति । भणितं च तया-सखि मदनमञ्जुले ! किमेतदिति । तया भणितम्भर्तृ दारिके ! देव्या यथा सुष्ठु आराधित इत्याज्ञाप्य पुनरिदमाज्ञप्तम्, अन्यच्च सर्वकालमेव त्वमेतदाराधनपरा भवेरिति, एतच्च ते पारितोषिकम्, त्वमप्येतेनैवमेवारा धितेति निरूपयेतस्य चित्रकौशल्यमिति । तथा यन्मया तकितं 'भत दारिकाया एष वरो भविष्यति' तत्तथेति तकंयामि । मेरा तुम्हारे लिए पारितोषिक है। तुम भी इसी से ही इस प्रकार सफल हो गयी। देखो इसकी चित्रकला की कुशलता।' ऐसा कहकर उसे दोनों चित्र पट्टिकाएँ दे दी। 'जो मैंने सोचा था वह वैसा ही हुआ'-- इस प्रकार मदनमंजुला हर्षित हुई। (वह) रत्नवती के पास गयी। उसने कहा---'स्वामिपुत्री ! आप पर महारानी प्रसन्न हैं। उन्होंने कहा है कि आपने अच्छी सफलता पायी और आपको पारितोषिक भेजा है। उसे अन्य पारितोषिक दिये बिना देना टीक नहीं है।' रत्नवती ने कहा - 'सखी ! मैं तुम्हें पारितोषिक दूंगी। देखू, माता ने क्या पारितोषिक भेजा।' मदनमंजुला ने कहा -'स्वामिपुत्री जैसी आज्ञा दें।' उसने कुमार के द्वारा बनायी हुई चित्रपट्टिका उसके सामने रख दी। रत्नवती ने देखा और उसने सोवा हाय, मैं ही मानो यहाँ चित्रित की गयी हैं ! उसने कहा'सखी मदनमंजुला, यह क्या ?' उसने कहा-'स्वामिपुत्री ! महारानो ने 'बहुत अच्छी सफलता प्राप्त की'---ऐसा कहकर पुन: यह आज्ञा दी। दूसरी बात यह कि 'सदैव तुम इसकी आराधना में रत रहो - यह तुम्हारा पारितोषिक है, तुम भी इसी से सफल हो गयी। अतः इसकी चित्र कुशलता को देखो तथा जो मैंने सोचा था कि स्वामिपुत्री का यह वर होगा वह वैसा ही है-ऐसा मैं अनुमान करती हूँ।' तब अत्यन्त अभिलाषा युक्त होकर पुनः चित्र की १ रयणवईए निरूपिया य । दिउापुल्ललोयणाए चित्तबट्टियादुयं । चिनियं-- डे. ज्ञा. । २ सवियक क चितिऊण भणियं - Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२ [ समराइच्चकहा तओ अच्चंतसाहिलासं पुणो चित्तपइगिई पुलोइय वाचिऊण य गाहं हरिसवसुव्वेल्लपुलयाए' जंपियं रयणवईए-हला मयणमंजुए, किमहं एसा आलिहिय त्ति अणुहरइ चित्तपइगिई। तओ अच्चंतं निरूविऊण भणियं मयणमंजुयाए । सुठ्ठ अणुहरइ ति। न नज्जइ, कि भट्टिदारिया आलिहिया, किं वा भट्टिदारियाए चेव एत्थ पडिबिबं संकेत ति । तओ हरिसिया रयणवई । भणियं च णाएको उण एसो भविस्सइ। मयणमंजुयाए भणियं - तक्कमि, कोइ महाणुभावो भट्टिदारियाणुराई सयलकलारयणायरो रायउत्तो भविस्सइ। रयणवईए भणियं-हला, म कयाइ अहमणेण दिट्ठा, ता कहं ममाणुराइ त्ति । मयणमंजुयाए भणियं-भट्टिदारिए, तक्केमि, तुम पि इमिणा एमेव चित्तयम्मगया दिट्ट ति। रयणवईए भणियं-- हला, कि चित्तयम्मगदिट्ठाए वि अणुराओ होइ? मयणमंजुयाए भगियं-होइ आगिइविसेसओ न उण सव्वत्थ। रयणवईए भणियं-कहं विय। मणयमंजुयाए भणियं-जहा भट्टिदारियाए इमम्मि । तओ ईसि विहसिऊण नीससियमिमीए। मयणमंजुयाए भणियं-सामिणि, मा संतप्प । 'अवस्सं सामिणो इमिणा संजुज्जई' ति साहेइ विय मे हिययं । रयणवईए चितियं--कुणो मे एत्तिया भागधेया। दुल्लहो खु चिंतामणी मंदउण्णाणं । ततोऽत्यन्तसाभिलाषं पुनश्चित्रप्रतिकृति प्रलोक्य वाचयित्वा च गाथां हर्षवशप्रसृतपुलकया जल्पितं रत्नवत्या सखि मदनमञ्जुले ! किमहमेषाऽऽलिखितेति अनुहरति चित्रप्रकृतिः। ततोऽत्यन्तं निरूप्य भणितं मदनमजलया--सुष्ठ अनुहरतीति । न ज्ञायते कि भर्तृ दारिकाऽऽलिखिता, किंवा भर्तृ दारिकाया एवात्र प्रतिबिम्ब संक्रान्तमिति । ततो हर्षिता रत्नवती। भणितं च तया-कः पुनरेष भविष्यति । मद समजलया भणितम्-तर्कयामि कोऽपि महानुभावो भत दारिकानुरागी सकलकलारत्नाकरो राजपुत्रो भविष्यति । रत्नवत्या भणितम्-सखि ! न कदाचिदहमनेन दष्टा, ततः कथं ममानुरागीति । मदनमञ्जुलया भणितम्-भर्तृ दारिके ! तर्कयामि, वमप्यनेन एवमेव चित्रकर्मगता दृष्टेति । रत्नवत्या णितम् - सखि ! कि चित्रकर्मगत दृष्टायामप्यनुरागो भवति ? मदनमञ्जलया भणितम्-भवत्याकृति विशेषतः, न पुनः सर्वत्र । रत्नवत्या भणितम-कथमिव ? मदनमञ्जलया भणितम्-यथा भर्तृ दारिकाया अस्मिन् । तत ईषद् विहस्य निःश्वस्तमनया। मदनमञ्जलया भणितम् - स्वामिनि ! मा सन्तप्यस्व, 'अवश्यं स्वामिनी अनेन संयुज्यते' इति कथयतोव मे हृदयम् । रत्नवत्या चिन्तितम्-कुतो मे एतावन्ति भागधेयानि । दुर्लभः खलु चिन्ता प्रतिकृति देखकर और गाथा बाँचकर हर्षवश रोमांचित हो रत्नवती ने कहा-'सखी मदनमंजुला, यह मैं चित्रित की गयी हूँ ? चित्र की प्रतिकृति में ऐसा सादृश्य है ?' तब ध्यान से देखकर मदनमंजुला ने कहा-'एकदम सादृश्य है । स्वामिपुत्री चित्रित की गयी हैं अथवा स्वामिपुत्री का ही प्रतिबिम्ब इसमें आ गया है-यह नहीं ज्ञात होता है ।' तब रत्नवती हर्षित हुई। उसने कहा---'फिर यह कौन होगा?' मदनमंजुला ने कहा- 'अनुमान करती हूँ स्वामिपुत्री का अनुरागी, समस्त कलाओं का सागर कोई राजपुत्र होना चाहिए।' रत्नवती ने कहा'सखी ! इसने मुझे कभी नहीं देखा अत: कैसे मेरा अनुरागी है ?' मदनमंजुला ने कहा-'स्वामिपुत्री ! अनुमान करती हैं कि तुम्हें भी इसने इसी प्रकार चित्र में देखा।' रत्नवती ने कहा-'क्या चित्र में देखी हई के प्र अनुराग हो जाता है ?' मदनमंजुला ने कहा-'आकृतिविशेष से अनुराग हो जाता है, सब जगह नहीं।' रत्नवती ने कहा-'कैसे ?' मदनमंजुला ने कहा-'जैसे स्वामिनी का इस राजपुत्र के प्रति ।' तब मुस्कराकर इसने लम्बी सांस ली । मदनमंजुला ने कहा- 'स्वामिनि ! दुःखी मत होओ, अवश्य ही स्वामिनी इससे मिलेंगी, ऐसा मानो मेरा हृदय कह रहा है ।' रत्नवती ने सोचा--मेरे इतने भाग्य कहाँ ? मन्द पुण्यवालों के लिए चिन्तामणि दुर्लभ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो भवो ] ६६३ एत्थंतरम्मि फुरियं से वामलोयणेणं, आयण्णिओ पुण्णाहघोसो। परिउट्ठा चित्तेणं। चितियं च णाए-अवि नाम एयमवि एवं हवेज्ज त्ति । एत्थंतरम्मि समागया पियमेलियाहिहाणा चेडी । भणियं च णाए-भट्टिदारिए, देवी आणवेइ, जहा 'आसन्ना भोयणवेला, ता आवस्सयं करेहि' ति। तओ 'जं अंबा आणवेइ' त्ति भणिऊण कुमारमणुसरंता' उठ्ठिया रयणवई । कयं गुरुदेवयाइयं निच्चयम्म । भत्तं च विहिणा । गहिओ कुमारपडिच्छंदओ। अहो सोहणो अंगविन्नासो, मणोहरा धीरललियया सलोणा दिट्ठी, अइप्पगब्भो भावो, अच्चुयारं सत्तं, गंभीरगरुओ अवत्थाणो। अहो ईइसो वि पुरिसविसेसो हवइ त्ति अच्छरियं । एवं च कुमारगुणुक्कित्तणपराए अइवकता कइवि वासरा। इओ य तच्चित्तवट्टियादसणविणोएण कुमार गुणचंदस्प वि एवमेव ति। विन्नाओ य एस वइयरो कुओइ मेत्तीबलेण । 'उचिया चेव संखायणनरिंदधया कुमारस्स' ति चितिऊण पेसिया तेण तीए पहाणकोसल्लियसमेया पहाणवरगा। मणिर्मन्द पुण्यानाम् । अत्रान्तरे स्फुरितं तस्या वामलोचनेन, आकणितः पुण्याहघोष: (मङ्गलशब्दः) । परितुष्ट' चित्तेन । चिन्तितं च तया-अपि नाम एतदपि एवं भवेदिति । अत्रान्तर समागता प्रियमेलिकाभिधाना चेटो। भणितं च तया-भदा रके ! देव्याज्ञापयति, यथा 'आसन्ना भोजनवेला, तत आवश्यकं कुरु' इति । ततो 'यदम्बाऽऽज्ञापयति' इति भणित्वा कुमारमनुस्मरन्त्युत्थिता रत्नवती । कृतं गुरुदेवादिकं नित्यकर्म । भुक्त च विधिना। गृहीतः कुमारप्रतिच्छन्दकः । अहो शोभनोऽङ्गविन्यासः, मनोहरा धोरललितका सलावण्या दृष्टिः, अतिप्रगल्भो भावः, अत्युदारं सत्त्वम्, गम्भीरगुरुकमवस्थानम् । अहो ईदृशोऽपि पुरुषविशेषो भवतीत्याश्चर्यम् । एवं च कुमारगुणोत्कीर्तनपराया अतिक्रान्ताः । त्यपि वासराः । ___इतश्च तच्चित्रपट्टिकादर्शनविनोदेन कुमार गुणचन्द्रस्याप्येवमेवेति । विज्ञातश्चैष व्यतिकरः कुतश्चिद् मैत्रीबलेन । 'उचितैव शाङ्खायननरेन्द्रदुहिता कुमारस्य' इति चिन्तयित्वा प्रेषितास्तेन तस्यै प्रधानपाभूतसमेताः प्रधानवरकाः । है। इसी बीच उसकी बायीं आंख फड़की। मंगल शब्द सुनाई पड़ा। (वह) चित्त से सन्तुष्ट हुई और उसने सोचा- हो सकता है, इसकी भी ऐसी ही अवस्था हो । इसी बीच प्रियमेलिका नामक दासी आयी और उसने कहा-'स्वामिपुत्री ! महारानी आज्ञा देती हैं कि भोजन का समय समीप है, अत: आवश्यक कार्य करें।' तदनन्तर 'माता जी की जैसी आज्ञा'-ऐसा कहकर कुमार का स्मरण करती हुई रत्नवती उठी। गुरु-देव आदि सम्बन्धी नित्यकर्मों को किया और विधिपूर्वक भोजन किया। कुमार के चित्र को लिया । ओह, अंगों का विन्यास सुन्दर है। दृष्टि मनोहर, धीरललित और लावण्ययुक्त है। भाव अति प्रौढ़ है। सत्त्व अत्यन्त श्रेष्ठ है । आकृति गम्भीर और गौरवयुक्त है । ओह ! ऐसा भी पुरुष विशेष होता है ! आश्चर्य है। इस प्रकार कुमार के गुणों के कीर्तन में लगी हुई उसके कुछ दिन बीत गये। इधर उस चित्रपट्टिका के दर्शन के विनोद से कुमार गुणचन्द्र की भी इसी प्रकार दशा हुई। कहीं से यह वृत्तान्त मैत्रीबल को ज्ञात हुआ। शांखायन राजा की पुत्री योग्य ही है-ऐसा सोचकर उसने उसके पास प्रधान उपहारों के साथ प्रमुख बहुमूल्य पात्रों को भेजा। 1. -णुसरंतीए कयं-डे. ज्ञा. पा. ज्ञा. । २. कोसल्लिय (दे.) प्राभृतम्, उपहार इति यावत् । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४ [ समराइच्चकहा इओ य कुमारपडिच्छंदयमेतदंसणपरा 'न एयमंतरेण अणबंधो मुणोयइ' ति उविग्गा रयणवई । परिचत्तमिमीए रायकन्नगोचियं करणिज्ज । तमद्धासिया अरईए, गहिया रणरणएणं, अंगीकया सुन्न पाए, पडिवन्ना वियारहि, ओत्थया मयण जरएण। तओ सा 'सीसं मे दुक्खइ' त्ति साहिऊण सहियणस्स उवगया सणिज्ज। तत्थ उण पवड्ढमाणाए वियंभियाए अणवरयमुव्वत्तमाणेणमगेणं आपंडुरएहि गंडपास रहि बप्फपज्जाउलाए दिवोए अलद्धासासवीसभ जाव थेववेलं चिट्ठइ, ताव हरिसवसुप्फुल्ललोयणा समागया मयणमंजुया । भणियं च णाए-भट्टिारिए, चिर जीवसु त्ति । पुण्णा ते मणोरहा। जं मए तक्कियं, तं तहेव जायं ति। रयणवईए भणियं-हला, कि तयं तक्कियं, किंवा तहेव जायं ति। भयणमंजमाए भणियं-भट्टिदारिए एयं तक्कियं, जहा एसो चित्तपडिच्छंदओ भट्टिदारियाए चेव वरो भविस्सइ त्ति, जाव तं तहेब जायं ति। तओ कडिसुत्तयं दाऊण भणियं रयणवईए -'हला, कहं विय'। मयणमंजुयाए भणियं-सुण। अस्थि अहं इओ भट्टिदारियासमोवाओ देवीसयासं गया, जाव पप्फुल्लवयणपंकया सह चित्तमइभूसहि मंतयंती इतश्च कुमारप्रतिच्छन्दकदर्शनपरा नैतदन्तरेण अनुबन्धो ज्ञायते' इत्युद्विग्ना रत्नवती। परित्यक्तमनया राजकन्यकोचितं करणीयम् । समयासिताऽरत्या, गृहीता रणरणकेन (औत्सुक्येन), अङ्गोकृता शून्यतया, प्रतिपन्ना विकारैः अवस्तृता मदनज्वरेण । ततः सा 'शीर्ष मे दुःखयति' इति कथयित्वा सखीजनस्योपगता शयनीयम् । तत्र पुन: प्रवर्धमानया विज़म्भिकयाऽनवरतमुद्वर्तमानेनाङ्गेन आपाण्डुराभ्यां गण्डपाश्र्वाभ्यां वाष्पपर्याकुलया दृष्ट्याऽलब्धाश्वासविश्रम्भं यावत् स्तोकवेलां तिष्ठति, तावद् हर्षवशोत्फुल्ललोचना समागता मदनमञ्जुला। भणितं च तया --- भर्तृ दारिके ! चिरं जीवेति । पूर्णास्ते मनोरथाः। यन्मया तर्कितं तत्तथैव जातमिति । रत्नवत्या भणितम्-हला ! कि तत्तर्कितम्, किं वा तथैव जातमिति । मदनमञ्जलया भणितम्भर्तृ दारिके ! एतत्तर्कितं यथैष चित्रप्रतिच्छन्दको भर्तृ दारिकाया एव वरो भविष्यतीति, यावत तत्तथैव जातमिति । ततः कटिसूत्रं दत्त्वा भणितं रत्नवत्या--'हला ! कथमिव' । मदनमञ्जलया भणितम् - शृणु। अस्म्यहम्तिो भर्तृ दारिकासमं पाद् देवीसकाशं गता, यावत्प्रफुल्लवदनपङ्कजा इधर कुमार के चित्र का दर्शन करने में संलग्न रत्नवती-'इसके बिना (कोई) सम्बन्ध ज्ञात नहीं होता'- यह सोचकर उद्विग्न हो गयी। उसने राजकन्या के योग्य कार्य को छोड़ दिया । (वह) अरति से अध्यासित हो गयी, उत्सुकता ने (उसे) ग्रहण कर लिया, शून्यता ने अंगीकार कर लिया। (वह) विकार को प्राप्त हुई, कामज्वर ने (उसे) ढक लिया । अनन्तर वह 'मेरा सिर दुःखता है'-ऐसा सखीजनों से कहकर शभ्या को प्राप्त हो गयी। वहाँ पर बार-बार जंभाई लेती, निरन्तर अंगों को हिलाती-डुलाती, कुछ-कुछ पीले गालों के प्रान्त भाग से युक्त, आँसुओं से व्याप्त नेत्रों वाली, श्वास के विश्राम को न प्राप्त कर जब थोड़ी देर बैठी हुई थी तभी हर्षवश, जिसके नेत्र विकसित थे ऐसी, मदनमंजुला आ गयी । उसने कहा---'स्वामिपुत्री ! चिरकाल तक जिओ। आपके मनोरथ पूर्ण हुए। जो मैंने अनुमान किया था, वह वैसा ही हुआ।' रत्नवती ने कहा-'सखी ! वह क्या अनुमान किया था अथवा क्या वैसा ही हुआ ?' मदनमंजुला ने कहा—'स्वामिपुत्री! यह अनुमान किया था कि इस चित्र के समान अथवा जिसका यह चित्र है वही स्वामिपुत्री का वर होगा, वह वैसा ही हुआ। तब कटिसूत्र देकर रत्नवती ने कहा-'सखी ! कैसे ?' मदनमंजुला ने कहा-'सुनो मैं यहाँ स्वामिपुत्री के पास से महारानी के समीप गयो थी, मैंने विकसित मुखकमलवाली महारानी को चित्रमति और भूषण के साथ विचार करते हुए Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अटठमो भवो ] दिट्ठा मए देवी । भणियं च णाए हला मयणमंजए, भणाहि मे जायं रयणवई, जहा 'पुण्णा मोरहा तुह भागधेहि, दिन्ना तुमं पणयपत्थणामहग्घं अओज्झासामिणो महारायमेत्तीबलसुयस्स कुमारगुणचदस्स' । रयणवईए भणियं-हला, क्रिमिमिणा असंबद्धेण । मयणमंजुयाए भणियंभट्टिदारिए, नेयमसंबद्ध कहावसाणं पि ताव सुणेउ भट्टिदारिया । तओ देवीए भणियं - 'आराहिओ तए एस चित्तयम्मेण परितुट्ठो य भयवं पयावई; जेण सो चेव ते 'अकयन्नकन्नारायदारियापरिग्गहो भत्ता विइण्णो' ति । एयं सोऊण हरिसिया रयणवई । दिन्नं मयणमंजुयाए निययाहरणं । चितियं च सहरिसं 'कहं सो चेव एसो गुणचंदो' त्ति । अहो जहत्थमभिहाणं । अवगओ विय में संतावो, तस्स गेहिणीस देण समागओ मुत्तिमंतो दिय परिओसो मयणमंजुयाए भणियं - भट्टिदारिए, तओ देवीए भणियं, ता एहि, मज्जिऊण गुरुदेवए बंदसु' त्ति । रयणवईए भणियं - जं अंबा आणवेइ । मज्जिऊण महाविभूईए वंदिया देवगुरवो । कारावियं महारायसंखायणेण महादाणाइयं उचियकरणिज्जं 'ठिइ' त्ति काऊण । सह चित्रमतिभूषणाभ्यां मन्त्रयमाणा दृष्टा मया देवी । भणितं च तया --हला मदनमञ्जुले ! भ मे जातां रत्नवतीम् यथा 'पूर्णा मे मनारथास्तव भागधेयैः, दत्ता त्वं प्रणयप्रार्थनामहार्घमयोध्यास्वामिने महाराज मैत्रीबलसुताय कुमारगुणचन्द्राय । रत्नवत्या भणितम् - सखि ! किमनेन! सम्बद्धेत । मदनमञ्जुलया भणितम् - भर्तृ दारिके ! नेदमसम्बद्धम्, कथावसानमपि तावत् शृणोतु भर्तृ दारिका । ततो देव्या भणितम् - 'आराधितस्त्वयैष चित्रकर्मणा, परितुष्टश्च भगवान् प्रजापतिः, येन स एव ते कृतान्यकन्याराजदारिकापरिग्रहो भर्ता वितीर्ण इति । एतच्छुत्वा हृष्टा रत्नवती । दत्तं मदनमञ्जुलायै निजाभरणम् । विन्तितं च सहर्षं कथं स एवैष गुणचन्द्र:' इति । अहो यथार्थ भवानम । अत्रगत इत्र मे सन्तापः, तस्य गेहिनीशब्देन समागतो मूर्तिमानिव परितोपः । मदनमञ्जुला भागतम् भर्तृदारिके ! ततो देव्या भणितं तत एहि, मज्जित्वा गुरुदैवतान् वन्दस्व' इति । रत्नवत्या भणितम् - यदम्बाऽऽज्ञापयति । मज्जित्वा महाविभूत्या वन्दिता देवगुरवः, कारितं महाराजशाङ्खायनेन महादानादिकमुचितकरणीयं स्थितिः' इति कृत्वा । ६६५ देखा | महारानी ने कहा- सखी मदनमजुला ! मेरी पुत्री रत्नवती से कहो कि तुम्हारे भाग्य से मेरे मनोरथ पूर्ण हो गये। अयोध्या के स्वामी महाराज मैत्रीबल द्वारा पुत्र कुमार गुणचन्द्र के लिए तुम्हारे प्रणय की प्रार्थना की गयी है।' रत्नवती ने कहा 'इस असम्बद्ध ( बातचीत) से क्या ?' मदनमंजुला ने कहा- 'स्वामिपुत्री ! यह असम्बद्ध नहीं है, स्वामिपुत्री कथा की समाप्ति भी सुनिए । अनन्तर महारानी ने कहा - 'तुमने चित्र की आराधना की, और भगवान् प्रजापति सन्तुष्ट हो गये, जिससे जिसने अन्य कन्या को राजरानी नहीं बनाया हैऐसे उसी कुमार को पति के रूप में दे दिया।' यह सुनकर रत्नवती सन्तुष्ट हुई। मदनमंजुला को अपना आभरण दिया और हर्षपूर्वक सोचने लगी- कैसे यह वही गुणचन्द्र है ? ओह, यथार्थ नाम है। मेरा दुःख मानो गया. उसके गृहिणी शब्द से मानो शरीरधारी सन्तोष आ गया । मदनमंजुला ने कहा - 'स्वामिपुत्री ! अनन्तर महारानी ने कहा- तो आओ, स्नान कर माता-पिता और देवताओं की वन्दना करो।' रत्नवती ने कहा'माता जी की आज्ञा ।' स्नान कर माता-पिता और गुरुओं की महान् विभूति के साथ वन्दना की। महाराज शांखायन ने 'मर्यादा' मानकर महादानादि योग्य कार्य किये । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ [ समराइच्चकहा ___ अइक्कतेसु कइवयदिणेसु महया बलसमुदएणं पहाणरिद्धीए संगया सहियाहि अहिटिया जणणीए अओज्झानयरिमेव विवाहनिमित्तं पेसिया रयणवइ ति। पत्ता यमासमेत्तेणं कालेणं । निवेइया महारायमेत्तीबलस्स। परितुट्ठो एसो। कारावियमणण बंधणमोयणाइयं करणिज्जं । कया उचियपडिवत्ती । गणाविओ वारिज्जदियहो। समाइट्ठा पउरमहंतया, जहा 'कुमारविवाहाणुरूवं सध्वं करेह' ति। कयं च हिं पुवकम्मनिव्वत्तियं चेव सव्वं । समारद्वाओ हदभवणसोहाओ, दवावियं पाउलाण दविणजायं, भंडारपत्तयं वाइऊण कड्ढियाइं पहाणाहरणाई, निरूवियं देवंगाइचेलं, सज्जाविया पहाणवेयंडा, भूसावियाओ आसमंदुराओ, कड्ढाविया धयमालोवसोहिया रहा, दवावियं नयरचच्चरेषु तंबोलपडलाइयं । तओ पसत्थे तिहिकरणमहत्तजोए पसाहिओ वरनेवच्छणं सुणेतो गेयमंगलसई पेच्छंतो पहट्टपरियणं नमंतो गुरुदेवे थुव्वंतो बंदिलोएण पहाणसंवच्छरियवयणओ समारूढो धवलकरिवरं कुमारो। ठिआ य से मग्गओ विसालबुद्धिप्पमुहा वयंसया । तओ वज्जतेणं मंगलतरेणं पणन्चमाणाहि वारविलयाहि रहवराइगयरायलोयपरियरिओ अहिणंदिज्जमाणो अतिक्रान्तेषु कतिपयदिनेषु महता बलसमुदायेन प्रधान ऋद्धया सङ्गता सखीभिरधिष्ठिता जनन्या अयोध्यानगरीमेव विवाहनिमित्तं प्रेषिता रत्नवतीति । प्राप्ता च मासमात्रेण कालेन । निवेदिता महाराजमंत्रीबलस्य । परितुष्ट एषः । कारितमनेन बन्धनमोचनादिक करणीयम् । कृतोचितप्रतिपत्तिः। गणितो विवाहदिवसः। समादिष्टाः पौरमहान्तः, 'यथा कुमारविवाहानुरूपं सर्वं कुरुत' इति । कृतं च तैः पूर्वकर्म निर्वतितमेव सर्वम्। समारब्धा हट्टभवनशोभाः, दापितं याचकानां द्रविण जातम्, भाण्डागारपत्रं वाचयित्वा कृष्टानि प्रधानाभरणानि, निरूपितं देवाङ्गादिचेलम्, सज्जिताः प्रधानहस्तिनः, भूषिता अश्वमन्दुराः कर्षिता ध्वनमालोपशोभिता रथाः, दापितं नगरचत्वरेषु ताम्बूलपटलादिकम् । ततः प्रशस्ततिथिक रणमुहूर्तयोगे प्रसाधितो (अलंकृतो) वरनेपथ्येन शृण्वन् गेयमङ्गलशब्दं प्रेक्षमाण: प्रहृष्टपरिजनं नमन गुरुदेवान स्तूयमानो बन्दिलोकेन प्रधानसांवत्सरिकवचनतः समारूढो धवलकरिवरं कुमारः। स्थिताश्च तस्य मार्गतो (पृष्ठतः) विशालबुद्धिप्रमुखा वयस्याः। ततो वाद्यमानेन मङ्गलतूर्येण प्रनत्यन्तीभिरिवनिताभी रथवरादिगत कुछ दिन बीत जाने पर बड़ी सेना के साथ प्रधानऋद्धि से युक्त होकर, सखियों के साथ, माता से अधिष्ठित होकर रत्नवती को विवाह के लिए अयोध्या ही भेजा गया। एक मास में आ गयी। महाराज मंत्रीबल से निवेदन किया गया । यह (मैत्रीबल) सन्तुष्ट हुआ। इसने बन्दियों को छोड़ना आदि योग्य कार्य किये । उचित जानकारी प्राप्त की। विवाह का दिन गिना । नगर के बड़े लोगों को आदेश दिया कि कुमार के विवाह के अनुरूप सब करो। उन्होंने पहले के सभी कार्यों को पूर्ण किया। बाजार के भवनों की शोभा आरम्भ हई। याचकों को धन दिलाया. गरी के पत्र बाँचकर प्रधान आभरणों को निकाला, देवांगादि वस्त्रों को देखा, प्रधान हाथी सजाये गये, घुड़शालाएँ भूषित की गयीं, ध्वज और माला से शोभत रथ निकाले गये। नगर के चौराहों पर पान आदि दिलाये गये । अनन्तर प्रधान ज्योतिषी के वचनानुसार उत्तम तिथि, करण और मुहूर्त के योग में कुमार सफेद श्रेष्ठ हाथी पर आरूढ़ हुआ । उस समय वह उत्तम पोशाक से अलंकृत था, गाने योग्य मंगल शब्द सुन रहा था, हर्षित परिजनों को देख रहा था, माता-पिता और देवों को नमस्कार कर रहा था। बन्दीजन उसकी स्तुति कर रहे थे । उसके पीछे विशालबुद्धि प्रमुख मित्र बैठे थे । अनन्तर वह रत्नवती के जनवासे में पहुंचा। उस समय मंगल व व बजाये जा रहे थे, पागमाएँ नत्य कर रही थीं। मन पथ पर बैठे हुए राजाओं से बह श्रिा । Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो भवो] ६९७ पउररामायणेण महया विमद्देण पत्तो रयणवइजन्नावासयं । ओइण्णो करिवराओ। पउत्तो कंचणमुसलताडणाइलक्खणो विहीं । पवेसिओ वहुयाहरयं । विट्ठा य गेण चित्तयम्मबि पि ओहसंती रूवाइसएण रई पि विसेसयंती मणहरविलासेहिं ईसि पलंबाहरा चक्कवायमिहुणसरिसेणं थणजुयलेण तिवलीतरंगसोहियमुढिगेज्झमझा असोयपल्लवागारेहि करेहि विस्थिण्णनियंबबिबा थलकमलाणुगारिणा चलणजुयलेण सव्वागारदसणीया सव्वंगमद्धासिया मयणेण कुंडमिवामयस्स रासी विय सुहाणं निहाणमिव रईए आगरो विय आणंदरयणाणं मुणोण वि मणहारिणि अवत्थमणहवंती रयणवइ ति। हरिसिओ चित्तेणं । कयं च ण सिद्धाएसवयणाओ पाणिग्गहणं । भमियाइं मंडलाइं, पउत्तो आयारो, संपाडिया जणोवयारा । तओ तं घेत्तण गओ निययभवणं । कयं उचियकरणिज्ज । अइक्कंता काइ वेला मणहरविणोएणं । पढियं कालपाढएणं अह हिडिऊण दियहं भुटणुज्जोयणसमत्तवावारो। अवररयणायरं मज्जिउ व तुरियं गओ सूरो॥ ६८४।। राजलोकपरिवृतोऽभिनन्द्यमानः पोररामाजनेन महता विमर्दैन (सङ्घर्षेण) प्राप्तो रत्नवती जन्यावासम् । अवतीर्णः करिवरात् । प्रयुक्तः काञ्चनमुशलताडनादिलक्षणो विधिः । प्रवेशितो वधूगृहम् । दृष्टा च तेन चित्रकर्मबिम्बमप्युपहसन्ती रूपातिशयेन रतिमपि विशेषयन्तो मनोहरविलासरीषत्प्रलम्बाधरा चक्रवाकमिथुनसदशेण स्तनयुगलेन त्रिवलीत र शोभितमुष्टिग्राह्यमध्या अशोकपल्लवाकाराभ्यां कराभ्यां विस्तार्णनितम्बबिम्बा स्थलकमलानुकारिणा चरणयुगलेन सर्वाकारदर्शनोया सर्वाङ्गमध्यासिता मदनेन कुण्डमिवामतस्य राशिरिव सुखानां निधानमिव रत्या आकर इव आनन्दरत्नानां मुनोनामपि मनोहारिणीमवस्थामनुभवन्ती रत्नवतीति । हृष्टश्चित्तेन । कृतं च तेन सिद्धादेशवचनात्पाणिग्रहणम् । भ्रान्तानि मण्डलानि, प्रयुक्त आचारः, सम्पादिता जनोपचाराः । ततस्तां गृहीत्वा गतो निजभवनम् । कृतमुचित करणीयम्। अतिक्रान्ता कापि वेला मनोहरविनोदेन । पठितं कालपाठकेन-- अथ हिण्डित्वा दिवसं भवनोद्योतनसमाप्तव्यापारः । अपररत्नाकरं मज्जितुमिव त्वरितं गतः सूरः ॥६८४॥ नगर की स्त्रियाँ उसका अभिनन्दन कर रही थीं। बहुत अधिक भीड़ हो रही थी। (वह) श्रेष्ठ हाथी से उतरा। स्वर्णमयी मूसल से मारने आदि लक्षणों वाली विधि प्रयुक्त हुई। वधु-गह में (उसे) प्रवेश कराया गया। उसने इस प्रकार की अवस्था का अनुभव करती हुई र नवती को देखा। वह अपनी रूपातिशयता के कारण चित्र में बनाये हए बिम्ब का उपहास कर रही थी। मनोहर विलासों के कारण वह रति से भी विशिष्ट लग रही थी। उसके अधर कुछ-कुछ लटके हए थे। चकवे के जोड़े के समान स्तन युगल से वह युक्त थी । त्रिवली की तरंगों से शोभित उसका मध्यभाग मट्री से ग्रहण करने योग्य था। अशोक के कोमल पत्ते के आकार वाले उसके दोनों हाथ थे। उसके नितम्बबिम्ब विस्तृत थे। उसके चरणयुगल स्थलकमल का अनुकरण करनेवाले थे। समस्त आकारों में वह दर्शनीय थी। कामदेव उसके सभी अगों में अधिष्ठित था। वह मानो अमत की कुण्ड थी, सूखों की राशि थी, रति का निधान थी, आनन्द के रत्नों का खजाना थी, मुनियों के लिए भी मनोहर थी। (कुमार) मन ही मन हर्षित हुआ। उसने सिद्धादेश के वचनों के अनुसार पाणिग्रहण किया। फेरे हए, आचार प्रयुक्त हुआ, जनोपचार सम्पादित हए। अनन्तर रत्तवती को लेकर अपने भवन में गया। योग्य कार्यों को किया। मनोहर विनोद के साथ कुछ समय बीता । कालपाठक ने पढ़ा - अब दिनभर घूमकर संसार को प्रकाशित करने के कार्य को समाप्त कर मानो, दूसरे समुद्र में स्नान करने Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९८ [समराइचकहा दिवसविरमम्मि जाया मउलावियकमललोयणा नलिणी। अइदूसहसूरविओयजणियपसरतमुच्छ व्व ॥६८५॥ अत्यमिम्मि दिणयरे दइयम्मि व वढियाणुरायम्मि। रयणिवहू सोएण व तमेण तुरिय तओ गहिया ॥६८६॥ अवहत्थियमित्ते दुज्जणे व पत्ते पओससमम्मि । चक्काई भएण व विहडियाइ अन्नोन्ननिरवेक्खं ॥६८७॥ आसन्नचदपिययमसमागमाए व नहयलसिरीए। दियहसिरिमाणजणयं गहियं वरतारयाहरणं ।।६८८॥ पुवदिसावहुवयणं तोसेण व नियसमागमकएणं । उज्जोवतो जोहानिवहेण समुग्गओ चदो ॥६८६॥ माणंसिणीण माणो मयलछणचंदिमाए छिप्पंतो। अगणिय सहिउवएसं नट्टो घणतिमिरनिवहो व्व ॥६६०॥ दिवसविरमे जाता मुकुलितकमललोचना नलिनी। अतिदुःसहसूरवियोगजनितप्रसरन्मूच्छंव ।।६८५॥ अस्तमिते दिनकरे दयिते इव धितानुरागे। रजनीवधूः शोकेनेव तमसा त्वरितं ततो गृहीता ॥६८६।। अपहस्तितमित्रे दुर्जने इव प्राप्ते प्रदोपसमये । चक्रवाका भयेनेव विघटिता अन्योन्यनिरपेक्षम् ॥६८७।। आसन्नचन्द्रप्रियतमसमागमयेव नभस्तलश्रिया। दिवसश्रोमानजनकं गृहंत वरतारकाभरणम्॥६८८।। पूर्व दिग्वधू वदनं तोषणेव निजसमागमकृतेन । उदद्योतयन् ज्योत्स्नानिवहेन समुद्गतश्चन्द्रः ।।६८६।। मनस्विनीनां मानो मगलाञ्छन चन्द्रिकया स्पृश्यमानः । अगणयित्वा सख्युपदेशं नष्टो घनतिमिरनिवह इव ॥६६॥ के लिए सूर्य शीघ्र ही चल दिया है। दिन की समाप्ति होने पर कमल के समान नेत्रवाली कमलिनी मुकूलित हो गयी है। मानो सूर्य के अत्यन्त दुःसह वियोग मे उत्पन्न मूर्छा का ही प्रभाव हो गया है। पतिरूप सूर्य के अस्त हो जाने पर उसके प्रति बढ़े हुए अनुरागवाली रात्रिरूपी वधु शोक के कारण मानो अन्धकार के द्वारा शीघ्र ही ग्रहण कर ली गयी है । मित्र के हराये जाने पर, दुर्जन के समान सन्ध्याकाल के प्राप्त होने पर मानो भय से ही चकवे एक-दसरे से अलग हो गये हैं। आकाशतल की लक्ष्मी ने समीपवर्ती चन्द्ररूप प्रियतम के समागम से ही दिवसलक्ष्मी के मान के जनक श्रेष्ठ तारारूपी आभरण को ग्रहण कर लिया है । अपने समागम से उत्पन्न सन्तोष से ही मानो पूर्व दिशारूपी वधू के मुख को चाँदनी के समूह से प्रकाशित करता हुआ चन्द्रमा उदित हो गया है। चन्द्रमा की चाँदनी से स्पृष्ट हुआ मानवती स्त्रियों का मान सखी के उपदेश को न मानकर घने अन्धकार-समूह के Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अटठमो भवो ] ६६६ पुवदिसाए निवडिया ससिसंगाणंदबाहबिंदु व्व । जाया कज्जलकलुसा तमभरिया धरणिविवरोहा ॥६६१॥ मयणधणुजीवरावो व्व मणहरो तुरियखलणगमणेण। अहिसारियाण नेउरचलवलयरवो पवित्थरिओ ॥६६२॥ उल्लसियरिक्खरयणं वियंभिउहामवारुणीगंधं । जायं मियंकसुहयं भुवणं खीरोयमहणं व ॥६६३॥ एवं विहे पोसे सविसेसं सज्जियं महारम्भं । हरिसियमणो कुमारो समागओ नवर वासहरं ॥६६४।। ओहामियसुरसुंदरिख्वाए वहूए सपरिवाराए। पप्फुल्लवयणकमलाए सेवियं सुरविमाणं व ॥६६॥ निउणेहि कंचि कालं गमिउं हिद्वाउ हासखेड्डेहि। अविसज्जियाउ वहुयाए निग्गयाओ सहीओ से ॥६६६।। पूर्वदिशि निपतिताः शशिसङ्गानन्दवाष्प बन्दव इव । जाता: कज्जलकलुषाः तमोभृता धरणीविवरौघाः॥६६१॥ मदनधनुर्जीवाराव इव मनोहरस्त्वरितस्खलनगमनेन । अभिसारिकानां नपुर चलवल यरवः प्रविस्तृतः ।। ६६२॥ उल्लसितऋक्षरत्नं विजृम्भितोद्दामवारुणीगन्धम् । जातं मृगाङ्कसुभगं भुवनं क्षीरोदमथनमिव ॥६६३।। एवं विधे प्रदोषे सविशेष सज्जितं महारम्भम् । हृष्ट मनाः कुमारः समागतो नवरं वासगृहम् ।।६६४। तुलितसुरसुन्दरीरूपया वध्वा सपरिवारया। प्रफुल्लवदनकमलया से वितं सुरविमानमिव ॥६६५।। निपुणैः कञ्चित्कालं गमयित्वा हृष्टा हास्यखेलैः । अविजिता वध्वा निर्गताः सख्यस्तस्याः ॥ ६६६॥ समान नष्ट हो गया है । पूर्व दिशा में पड़े हुए चन्द्रमा के मिलन से उत्पन्न आनन्द के आँसुओं के समान काजल से कलुषित पृथ्वी के छिद्रों के समूह अन्धकार से भरे हुए हो गये हैं। कामदेव के धनुष की प्रत्यंचा के शब्द के समान मनोहर तथा लड़खड़ाने वाली शीघ्र गति से युक्त अभिसारिकाओं के चंचल नपुरों और कड़ों का शब्द फैल गया है। जिसमें नक्षत्ररूपी रत्न सुशोभित हो रहे हैं, उत्कट मदिरा की गन्ध जहाँ बढ़ रही है, ऐसा संसार क्षीर-सागर के मन्थन के समान चन्द्रमा से सुन्दर हो गया है। ऐसे प्रदोषकाल में प्रसन्नमन कुमार गुणचन्द्र विशेषरूप से बड़े-बड़े दृश्य जहाँ सजाये गये हैं ऐसे वासगृह (शयनगृह) में आया ॥६८४-६६४॥ वह वासगह देवांगना के रूप के समान खिले हुए मुखकमल वाली सपरिवार वधू से सेवित देवविमान के समान था। निपुण हंसी और खेलों से हर्षित हो कुछ समय बिताकर बिना विदा किये ही उसकी सखियां निकल गयीं। स्नेह Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०० [समराइच्चकहा अन्नोन्नमंगमंगेण पेल्लि नेहपरिणइवसेण । सुत्तं वरवहुमिहुणं जहासुहं निहुयनीसासं ॥६६७॥ ताव य कुपुरिसरिद्धि न झिज्जिउ तुरियमेव आढता। रयणो सरिसित्थीण वि अणवेक्खियपिययमविओयं ॥६६॥ पच्चसमारुएण व नीओ नहकोट्टिमाउ अवरतं । तारानिवहो सुपओसरदयसियकुसुमपयरो व्व ॥६६६॥ दियहपियविरहकायररामायणजणियहिययनिव्वेयं । भुवणम्मि मुहलकुक्कुडबंदिणसद्दो पवित्थरिओ ॥७००॥ होतनिसावदसहविओचिताउलो व्व निसिणाहो। जाओ भुवणुज्जोयणनियकज्जनियत्तवावारो॥७०१॥ चालियलवंगचंदणनमेरुसुरदारुगंधसंवलिओ। अवहियसुरयायासं विलयाण वियंभिओ पवणो ॥७०२॥ अन्योन्यमङ्गमङ्गेन पीडयित्वा स्नेहपरिणतिवशेन । सुप्तं वरवधूमिथुनं यथासुखं निभृतनिःश्वासम् ।६६७॥ तावत्कुपुरुषऋद्धिरिव क्षेतुं त्वरितमेवारब्धा। रजनी सदृशस्त्रीणामप्यनपेक्षितप्रियतमवियोगम् ॥६६८॥ प्रत्यूषमारुतेनेव नीतो नभःकुट्टिमादपरान्तम् । तारानिवहः सुप्रदोषरचितसितकुसुमप्रकर इव ।।६६६।। दिवसप्रियविरहकातररामाजनजनितहृदयनिर्वेदम् । भुवने मुखरकुर्कुटबन्दिशब्दः प्रविस्तृतः ॥७००। भविष्यन्निशावधूदुःसह वियोगचिन्ताकुल इव निशानाथः । जातो भवनोद्योतननिजकार्यनिवृत्तव्यापारः ।।७०१॥ चालितलवङ्ग वन्दननमेरुसुरदारुगन्धसंवलितः । अपहृतसुरतायासं वनितानां विजृम्भितः पवनः ।।७०२।। की परिणतिवश एक-दूसरे के अंग को अंग से दबाकर वर-वधू का जोड़ा सुखपूर्वक निःश्वासों से भरा हुआ सो गया। कुपुरुष की ऋद्धि नष्ट करने के लिए ही मानो समान स्त्रियों के प्रियतमों के वियोग की अपेक्षा न करती हुई रात्रि शीघ्र ही आरम्भ हुई। सुप्रभात में रचित श्वेतपुष्पों के समूह के समान तारागण मानो प्रातःकाल की वायु से ही आकाश रूपी फर्श के छोर तक ले जाये गये । दिन में प्रिय विरह से दुःखी स्त्रियों के हृदय में विरक्ति उत्पन्न करनेवाली आवाज कर रहे मुर्गे रूपी बन्दियों का शब्द लोक में फैल गया। रात्रिरूपी वधू के कठिनाई से सहे जानेवाले भावी वियोग की चिन्ता से आकुल के समान चन्द्रमा मानो संसार को प्रकाशित करने के अपने कार्य से निवृत्त व्यापारवाला हो गया। लौंग, चन्दन, नमेरु और देवदारु की गन्ध से युक्त पवन स्त्रियों के सुरतकालीन Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो भवो ] खेड्डम हिसारियाओ वियड्ढपिययमकथं भरतीओ । नियगेहाइ सहरिसं गयाउ रोमंचियंगोओ ॥७०३ ॥ उभयताराहरणा पुव्वदिसा मच्छरेण वायंबा । जाया अवरदिसामुहलग्गं दट्ठूण व मियंकं ॥७०४॥ उययधराहर सिहरं सूरो अह वियडतुंगमारूढो । आरत्तमंडलो तिमिरनिवहसंजायरोसो व्व ॥ ७०५॥ घडियाइ विसमविहडिय विओयदुक्खाई चक्कवायाइं । दुहिम के व न कुणइ उयओ सुहियं सुमित्तस्स ॥७०६ ॥ पवियसियकमलनयणा महुयरगुंजंतबद्धसंगीया । पण पत्तहत्था जाया सुहृदंसणा नलिणी ॥७०७ ॥ कुमारगुणचंदो वि य उचिए रयणिविरामसमए गोधमंगलुम्मीसेण पहाउयतूरसद्देण विबोहिओ समाणो काऊण तक्खणोचियमावस्सयं उचियवेलाए चैव निग्गओ उज्जाणदंसणवडियाए । ठिओ क्रीडामभिसारिका विदग्धप्रियतमकृतां स्मरन्त्यः । निजगेहानि सहर्षं गता रोमाञ्चिताङ्गयः ।। ७०३॥ उज्झतताराभरणा पूर्वदिग् मत्सरेणवाताम्रा । जाताऽपरदिग्मुखलग्नं दृष्टेव मृगाङ्कम् ।।७०४।। उदयधराधरशिखरं सूरोऽथ विकटतुङ्गमारूढः । आरक्त मण्डलस्तिमिरनिवहसञ्जातरोष इव ॥७०५ | घटिता विषमविघटितवियोगदुःखाः चक्रवाकाः । दुःखितमथ कमिव न करोति उदयः सुखितं सुमित्रस्य ||७०६ || प्रविकसितकमलनयना मधुकर गुञ्जद्बद्धसङ्गीता । पवनधूतपत्रहस्ता जाता शुभदर्शना नलिनी ॥७०७ ॥ ७०१ कुमारगुणचन्द्रोऽपि च उचिते रजनीविरामसमये गीतमङ्गलोन्मिश्रेण प्राभातिकतूर्य शब्देन विबोधितः सन् कृत्वा तत्क्षणोचितमावश्यकमुचितवेलायामेव निर्गत उद्यानदर्शनोद्देशेन । स्थितस्तत्र श्रम को दूर करता हुआ बहने लगा । रोमांचित अंगोंवाली अभिसारिकाएँ विदग्ध प्रियतमों के द्वारा की हुई क्रीड़ा का स्मरण करती हुई हर्षपूर्वक अपने घरों को चली गयीं । पश्चिम दिङ, मुख में लगे हुए चन्द्रमा को देखकर ही मानो द्वेषवश कुछ-कुछ ताम्रवर्ण वाली पूर्वदिशा तारारूप आभूषणों को छोड़ने लगी । अन्धकार समूह के प्रति रोष उत्पन्न हुए के समान कुछ-कुछ लालवर्ण वाले मण्डल से युक्त सूर्य उदयाचल के अत्यन्त ऊँचे शिखर पर आरूढ़ हो गया । विषम वियोग से दुःखी चकवे मिल गये । सुमित्र (सूर्य) का उदय किस दुःखित (प्राणी) को सुखी नहीं करता ? विकसित कमलरूप नेत्रोंवाली, गुंजार करते हुए भौरों से संगीत को बद्ध करनेवाली और वायु के द्वारा हिलाये गये पत्तेरूपी हाथोंवाली कमलिनी शुभदर्शन वाली हो गयी ।।६६५-७०७ ।। कुमार गुणचन्द्र भी रात्रि के विराम का समय होने पर मंगल गीतों से मिले हुए प्रातःकालीन वाद्यों के शब्द से जागकर; उस समय करने योग्य सभी आवश्यक क्रियाओं को करके उद्यान को देखने के उद्देश्य से निकले । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चकहा तत्थ मणोहारिणा विणोएण कंचि कालं । तओ पविट्ठो नयर । कयं उचियकर णिज्जं । एवं च पइदिणं रणवईए सह पवड्ढमाणाणुरायं सोक्खमणहवंतस्स अइक्कंतो कोइ कालो । अन्ना राइणो मेत्तीबलस्स विथक्को पच्चंतवासी विग्गहो नाम राया। पेसिओ गेण तस्सुवर farai | दप्पुद्धरत्तणेण अकयथाणयपथाणाइनीइमग्गो सम्ममवगच्छिऊण अवसरविण्णविग्गण पराइओ विग्गणं । जाणावियमिणं राइणो मेत्तीबलस्स । कुविओ राया, सयमेव पयट्टो अमरिसेणं । विन्नत्तो कुमारेण । ताय, न खलु केसरी सियाले कर्म बिहेइ । सियालप्पाओ विग्गहो । ता अलं तम्मि संरंभेण । आणवेज मं ताओ, जंण पावेइ सो तायकोवाणलपयंगत्तणं ति । राइणा भणियं - जइ एवं ता गेव्हिऊण मग्गासन्नसंठिए नरवई लहुं गच्छसु । कुमारेण भणियं - महापसाओ । अलं च तन्निमित्तं खेइएहि सेसनरवईहिं । खुद्दो खु सो तवस्सी । ता अलं तम्मि संकाए ति । भणिऊण अहासन्निहियसेन्नसंगओ 'अलं तायपरिहव लेससवणे अणवणीए एयम्मि बिसयसेवणाए वि' मोत्तूण रणवई गओ विग्गहोवरं विग्गहेण कुमारो । पत्तो य मासमेत्तेण कालेन तस्स विसयं । विग्गहो ७०२ मनोहारिणा विनोदेन कञ्चित्कालम् । ततः प्रविष्टो नगरीम् । कृतमुचितकरणीयम् । एवं च प्रतिदिनं रत्नवत्या सह प्रवर्धमानानुरागं सौख्यमनुभवतोऽतिक्रान्तः कोऽपि कालः । अन्यदा राज्ञो मैत्रीबलस्य विरुद्धः प्रत्यन्तवासी विग्रहो नाम राजा, प्रेषितस्तेन तस्योपरि विक्षेपः, दर्पोद्धुरत्वेन अकृतस्थानप्रयाणादिनीतिमार्गः सम्यगवगत्यावसरवितीर्तविग्रहेण पराजितो विग्रहेण । ज्ञापितमिदं राज्ञो मैत्रीबलस्य । कुपितो राजा, स्वयमेव प्रवृत्तोऽमर्षेण । विज्ञप्तः कुमारेण - तात ! न खलु केसरी शृगाले क्रमं विदधाति । शृगालप्रायो विग्रहः । ततोऽलं तस्मिन् संरम्भेण । आज्ञापयतु मां तातः, येन प्राप्नोति स तातकोपानलपतङ्गत्वमिति । राज्ञा भणितम् - यद्येवं ततो गृहीत्वा मार्गासन्नसंस्थितान् नरपतीन् लघु गच्छ । कुमारेण भणितम् -- महाप्रसादः । अलं च तन्निमित्तं खेदितैः शेषनरपतिभिः । क्षुद्रः खलु स तपस्वी । ततोऽलं तस्मिन् शङ्कयेति । भणित्वा यथासन्निहित सैन्यसङ्गतः 'अलं तात परिभवलेशश्रवणेऽनपनीते एतस्मिन् विषयसेवनयाऽपि' इति मुक्त्वा रत्नवतीं गतो विग्रहोपरि विग्रहेण कुमारः । प्राप्तश्च मासमात्रेण कालेन तस्य विषयम् । विग्रहोऽपि मनोहर विनोदों के साथ वहाँ कुछ समय तक ठहरे। अनन्तर नगर में प्रविष्ट हुए । योग्य कार्यों को किया । इस प्रकार रत्नवती के साथ प्रतिदिन बढ़ते हुए अनुरागवाले सुख का अनुभव करते हुए (कुमार का ) कुछ समय बीत गया । एक बार सीमा पर रहनेवाला 'विग्रह' नामक राजा मैत्रीबल के विरुद्ध हो गया । उसने उसके ऊपर मेना भेज दी । घमण्ड से भरे हुए होने के कारण स्थानगमन आदि नीतिमार्ग का आचरण किये बिना ही अवसर जानकर सेना भेजकर, विग्रह ने पराजित कर दिया। राजा मैत्रीबल को इसकी सूचना दी गयी। राजा कुपित हुआ । क्रोधवश (वह) स्वयं ही चल पड़ने को तैयार हुआ । कुमार ने कहा - 'पिताजी! सिंह सियार के प्रति गमन नहीं करता । राजा विग्रह सियार के समान है । अतः उससे युद्ध करना व्यर्थ है । पिताजी, आप मुझे आज्ञा दीजिए, जिससे वह पिताजी की क्रोधाग्नि में पतंगेपन को प्राप्त हो ।' राजा ने कहा- 'यदि ऐसा है तो समीपवर्ती मार्ग में स्थित राजाओं को साथ लेकर शीघ्र जाओ।' कुमार ने कहा- 'बड़ी कृपा । उसके लिए शेष राजाओं को कष्ट देना व्यर्थ है । वह बेचारा क्षुद्र है, अत: उसके विषय में शंका न करें-- ऐसा कहकर ठहरायी अपमान रूपी क्लेश को दूर किये बिना यह विषय सेवन व्यर्थ है, ऐसा सोचकर, रत्नवती को छोड़कर कुमार हुई सेना के साथ 'पिताजी के Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो भवो ] विय 'कुमारो सत्रमागओ' त्ति विवाणिऊण समस्सिओ दुग्गं । ठिओ रोहगसंजत्तीए । रोहिओ कुमारेण । बिइयदि य उक्कडयाए अमरिसस्त अणन्भत्थयाए नीईगं भिच्चयाए विग्गहस्स सन्निहियाए सामिणो अल्लियणियाववएसेण असाहिऊण कुमारस्स समारद्धो समंतहरो ( समरो) । पट्टमाओहणं । विसमयाए दुग्गस्स पीडिज्जमानं पि कुमारसेन्नं अभग्गमाणपसरं ति अहिययरमाढतं जुज्झि । जाओ महासंगामो । विपाणिओ कुमारेण । निसामिओ नेणं । निर्यात्तियं कहकवि सेन्नं । भणिया य रायउत्ता - अजुत्तमिमं अयत्तसज्झे पओयण अत्ताणमायासिउं । समस्सिओ ताव एसो दुग्गं । रोहियं चिमं अम्हेहिं । न एत्थ अवसरो पलाइयव्वस्स । इट्ठा य मे कुलउत्तया, न बहुमओ तेसिनासो । सामो य पढमो नोईणं । अप्पो य एसों विग्गहो भुत्तो य ताएणं ठिओ संबंधिपक्खे | ता न जुत्तमेयमि एगपए पोरुसं दंसेउ । आढतोय अविणयनासणोवाओ। अओ मम सरीरदोहयाए साविया तुभे, जहा पुणो वि एरिसं न कायव्वं ति । तेहि भणियं - जं देवो आणवेइ । विसालबुद्धिणा उवलो विसओ । विद्दण्णाई गामागरमडंबाई रायपुत्ताणं । निरुद्धाई गाढगुम्मयाई, च 'कुमारः स्वयमागतः' इति विज्ञाय समाश्रितो दुर्गम् । स्थितो रोधकसंयात्रया । रुद्धः कुमारेण । द्वितीय दिवसे च उत्कटतयाऽमर्षस्य, अनभ्यस्ततया नीतीनां भृत्यतया विग्रहस्य, सन्निहिततया स्वामिनो अर्पितनिजव्यपदेशेन अकथयित्वा कुमारं समारब्धः समरः । प्रवृत्तमायोधनम् । विषमतया दर्गस्य पीड्यमानमपि कुमारसैन्यमभग्नमानप्रसरमित्यधिकतरमारब्धं योद्धम् । जातो महासंग्रामः । विज्ञातः कुमारेण । निशा मितस्तेन । निवर्तितं कथं कथमपि सैन्यम् । भणिताश्च राजपुत्राः । अयुक्तमिदमयत्नसाध्ये प्रयोजने आत्मानमायासयितुम् । समाश्रितस्तावदेष दुर्गम् । रुद्धं चेदमस्माभिः । नात्रावसरः पलायितव्यस्य । इष्टाश्च मे कुलपुत्रकाः, न बहुमतस्तेषां नाशः । साम च प्रथमं नीतीनाम्, अल्पश्च विग्रहो भुक्तश्च तातेन स्थितः सम्बन्धिपक्षे । ततो न युक्तमेतस्मिन्नेकपदे पोरुषं दर्शयितुम् । आरब्धश्च अविनयनाशनोपायः । अतो मम शरीरद्रोहतया शापिता यूयम्, यथा पुनरपीदृशं न कर्तव्यमिति । तैर्भणतम् - यद् देव आज्ञापयति । विशालबुद्धिनोपलब्धो विषयः । वितीर्णानि ग्रामाकरमडम्बानि राजपुत्राणाम् । निरुद्धानि गाढगुल्मकानि निरुद्धश्च पर्यवहारः । ७०३ राजा विग्रह के ऊपर गया। एक माह में उसके देश में पहुँच गया । विग्रह ने भी ' कुमार स्वयं आये हुए हैंऐसा जानकर दुर्ग का आश्रय ले लिया । तैयारी करता हुआ ठहरा रहा । कुमार ने रोका। दूसरे दिन क्रोध की उत्कटता, नीतियों की अनभ्यस्तता, विग्रह का सेवकपना, स्वामी की समीपता और अपना व्यवहार अर्पित करने से कुमार से बिना कहे ही युद्ध आरम्भ हो गया । योद्धा प्रवृत्त हो गये । दुर्ग की विषमता से पीड़ित होने पर भी कुमार की सेना विस्तार न तोड़ते हुए अधिक तेज युद्ध करने लगी। भीषण संग्राम हुआ । कुमार ने जाना । उसने रोका। जिस किसी प्रकार सेना को रोका। राजपुत्रों से कहा- 'बिना प्रयत्न के साध्य इस प्रयोजन में अपने को कष्ट देना ठीक नहीं है । इसने दुर्ग का आश्रय कर लिया और इसे हमने रोक लिया है। अब भागने का यहाँ मौका नहीं है । मुझे कुलपुत्र इष्ट हैं, उनका नाश ठीक नहीं है । नीतियों में पहली नीति सामनीति है । यह राजा विग्रह छोटा है। पिता जी द्वारा खिलाया जाकर सम्बन्धी पक्ष में स्थित है। अतः एक बार पौरुष दिखाएँ तो भी ठीक नहीं है । अविनय के नाश का उपाय आरम्भ हुआ है अतः मेरे शरीर के द्रोह की आप लोगों को शपथ, आप लोग पुनः ऐसा न करें।' उन्होंने कहा - महाराज जैसी आज्ञा दें । विशालबुद्धि ने देश पा लिया। राजपुत्रों को Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०४ [ समराइच्चकहा निरुद्धो य पज्जोहारो। अइक्कंता कइवि दियहा। एत्थंतरम्मि कहंचि परिभमंतो समागओ तमुद्देसं वाणमंतरो। विट्ठो य ण वाहयालीगओ कुमारो । गहिओ कसाएहि । चितियं च णेण - एसो सो दुरायारो। अहो से धोरगरुयया, न तीरए एस अम्हारिसेहि वावाइउं । आढत्तं च णेण इमं दुग्गं। ता एयसामिणो सहायत्तणेण अवगरेमि एयस्स ति। चितिऊण दिट्ठो य णेण पासायतलसंठिओ विग्गहो। बहुमन्निओ विग्गहेणं। भणियं चणेण-किमत्थं पुण भवं इहागओ ति। वाणमंतरेण भणियं-तुह सहानिमित्तं । वेरिओ वि य मे एस दुरायारगुणचंदो, न सक्कुणोमि एयस्स उययं पेच्छिउं। अद्धवावाइओ य छुटटो महं एस अओज्झाए सनिओगवावडत्तणेण । न दिट्टो अंतराले, दिट्ठो य संपयं मलयपत्थिएण। ता अलं ताव मम मलयगमणेणं । समाणेमि अंतरे भवओ विग्गहं ति। विगहेण भणियं-जइ एवं, ता थेवमियं कारणं । किं बहुणा जंपिएणं । नेहि मं अज्ज रयणीए गुणचंदसमीवं, जेण अज्जेव समामि विग्गहं ति। वाणमंतरेण भणियं-सायत्तमेयं, तओ पयंगवित्तिकालो चेव एसो ति। संपहारिऊण सह पहाणपरियणेणं ठिओ गमणसज्जो विग्गहो। अइक्कतो वासरो, समागया मज्झरयणो। भणियं अतिक्रान्ताः कत्यपि दिवसाः। ___अत्रान्तरे कथंचित् परिभ्रमन् समागतस्तमुद्देशं वानमन्तरः । दृष्टश्च तेन वाह्यालीगतः कुमारः । गृहीतः कषायैः । चिन्तितं च तेन–एष स दुराचारः, अहो तस्य धीरगुरुकता, न शक्यते एषोऽस्मादृशापादयितुम् । आरब्धं चानेनेदं दुर्गम् (ग्रहीतुम्) । तत एतत्स्वामिनः सहायरवेनापकरोम्येतमिति । चिन्तयित्वा दृष्टश्च तेन प्रासादतलसंस्थितो विग्रहः । बहुमतो विग्रहेण । भणितं च तेन-किमर्थं पुनर्भवान् इहागत इति । वानमन्तरेण भणितम्-तव सहायनिमित्तम् । वैरिकोऽपि च मे एष दुराचारगुणचन्द्रः, न शक्नोम्येतस्योदयं प्रेक्षितुम् । अर्धव्यापादितश्च छुटितो मम॑षोऽयोध्यायां स्वनियोगव्यापृतत्वेन । न दृष्ट ऽन्तराले, दृष्टश्च साम्प्रतं मलयप्रस्थितेन । ततोऽलं तावन्मम मलयगमनेन । समाप्नोम्यन्तरे भवतो विग्रहविति । विग्रहेण भणितम्- यद्यवं ततः स्तोकमिदं कारणम् । किं बहुना जल्पितेन । नय मामद्य रजन्यां गुणचन्द्रसमीपम्, येनाद्यैव समाप्नोमि विग्रहमिति । वानमन्तरेण भणितम् – स्वायत्तमेतत् । ततः पतङ्गवृत्तिकाल एव एष इति सम्प्रधार्य सह प्रधानपरिजनेन स्थितो गमनसज्जो विग्रहः । अतिक्रान्तो वासरः, समागता मध्यरजनी । भणितं ग्राम, आकर और मडम्बों में फैला दिया । सघन झाड़ियों में छिप गये। रसद रोक दी । कुछ दिन बीत गये। इसी बीच किसी प्रकार घूमते हुए उस स्थान पर वानमन्तर आया। उसने अश्वक्रोडनक भूमि में कुमार को देखा । कषायों ने उसे जकड़ लिया और उसने सोचा-यह वही दुराचारी है। ओह ! इसकी धीरता और महानता, यह हम जैसों के द्वारा नहीं मारा जा सकता। इसने इस दुर्ग को लेना आरम्भ किया है । अतः इस दुर्ग के स्वामी की सहायता कर इसका अपकार करता हूँ-ऐसा सोचकर उसने महल के तल पर स्थित विग्रह के दर्शन किये। विग्रह ने उसका सत्कार किया और उससे कहा-'आप यहाँ किसलिए आये हैं ?' वानमन्तर ने कहा....'तुम्हारी सहायता के लिए । यह दुराचारी गुणचन्द्र मेरा वैरी है, इसका उदय नहीं देख सकता हूँ। अपने कार्य में लगे होने के कारण अयोध्या में इसे मैंने अधमरा ही छोड़ दिया था। बीच में नहीं दिखाई दिया, इस समय मलय को जाते हुए दिखाई दिया । अतः मेरा मलय को जाना व्यर्थ है । इस बीच आपके युद्ध को समाप्त करता हूँ।' विग्रह ने कहा- 'यदि ऐसा है तो यह कारण थोड़ा है। अधिक कहने से क्या, आज रात्रि में मुझे गुणचन्द्र के पास ले चलो, जिससे आज ही युद्ध समाप्त कर दें।' वानमन्तर ने कहा-'यह तो अपने अधीन बात है।' अनन्तर यह विग्रह पतंग के आचरण के समय ही प्रधान परिजनों के साथ निश्चयकर जाने के लिए तैयार Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो भवो] ७०५ वाणमंतरेणं - 'एस देसयालो' ति । अप्पपंचमो उच्चलिओ विगहो । विज्जापहावेण नीओ वाणमंतरेण पवेसिओ गणचंदवासभवणे। दिट्टो य ण पसुत्तो कुमारो। भणिओ य धीरगरुयं-भो भो गुणचंद, मए सह विग्गहं काऊण वीसत्थो सुवसि । ता उठेहि संपयं, करेहि हत्थियारं ति । 'साहु साहु, भो विग्गह, साहु, सोहणो ते ववसाओ' ति भणमाणो उढिओ कुमारो। गहियमणेण खगं। एत्थंतरम्मि इमं वइयरमायण्णिऊण धाविया अंगरक्खा, निवारिया कुमारेण। भणिया य णभो भो साविया मम सरीरदोहयाए; न एत्थ अन्नेण पहरियध्वं । किं न आवज्जिया तुब्भे इमस्स इमिणा ववसाएण। ता तुम्भे चेव एत्थ विग्गहसहासया, विग्गही उण ममं सह इमेण । एत्थंतरम्मि वाणमंतरेण 'अरे खुद्दपुरिस, कोइसो तह इमिणा विग्गहो' त्ति भणमाणेण समाहओ खग्गलट्ठीए कुमारो। 'हण हण' ति भणमाणो य सपरियणो उवढिओ विग्गहो। छूढाइं ओहरणाई । सिक्काइसएण पायं वंचियाइं कुमारेण । जाओ य से भासरभावो। तओ उक्कडयाए पुण्णस्स पगिट्टयाए वोरियपरिणईए दुप्पधरिसयाए सामिभावस्स होणयाए विग्गहादीणं केसरिकिसोरएण विय भिदिऊण गयपीढं विक्खिविय विग्गहपुरिसे 'उवयारि' त्ति अदाऊण खग्गप्पहारं केसायड्ढणेण पाडिओ वानमन्तरेण - एष देशकाल इति । आत्-पञ्चम उच्चलितो विग्रहः । विद्याप्रभावेण नातो वानमन्तरेण प्रवेशितो गुणचन्द्र वासभवने । दृष्टश्च तेन प्रसुप्तः कमारः । भणितश्च धीरगुरुकम् । भो भो गुणचन्द्र! मया सह विग्रहं कृत्वा विश्वस्त: स्व पषि । तत उत्तिष्ठ साम्प्रतम, कुरु युद्धम् । 'साधु साधु भो विग्रह ! साधु, शोभनस्ते व्यवसायः' इति भणन्नुत्थितः कुमार: । गृहीतमनेन खड्गम् । अत्रान्तरे इम व्यतिकरमाकर्ण्य धाविता अङ्गरक्षकाः, निवारिताः कुमारेण । भणिताश्च तेन- भो भोः शापिता मम शरोरद्रोहतया, नावान्येन प्रहर्तव्यम् । किं नावजिता यूयमस्य नेन व्यवसायेन ? ततो यूयमेवात्र विग्रहसभासदः, विग्रहः पुनर्मम सहानेन । अत्रान्तरे वानमन्तरेण 'अरे क्षुद्रपुरुष! कीदशस्तवानेन विग्रहः' इति भणता समाहतः खड्गयष्टया कुमारः । 'जहि जहि' इति भणश्च सपरिजन उपस्थितो विग्रहः । क्षिप्तानि प्रहरण नि, शिक्षाति शयेन प्रायो वञ्चितानि कुमारण, जातश्च तस्य भासुरभावः । तत उत्कटतया पुण्यस्य प्रकृष्टतया व र्यपरिणत्या दप्प्रधर्षतया स्वामिभावस्य हीनतया विग्रहार्द नां के परिकिशोरकेणेव भिवा गजपठं विक्षि य (दुरीकृत्य) विग्रहपुरुष न् 'उपकारी इत्यदत्त्वा खड्ग हो गया। दिन बीत गया। मध्यरात्रि आयी। वानमन्तर ने कहा -- 'यह देश और काल है।' चार अन्य लोगों के थ विग्रह चल पडा। विद्या के प्रभाव से वानमन्तर ले गया और गणचन्द्र के वासभवन में प्रवेश करा दिया। उसने कुमार को सोते हुए देखा । धीरता और भारीपन से उसने कहा- 'रे रे गुणचन्द्र ! मेरे साथ विग्रह कर विश्वस्त होकर सो रहे हो ? अतः अब उठो, युद्ध करो।' 'हे विग्रह ! ठीक है, तुम्हारा निश्चय ठीक है'-- ऐसा कहकर कूमार उठा। उसने तलवार ली। तभी इस घटना को सुनकर अंगरक्षक दौड़े आये। कुमार ने (उन्हें) रोका और उनसे कहा-'हे हे ! तुम्हें मेरे शरीर के द्रोह की शपथ है, यहाँ अन्य कोई प्रहार न करे । क्या आप लोग इसके इस निश्चय से मना नहीं कर दिये गये हो ? अत: आप लोग ही अब लड़ाई के समासद हो । लड़ाई इसके साथ मेरी है।' इसी बीच वानमन्तर ने-'अरे क्षुद्रपुरुष ! तुम्हारी इसके साथ लड़ाई कैसी ?' ऐसा कहते हुए तलवार से कुमार पर प्रहार किया। ‘मारो-मारो', ऐसा परिजनों द्वारा कहते हुए विग्रह उपस्थित हुआ। शस्त्र फैके। शिक्षा के अतिशय से कुमार ने बचाव कर लिया और उसका तेज उत्पन्न हुआ । अनन्तर पुण्य की उत्कटता, शक्ति-परिणति की प्रकृष्टता, स्वामीपने की दुष्पवर्षता तथा विग्रहादि की हीनता के कारण सिंह के बच्चे द्वारा हाथी की पीठ का भेदन करने के समान, विषह के पुरुषों को दूर कर 'लपकारी है अतः Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०६ [समराइच्चकहा विग्गहो। कओ से उवरि पाओ। एत्यंतरम्मि कुमारपरियणेण पाडिया विग्गहपुरिसा; 'जयइ कुमारो' त्ति समुद्धाइओ कलयलो। पणटो वाणमंतरो। चितियं च ण-अहो से पावकम्मस्स अणाउलत्तणं, अहो माहप्पपगरिसो, अहो 'कयन्नुया, अहो एगसारत्तणं; अहो मे अहन्नया, जमेवमवि एसो न वावाइओ त्ति । ता इमं एत्थ ताव पत्तयालं, जमओज्झाउरि गंतूण निवेएमि एयस्स विणिवायं, जणेमि एपपरियणस्स सोयं । एवमवि कए समाणे अवगयं चेव एयस्स त्ति। चितिऊण पयट्टो अओज्झामंतरेण । इओ य 'उठेहि भो महापुरिस उठेहि, कुणसु हत्थियार' ति भणिऊण मुक्को कुमारेण विग्गहो । न उत्थिओ एसो। भणियं च णेण - देव, कोइस देवेण सह हत्थियारकरणं । अजुत्तमेयं पुटिव पि, विसेसओ संपयं । विणिज्जिओ अहं देवेण। पत्ते वि वावायणे 'न वावाइओ' त्ति । अहिययरं वावाइयो त्ति । ता कि इमिणा असिलिट्टचेट्टिएणं । कुमारेण भणियं-उचियमेयं तुह महाणुभावयाए। अहवा किमेत्थ अच्छरोयं, ईइसा चेव महावीरा हवंति । विग्गहेण भणियं-देव, कोइसा मम महाणु प्रहारं केशाकर्षणेन पातितो विग्रहः । कृतस्तस्योपरि पादः । अत्रान्तरे कुमारपरिजनेन पातिता विग्रहपुरुषाः । 'जयति कमारः' इति समृद्धावित: कलकलः । प्रनष्टो वानमन्तरः । चिन्तितं च तेन --अहो तस्य पापकर्मणोऽनाकुलत्वम्, अहो माहात्म्यप्रकर्षः, अहो कृतज्ञता, अहो एकसा रत्वम्, अहो मेऽधन्यता, यदेवमप्येष न व्यापादित इति। तत इदमत्र प्राप्तकालम, यदयोध्यापुरी गत्वा निवेदयाम्येतस्य विनिपातम्, जनयाम्येतत्परिजनस्य शोकम् । एवमपि कृते सति अपकृतमेवैतस्येति चिन्तयित्वा प्रवृत्तोऽयोध्यामन्तरेण । इतश्च ‘उत्तिष्ठ भो महापुरुष ! उत्तिष्ठ, कुरु युद्धम्' इति भणित्वा मुक्तः कुमारेण विग्रहः । नोत्थित एषः । भणितं च तेन-देव ! कीदृशं देवेन सह युद्धकरणम् । अयुक्तमेतत्पूर्वमपि, विशेषतः साम्प्रतम् । वि िजतोऽहं देवेन । प्राप्तेऽपि व्यापादने 'न व्यापादितः' इति अधिकतरं व्यापादित इति । ततः किमनेनाश्लिष्टचेष्टितेन । कमारेण भणितम् -- उचितमेतत् तव महानुभावतायाः । अथवा किमत्राश्चर्यम् । ईदृशा एव महावीरा भवन्ति । विग्रहेण भणितम्-देव ! कीदृशा मम महानुभावता तलवार का प्रहार न कर, बाल खींचकर विग्रह को गिरा दिया। उस पर पैर रखा। इसी बीच कुमार के परिजनों ने विग्रह के पुरुषों को गिरा दिया। 'कुमार की जय हो' ऐसा कोलाहल उठा। वानमन्तर अन्तर्धान हो गया और उसने सोचा - ओह उस पापी की अनाकलता, ओह माहात्म्य की चरमसीमा. : अद्वितीय शक्ति, मैं अधन्य हैं जो कि इस प्रकार भी यह नहीं मारा गया। तो अब समय आ गया है कि अयोध्यापुरी जाकर इसके मरण का निवेदन करता हूँ और इसके परिजनों को शोक उत्पन्न करता हूँ- ऐसा करने पर इसका अपकार ही है-यह सोचकर अयोध्या के समीप आया। इधर 'हे महापुरुष ! उठो, युद्ध करो'- ऐसा कहकर कुमार ने विग्रह को छोड़ दिया। यह नहीं उठा। उसने (विग्रह ने) कहा --- 'महाराज ! महाराज के साथ कैसा युद्ध ! यह पहले भी अयुक्त था, विशेष रूप से इस समय । मुझं महाराज ने जीत लिया। मार पाने पर भी मारा नहीं-अतः अत्यधिक मार दिया। फिर इस घनिष्ठ सम्बन्ध की चेष्टा से क्या लाभ !' कुमार ने कहा-'यह तुम्हारी महानुभावता के अनुरूप है । अथवा इसमें क्या आश्चर्य, महावीर ऐसे ही होते हैं।' विग्रह ने कहा-'महाराज ! मेरी महानुभावता और महावीरता १. कम्मपन्नया-डे. ज्ञा.। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०७ अट्ठमो भवो] भावया महावीरया य; किं वा इयाणि बहुणा जंपिएणं । विन्नवेमि देवं । देउ देवो समात्ति नियनरिंदाणं, वावाएंतु मं एए, पेक्खउ य देवो ममावि कावुरिसचेट्ठियं ति । कुमारेण भणियं- सोहणो कावुरिसो, जो एवमझवसइ पसुतं च सत्तुं विणा पहारेण बोहेइ। ता कि एइणा असंबद्धपलावेणं । दिन्ना तए मम पसुत्तावावायण पाणा, मए वि भवओ एस विसओ ति । गच्छउ भवं । विग्गहेण भणियं-जइ एवं, ता अन्नं पि देवं जाएमि । कुमारेण भणियं-साहीणं भवओ; जं मए आयत्तं ति । विग्गहेण भणियं-करेउ देवो पसायं मम ओलग्गाए । कुमारेण भणियं--'मा एवं भण; तायभिच्चो तुमं मम जेटभाउगो। ता जइ भवओ वि बहुमयं, ता तायसयासं चेव गच्छसु ति । पडिवन्नं विगहेण । कारावियं च ण वद्धावणयं ति । तद्दियहमेव उक्कोट्टियं दुग्गं । पयट्टो सह विग्गहेण. मओज्जाउरि कुमारो। एत्थंतरम्मि समागओ तत्थ भयवं समतणमणिमुत्तलेठ्ठकंचणो दयाल सव्वजोवेसु अणुवगियपरहियरओ विसुद्धेहिं चहिं नाणेहि 'पडिवोहसमओ गुणचंदस्स' ति वियाणिऊण समन्निओ महावीरता च, किंवेदानीं बहुना जल्पितेन, विज्ञपयामि देवम् । ददातु देवः समाज्ञप्ति निजनरेन्द्राणाम्, व्यापादयन्तु मामेते, प्रेक्षतां च देवो ममापि कापुरुषचेष्टितमिति । कुमारेण भणितमशोभनः कापुरुषः, य एवमध्यवस्यति, प्रसुप्तं च शत्रं विना प्रहारेण बोधयति । ततः किमेतेनासंबद्धप्रलापेन । दतास्त्वया मम प्रसुप्ताव्यापादनेन प्राणाः, मयाऽपि भवत एष विषय इति । गच्छत भवान । विग्रहेण भणितम्-यद्येवं ततोऽन्यदपि देव याचे। कुमारेण भणितम् -- स्वाधीनं भवतः, यन्मयाऽऽयत्तमिति। विग्रहेण भणितम्-करोतु देवः प्रसादं मम 'सेवायाः। कमारेण भणितम- मेवं भण, तातभत्यस्त्वं मम ज्येष्ठभ्रातृकः । ततो यदि भवतोऽपि बहुमतं ततः तातसकाशमेव गच्छेति । प्रतिपन्नं विग्रहेण। कारितं च तेन वर्धापनकमिति । तद्दिवसे एव उद्वेष्टितं दुर्गम् । प्रवृत्तः सह विग्रहेणायोध्यापुरी कुमारः। अत्रान्तरे समागतस्तत्र भगवान् समतृणमणिमुक्तालेष्ठुकाञ्चनो दयालुः सर्वजीवेषु अनुपकृतपरहितरतो विशद्धश्चतुभिर्ज्ञानः 'प्रतिबोधसमयो गुणचन्द्रस्य' इति विज्ञाय समन्वितो लब्धि कैसी ? अथवा इस समय अधिक कहने से क्या, महाराज से निवेदन करता हूँ । महाराज अपने राजाओं को आज्ञा दें कि ये मुझे मार डालें, महाराज ! मुझ कायर पुरुष की चेष्टा भी देखिए !' कुमार ने कहा-'अच्छा कायर पुरुष है जो यह निश्चय करता है और सोये हुए शत्रु पर प्रहार न कर, (पहले उसे) जगाता है ! अतः इस असम्बद्ध प्रलाप से क्या, सोते हुए मुझे न मारकर तुमने मेरे प्राण दे दिये, मेरा भी आपके प्रति यह विषय है । आप जाइए।' विग्रह ने कहा-'यदि ऐसा है तो महाराज दूसरी भी याचना करता हूँ।' कुमार ने कहा'आप स्वाधीन हैं, जो मेरे अधीन है (उसे अवश्य दूंगा)।' विग्रह ने कहा-'महाराज ! मेरी सेवा के लिए कृपा करें।' कुमार ने कहा-'ऐसा मत कहो, तुम पिताजी के सेवक हो, मेरे बड़े भाई । अतः यदि आपको इष्ट हो, तो पिताजी के पास चलें।' विग्रह ने स्वीकार किया। उसने उसी दिन महोत्सव कराया। उसी दिन दुर्ग खोल दिया। विग्रह के साथ कुमार अयोध्यापुरी को चल दिया।' इसी बीच भगवान् विजयधर्म नामक आचार्य आये। वे तृण, मणि, मोती, ढला और स्वर्ण में समदृष्टि रखने वाले थे, समस्त जीवों के प्रति दयालु थे, बिना उपकार किये ही दूसरों के हित में रत रहते थे, चार ज्ञानों १. मा एयं मा एय-डे. ज्ञा । २. ओलग्गा (दे.) सेवा, भक्तिः। ३. उक्कोट्टियं (दे ) उद्वेष्टितम्, रोधरहितमित्यर्थ । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०८ [ समराइच्चकहा लद्धिमंतसाहहिं पुव्वपरियायमिहिलाहिवो विजयधम्मो नामायरिओ ति। ठिओ गुणसंभवाहिहाणे उज्जाणे । दिट्ठो कुमारपरियणेणं । निवेइयं कुमारस्स। देव, महातवस्सी इओ नाइदूरे तवोवणे चिदुइ। एयं सोऊण देवो पमाणं ति । महातवस्सि त्ति हरिसिओ कुमारो। गओ तस्स वंदणनिमित्तं सह विग्गहेण पहाणपरियणेण य। दिट्ठो य ण तदिवसमेव गुणसंभवम्मि उज्जाणे । धम्मो व मुत्तिमंतो आयरिओ विजयधम्मो ति॥७०८॥ सुमणाणंदियविबुहो बहुसउणनिसेविओ अमयसारो। चत्तभवखीरसायरनिलयरई तियसविडवो व्व ॥७०६॥ मत्साधुभिः पूर्वपर्यायमिथिलाधिपो विजयधर्मो नामाचार्य इति । स्थितो गणसम्भवाभिधाने उद्याने । दृष्ट: कुमारपरिजनेन । निवेदितं कुमारस्य-देव ! महातपस्वी इतो नातिदूरे तपोवने तिष्ठति । एतच्छ त्वा देवः प्रमाणमिति । महातपस्वीति हृष्टः कुमारः । गतस्तस्य वन्दननिमित्तं सह विग्रहेण प्रधानपरिजनेन च । दृष्टस्तेन तद्दिवसे एव गुणसम्भवे उद्याने । धर्म इव मूर्तिमान् आचार्यो विजयधर्म इति ॥७०८।। सुमनसाऽऽनन्दितविबुधो बहुशकुन (सगुण) निषेवितोऽमृतसारः । त्यक्तभवक्षीरसागरनिलयरतिस्त्रिदशविटप इव ॥७०६।। [आचार्यपक्षे सुमनसा-प्रशस्तमनसा आनन्दिता विबुधाः पण्डिता येन, बहुसगुणैः-बहुभिर्गणवद्भिः पुरुनिषवितः, त्यक्ता भवक्षीरसागरस्य निलये रतियन, अमृतं मोक्षस्तदेव सारो यस्य । कल्पवृक्षपक्षे--सुमनसा पुष्पेण आनन्दिता विबुधा देवा येन बहवः शकुनाः-पक्षिणस्तैनिषेवितः, अमृतो रसस्तेन सारः, भव इव क्षीरसागरः, विस्तीर्णत्वात्' त्यक्ता भवक्षीरसागरस्य निलये रतिर्येन] से विशुद्ध थे, 'गुणचन्द्र के प्रतिबोध का समय है'-ऐसा जानकर लब्धियुक्त साधुओं के साथ पहली अवस्था के मिथिला के राजा, विजयधर्म आचार्य आये । कुमार के परिजनों ने देखा। कुमार से निवेदन किया'महाराज ! यहाँ से पास में ही तपोवन में महातपस्वी विराजमान हैं।' यह कहकर महाराज प्रमाण हैं। 'महातपस्वी'-यह सुनकर कुमार हर्षित हुआ। उनकी वन्दना के लिए वह विग्रह और प्रधान परिजनों के साथ गया । उसने उसी दिन गुणसम्भव उद्यान में शरीरधारी धर्म के समान विजयधर्म आचार्य को देखा । उन्होंने अच्छे मन से विद्वानों (देवताओं) को आनन्दित किया था, मोक्ष ही उनका सार था, बहुत गुणवान् पुरुषों से वे सेवित थे, संसाररूपी क्षीरसागर में निवास करने की असक्ति को उन्होंने त्याग दिया था। इस प्रकार वे कल्पवक्ष के समान थे, क्योंकि कल्पवृक्ष भी पुषों से युक्त होता है, उससे देवगण आनन्दित होते हैं, बहुत से पक्षिगणों से वह सेवित होता है, रस से वह साररूप रहता है, संसार के समान क्षीरसागर में निवास करने की आसक्ति को उन्होंने छोड़ दिया है । ॥७०८-७०६।। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो भवो] ७०९ उयहि व्व धोरगरुओ सूरो व्व पणासियाखिलतमोहो। चंदो व्व सोमलेसो जिणिदवयणं व अकलंको ॥७१०॥ भवठिइनिसाए जेण य वियलियतावेण भव्वकमलाणं । निण्णासिओ असेसो अउव्वसूरेण तमनिवहो ॥७११॥ दळूण य तं जाओ सुहपरिणामो दढं कुमारस्स। परिचितियं च णेणं अहो णु खलु एस कयउण्णो ॥७१२॥ जो सव्वसंगचाई जो परपीडानियत्तवावारो। जो परहियकरणरई जो संसाराउ निम्विन्नो ॥७१३॥ ता वंदामि अहमिणं भयवंतं तह य पज्जवासामि । साहूण दंसणं पि हु नियमा दुरियं पणासेइ ॥७१४॥ एवं च चितिऊणं विहिणा सह विग्गहेण तो भयवं । अहिवंदिओ य णेणं आयरिओ सपरिवारो त्ति ॥७१५॥ उदधिरिव धीरगुरुक: सूर इव प्रणाशिताखिलतम ओघः । चन्द्र इव सौम्यलेश्यो जिनेन्द्रवचनमिवाकलङ्कः ।७१०॥ भवस्थितिनिशायां येन च विगलिततापेन भव्यकमलानाम । निर्णाशितोऽशेषोऽपूर्वसूरेण तमोनिवहः ॥७११॥ दृष्ट्वा च तं जातः शुभपरिणामो दृढं कुमारस्य । परिचिन्तितं च तेन अहो नु खल्वेष कृतपुण्यः ।।७१२।। यः सर्वसङ्गत्यागी यः परपीडानिवृत्तव्यापारः । यः परहितकरणरतियः संसाराद निविण्णः ।।७१३।। ततो वन्देऽहमिमं भगवन्तं तथा च पर्यपासे । साधूनां दर्शनमपि खलु नियमाद् दुरितं प्रणाशयति ॥७१४॥ एवं च चिन्तयित्वा विधिना सह विग्रहेण ततो भगवान् । अभिवन्दितश्च तेन आचार्यः सपरिवार इति ॥७१५।। जैसे समुद्र धीर और गम्भीर होता है, उसी प्रकार वे धीर और गम्भीर थे। जिस प्रकार सूर्य अन्धकार समूह को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार उन्होंने पापों को नष्ट कर दिया था। चन्द्रमा जिस प्रकार सौम्य प्रवृत्ति वाला होता है, उसी प्रकार वे भी सौम्यवृत्ति वाले थे। जिनेन्द्र भगवान् के वचन जिस प्रकार निष्कलंक होते हैं, उसी प्रकार वे भी निष्कलंक थे। वे ऐसे अपूर्व सूर्य थे, जिसने संसार की स्थितिरूप रात्रि में भव्यजीवरूप कमलों का सन्ताप गलाकर समस्त अज्ञान अन्धकार का नाश कर दिया था। उन्हें देखकर कुमार का अत्यधिक शुभभाव हुआ। उसने सोचा ओह ! ये पुण्यवान हैं जिन्होंने समस्त आसक्तियों का त्याग कर दिया है, जो दूसरों को पीड़ा पहुंचाने के कार्य से अलग हैं, जिनकी दूसरों का हित करने में रुचि है तथा जो संसार से उदासीन हैं -ऐसे इन भगवान् को मैं प्रणाम करता हूँ, उपासना करता हूँ। 'साधुओं का दर्शन भी नियम से पापों को नष्ट कर देता है। यह सोचकर विधिपूर्वक विग्रह के साथ उस कुमार ने सपरिवार भगवान् आचार्य की वन्दना की ॥७१०-७१५॥ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१० समराइच्चकहा तेण वि य धम्मलाहो तस्स कओ मोक्खसोक्खलाहस्स। जो निरुवमसुहकारणमउचिंतामणीकप्पो ॥७१६॥ उवविससु त्ति य भणिओ गुरुणा चरणंतिए तओ तस्स। उवविट्ठो उ कुमारो विग्गहपरिवारपरियरिओ॥७१७॥ एत्यंतरम्मि सहसा गयणाओ दिव्वरूवसंपन्नो। तत्थागओ पहट्ठो जुइमं विज्जाहरकुमारो ॥७१८॥ अह वंदिऊण य गुरुं भणियमणेण भयवं महंत मे। कोड्डं कुह वुत्तंते कहिओ जो संपयं तुमए ॥ ७१६॥ कणगउरसामिणो तम्मि चेव नयरे दढप्पहारिस्स। मग्गपडिवत्तिमाई इहभवपज्जायपज्जंतो॥७२०॥ ओहेण मए एसो तन्नयरजणाउ(ण) विम्हयं दटुं। ते पुच्छिऊण नाओ तओ य अहमागओ इहयं ॥७२१॥ तेनापि च धर्मलाभस्तस्य कृतो मोक्षसौख्यलाभस्य । यो निरुपमसूखकारणमपूर्वचिन्तामणिकल्पः ॥७१६॥ उपविशेति च भणितो गरुणा चरणान्तिके ततस्तस्य । उपविष्टस्तु कुमारो विग्रहपरिवारपरिकरितः ॥७१७।। अत्रान्तरे सहसा गगनाद दिव्यरूपसंपन्नः । तत्रागतो प्रहृष्टो द्युतिमान विद्याधरकुमारः ॥७१८॥ अथ वन्दित्वा गरुं भणितमनेन भगवान ! महद मे। कुतूहलं तव वृत्तान्ते कथितो यः साम्प्रतं त्वया ॥७१६॥ कनकपुरस्वामिनस्तस्मिन्नेव नगरे दृढप्रहारिणः । मार्गप्रतिपत्त्यादिरिहभवपर्यायपर्यन्तः ।। ७२०।। । ओघेन मयैष तन्नगरजनाद् (नां) विस्मयं दृष्ट्वा । तान् पृष्ट्वा ज्ञातस्ततश्चाहमागत इह ॥७२१॥ आचार्य ने भी उसे धर्मलाभ दिया जो मोक्षसुखरूपी लाभ और अनुपम सुख का कारण अपूर्व चिन्तामणि रत्न के सदृश है। गुरु ने कहा- 'बैठो', तो विग्रह के परिवार से घिरा हुआ कुमार (गुरु के) चरणों के पास बैठ गया। इसी बीच आकाश से दिव्यरूप से सम्पन्न हर्षित द्युतिमान् विद्याधर कुमार वहाँ आया। अनन्तर गुरु की वन्दना कर इसने कहा- 'भगवन् ! आपके वृत्तान्त में मुझे बड़ा कौतूहल है, जो कि इस समय आपने कहा है। उसी नगर पर दृढ़ प्रहार करनेवाले कनकपुर के स्वामी के मार्गदर्शन से, इस भव की पर्यायपर्यन्त सम्पूर्ण रूप से उस नगर के लोगों के विस्मय को देखकर मैंने उनसे पूछा और उनसे जानकर मैं यहाँ आया हूँ। तो यदि Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो भवो] ता जइ न अन्तरायं जायइ अन्नस्स कुसलजोयस्स। साहेहि तओ भयवं तं मज्झमणुग्गहट्टाए ॥७२२।। भणियमह कुमारेणं अम्ह वि भयवं अणुग्गहो एस । कीरउ इमस्स वयणं अहवा भयवं पमाणं ति ॥७२३॥ तो जंपियं भयवया निसुणह जइ तुम्भ एत्थ कोडं ति । मग्गपडिवत्तिमाई सुंदर जो मज्झ वुत्तंतो॥७२४॥ अस्थि इह भरहवासे मिहिला नयरी जणम्मि विक्खाया। तीए अहमासि राया नामेणं विजयधम्मो त्ति ॥७२५।। इट्ठा य अग्गहिसी देवी नामेण चंदधम्म ति। सा अन्नया य सहसा इत्थीरयणं ति काऊणं ॥७२६॥ मंतविहाणनिमित्तं हरिया केणावि मंतसिद्धण। अंतेउरमज्झगया मह हिययमयाणमाणेण ॥७२७।। कहिओ य मज्झ एसो वृत्तंतो कहवि विजयदेवीए। सोऊण य मोहाओ गओमि अहयं महामोहं ।। ७२८ ।। ततो यदि नान्तराय जायतेऽन्यस्य कुशलयोगस्य । कथय ततो भगवन् ! तं ममानुग्रहार्थम् ।। ७२२।। भणितमथ कुपारेण अस्माकमपि भगवन् ! अनुग्रह एषः । क्रियतामस्य वचनमथवा भगवान् प्रमाणमिति ।। ७२३।। ततो जल्पितं भगवता निशृणुत यदि युष्माव मत्र कुतूहलमिति । मागंप्रतिपत्यादि: सुन्दर ! यो मम वृत्तान्तः ।।७२४।। अस्तीह भरतवर्षे मिथिला नगरी जने विख्याता । तस्यामहमासं राजा नाम्ना विजयधर्म इति ॥७२५॥ इष्टा चाग्रमहिषी देवी नाम्ना चन्द्रधर्मेति । साऽन्यदा च सहसा स्त्रीरत्न मिति कृत्वा ।।७२६।। मन्त्रविधाननिमित्तं हृता केनापि मन्त्र सिद्धेन । अन्तःपुरमध्यगता मम हृदयमजानता ॥७२७।। कथितश्च ममेष वृत्तान्त: कथमपि विजयदेव्या। श्रुत्वा च मोहाद् गतोऽस्मि अहं महामोहम् ॥७२८।। दूसरे शुभकार्य में विघ्न न हो तो भगवन्, मुझ पर अनुग्रह करने के लिए कहिए।' ॥७१६-७२॥२ ... अनन्तर कुमार ने कहा-'भगवन् ! हमारा भी यही अनुग्रह है, इसके वचन पूर्ण करो अथवा भगवान् प्रमाण हैं अर्थात् जैसा आप चाहे वैसा करें।' अनन्तर भगवान ने कहा- 'तुम लोगों को इस विषय में यदि कौत हल है तो मार्गदर्शनादि से सुन्दर जो मेरा वत्तान्त है, उसे सुनो। इस भारतवर्ष में लोगों में विख्यात 'मिथिला' नगरी है। उसका मैं विजयधर्म नामक राजा था। मुझे चन्द्रधर्मा नामक पटरानी इष्ट थी। एक बार यकायक - 'स्त्रीरत्न है'-ऐसा मानकर मेरे हृदय को न जानते हुए किसी मन्त्रसिद्ध करनेवाले ने मन्त्र के विधान के लिए (उसे) अन्त:पुर के मध्य से हर लिया। मुझे यह वृत्तान्त किसी प्रकार विजयदेवी ने कहा । सुनकर मैं मोह से Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१२ [ समराइच्चकहा परिवीजिऊण य तओ चंदणरससित्ततालियंटेहि। पडिबोहिओ म्हि दुक्खसवेविरं वारविलयाहिं ।। ७२६ ॥ गहिओ य महादुक्खेण तह जहा विविखउं पि न चएमि । तह दुक्खतस्स य मे बोलीणा तिण्णिहोरत्ता ।। ७३ ॥ नवरं चउत्थदियहे समागओ तिव्वतवपरिक्खीणो। भइपसाहियदेहो जडाधरो मंतसिद्धो त्ति । ७३१॥ भणियं च णेण नरवइ कज्जेण विणाउलो तुमं कीस । मंतविहाणनिमित्तं नणु जाया तुह मए नीया ॥ ७३२ ॥ कप्पो य तत्थ एसो जेण तुम जाइओन तं पढम। न य तीए सोलभेओ जायइ देहस्स पीडा वा ॥ ७३३ ॥ ता मा संतप्प दढं छम्मासा आरओ तुमं तीए। जुज्जिहसि नियमओ इय भणिऊणमदंसणो जाओ॥ ७३४ ॥ परिवीज्य च ततश्चन्दनरससिक्ततालवन्त । प्रतिबोधितोऽस्मि दुःखांशवेपमानं वारवनिताभिः ॥७२६।। गृहीतश्च महादुःखेन तथा यया वीक्षितुमपि न शक्नोमि । तया दुःखार्तस्य मे गतानि त्रीण्यहोरात्राणि ॥७३०॥ नवरं चतुर्थदिवसे समागतस्तोव्रतपःपरिक्षीणः । भूतिप्रसाधितदेहो जटाधरो मन्त्रसिद्ध इति ॥ ७३१॥ भणितं च तेन नरपते ! कार्येण विनाऽऽकुलः त्वं कस्मात् । मन्त्रविधान निमित्तं नन जाया तव मया नीता ।।७३२॥ कल्पश्च तत्र एष येन त्वं याचितो न तां प्रथमम् । न च तस्याः शीलभेदो जायते देहस्य पोडा वा ॥ ७३३॥ ततो मा संतप्यस्व दृढं षण्मासादारतः (षण्मासात्पूर्वे) त्वं तया । योक्ष्यसे नियमत इति भणित्वाऽदर्शनो जातः ।। ७३४॥ महामोह (मूर्छा) को प्राप्त हो गया। अनन्तर पंखों से हवा कर, चन्दन के रस से सींचकर, दुःखों के अंश से काँपती हुई वारांगनाओं ने मुझे प्रतिबोधित किया। मुझे महादुःख ने उस प्रकार जकड़ लिया कि मैं देख भी नहीं सकता था। उस प्रकार के दुःख से आर्त (दुःखी) हुए मेरे तीन दिन-रात बीत गये। चौथे दिन तीव्र तप के कारण दुर्बल शरीर में भस्म लगाये हुए वह जटाधारी मन्त्र सिद्ध करनेवाला आया और उसने कहा-'राजन ! कार्य के बिना तुम क्यों आकुल हो ? मन्त्र के विधान के लिए मैं आपकी पत्नी ले गया था। यह प्रस्ताव है कि आप उसे पहिले न माँगें। उसका शील-भेद नहीं होगा और न ही शरीर को पीड़ा होगी । अतः अत्यधिक दुःखी मत होओ, मैं छह माह से पहले उससे अवश्य मिला दूंगा' - ऐसा कहकर वह अदृश्य हो गया ।।७२३-७३४॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो भवो अहमवि य गओ मोहं तहेव आसासिओ परियणेण । हा देवि दोहविरहो कत्थ तुमं देहि पडिवयणं ॥७३५।। मोहवसयाण जे जे आलावा होंति तम्मि कालम्मि । परिचत्तरज्जकज्जो ठिओ अहं तत्थ विलवंतो॥७३६॥ दण भवणवावीरयाइ बिलसंतहंसमिहुणाई। परियणपीडामणयं मोहं बहुसो गओ अहयं ॥७३७॥ कि बहुणा निरयसमं मज्झ तया दुक्खमणहवंतस्स। वोलोणा पलिओवमतुल्ला मासा कहवि पंच ॥७३८॥ कइवयदिणेहि नवरं मक्को अनिमित्तमेव दुक्खण। परियणहिययाणंदं जाओ य महापमोओ मे ॥७३६॥ जाया य महं चित्ता अन्नो विय मज्ज अंतरप्पा मे। जाओ पसन्नचित्तो ता किं पुण कारणं एत्थ ॥७४०॥ अहमपि च गतो मोहं तथैवाश्वासितः परिजनेन । हा देवि ! दीर्घविरहः कुत्र त्वं देहि प्रतिवचनम् ॥ ७३५॥ मोहवशगानां ये ये आलापा भवन्ति तस्मिन् काले। परित्यक्तराज्यकार्यः स्थितोऽहं तत्र विलपन ॥७३६।। दृष्ट्वा भवनवापीरतानि विलसदहंसमिथुनानि । परिजनपीडाजनकं मोहं बहुशो गतोऽहम् ।।७३७।। किं बहुना निरयसमं मम तदा दुःखमनुभवतः । गताः पल्योपमतुल्या मासाः कथमपि पञ्च ।।७३८॥ कतिपयदिवसर्नवरं मुक्तोऽनिमित्तमेव दुःखेन । परिजनहृदयानन्दं जातश्च महाप्रमोदो मे ।।७३६।। जाता च मम चिन्ताऽन्य इव ममान्तरात्मा मे। जातः प्रसन्नचित्तस्ततः किं पुनः कारणमत्र ।।७४०।। मैं भी परिजनों द्वारा आश्वासन दिये जाने पर मोह को प्राप्त हो गया। हाय महारानी ! विरह लम्बा है, तुम कहाँ हो ? उत्तर दो। उस समय मोह के वशीभूत हुए प्राणियों के जो आलाप होते हैं वहाँ पर बिलाप करते हुए मैंने राज्यकार्य छोड़ दिया। भवन की बावड़ी में रत हंसो के जोड़ों को देखकर परिजनों को पीड़ा देने वाली मूर्छा को मैं कई बार प्राप्त हुआ। अधिक कहने से क्या, तब नरक के समान दुःख का अनुभव करते हुए, पल्य के समान पाँच मास किसी प्रकार बीत गये। कुछ दिनों में, बिना कारण ही मैं दुःख से मुक्त हो गया। परिजनों के हृदय को आनन्द देनेवाले, मुझे बहुत हर्ष हुआ। मैं सोचने लगा कि मेरी अन्तरात्मा अन्य के समान प्रसन्नचिन्न हो गयी है, इसका कारण क्या है ?।।७३५-७४०।। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१४ [समराइच्चकहा एत्थंतरम्मि सहसा सिझैं पवियसियलोयणजएण। वद्धावएण मज्झं जहागओ देव तित्थयरो॥७४१।। सोउण इमं वयणं 'हरिसवसपयट्टपयडपुलएणं । वद्धावयस्स रहसा दाऊण जहोचियं किपि ॥७४२॥ गंतूण भूमिभायं थेवं पुरओ जिणस्स काऊण। तत्थेव नमोक्कारं परियरिओ रायवंद्र हि ॥७४३॥ दाऊण य आत्ति करेह करितरयजग्गजाणाई। सयराहं सज्जाइं वच्चामो जिणवरं नमिउं ॥७४४॥ भूसेह य अप्पाणं बस्थाहरणेहि परमरम्महि । सयमवि य जिणसयासं जाओ अह गमणजोग्गो त्ति ॥७४५।। भुवणगुरुणो वि ताव य पारद्धं तियसनाहणिएहि । देवेहि समोसरणं नयरीए उत्तरदिसाए ॥७४६॥ अत्रान्तरे सहसा शिष्टं प्रविकसितलोचनयुगेन । वर्धापकेन मम यथाऽऽगतो देव ! तीर्थकरः ॥७४१॥ श्रुत्वेदं वचनं हर्षवशप्रवृत्तप्रकटपुलकेन । वर्धापकस्य रभसा दत्त्वा यथोचितं किमपि ॥ ७४२॥ गत्वा भूमिभागं स्तोकं पुरतो जिनस्य कृत्वा । तत्रव नमस्कारं परिकरितो राजवन्द्रः ॥७४३।। दत्त्वा चाप्ति कुरुत करितुरगयुग्ययानानि । शीघ्र सज्जानि, ब्रजामो जिनवरं नन्तुम् ॥७४४ ।। भूषयतात्मानं वस्त्राभरणैः परमरम्यः । स्वयमपि च जिनसकाशं जातोऽथ गमनयोग्य इति ॥७४५।। भुवनगुरुणोऽपि तावच्च प्रारब्धं त्रिदशनाथभणितैः । देवैः समवसरणं नगर्या उत्तरदिशि ॥७४६।। . इसी बीच विकसित नेत्रयुगलवाले वर्धापक (बधाई देनेवाले) ने यकायक कहा-'महाराज, तीर्थंकर देव आये हैं।' यह वचन सुन हर्षवश जिसे रोमांच हो आया है, ऐसा मैंने वर्धापक को शीघ्र ही यथायोग्य कुछ देकर, सामने थोड़ी दूर जाकर, वहीं भगवान जिनेन्द्र की दिशा में नमस्कार किया और राजाओं को आज्ञा दी कि हाथी, घोड़े और जोड़ेवाले वाहनों को शीघ्र तैयार करो। जिनवर की वन्दना के लिए जाएंगे। अपने आपको परम रमणीय वस्त्राभरणों से भूषित कर स्वयं भी वह जिनेन्द्र के समीप जाने के लिए तैयार हो गया । संसार के गुरु को इन्द्र के बों ने नगर की उत्तरदिशा में समवसरण की रचना प्रारम्भ कर दी। वायुकुमारों ने स्वयं नन्दनबन १. -वमुभिप्नपय ड-पा. ज्ञा. । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो भवो ] वाउकुमारेहि सयं चालियनंदणवणेण पवणेण । जोयणमेत्ते खेत्ते अवहरिओ रेणुतणनिवहो ।।७४७॥ मेहकुमारेहि तओ सुरहिजलं सोयलं पढें ति। उउदेवेहि य सहसा दसवण्णाइ कुसुमाई ॥७४८॥ पायारो रयणमओ निम्मविओ कप्पवासिदेवेहि। बोओ य कंचणमओ जोइसियसुरेहि सयराहं ॥७४६॥ तइजो कलहोयमओ निम्मविओ भवणवासिदेवेहि । वन्तरसुरेहि य कयं एक्केक्के तोरणाईयं ॥७५०॥ मज्झे असोयरुक्खो गंधायड्डियभमंतभमरउलो। कुसुमभरनिमियडालो निम्मविओ वंतरसुरेहिं ॥७५१॥ सीहासणं च तस्स य रयणमयमहो य पायपीढं तु। विविहमणिरयणखचियं तेहिं चिय भत्तिजुत्तेहिं ॥७५२॥ वायुकुमारैः स्वयं चालितनन्दनवनेन पवनेन । योजनमात्रे क्षत्रे अपहृतो रेणुतृणनिवहः ।।७४७॥ मेघकुमारैस्ततः सुरभिजलं शीतलं प्रवृष्टमिति । ऋतुदेवैश्च सहसा दशार्धवर्णानि कुसुमानि ।। ७४८।। प्राकारो रत्नमयो निमितः कल्पवासिदेवैः । द्वितीयश्च काञ्चनमयो ज्योतिष्कसुरैः शीघ्रम् ॥७४६।। तृतीयः कलधौतमयो निमितो भवनवासिदेवैः । व्यन्तरसुरैश्च कृतमेकैकस्मिन् तोरणादिकम् ॥७५०॥ मध्येऽशोकवृक्षो गन्धाकृष्टभ्रमभ्रमरकुलः । कुसुमभरन्यस्तशाखो निर्मितो व्यन्तरसुरैः ॥७५१।। सिंहासनं च तस्य च रत्नमयमधश्च पादपीठं तु । विविधमणिरत्नखचितं तैरेव भक्तियुक्तः ॥७५२॥ की हवा चलायी। योजन मात्र पृथ्वी की धूलि और तण-समूह हरण कर लिया । तदनन्तर मेघकुमार देवों ने सुमन्धित शीतल जल भोर पांच रंगों के ऋतु के फलों को यकायक बरसाया। कल्पवासी देवों ने रत्नमय प्राकार निर्मित किया । ज्योतिषी देवों ने शीघ्र ही दूसरे स्वर्णमय प्राकार की रचना की। भवनवासी देवों ने तीसरे रजतमय प्राकार की रचना की। व्यन्तर देवों ने एक-एक में तोरणादि की रचना की। मध्य में अशोकवृक्ष था, जिसको गन्ध से आकृष्ट होकर भौरों का समूह मँडरा रहा था। उसमें फूलों के समूह से युक्त शाखाओं की व्यन्तर देवों ने रचना की। उन्हीं भक्त देवों ने भगवान् का रत्नमय सिंहासन और नीचे अनेक प्रकार के मणिरत्नों Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइचकहा पडिबुद्ध कंबधवलं मणहरविलसंतमोत्तिओऊलं । छत्तत्तयं च गुरुणो तिहुयणनाहसणुप्फालं ॥७५३॥ हेममयचित्तदंडे पवणपणच्चंतधयवडसणाहे। गयणतलमणुलिहते निम्मविए सीहचक्कधए ॥७५४।। हंसउलपण्डराओ गयणम्मि कयाउ चामराओ य । जलहरणियसराओ मणहरसुरदुंदुहीओ य ॥७५५॥ तरुणरविमंडलनिहं निमियं वरकणयपोंडरीयम्मि। पुरओ य धम्मचक्कं निम्मवियं वंतरसुरेहिं ॥७५६॥ भामंडलं च वियडं निम्मवियं दित्तदिणयरच्छायं । तेहि चिय जयगरुणो रूवि तवतेयवंद्र व॥७५७॥ इय तियसेहि विरइए तिहुयणनाहस्स अह समोसरणे । पुव्वद्दारेण तओ तत्थ पविट्ठो जिणो भयवं ॥७५८॥ प्रतिबद्धकुन्दधवलं मनोहरविलसन्मौक्तिकावचूलम् । छत्रत्रयं च गुरोस्त्रिभुवननाथत्वसूचकम् ॥ ७५३॥ हेममयचित्रदण्डः पवनप्रनृत्यद्ध्वजपटसनाथः । गगनतलमनुलिखन् निमितः सिंहचक्रध्वजः ।।७५४॥ हंसकुलपाण्डुराणि गगने कृतानि चामराणि च । जलधरस्तनितस्वरा मनोहरसुरदुन्दुभयश्च ।।७५५।। तरुणरविमण्डलनिभं न्यस्तं वरकनकपुण्डरीके । पुरतश्च धर्मचक्र निर्मितं व्यन्तरसुरैः ।।७५६॥ भामण्डलं च विकटं निर्मितं दीप्तदिनकरच्छायम् । तैरेव जगद्गुरुणो रूपि तप:तेजोवन्द्रमिव ॥७५७।। इति त्रिदर्शविरचिते त्रिभवननाथस्याथ समवसरणे। पूर्वद्वारेण ततस्तत्र प्रविष्टो जिनो भगवान् ।।७५८ ।। से खापत पैर रखने का पीढ़ा (पादपीठ) बनाया। खिले हुए कुन्द के फूल के समान सफेद, मनोहर, शोभायमान मोतियों के गुच्छों से युक्त तीन छत्र भगवान् के तीनों भुवनों के स्वामीपने के मुचक थे। स्वर्ण के भद्भुत दण्ड वाला, वायु के द्वारा नचाये हुए ध्वजपट से युक्त आकाशतल को छूता हुआ सिंह और चक्र से युक्त ध्वज निर्मित किया। हंसों के समह के समान श्वेतवर्ण चंवर आकाश में लटकाये और मेघ की वनि के समान स्वरवाने मनोहर नगाड़े निर्मित किये । तरुण सूर्यमण्डल के सदश श्रेष्ठ स्वर्णकमल पर सामने व्यन्तरदेवों ने धर्मचक की रचना की । उन्हीं व्यन्तरदेवों ने जगद्गुरु भगवान् की तपस्या के तेजसमूह के समान सूर्य की आभा से देदीप्यमान विकट भामण्डल बनाया। इस प्रकार देवों द्वारा रचित तीनों भुवनों के स्वामी के समवसरण में २. उप्काल (दे.) सूचकम् । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठमो भवो ] काऊण नमोक्कारं तित्थस्स पयाहिणं च उवविट्ठो । पुव्वाभिमुह तहियं पडिपुण्णो सारयससि व्व ॥ ७५६॥ सेसेसु वितिसु पासेसु भयवओ तत्थ तिष्णि पडिमाओ । देवेहि निम्मियाओ जिर्णाबिबसमाउ दिव्वाओ ॥७६० ॥ इंदा य विमलचामरमणहर परिभूसिएकक करकमला । उभओ पासेसु ठिया जिणाण वेउव्वियसरीरा ॥७६१॥ सोहासम्म विमले दाहिणपुव्वेण नाइदूरम्मि । तित्थयरस्स निसण्णो मुणिनमिओ गणहरो जेट्टो ॥७६२ ॥ पुन्यद्दारेण पविसिय मुणिणो तह कप्पवासिदेवीओ ! अज्जाउ ट्ठति तहिं नमिउं अग्गेयदिसिभाए ॥ ७६३॥ दाहिणदारेणं पविसिऊणमह दाहिणावरविभाए । भवणवण जोइसाणं देवीउ ठियाउ अइनिहुयं ॥७६४॥ कृत्वा नमस्कारं तीर्थस्य प्रदक्षिणां चोपविष्टः । पूर्वाभिमुखस्तत्र प्रतिपूर्णः शारदशशीव ॥ ७५६ ॥ शेषेष्विव त्रिषु पार्श्वेषु भगवतस्तत्र तिस्रः प्रतिमाः । देवैर्निर्मिता जिनबिम्बसमा दिव्याः ॥७६०॥ इन्द्री च विमलचामरमनोहरपरिभूषितैक कर कमली । उभयोः पार्श्वयोः स्थितौ जिनानां विकुर्वितशरीरौ ॥७६१ ॥ सिंहासने विमले दक्षिणपूर्वेण नातिदूरे । तीर्थकरस्य निषण्णो मुनिनतो गणधरो ज्येष्ठः ।।७६२ ।। पूर्वद्वारेण प्रविश्य मुनयस्तथा कल्पवासिदेव्यः । आर्यास्तिष्ठन्ति तत्र नत्वा आग्नेयदिग्भागे ॥७६३॥ दक्षिणद्वारेण प्रविश्याथ दक्षिणापरविभागे । भवनवनज्योतिष्कानां देव्यः स्थिता अतिनिभृतम् ।।७६४॥ पूर्वद्वार से जिनेन्द्र भगवान् प्रविष्ट हुए । नमस्कार कर और तीर्थ की प्रदक्षिणा कर शरत्कालीन पूर्ण चन्द्रमा के समान पूर्वाभिमुख होकर बैठ गये । भगवान् के शेष तीनों बाजुओं में (तीनों ओर) देवों ने जिनबिम्ब के समान दिन्य तीन प्रतिमाएँ निमित्त कीं। दोनों इन्द्र एक एक हस्तकमल में स्वच्छ चँवरों से मनोहर शोभावाले होकर जिनेन्द्र भगवान् के दोनों ओर शरीर की विक्रिया कर खड़े हो गये । तीर्थंकर के समीप ही दक्षिण-पूर्व दिशा में स्वच्छ सिंहासन पर मुनियों के द्वारा नत ज्येष्ठ गणधर बैठ गये । पूर्व के द्वार से मुनि तथा कल्पवासी देवियाँ प्रविष्ट हुईं। वहाँ पर आग्नेय दिशा में नम्रीभूत आर्याएँ बैठी थीं। दक्षिण द्वार से प्रविष्ट होकर दक्षिण-पश्चिम भाग में भवनवासी और ज्योतिषी देवों की देवियाँ अत्यन्त शान्त बैठी थीं । पश्चिम द्वार से प्रविष्ट होकर पश्चिमोत्तर ७१७ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१८ [ समराइच्चकहा अवरहारेणं पविसिऊणमवरुत्तरेण निसण्णा। जोइसिया यंतरिया देवा तह भवणवासी य ॥७६५॥ उत्तरदारेणं पविसिऊण पुन्व॒त्तरेण उ निसण्णा। वेमाणिया सुरवरा नरनारिगणा य संविग्गा ॥७६६॥ अहिनउलमयमयाहिवकुक्कुडमज्जारमाइया सव्वे । ववगयभया निसण्णा पायारवरंतरे बीए ॥ ७६७॥ तियसेहिं वि जाणाई मणिरयणविहूसियाइ रम्माइं। ठवियाइ मणहराइं पायारवरंतरे तइए ॥७६८॥ एवं च निरवसेसं सिढं तत्तो समागएण महं। कल्लाणएण नबरं देवी तत्थेव दिट्ठ ति ॥७६६॥ तत्तो य संपयट्टो जिगवंदणवत्तियाए सयराहं । सिंगारियमुत्तुगं धवलगइंदं समारूढो ॥७७०॥ अपरद्वारेण प्रविश्यापरोत्तरेण निषण्णाः । ज्योतिष्का व्यन्तरा देवा तथा भवनवासिनश्च ॥७६५॥ उत्तरद्वारेण प्रविश्य पूर्वोत्तरेण तु निषण्णाः । वैमानिकाः सुरवरा नरनारीगणाश्च संविग्नाः ॥७६६।। अहिनकुल-मगमगाधिप-कर्क टमार्जारादयः सर्वे । व्यपगतभया निषण्णाः प्राकारवरान्तरे द्वितीये ॥७६७।। त्रिदशैरपि यानानि मणिरत्नविभूषितानि रम्याणि । स्थापितानि मनोहराणि प्राकारवरान्तरे तृतीये ।।७६८॥ एवं च निरवशेष शिष्टं ततः समागतेन मम । कल्याणकेन नवरं देवी तत्रैव दृष्टेति ॥७६९॥ ततश्च संप्रवृत्तो जिनवन्दनप्रत्ययं शीघ्रम् । शङ्गारितमुत्तुङ्ग धवलगजेन्द्रं समारूढः ।। ७७०॥ दिशा में ज्योतिषी, व्यन्तर तथा भवनवासी देव बैठे थे। उत्तर द्वार से प्रविष्ट होकर पूर्वोत्तर दिशा में वैमानिक देव और नरनारीगण (संसार से) विरक्त होकर बैठे थे । सर्प-नेवला, मग-सिंह, मुर्गा-बिल्ली आदि सब भयरहित होकर दूसरे श्रेष्ठ प्राकार के मध्य बैठे थे। देवों ने भी मणि और रत्नों से विभूषित रमणीय यान तीसरे उत्तम प्राकार के बीच रखे थे। इस प्रकार सब शालीन था। ___अनन्तर मेरे आने पर शुभयोग से वहीं देवी दिखाई दी। तब मैं जिनवन्दना के लिए शीघ्र ही शृंगार किये हुए ऊंचे सफेद हाथी पर आरूढ़ हुआ। वाद्यों से दिशाओं का पूर्ण करता हुआ, पालकियों से युक्त उत्तम रथों Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठमो भवो] ७१६ तररवप्फण्णदिसं दिट्ठो नयरीउ निग्गओ नवरं। पाणजुग्गरहवरगएहि राईहि परियरिओ ॥७७१॥ थेवमिह भूमिभायं तुरियं गंतण करिवराउ अहं। ओइण्णो तियसकयं दळूण महासमोसरणं ॥७७२।। हरिसवसपुलइयंगो तत्थ पविठ्ठो य परियणसमेओ। दारेण उत्तरेणं दिट्ठो य जिणो जयक्खाओ ॥७७३।। दण य जिणयंदं हरिसवसुल्लसियबहलरोमंचो। धरणिनिमिउत्तमंगो इय नाहं थुणिउमाढतो॥७७४॥ जय तियणेक्कमंगल जय नरवर लच्छिवल्लह जिणिद । जय तवसिरिसंसेविय जय दुज्जयनिज्जियाणंग ॥७७५॥ जय घोरजियपरोसह जब लडहभयंगसुंदरीनमिय । जय सयलमुणियतिहुयण जय सुरकयसुहसमोसरण ॥७७६॥ तूर्यरवापूर्णदिग् दष्टो नगरीतो निर्गतो नवरम्। जम्पानयुग्यरथवरगतै राजभिः परिकरितः ॥७७१।। स्तोकमिह भूमिभागं त्वरितं गत्वा करिवरादहम् । अवतीर्णस्त्रिदशकृतं दृष्ट्वा महासमवसरणम् ॥७७२॥ हर्षवशपुलकिताङ्गस्तत्र प्रविष्टश्च परिजनसमेतः । द्वारेणोत्तरेण दृष्टश्च जिनो जगत्ख्यातः ।।७७३॥ दृष्ट्वा च जिनचन्द्रं हर्षवशोल्लसितबहलरोमाञ्चः । धरणीन्यस्तोत्तमाङ्ग इति नाथं स्तोतुमारब्धः ।।७७४॥ जय त्रिभुवनैकमङ्गल जय नरवर लक्ष्मीवल्लभ जिनेन्द्र। जय तप:श्रीसंसेवित जय दुर्जयनिजितानङ्ग ॥७७५।। जय घोरजितपरिषह जय लटभ (सुन्दर) भुजङ्गसुन्दरीनत । जय सकलज्ञातत्रिभुवन जय सुरकृतशुभसमवसरण ॥७७६।। पर सवार हुए राजाओं से घिरा हुआ नगर से निकला। यह भूमि थोड़ी है अत: देवों द्वारा बनाये हुए विशाल समवसरण को देखकर हाथी से शीघ्र ही नीचे उतरा और हर्षवश पुलकित अंगोंवाला होकर परिजनों के साथ वहाँ उत्तरद्वार से प्रविष्ट हुआ और संसार में प्रसिद्ध जिनेन्द्रदेव के दर्शन किये। जिनेन्द्र को देखकर हर्षवश जिसे अत्यधिक रोमांच हो आया है, ऐसा मैं पथ्वी पर मस्तक रख स्वामी की इस प्रकार स्तति करने लगाहे तीनों भवनों के अद्वितीय मंगल (आपकी) जय हो, हे लक्ष्मीपति नरश्रेष्ठ जिनेन्द्र ! (आपकी) जय हो, हे तपरूप लक्ष्मी से सेवित (आपकी) जय हो, हे दुर्जेय काम को जीतनेवाले (आपकी) जय हो, घोर परीषहों को जीतनेवाले ! (आपकी) जय हो, सुन्दर नागकन्या द्वारा नत (आपकी) जय हो. देवों द्वारा । द्वारा (जिसके लिए) शुभ समवसरण की रचना की गयी है (ऐसे आपकी) जय हो । हे भव्यकमलों के लिए सूर्य (आपकी) जय हो, असुरेन्द्र, Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२० [समराइच्चकहा जय भवियकमलदिणयर जप असुरनरामरोसपणिवइय । जय तिहुयचिंतामणि जय जीवपयासियसुहम्म ॥ ७७७॥ जय संसारुत्तारय जय जिग गय रागरोसरयनिवह। जय सयलजीववच्छल जय मणिवइ परमनीसंग ॥७७॥ जय रागसोगवज्जिय जय जय नीसेसबंधणविमुक्क । जय भयवं अपुणब्भव जय निरुवमसोखसंपत्त ॥७७६॥ जय गणरहिय, महागुण जय परमाण जय गुरु अणंत। जय जय नाह सयंभव जय सहमनिरंजण मणीस ७८०।। इय थोऊण सहरिसं जिणयंदपरमभत्तिसंजत्तो। गणहरपमुहे य तओ नमिऊण साहुणो सत्वे ॥७८१॥ तियसाईए य तहि ननिऊण जहारिहे सए ठाणे । उवविट्ठो भुवणगुरुं नमिऊण पुणो सपरिवारो॥७८२॥ जय भविकमलदिनकर जय असुरनरामरेशप्रणिपतित । जय त्रिभुवनचिन्तामणे जय जीवप्रकाशितसुधर्म ॥७७७।। जय संसारोत्तारक जय जिन गत रागरोषरजोनिवह। जय सकलजीववत्सल जय मुनिपते परम निःसङ्ग ।।७७८।। जय रागशोकवजित जय जय निःशेष बन्धनविमुक्त । जय भगवन् अपुनर्भव जय निरुपमसौख्यसम्प्राप्त ।। ७७६ ।। जय गुणरहित महागुण जय परम णो जय गुरो अनन्त । जय जय नाथ स्वयम्भूः जय सूक्ष्म निरञ्जन मुनीश ॥७८०॥ इति स्तुत्वा सहर्षं जिनचन्द्रपरमभक्तिसंयुक्तः । गणधरप्रमुखांश्च ततो नत्वा साधून सर्वान् ॥७८१॥ त्रिदशादिकांश्च तत्र नत्वा यथा स्वके स्थाने । उपविष्टो भुवनगुरूं नत्वा पुनः सपरिवारः ।।७८२॥ नरेन्द्र और देवेन्द्र द्वारा नमस्कृत (आपकी) जय हो, तीनों लोकों के चिन्तामणिस्वरूप (आपको) जय हो, जीवों के लिए सधर्म का प्रकाश करनेवाले (आपकी) जय हो, संसार से पार लगानेवाले (आपकी) जय हो, राग और क्रोधरूपी रजसमूह से मुक्त जिन (आकी) जय हो, समस्त प्राणियों के प्रति स्नेह करनेवाले (आपकी) जय हो, परम निरासक्त मुनिपति (आपकी) जय हो, राग-शोक से रहित (आपकी) जय हो, हे समस्त बन्धनों से मुक्त (आपकी) जय हो, पुनर्जन्म से रहित (आपकी ) जय हो, अनुपम सुख को प्राप्त (आपकी) जय हो, गुण रहित होते हुए भी महागुणवाले (आपकी) जय हो, हे परमाणु (आपकी) जय हो, हे अनन्त (आपकी) जय हो, है. स्वयम्भूनाथ जय हो, जय हो, हे सूक्ष्मनिरंजन मुनीश्वर (आपकी) जय हो'- इस प्रकार हर्षसहित परमभक्ति से युक्त हो जिनचन्द्र को नमस्कार कर, अनन्तर गणधर प्रमुख सभी साधुओं को और देवतादि को नमस्कार कर, सपरिवार पुनः भुवनगुरु को नमस्कार कर मैं अपने स्थान पर बैठ गया ।।।७४१.७८२।। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो भवो] ७२१ अह भयवं पि जिणवरो नियठाणठियाण सव्वसत्ताण । भवजलहिपोयभूयं इय धम्म कहिउमाढतो॥७८३।। जीवो अणाइनिहणो पवाहओऽनाइकम्मसंजत्तो। पावेण सया दुहिओ सुहिओ उण होइ धम्मेण ॥७८४॥ धम्मो चरित्तयम्मो सुयधम्माओ' तओ य नियमेण । कसच्छेयतावसुद्धो सो च्चिय कणयं व विन्नेओ ॥७८५॥ पाणवहाईयाणं पावट्टाणाण जो उ पडिसेहो। झाणज्झयणाईणं जो य विही एस धम्मकसो ॥७८६॥ बज्जाणाणणं जेण न वाहिज्जइ तय नियमा। संभवइ य परिसुद्धं सो उग धम्मम्मि छेओ ति ।।७८७।। जोवाइभाववाओ बंधाइपसाहओ इहं तावो। एएहि सुपरिसुद्धो धम्मो धम्मत्तणमुवेइ ॥७८८॥ अथ भगवानपि जिनवरो निजस्थानस्थितानां सर्वसत्त्वानाम् । भवजलधिपोतभूतमिति धर्म कथयितुमारब्धः ।।७८३॥ जीवोऽनादिनिधनः प्रवाहतोऽनादिकर्मसंयुक्तः । पापेन सदा दुःखितः सुखितः पुनर्भवति धर्मेण ॥७८४॥ धर्मश्चारित्रधर्मः श्रतधर्मात ततश्च नियमेन । कषच्छेदतापशुद्धः स एव कनकमिव विज्ञ यः ॥७८५॥ प्राणवधादिकानां पापस्थानानां यस्तु प्रतिषेधः । ध्यानाध्ययनादीनां यश्च विधिरेष धर्मकषः ॥७८६।। बाह्यानुष्ठानेन येन न बाध्यते तन्नियमाद् । सम्भवति च परिशुद्धं स पुनर्धर्मे छेद इति ।।७८७।। जीवादिभाववादो बन्धादिप्रसाधक इह तापः । एतैः सुपरिशुद्धो धर्मो धर्मत्वमुपैति ।।७८८।। अनन्तर भगवान् जिनवर ने भी अपने (-अपने) स्थान पर स्थित समस्त प्राणियों को संसाररूपी सागर के लिए जहाज के तुल्य धर्म का कथन प्रारम्भ किया। जीव अनादिनिधन है, प्रवाह से अनादिकालीन कर्मों से संयुक्त है, पाप से सदा दुःखी और धर्म से सुखी होता है। चारित्रधर्म धर्म है, श्रुतरूपी धर्म से नियमपूर्वक उसे कसौटी पर कसे गये तथा अग्नि में शुद्ध स्वर्ण के समान जानना चाहिए। प्राणिवध आदि पापस्थानों का जो निषेध है और ध्यान, अध्ययन आदि की जो विधि है - यही धर्म की कसौटी है । बाह्यानुष्ठान से जो बाधित नहीं होता है और उस नियम से परिशुद्ध हो सकता है वह धर्म का भेद है। जीवादि पदार्थ से युक्त बन्धादि को सजानेवाला इस संसार में दुःखी होता है। इनसे सुपरिशुद्ध धर्म धर्मपने को प्राप्त करता है। १. सुयधम्मो -उ पा. ज्ञा.। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२२ [समराइचकहा एएहि जो न सुद्धो अन्नयरम्मि व न सुठ्ठ निव्वडिओ। सो तारिसओ धम्मो नियमेण फले विसंवयइ ।। ७८६।। एसो य उत्तिमो जं पुरिसत्थो एत्थ वंचिओ नियमा। वंचिज्जइ सयलेसु कल्लाणेसुं न संदेहो ॥७६०॥ एत्थ य अवंचिओ ण हि चिज्जइ तेस जण तेणेसो। सम्म परिक्खियवो बुहेहिमइनिउणदिट्ठीए ।७६१॥ सहुमो असेसविसओ सावज्जे जत्थ अस्थि पडिसेहो। रायाइविउडणसह झाणाइ य एस कससुद्धो ॥७६२।। जह मणवइ काहि परस्स पीडा दढं न कायव्वा । झाएपव्वं च सया रागाइविपक्खजालं तु ॥७६३।। थूलो न सवविसओ सावज्जे जत्थ होइ पडिसेहो। रागाइविउडणसहं न य झाणाइ वि तयासुद्धो ॥७९४॥ एतैर्यो न शुद्धोऽन्यत रस्मिन् वा न सुष्ठु निर्वृ त्तः । स तादृशो धर्मो नियमेन फले विसंवदति ।।।।७८६।। एष चोत्तमो यत् पुरुषार्थोऽत्र वञ्चितो नियमात् । वञ्च्यते सकलेषु कल्याणेषु न सन्देहः ॥७६०॥ अत्र चावञ्चितो न हि वञ्च्यते तेषु येन तेनैषः । सम्यक् परीक्षितव्यो बुधैरतिनिपुणदृष्टया ॥७६१॥ सूक्ष्मोऽशेषविषय: सावध यत्रास्ति प्रतिषेधः । रागादिविकुट नसहं ध्यानादि चेष कषशद्धः ।।७६२॥ यथा मनोवचःकायैः परस्य पीडा दृढ न कर्त्तव्या। ध्यातव्यं च सदा रागादिविपक्षजालं तु ।।६६३।। स्थलो न सर्व विषयः सावध यत्र भवति प्रतिषेधः । रागादिविकुटनसहं न च ध्यानाद्यपि तदशुद्धः ॥७६४॥ इनसे जो शुद्ध नहीं है अथवा जो भलीप्रकार परपदार्थों से निवृत्त नहीं है वैसा धर्म नियम से फल में धोखा देता है। जो उत्तम पुरुषार्थ (मोक्ष) है इससे वंचित हआ इस संसार में समस्त कल्याणों से वंचित होता है, इसमें कोई सन्देह नहीं। मोक्षपुरुषार्थ से वंचित न हुआ सब कल्याणों से वंचित नहीं होता। अत: विद्वानों को अतिनिपुण दृष्टि से भलीभांति परीक्षा करनी चाहिए। सम्पूर्ण विषय सूक्ष्म है। सावद्य (पापयुक्त) पदार्थों का जो निषेध है वह रागादि को नष्ट करने में समर्थ है । यह ध्यानादि की कसौटी पर शुद्ध होता है । मन, वचन और काय से दढ़तापूर्वक दूसरे को पीड़ा नहीं पहुँचानी चाहिए और रागादि से युक्त विपक्षियों का सदा ध्यान रहना चाहिए । जहाँ पर सावद्य का निषेध होता है वह सब विषय स्थूल नहीं है, वह रागादि को नष्ट १. बुद्धोए-हे. ज्ञा Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो भवो] ७२३ जह पंचहि बहुएहि वि एगा हिंसा मसं विसंवाए। इच्चाइ झाणम्मि य झाएयव्वं अगाराई ॥७६५॥ सइ अप्पमत्तयाए संजमजोएसु विविहभेएसु । जा धम्मियस्स वित्ती एवं बज्झं अणुट्ठाणं ॥७६६॥ एएण न वाहिज्जइ संभवइ य तं दुगं पि नियमेण । एएण जो विसुद्धो सो खल छेएण सुद्धो त्ति ॥ ७६७॥ जह पंचसु समिईसुं तोसु य गुत्तोसु अप्पमत्तेणं। सव्वं चिय कायव्वं जइणा सइ काइगाई वि ॥७६८॥ जे खल पमायजणया वसहाई ते वि धज्जणीया उ। महयरवित्तीए तहा पालेयव्वो य अप्पाणो ॥७९॥ जत्थ उ पमत्तयाए संजमजोएसु विविहभेएसु । नो धम्मियस्स वित्ती अणणुट्ठाणं तयं होइ ॥८००। यथा पञ्चभिर्बहुभिरपि एका हिंसा मृषा विसंवादः : इत्यादि ध्याने च ध्यातव्यमगारादि ।।७६५॥ सदाऽप्रमत्ततया संयमयोगेषु विविधभेदेषु । या धार्मिकस्य वृत्तिरेतद् बाह्यमनुष्ठानम् ॥७६६॥ एतेन न बाध्यते सम्भवति च तद् द्विकमपि नियमेन । एतेन यो विशुद्धः स खलु छेदेन शुद्ध इति ।।७६७।। यथा पञ्चसु समितिषु तिसषु च गुप्तिष अप्रमत्तेन । सर्वमेव कर्तव्यं यतिना सदा कायिकाद्यपि ॥७६८।। ये खलु प्रमादजनका आवसथादयस्तेऽपि वर्जनीयास्तु । मधकरवृत्त्या तथा पालयितव्यश्चात्मा ।।७६६॥ यत्र तु प्रमत्ततया संयमयोगेषु विविधभेदेष । नो धार्मिकस्य वृत्तिरननुष्ठानं तद् भवति ।।८००॥ करने में समर्थ है और ध्यानादि से भी वह अशुद्ध नहीं होता है । पाँच अथवा अनेक पापों में से एक हिंसा (अथवा) झूठ धोखा देता है इत्यादि, गहस्थ को यह सदा ध्यान में रखना चाहिए । सतत अप्रमादी होकर संयम और योग के विविध भेदों के प्रति जो धार्मिक का आचरण है, यह बाह्य अनुष्ठान है। बाह्यानुष्ठान से संयम और योग का नियम से कोई विरोध नहीं है । इससे जो विशुद्ध है वह देह से शुद्ध है । यति को कायिक दृष्टि से सदा पाँच समितियों और तीन युप्तियों में अप्रमादी होकर सभी का पालन करना चाहिए और जो प्रमाद के जनक उपाश्रय आदि हैं, उन्हें भी छोड़ना चाहिए । भ्रमरवृत्ति से अपना पालन करना चाहिए। संयम और योग के विविध भेदों में प्रमाद के कारण जहाँ धार्मिक का आचरण नहीं है वह अनुष्ठान नहीं होता है। इससे (अनुष्ठान से) जो Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२४ [समराइच्चकहा एएणं वाहिज्जइ संभवइ य तं दुगं न नियमेणं । एएण जो समेओ सो उण छेएण नो सुद्धो ॥८०१॥ जह देवाणं संगीयगाइकज्जम्मि उज्जमो जइणो। कंदप्पाईकरणं असम्भवयणाभिहाणं च ।८०२॥ तह अन्नधम्मियाणं उच्छेओ भोयणं गिहे गमणं । असिधारगाइ एवं पावं बज्झं अणुढाणं ।।८०३॥ जीवाइभाववाओ जो दिद्वैट्ठा[इ] नो खलु विरुद्धो। बंधाइसाहगो तह एत्थ इमो होइ तावो त्ति ॥८०४॥ एएण जो विसुद्धो सो खल तावेण होइ सुद्धो ति। एएणं चासुद्धो असुद्धओ होइ नायव्वो ॥८०५॥ संतासंते जीवे निच्चाणिच्चे य गधम्मे य। जह सुहबंधाइया जुज्जति न अन्नहा नियमा ॥८०६॥ एतेन बाध्यते सम्भवति च तद् द्विकं न नियमेन । एतेन यः समेतः स पुनश्छेदेन नो शुद्धः ।।८०१।। यथा देवानां संगीतकादिकार्ये उद्यमो यतेः । कन्दर्पादिकरणमसभ्यवचनाभिधानं च ।। ८०२।। तथाऽन्यधार्मिकाणामुच्छे दो (मुद्वेगो) भोजनं गहे गमनम्। असिधारकाद्येतत् पापं बाह्यमनुष्ठानम् ।।८०३।। जीवादिभाववादो यो दृष्टेष्टाभ्यां नो खलु विरुद्धः । बन्धादिसाधकस्तथा अत्रायं भवति ताप इति ॥८०४॥ एतेन यो विशुद्धः स खलु तापेन भवति शुद्ध इति । एतेन चाशुद्धोऽशुद्ध को भवति ज्ञातव्यः । ८०५।। सदसति जीवे नित्यानित्ये चानेकधर्मे च। यथा सुखबन्धादिका युज्यन्ते नान्यथा नियमात् ।। ८०६।। बाधित हो सकता है वह उन दो-संयम और योग-का नियम से पालन नहीं करता है। इससे जो युक्त है अर्थात् जो संयम और योग से रहित है वह छेद से शुद्ध नहीं हो पाता है। जैसे देवादि की संगीतकार्य में रुचि होती है उसी प्रकार यति का कामी होना, असत्य वचन बोलना, भोजनगृह में जाने के लिए अन्य धार्मिकों को उद्विग्न करना, तलवार धारण करना-ये पापकारक बाह्य अनुष्ठान हैं। जो जीवादि तत्त्वों की श्रद्धा रखने वाला है वह निश्चित रूप से प्रत्यक्ष और आगम का विरोधी नहीं है। बन्धादि के साधक पदार्थ वगैरह रखने से उसे संताप होता है । इससे जो विशुद्ध है वह सन्ताप से शुद्ध (मुक्त) हो जाता है । इससे जो अशुद्ध है, वह अशुद्ध है-ऐसा जानना चाहिए। सत्-असत्, नित्य-अनित्य और अनेक धर्मवाले प्राणी में सुख बन्धादि का योग होता है, अन्य किसी नियम से अर्थात् एकान्त नित्य अथवा एकान्त अनित्य आदि से सुख बन्धादि का योग नहीं होता Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो भवो] ७२५. संतस्स सरूवेणं पररूवेणं तहा असंतस्स। हंदि विसिट्ठत्तणओ होति विसिट्ठा सुहाईया ॥८०७।। इहरा सत्तामेताइभावओ कह विसिट्टया तेसिं। तदभावम्मि तदत्थो हंदि पयत्तो महामोहो ॥८०८।। निच्चो वेगसहावो सहावभूयम्मि कह न सो' दुक्खे । तस्सुच्छेयनिमित्तं असंभवाओ पयट्टेज्जा ॥८०६।। एगंताणिच्चो वि य संभवसमणंतरं अभावाओ। परिणामिहेउविरहा असंभवाओ य तस्स ति ॥१०॥ न विसिटकज्जभावो अणईयविसिटकारणम्मि । एगंतभेयवक्खे नियमा तह भयपक्खे य ॥८११॥ पिंडो पडो व्व न घडो तप्फलमणईयपिंडभावाओ। तदईयत्ते तस्स उ तह भावादन्नयादित्तं ॥८१२॥ सतः स्वरूपेण पररूपेण तथाऽसतः । हन्दि (सत्यं) विशिष्टत्वाद् भवन्ति विशिष्टानि सुखादीनि ।।८०७॥ इतरथा सत्तामात्रादिभावतः कथं विशिष्टता तेषाम् । तदभावे तदर्थो हन्दि (सत्यं) प्रयत्नो महामोहः ।।८०८॥ नित्यो वैकस्वभावः स्वभावभूते कथं नु स दुःखे। तस्योच्छेदनिमित्तमसम्भवात् प्रवर्तेत ॥८०६॥ एकान्तानित्योऽपि च सम्भवसमनन्तरमभावाद् । परिणामिहेतुविरहादसम्भवाच्च तस्येति ॥८१०॥ न विशिष्ट कार्यभावोऽनतीतविशिष्टकारणत्वे। एकान्तभेदपक्षं च नियमात्तथाऽभेदपक्ष च ।।८११॥ पिण्ड: पट इव न घटस्तत्फलमनतीतपिण्डभावात् । तदतीतत्वे तस्य तु तथा भावादन्यतादित्वम् ।।८१२।। है। वस्तु स्वरूप से सत् है, पररूप से असत है। सत्य की विशिष्टता से सुखादि विशिष्ट होते हैं । दूसरे प्रकार से पदार्थ को सत्ता मात्र माननेवालों में विशिष्टता कैसे हो सकती है ? अनेक धर्म न मानकर उस पदार्थ के सत्य को जानना महामोह है । नित्य और एक स्वभाववाली आत्मा मानने पर दुःख होने पर उस(दुःख) के नाश का प्रयत्न करना असम्भव है। वस्तु को एकान्त रूप से अनित्य मानोगे तो उत्पत्ति के बाद ही उसका जायेगा । एकान्तभेद-पक्ष अथवा एकान्त-अभेद-पक्ष में परिणामी कारण के बिना वह वस्तु असम्भव हो जायेगी। विशिष्ट कारण विद्यमान न होने पर विशिष्ट कार्य नहीं होता है । पिण्ड पट के समान घट नहीं है; क्योंकि पिण्ड पदार्थ वर्तमान है। पिण्ड पर्याय के अतीत हो जाने पर वह पर्याय अन्य हो जाती है। इसी प्रकार अपनी १. सुहदुक्खे-पा. ज्ञा.। Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२६ [समराइच्चकहा एवंविहो उ अप्पा मिच्छतादीहि बंधए कम्म । सम्मत्ताईएहि य मुच्चइ परिणामभावाओ ॥८१३॥ सकदुवभोगे चेवं कहचिदेगाहिगरणभावाओ। इहरा कत्ता भोत्ता उभयं वा पावइ सया वि ॥८१४॥ वेदेइ जुवाणकयं वुडढो चोराइफलमिहं कोइ। न य सो तओ न अन्नो पच्चक्खाइप्पसिद्धीओ॥१५॥ न य नाणन्नो सोऽहं कि पत्तो पावपरिणइवसेण । अणुहवसंधाणाओ लोगागमसिद्धिओ चेव ॥८१६॥ इय मणयाइभवकयं वेयइ देवाइभवगओ अप्पा। तस्सेव तहा भावा सव्वमिणं होइ उववन्नं ॥१७॥ एगतेण उ निच्चोऽणिच्चो वा कह नु वेयए सकडं । एगसहावत्तणओ तदणंतरनासओ चेव ॥१८॥ एवंविधस्त्वात्मा मिथ्यात्वादिभिर्बध्नाति कर्म । सम्यक्त्वादिभिश्च मुच्यते परिणामभावात् ।।८१३॥ सकृदुपभोगे एवं कथञ्चिदेकाधिकरणभावात् । इतरथा कर्ता भोक्ता उभयं वा प्राप्नोति सदाऽपि ॥ ८१४।। वेदयते युवकृतं वृद्धश्चौरादिफलमिह कोऽपि । न च स ततो नान्यः प्रत्यक्षादिप्रसिद्धितः ।।८१५।। न च नानन्यः सोऽहं किं प्राप्तः पापपरिणतिवशेन । अनुभवसन्धानाद् लोकागमसिद्धित एवम् ।।८१६।। इति मनुजादिभवकृतं वेदयते देवादिभवगत आत्मा। तस्यैव तथा भावात् सर्वमिदं भवत्युपपन्नम् ॥८१७।। एकान्तेन तु नित्योऽनित्यो वा कथं नु वेदयते स्वकृतम् । एकस्वभावत्वात् तदनन्तरनाशत एव ॥८१८॥ आत्मा मिथ्यात्वादि से कर्म बाँधती है और सम्यक्त्वादि परिणामों के सद्भाव से (कर्मों से) मुक्त हो जाती है। एक बार उपभोग करने पर कथंचित् अधिकरण एक होने से दूसरे प्रकार से सदा कोपन, भोक्तापन अथवा दोनों पाता है । इस संसार में कोई व्यक्ति युवावस्था में की हुई चोरी आदि के फल को वृद्धावस्था में भोगता है। ऐसा भी नहीं है कि वह पहले से भिन्न न हो; क्योंकि प्रत्यक्षादि के भेद से सिद्ध है (कि पहले वह जवान था, अब बडढा है)। ऐसी बात भी नहीं है कि वह वही न हो, क्योंकि अनुभव से यह पाया जाता है कि वह व्यक्ति सोचता है कि मैंने पाप के फलस्वरूप क्या प्राप्त किया है। लोक और आगम से भी यह सिद्ध होता है। इस प्रकार आत्मा मनुष्यादि भवों में किये हुए कर्मों को देवादि भवों में भोगती है। उसके उसी (उपर्युक्त) स्वभाव के कारण यह ठीक होता है अर्थात् इसकी सिद्धि ठीक प्रकार से होती है । एकान्त नित्य अथवा अनित्य मानो तो Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्टमो भवो ] जोवसरीराणं पि हु भेयाभेओ तहोवलंभाओ । सुत्तामुत्तत्तणओ छिक्कम्मि पवेयणाओ य ॥ ८१६॥ उभययकडोभयभोगा तदभावाओ य होइ नायव्वो । Turfaceभावा सिं तह संभवाओ य ॥ ८२०॥ एत्थ सरीरेण कडं पाणवहासेवणाए जं कम्मं । तं खलु चित्तविवागं वेएइ भवंतरे जीवो ॥८२१॥ न उतं चैव सरीरं नरगाइसु तस्स तह अभावाओ । भिन्नकडवेयणम्मि य अइप्पसंगो बला होइ ॥ ८२२ ॥ एवं जीवेण कथं कूरमणश्एण जं कम्मं । तं पs रोद्दविवागं वेएइ भवंतरसरीरं ॥ ८२३॥ न उ केवलओ जोवो तेण विमक्कस्स वेयणाभावे । नय सो चेव तयं खलु लोगाइविरोह भावाओ ॥ ८२४॥ जीवशरीरयोरपि खलु भेदाभेदस्तथैवोपलम्भात् । मुक्तामुक्तत्वात् स्पृष्टे प्रवेदनातश्च ॥ ११६ ॥ उभयकृतोभयभोगात् तद्भावाच्च भवति ज्ञातव्यः । बन्धादिविषयभावात् तेषां तथा सम्भवाच्च ॥ ८२०॥ अत्र शरीरेण कृतं प्राणवधासेवनया यत्कर्म । तत् खलु चित्रविपाकं वेदयते भवान्तरे जीवः ॥ ६२१॥ न तु तदेव शरीरं नरकादिषु तस्य तथाऽभावात् । भिन्नकृत वेदने चातिप्रसंगो बलाद् भवति ॥ ८२२॥ एवं जीवेन कृतं क्रूरमनः प्रवत्तेन यत्कर्म । तत्प्रति रौद्रविपाकं वेदयते भवान्तरशरीरम् ॥ ८२३ ॥ न तु केवली जीवस्तेन विमुक्तस्य वेदनाभावे | न च स एव तत्खलु लोकादिविरोधभावात् ।। ८२४॥ अपने किये हुए कर्मों को कैसे भोगेगा ? क्योंकि वह एक स्वभाव वाली है। कर्मों के फल को भोगते समय उसके एक स्वभाव का नाश हो जायेगा। जीव और शरीर का भेदाभेद भी मुक्त और अमुक्त होने तथा स्पर्श होने और उनका अभाव, बन्धादि विषयों का द्वारा किया गया प्राणिबधादि सेवन अनुभव होने से प्राप्त होता है। दोनों के द्वारा किये हुए पारस्परिक भोग, सद्भाव और उनकी उत्पत्ति से प्राप्त हुआ जानना चाहिए । इस शरीर के रूप जो कर्म है उसका विचित्र फल दूसरे भव में जीव भोगता है । वही शरीर शरीर का वहाँ अभाव है । किये हुए कर्म से भिन्न का फल भोगना मानने पर इस प्रकार जीव क्रूर मन से प्रवृत्त होकर जो कर्म करता है, उसका भयंकर परिणाम दूसरे भव के शरीर में भोगता है | वेदनीय कर्म से रहित हुआ केवली उसके फल को नहीं भोगता है। लोकादि के विरोधी भाव होने नरकादि में नहीं है; क्योंकि वैसे बलात् अतिप्रसंग दोष होता है । ७२७ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२८ [समराइच्चकहा एवं चिय देहवहे उवयारे वा वि पुण्णपावाई । इहरा घडाइभंगाइनायओ नेव जुज्जति ॥२५॥ तयभिन्नम्मि य नियमा तन्नासे तस्स पावइ नासो। इहपरलोगाभावा बंधादीणं अभावाओ॥८२६॥ देहेणं देहम्मि य उवभायाणुग्गहाइ बंधादी। न पुण अमुत्तो मुत्तत्स अप्पणो कुणइ किंचिदवि ।।८२७॥ अकरेंतो य न बज्झइ अइप्पसंगा सदेव भावाओ। तम्हा भेयाभए जीवसरोराण बंधाई ।।८२८॥ मोक्खो वि य बद्धस्सा तयभावे स कह कीम वा न सया। किं वा हेऊहि तहा कहं व सो होइ पुरिसत्यो॥२६॥ तम्हा बद्धस्स तओ बधो वि अणाइमं पवाहेण । इहरा तदभावम्मी पुत्वं चिय मोक्ख संसिद्धी ॥८३०॥ एवमेव देहवधे उपकारे वाऽपि पुण्यपापे । इतरथा घटादिभङ्गादिज्ञातत नैव यज्यते ।।८२५॥ तदभिन्ने च नियमात् तन्नाशे तस्य प्राप्नोति नाशः । इहपरलोकाभावात् बन्धादीनामभावात् ।।८२६॥ देहेन देहे चोपघातानुग्रहादिबन्धादयः । न पुनरमूर्तो मूर्तस्यात्मनः करोति किञ्चिदपि ॥८२७॥ अकुर्वश्च न बध्यतेऽतिप्रसङ्ग त् सदैव भावात् । तस्माद भेदाभेदे जीवशरीरयोर्बन्धादिः ।।८२८॥ मोक्षोऽपि च बद्धस्य तदभावे म कथं कस्माद्वा न सदा। किं वा हेतुभिस्तथा कथं वा स भवति पुरुषार्थः ।।८२६॥ तस्माद् बद्धस्य ततो बन्धोप्यनादिमान् प्रवाहेण । इतरथा तदभावे पूर्वमेव मोक्षसंसद्धिः ।।८३०।। के कारण उसे वह पाप नहीं लगता। इस प्रकार देह का वध होने अथवा उसका उपकार होने पर भी उसे पुण्य और पाप की प्राप्ति युक्त नहीं है। जैसे घटादि के नाश से पुण्य-पाप की प्राप्ति नहीं होती। शरीर और आत्मा के एक होने अथवा मिली-जली स्थिति होने पर शरीर का नाश होने पर कथंचित् आत्मा का नाश होता है। यदि बन्धादि को नहीं मानोगे तो इहलोक और परलोक का अभाव हो जायेगा। तथा देह से देह का उपघात, अनुग्रह एवं बन्धादि होते हैं। अमूर्त आत्मा का मूर्त कुछ भी (उपकार वगैरह नहीं करता है। न करता हुआ विद्यमान होने से सदैव अतिप्रसंग दोष से युक्त नहीं होता है । अत: भेदाभेद मानने पर जीव और शरीर के बन्धादि हैं। मोक्ष भी बद्ध का होता है, सदैव से मोक्ष नहीं है । बन्धन न हो तो मोक्ष कैसे और किससे होगा ? अथवा किस हेतु से (अथवा) कैसे मोक्ष पुरुषार्थ होगा ? अत: बद्ध का बन्ध भी प्रवाह से अनादि है। यदि ऐसा नहीं मानोगे, भिन्न प्रकार से मानोगे तो पहले ही मोक्ष की सिद्धि हो जाना चाहिए ॥ ७८३.८३०॥ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो भवो] ७२६ अणभयवतमाणो बंधो कयगत्तगाइमं कह न । जह उ अईलो कालो तहाविहो तह पवाहेण ॥८३१॥ दीसइ कम्मोवचओ संभवई तेण तस्स विगमो वि। कणामस्स य तेण उ मुरको मुक्को ति नायवो ॥३२॥ एमाइभाववाओ जत्थ तओ होइ तावमुद्धो ति। एस उनाएओ खलु बुद्धिमया धीरपुरिसेण ।।८३३॥ एयस्स उवायाणं काउ आसेविऊण भावेण । पत्ता अणंतजीवा सासयसोखं लहुं मोक्ख ॥८३४॥ ता पडिवजह सम्मं धम्ममिण भादओ मए भणियं । अन्चंतदुल्लहं खलु करेह सालं पणुयजम्मं । ८३५॥ इय भणिऊण जाए तुधिरके तवखणं जिणवरम्मि। परिसा कयंजलिउडा धणियं परिओसमावन्ना ॥८३६॥ अनुभूतवर्तमानो बन्धः कृतकत्वानादिमान कथं नु । यथा त्वतोतः कालस्तथाविधस्तथा प्रवाहेण । ८३१॥ दृश्यते कर्मोपचयः सम्भवति तेन तस्य धिगमोऽपि । कनकमलस्य च तेन तु मुक्तो मुक्त इति ज्ञातव्यः ।। ८३२।। एवमादिभाववादो यत्र ततो भवति तापशद्ध इति । एष उपादेयः खलु बुद्धिमता धीरपुरुषण ।।८३३॥ एतस्योपादानं कर्तुमासेव्ध भावेन । प्राप्ता अनन्ता जीवा शाश्वत पौख्यं लघु मोक्षम् ।।८३४।। ततः प्रतिपद्यध्वं सम्यग् धर्ममिमं भावतो मया भणितम । अत्यन्तदुर्लभं खलु कुरुत सफलं मनु नजन्म १८३५॥ इति भणित्वा जाते तूष्णिके तत्क्षणं जिनवरे । परिषत् कृताञ्जलिपुटा गाढं परितोषमापन्ना ।। ८३६॥ शंका – अनुभव किया हुआ और वर्तमान बन्ध कृतक होने से अनादि कैसे है ? समाधान-जैसे अतीत और वर्तमान समय का प्रवाह चला आ रहा है उसी प्रकार से कर्मों का बन्ध अनादि है। देखा जाता है कि कर्मों की वृद्धि सम्भव है अत: उसका नाश भी सम्भव है। जैसे स्वर्ण मल से मुक्त होवर ही मुबत कहा जाता है उसी प्रकार जीव भी कर्म-बन्धन से मुक्त होकर मुक्त कहलाता है। जैसे सोला अग्नि में शुद्ध होता है उसी प्रकार जीव भी ध्यानाग्नि आदि के द्वारा शुद्ध हो जाता है - ऐमा बुद्धिमान और धीर पुरुष को निश्चित रूप से ग्रहण करना चाहिए। सेवन करने के भाव से इसे ग्रहण कर अनन्त जीन शाएवन सुखवाले मोक्ष को शीघ्र प्राप्त हुए हैं। अत: मेरे द्वारा कहे गये इस धर्म को भलीप्रकार से भावपूर्वक प्राप्त करो और अत्यन्त दुर्लभ मनुष्यजन्म को निश्चित रूप से सफल करो। मा कहकर उसी क्षण जिनवर के मौन हो जाने पर सभा अलि Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३० [ समराइच्चकहा धरणिनमिउतिमंगा इच्छामो सासणं ति जपती। उन्नामियमहकमला पुणो वि ठाणं गया निययं ।।८३७॥ तत्थ य केइ पवन्ना सम्मत्तं देसविरइवयमन्ने । अन्ने उ चत्तसंगा जाया समणा समियपावा ।।८३८॥ एत्थंतरम्मि य मए दिट्ठा देवी तहि समोसरणे । जाया य मज्झ चिता हंत कुओ एत्थ देवि त्ति ।।८३६॥ सरियं च मन्तसिद्धस्स तं मए पुटवमंतिथं वयणं । परिधितियं च एत्थं पुच्छामि जिणं नियाणं ति ॥८४०॥ कि पुण मए कयं परभवम्मि जस्सोइसो विवागो ति। देवीविरहम्मि दढं अणहूयं दारुणं दुक्खं ।।८४१॥ परिपुच्छिओ य एयं नमिऊण मए जिणो निरवसेसं । पुवकय कम्मदोसं तओ वि इय कहिउमाहत्तो॥८४२॥ धरणीनतोत्तमाङ्गा इच्छामः शासन मिति जल्पन्ती। उन्नामितमुखकमला पुनरपि स्थानं गता निजकम् ।।८३७।। तत्र च केऽपि प्रपन्नाः सम्यक्त्वं देशविरतिव्रतमन्ये । अन्ये तु त्यक्त सङ्गा जाता: श्रमणाः शमितपापाः ॥८३८॥ अत्रान्तरे च मया दृष्टा देवी तत्र समवसरणे । जाता च मम चिन्ता हन्त कुतोऽत्र देवीति ।। ८३६॥ स्मृतं च मन्त्रसिद्धस्य तन्मया पूर्वमन्त्रितं वचनम् । परिचिन्तितं चात्र पृच्छामि जिनं निदान मिति ।।८४०।। किं पुनर्म या कृतं परभवे यस्पेदशो विपाक इति । देवीविरहे दृढमनुभूतं दारुणं दुःखम् ॥८४१।। परिपष्टश्चैतद् नत्वा मया जिनो निरवशेषम् । पूर्वकृतकर्म दोषं ततोऽपीति कथयितुमारब्धः ॥८४२॥ बाँधकर सन्तोष को प्राप्त हुई। पृथ्वी पर सिर रखकर 'शासन की इच्छा करते हैं'---ऐसा कहती हुई सभा मुखकमल को ऊँचा कर पुन: अपने स्थान चली गयी। वहाँ पर कुछ लोग सम्यक्त्व को प्राप्त हुए. कुछ लोग देशविरतिव्रत को प्राप्त हुए। दुसरे पापों को शान्त कर परिग्रह त्यागकर श्रमण हो गये। इसी बीच वहाँ समवसरण में मैंने महारानी को देखा और मुझे चिन्ता हुई कि हन्त ! देवी यहाँ कहाँ से ? मन्त्रसिद्ध करनेवाले का पह ने कहा हुआ वह वचन मुझे याद आया और मैंने सोचा कि मैं यहाँ जिनेन्द्र भगवान् से कारण पूडूंगा कि मैंने परभव में क्या किया था जिसका ऐसा फल हुआ कि महारानी के विरह से अत्यन्त दारुण दुःख का अनुभव किया। मैंने जिनेन्द्र को नमस्कार कर सम्पूर्ण रूप से यह पूर्वकृत कर्म का दोष पूछा। अनन्तर उन्होंने कहना Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो भवो ] अस्थि इहेव गिरिवरो जम्बुद्दीवम्मि भारहे वासे । विको' त्ति सिहरसंचयपज्जलियम होसहिसणाहो ॥। ८४३ ॥ दरियगय दलिय परिणय हरियंदण सुरहिपसरियामोओ । फल पुट्ठतरुवर द्वियविहंगण विरुयसद्दालो || ८४४ | नामेण सिहरसेणो तत्थ तुम आसि सबरराओ त्ति । बहुसत्तघायणरओ अच्चतविसयगिद्धो य ॥ ८४५॥ तत्थ अणेगाणि तुमे वराहबसपसयहरिणजुयलाई । रणे विओइयाई भीयाइ सुहाभिलासीणि ॥ ८४६ ॥ देवी वि य ते एसा तुह जाया आसि सिरिमई नाम | वक्कलदुगुल्लवसणा गुंजाफलमालियाहरणा ॥ ८४७ ॥ स तु इमीए सद्धि सच्छंद गिरिनिउंजदेसेसु । विसयहमणहवंतो चिट्ठसि काले निदाहम्मि ||८४८॥ अस्तीहैव गिरिवरो जम्बूद्वीपे भारते वर्षे | विन्ध्य इति शिखरसंचयप्रज्वलितमहौषधिसनाथः ॥ ८४३ ॥ दृप्तगजदलित परिणत हरिचन्दनसुरभिप्रसृतामोदः । फलपुष्टतरुवर स्थितविहङ्गगणविरुतशब्दवान् ॥ ८४४|| नाम्ना शिखरसेनस्तत्र त्वमासीः शबरराज इति । बहुसत्त्वघातन रतोऽत्यन्त विषयगृद्धश्च ||८४५|| तवानेकानि त्वया वराहवृषपस यहरिणयुगलानि । अरण्ये वियोजितानि भोतानि सुखाभिलाषोणि ॥। ८४६ || देव्यपि च ते एषा तव जायाऽऽसीत् श्रीमती नाम | वल्कलदुकूलवसना गुञ्जाफलमालिकाभरणा || ८४७ || सत्वमनया सार्धं स्वच्छन्दं गिरिनिकुञ्जदेशेषु । विषयसुखमनुभवन् तिष्ठसि काले निदाधे ||८४८ ॥ प्रारम्भ किया -- इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में शिखरों के समूह से देदीप्यमान महौषधियों से युक्त विन्ध्य नामक पर्वत है । वह गर्वीले हाथियों द्वारा तोड़े गये पके हरिचन्दन की सुगन्धित के विस्तार से सुगन्धित है, फलों से पुष्ट श्रेष्ठ वृक्षों पर स्थित पक्षीगणों के शब्दों से शब्दायमान । वहाँ पर तुम अनेक प्राणियों की हिंसा में रत और विषयों के प्रति अत्यन्त आसक्त शिखरसेन नाम के शबर- नरेश थे। उस जंगल में तुमने भयभीत और सुख के अभिलाषी शकर, सांड़, पसय ( मृगविशेष) और हरिणों के जोड़ों को अलग किया । यह महारानी भी तुम्हारी श्रीमती नामक स्त्री थी। वह वल्कल ( पेड़ की छाल के वस्त्र ) और रेशमीवस्त्र धारण करती थी, गुंजाफल की माला उसका आभूषण थी। तुम इसके साथ स्वच्छन्द रूप से ग्रीष्म ऋतु में पर्वतीय निकुंजों में १. विज्झो सि-डे ज्ञा, पा. ज्ञा. । ७३१ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३२ [समराइवकहा एत्थंतरम्मि एक्को गच्छो साहण पहपरिब्भट्ठो। परिखीणो हिंडतो तं देसं आगओ नवरं ॥८४६॥ दठूण साहुगच्छं अणुगंपा तुह मणम्मि उप्पन्ना। हा कि भमंति एए अइविसमे विझकंतारे ॥८५०॥ गंतूण पुच्छ्यिा ते कि हिंडह एत्थ विझरणम्नि। साहूहि तओ भणियं सावय पंथाउ पन्भट्टा ॥८५१॥ भणिओ य सिरिमईए तं सामि महातवस्सिणो एए। उत्तारेहि सपुग्णे भीमाओ विझरण्णाओ८५२॥ पोणेहि य फलमलाइएहि अइविसमतवपरिक्खीणे। नणं निहाणलम्भो एस तुह पणामिओ विहिणा ॥८५३॥ इय भणिएण ससंभमहरिसवसपयट्टपयडपुलएणं। उवणीयाइ सविणयं 'पेसलफलमूलकंदाई ।।८५४॥ अत्रान्तरे एको गच्छ: साधनां पथपरिभ्रष्ट: । परिक्षीणो हिण्डमानस्तं देशमागतो नबरम् ।। ८४६।। दृष्ट्वा साधुगच्छमनुकम्पा तत्र मनस्यत्पन्ना। हा कि भ्रमन्त्येते अतिविषमे विन्ध्य कान्तारे ।।८५०॥ गत्वा पृष्टास्ते कि हिण्डध्वमत्र विन्ध्यारण्ये। साधुभिस्ततो भणित श्रावक ! पथः प्रभ्रष्टाः ८५१॥ भणितश्च श्रीमत्या त्वं स्वामिन् ! महातपस्विन एतान् । उत्तारय सपुण्यान भीमाद विन्ध्यारण्यात् ।।८५२।। प्रोणय च फलमूलादिभिरतिविष तपःपरिक्षोणान् । नूनं निधानलाभ एष तवार्पितो विधिना ॥८५३॥ इति भणितेन ससम्भ्रमहर्षवश प्रवृत्तप्रकट पुल केन । उपनो तानि सविनयं पेशलफलमूलकन्दानि ।।८५४।। विषयसुख का अनुभव करते हुए रहते थे। इसी बीच साधुओं का एक समूह (गच्छ) रास्ता भूलकर अत्यन्त दुर्बल हुआ, भटकते हुए उस स्थान पर आया। साधुसमूह को देखकर तुम्हारे मन में दया उत्पन्न हुई। हाय ! ये अत्यन्त भयंकर विन्ध्याचल के जंगल में क्यों भ्रमण कर रहे हैं ? जाकर उनसे पूछा कि इस विन्ध्यारण्य में आप लोग क्यों घूम रहे हैं ? तब साधुओं ने कहा कि हे श्रावक ! हम रास्ता भूल गये हैं। श्रीमती ने तुमसे कहा ---स्वामी ! इन उत्तम पुण्यवाले महान् तपस्वियों को भयंकर विन्ध्यारण्य से उतारो। अत्यन्त विषम तप से दुर्बल हुए इन्हें फल मूलादि से तृप्त करो। तुम्हारी इस प्रकार की दान देने की विधि से निश्चित रूप से सम्पत्ति का लाभ होगा। इस प्रकार से कहा गया वह शबरराज शीघ्र ही हर्षवश रोमांचित होता हुआ विनयपूर्व क १. पसल-डे. ज्ञा. पा. ज्ञा. । Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठमो भवो ] साहूहि तओ भणियं सावय नेयाणि कप्पणिज्जाणि । अम्हाण जिणवरेह जम्हा समए निसिद्धाणि ॥८५५॥ भणिय तुम तह वि य तुम्भेहि अणुग्गहो उ कायव्वो । अन्नकण गाढं निव्वेओ होइ अम्हाणं ॥ ८५६ ॥ परियाणिऊण भावं नवरं सद्धालयाण गुणजुत्तं । तेहि अणुग्गहत्थं कज्जं हिययम्मि काऊणं ॥ ८५७॥ साहूहि तओ भणियं जइ एवं विगयवण्णगंधाई । ता अम्ह देह नवरं फलाइ चिरकालगहियाई ॥ ८५८ ॥ इ भणिणं तुमए सिग्धं गिरिकंदराउ घेत्तूण | पडिलाहिया तवस्सी परिणयफलमूलकंदेहिं ॥ ८५ ॥ पंथम्म पाडिया तह जायासहिएण सुद्धभावेण । मन्नंतेण कयत्थं अप्पाणं जीवलोगम्मि ॥८६० ॥ साधुभिस्ततो भणितं श्रावक ! नेतानि कल्पनीयानि । अस्माकं जिनवरैर्यस्मात्समये निषिद्धानि ॥ ८५५॥ भणितं त्वया तथापि च युष्माभिरनुग्रहस्तु कर्तव्यः । अन्यथाकृतेन गाढं निर्वेदो भवति अस्माकम् । ८५६ ॥ परिज्ञाय भावं नवरं श्रद्धालुकानां गुणयुक्तम् । तैरनुग्रहार्थं कार्यं हृदये कृत्वा ॥८५७|| साधुभिस्ततो भणितं यद्येवं विगतवर्णगन्धानि । ततोऽस्माकं दत्त नवरं फलानि चिरकालगृहीतानि ||८५८ || इति भणितेन त्वया शीघ्र गिरिकन्दराद् गृहीत्वा । प्रतिलाभिताः तपश्विनः परिणत फलमूलकन्दैः ।। ८५६ ॥ पथि पातितास्तथा जायासहितेन शुद्धभावेन । मन्यमानेन कृतार्थमात्मानं जीवलोके ॥ ८६०॥ सुन्दर कन्दमूल फल ले आया । तब साधुओं ने कहा - 'हे श्रावक ! इन्हें ग्रहण नहीं करेंगे, क्योंकि हमारे जिनवरों शास्त्रों में इनका निषेध किया है।' तुमने कहा- - ' तो भी आप लोग अनुग्रह करें, यदि अनुग्रह नहीं करेंगे तो हम लोगों को अत्यधिक दुःख होगा ।' श्रद्धालुओं के गुणयुक्त भावों को जानकर उन पर अनुग्रह करने का मन में निश्चय कर साधुओं ने कहा- 'यदि ऐसा है तो हम लोगों को वर्ण और गन्ध से रहित बहुत पहले ग्रहण किये गये फलों को दो । ऐसा कहे जाने पर तुमने शीघ्र ही पर्वतीय गुफा से पके फल, मूल और कन्द लेकर तपस्वियों को प्राप्त कराये तथा अपने को संसार में कृतार्थं मानते हुए पत्नी सहित तुमने शुद्ध भाव से मुनियों को रास्ते में ७३३ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३४ [समराइच्चकहा तेहि वि य तुज्झ धम्मो कहिओ जिणदेसिओ सुसाहूहि । पडिवन्ना इय तुब्भे कम्मोवसमेण तं धम्मं ॥८६१॥ दिन्नो य नमोक्कारो सासयसिवसोक्खकारणभूओ। भत्तिभरोणयवयणेहि सो य तुम्भेहि गहिओ ति॥८६२॥ मणिऊण तह य तुब्भं जम्मं कम्माणुहावचरियं च । साहूहि समाइटें कायवमिणं ति तुहिं ।। ८६३॥ पक्खस्सेगदिणम्मी आरंभं वज्जिऊण सावज्ज । पइरिक्कसंठिएहि अणुसरियव्वो नमोक्कारो॥८६४॥ तम्मि य दिणम्मि तुन्भं जइ वि सरीरविणिवायणं कोइ। चितेज्ज तह करेज्ज व तहावि तुब्भेहि खमियव्वं ॥८६५॥ एवं सेवंताणं तम्भं जिणभासियं इमं धम्म । अचिरेण होहिइ धुवं मणहरसुरसोक्खसंपत्ती॥६६॥ तैरपि च तव धर्मः कथितो जिनदेशितः सुसाधुभिः । प्रतिमन्नाविति युवां कर्मोपशमेन तं धर्मम् ।।८६१।। दत्तश्च नमस्कारः शाश्वत शिवसौख्यकारणभूतः। भक्तिभरावनतवदनाभ्यां स च युवाभ्यां गृहीत इति ।।८६२॥ ज्ञात्वा तथा च युवयोर्जन्म कर्मानुभावचरितं च।। साधुभिः समादिष्टं कर्तव्यमिदमिति युवाभ्याम् ।। ८६३।। पक्षस्यैकदिने आरम्भं वर्जयित्वा सावद्यम्। प्रतिरिक्तसंस्थिताभ्यामनुस्मर्तव्यो नमस्कारः ॥८६४।। तस्मिश्च दिने युवयोर्यद्यपि शरीरविनिपातनं कोऽपि । चिन्तयेत् तथा कुर्याद्वा तथापि युष्माभ्यां क्षन्तव्यम् ॥८६५।। एवं सेवमानयोर्यवयोजिनभाषितमिमं धर्मम् । अचिरेण भविष्यति ध्रुवं मनोहरसुरसौख्यसम्पत्तिः ।।८६६।। पहुंचा दिया। उन अच्छे साधुओं ने भी तुम्हें जिनदेशित धर्म कहा। तुम दोनों ने कर्मों के उपशम से उस धर्म को प्राप्त किया । शाश्वत मोक्षरूपी सुख के कारणभूत नमस्कार को कर भक्ति के आधिक्य से अवनत मुखवाले तुम दोनों ने वह धर्म ग्रहण किया । तुम दोनों के जन्म, कर्म, प्रभाव और चरित जानकर साधुओं ने तुम दोनों को कर्तव्य का उपदेश दिया-'पक्ष (पन्द्रह दिन) के एक दिन सावध आरम्भ का त्यागकर एकान्त स्थान में बैठकर नमस्कार मंत्र का स्मरण करना । उस दिन तुम दोनों के शरीर का कोई घात सोचे या कर दे तो भी तुम दोनों उसे क्षमा कर देना। इस प्रकार जिनेन्द्र कथित धर्म का सेवन करने पर तुम दोनों को शीघ्र ही मनोहर देवसुखों की प्राप्ति निश्चित रूप से होगी।' तुम दोनों ने भी भक्तिपूर्वक उत्तम साधुओं के वचन सुनकर 'ऐसा ही Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठमो भवो ] तुम्भेहि विभत्तीए सोऊणमिण सुसाहवयणं ति । एवं ति अब्भवमयं गएहि साहूहि चिष्णं च ॥ ८६७॥ तह चैत्र कंचि कालं अन्नोन्नवड्ढमाणसड्ढेहि । अह अन्नया य तुब्भं पोसहपडिम पवन्नाणं ॥ ८६८ ॥ तुंग मिसिहरे गयकुंभत्थलवियारणेक्करसो । धुपगकेसर सदो दरियमइदो समल्लीणो । तं दट्ठूणं तुमए तब्भीयं सिरिमई नि ऊण ॥ ८६ ॥ वामकरगोयरत्थं गहियं कोदण्डमुद्दामं ॥ ८७० ॥ भणियं च भीरु मा भायसु ति एयस्स मं समल्लीणा । एसो हु पसवराया ममेरकसरवासज्योति ॥ ८७ ॥ तो सिरिमईए भणियं एवं एवं ति कोऽत्थ संदेहो । कि त गुरुवणमेयं पामुक्कं होइ अम्हेहि ॥ ८७२ ॥ युवाभ्यामपि भक्त्या श्रुत्वेदं सुसाधुववनमिति । एवमित्यभ्युपगतं गतेषु साधुषु चीर्णं च ॥ ८६७॥ तथैव कञ्चित् कालमन्योन्यवर्धमानश्रद्धाभ्याम् । अथान्यदा च युवयोः पोषधप्रतिमां प्रपन्नयोः ॥ ८६८ || तु विन्ध्यशिखरे गजकुम्भस्थल विदारणकरसः । धुतनिङ्गकेसरसटो दृप्तमृगेन्द्रः समालीनः ||८६६॥ तं दृष्ट्वा त्वया तद्भीतां श्रीमतीं दृष्ट्वा । वामकरगोचरस्थं गृहीतं कोदण्डमुद्दामम् ॥ ८७०॥ भणितं च भीरु ! मा बिभीहीति एतस्माद् मां समालीना । एष खलु मृगराजो ममैकशरपातसाध्य इति ॥ ८७१ ॥ ततः श्रीमत्या भणितं एवमेतदिति कोऽत्र सन्देहः । किन्तु गुरुवचनमेतत् प्रमुक्तं भवत्यावाभ्याम् ॥ ८७२ || करेगे'—कहकर स्वीकार किया । साधु चले गये । तुम दोनों ने ( धर्म का पालन किया। इस प्रकार एक दूसरे प्रति श्रद्धा बढ़ाते हुए तुमने कुछ समय बिताया । अनन्तर एक बार तुम दोनों ने प्रोषधोपवास प्रतिमा धारण की । तब ऊंचे विन्ध्याचल के शिखर पर हाथी के गण्डस्थल को चोरने में एक मात्र रसवाला, गर्दन के उज्ज्वल तथा पीले बालों वाला एक गर्वीला सिंह मिला। तुमने उसे देखकर और उससे भयभीत श्रीमती को देखकर बायें हाथ में (बायीं ओर) स्थित उत्वट धनुष को लिया और कहा- 'बरी डरपोक ! मत डरो, यह मुझे मिला है, यह सिंह मेरे एक बाण के द्वारा मारा जाकर साध्य है।' अनन्तर श्रीमती ने कहा- 'यह ठीक हैं, इसमें सन्देह क्या है ! किन्तु इससे हम लोग गुरु के वचनों को छोड़ देंगे, क्योंकि गुरुओं ने कहा था कि तुम दोनों के ७३५ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चकहा जम्हा गरूहि भणियं सरीरविणिवायणं पि तब्माण । जइ कोइ तम्मि दियहे करेज्ज तुम्भेहि खां यच्वं ।।८७३॥ ता कह गुरूण वयणं सुमरंतेहि गुणभूसियं नाह। परलोयबंधुभूयं कोरइ विवरीयमम्हेहिं ॥८७४॥ अह मोत्तण धणवरं तमए तो सिरिमई इमं भणिया। सच्चं गुरूण वरणं कह कीरइ अन्नहा सुयणु ॥८७५॥ तुह नेहमोहिएणं मए बि एयमिह ववसिय आसि । ता अलमेएण पिए गुरुवयणे आयरं कुणसु ॥८७६॥ एत्थंतरम्मि रुंजियसद्देण नहंगणं स पूरेतो। महिदिन्नतलपहारो उढिओ तुज्झ सीहो ति॥८७७॥ परिचितियं च तुमए गुरूवएसपरिवालणानिहसो। उक्यारि च्चिय एसो अम्हाणं पसवनाहो त्ति ॥८७८॥ यस्माद् गुरुभिर्भणित शरीरविनिपातनमपि युवयोः । यदि कोऽपि तास्मन् दिवसे कुर्याद् युवाभ्यां क्षन्तव्यम् ॥८७३॥ ततः कथं गुरूणां वचनं सरद्भ्यां गुणभूषितं नाथ । परलोकबन्धुभूतं क्रियते विपरीतमावाभ्याम् ॥७७४॥ अथ मुक्त्वा धनुर्वरं त्वया ततः श्रीमतीदं भणिता। सत्यं गुरूणां व वनं कथं क्रियतेऽन्यथा सुतनु ! ॥८७५॥ तव स्नेहमोहितेन भय ऽप्येतदिह व्यवसितमासीद् । ततोऽन मेते। प्रिये ! गुरुवचने आदरं कुरु । ८७६।। अत्रान्तरे रुजितशब्देन नभोङ्गणं स पूरयन् । महीदत्ततलप्रहार उपस्थि स्तव सिंह इति ॥८७७॥ परिचिन्तितं च त्वया गुरूपदेशपरिपालनानिकषः । उपकार्येव एष आवयोः मृगनाथ इति । ८७८॥ शरीर का कोई उस दिन घात भी करे तो भी तुम दोनों उसे क्षमा कर देना। अत: हे नाथ ! परलोक के बन्धभूत और गुणों से भूषित गुरु के वचन को स्मरण करते हुए हम दोनों विपरीत (आचरण) कैसे कर सकते हैं ?' इसके बाद श्रेष्ठ धनुष को छोड़कर तुमने श्रीमती से यह कहा - 'हे सुन्दरी ! सचमुच गुरुओ के वचन अन्यथा कैसे कर सकते हैं ? मैंने भी तुम्हारे स्नेह से मोहित होकर यह निश्चय किया था। अतः हे प्रिये, इससे बस ! अर्थात् इसे मारना व्यर्थ है, गुरुवचनों के प्रति आदर करो।' इसी बीच भयंकर गर्जन के शब्द से आकाश रूसी आँगन को व्याप्त करता हुआ वह सिंह अपने तलुए से पृथ्वी पर प्रहार करता हुआ तुम्हारे पास आया और तुमने सोचा कि गुरु के उपदेश का पालन करने के लिए कसोटी के तुल्य यह सिंह हम दोनों का उपकारी ही है ।।८३१-८७८॥ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो भवो] ७३७ इय चितितो य तमं नहरेहि वियारिओ सुतिखेहि । कुविएण अकुवियमणो जायासहिओ मइंदेण ॥८७६॥ अहियासिओ य तमए जायासहिएण सो उवसग्गो। जो कुपुरिसाण सावय अच्चत्थं दुरहियासो ति ॥८८०॥ चइऊण तओ देहं विसुद्धचित्ताइ दो वि समकालं । सोहम्मे उववन्नाइ इढिमंताइ सयराहं ॥ ८८१॥ पलिओवमाउयाई तत्थ य भोए जहिच्छिए भोत्तुं । खोणाउयाइ तत्तो चइऊण इहेव दीवम्मि ॥८८२॥ जायाइ जत्थ जह वा संजोयं संदरं च पत्ताई। जह पाविओ य दुक्खं विरसं तह संपयं सुणसु ॥८८३॥ अवरविदेहे खेत्ते चक्क उरं नाम पुरवरं रम्म । उत्तुंगधवलपायारमंडियं तियसनयरं व ॥८८४॥ इति चिन्तयश्च त्वं नखरैर्विदारितः सुतीक्ष्णैः । कुपितेनाकुपितमना जायासहितो मृगेन्द्रेण ।।८७९॥ अध्यासितश्च (सोढश्च) त्वया जायास हितेन स उपसर्गः। यः कापुरुषाणां श्रावक ! अत्यर्थं दुरध्यास इति ।।८८०॥ त्यक्त्वा ततो देहं विशद्धचित्तौ द्वावपि समकालम् ॥ सौधर्मे उपपन्नौ ऋद्धिमन्तौ शीघ्रम् ॥८८१॥ पल्योपमायुष्कौ तत्र च भोगान् ययेप्सितान् भुक्त्वा । क्षीणायुष्कौ ततश्च्युत्वा इहैव द्वीपे ।।८८२॥ जातौ यत्र यथा वा संयोगं सन्दरं च प्राप्तौ। यथा प्राप्तश्च दु:खं विरसं तथा साम्प्रतं शृणु ॥८८३॥ अपरविदेहे क्षेत्रे चक्रपरं नाम पुरवरं रम्यम् । उत्तुङ्गधवलप्राकारमण्डितं त्रिदशनगरमिव ।।८८४॥ जब तुम ऐसा सोच ही रहे थे, कि कोपरहित मनवाले तुम्हें पत्नी सहित सिंह ने क्रोधाभिभूत हो तीक्ष्ण खूनों से चीर डाला। तुमने पत्नी सहित उस उपसर्ग को सहन किया जो हे श्रावक ! कायर पुरुषों के लिए अत्यन्त कठिन है। अनन्तर शरीर त्याग कर शुद्धि मनवाले तुम दोनों एक ही समय सौधर्म स्वर्ग में ऋद्धिधारी देव हुए। पल्योपम आयुवाले तुम दोनों वहाँ पर यथेष्ट भोग भोगकर, आयु क्षीण होने पर वहाँ से च्युत होकर, इस द्वीप में उत्पन्न हुए, जहाँ पर सुन्दर संयोग को पाकर भी जिस प्रकार कठिन दुःख को तुमने प्राप्त किया उसे श्री इस समय सुनें ॥८७६-२८३॥ गचिम बिहक्षेत्र में चकपुर नाम का सुन्दर नगर था, जो कि ये शुभ प्रकार से मण्डित होकर Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३८ [समराइन्धकहा तत्थासि पत्थिवो वासवो व्व चरपरिसलोयणसहस्सो। सइ वढियविसयसुहो नामेणं कुरुमियंको ति ॥८८५॥ तस्सासि अग्गमहिसी देवी नामेण बालचंद त्ति। तीसे गम्भम्मि तमं चइऊण सुहम्मि उववन्नो ॥८८६॥ देवी वि य ते रन्नो सास्स सुभसणस्स गेहम्मि । उववन्ना कयउण्णा कुरुमइदेवीए कुच्छिसि ॥८८७॥ ताण बहुएहि दोण्ह वि मणोरहसएहि दिणे पसथम्मि। जायाइ तया तुब्भे रूवाइगणेहि कलियाई ॥८८८॥ तत्य य समरमियंको नाम तह ठावियं गुरुयणेण । देवीए वि य नाम असोयदेवि त्ति संगीयं ।।८८६॥ कालेण दोण्णि वि तओ सयल कलागहणदुस्वियड्ढाइं। कुसुमाउहवरभवणं जोवणमह तत्थ पत्ताई॥८६०॥ तत्र सीत् पार्थिवो वासव इव चरपरुषलोचनसहस्रः । सदा वधितविषयसुखो नाम्ना कुरुमृगाङ्क इति ।।८८५।। तस्यासीदग्र महिषी देवी नाम्ना बालचन्द्रेति । तस्या गर्भे त्वं ३च्युत्वा सुखेनोपपन्नः ॥८८६।। देव्यपि च ते राज्ञः सालस्य सुभूषणस्य गहे । उपपन्ना कृतपण्या करुमतीदेव्याः कुक्षौ ।।८८७।। तयोर्बहुभिर्द्व योरपि मनोरथशतैः दिने प्रशस्ते। जाती तदा युवां रूपादिगुणैः कलितौ ।।८८८॥ तत्र च समरमगाङ्को नाम तव स्थापितं गरजनेन । देव्या अपि च नाम अशोकदेवीति संगीतम् ।।८८६।। कालेन द्वावपि ततः सकल कलाग्रहण दुर्विदग्धौ । कुसुमायुधवरभवनं यौवनमथ तत्र प्राप्तौ ॥८६०।। देवनगर के समान मालूम पड़ता था। वहाँ पर इन्द्र के समान गुप्तचर रूप हजार नेत्रोंवाला, सदैव विषयसुख को बढ़ाने वाला, 'कुरुमगांक' नाम का राजा था। उसकी पटरानी बालचन्द्रा नाम की महारानी थी। तुम च्युत होकर उसके गर्भ में सुखपूर्वक आये। तुम्हारी देवी भी राजा के साले सृभूषण के घर पुण्यवती कुरुमती देवी के उदर में आयी । तुम दोनों उन दोनों के सैकड़ों-सैकड़ों मनोरथों से शुभ दिन में उत्पन्न हुए। अनन्तर तुम दोनों रूप और गणों से युक्त हुए। वहाँ पर माता-पिता ने तुम्हारा नाम समरमृगांक और देवी का नाम अशोकदेवी रखा। समय पाकर तुम दोनों समस्त कलाओं के ग्रहण करने में निपुण हुए। पश्चात कामदेव के श्रेष्ठ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो भवो ] दिन्ना असोयदेवी तइया तुझं सुभूसणनिवेण । परिणीया य तए वि य सुपसत्थविवाहजोएण ॥८६१॥ भुजंताण पयामं विसयसुहं नवर वच्चए कालो। तम्हाण सपरिओसं अन्नोन्नं बद्धरायाणं ॥८६२॥ अह अन्नया पिया ते पलियं दळूण जायसंवेओ। दाऊण तुज्झ रज्जं देवीए समं स पव्वइओ ॥८६३॥ जाओ य तुमं राया निज्जियनियमंडलो सरज्जम्मि । चिट्ठसि विसयपसत्तो भुंजतो मणहरे भोए ।।८६४॥ अह तिरिय विसंजोयणनियतग्घायजणियकम्मरस । एत्थंतरम्मि विरसो साक्य जाओ विवाओ त्ति ॥८९५॥ आसि तहि चिय विजए' भंभानयर म्मि सिरिबलो राया। तेण सह तुज्झ जाओ अणिमित्तो विग्गहो कहवि ॥८६६॥ दत्ता अशोकदेवी तदा तव सभूषणनपेण । परिणोता च त्वयाऽपि च सुप्रशस्तविवाहयोगेन ॥८६१॥ भजतो: प्रकामं विषयसुखं नवरं व्रजति कालः । युवयोः सपरितोषमन्योन्यं बद्धरागयोः ।।८६२॥ अथान्यदा पिता ते पलितं दृष्ट्वा जातसंवेगः । दत्त्वा तव राज्यं देव्या समं स प्रवजितः ॥८६३॥ जातश्च त्वं राजा निजितनिजमण्डलः स्वराज्ये । तिष्ठसि विषयप्रसक्तो भुजन् मनोहरान् भोगान् ।।८६४।। अथ तिर्यविसंयोजननिर्दयतद्घातजनितकर्मणः । अत्रान्तरे विरसः श्रावक ! जातो विपाक इति ।।८६५।। आसीत्तत्रैव विजये भंभानगरे श्रीबलो राजा।। तेन सह तव जातोऽनिमित्तो विग्रहः कथमपि ॥८६६।। निवास यौवन को प्राप्त हुए। तब सुभूषण राजा ने तुम्हें अशोकदेवी दी। तुमने भी उसे शुभविवाह के योग में विवाहा । सन्तोषसहित परस्पर राग में बँधे हुए, इच्छानुसार विषयसुख को भोगते हुए तुम दोनों का समय बीता। तदनन्तर तुम्हारे पिता पके हुए बाल को देखकर विरक्त हो गये और तुम्हें राज्य दे महारानी के साथ प्रवजित हो गये। अपने मण्डल को जीते हुए तुम अपने राज्य पर राजा के रूप में विराजमान हुए और विषयों में अनुरक्त हो मनोहर भोगों को भोगते हुए रहने लगे। इसके बाद तिर्यंचों का वियोग और निर्दयतापूर्वक उनका घात करने के दुष्ट कर्मों का फल इसी बीच, हे श्रावक, तुम्हारे उदय में आया । उसी देश के भम्भानगर में श्रीबल नाम का राजा था। उसके साथ तुम्हारा बिना कारण ही किसी प्रकार युद्ध हुआ । तुम्हारे जो प्रधान योद्धा थे वे १. विजोयण-डे. ज्ञा.। २. चियदि समल्लीए रवानमारमि--- हा.। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४० तुह जे पहाणजोहा ते सव्वे सिरिबलं समल्लीणा । अन्भुवनओ तुमाए तेण समं तह वि संगामो ॥ ८७॥ जाय तम्मितइया महाविमद्देण सिरिबलेण तुमं । anarsओ सिसाय विणियनियसेन्न सेसेण ॥ ८८ ॥ मरिण य उववन्नो रोद्दज्झाणेण नवर निरयम्मि । सत्तर ससागराऊ नेरइओ कम्मदोसेण ॥८६॥ सोऊण तुज्झ मरणं असोयदेवी वि उवगया मोहं । 'हित्थेण परियणेणं नवरं आसासिया संती ॥ ६०० ॥ रोज्झाणोवगया काऊणं धम्मविग्घमच्चत्थं । तु नेहमोहियमई नियाणमेवं महापावं ॥ ६०१ ॥ राया समरमियंको उप्पन्नो नवर जत्थ ठाणम्मि । तत्थेव मंदभग्गा जाएज्ज अहं पि नियमेण ||६०२॥ तव ये प्रधानयोधास्ते सर्वे श्रीबलं समालीनाः । अभ्युपगतस्त्वया तेन समं तथापि संग्रामः || ८६७ ॥ जाते च तस्मिन् तदा महाविमर्देन श्रीबलेन त्वम् । व्यापादितोऽसि श्रावक ! विनिहतनिज सैन्यशेषेण ॥ ८८ ॥ मृत्वा चोपपन्नो रौद्रध्यानेन नवरं निरये । सप्तदशसागरायूर्वैरयिकः कर्मदोषेण ॥ ८६ ॥ श्रुत्वा तव मरणमशोकदेव्यपि उपगता मोहम् । त्रस्तेन परिजनेन नवरमाश्वासिता सती ॥ १०० ॥ रौद्रध्यानोपगता कृत्वा धर्मविघ्नमत्वर्थम् । तव स्नेहमोहितमतिर्निदानमेवं महापापम् ॥ ६०१ ॥ राजा समरमृगाङ्क उत्पन्नो नवरं यत्र स्थाने । तव मन्दभाग्या जायेयाहमपि नियमेन ॥ ६०२ || सब श्रीबल से मिल गये तथापि तुमने उसके साथ संग्राम किया । तब हे श्रावक ! संग्राम होने पर महान् योद्धा श्रीबल के द्वारा तुम मारे गये, तुम्हारी शेष सेना भी मारी गयी । रौद्र ध्यान के कारण मरकर कर्म के दोष से प्रथम नरक में सत्रह सागर की आयु वाले नारकी हुए। तुम्हारे मरण को सुनकर महारानी भी मूर्च्छा को प्राप्त हुई । मात्र दुःखी परिजनों से वह होश में लायी गयी । तदनन्तर रौद्रध्यान को प्राप्त कर धर्म में अत्यधिक विघ्न कर तुम्हारे स्नेह से मोहित बुद्धिवाली उसने इस प्रकार के महापापी निदान को किया, 'राजा समरमृगांक जिस स्थान में उत्पन्न हुआ है एक मात्र उसी स्थान में मन्दभाग्य वाली मैं भी नियम से उत्पन्न होऊँ ।' अनन्तर अग्नि १. दिशेणडे, बा [ समराइच्चकहा Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो भवो] ७४१ तो हुयवहं पविट्ठा किलिटुचित्ता य नवर मरिऊण। जत्थेव तुमं नरए इमी वि तत्थेव उववन्ना ॥६०३॥ सत्तरससागराऊ गमिओ दुक्खेण कहवि तुहिं । तत्थ अहाउयकालो निच्चुग्विग्गेहि भीएहि ॥६०४॥ उव्यट्टिऊण य तमं निरयाओ पुक्खरद्धभरहम्मि । जाओ सि गहवइसुओ 'वेण्णाए दरिद्दगेहम्मि ९०५॥ एसा वि तुज्झ जाया तत्थेव य भारहम्मि वासम्मि । जाया दरिद्दधूया नवरं तुझं सजाईए ॥६०६॥ कालेण दोण्णि वि तओ तुब्भे अह जोवणं उवगयाइं। जाओ य कहवि नवरं तत्थ वि तुम्हाण वीवाहो ॥६०७॥ नेहवसेण य तुम्भे तत्थ वि दारिद्ददुक्खविमुहाई। चिट्ठह जहासुहेणं अन्नोन्नं बद्धरायाई ॥६०८॥ ततो हुतवहं प्रविष्टा क्लिष्टचित्ता च नवरं मत्वा । यौव त्वं नरके इयमपि तत्रैवोपपन्ना ॥६०३॥ सप्तदशसागरायुर्गमितो दुःखेन कथमपि युवाभ्याम् । तत्र यथायुःकालो नित्योद्विग्नाभ्यां भीताभ्याम् ॥६०४॥ उद्वर्त्य च त्वं निरयात् पुष्कराईभरते। जातोऽसि गृहपतिसुतो वेण्णायां दरिद्रगेहे ॥६०५॥ एषापि तव जाया तत्रैव च भारते वर्षे । जाता दरिद्रदुहिता नवरं तव सजात्या ।।६०६।। कालेन द्वावपि ततो युवामथ यौवनमुपगतो। जातश्च कथमपि नवरं तत्रापि युवयोविवाहः ॥९०७॥ स्नेहवशेन च युवां तत्रापि दारिद्रयदुःखविमुखौ। तिष्ठथो यथासुखेनान्योन्यं बद्धरागौ ॥६०६॥ में प्रविष्ट होकर दुःखीमन अकेली मरकर जिस नरक में तुम थे उसी नरक में यह भी उत्पन्न हुई। तुम दोनों ने जिस किसी प्रकार सत्रह सागर की आयु बितायी। वहाँ पर नित्य उद्विग्न और भयभीत रहकर आयु पूरी कर तुम दोनों ने मरण प्राप्त किया और तुम नरक से निकलकर पुष्कराच भरत की वेष्णा नगरी में गृहपति दरिद्र के घर पुत्र उत्पन्न हुए। यह तुम्हारी पत्नी भी उसी भारतवर्ष में तुम्हारी सजातीय दरिद्रपुत्री हुई। समय पाकर तुम दोनों युवा हुए और यौवनावस्था को प्राप्त तुम दोनों का वहाँ किसी प्रकार विवाह भी हो गया। स्नेह के वश वहाँ भी तुम दोनों दरिद्रता के दुःख से विमुख होकर सुखपूर्वक रहकर एक दूसरे के प्रति राग में बंधे १. चित्ताए-पा. ज्ञा.। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४२ [समराइच्चकहा अह अन्नहा य दिट्ठा नियए गेहम्मि अच्छमाणेहि । तुब्भेहि साहुणीओ समुयाणकए पविटाओ॥६०६॥ दठ्ठण तओ ताओ सद्धासंवेगपयडपुलएहि । पडिलाहियाउ फासुयभिक्खादाणेण विहिपुव्वं ॥१०॥ कत्थ दियाउ तुब्भ इय पुढाओ य ताहि वि य सिढ़। वसुसेटिघरसमोवे पडिस्सए नयरमज्झम्मि ॥११॥ घेत्तण फल्लनियरं वासरविरमम्मि तो पयट्राई। पुवकहियं सहरिसं पडिस्सयं भत्तिजुत्ताई॥१२॥ पत्ताइं च कमेणं पइसमयं वड्ढमाणसद्धाइं। दिट्ठा य तत्थ गणिणी सुपसंता सुव्वया नाम ॥१३॥ पुरओ संठियपोत्थयनिविद्वदिट्ठी नमंततणुणाला। लोयणभमरभरोणयसुवयणकमला कमलिणि व्व ॥१४॥ अथान्यदा च दृष्टा निजे गेहे आसीनाभ्याम् । युवाभ्यां साध्व्यः समुदानकृते प्रविष्टाः ॥६०६॥ दृष्ट्वा ततस्ताः श्रद्धासंवेगप्रकटपुलकाभ्याम् । प्रतिलाभिताः प्रासुकभिक्षादानेन बिधिपर्वम् ॥६१०॥ कुत्र स्थिता यूयमिति पृष्टाश्च ताभिरपि शिष्टम् । वसुश्रेष्ठिगृहसमीपे प्रतिश्रये नगरमध्ये ॥६११॥ गृहीत्वा पुष्पनिक र वासरविरमे ततः प्रवृत्तौ। पूर्वकथितं सहर्ष प्रतिश्रयं भक्तियुक्तौ ॥६१२॥ प्राप्तौ च क्रमेण प्रतिसमयं वर्धमानश्रद्धौ। दृष्टा च तत्र गणिनो सुप्रशान्ता सुव्रता नाम ॥६१३॥ पुरतः संस्थितपुस्तकनिविष्टदष्टिर्नमत्तनुनाला। लोचनभ्रमरभरावनतसुवदनकमला कमलिनीव ॥६१४॥ होकर रहते थे। इसके बाद एक दिन तुम दोनों को अपने घर में बैठे देखकर आहार के लिए साध्वियां प्रविष्ट हई। अनन्तर उन्हें देखकर श्रद्धा और वैराग्य के कारण जिन्हें रोमांच प्रकट हुए हैं ऐसे तम दोनों ने विधिपूर्वक प्रासूक भिक्षा (आहार) का दान दिया। 'आप सब कहाँ ठहरी हैं?'-ऐसा पूछने पर उन्होंने भी कहा कि नगर के बीच में वसु श्रेष्ठि के घर के पास प्रतिश्रय (आश्रम) में ठहरी हुई हैं। अनन्तर दिन की समाप्ति होने पर भक्ति से युक्त हो हर्षपूर्वक फूलों को लेकर तुम दोनों पहले कहे हुए आश्रम में गये। प्रति समय क्रमश: बढ़ती हुई श्रद्धा वाले तुम दोनों वहाँ पहुँचे, वहाँ सुप्रशान्त सुव्रता नामक गणिनी के दर्शन किये। वह गणिनी सामने रखी हुई पुस्तक पर दृष्टि लगाये हुई थीं, उनका शरीररूपी कमलदण्ड कुछ झुका हुआ था, नेत्ररूपी भौरों के भार से अवनत मुखकमल वाली कमलिनी के समान वह मालूम पड़ रही थीं, कमल के पत्तों से भी अधिक कोमल Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो भवो ] fafrror महत्थाई ठियाइ एक्कारसं पि अंगाई । कमल कोमल वि जीए जोहाए अग्गमि ॥१५॥ सा वंदिया य नवरं गणिणी तुम्भेहि विम्हियमहं । करयलकयंजलिउड हरिसवसुभिन्नपुल एहिं ॥ १६॥ तीए वि धवलपडंतर विणिग्गउत्ताणिएक्ककरकमलं । अधुन्नामियवयणाए भणियं धम्मलाहो ति ॥ १७॥ भणियाणि य जिणयंदे बंदह काऊण कुसुमट्ठति । पुरओ जिणाण जेणं मुच्चह संसारवासाओ ॥ १८॥ काऊ कुसुमवुद्ध गंध कुट्टिमम्मि जिणयंदे | अह वंदिऊण य तओ गणिणीसमोवे निसण्णाई ॥१६॥ गणिणीए तओ भणियं निम्मलपरिणितदसण किरणोहं । परिवसह कत्थ तुम्भे इहेव इय जंप्रमाणेह ॥ २०॥ विस्तीर्ण महार्थानि स्थितानि एकादशापि अङ्गानि । कमलदलकमलेsपि यस्या जिह्वाया अग्रे ॥१५॥ सा वन्दिता च नवरं गणिनी युवाभ्यां विस्मितमनोभ्याम् । करतलकृताञ्जलिपुटं हर्षवशोद्भिन्नपुल काम्याम् ॥ ६१६ ॥ तयाऽपि धलपटान्तरविनिर्गतोत्तानितै ककरकमलम् । अर्धोन्नामितवदनया भणितं धर्मलाभ इति ॥ ६१७॥ भणितौ च जिनचन्द्रान् वन्देथां कृत्वा कुसुमवृष्टिमिति । पुरतो जिनानां येन मुच्येयाथां संसारवासाद् ॥ ११८ ॥ कृत्वा कुसुमवृष्टि गन्धाढ्यां कुट्टिमे जिनचन्द्रान् । अथ वन्दित्वा च ततो गणिनीसमीपे निषण्णौ ॥ १६ ॥ गणिया ततो भणितं निमलपरिंगच्छद्दशन किरणौघम् । परिवसथः कुत्र युवामिहैवेति जल्पतोः ॥ २० ॥ जिनके जीभ के अग्रभाग में विस्तृत महात् अर्थवाले ग्यारह अंग विराजमान थे। विस्मित-मन तुम दोनों ने हर्षवश रोमांचित हो हथेलियों की अंजलि बाँधकर गणिनी की वन्दना की। उन्होंने भी श्वेत वस्त्र से बाहर निकाले गये एक हस्तकमल को ऊपर उठाकर और मुँह को आधा ऊँचा कर धर्मलाभ दिया और तुम दोनों से कहा कि फूलों की वर्षा कर सामने स्थित जिनचन्द्र (और) जिनों की वन्दना करो जिससे संसारवास से मुक्त हो जाओ। इसके बाद गन्ध से व्याप्त फूलों की वर्षा कर जिनचन्द्रों की वन्दना कर तुम दोनों फर्श पर गणिनी के पास बैठ गये । तदनन्तर जिनके दाँतों से निर्मल किरणें निकल रही थीं ऐसी गणिनी ने कहा- 'आप दोनों कहाँ ७४३ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४४ - [समराइच्चकहा तुम्भेहि साहुणीए जीए दिट्ठाइ गोयरगयाए। भणियं अज्जेवम्हे वसहिं पुट्ठाउ एएहि ।। ६२१॥ गोयरगयाउ धणियं सद्धावंताइ तह य एयाई। तित्थयरवंदणत्थं भत्तीए इहागयाइं ति ॥२२॥ गणिणीए तओ भणियं साहु कयं धम्मनिहियचित्ताई। ज एत्थ आगयाइं किच्चमिणं नवर भवियाण ॥२३॥ जम्हा जयम्मि सरणं धम्म मोत्तूण नत्थि जीवाणं । सारीरमाणसेहिं दुक्खेहि अहिदुयाणं ति ।। ६२४॥ न य सो तीरइ काउं जहडिओ वज्जिऊण मणुयत्तं । तं पुण चलं असारं सुविणयमाइंदजालसमं ॥२५॥ लक्षूण माणुसत्तं धम्मं न करेह जो विसयलद्धो। दहिऊण चंदणं सो करेइ अंगारवाणिज्जं ॥२६॥ युवयोः (सतोः) साध्व्या यया दृष्टौ गोचरगतया। भणितमद्यव वयं वसतिं पृष्टा एताभ्याम् ।।९२१॥ गोचरगता गाढ श्रद्धावन्तौ तथा चैतौ । तीर्थकरवन्दनाथ भक्त्या इहागताविति ।।२२।। गणिन्या ततो भणितं साधु कृतं धर्मनिहितचित्तौ। यदत्रागतौ कृत्यमिदं नवरं भविकानाम् ।।६२३॥ यस्माद् जगति शरणं धर्म मुक्त्वा नास्ति जीवानाम् । शारीरमानसर्दुःखैरभिद्रुतानामिति ॥६२४।। न च स शक्यते कतु यथास्थितो जित्वा मनुजत्वम् । तत्सुनश्चलमसारं स्वप्नमृगेन्द्रजालसमम् ।।६२५।। लब्ध्वा मानुषत्वं धर्म न करोति यो विषयलुब्धः । दग्ध्वा चन्दनं स करोत्यङ्गारवाणिज्यम् ॥६२६॥ रहते हैं ?' तुम दोनों ने जब कहा कि यहीं रहते हैं तो जिस साध्वी ने मार्ग बतलाया था उसने कहा-'आज ही हम लोगों से इन दोनों ने वसति (आश्रम) के विषय में पूछा था । मार्ग ज्ञात कर और अत्यधिक श्रद्धावान होकर ये दोनों तीर्थंकर की वन्दना के लिए भक्तिपूर्वक यहाँ आये हैं।' अनन्तर गणिनी ने कहा -'ठीक किया जो कि धर्म को आने चित्त में रखकर आप दोनों यहाँ आये। यह भव्यजनों के योग्य कार्य है; क्योंकि इस संसार में शारीरिक और मानसिक दु:खों से पीड़ित जीवों को धर्म को छोड़ कर (अन्य कोई) शरण नहीं है। वह धर्म मनुष्य भव को छोड़कर (अन्य भवों में) यथायोग्य रीति से नहीं साधा जा सकता है। यह मनुष्य-भव चंचल और असार है, स्वप्नवत् और मगेन्द्रजाल के समान है। विषय का लोभी जो मनुष्यभव पाकर धर्म नहीं करता है वह Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो भवो] .७४५ धम्मेण सयलभावा सुहावहा होंति जीवलोयम्मि। ..... : धम्मेण सासयसुहं लगभइ अचिरेण परमपयं ।।६२७॥ सो उण वियलियराएहि भावओ जिणरिदचंदेहि। होइ परिचितिएहि वि अलाहि कि ता पुलइएहि ॥२८॥ ता सुट्ठ कयं एवं जं दटुं आगयाइ जिणयंदे। जिणसाहुदंसणाई' हंदि वियारेति दुरियाई ॥२६॥.. कहिओ य तीए धम्मो तुब्भेहि वि नवर सुद्धचित्तेहि। पडिवन्नो जिणभणिओ कया य महुमंसविरई य ॥६३०॥ . गमिऊण कंचि कालं नमिऊण जिणे सुसाहुणीओ य। गेहमह पत्थियाइं भणियाणि य नवर गणिणीए ॥ ६३१॥ एज्जह इह पइदियहं एवं चिय तह सुणेज्जह य धम्म। दुक्खविरेयणभूयं पन्नत्तं वीयरागेहि ॥६३२॥ धर्मेण सकलभावाः सुखावहा भवन्ति जीवलोके । धर्मेण शाश्वत सुखं लभ्यतेऽचिरेण परमपदम् ॥६२७।। स पनविगलित रागभावितो जिनवरेन्द्रचन्द्रः । भवति परिचिन्तितैरपि अलं किं तावत् प्रलोकितैः ।।१२८॥ तत: सष्ठ कृतमेतद् यद् द्रष्टुमागतौ जिनचन्द्रान् । .... जिनसाधु दर्शनानि फिल विदारयन्ति दुरितानि ।।६२९॥ .... कथित श्च तया धर्मो युवाभ्यामपि नवरं शुद्धचित्ताभ्याम् । प्रतिपन्नो जिनभणितः कृता च मधुमांसविरतिश्च ॥६३०॥ गमयित्वा कंचित्कालं नत्वा जिनान् स साध्वीश्च । ..... गहमथ प्रस्थितौ भणितो नवरं गणिन्या ॥६३१॥ .... एतमिह प्रतिदिवसमेवमेव तथा शृणुतं च धर्मम् । दुःखविरेचनभूतं प्रज्ञप्तं वीतरागैः ।।६३२॥ चन्दन को जलाकर कोयले का व्यापार करता है । धर्म से संसार में सभी पदार्थ सुखकर होते हैं । धर्म से शीघ्र ही शाश्वत सुखवाला परमपद (मोक्ष) प्राप्त होता है । वह धर्म वीतरागी जिनेन्द्रों का भावपूर्वक भलीभाँति स्मरण मात्र करने से होता है, दर्शन करने की तो बात ही क्या। अतः ठीक किया जो आप दोनों जिनचन्द्रों के दर्शन के लिए आये । जिनेन्द्र भगवान और साधुओं के दर्शन निश्चित रूप से पापों को नष्ट करते हैं। गणिनी ने शुद्धचित्तवाले तुम दोनों को धर्मोपदेश दिया। जिनप्रोक्त वह धर्मोपदेश दोनों ने स्वीकार कर लिया और मध तथा मांस का त्याग किया। कुछ समय बिताकर जिनेन्द्र और सुसाध्वी को नमस्कार करने के बाद दोनों ने घर को प्रस्थान किया । गणिनी ने दोनों से कहा -यहाँ पर इस धर्म को प्रतिदिन सुनो (क्योंकि इसे) वीतरागों ने दुःख को नष्ट १. दंसणाहिं हंदि वियारेहि डरियाइ-पा. ज्ञा.. Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४६ [समराइचकहा पडिवज्जिऊण य तओ गणिणीवयणं गयाणि नियगेहं। हिदुहिययाइ धणियं धम्मम्मि कयाणुरायाई ॥६३३॥ कइवयदिणेसु य तहा जायाइं परमभत्तिजुत्ताई। उक्किट्टसाक्याई विसयसुहनियत्तचित्ताई ॥६३४॥ अणुवालिऊण पवरं सावयधम्में अहाउयं जाव । मरिऊण बंभलोए कंप्पम्मि तओऽववन्नाई। ६३५॥ आउं च तस्थ तुम्भे अहेसि सत्ताहियाइ अयराई। तत्तो चइऊण इह नरवइगेहेसु जायाइं ॥६३६॥ तिव्वं च सवरजम्मे कम्मं तुमए कयं इमीए वि। अणुमोइयं ति तस्स उ परिणामो निरयवासम्मि ॥६३७॥ अणुहूओ चिय तुम्भेहि तह य भरहम्मि खुद्दमणुयभवे । तक्कम्मसेसयाए अणुहूयमिणं तए दुक्खं ॥६३८॥ प्रतिपद्य च ततो गणिनीवचनं गतौ निजगेहम् । हृष्टहृदयो गाढं धर्मे कृतानुरागौ ।।६३३॥ कतिपयदिनेषु च तथा जातो परमभक्तियुतो। उत्कृष्टश्रावको विषयसुखनिवृत्तचित्तौ ॥६३४।। अनुपाल्य प्रवरं श्रावकधर्म यथायुर्यावत् । मृत्वा ब्रह्मलोके कल्प तत उपपन्नौ ॥६३५॥ आयुश्च तत्र युवयोरासीत् सप्ताधिकान्यतराणि । ततश्च्युत्वा इह नरपतिगृहयोतिौ ॥६३६॥ तीवं च शबरजन्मनि कर्म त्वया कृतमनयाऽपि । अनुमोदितमिति तस्य तु परिणामो निरयवासे ॥६३७॥ अनुभूत एव युवाभ्यां तथा च भरते क्षुद्र मनुजभवे । तत्कमशेषतयाऽनुभूतमिदं त्वया दुःखम् ।।१८॥ करनेवाला कहा है। अनन्तर गणिनी के वचनों को स्वीकार कर दोनों अपने घर गये। हर्षित हृदय हो तुम दोनों ने धर्म में अत्यधिक अनुराग किया तथा कुछ दिनों में विषय-सुख से निवृत्तचित्त वाले होकर परमभक्ति से - युक्त हो तुम दोनों उत्कृष्ट श्रावक हो गये। पश्चात् आयुपर्यन्त उत्कृष्ट श्रावक-धर्म का पालन कर मरकर ब्रह्म- लोक नामक स्वर्ग में उत्पन्न हुए । तुम दोनों की आयु वहाँ सात सागर से अधिक थी। वहां से च्युत होकर दोनों यहाँ राजा के घर उत्पन्न हुए। शबरजन्म में तुमने जो तीव्र कर्म किया था और इसने जो अनुमोदन किया था उसका परिणाम नरकवास तथा क्षुद्र मनुष्यभव में भोगा ही। उस कर्म के शेष रह जाने से तुमने इस दुःख का Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो भवो ] ता मणिऊण विवायं एवंविहमेत्थ पावकम्माणं । तह जयह जहा पावह एहि पि पुणो न दुक्खा ॥६३६॥ इय कहियम्मि नियाणे सवित्थरे तत्थ लोयनाहेण । पडिरुद्धमोहपसरं जाओ मे परमसंवेगो ॥६४०॥ भणिओ य तिहुयणगुरू भयवं सिवसोक्खकारणं परमं । गण्हामि तुह समीबे पव्वज्ज तुम्ह वयणेण ॥४१॥ देवीए परियणेण य एवं बहु मन्निऊण मे वयणं । विन्नतो इणमेव उ नियकज्जकएण भुवणगुरू ॥ ९४२॥ भणियं च भुवणगुरुणा अहासुहं मा करेह पडिबंधं । भवगहणम्मि असारे किच्चमिणं नवर भवियाण ॥६४३॥ सोऊण इमं वयणं भावेण पज्जिऊण सयराहं । काऊण लोयमग्गं पडिवन्नं दव्वओ ताहे ॥६४४॥ ततो ज्ञात्वा विपाकमेवंविधमत्र पापकर्मणाम् । तथा यतेथां यथा प्राप्नुतमिदानीमपि पुनर्न दुःखानि ॥६३६॥ इति कथिते निदाने सविस्तरे तत्र लोकनाथेन । प्रतिरुद्धमोहरप्रसरं जातो मे परमसंवेगः ।।६४०॥ . भणितश्च त्रिभुवनगुरुर्भगवन् ! शिवसौख्यकारणं परमम् । गृह्णामि तव समीपे प्रव्रज्यां युष्माकं वचनेन ॥६४१।। देव्या परिजनेन चैवं बहु मत्वा मे वचनम् । विज्ञप्त इदमेव तु निजकार्यकृते भुवनगुरुः ॥९४२।। भणितं भुवनगुरुणा यथासुखं मा कुरुत प्रतिबन्धम् । भवगहने सारे कृत्यमिदं नवरं भविकानाम् ॥६४३।। श्रत्वेदं वचनं भावन प्रव्रज्य शीघ्रम् ।। कृत्वा लोकमार्ग प्रतिपन्नं द्रव्यतस्तदा ।।६४४।। अनुभव किया। अतः इस प्रकार के पापकर्मों का फल जानकर वैसा यत्न करो, जिससे अब भी पुनः दुःख न हो। इस प्रकार लोकनाथ भगवान् जिनेन्द्र ने विस्तृत रूप से जब निदान कहा तो मोह का विस्तार रुक जाने के कारण मुझे अत्यधिक विरक्ति उत्पन्न हुई। और तीनों लोकों के गुरु भगवान् से मैंने कहा कि आपके वचन से आपके ही समीप मोक्षसुख की कारणभूत उत्तम दीक्षा को लेता हूं। मेरे वचनों का आदर कर महारानी और परिजनों ने भी मेरे कार्य के विषय में जगद्गुरु से यही निवेदन किया। जगदगुरु ने कहा कि जिससे सुख हो (ऐसे कार्य में) रुकावट नहीं करना चाहिए; क्योंकि असार गहन भव में यह भव्य जीवों के करने योग्य कार्य है । इस वचन को सुनकर शीघ्र ही भावपूर्वक प्रवजित होकर लोकमार्गानुसार द्रव्यरूप से दीक्षा ग्रहण की। यह मेरा Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४६ [समराइच्चकहा एसो मे वृत्तंतो कणयउरे साहिओ मए रन्नो। मग्गपडिवत्तिमादी इहभवपज्जायपज्जतो।। ६४५॥ एवं स्रोऊण समुप्पन्नो सन्वेसि संवेओ। चितियं च हि-एवं विवागदारुणं मोहचेट्ठियं; अक्खयं च जाणवतं भवसमुद्दे गुरुवयणनिच्छओ ति। वंदिओ भयवं, 'अणुग्गहिया अम्हे भयवया नियवृत्तंतकहणेणं' अहिणंदिओ सबहुमाणं, करयलस्यंजलिउडं विन्नत्तो गुणचंदेण-भयवं, जाणिओ मए भयवओ पहावेण जहटिओ धम्मो, पणट्ठा मिच्छावियप्पा, संजाया भयवंतवलणाराहणि च्छा, ता देहि ताव मे गिहिधम्मोचिया वयाई । विगहेण भणियं-भयवं, ममावि । दिन्नाई भयवया सावयवयाई। गहियाई जहाविहीए। जाया भावसावया। भत्तिबहुमाणेहिं वंदिओ भयवं, धम्मलाहिऊण भणिया य णेणं-कुमार, वियाणिऊण भवओ पडिबोहसमयं रायउराओ अहं एत्थ आगओ, संपन्न च मे जहाहिलसियं । ता तहि चेव गच्छामि। चिट्ठति तत्थ मह सणसुया बहवे साहुणो। पुणो अजोज्झाए मज्झ भवया(विया) दंसणं। सव्वहा दढव्वएण होयव्वं । कुमारेण भणियं--जं भयवं एष मे वृत्तान्तः कनकपुरे कथितो मया राज्ञः। मार्गप्रतिपत्त्यादिरिहभवपर्यायपर्यन्तः ।।६४५॥ एतच्छ त्वा समुत्पन्न: सर्वेषां संवेगः । चिन्तितं च तैः, एवं विपाकदारुणं मोहचेष्टितम्, अक्षतं च यानपात्रं भवसमुद्रे गुरु वचननिश्चय इति । वन्दितो भगवान्, 'अनुगृहीता वयं भगवता निजवृत्तान्तकथनेन' अभिनन्दितः सबहुमानम्, करतलकृताञ्जलिपुटं विज्ञप्तो गुणचन्द्रेण, भगवन् ! ज्ञातो मया भगवतः प्रभावेण यथास्थितो धर्मः, प्रनष्टा मिथ्याविकल्पाः, संजाता भगवच्चरणाराधनेच्छा, ततो देहि तावन्मे गृहिधर्मोचितानि व्रतानि । विग्रहेण भणितम्-- भगवन् ! ममापि । दत्तानि भगवता श्रवकव्रतानि । गृहीतानि यथाविधि । जाता भावश्रावका:। भक्ति बहुमानाभ्यां वन्दितो भगवान् । धर्मलाभयित्वा भणिताश्च तेन-कुमार ! विज्ञाय भवतः प्रतिबोधसमयं राजपुरादहमत्रागतः । सम्न्नं च मे यथाऽभिलषितम्। ततस्तत्रैव गच्छामि। तिष्ठन्ति तत्र मम दर्शनोत्सुका बहवः साधवः। पुनरयोध्यायां मम भविता दर्शनम् । सर्वथा द्रहवोन भवितव्यम् । कुमारण वृत्तान्त है जो कनकपुर में मैंने राजा से कहा था। मार्ग दिखलाने से लेकर इस भव की अवस्था पर्यन्त (यह मेरा वृत्तान्त है)।' ॥८८४-६४५॥ यह सुनकर सभी को वैराग्य उत्पन्न हो गया। उन्होंने सोचा कि मोह की चेष्टा इस प्रकार परिणाम में भयंकर है। संसाररूपी समुद्र में गुरु-वचनों के अनुसार निश्चय करना अक्षय जहाज के समान है, ऐसा सोचकर भावान की वन्दना की। भगवान के द्वारा अपना वृत्तान्त कहे जाने से हम लोग अनुगृहीत हैं—इस प्रकार आदरपूर्वक अभिनन्दन किया।, गुणचन्द्र ने हाथ जोड़कर निवेदन किया-'भगवन् ! मैंने भगवान् के प्रभाव से सही धर्म.जाना.. मिथ्याविकल्प नष्ट हए, भगवान के चरणों की आराधना की इच्छा उत्पन्न हुई अत: मुझे गहस्थ धर्म के योग्य व्रतों को दीज़िये ।' विग्रह ने कहा- 'भगवन् ! मुझे भी (श्रावक के व्रत) दीजिये।' भगवान् ने श्रावक के व्रत दिये । विधिपूर्वक व्रत ग्रहण किये। भावपूर्वक श्रावक हो गये। भक्ति और आदरपूर्वक भगवान् की वन्दना की। धर्मलाभ देकर (भगवान ने) उससे कहा-'कुमार ! आपके प्रतिबोधन का समय जानकर राजपुर से मैं यहाँ आया और मेरा अभीष्ट कार्य सम्पन्न हो गया। अतः वहीं जाता हूँ। वहाँ पर मेरे दर्शन के इच्छुक बहुत से साधु बैठे हैं। अयोध्या में पुन: मेरे दर्शन होंगे। सर्वथा दृढव्रत वाले होओ।' कुमार ने कहः --- 'जो भगवान् आज्ञा दें।' Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो भवो] ७४६ आणवेइ। आगासगमणेण समं सेससाहूहि पयट्टो गुरू। वंदिओ कुमारविगहेहिं पुलइओ य भत्तिनिन्भरेहिं । अदंसणीहूए य वंदिऊण परमभत्तीए पयट्टा अओज्झारि। इओ य तद्दियहमेव गओ अओझं वाणंतरो। कया ग कुमारपरियणासन्ने कवडवत्ता, जहा 'विग्गहेण वावाइओ कुमारो' त्ति । समागया एसा सवणपरंपराए मेसीबलकण्णगोयर, न सद्दहिया य जेण, सया रयणवईए। मच्छिया एसा, समासासिया परियणेण । निवेइयं च रन्नो। समागओ राया, बाहोल्ललोयणं चलणेसु निवडिऊण विन्नत्तो रयणवईए-ताय, अणजाणाहि मं मंदभाईणि, पविसामि जलणं, परिच्चएमि एए अज्जउत्ताकुसलसवणे वि संठिए नि लज्जपाणे, पावेमि लहुं सुरलोयसंठियं अज्जउत्तं । राइणा भणियं-अविहवे, अलमिमिणा सोएण। असदहणीयमेयं । न खलु केसरी गोमाउणा वावाइज्जइ। समाइट्ठो कुमारस्स सिद्धाएसेण तुह पुत्तजम्मो; अवितहाएसो य सिद्धाएसो। अणाउलं च मे हिययं । दिट्टो य मए कुसल सुविणओ। कुमारमंतरेण । जाया उप्पाया। अविवन्ना य तह अविहवासिरी। ता न एयममंगलं एवं हवइ। जम्मंतरवेरिएण केणावि एसा कवडवत्ता कया भविस्सइ। भणितम् यद् भगवान् आज्ञापयति। आकाशगमनेन समं शेषसाधुभिः प्रवृत्तो गुरुः । वन्दितः कुमारविग्रहाभ्यां प्रलोकितश्च भक्तिनिर्भराभ्याम् । अदर्शनीभूते च वन्दित्वा परमभक्त्या प्रवृत्ती अयोध्यापुरीम्। इतश्च तद्दिवस एव गतोऽयोध्यां वानमन्तरः । कृताऽनेन कुमारपरिजनासन्ने कपटवार्ता, यथा “विग्रहेण व्यापादितः कुमारः' इति । समागतैषा श्रवणपरम्परया मैत्रीबलकर्णगोचरम, न श्रद्धिता च तेन । श्रुता रत्नवत्या । मूच्छितैषा, समाश्वासिता परिजनेन । निवेदितं च राज्ञः । समागतो राजा, बाष्पार्द्रलोचनं चरणयोनिपत्य विज्ञप्तो रत्नवत्या-तात ! अनुजानीहि मां मन्दभागिनीम्, प्रविशामि ज्वलनम्, परित्यजाम्येतानार्यपुत्राकुशलश्रवणेऽपि संस्थितान् निर्लज्जप्राणान्, प्राप्नोमि लघु सुरलोकसंस्थितमार्यपुत्रम् । राज्ञा भणितम्- अविधवे ! अलमनेन शोकेन, अश्रद्धानीयमेतद् । न खलु केसरी गोमायुना व्यापाद्यते। समादिष्टः कुमारस्य सिद्धादेशेन तव पुत्रजन्म, अवितथादेशश्च सिद्धादेशः। अनाकुलं च मे हृदयम् । दृष्टश्च मया कुशलस्वप्नः । कुमारमन्तरेण न जाता उत्पाताः । अविपन्ना च तवाविधवाश्रीः। ततो नैतदमङ्गलमेवं भवति। जन्मान्तरवैरिकेन आकाशगमन से शेष साधुओं के साथ गुरु चले गये। कुमार और विग्रह ने नमस्कार किया और भक्ति से भरे हुए होकर (उन्हें) देखा। उनके दृष्टि से ओझल हो जाने पर परमभक्ति से वन्दना कर दोनों अयोध्यापुरी आ गये। इधर उसी दिन वानमन्तर अयोध्या गया । इसने कुमार के परिजनों के समीप कपटवार्ता की कि 'विग्रह ने कुमार को मार डाला ।' कानों-कान यह बात मैत्रीबल ने सुनी, उसने विश्वास नहीं किया। रत्नवती ने सुनी। यह (रत्नवती) मूच्छित हो गई, परिजनों ने सान्त्वना दी और राजा से निवेदन किया। राजा आया। (तब) आँखों में आँसू भरकर चरणों में गिरकर रत्नवती ने निवेदन किया -'तात ! मुझ मन्दभागिनी को आज्ञा दो, अग्नि में प्रवेश करूँगी, आर्यपुत्र का अकुशल सुनने पर भी स्थित इन निर्लज्ज प्राणों का परित्याग करूंगी और शीघ्र ही देवलोक में स्थित आर्यपुत्र को प्राप्त करूंगी।' राजा ने कहा-'सौभाग्यवती ! इस शोक से बस अर्थात् यह शोक करना व्यर्थ है, यह बात विश्वास करने के योग्य नहीं है । निश्चित रूप से सिंह सियार के द्वारा नहीं मारा जाता है। सिद्धादेश ने कुमार का तुम्हारे पुत्र-जन्म कहा है और सिद्धादेश सत्यवचनवाले हैं। मेरा हृदय आकुल नहीं है। मैंने शुभस्वप्न देखा है। कुमार के मध्य उत्पात नहीं हुए । तुम्हारी सौभाग्यलक्ष्मी जीवित है। अतः यह Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५० [समराइच्चकहा ता परिच्चय तमं इणमसव्ववसायं। अहावि कहंचि चितसामत्थयाए देवस्स इयमेवं चेव, तओ सवेसि चेव अम्हाणमियं पत्तकालं। कोस तमं आउला। पेसिओ य मए अज्ज पवणगइनामो लेहवाहओ। सो अवस्सं पंचदियहन्भंतरे आगच्छइ। तओ समागए तस्सि जहाजुत्तं करेस्सामो। न ताव अंतरे संतपियव्वं ति। रयणवईए भणियं-जं ताओ आणवेइ। तहावि विन्नवेमि तायं । तायाएसेण करेमि अहं संतियम्म, देमि महादाणं, पूएमि देवयाओ, परिच्चएमि अज्जउत्तकुसलपउत्तिकालादारओ आहारगहणं ति। राइणा भणियं- करेहि वच्छ न एत्थ दोसो त्ति। रयणवईए भणियंताय, महापसाओ। तओ 'अविहवा हवसु' त्ति भणिऊण गओ मेत्तीबलो। पारद्धं च णाए जहोचियं संतियम्म। दिट्टा य सव्वसंपया संपूयणगयाए वियारभूमिपडिणियत्ता अइक्कल्लणाए आगिईए परिचत्ता वियारेहि संगया नाणजोएण समद्धासिया तवप्तिरीए गहिया उवसमेण परिणया भावणाए परियरिया साहुणीहि विग्गहवई विय चरणसंपया सेयवियाहिवस्स धूया कोसलाहिवस्स पत्ती गिहत्थपरियाएण सुसंगया नाम गणिणी। तं च दळूण पणटो विय रयणवईए सोओ, आणंदिया चित्तण केनापि एषा कपटवार्ता कृता भविष्यति । ततः परित्यज त्वमिममसद्व्यवसायम् । अथापि कथञ्चिदचिन्त्यसामर्थ्यतया देवस्येदमेवमेव, ततः सर्वेषामेवास्माकमिदं प्राप्तकालम् । कस्मात् त्वमाकला। प्रेषितश्च मयाऽद्य पवनगतिनामा लेखवाहकः। सोऽवश्यं पञ्चदिवसाभ्यन्तरे आगच्छति । ततः समागते तस्मिन् यथायुक्तं करिष्यामः । न तावदन्तरे सन्तप्तव्यमिति । रत्नवत्या भणितम्-यत तात आज्ञापयति, तथापि विज्ञपयामि तातम् । तातादेशेन करोम्यहं शान्तिकर्म, ददामि महादानम, पूजयामि देवताः, परित्यजाम्यार्यपुत्रकुशलप्रवृत्तिकालादारत आहारग्रहणमिति । राज्ञा भणितम्कुरु वत्से ! नात्र दोष इति । रत्नवत्या भणितम्-तात ! महाप्रसादः। ततः 'अविधवा भव' इति भणित्वा गतो मैत्रीबलः । प्रारब्धं च तया यथोचितं शान्तिकर्म । दृष्टा च सर्वसम्पदा सम्पूजनगतया विचारभूमिप्रतिनिवृत्ता अतिकल्याण्याऽऽकृत्या परित्यक्ता विकारैः संगता ज्ञानयोगे समध्यासिता तपःश्रिया गृहीता उपशमेन परिणता भावनया परिकरिता साध्वीभिर्विग्रहवतीव चरणसम्पद् श्वेतविकाधिपस्य दुहिता कोशलाधिपस्य पत्नी गहस्थपर्यायेण सुसङ्गता नाम गणिनी। तां च दृष्ट्वा इस प्रकार का अमंगल नहीं हो सकता है। दूसरे जन्म के किसी वैरी ने यह कपटवार्ता की होगी। अतः तुम इस असत्कार्य को छोड़ो । फिर कथंचित् देव की सामर्थ्य से यह ऐसा ही हो तो हम सभी की ही मृत्यु उपस्थित हुई है। तुम आकुल क्यों हो ? मैंने आज पवनगति नाम का लेखवाहक भेजा है। वह अवश्य ही पांच दिन में आ जायेगा। अनन्तर, उसके आ जाने पर, योग्य कार्य करेंगे। बीच में दुःखी नहीं होना चाहिए।' रत्नवती ने कहा-'जो पिताजी की आज्ञा, तथापि पिताजी से निवेदन करती हूँ कि पिताजी के आदेश से मैं शान्तिकर्म करती हूँ, महादान देती हूँ, देवताओं की पूजा करती हूँ। आर्यपुत्र की कुशलता आने तक मैं आहार लेने का परित्याग करती हूँ।' राजा ने कहा-'पुत्री करो, इसमें दोष नहीं है।' रत्नवती ने कहा-'पिताजी, बहुत बड़ी कृपा की।' अनन्तर 'सौभाग्यवती होओ' ऐसा कहकर मैत्रीबल चला गया। रत्नवती ने यथायोग्य शान्तिकर्म आरम्भ किया तब समस्त सम्पदाओं के साथ पूजन करते हुए गृहस्थ अवस्था में श्वेतविका के राजा की पुत्री, कोशलराज की पत्नी सुसंगता नामक गणिनी को देखा । वह विचार की भूमि से लौटी हुई थीं, उनकी आकृति अत्यन्त कल्याणमय थी, विकारों ने उन्हें छोड़ दिया था, ज्ञानयोग से वह युक्त थीं, तपरूप लक्ष्मी से समन्वित थीं, उपशम ने उन्हें ग्रहण कर लिया था, भावना के द्वारा वह परिणत थीं, साध्वियां उन्हें घेरे हुए थीं। (इस प्रकार) मानो वह Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो भवो ] ७५१ उल्लसियं अत्तवीरियं, वियंभिओ घम्मववसाओ। चितियं च णाए-अहो भयवईए रूवसंपया, अहो विसयविराओ, अहो परिच्छेयकुसलया, अहा कयत्थत्तणं ति । ता धन्ना अहं, जीए मए अच्चंतं अउन्वदसणा संपिडिया विय गुणसमिद्धी विग्गहवई विय सव्वसंपया दंसणमेत्तेणावि पावनासणी भयवई दिटु ति। पवड्ढमाणसुहज्झाणसंगयाए य गतण सविणयं गणिणीसमीवं वंदिया गणिणी । धम्मलाहिया य णाए। पुणो य सायरं वंदिऊण जंपियं रयणवईए-भयवइ, 'दुहियसत्तवच्छला तुमं' ति विन्नवेमि भयवई । जहन कोइ विरोहो, ता करेहि मे पसायं गेहागमणेण ति । अच्चंतदुक्खिया अहं, जाओ य मे ईसि दुक्खोवसमो तुह दंसणेणं, वियंभिओ पमोओ, विइयधम्मसत्था य भयवई। ता इच्छामि तुह समीवे किंचि सोउं ति। गणिणीए भणियं --धम्मसीले, धम्मदेसणानिमितं नत्थि विरोहो, किंतु रक्खियव्वं सेसजणापत्तियाइ। रयणवईए भणियं- भयवइ, धम्मसद्धापरो मे गुरुयणो, न तत्थ अप्पत्तियाइ संभवइ । गणिणीए भणियं-जइ एवं, ता तुमं पमाणं ति । रयणवईए भणियं-भयवइ, महापसाओ। ता एहि, गच्छम्ह । गया सह रयणवईए गणिणी, पविट्ठा रयणवइगेहं । कओ य गाए संभमा प्रनप्ट इव रलवत्याः शोकः, आनन्दिता चित्तेन, उल्लसितमात्मवीर्यम, विज म्भितो धर्मव्यवसाय: । चिन्तितं च तया-अहो भगवत्या रूपसम्पद्, अहो विषयविरागः, अहो परिच्छेदकुशलता, अहो कृतार्थत्वमिति । ततो धन्याऽहम्, यया मयाऽत्यन्तमपूर्वदर्शना सम्पिण्डितेव गुणसमृद्धिः, विग्रहवतीव सर्वसम्पद्, दर्शनमात्रेणापि पापनाशनी भगवती दृष्टेति । प्रवर्धमानशुभध्यानसङ्गतया च गत्वा यं गणिनीसमीपं वन्दिता गणिनी। धर्मलाभिता च तया। पुनश्च सादरं वन्दित्वा जल्पितं रत्नवत्या-'भगवति ! दुःखितसत्त्ववत्सला त्वम्' इति विज्ञपयामि भगवतीम् । यदि न कोऽपि विरोधः, ततः कुरु मे प्रसादं गृहागमनेनेति । अत्यन्तदुःखिताऽहम्, जातश्च मे ईषद् दुःखोपशमस्तव दर्शनेन, विजम्भितः प्रमोदः, विदितधर्मशास्त्राश्च भगवती। तत इच्छामि तव समीपे किञ्चित श्रोतुमिति । गणिन्या भणितम्-धर्मशीले ! धर्मदेशनानिमित्तं नास्ति विरोधः, किन्तु रक्षितव्यं शेषजनाप्रोत्यादि । रत्नवत्या भणितम्-भगवति ! धर्मश्रद्धापरो मे गुरुजनः, न तत्राप्रीत्यादि सम्भवति । गणिन्या भणितम् - यद्येवं ततस्त्वं प्रमाणमिति । रत्नवत्या भणितम् - भगवति ! महाप्रसादः। तत एहि, गच्छावः । गता सह रत्नवत्या गणिनी, प्रविष्टा रवतीगृहम् । कृतश्च तया सम्भ्रमाति शयेशरीरधारिणी चारित्र-सम्पदा थीं। उन्हें (गणिनी को) देखकर रत्नवती का शोक मानो नष्ट हो गया, चित्त आनन्दित हुआ, आत्मशक्ति विकसित हुई, धर्म का निश्चय बढ़ा और उसने (रत्नवती ने) सोचा-'ओह ! भगवती की रूपसम्पदा, ओह विषयों के प्रति विराग, ओह जानने की कुशलता, ओह कृतार्थता। अत: मैं धन्य हूँ जो मैंने अत्यन्त अपूर्व दर्शनवाली, गुणों की समृद्धि के पिण्ड के समान, शरीरधारिणी समस्त सम्पदाओं के समान, दर्शनमात्र से पाप को नाश करनेवाली भगवती को देखा। बढ़े हुए शुभध्यान से युक्त हो विनयपूर्वक जाकर गणिनी को नमस्कार किया। उन्होंने (गणिनी ने) धर्मलाभ दिया। पुन: सादर नमस्कार कर रत्नवती ने कहा-'भगवती ! आप दुःखी प्राणियों के प्रति स्नेह रखनेवाली हैं, अत: भगवती से निवेदन कर रही हूँ, यदि कोई विरोध न हो तो भगवती घर पधारने की कृपा करें । मैं अत्यन्त दुःखी हूँ और आपके दर्शन से मेरा दुःख कुछ शान्त हुआ है, हर्ष बढ़ा है तथा भगवती धर्मशास्त्रों की ज्ञाता हैं अत: आपके समीप कुछ सुनना चाहती हूँ।' गणिनी ने कहा- 'धर्मशीले ! धर्मोपदेश के लिए विरोध नहीं है; किन्तु दूसरे लोगों की अप्रीति आदि से रक्षा करना।' रत्नवती ने कहा--'भगवती ! मेरे माता-पिता धर्म के प्रति श्रद्धावान् हैं अतः वहाँ अप्रीति की सम्भावना नहीं है।' गणिनी ने कहा- 'यदि ऐसा है तो तुम प्रमाण हो।' रत्नवती ने कहा-'भगवती ! बड़ी कृपा की। तो Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५२ [ समराइच्चकहा इसएणमुचिओवयारो। उवविट्ठा गणिणी पुरओ य से सपरियणा रयणवइ ति । गणिणोए भणियं-वच्छे, संसारसमावन्ना खु पाणिणो सब्वे दुक्खतरुबीयजम्मसंगया अहिहवीयंति अणुसमयं जराए, उत्थारिज्जति मोहतिमिरेण, वाहिज्जति विसयतण्हाए, कयत्थिज्जति इंदिएहि, पच्चंति काहग्गिणा, अवटुब्भंति माणपत्रएणं, मोहिज्जति मायाजालियाए, पलादिज्जति लोहसायरेण खंडिज्जति इट्ठवि ओएहि, भमाडिज्जति कालपरिणईए, कवलिज्जति मच्चण त्ति। परमत्थओ न केइ सुहिया मोतूण तप्पडिबक्खुज्जए महाणभावे। ते उण, जहा केइ महावाहिगहिया पोडिज्जमाणा महावेरणाए समादन्ननिवेया गवेसिऊण कुसलवेज्जं निवेइऊण अप्पाणयं तस्स वयणेग पडिवन्ना जहुत्तकिरियं वाहिज्जमाणा वि तव्वेयणाए विमुच्चमाणा वाहिणा अंतो-आरोग्गलाहधिईए अगणेमाणा तं बज्झदुक्खं ईसि अविमुक्का वि वाहिणा संजायविमोक्खनिच्छयमई आरोग्गसमेया विय न खलु नो सुहिया ववहारेण; तहा जे इमे भयवंतो मुणिवरा ते संसारमहावाहिगहिय त्ति पोडिज्नमाणा जम्माइमहावेयणाए समावन्न निव्वेया गर्वसिऊण भावओ - -- --.... नोचितोपचारः। उपविष्टा गणिनी, पुरतश्च तस्याः सपरिजना रत्नवती ति। गणिन्या भणितम्-वत्से ! संपारसमापन्नाः खलु प्राणिनः सर्वे दुःखतरुबीजजन्मसङ्गता अभिभूयन्तेऽनुसमय जरया, आक्रम्यन्ते मोहतिमिरेण, बाध्यन्ते विषयतृष्णया, कदर्थ्यन्ते इन्द्रियः, पच्यन्ते क्रोधाग्निना, अवष्टभ्यन्ते मानपर्वतेन, मुह्यन्ते मायाजालिकया, प्लाव्यन्ते लोभसागरेण, खण्ड्यन्ते इष्टवियोगैः, भ्राम्यन्ते कालपरिणत्या, कवल्यन्ते मृत्युनेति । परमार्थतो न केऽपि सुखिता मुक्त्वा तत्प्रतिपक्षोद्यतान् महानुभावान् । ते पुनर्यथा केऽपि महाव्याधिगृहीता पीडयगाना महावेदनया समापन्न निर्वेदा गवेषयित्वा कुशलवैद्यं निवेद्यात्मानं तस्य वचनेन प्रतिपन्ना यथोक्तक्रियां बाध्य माना अपि तवेदनया विमुच्यमाना व्याधिना अन्त आरोग्यलाभधृत्याऽगणयन्तो तद् बाह्यदुःखमीषदविमुक्ता अपि व्याधिना संजातविमोक्षनिश्चयमतिरारोग्यसमेता इव न खलु न सुखिता व्यवहारेण, तथा ये इमे भगवन्तो मुनिवरास्ते संसारमहाव्याधिगृहीता इति पीडयमाना जन्मादिमहावेदनया आओ चलें।' गणिनी रत्नवती के साथ गयीं और रत्नवती के घर में प्रविष्ट हुईं। उसने (रत्नवती ने) घबड़ाहट की अधिकता से योग्य सेवा की। गणिनी बैठी और उनके सामने ही परिजनों के साथ रत्नवती भी बैठ गयी। गणिनी मे कहा-पुत्री ! संसार में आये हुए सभी प्राणी दुःख रूपीवृक्ष के बीजस्वरूप जन्म से युक्त होकर प्रति समय बुढ़ापे से आक्रान्त होते हैं, मोहरूपी अन्धकार से आक्रान्त होते हैं, विषय तृष्णा से बाधित होते हैं, इन्द्रियों से तिरस्कृत होते हैं. क्रोवरूपी अग्नि से पकाये जाते हैं, मानरूपी पर्वत से रोके जाते हैं, मायाजाल से मोहित होते हैं, लोभ-सागर से आप्लावित होते हैं, इष्ट वियोगों से खण्डित होते हैं, काल की परिणति से भ्रमित होते हैं और मृत्यु के द्वारा ग्रास बनाये जाते हैं। संसार के विरोधी मोक्षमार्ग में उद्यत महानुभावों को छोड़कर यथार्थ रूप से कोई भी सुखी नहीं है । वे जैसे कोई महारोग से ग्रसित होकर पीड़ित होते हुए महावेदना से विरक्ति प्राप्त करते हैं और कुशलवंद्य को खोजकर (उससे) अपना निवेदन करते हैं और फिर कहे हुए वैद्य के वचनानुसार उसकी क्रिया को प्राप्त करते हैं, तब फिर उस वेदना से बाध्य किये जाते हुए भी व्याधि से मुक्त हुए अन्त में आरोग्य-लाभ होने के धैर्य के कारण उस बाह्य दुःख को दुःख न मानकर रोग से कुछ अविमुक्त होने पर भी वे छुटकारे का निश्चय करते हैं. इस तरह वे निश्चित रूप से आरोग्ययुक्त के समान व्यवहार से सुखी नहीं होते हैं, ऐसा नहीं है अर्थात् व्यवहार से वे सुखी होते हैं । उसी प्रकार जो भगवान् मुनिश्रेष्ठ हैं वे संसार रूपी महारोग से गृहीत हैं अत: जन्मादि वेदना से पीड़ित हो विरक्ति प्राप्त करते हैं तब भाव Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो भवो ] कुसलवेज्जं भयवंतं वीयरायं तदुवएसमुट्ठियं वा गुरुं निवेइऊणमप्पाणयं तस्स वयणेण पडिवन्ना सव्वदुक्खनिवारण संजमकिरियं वाहिज्जमाणा वि परीसहोवसग्गवेयणाए विमुच्चमाणा महामोहवाहिणा अंतो-पसमारोगलाभधिईए अगणे माणा तं परीसहा दिबज्झदुक्खं ईसि अविमुक्का वि संकिले सवाहिणा परमगुरुवीय रागाणा सेवणाए संजायविमोवखनिच्छमई सयला बाहाखयसमुन्भूय परमपणिहाणभावारोग्गसमेया वीयराया विय न खलु नो सुहिया निच्छएण । जओ पणट्ठे तेसि मोहतिमिरं, आविभूयं सम्मनाणं, नियत्तो असग्गहो, परिणयं संतोसामयं अवगया असविकरिया, तुट्टपाया भववल्ली, थिरोहूयं भाणरयणं, आसन्नं परमसिवसुहं । ता एवं परमर्थांचताए थेवा एत्थ सुहिय | बहवे उण दुक्खियत्ति । लोयदिट्ठीए उ वच्छे अन्नारिसे सुहदुक्खे । लोएहि जम्मजरामरणघत्था वि पाणिणो आहारा संपत्तिमेत्तेण कूरवाहसरगोयरगया विय हरिणया जवसाइसंपत्तीए चेव सुहिय ति वुच्चति, अन्नादुक्खिया । ण य इमं दिट्टिमहिगिच्च तुह दुक्खियत्ते कारणमवगच्छामि | साहेहि समापन्ननिर्वेश] गवेषयित्वा भावतः कुशलवैद्यं भगवन्तं वीतरागं तदुपदेशसमुत्थितं वा गुरुं निवेद्यात्मानं तस्य वचनेन प्रतिपन्नाः सर्व दुःखनिवारणी संयमक्रियां बाध्यमाना अपि परिषहोपसर्गवेदनया विमुच्यमाना महामोहव्याधिना अन्त उपशमारोग्य लाभधृत्याऽगणयन्तरतं परिषहादिबाह्यदुःखमीषदविमुक्ता अपि संक्लेशव्याधिना परमगुरुवीतरागाज्ञासेवनया सञ्जातविमोक्ष निश्चयमतिः सकलाबाधाक्षयसमुद्भूतपरम प्रणिधानभावा रोग्यसमेता वीतरागा द्दव न खलु नो सुखिता निश्चयेन । यतः प्रनष्टं तेषां मोहतिमिरम्, आविर्भूतं सम्यग्ज्ञानम्, निवृत्तोऽसद्ग्रहः, परिणतं संतोषामृतम्, अपगताऽसत्क्रिया त्रुटितप्राया भववल्ली, स्थिरीभूतं ध्यानरत्नम्, आसन्नं परमशिवसुखम् । तत एवं परमार्थचिन्तायां स्तोका अत्र सुखिता बहवः पुनर्दुःखिता इति । लोकदृष्टया तु वत्से ! अन्यादृशे सुखदुःखे, लोकैर्जन्मजरामरणग्रस्ता अपि प्राणिन आहारादिसम्प्राप्तिमात्रेण क्रूरव्याधशरगोचरगता इव हरिणका यवसादिसम्प्राप्त्यैव सुखिता इत्युच्यन्ते, अन्यथा दुःखिताः । न चेमां दृष्टिमधिकृत्य तव दुःखितत्वे कारणमवगच्छामि । कथय वा यद्य कथनीयं न ७५३ पूर्वक कुशल वैद्य भगवान् वीतराग को खोजकर अथवा वीतराग भगवान् के उपदेश से पूर्णरीति से आरोग्यलाभ किये हुए गुरु से अपना निवेदन करते हैं और तब उनके वचनों के अनुसार समस्त दुःखों का निवारण करने वाली संयम क्रिया को प्राप्त करते हैं । परिषह, उपसर्ग और वेदना से बाधित किए जाते हुए भी महामोहरूपी व्याधि से मुक्त होकर अन्त में आरोग्यलाभ होने के धैर्य से उस बाह्य परिषहादि दुःख को न मानते हुए भी संक्लेश रूप व्याधि से परमगुरु वीतराग की आज्ञा का सेवन कर मोक्ष के निश्चय की बुद्धि करते हैं और फिर समस्त बाधाओं के क्षय से उत्पन्न परम समाधिभाव रूप आरोग्य से युक्त होकर वीतरागों के निश्चय से समान सुखी न हों - ऐसा नहीं है अर्थात् सुखी होते ही हैं; क्योंकि उनका मोहरूपी अन्धकार नष्ट हो जाता है, मिथ्याज्ञान छूट जाता है । सन्तोषरूपी अमृत पूर्णवृत्ति को प्राप्त हो जाता है, असत्त्रियाएँ दूर हो जाती हैं. संसाररूपी लता प्रायः टूट जाती है, ध्यानरूपी रत्न स्थिर हो जाता है, उत्कृष्ट मोक्षरूपी सुख समीपवर्ती होता है । अत: इस संसार में इस प्रकार के परमार्थ की चिन्ता करनेवाले सुखी कम हैं और दु:खी ज्यादा हैं । हे बेटी ! लौकिक दृष्टि से तो सुख और दुःख दोनों अन्य ही प्रकार के होते हैं। इस संसार में ही लोग जन्म, बुढ़ापा और मरण से ग्रस्त हुए प्राणियों को आहारादि की प्राप्ति मात्र से ही उसी प्रकार सुखी कहते हैं, जिस प्रकार दुष्ट: बहेलिया के बाण का लक्ष्य बने हुए हरिणों की जो आदि की प्राप्ति सुख मानी जाती है, नहीं तो वे दुःख जाते हैं । इस दृष्टि से मैं तुम्हारे दुःख का कारण नहीं जानती हूँ अथवा यदि अकथनीय न हो तो कहो। [ रत्नवती Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५४ [ समराइच्चकहा वा, जइ अकहणीयं न होइ । गुणचंदपडिबद्ध साहियं रयणवईए । भणियं च जाए- भयवइ, जहा तए समाइट्ठे तव परमत्थो । तहावि अज्जउत्ताकुलसुमरणमवि पीडेइ मं मंदभाइणि । गणिणीए भणियं - वच्छे, न तस्स संपयमकुसलं ति, धीरा होहि । रयणवईए भणियं - कहं भयवई वियाणइ । गणिणीए भणियं तुह सरविसेसाओ । रयणवईए भणियं कीइसो मज्झ सरविसेतो । गणिणीए भणिय-जारिस अविहवाए परमानंदजोए भत्तणो हवइ । रयणवईए भणियं -- भयवइ, न तए कुप्पियव्वं भणामि किंचि अहमाउलयाए । गणिणीए भणियं वच्छे, अकोवणो चेव तस्सिजणो होइ, किमेत्थमन्भत्थणाए । रयणवईए भणियं - भयवइ, जइ एवं ता को एत्थ पच्चओ, जं भयवईए आइट्ठ ति । गणिणीए भणियं - वच्छे, अलमेत्थ पच्चरण । न य वीयरागवयणमन्नहा होइ । दीयरागवणं च सरमंडलं । तदासेण य जंपियमिणं, न उण अग्नहा; तहावि एसो एत्थ पच्चओ ति सिग्धं तुहावगमननिमित्तं भणामि किंचि अहयं । न तए खिज्जियव्वं । रयणवईए भणियं आणवेउ भयवई । गणिणीए भणियं - सुण, एवं विहसरवईए नारीए गुज्झपएसे मसो हवइ सि सरमंडले पढिवं । एत्थ भवति । [ रत्नवत्या भणितं - कि भगवत्या अप्यकथनीयं वस्त्वस्ति इति ] गुणचन्द्रप्रतिबद्धं कथितं रत्नवत्या । भणितं च तया - भगवति ! यथा त्वया समादिष्टं तथैव परमार्थः, तथाप्यार्यपुत्रा कुशलस्मरणमपि पीडयति मां मन्दभागिनीम् । गणिन्या भणितम् - वत्से ! न तस्य साम्प्रतमकुशलमिति, धीरा भव । रत्नवत्या भणितम् - कथं भगवती विजानाति । गणिन्या भणितम् - तव स्वरविशेषात् । रत्नवत्या भणितम् - कीदृशो मम स्वरविशेषः । गणिन्या भणितम् - यादृशोऽविधवायाः परमानन्दयोगे भर्तुर्भवति । रत्नवत्या भणितम् - भगवति ! न त्वया कुपितव्यम्, भणामि किञ्चिदहमाकुलतया । गणिन्या भणितम् - वत्से ! अकोपन एव तपस्विजनो भवति, किमत्रभ्यर्थनया । रत्नवत्या भणितम् - भगवति ! यद्येवं ततः कोऽत्र प्रत्ययः, यद् भगवत्याऽऽदिष्टमिति । गणिन्या भणितम् - वत्से ! अलमंत्र प्रत्ययेन । न च वीतरागवचनमन्यथा भवति । वीतरागवचनं स्वरमण्डलम्, तदादेशेन च जल्पितमिदम्, न पुनरन्यथा, तथाप्येषोऽत्र प्रत्यय इति शीघ्र तवावगमननिमित्तं भणामि किञ्चिदहम्, न त्वया खेत्तव्यम् । रत्नवत्या भणितम् - आज्ञापयतु भगवती । गणिन्या भणितम् - शृणु, एवंविधरवरवत्या नार्या गुह्यप्रदेशे मषो भवतीति स्वरमण्डले पठितम् । अत्र च त्वं प्रमाणमिति । रत्नवत्या भणितम् - ने कहा- क्या भगवती से भी कोई अकथनीय वस्तु हैं ? ] रत्नवती ने गुणचन्द्र के विषय में कहा। उसने [ रत्नवती ने) कहा - 'भगवती ! जैसा आपने उपदेश दिया, वैसा ही परमार्थ है तथापि आर्यपुत्र के अकुशल का स्मरण भी मुझ मन्दभाग्यवाली को पीडित करता है ।' गणिनी ने कहा - 'पुत्री ! इस समय उनका अकुशल नहीं है, धीर होओ।' रत्नवती ने कहा- 'भगवती कैसे जानती हैं ?' गणिनी ने कहा- 'तुम्हारे स्वर विशेष से !' रत्नवती ने कहा - 'मेरा स्वर विशेष कैसा है ?' गणिनी ने कहा- 'जैसा पति के परम आनन्द के योग में सौभाग्यवती का होता है ।' रत्नवती ने कहा- 'भगवती ! आप कुपित न हों, मैं कुछ आकुलता से कह रही हूँ ।' गणिनी ने कहा 'पुत्री ! तपस्वीजन क्रोध न करनेवाले ही होते हैं । इस विषय में प्रार्थना से क्या ।' रत्नवती ने कहा- 'भगवती ! यदि ऐसा है तो भगवती ने जो कहा उसमें वया प्रमाण है ?' गणिनी ने कहा- 'इसमें प्रमाण की क्या बात है ? वीतराग के वचन अन्यथा नहीं होते हैं । वीतराग का वचन स्वरसमूह है, उसके आदेश से ही यह कहा, दूसरे प्रकार से नहीं, तो भी यह प्रमाण है, शीघ्र ही तुम्हारे आने के विषय में मैं कुछ कहती हूँ, तुम खेद मत करो। रत्नवती ने कहा- 'जो भगवती आज्ञा दें ।' गणिनी ने कहा - 'सुनो। इस प्रकार के स्वरवाली स्त्री के - Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो भवो] ७५५ य तुमं पमाणं ति । रयणवईए भणियं-एवमेयं; किं तु मरिसेउ भयवई, जं मए आउलाए वियप्पियं । गणिणीए भणियं-- न एत्थ दोसो, नेहाउला हि पाणिणो एवंविहा चेव हवंति । किं तु तए वि मरिसियवं, जंमए तुह सिग्धपडिवत्तिनिमित्तमेवं जंपियं ति । रयणवईए भणियं-भयवइ, अणुग्गहे का मरिसावणा । अवणीओ मम महासोओ भयवईए इमिणा जंपिएण। किं तु पुच्छामि भगवई, कस्स उण कम्मस्स ईइसो महारोद्दो विवाओ त्ति । गणिणीए भणियं-वच्छे, थेवस्स अन्नाणचेट्टियस्स । कोइसी वा इमस्स रोया। सण, थेवेण कम्मुणा जंमए पावियं ति। रयणवईए भणियं-भयवइ, महंतो मे अणुग्गहो; दढमवहिय म्हि । गणिणीए भणियं-अत्थि कोसलाहिवो नरसुंदरो नाम राया। तस्साहमिमं जम्मपरियायं पड्डच्च धम्मपत्ती अहेसि । सो य एगया गओ आसवाहणियाए। अवहिओ दप्पियतुरएण विच्छूढो महाडवीए । दिट्ठा य ण मज्झण्हदेसयाले तीए महाडवीए एगम्मि वणनि उंजे अउव्वदसणा इत्थिया। भणिओ य तीए-महाराय, सागयं, उवविससु त्ति । राइणा भणियं-कासि तुमं को वा एस पएसो ति। तोए भणियं-मगोहरा नाम जक्खिणी अहं, विझरण्णं च एयं । राइणा एवमेतद्, किन्तु मर्षया भगवती, यन्नयाऽऽकुलया विकल्पितम् । गणिन्या भणितम् - नात्र दोषः, स्नेहाकुला हि प्राणिन एवंविधा एव भवन्ति । किंतु त्वयापि मषंयितव्यम्, यन्मया तव शोघ्रप्रतिपत्तिनिमित्त मेवं जल्पितमिति। रत्नवत्या भणितम् - भगवति ! अनुग्रहे का मर्षणा। अपनीतो मम महाशोको भगवत्याऽनेन जल्पितेन। किन्तु पच्छामि भगवतीम्, कस्य पुनः कर्मण ईदशो महारौद्रो विपाक इति । गणिन्या भणितम् - वत्से ! स्तोकस्याज्ञानचेष्टितस्य । कीदृशी वाऽऽस्य रोद्रता। शृणु, स्तोकेन कर्मणा यन्मया प्राप्तमिति। रत्नवत्या भणितम् - भगवति ! महान्मेऽनुग्रहः, दृढमवहिताऽस्मि । गणिन्या भणितम्-अस्ति कोशलाधिपो नरसुन्दरो नाम राजा। तस्याहमिमं जन्नपर्यायं प्रतीत्य धर्मपत्न्यासोद् । स चेकदा गतोऽश्ववाहनिकया। अपहृतो दर्पिततुरगेन विक्षिप्तो महाटव्याम् । दृष्टा च तेन मध्याह्नदेशकाले तस्या महाटव्या एकस्मिन् वननिकुञ्ज पूर्वदर्शना स्त्रो। भणितश्च तया - महाराज ! स्वागतम्, उपविशेति । राज्ञा भणितम्काऽसि त्वम्, को वा एष प्रदेश इति । तया भणितम् –मनोहरा नाम यक्षिण्यहम्, विन्ध्यारण्य गुह्यस्थान में मष होता है-ऐसा स्वरमण्डल में पढ़ा था। यहाँ पर तुम प्रमाण हो।' रत्नवती ने कहा-'ठीक है, किन्तु भगवती क्षमा करें जो कि मैंने आकूल होने के कारण संशय किया।' गणिनी ने कहा-'इसमें दोष नहीं है, स्नेहाकुल प्राणी निश्चित रूप से ऐसे ही होते हैं किन्तु तुम भी क्षमा करना जो कि शीघ्र जानकारी के लिए ऐसा कहा ।' रत्नवती ने कहा - 'भगवती ! अनुग्रह में क्षमा की क्या बात है ! भगवती ने इस कथन से मेरा महाशोक दूर कर दिया, किन्तु भगवती से पूछती हूँ कि किस कर्म का यह इस प्रकार का महाभयंकर फल है ।' गणिनी ने कहा --'पुत्री ! थोड़ी-सी अज्ञान चेष्टा का यह फल है। इसकी भयंकरता कैसी ? सुनो, थोड़-से कर्म से जो मैंने पाया।' रत्नवती ने कहा- 'भगवनी मेरे ऊपर यह आपकी बहुत बड़ी कृपा होगी, मैं अत्यधिक सावधान हूँ।' गणिनी ने कहा-कोशल देश का नरसून्दर नाम का राजा था। उसकी मैं इस जन्म की धर्मपत्नी थी। एक बार वह घोड़े पर सवार होकर गया, अभिमानी घोड़ा (उसे) हर ले गया और महावन में छोड़ दिया । उस राजा ने मध्याह्नकाल में उस महावन के एक निकुंज में एक अपूर्वदर्शनवाली स्त्री देखी। स्त्री ने कहा-'महाराज ! स्वागत है, बैठो। राजा ने कहा-'तुम कौन हो? यह कौन-सा स्थान है ?' उसने कहा-'मैं मनोहरा नामक यक्षिणी हूँ और यह विन्ध्यवन है।' राजा ने कहा-'तुम यहाँ अकेली क्यों हो ?' उस यक्षिणी ने Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चकहा भणियं - कोस तुमं एत्थ एगागिणी । तीए भणियं - अहं ख नंदणाओ मलयं गया आसि सह पिययमेण । तओ आगच्छमाणीए इह पए से निमित्तमंतरेण कुत्रिओ मे पिययमो, गओ य मं उज्झिउं । अओ एयाइणिति । राइणा भणियं -न सोहणमणुचिट्ठियं दुर्वेहि पितुर्भोह। तीए भणियं - कहं विय । राणा भणियं -जमुज्झिया पिययमेणं, तुमं पि जं तेण सह न गय त्ति । तीए भणियं - अलं तेणमविसेसन्नुणा । राइणा भणियं भद्दे, न एस धम्मो सईण । तीए भणियं - कीइस तस्स सइत्तणं, जो अणुरत्तं जणं परिच्चय । राइणा भणियं-भद्दे, कोऽणुरत्तं विणा दोसेण परिच्चयइ । तीए भणियं जो अणुओ । एवं च भणिऊण सविलासमवलोइउं पवत्ता । अवहीरिया राइणा । मोहदोसेण विगयलज्जं भणियं च जाए- महाराय इयाणि चेव जंपियं तए, जहा 'कोऽणुरतं विणा दोसेण परिच्चयई' | अणुरत्ता य अहं भवओ । ता कीस तुमं अवहीरेसि । राइणा भणियं - भद्दे, मा एवं भण; परिस्थिया तुमं । तीए भणियं - महाराय, पुरिसस्स सव्वा परा चेव इत्थिया होइ। राइणा भणिय fafaण जाइव एण; परिच्चय इमं परलोयविरुद्धमालावं । तीए भणियं - अलियवयणं पिय परलोय ७५६ - , चैतत् । राज्ञा भणितम् -- कस्मात्त्वमत्र काकिनी । तया भणितम् - अहं खलु नन्दनाद् मलयं तत् सह प्रियतमेन । तत आगच्छन्त्या इह प्रदेशे निमित्तमन्तरेण कुपितो मे प्रियतमः, गतश्च मामुत्वा अत एकाकिनीति । राज्ञा भणितम् न शोभनमनुष्ठितं द्वाभ्यामपि युवाभ्याम् । तया भणितम् - कथमिव । राज्ञा भणितम् - यदुज्झिता प्रियतमेन त्वमपि यत्तेन सह न गतेति । तया भणितम् - अलं तेनाविशेषज्ञ ेन । राज्ञा भणितम् - भद्रे ! नैष धर्मः सतोनाम् । तया भणितम् - कीदृशं तस्य सतीत्वं (सत्त्वम् ), योऽनुरक्तं जनं परित्यजति । राज्ञा भणितम् - भद्रे ! कोऽनुरक्तं विना दोषेण परित्यजति । तया भणितम् - योऽज्ञायकः । एवं च भणित्वा सविलासमवलोकितुं प्रवत्ता । अवधीरिता राज्ञा । मोहदोषेण विगतलज्जं भणितं च तया - महाराज ! इदानीमेव जल्पितं त्वया, यथा 'कोऽनुरक्तं विना दोषेण परित्यजति' । अनुरक्ता चाहं भवतः । ततः कस्मात्त्वमवधीरयसि । राज्ञा भणितम् — भद्रे ! मैवं भण, परस्त्री त्वम् । तया भणितम् - महाराज ! पुरुषस्य सर्वा परव स्त्री भवति । राज्ञा भणितम् - किमनेन जातिवादेन, परित्यजेमं परलोकविरुद्धमालापम् । तया भणितम् - अजीकवचनमपि च परलोकविरुद्धमेव । राज्ञा भणितम् - किं मयाऽलीकं जल्पित कहा- 'मैं नन्दन वन से प्रियतम के साथ मलयवन जा रही थी। इस स्थान पर आकर बिना कारण ही मेरे प्रियतम कुपित हो गये और मुझे छोड़कर चले गये अतः एकाकिनी हूँ ।' राजा कहा - 'आप दोनों ने ठीक नहीं किया ।' उस यक्षिणी ने कहा- 'कैसे ?' राजा ने कहा- 'जो प्रियतम से छोड़ी जाकर भी तुम उसके साथ नहीं गयीं । उसने कहा - 'उस अविशेषज्ञ के साथ जाना व्यर्थ है ।' राजा ने कहा- 'भद्रे ! यह सतियों का धर्म नहीं है ।' उसने कहा- 'उसका सतीत्व कैसा जो अनुरक्त जन को त्याग देता है ?' राजा ने कहा- 'अनुरक्त को बिना दोष के कौन त्यागता है ?' उस यक्षिणी ने कहा- 'जो अज्ञानी होता है' - ऐसा कहकर सविलास देखने लगी। राजा ने उसकी अवज्ञा कर दी। मोह के दोष से लज्जा छोड़कर उसने कहा- 'महाराज ! अभी अभी आपने कहा था कि 'कौन अनुरक्त व्यक्ति को बिना दोष के त्यागता है' और मैं आप पर अनुरक्त हूँ तथा आप क्यों तिरस्कार कर रहे हैं ?' राजा ने कहा- 'भद्र ! ऐसा मत कहो, तुम परस्त्री हो ।' उसने कहा 'महाराज ! पुरुष के लिए तो सभी परस्त्री हैं।' राजा ने कहा- 'इस प्रकार के जातिवाद से क्या, परलोक विरोधी इस बात को छोड़ो ।' उसने कहा – 'झूठ बोलना भी परलोक के विरुद्ध है ।' राजा ने कहा - मैंने क्या झूठ बोला ?' उसने कहा 你 Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो भवो ] ७५७ विरुद्धमेव । राइणा भणियं -कि मए अलियं जंपि ति । तीए भणियं-जहा 'कोऽणरत्तं विणा दोसेण परिच्चयइ' । राइणा भणियं-किमेत्थ अलियं ति। तोए भणियं-जं परिच्चयसि मं अणुरत्तं ति । राइणा भणियं -नाणुरता तमं, जेण म अहिए निउंसि । अओ चेव न दोसवज्जिया, जेण न परलोयं अवेस्खसि। तीए भणियं-किमिमिणा जंपिएण। जइन माणेसि मं, तओ अहं नियमेण भवंतं वावाएमि। राइणा भणियं --भद्दे को तए वावाईयइ । जो रंडाए पुरिसो वाबाइज्जइ, तस्स जलंजलिदाणं पि न जज्जइ त्ति । तओ पउट्ठा विय पहाविया रायसम्मुहं । हुंकारिया य ण । जाया अइंसणा । तओ किमिमीए ति पयट्टो राया सनयराभिमुहं । समागओ थेवं भूमिभाग, जाव अयण्डम्मि चेव निवडिओ कंचणपायवो । न लग्गो राइणो। जोइयं च णोवरिहुत्तं । दिट्ठा य सा गयणमज्झे । भणियं च णाएअरे दुरायार, केत्तिए वारे एवं छुट्टिहिसि। राइणा भणियं-आ पावे, अगोयरत्था तुम अन्नहा अवस्समहं तमं निग्गहेमि । असणीहया एसा। देव्वजोएण तरयमग्गाणलग्गेण दिट्ठो नियसेन्नेण समागओ राया सनयरं । कयं वद्धावणयं । 'सम्वत्थावीसत्थो चिट्ठई' ति पुच्छियं मए 'अज्जउत्त; किं निमित्तं' । तेण मिति । तया भणितम् -यथा 'कोऽनुरक्तं विना दोषेण परित्यजति'। राज्ञा भणितम् -किमत्रालीकमिति । तया भणितम्-यत् परित्यजसि मामनुरक्तामिति । राज्ञा भणितम्-नानुरक्ता त्वम्, येन मामहिते नियोजयसि । अत एव न दोषनिता, येन न परलोकमपेक्षसे । तया भणितम् - किमनेन जल्पितेन । यदि न मानयसि मां ततोऽहं नियमेन भवन्तं व्यापादयामि । राज्ञा भणितम्भद्रे ! कस्त्वया व्यापाद्यते । यो रण्डया पुरुषो व्यापाद्यते तस्य जलाञ्जलिदानमपि न युज्यते इति । ततः प्रद्विष्टेव प्रधाविता राजसम्मुखम् । हुंकारिता च तेन । जाताऽदर्शना । ततः किमनयेति प्रवृत्तो राजा स्वनगराभिमुखम् । समागतः स्तोक भूमिभागम्, यावदकाण्डे एव निपतितः काञ्चन पादपः। न लग्नो राज्ञः । दृष्टं च तेनोपरिसम्मुखम् । दृष्टा च सा गगना ध्ये । भणितं चानया-अरे दुराचार ! कियतो वारान् एवं छुटिष्यसि । राज्ञा भणितम् -आः पापे ! अगोचरस्था त्वम्, अन्यथाऽवश्यमहं त्वां निगृह्णामि । अदर्शनीभूतैषा। दैवयोगेन तुरगमार्गानुलग्नेन दृष्टो निजसैन्येन समागतो राजा स्वनगरम् । कृतं वर्धापनकम् । 'सर्वत्राविश्वस्तस्तिष्ठति' इति पृष्टं मया 'आर्यपुत्र ! किं निमित्तम् ।' 'कौन अनुरक्त जन को बिना दोष के त्यागता है ?' राजा ने कहा-'यहाँ झूठ क्या है ?' उसने कहा-'जो कि मुझ अनुरक्ता को त्याग रहे हो।' राजा ने कहा-'तुम अनुरक्ता नहीं हो, क्योंकि मुझे अहित में नियुक्त कर रही हो । अतएव दोष से रहित नहीं हो। इसी से तुम परलोक की अपेक्षा नहीं करती हो।' उसने कहा-'इस बात से क्या, यदि नहीं मानते हो तो मैं निश्चित रूप से तुम्हें मार डालूंगी।' राजा ने कहा- 'भद्रे ! कोन तुम्हारे द्वारा मारा जाता है ? जो पुरुष रण्डा के द्वारा मारा जाता है उसके लिए जलांजलि देना भी ठीक नहीं है।' इसके बाद वह यक्षिणी मानो द्वेषी हो राजा के सामने दौड़ी। राजा ने हुंकार की। वह अदृश्य हो गयी। अनन्तर इससे क्या, ऐसा सोचकर राजा अपने नगर की ओर चल पड़ा। थोड़ी दूर आया कि असमय में ही स्वर्ण वृक्ष गिर पड़ा । राजा को नहीं लगा। उसने ऊपर की ओर देखा, वह यक्षिणी आकाश में दिखाई दी। यक्षिणी ने कहा-'अरे दुराचारी ! कितने बार इस प्रकार छूटोगे ?' राजा ने कहा – 'अरी पापिन ! तू अदृश्य हो जा नहीं तो मैं तुझे अवश्य ही पकड़ लूंगा।' यह अदृश्य हो गयी। भाग्य से घोड़े के पीछे लगी हुई अपनी ही सेना ने राजा को अपने नगर की ओर आता हुआ देखा । उत्सव किया । 'सभी जगह बिना विश्वास के ही चले जाते हैं। अतः मैंने पूछा-'आर्यपुत्र ! किस कारण गये थे।' राजा ने कहा-'कुछ नहीं।' मैंने कहा- 'हाय ! Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५८ [समराइच्चकहा भणियं-न किंचि। मए भणियं-हा कहं न किंचि; कहिं अज्जउत्तो, कहमीइसी अवीसत्थय त्ति। ता साहेहि कारणं, पज्जाउलं मे हिययं ति। तेण भणियं-अलं पज्जाउलयाए। निब्बंधपुच्छिएण साहिओ मणोहराजक्खिणिवुत्तंतो। मए भणियं-अज्जउत्त, कह णु एयं, अहिणिविट्ठा खु एसा। राइणा भणियं-देवि, थेमियं कारणं । कि तोए अहिणिवेसेण। जइ पावेमि तं हत्थगहणे संपयं, ता तह कयत्थेमि, जहा छड्डेइ अहिणिवेसं ति। अन्नया य 'वासभवणत्थो राय' त्ति सोऊण पयट्टा अहं वासभवणं । गया एगं कच्छंतरं, जाव दिट्ठो मए राया मम समाणरूवाए इत्थियाए सह सयणीयमुवगओ त्ति। तओ 'हा किमेयं' ति संखद्धा अहं, नियत्तमाणी य दिट्ठा राईणा। भणियं च णेण-आ पावे, कहिं नियत्तसि । मुणिओ ते मायापओओ। देवि, पेच्छ पावाए धद्वत्तणं ति। भणिऊण धाविओ मम पिट्टओ। वेवमाणसरीरा गहियाहमणेण केसेसु । संभमाउलं जंपियं मए --अज्जउत्त, किमयं ति । तेणावहीरिऊण मज्झ वयणं समाहूया सा इस्थिया। देवि, पेच्छ पावाए मायाचरियं । जारिसं तए मंतियं ति, तारिसं चेव इमीए संपाडियं । कओ किल तह संतिओ वेसो। तीए भणियं-अज्जउत्त, अलमिमीए दसणेण, निव्वासे हि एयं महापावं ति। तओ राइणा सद्दाक्यिा अट्ठपाहरिया । समागया तेन भणितम् - न किञ्चिद् । मया भणितम् - हा कथं न किञ्चित्, कुत्रार्यपुत्रः, कथमीदृश्यविश्वस्ततेति । ततः कथय कारणम्, पर्याकुलं मे हृदयमिति । तेन भणितम् - अलं पर्याकुलतया। निर्बन्धपृष्टेन कथितो मनोहरा यक्षिणीवृतान्तः। मया भणितम् - आर्यपुत्र ! कथं न्वेतत्, अभिनिविष्टा खल्वेषा । राज्ञा भणितम् -देवि ! स्तोकमिदं कारणम् । किं तस्या अभिनिवेशन । यदि प्राप्नोमि तां हस्तग्रहणे साम्प्रतं ततस्तथा कदर्थयामि यथा मुञ्चत्यभिनिवेशमिति ॥ अन्यदा च 'वासभवनस्थो राजा' इति श्रुत्वा प्रवृत्ताऽहं वासभवनम् । गतैकं कक्षान्तरम्, यावत् दृष्टो मया राजा मम समानरूपया स्त्रिया सह शयनीयमुपगत इति । ततो 'हा किमेतद्' इति संक्षुब्धाऽहम् । निवर्तमाना च दृष्टा राज्ञा । भणितं च तेन - प्राः पापे! कुत्र निवर्तसे, ज्ञातस्तव मायाप्रयोगः। देवि ! पश्य पापाया धृष्टत्वमिति । भणित्वा धावितो मम पृष्ठतः। वेपमानशरीरा गृहीताऽहमनेन केशेषु । सम्भ्रमाकलं जल्पितं मया--आर्यपुत्र ! किमेतदिति । तेनावधीर्य मम वचनं समाहूता सा स्त्री। देवि ! पश्य पापाया मायाचरितम् । यादृशं त्वया मन्त्रितमिति, तादशमेवानया सम्पादितम् । कुतः किल तव सत्को वेशः । तया भणितम्-आर्यपुत्र ! अलमस्या दर्शनेन, निसियैतां महापापामिति । ततो कैसे कुछ नहीं, आर्यपुत्र कहाँ गये थे? ऐसा अविश्वास कैसे ? अतः कारण कहो, मेरा हृदय व्याकुल है।' उन्होंने कहा-'व्याकुल मत होओ।' आग्रहपूर्वक पूछने पर मनोहर यक्षिणी का वृत्तान्त कहा । मैंने कहा---'आर्यपुत्र बह कैसे, यह अनुरक्त थी ?' राजा ने कहा - 'देवि ! यह थोड़ा-सा कारण है, उसकी अनुरक्ति से क्या ? यदि उसे हाथ से इस समय पकड़ लूं तो वैसा तिरस्कृत करूँ कि वह अनुरक्ति छोड़ दे।' एक बार राजा शयनगृह में हैं-ऐसा सुनकर मैं शयनगृह में गयी । एक कमरे के बीच गयी कि मैंने राजा को मेरे ही समान रूपवाली स्त्री के साथ शय्या पर देखा। अनन्तर हाय यह क्या-इस प्रकार मैं क्षुब्ध हुई। लौटते हुए राजा ने देखा और उसने कहा-'अरी पापिन ! कहाँ लौटी जा रही है, तुम्हारे माया प्रयोग को जान लिया है। देवि ! पापिन की धृष्टता को देख ऐसा कहकर मेरे पीछे दौड़ा । काँपते हुए शरीरवाली मैं इसके द्वारा बालों से पकड़ ली गयी। घबड़ाहट से आकुलित होकर मैंने कहा-'आर्यपुत्र ! यह क्या ?' राजा ने मेरे वचनों का तिरस्कार कर उस स्त्री को बुलाया-'महारानी ! देखो उस पापिनी का मायाचरित । जैसा तुमने कहा था वैसा ही इसने किया। तुम्हारे समान उसका वेश कहाँ ?' उसने कहा-'आर्यपुत्र ! इसका दर्शन व्यर्थ है, इस महापापिनी को निकाल दो।' Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो भवो ] ७५६ - बहवे । भणिया य णेण भो भो एवं देवीरूपधारिणि दुदुजक्र्खािण कयत्थिऊण निद्दयं लहुं निव्वासेह | तओ तेहि 'जं देवो आणवेइ' त्ति भणिऊण पुव्व वेरिएहि विय 'आ पावे, आ पावे' त्ति भणमाणेहि गहिया अहं केणावि केसेसु, अवरेण उत्तरीए, अन्नेण बाहाहिं, कयत्थिया नरवइपुरओ, नीणिया बाहिं । तत्थ विय अहिरं कत्थिऊण, जहा काइ दुट्ठसीला निव्वासीयइ, तहा निव्वासिय म्हि । विमुक्का नयरarranta | भणिया य हिं-आ पावे, जइ पुणो रायभवणं पविससि, तओ मुया अम्हाण हत्थओ ति । नियता रायपुरिसा । तओ चितियं मए-हंत किमेयं ति । अहो मे पावपरिणई, पेच्छ कि (मे) पाविति । अहो णु खलु निरवराहा विपाणिणो पुव्वदुच्चरिएहिं एयं कयत्थिज्जंति । ता अलं मे जीविएण, वावामि अत्ताजयं । न अन्नो वावायणोवाओ त्ति गंतूणमेयमदूरोवलक्खिज्जमाणपव्वयं भंजेमि अत्तापयंति पयड्डा गिरिसंमुहं, पत्ता य महया परिकिलेपेण । समाढत्ता य आरुहिउं । दिट्ठा गिरिगुहागह साहूहि । समागओ य तओ अणेवगुण र रणभू सिओ दिव्यमाणो तवतेएण सुट्टिओ परलोयक्खे वच्छलो दुहियसत्ताणं समुत्पन्नदिव्वनागो देसओ संसाराडवीए चिंतामणी समीहियसुहस्स राज्ञा शब्दायिता अष्टप्राहरिका: । समागता बहवः । भणिताश्च तेन - भो भो ! एतां देवीरूपधारिणीं दुष्टयक्षिणी कदर्थयित्वा निर्दयं लघु निर्वासयत । ततस्तैः 'यद् देव आज्ञापयति' इति भणिवा पूर्ववैरिकैरिव 'आः पापे आः पापे' इति भणद्भिः गृहीताऽहं केनापि केशेषु, अपरेणोत्तरीये, अन्येन बाह्वोः कदर्थिता नरपतिपुरतः । नीता बहिः । तत्रापि चाधिकतरं कदर्थयित्वा यथा काऽपि दुष्टशीला तिर्वास्यते तथा निर्वासिताऽस्मि । विमुक्ता नगरकाननसमीपे । भणिता च तैः आः पापे ! यदि पुना राजभवनं प्रविशति ततो मृताऽस्माकं हस्तत इति निवृत्ता राजपुरुषाः । ततश्चिन्तितं मया हन्त किमेतदिति । अहो मे पापपरिणतिः, पश्य किं प्राप्तमिति । अहो नु खलु निरपराधा अपि प्राणिनः पूर्वदुश्चरितैरेवं कदर्थ्यन्ते । ततोऽलं मे जीवितेन । व्यापादयाम्यात्मानम् । नान्यो व्यापादनोपाय इति गत्वा एतमदूरोपलक्ष्यमाणपर्वतं भनज्मि आत्मानमिति प्रवृत्ता गिरिसम्मुखम् । प्राप्ता च महता परिक्लेशेन । समारब्धा चारोढुम् । दृष्टा गिरिगुहागतः साधुभिः । समागतस्ततोsनेकगुणरत्नभूषितो दीप्यमानो तपस्तेजसा, सुस्थितः परलोकपक्षे वत्सलो दुःखितसत्त्वानां समुत्पन्नदिव्यज्ञानो देशकः संसाराटव्यां चिन्तामणिः समीहितसुखस्यानेक साधुपरिवृतः सुगृहीतनामा अन्तर राजा ने आठ प्रहरियों को बुलाया। बहुत से आ गये। ( उनसे ) राजा ने कहा- 'हे हे ! इस महारानी का रूप धारण करनेवाली उस दुष्ट यक्षिणी को तिरस्कार कर शीघ्र ही निर्दयतापूर्वक निकाल दो।' अनन्तर जो महाराज अ'जा दें' - ऐसा कहकर मानो पूर्ववैरियों के समान उन्होंने अरी पापिन ! अरी पापिन ! ऐसा कहते हुए किसी ने मेरे बाल पकड़े, किसी ने उत्तरीय (ओड़नी, दुपट्टा) पकड़ा, किसी दूसरे ने दोनों भुजाएँ पकड़ी (और) राजा के सामने तिरस्कार किया। बाहर ले गये । वहाँ भी अत्यधिक तिरस्कार कर जैसे कोई दुराचारिणी स्त्री निकाली जाती है उसी प्रकार मुझे निकाल दिया। नगर के वन के समीप मुझे छोड़ दिया गया और उन्होंने कहा - 'अरी पापिन ! यदि फिर से राजभवन में प्रवेश करोगी तो हमारे हाथ से मारी जाओगी ।' राजपुरुष लौट गये । अनन्तर मैंने सोचा- 'हाय ! यह क्या ? ओह ! मेरे पान का फल, देखो क्या पाया ! ओह निपराध भी प्राणी पहले के दुश्चरितों के कारण इस प्रकार तिरस्कृत होते हैं । अतः मेरा जीना व्यर्थ है । मैं अपने आपको मारती हूँ | मारने का अन्य कोई उपाय नहीं है अतः इस समीप से दिखाई देनेवाले पर्वत पर जाकर अपने आपको गिराती हूँ - ऐसा सोचकर पर्वत के सम्मुख गयी। बड़े क्लेश से पहुँची । चढ़ना आरम्भ किया । पर्वतीय गुफा में आये हुए साधुओं ने मुझे देखा । अनन्तर अनेक गुणरूपी रत्नों से भूषित, तप के तेज से देदीप्यमान, परलोक पक्ष में Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६० [ समराइच्चकहा अणेयसाहुपरियरिओ सुगिहोयनामो भयवं गुरु ति। तं च दळूण अवगओ विय म किलेसो, समद्धासिया विय धम्मेण । वंदिओ सविणयं, धम्मलाहिया य णेण भणिया सबहुमाणं - वच्छे सुसंगए, न तए संसप्पियव्वं । ईइसो एस संसारो, आवयाभायणं खु एत्थ पाणिगो; अहिहूया महामोहेण न पेच्छंति परमत्थं, न सुणंति 'परममित्ताणं वयणं, पयति अहिएसु, बंधंति तिव्वकम्मयाइं, विउडिज्जति तेहि. न छुट्टति पुव्वदुक्कडाणं विणा वीयरागवयेणकरणेणं ति । तओ मए भणियं- भयवं एवमेयं; अह कि पूण मए कयं पावकम्म, जस्स ईइसो विवाओ ति। भयवया भणियं - वच्छे सुण जस्स विवागसेसमेयं । मए भणियं-भयवं, अवहिय म्हि । भयवया भणियं - वच्छे, सुण।। ___ अस्थि इहेव भारहे वासे उत्तरावहे विसए बंभउरं नाम नयरं। तत्थ बंभसेणो नाम नरवई अहेसि। तस्स बहुमओ विउरो नाम माहणो, पुरंदरजसा से भारिया। ताणं तुमं इओ अईयनवम. भवम्मि चंदजसाहिहाणा धूया अहेसि त्ति, वल्लहा जणणिजणयाणं । जिगवयणभावियत्तणेण ताणि भगवान् गुरुरिति । तं च दृष्ट्वागत इव मे क्लेशः, समध्यासितेव धर्मेण । वन्दितः सविनयम्, धर्मलाभिता च तेन भणिता सबहुमानम् --वत्से सुमङ्गते ! न त्वया सन्तप्तव्यम् । इदृश एष संसारः, आपभाजनं खल्वत्र प्राणिनः, अभिभूता महामोहेन न पश्यन्ति परमार्थम्, न शृण्वन्ति परममित्राणां वचनम्, प्रवर्तन्ते अहितेषु, बध्नन्ति तीवकर्माणि. विकुटयन्ते (विडम्ब्यन्ते) तैः, न छुटयन्ते पूर्वदुष्कृतेभ्यो विना वीतरागवचन करणेनेति । ततो मया भणितम्-भगवन् ! एवमेतद्, अथ कि पुनर्म या कृतं पापकर्म, यस्येदृशो विपाक इति । भगवता भणितम्- वत्से ! शृणु, यस्य विपाव शेषमेतद् । मया भणितम् -भगवन् ! अवहिताऽस्मि । भगवता भणितम्-वत्से ! शृणु। अस्ति इहैव भारतवर्षे उत्तरापथे विषये ब्रह्मपुरं नाम नगरम् । तत्र ब्रह्मसेनो नाम नरपतिरासीत् । तस्य बहुमतो विदुरो नाम ब्राह्मणः, पुरन्दरयशास्तस्य भार्या । तयोस्त्वमितोऽतीतनवमभवे चन्द्रयशोऽभिधाना दुहिता आसीदिति, वल्लभा जननीजनकयोः। जिनवचनभावितत्वेन तो भलीभाँति स्थित, दुःखित प्राणियों के प्रति प्रेम करनेवाले, जिन्हें दिव्यज्ञान उत्पन्न हुआ था, संसाररूपी वन में में जो रास्ता दिखानेवाले थे, इष्ट मुखों के लिए जो चिन्तामणि थे (तथा) अनेक साधुओं से घिरे हुए थे ऐसे सुगृहीत नाम वाले भगवान् गुरु आये। उन्हें देखकर मानो मेरा क्लेश दूर हो गया। धर्म में मानो स्थित हो गयी। (मैंने) विनयपूर्वक (उनकी) वन्दना की और उन्होंने धर्मलाभ देकर सम्मानपूर्वक कहा ... 'पुत्री सुसंगता, तुम दुःखी मत होओ, यह संसार ऐसा ही है, यहाँ प्राणी आपत्ति के पात्र होते हैं, महामोह से अभिभूत होते हैं, परमार्थ को नहीं देखते हैं, परम (हितैषी) मित्रों के वचन नहीं सुनते हैं, अहित में प्रवृत्त होते हैं, तीव्र कर्मों को बांधते हैं, उन कर्मों के द्वारा नष्ट किये जाते हैं, वीतराग के वचनों का पालन किये बिना पूर्वजन्म के पापों से नहीं छूटते हैं।' अनन्तर मैंने कहा-'भगवन् ! यह ठीक है (मैं पूछती हूं कि) मैंने कौन-सा पाप कर्म किया, जिसका ऐसा फल मिला ?' भगवान् ने कहा-~'पुत्री ! सुनो, जिसका यह सम्पूर्ण फल है ।' मैंने कहा- 'भगवन् ! सावधान हूँ।' भगवान् ने कहा-'पुत्री ! सुनो ___ इसी भारतवर्ष के उत्तरापथ देश में ब्रह्मपुर नाम का नगर है। वहाँ पर ब्रह्मसेन नाम का राजा था । उस राजा के द्वारा सम्मानित विदुर नाम का ब्राह्मग था । उसकी पुरन्दरयशा पत्नी थी। उन दोनों के इससे पहले के नवें भव में तुम चन्द्रपमा नाम की माता-पिता की प्यारी पुत्री थी। जिन-वचनों के प्रति श्रद्धा रखने के कारण १.धम्ममित्ताणं वयणाई-पा. ज्ञा,। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठमो भवो ] 1 देसंति ते धम्मं निवारे॑ति अहियाओ । अणाइभवभावणादोसेण बालयाए य न परिणमइ ते समं । समुत्पन्ना य ते पीई जसोदाससेट्टिभारियाए बंधुसुंदरीए सह । सा य अइस कि लिट्ठचित्ता संसाराहिदिणी गिद्धा कामभोएसु निरवेक्खा परलोयमग्गे । तओ वारिया तुमं जणणिजणएहि । वच्छे, अलमिमी सह संगेण, पावमित्तथाणीया खु एसा, पडिसिद्धो य भयवया पावमित्तसंगो । न पडिवन्नं च तं तए गुरुवयणं । अन्नया गया तुमं बंधुसुंदरिसमीवं । दिट्ठा विमणदुम्मणा बंधुसुंदरी । भणिया य एसा - हला, कीस तुमं विमणदुम्मण त्ति । तीए भणियं - पियसहि, विरत्तो मे भत्ता गाढरतो मवईए, अजापुत्तभंडा य अहयं । ता न याणामो कहं भविस्सइ त्ति दढं विसण्ण म्हि । तए भणियं - अलं विसाएण, उवाए जत्तं कुणसु त्ति । तीए भणियं न याणामि एत्थुवायं, सुयं च मए, अत्थि इह उप्पला नाम परिव्वाइया, सा एवंविहेसु कुसला, न य णे तं पेक्खिउं अवसरो त्ति । तए भणियं कहि सा परिवसइ, साहेहि मज्झ; अहं तमाणेमि त्ति । साहियं बंधसुंदरीए, जहा किल पुव्वबाहिरियाए । तओ गया तुमं, दिट्ठा परिव्वाइया । बंधुसुंदरी तुम दट्टुमिच्छत्ति भणिऊण -- 1 दिशतस्ते धर्मम्, निवारयतोऽहितात् । अनादिभवभावनादोषेण वालतया च न परिणमति सम्यक् । समुत्पन्ना च ते प्रीतिर्यशोदासश्रेष्ठिभार्यया बन्धुसुन्दर्या सह । सा चातिसंक्लिष्टचित्ता संसाराभिनन्दिनी गृद्धा कामभोगेषु निरपेक्षा परलोकमार्गे । ततो वारिता त्वं जननीजनकाभ्याम् । वत्से ! अलमनया सह सङगेन, पापमित्रस्थानीया खल्वेषा, प्रतिषिद्धश्च भगवता पापमित्रसङ्गः । न च प्रतिपन्नं तत् त्वया गुरुवचनम् । अन्यदा गता त्व बन्धु सुन्दरीसमीपम् । दृष्टा विमनोदुर्मना बन्धुसुन्दरी । भणिता चैषा-हला ! कस्मात् त्वं विमनोदुर्मना इति । तया भणितम् - प्रियसखि ! विरक्तो मे भर्ता गाढरक्तो मदिरावत्याम् । अजातपुत्रभाण्डा चाहम् । ततो न जानामि, कथं भविष्यति इति दृढं विषण्णाऽस्मि । त्वया भणितम् अलं विषादेन, उपाये यत्नं कुर्विति । तया भणितम् - : - न जानाम्यत्रोपायम्, श्रुतं च मया, अस्तोह उत्पला नाम परिव्राजिका, सा चंवंविधेषु कुशला, न चास्माकं तां प्रेक्षितुमवसर इति । त्वया भणितम् - कुत्र सा परिवसति कथय मम, अहं तामानयामीति । कथितं बन्धुसुन्दर्या, यथा किल पूर्ववाहिरिकायाम् । ततो गता त्वम् दृष्टा परि 1 ७६१ उन दोनों ने तुझे धर्मोपदेश दिया, अहित से रोका। अनादि संसार के प्रति श्रद्धा के दोष से अज्ञान के कारण तेरी ठीक परिणति नहीं हुई । तेरी 'यशोदास' सेठ की पत्नी बन्धुसुन्दरी के साथ प्रीति उत्पन्न हो गयी । वह यशोदास सेठ की पत्नी संसार का अभिनन्दन करनेवाली, कामभोगों में आसक्त और परलोक के मार्ग से निरपेक्ष थी । अतः तुम्हें माता-पिता ने रोका - 'पुत्री ! इसकी संगति मत करो, यह पापी मित्र के स्थान पर है और भगवान् ने पापी मित्रों का साथ करने का निषेध किया है।' माता-पिता के उन वचनों को तूने नहीं माना। एक बार तुम बन्धुसुन्दरी के पास गयीं । बन्धुसुन्दरी को दुःखीमन देखा । इसने कहा- सखी! तुम क्यों दुःखी मन हो ? उसने कहा - 'प्रियसखी ! मेरे पति ( मुझसे ) विरक्त होकर मदिरावती के प्रति अत्यधिक आसक्त हैं। मेरे न तो पुत्र 'और न धन; अतः नहीं जानती हूँ, कैसे ( क्या होगा ? अतः अत्यधिक दुःखी हूँ । तुमने कहा- विषाद मत करो, उपाय की कोशिश करो।' उसने कहा- मैं इस विषय में उपाय नहीं जानती हूँ, किन्तु मैंने सुना है कि यहाँ उत्पला नाम की परिव्राजिका हैं। वह ऐसे कार्यों में कुशल हैं और मेरे पास उनके दर्शन का मौका नहीं है : ( तब ) तुमने कहा- वह कहाँ रहती हैं ? मुझसे कहो, मैं उन्हें लाती हूँ । बन्धुसुन्दरी से कहा कि वह परिव्राजिका पूर्व की ओर बाहर रहती हैं । अनन्तर तुम गयीं, परिव्राजिका के दर्शन किये । बन्धुसुन्दरी तुम्हें देखने की इच्छा Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चकहा आणिया तुमए, आणिऊण गया तुमं सगिहं । पूइया सा बंधुसुंदरीए, साहिओ से निवृत्तंतो । भणियं परिव्वाइयाए - अविहवे, धीरा होहि । थेवमेयं कज्जं । करेमि अहमेत्थ जोयं, जेण सो तीसे ओसमावज्जइति । बंधुसुंदरीए भणियं - भयवइ, अणुग्गिहीय म्हि । गया परिव्वाइया, कओ य जाए जसोदाससेट्टिणी महराबई पइ विदेसणजोओ । पउत्तो विहिणा । अचितसामत्थयाए ओसहीणं विचित्तयाए कम्मपरिणामस्स विरत्तो तीए सेट्ठी । परिचत्ता महरावई, गहिया सोएण। एयनिमित्तं चबद्धं तर किलिमं । परिवालिऊण अहाउयं मया समाणी तक्कम्मदोसेणेव समुत्पन्ना करेणुयत्ताए अविया जहाहिवस्प; गहिया वारिमज्झे । तओ तत्थ महंतं किलेस मणुहविय मया समाणी तक्म्मदोसेणेव समुत्पन्ना वाणरित्ताए ति । तत्थ विय अच्चतमपिया जूहाहिवस्स । विच्छूढा जूहाओ गहिया जरठकुरेण, निबद्धा लोहसंकलाए । महादुक्खपीडिया अहाउयं पालिऊण मया समाणी तक्मदोसेणेव समुपपन्ना कुक्कुरिताए । तत्थ वि यरिउकाले वि अणहिमया सव्वकुक्कुराणं कीडाarraforgदेहा महंतं किलेसमजुहविय मया समाणी तक्कम्मदोसेणेव समुत्पन्ना मज्जारि ७६२ I व्रजिका | 'बन्धुसुन्दरी त्वां द्रष्टुमिच्छति इति भणित्वाऽनीता त्वया, आनीय गता त्वं स्वगृहम् । पूजिता सा बन्धुसुन्दर्या । कथितस्तस्य निजवृत्तान्तः । भणितं च परिव्राजिव या अविधवे ! धीरा भव स्तोकमात्रं कार्यम् । करोम्यहमत्र योगं येन स तस्याः प्रद्वेषमापद्यते इति । बन्धुसुन्दर्या भणितम् - भगवति ! अनुगृहीताऽस्मि । गता परिव्राजिका, कृतश्च तया यशोदासश्रेष्ठिनः मदिरात प्रति विद्वेषणयोगः, प्रयुक्तो विधिना । अचिन्त्यसामर्थ्य तयौषधीनां विचित्रतया कर्मपरिणामस्य विरक्तस्तस्यां श्रेष्ठी । परित्यक्ता मदिरावती, गृहीता शोकेन । एतन्निमित्तं च बद्धं त्वया क्लिष्टकर्म । परिपालय यथायुष्कं मृता सभी तत्कर्मदोषेणैव समुत्पन्ना करेणतया अप्रिया युथाधिपस्य, गृहोता वारिमध्ये । ततस्तत्र महान्तं क्लेशमनुभूय मृता सती तत्कर्मदोषेणैव समुत्पन्ना वानरीतयेति । तत्रापि चात्यन्नमप्रिया यूथाधिपस्य । विक्षिप्ता यूथाद् गृहीता जरलक्कुरेण, निबद्धा लोहशृंखया । महादुःखपीडिता यथाऽऽयुः पालयित्वा मृता सती तत्कर्मदोषेणैव समुत्पन्ना कुर्कुरीतया । तत्रापि च ऋतुकालेऽनि अनमिता सर्वककराणां कीटनिकरक्षतविनष्टदेहा महान्तं क्लेशमनुभूयमृता सती तत्कर्मदोषेणैव समुत्पन्ना मार्जारीतयेति । तवापि चामनोरमा सर्वमाजराणां करती है - ऐसा कहकर तुम ( उन्हें ) ले आयीं और लाकर अपने घर गयीं। उनकी बन्धुसुन्दरी ने पूजा की । उनसे अपना वृत्तान्त कहा। परिव्राजिका ने कहा- सौभाग्यवती ! धीर होओ, थोड़ा-सा कार्य है । मैं यहाँ ऐसा योग (एक विशेष प्रकार का चूर्ण) बनाती हूँ, जिससे वह उसके प्रति द्वेष करने लगेगा । बन्धुमुन्दरी ने कहाभगवती ! मैं अनुगृहीत हूँ । परिव्राजिका गयी, उसने यशोदास सेठ का मदिरावती के प्रति द्वेष का योग बनाया (और) विधिपूर्वक प्रयोग किया । औषधियों की अचिन्त्य सामर्थ्य (और) कर्मों के परिणाम की विचित्रता से सेठ उससे विरक्त हो गया। मदिरावती छोड़ दी गयी और उसे शोक ने जकड़ लिया। - बाँधा | आयु पालन कर मृत हो उसी कर्म के दोष से ही हथिनी के रूप में उत्पन्न हुई और यूथाधिप ( हाथियों के झुण्ड के स्वामी) की तुम अप्रिय बनी। हाथी को पकड़ने के लिए बनाये गये गड्ढे में गिर गयीं । वहाँ पर अत्यधिक क्लेश का अनुभव कर मरकर उसी कर्म के दोष से वानरी हुई। वहाँ पर भी झुण्ड के स्वामी की अत्यन्त अप्रिय थी । झुण्ड से अलग होने के कारण बूढ़े ठाकुर ने पकड़ लिया और लोहे की सांकल से बाँधा । महादुःख से पीडित होकर आयु पालन करमरकर उसी दोष से ही कुत्ती के रूप में उत्पन्न हुई । उस जन्म में भी ऋतुकाल में समस्त कुत्तों के द्वारा नचाही जाकर कीड़ों के समूह द्वारा क्षत-विक्षत देहवाली हो महान क्लेश का अनुभव कर मरकर उसी इस कारण तुमने क्लिष्ट कर्म Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो भवो ] तति । तत् वि अमणोरमा सव्वमज्जाराणं गेहाणलदड्ढदेहा अहा उपक्स ए मरिऊण तक्कम्मarer समपन्ना चक्कवाइयत्ताए ति । तत्थ विसया पिययमपरिवज्जिया किलेससंपाइयवित्तो मतं दुःखमणुहवि मया समाणी तक्कम्मदोसेणेव समुत्पन्ना चंडालइत्थिगत्ताए ति । तत्थ विय दर्द अमणोरमा पिययमस्स मयणदुक्खपीडिया अहाउयक्खएण मरिऊण तक्कम्मदोसेणेव समुत्पन्ना सबरइथिगत्ताए । तत्थ वि य अमणोरमा सम्बसबराण विच्छूढा णेहि पल्लीओ परिभमंती य विसमसज्झकं तारे किलेस संपाइयसरीरठिई परिक्खीणकाया अद्धाणपडिवन्नपहपरिभट्ठेहि दिट्ठा तुमं साहू, ते वियतुमाए ति । ते य दट्ठूण समुप्पन्नो ते पमोओ। पुच्छिया य ह - धम्मसीले को उण इमो परसो केदूरे वा इओ वत्तणि त्ति । तए सबहुमाणमाइक्खियं-सज्भकंतारमेयं, इओ नाइदूरे वत्तणो । साहूह भणित्रं- धम्मसोले, कयरीए दिसोए वत्तणो । तए भणियं - अवरमग्गेण इओ वोलिऊण इमं तरुलयागहणं । अहवा एह, अहं चैव दंसेमित्ति । दंसिया बत्तणी । चितियं च सुद्धचित्ताए - अहो इमे अमच्छरिया पियभासिणो पसंतरुवा अभिगमणीया; धन्नाणमेवंविहेहि सह गेहानलदग्धदहा यथायुष्कक्षये मृत्वा तत्कर्मदोषेणैव समुन्ना चक्रवाकीतयेति । तत्रापि सदा प्रियतम परिवजिता क्लेश सम्पादितवृत्तिर्महान्तं दुःखमनुभूय मृता सती सत्कर्मदोषणैव समुत्पन्ना चाण्डालस्त्रीकतयेति । तत्रापि च दृढममनोरमा प्रियतमस्य मदनदुःखपीडिता यथाऽऽयुःक्षयेण मृत्वा तत्कर्मदोषेणैव समुत्पन्ना शबरस्त्रीकतयेति । तत्रापि चामनोरमा सर्वशबराणां विक्षिप्ता तैस्पल्लीतः परिभ्रमन्ती च विषमसह्यकान्तारे क्लेशसम्पादितशरीरस्थितिः परिक्षीणकायाध्वप्रतिपन्तपथपरित्वं साधुभिः, तेऽपि च त्वयेति । तांश्च दृष्ट्वा समुत्पन्नस्ते प्रमोदः । पृष्टा च तैः - धर्मशीले ! कः पुनरयं प्रदेशः कियद्दूरे वा इतो वर्तनोति । त्वया सबहुमानमाख्यातम् - सह्यकान्तारमेतद् इतो नातिदूरे वर्तनी । साधुभिः भणितम् - धर्मशीले ! कतरस्यां दिशि वर्तनी । त्वया भणितम् - अपरमार्गेण इतो व्यतिक्रम्यदं तरुलतागनम् । अथवा एध्व, अहमेव दर्शयामीति । दर्शिता वर्तन । चिन्तितं च शुद्धचित्तथा । अहो इमेऽमात्यः प्रियभाषिणः प्रशान्तरूपा अभिगमनीयाः, ७६३ कर्म के दोष से बिल्ली हुई । उस जन्म में भी सब बिलावों के द्वारा न चाही जाकर घर में आग लग जाने से शरीर जल जाने पर आयु क्षय होने पर मरकर उसी कर्म के दोष से ही चकवी के रूप में उत्पन्न हुई । उस जन्म में भी सदा प्रियतम के द्वारा छोड़ी जाकर क्लेश से जीविकोपार्जन कर बड़े दुःख का अनुभव कर मरकर उसी कर्म के दोष से ही चाण्डाल की स्त्री हुई । उस जन्म में भी प्रियतम के द्वारा अत्यधिक अमनोरम होकर कामदुःख से पीडित हो आयुक्षय हो जाने पर मरकर उसी कर्म के दोष से ही शबर की स्त्री के रूप में उत्पन्न हुई। उस जन्म में भी समस्त शबरों के लिए अमनोरम होती हुई शबरस्वामी के द्वारा त्यागी जाकर हिमालय के भयंकर जंगल में भ्रमण करती हुई क्लेश से शरीर की स्थिति बनाये रखी । तूं क्षीणकाय हो गयी तथा रास्ते में रास्ता भूले हुए साधुओं ने तुझं देखा, तूने भी उन्हें देखा । उन्हें देखकर तुझे हषं हुआ। उन साधुओं ने पूछाधर्मशीले | यह कौन प्रदेश है ? अथवा यहाँ से रास्ता कितनी दूर है ? तूने आदरपूर्वक कहा - यह हिमालय कान है, यहाँ से पास में ही रास्ता है । साधुओं ने कहा- रास्ता किस दिशा में है ? तूने कहा - ' इन भयंकर वृक्षों और लताओं को लांघकर पश्चिम में है अथवा आओ' मैं ही दिखा दूं, ऐसा कहकर रास्ता दिखा दिया और शुद्ध चित्त से सोचा- ओह ! ये द्वेषरहित, प्रियभाषी, शान्तरूप और समीप में रहने योग्य हैं । वे पुरुष Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइचकहा संगमो भवइ । एवं विसुचितणेण खविओ कम्मसंघाओ आसगलियं बोधिबीयं । एत्थंतरम्मि धम्मलाहिया साहूहि सुहयरपरिणामा य पडिया तेसि चलणेसुं। एत्थतरम्मि अप्पारंभपरिग्गहत्तणेण सहावमद्दवज्जवयाए साहुसन्निहिसामत्थओ सुद्धभावयाए य बद्धं सुमाणुसाउयं । गया भयवंतो साहुमो । गएसु वि य न तुट्टो ते तयणुसरणसंगओ सुहभावाणुबंधो। अहाउयपरिक्खएणं च मया समाणी तक्कम्मदोससेससंगया चेव समुप्पन्ना सेयवियाहिवस्स धूय त्ति । पत्तवया य परिणीया कोसलाहिवेण; तक्कम्मसेसयाए य जक्खिणीरूवविप्पलद्धेण कयत्थाबिया णेणं । ता एवं वच्छे दुटुपरिव्वाइयाहवणकम्मविवागसेसमेयं ति। एयमायण्णिऊण अवगयं चिय मे मोहतिमिरं, जाओ भवविराओ, उप्पन्नं जाइसरणं, वडिओ संवेगो। वंदिऊण भणिओ भयवं गुरू-भयवं, एवमेयं; अह कया उण तक्कम्मविवाओ नीसेसीभविस्सइ। भयवया भणियं-वच्छे, इमिणा अहोरत्तेण । मए भणियं-भयवं, कया कहं वा तं जविखणि वियाणिस्सइ अज्जउत्तो । भयवया भणियं-वच्छे, अज्जेव रयणीए तुह सहावासरिसयाए धन्यानामेवंविधैः सह संगमो भवति । एवं विशुद्धचिन्तनेन क्षपितः कर्मसंघातः, प्रादुर्भूतं बोधिबीजम् । अत्रान्तरे धर्मलाभिता साधुभिः शुभतरपरिणामा च पतिता तेषां चरणेषु । अत्रान्तरे अल्पारम्भपरिग्रहत्वेन स्वभावमार्दवार्जवतया साधुसन्निधिसामर्थ्यतः शुद्धभावतया बद्धं सुमानुषायुष्कम् । गता भगवन्तः साधवः । गतेष्वपि च न त्रुटितस्तव तदनुस्मरणसंगतः शुभभावानुबन्धः । यथाऽऽयुःपरिक्षयेण च मृता सती तत्कर्मदोषशेषसंगतव समुत्पन्ना श्वेतविकाधिपस्य दुहितेति । प्राप्तवयाश्च परिणीता कोशलाधिपेन । तत्कर्मशेषतया च यक्षिणीरूपविप्रलब्धेन कर्थितास्तेन। तत एवं वत्से ! दुष्टपरिवाजिकाह्वनकर्मविपाकशेषमेतदिति । एतदाकर्ण्य अपगतमिव मे मोहतिमिरम्, जातो भवविरागः, उत्पन्न जातिस्मरणम्, वद्धित: संवेगः। वन्दित्वा भणितो भगवान् गुरुः - भगवन् ! एवमेतद् । अथ कदा पुनः तत्कर्मविपाको निःशेषीभविष्यति । भगवता भणितम् - वत्से ! अनेनाहोरात्रेण । मया भणितम्-भगवन् ! कदा कथं वा तां यक्षिणों विज्ञास्यत्यार्य पुत्रः । भगवता भणितम्-वत्से ! अद्यैव रजन्यां तव धन्य हैं जिनका ऐसे साधुओं से समागम होता है। इस प्रकार के विशुद्ध चित्त से कर्मसमूह नष्ट कर डाला, ज्ञानबीज उत्पन्न हुआ। इसी बीच साधुओं ने धर्मलाभ दिया । अत्यधिक शुभ परिणामों वाली होकर तूं उनके चरणों में गिर गयी। इसी बीच थोड़ा आरम्भ और परिग्रह, स्वभाव की मृदुता और सरलता, साधुओं के सामीप्य का प्रभाव तथा शुद्ध भावों की परिगति के कारण उस शबरी ने अच्छी मनुष्य आयु बाँधी। भगवान् साधु चले गये । उनके चले जाने पर भी उनके स्मरण से युक्त शुभभावों का वह प्रभाव नहीं छूटा। यथायोग्य आयु का क्षय कर मरकर उस शेष कर्म के दोष के साथ ही श्वेतविका के राजा की पुत्री हुई। युवावस्था प्राप्त होने पर कोशलाधिप ने विवाहा, उस कर्म के शेष होने के कारण यक्षिणी के रूप से ठगे गये राजा ने तुम्हारा तिरस्कार किया। अतः हे पुत्री ! इस प्रकार दुष्ट परिवाजिका को बुलाने के कर्म का यह शेष फल है।' यह सुनकर मानो मेरा मोहरूपी अन्धकार नष्ट हो गया, संसार से विराग हो गया, जातिस्मरण हो गया, विरक्ति बढ़ी । वन्दना कर भगवान गुरु से कहा-'भगवन् ! यह ठीक है, (कृपया यह बतलाइए) वह कर्म का फल कब पूरा होगा?' भगवान् ने कहा – 'पुत्री ! इसी दिन-रात में।' मैंने कहा - 'भगवन् ! कब और कैसे आर्यपुत्र उस यक्षिणी को जानेंगे ?' भगवान् ने कहा - 'आज ही रात तुम्हारे स्वभाव की असदृशता के Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो भवो ] समप्पन्नासंको निवेइऊण मंतिणो तक्कयवीयरायपडिमालंघणपओएण नीसंसयं वियाणिऊण, जहा न एसा देवित्ति; तओ 'हण हण' ति भणमाणो खग्गं गहेऊण उढिओ राधा, जाव तक्खणं अदंसणा जाय ति । मए भणियं-भयवं, न तीए किंचि अकुसलं करिस्सइ अज्जउत्तो। भयवया भणियंवच्छे, न हि, कि तु कयत्थिया तुमं ति अहियं संतप्पिस्सइ । मए भणियं-भयवं को एत्थ दोसो अज्जउत्तस्स, कम्मपरिणई एस ति । भयवया भणियं-वच्छे, एवमेयं; तहावि मोहदोसेण दढं संतप्पिस्सइ महाराओ। सुए आगमिस्सइ इहई, पेक्खिस्सइ तुमं । तओ सह तए अच्चंतसुहिओ हविस्सइ त्ति वियाणिऊण न तए संतप्पियव्वं । मए भणियं-भयवं, अवगओ मे संतावो तह दसणेण, विरत्तं च मे चित्तं भवचारगाओ। ता कि महारायागमणेण। पुणो वि विओगावसाणा संगमा। कोइसं च जरामरणपोडियाणं सुहियत्तणं। भयवया भणयं-वच्छे, एवमेयं, किं तु सह तए अच्चंतसुहिओ हविस्सइ ति । भणियं मए-अच्चंतसुहिओ जीवो न वीयरायवयणाणटाणमंतरेण हवइ। ता भयवया भणियं-सह तए जराइदोसनिग्घायणसमत्थं दुक्करं कावुरिसाण वीयरागवयणाणुट्ठाणं ---------- -------------------------- ---------------------- स्वभावासदृशतया समुत्पन्नाशङ्को निवेद्य मन्त्रिणस्तत्कृतवीतरागप्रतिमालङ्कनप्रयोगेण निःसंशयं विज्ञाय 'यथा न एषा देवो' इति । ततो 'जहि जहि' इति भणन् खड्ग गृहीत्वा उस्थितो राजा, यावत् तत्क्षणमदर्शना जातेति । मया भणितम् - भगवन् ! न तस्याः किञ्चिदकुशलं करिष्यति आर्यपत्रः। भगवता भणितम् - वत्से ! नहि, किन्तु कर्थिता त्वमित्यधिक सन्तप्स्यति । मया भणितम्-भगवन् ! कोऽत्र दोष आर्यपुत्रस्य, कर्मपरिणतिरेषेति । भगवता भणितम्- वत्से, एवमेतत् तथापि मोहदोषेण दृढं सन्तप्स्यति महाराजः । श्व आगमिष्यतीह, प्रेक्षिष्यते त्वाम्। ततः सह, त्वयाऽत्यन्तसुखितो भविष्यति इति विज्ञाय न त्वया सन्तप्तव्यम् । मया भणितम्-भगवन ! अपगतो मे सन्तापस्तव दर्शनेन । विरक्तं च मे चित्तं भवचारकात् । ततः किं महाराजागमनेन। पनरपि वियोगावसाना: संगमाः । कीदृशं च जरामरणपीडितानां सुखि तत्वम् । भगवता भणितम- वत्से ! एवमेतद्, किन्तु सह त्वयाऽत्यन्तसुखितो भविष्यतीति । भणितं मया--अत्यन्तसखितो जीवो न वीतरागवचनानुष्ठानमन्तरेण भवति । ततो भगवता भणितम्-सह त्वया जरादि कारण उत्पन्न आशंकावाले राजा मन्त्रियों से निवेदन कर यक्षिणी के द्वारा वीतराग की प्रतिमा के लाँधने के प्रयोग से निःसन्देह रूप से जानकर कि यह महारानी नहीं है, अतः 'मारो मारो' कहता हआ तलवार लेकर राजा उठेगा कि तत्क्षण वह अदृश्य हो जायेगी।' मैंने कहा-'भगवन् ! उसका आर्यपुत्र कुछ अकुशल तो नहीं करेंगे ?' भगवान ने कहा-'पुत्री ! नहीं, किन्तु तुम्हारा तिरस्कार करने से अत्यधिक दुःखी होंगे। मैंने कहा-'भगवन, इसमें आर्यपुत्र का क्या दोष है, यह कर्म का फल है ।' भगवान ने कहा - 'यह ठीक है तथापि मोह के दोष से राजा अत्यधिक दु:खी होंगे। कल यहाँ आयेंगे, तुम्हें देखेंगे। उनके साथ तुम अत्यन्त सुखी होगी-ऐसा जानकर तुम्हें कुपित नहीं होनी चाहिए।' मैंने कहा-'भगवन् ! आपके दर्शन से मेरा दुःख दूर हो गया। मेरा चित्त संसार-रूपी कारागृह से विरक्त हो गया है। अत: महाराज के आने से क्या, संयोग का अन्त तो पुन: वियोग ही होगा। जरा और मरण से पीड़ित लोगों का सुख कैसा !' भगवान ने कहा-'पुत्रो ! यह ठीक है, किन्तु तुम्हारे साथ (वे) अत्यन्त सुखी होंगे।' मैंने कहा-'वीतराग के वचनों का पालन किये बिना जीव अत्यन्त सुखी महीं होता । है।' अनन्तर भगवान् ने कहा - 'तुहारे साथ जरादि दोषों का नाश करने में समर्थ और कायरपुरुषों के लिए Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६६ [ समराइच्चकहा करइस्सइ । एएण कारणेण अच्चंतसुहिओ होहि त्ति। भणिऊण तुहिक्को ठिओ भयवं । एयमायणिऊण 'अहो धन्नो महाराओ' ति हरिसिया अहं । हिययत्थं वियाणिऊण भणिया य भयवयावच्छे तुम पि गेण्हाहि ताव सव्वमंतपरममंतं अइदुल्लहं जोवलोए विणासणं भयाणं साहणं परमपयस्स पूयणिज्जं सयाणं अचितसत्तिजतं गाहगं सयलगुणाणं उवमाईयकल्लाणकारणं भयवया वीयरागेण पणीयं पंचनमोक्कारं ति। मए भणियं-भयवं, अणुग्गिहीय म्हि। भयवया भणियं-ठायसु मे वामपासे पुव्वाहिमुह ति। ठिया ईसि अवणया, वंदिओ भयवं । कयं भयवया परमगुरुसरणं । तओ उवउत्तेण अक्खलियाइगुणसमेओ दिनमो नमोक्कारो, पडिच्छिओ मए सुद्धभावाइसएण। तयणंतरं च पणमिव भवभयं, समागयं विय मुत्तिसुहं ति। भयवया भणियं-वच्छे, इणमेव अणुसरंतीए गमेयन्वा तए इमाए एगपासट्टियाए गिरिगुहाए रयणी, न बोहियव्वं च । संपवं गच्छामि अहयं, सुए पुणो अम्हाणं दंसणं ति । मए भणियं-भयवं, अणुग्गिहीय म्हि । गओ भयवं । नमोक्कारपराए य परमपमोयसंगयाए थेववेला विय अइक्कंता रयणी । पहायसमए य आसदोषनिर्धातनसमर्थ दुष्करं कापुरुषाणां वीतरागवचनानुष्ठानं करिष्यति । एतेन कारणेनात्यन्तसुखितो भविष्यति इति । भणित्वा तूष्णिकः स्थितो भगवान् । एतदाकर्ण्य 'अहो धन्यो महाराजः' इति हृष्टाऽहम् । हृदयस्थ विज्ञाय भणिता च भगवता-वत्से ! त्वमपि गृहाण तावत् सर्वमन्त्रपरममन्त्रमतिदुर्लभ जीवलोके विनाशनं भयानां साधनं परमपदस्य पूजनीयं सतामचिन्त्यशक्तियुक्तं ग्राहकं सकलगुणानामुपमातीतकल्याणकारणं भगवता वीतरागेण प्रणीत पञ्चनमस्कारमिति । मया भणितम् -भगवन् ! अनुगृहीताऽस्मि । भगवता भणितम्-तिष्ठ मे वामपार्वे पूर्वाभिमुखेति । स्थिता ईषदवनता । वन्दितो भगवान् । कृतं भगवता परमगुरुस्मरणम् । तत उपयुक्तेनास्खलितादिगणसमेतो दत्तो नमस्कारः । प्रतीप्सितो मया शुद्धभावातिशयेन । तदनन्तरं च प्रनष्टमिव भवभयम्, समागतमिव मुक्तिसुखमिति । भगवता भणितम्-वत्से ! इममेवानुस्मरन्त्या गमयितव्या त्वयाऽस्यामेकपाश्र्वस्थितया गिरिगहायां रजनी, न भेतव्यं च । साम्प्रतं गच्छाम्यहम, श्वः पनरस्माकं दर्शनमिति । मया भणितम् -भगवन् ! अनुगृहीताऽस्मि । गतो भगवान्। नमस्कारपरायाश्च परमप्रमोदसंगतायाः स्ताकवेलेवातिक्रान्ता रजनी । प्रभातसमये चाश्वदुष्कर ऐसे वीतराग के वचनों का वे पालन करेंगे, इस कारण अन्यन्त सुखी होगे'--यह कहकर भगवान् मौन हो गये । यह सुनकर 'ओह मह राज धन्थ हैं' यह कहकर मैं हर्षित हुई। हृदय की स्थिति को जानकर भगवान् ने कहा-'पुत्री, तुम भी सब मन्त्रों में उत्कृष्ट मन्त्र, संसार में अत्यन्त दुर्लभ, भयों का नाशक, मोक्षपद का साधक, सज्जनों द्वारा पूजनीय, अचिन्त्यशक्ति से युक्त, समस्त गुणों का ग्राहक, जिसकी उपमा नहीं दी जा सकती, ऐसे कल्याणकारक भगवान् वीतराग द्वारा प्रणीत पंचनमस्कार मन्त्र को ग्रहण करो।' मैंने कहा-'भगवन् । मैं अनुगहीत हूँ।' भगवान ने कहा-'मेरी बायीं तरफ पूर्व की ओर मुख करके बैठो।' कुछ सिर झुकाकर मैं बैठ गयी। वन्दना की। भगवान् ने परमगुरु का स्मरण किया। तब उन्होंने अस्खलित आदि गुणों से युक्त नमस्कार मन्त्र दिया। मैंने शुद्ध भावों के अतिशय से स्वीकार किया। अनन्तर संसार का भय मानो नष्ट हो गया, मुक्तिरूपी सुख का समागम हुआ। भगवान् ने कहा---'पुत्री ! इसी का स्मरण करते हुए तुम इस पर्वत की गुफा के एक ओर स्थित हो, रात्रि बिताओ और डरना मत । अब मैं जाता हूँ, कल पुनः हमारा दर्शन होगा।' मैंने कहा-'भगवन् ! मैं अनुगृहीत हूँ।' भगवान् चले गये। नमस्कार मंत्र का जाप करते हुए अत्यधिक हर्षं से युक्त मेरी थोड़े से ही समय में गत्रि व्यतीत हो Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो भवो ] ७६७ साहणेण अन्नेसणत्थं समागओ राया। पत्ता य णे समीवे कइवि आसवारा । दिट्ठा य णेहि, हरिसनिभहि साहिया राइणो । आगओ मे समीवं राया । बाहोल्ललोयणेणं भणियं च णेणं- देवि, न मे कुपिन्वं अन्नाणमेत्थमवरज्झइ । मए भणियं अज्जउत्त, को एत्थ अवसरो कोवस्स; नियदुच्चरियविवागसेसमेयं । राइणा भणियं -- देवि, अमेत्थ निमित्तं । मए भणियं - अज्जउत्त, जम्मंतरे विओपडिबद्ध नियदुच्चरियसामत्थेण पहूययरमणुभूयं तत्थ कि तुमं निमित्तं ति । सव्वहा मए कओ एस दोसो ति । राइणा भणियं देवि, सामन्नेण वियाणामि अहमिणं, जमणादी संसारो कम्मवसगा य पाणिणो । देवी उण विसेसपरिन्नाणसंगया विय मंतेइ । मए भणियं - अज्जउत्त, एवं । राणा भणियं - देवि कहं विय । साहिओ मए मरणववसाय गुरुदंसणाइओ नमोक्कारलाहपज्जवसाणो परिकहियवृत्तंतो । 'अहो भयवओ नाणाइसओ' त्तिविम्हिओ राया । 'अहो असारया संसारस, एहमेत्तस्स वि दुक्कडस्स ईइसो विवाओ' त्ति संविग्गो राया । भणियं च णेण - देवि, दूरे इओ भयवं गुरु ति । मए भणियं - अज्जउत्त, इओ थोवंतरे । राइणा भणियं -- ता एहि, गच्छम्ह साधनेनान्वेषणार्थं समागतो राजा । प्राप्ताश्न मे समीपे कत्यप्यश्ववाराः । दृष्टाश्च तैः हर्षनिर्भरैः कविता राज्ञः । आगतो मे समीपं राजा । बाष्पार्द्र लोचनेन भणितं च तेन देवि ! न मे कुपितव्यम्, अज्ञानमत्रापराध्यति । मया भणितम् - आर्यपुत्र ! कोऽत्रावसरः कोपस्य, निजदुश्चरितविपाकशेषमेतद् । राज्ञा भणितम् - देवि ! अहमत्र निमित्तम् । मया भणितम् - आर्यपुत्र ! जन्मान्तरे वियोगप्रति - बद्धनिजदुश्चरितसामर्थ्येन प्रभूततरमनुभूतम्, तत्र किं त्वं निमित्तमिति । सर्वथा मया कृत एष दोष इति । राज्ञा भणितम् - देवि ! सामान्येन विजानाम्यहमिदम् यदनादिः संसारः कर्मवशगाश्च प्राणिनः । देवी पुर्नावशेषपरिज्ञानसंगतेव मन्त्रयति । मया भणितम् - आर्यपुत्र ! एवम् । राज्ञा नणितम् - देवी कथमिव । कथितो मया मरणव्यवसाय गुरुदर्शनादिको नमस्कारलाभपर्यवसानः परिकथितवृत्तान्तः । 'अहो भगवतो ज्ञानातिशयः' इति विस्मितो राजा । 'अहो असारता संसारस्य, एतावन्मात्रस्यापि दुष्कृतस्येदृशो विपाकः' इति संविग्नो राजा । भणितं च तेन देवि ! कियद्दूरे भगवान गुरुरिति । मया भणितम् - आर्यपुत्र ! इतः स्तोकान्तरे । राज्ञा भणितम्- - तत एहि, गयी । प्रातःकाल घोड़े से ( मुझे ) खोजने के लिए राजा आये। कुछ अश्वारोही मेरे समीप आये । उन्होंने हर्षित हो ( मुझे ) देखा और राजा से कहा । राजा मेरे पास आये। आंसुओं से आर्द्र नेत्रवाले उन्होंने कहा - 'महारानी ! मुझ पर कुपित न हों, अज्ञान ने यहाँ अपराध कराया है।' मैंने कहा- 'आर्यपुत्र ! यहाँ क्रोध का क्या अवसर, अपने दुश्चरित का यह शेष फल था । राजा ने कहा- 'महारानी ! इसमें मैं निमित्त हुआ ।' मैंने कहा - 'आर्यपुत्र ! दूसरे जन्म में वियोग कराने सम्बन्धी अपने दुश्चरित की सामर्थ्य से मैंने अत्यधिक (फल) अनुभव किया। वहाँ पर आप कैसे निमित्त हो सकते हैं ? सर्वथा मेरे द्वारा किया हुआ ही यह दोष है ।' राजा ने कहा- 'महारानी ! सामान्य रूप से मैं यह जानता हूँ कि संसार अनादि है और प्राणी कर्मों के वश में है । पुनः महारानी मानो विशेष ज्ञान से युक्त हो कह रही हैं।' मैंने कहा - 'आर्यपुत्र ! ऐसा ही है ।' राजा ने कहा- 'महारानी, कैसा ?' मैंने मरण का निश्चय और गुरुदर्शन आदि से नमस्कार प्राप्तिपर्यन्त ( बात ) बतलायी । 'भगवान् के ज्ञान की अधिकता आश्चर्यमय है' - ऐसा कहकर राजा विस्मित हुआ । ओह, संसार की असारता ! इतने से दुष्कृत का ऐसा फल हुआ ! इस प्रकार राजा भयभीत हुए और उन्होंने कहा--- 'महारानी ! भगवान् गुरु कितनी दूर हैं ?" मैंने कहा- 'आर्यपुत्र ! यहाँ से थोड़ी दूर हैं।' राजा ने कहा- 'तो Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइचकहा भयवंतदसणवडियाए । मए भणियं-अज्जउत्त, जुतमेयं ति । गओ मं घेत्तण सह परियणेण राया। दिट्टो भयवं, वंदिओ हरिसियमणेण, धम्मलाहिओ भयवया । भणियं च ण-भयवं, साहिओ ममं भयवंतदसणाइओ सयलवुतंतो चेव देवोर। जाओ य मे संतासो, 'अहो एहहमेतस्स वि दुक्कडस्स ईइसो विवाओ' त्ति । अणेयदुक्कडसमन्निओ य अहयं । ता न याणामो, किमेत्थ कायब्वं ति। भयवया भणियं-महाराय सुण, जमेत्थ कायन्वं । राइणा भणियं-आणवेउ भयवं । भयवया भणियं-सुप्पणिहाणं वट्टमाणसयलसावज्जजोयविरमणं संविग्गयाए अईयपडिक्कमणं अच्चंतमणियाणमणागयपच्चक्खाणं ति । एवं च कए समाणे महंतकुसलासयभावेण महामेहवुट्टिहयाणि विय खुद्दजलणुद्दित्तयाइं पसमंति दुक्कडाई। तओ वित्थरइ कुसलासओ, उल्लसइ जीववीरियं, विसुज्झए अंतरप्पा: परिणमइ अप्पमाओ, नियत्तए मिच्छावियप्पणं, अवेइ कम्माणुबंधो, खिज्जइ भवसंतती, पाविज्जइ परमपयं । तत्थ उण सव्वकालं न होंति दुक्कडजोया, अच्चंतियं च निरुवमसुहं। ता इमं कायव्वं । राइणा भणियं-भयवं, एवमेयं, अणुग्गिहीओ अहं भयवया, कुसलजोएण करेमि भयवओ आणं ति। गच्छावो भगवद्दर्शननिमित्तम् । मया भणितम् -आर्यपुत्र ! युक्तमेतदिति । गतो मां गृहीत्वा सह परिजनेन राजा । दृष्टो भगवान्, वन्दितः हर्षितमनसा, धर्मलाभितो भगवता । भणित च तेनभगवन् ! कथितो मम भगवद्दर्शनादिक: सकलवृत्तान्त एव देव्या । जातश्च मे सन्त्रासः, 'अहो एतावन्मात्रस्यापि दुष्कृतस्येदृशो विपाक इति । अनेकदुष्कृतसमन्वितश्चाहम् । ततो न जानीमः किमत्र कर्तव्यमिति । भगवता भणितम् -महाराज ! शृणु, यदत्र कर्तव्यम् । राज्ञा भणितम्-आज्ञापयतु भगवान् । भगवता भणितम् -सुप्रणिधानं वर्तमानसकलसावद्ययोगविरमणं संविग्नतयाऽतीतप्रतिक्रमणमत्यन्तमनिदानमनागतप्रत्याख्यानमिति । एवं च कृते सति महाकशलाशयभावेन महामेघवृष्टि. हतानीव क्षुद्रज्वलनोद्दीप्तानि प्रशाम्यन्ति दुष्कृतानि । ततो विस्तीर्यते कुशलाशयः, उल्लसति जीववोर्यम्, विशुद्धयत्यन्तरात्मा, परिणमत्यप्रसाद:, निवर्तते मिथ्याविकल्पनम्, अपैति कर्मानुबन्धः, क्षोयते भवसन्ततिः, प्राप्यते परमपदम् । तत्र पुनः सर्वकालं न भवन्ति दुष्कृतयोगाः, आत्यन्तिकं च निरुपमसुखम् । तत इदं कर्तव्यम् । राज्ञा भणितम -भगवन् ! एवमेतद्, अनुगृहीतोऽस्म्यहं भगवता, आओ, भगवान् के दर्शन के लिए चलें।' मैंने कहा---'आर्यपुत्र ! ठीक है।' राजा मुझे लेकर परिजनों के साथ गये । भगवान् के दर्शन किये, हर्षित मन से वन्दना की, भगवान् ने धर्मलाभ दिया। राजा ने कहा---'भगवन् ! भगवान् के दर्शन आदि समस्त वृत्तान्त को महारानी ने मुझे बता दिया है। मुझे भय उत्पन्न हुआ है; ओह ! इतने से दुष्कृत का इतना फल हुआ और मैं अनेक दुष्कृतों से युक्त हूँ, अतः नहीं जानता हूँ, यहाँ क्या करना चाहिए ?' भगवान् ने कहा – 'यहाँ जो करना चाहिए सुनो।' राजा ने कहा---'भगवान् आज्ञा दें।' भगवान ने कहा-'सम्यक समाधि, वर्तमान के सभी सावद्ययोग (पापयुक्त कार्यों के संयोग) का त्याग, भयभीत होकर पहले किये हुए कार्यों का प्रतिक्रमण, अत्यन्त रूप से निदान न करना और भविष्य में किये जानेवाले दुष्कर्मों का त्याग करना-ऐसा करने पर महाशुभ आशयवाले भावों से, जिस प्रकार महामेघ की वर्षा से क्षुद्र प्रदीप्त अग्नि ताडित होकर शान्त हो जाती है, उसी प्रकार दुष्कर्म भी शान्त हो जाते हैं। अनन्तर शुभ भावों का विस्तार होता है, आत्मशक्ति विकसित होती है, अन्तरात्मा शुद्ध होती है, अप्रमाद पूर्ण वृद्धि को प्राप्त होता है, मिथ्या विकल्प दूर हो जाता है, कर्मबन्ध छूट जाता है, संसार परम्परा क्षीण हो जाती है । मोक्ष की प्राप्ति होती है । फिर वहाँ दुष्कर्मों का योग (बन्ध) कमी भी नहीं होता है और आत्यन्तिक अनुपम सुख की उपलब्धि होती Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मट्ठमो भवो ] ७६९ भणिऊण पुलइया अहं भणिया य-- -देवि, दुल्लहो भयवंततुल्लो धम्मसारही । उवाएओ य सव्वहा धम्मो, सव्वमन्नं संकिलेसकारणं । न होइ धम्मो गुरुमंतरेण, ता संपाडेमि भयवओ आणं ति । मए भणियं - अज्जउत्त, जुत्तमेयं । तओ दयावियं राइणा महादाणं, काराविया अट्ठाहियामहिमा सम्माणिया पउरजणवया, ठाविओ रज्जे सुरसुंदरी नाम जेट्ठपुत्तो । तओ अणेयसामंतामच्चपरियओ सह मए सयलं ते उरेण य सुगिहीयनामधेयगुरुसमीवे सुत्तभणिएण विहिणा पवड्ढमाणेणं सुहपरिणाhi इओ राया। ता एवं वच्छे, थेवेण कम्मुणा इयं मए पावियं ति । अओ अवगच्छामि थेवस्स अन्नाण चेद्वियस्स, वच्छे, एसो विवाओ, पहूयस्स उ तिरियाइएसुं हवइ । एवं च कम्मपरिणईए समाasure व असा उदए पुग्वकडमेयं ति न संतप्पियव्वं जाणएण । एयमायणिऊण आविभूयसम्मत देस विरइपरिणामाए जंपियं रथणवईए । भयवइ, महंतं दुक्खमणुभूयं भयवईए अहवा ईइसो एस संसारो । सव्वा कयत्था भयवई, जा समुत्तिष्णा इमाओ किलेसजंबालाओ । अहं पि धन्ना चेव, जीए मए तुमं दिट्ठा। न अप्पपुण्णाणं चिंतामणिरयणसंपत्ती हवइ । ता आइसउ भयवई, जं मए कुशलयोगेन करोमि भगवत आज्ञामिति । भणित्वा दृष्टाऽहं भणिता च - देवि ! दुर्लभो भगवत्तुल्यो धर्मसारथिः । उपादेयश्च सर्वथा धर्मः, सर्वमन्यत् संक्लेशकारणम् । न भवति धर्मो गुरुमन्तरेण, ततः सम्पादयामि भगवत आज्ञामिति । मया भणितम् - आर्यपुत्र ! युक्तमेतद् । ततो दापितं राज्ञा महदानम्, कारितोऽष्टाह्निकामहिमा, सन्मानितः पौरजनव्रजाः, स्थापितो राज्ये सुरसुन्दरो नाम ज्येष्ठपुत्रः । ततोऽनेक सामन्तामात्यपरिवृतः सह मया सकलान्तः पुरेण च सुगृहीतनामधेयगुरुसमीपे सूत्र - भणितेन विधिना प्रवर्धमानेन शुभपरिणामेन प्रव्रजितो राजा । तत एवं वत्से ! स्तोकेन कर्मणेदं मया प्राप्तमिति । अतोऽवगच्छामि स्तोकस्याज्ञानचेष्टितस्य वत्से ! एष विपाकः, प्रभूतस्य तु तिर्यगादिकेषु भवति । एवं कर्मपरिणतौ समापतितायामपि अस्या उदये 'पूर्वकृतमेतद्' इति न सन्तप्तव्यं ज्ञायकेन । एवमाकर्ण्याविर्भूत सम्यक्त्व देशवि रतिपरिणामया जल्पितं रत्नवत्या - भगवति ! महद् दुःखमनुभूतं भगवत्या । अथवैदृश एष संसारः । सर्वथा कृतार्था भगवती, या समुत्तीर्णाऽस्माद् क्लेशजम्बालाद् । अहमपि धन्यैव यया मया त्वं दृष्टा । नाल्पपुण्यानां चिन्तामणिरत्नसम्प्राप्तिर्भवति । है । अत: यह करना चाहिए।' तब राजा ने कहा- 'भगवन् ! ठीक है, भगवान् से मैं अनुगृहीत हूँ, शुभयोग से भगवान् की आज्ञा का पालन करूँगा' - ऐसा कहकर ( राजा ने ) मुझे देखा और कहा - 'महारानी ! भगवान् के समान सारथी दुर्लभ है । सब प्रकार से धर्म ग्रहण करने योग्य है और अन्य सब दुःख का कारण है । गुरु के बिना धर्म नहीं होता है अतः भगवान् की आज्ञा पूर्ण करता हूँ।' मैंने कहा - 'आर्यपुत्र ! ठीक है ।' अनन्तर महादान दिलाया, आष्टाह्निक महोत्सव कराया, नगरनिवासियों का सम्मान किया, राज्य पर सुरसुन्दर नामक बड़े पुत्र को बैठाया । अनन्तर अनेक सामन्त और आमात्यों से युक्त हो मेरे और समस्त अन्त: पुर् के साथ सुगृहीत नाम वाले गुरु के पास सूत्रकथित विधिपूर्वक बढ़े हुए शुभ परिणामों से राजा प्रव्रजित हो गये । तो इस प्रकार पुत्री, थोड़े से कर्म से मैंने यह पाया । अतः जानती हूँ पुत्री ! कि थोड़ी-सी अज्ञान चेष्टा का यह फल होता है और भी अधिक अज्ञान चेष्टा का फल तिथंच आदि गतियों में गमन होता है। इस प्रकार कर्मों की परिणति के उदय में आने पर 'यह पहले का किया हुआ (कर्म) है - ऐसा सोचकर ज्ञानी को दुखी नहीं होना चाहिए ।' ऐसा सुनकर उत्पन्न सम्यक्त्व रूप देशविरति के परिणामोंवाली रत्नवती ने कहा- 'भगवती ! भगवती से बहुत दुःख भोगा । अथवा यह संसार ही ऐसा है। भगवती सब प्रकार से कृतार्थ हैं जो कि इस क्लेशरूपी जाल Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइचकहा hread ति । तओ वियाणिऊण तीए भावं साहिओ सावयधम्मो गणिणीए । 'एयमहं चएमि काउं ति हरिसिया रयणवई । नमोवकारपुव्वयं सिद्धंतविहाणेण गहियाई अणुव्वयगुणन्वयसिक्खावयाई । दिया गणगी, पुच्छिया रयणवईए । भयवइ, 'कोइसो मज्झ सरविसेसो ति पुच्छियाए जं तए समाणत्तं 'जारिस परमानंदजोए भत्तुणो हवई' त्ति ता कीइसो अज्जउत्तस्स परमानंदजोओ, कि सुयं कुओइ अज्जउत्तेण वीयरायत्रयणं । गणिणीए भणियं वच्छे, एवमहं तक्केमि । एत्थंतरम्मि गुलगुलिये गंधहत्थिणा, समाहयं संभामंगलतरं, पंढियं च बंदिणा ७७० 99 धम्मोदएण तं नत्थि जं न होइ त्ति सुंदरं लोए । इय जाणिऊण सुंदरि संपइ धम्मं दढं कुणसु ॥४६॥ ढोsयाणि य से नंदाभिहाणाए भंडारिणोए महानायगसंजुयाणि कडयाणि समागओ सकुसुमहत्यो पुरोहिओ । भणिय च णेण - देवि, देवगुरुवंदणसमओ वट्टइ त्ति । हरिसिया रयणई । चितियं च णाए - न एत्थ संदेहो, अनुकूलों सउणसंघाओ त्ति सम्ममायण्णियं बीयरागवयणं तत आदिशतु भगवती, यन्मया कर्तव्यमिति । ततो विज्ञाय तस्या भावं कथितः श्रावकधर्मो गणिन्या । 'एतमहं शक्नोमि कर्तुम्' इति हर्षिता रत्नवती । नमस्कारपूर्वकं सिद्धान्तविधानेन गृहीतानि अणुव्रतगुणत शिक्षाव्रतानि । वन्दिता गणिनी । पृष्टा रत्नवत्या - भगवति ! ' कीदृशो मम स्वरविशेषः ' इति पृष्टया यत्त्वया समाज्ञप्तं 'यादृशः परमानन्दयोगे भर्तुर्भवति' इति । ततः कीदृश आर्यपुत्रस्य परमानन्दयोगः, किं श्रुतं कुतश्चिदार्यपुत्रेण वीतरागवचनम् । गणिन्या भणितम् - वत्से ! एवमहं तर्कये । अत्रान्तरे गुलुगुलितं गन्धहस्तिना, समाहत सन्ध्यामङ्गलतूर्यम्, पटितं च वन्दिना - धर्मोदयेन तत्रास्ति यन्न भवतीति सुन्दरं लोके । इति ज्ञात्वा सुन्दरि ! सम्प्रति धर्मं दृढं कुरु ॥९४६॥ ढौकिते च तस्था नन्दाभिधानया भाण्डागारिण्या महानायकसंयुक्ते ( महामध्यमणिसंयुक्ते) कटके, समागतः सितकुसुमहस्तः पुरोहितः । भणितं च तेन -देवि ! देवगुरुवन्दनसमयो वर्तते इति । हर्षिता रत्नवती । चिन्तितं च तया - नात्र सन्देहः अनुकूनः शकुनसंघात इति सम्यगा कर्णितं वीत से निकल गयीं । मैं भी धन्य ही हूँ जो कि मैंने आपके दर्शन पाये । अल्पपुण्यवालों को चिन्तामणि रत्न की प्राप्ति नहीं होती है अतः भगवती, मेरा जो कर्तव्य हो उसकी आज्ञा दें।' अनन्तर उसके भाव को जानकर गणिनी ने गृहस्थ धर्म कहा । ' यह मैं करने में समर्थ हूँ' - इस प्रकार रत्नवती हर्षित हुई । नमस्कारमन्त्रपूर्वक सैद्धान्तिक विधि से अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत ग्रहण किये । गणिनी की वन्दना की । रत्नवती ने पूछा- 'भगवती ! 'मेरा स्वरविशेष कैसा है ?' - ऐसा पूछे जाने पर जो आपने आज्ञा दी थी कि पति के परम आनन्द के योग में जैसा (स्वर) होता है। अतः आर्यपुत्र का कैसा परम आनन्द का योग है ? क्या कहीं से आर्यपुत्र ने वीतराग के वचनों को सुना है ?' गणिनी ने कहा- 'ऐसा मैं सोचती हूँ । इसी बीच मदयुक्त हाथी ने शब्द किया, सन्ध्या'कालीन मंगल वाद्य बजे और बन्दी ने पढ़ा धर्म के उदय से वहाँ नहीं है जो कि लोक में सुन्दर न हो, ऐसा जानकर सुन्दरी ! इस समय अत्यधिक रूप से या भली प्रकार धर्म ( धर्माचरण) करो ॥ ९४६ ॥ उसकी नन्दा नामक भण्डारिन मध्य में जड़े हुए महामणियोंवाले दो कड़े लायी, हाथ में सफेद फूल लिये पुरोहित आया और उसने कहा- 'महारानी ! देव गुरु की वन्दना का समय है ।' रत्नवती हर्षित हुई । उसने Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो भवो ] ७७१ अज्जउत्तेण, पावियं पावियव्वं, उवलद्धो सिद्धिमग्गो। कहं च अन्नहा परमाणंदसद्दो सुयदेवयाकप्पाए भयवईए महाओ निक्खमह । अब्भहियजायहरिसाए वंदिया गणिणी, भणिया य सविणयं-भयवइ, कि कप्पइ एत्थ भयवईए रयणीए चिट्ठिउं, न हि । गणिणीए भणियं-धम्मसीले, जत्थ तुमं, लत्थ नस्थि विरोहो। तहावि गच्छामि ताव संपयं । अदूरे चेव अम्हाण पडिस्सओ। ता पुणो आगमिस्सामि त्ति। रयणवईए भणियं-- भयवइ अणुग्गहो। वंदिऊणमभुटिया गणिणी। अणुव्वइया य णाए । वंदिऊण य नियत्ता उचियदेसाओ। कयं पओसकरणिज्जं। नमोक्कारपराए य अइगया रयणी । पहाए य आउच्छिऊण ससुरमणन्नाया य ण गया गणिणीसमीवं । वंदिया गणिणी । सुआ धम्मदेसणा । समागया सगिहं । वीयदियहे धम्माणुरायओ सगिहत्थियाए चेव समागया गणिणी । एवं पदिणं गणिणीपज्जुवासणपराए अइक्कता चत्तारि दिवसा। समागओ पंचमे दिणे कुमारो। निवेइओ चंदसुंदरीए गणिणीसमीवसंठियाए रयणवईए, जहा 'देवि न अन्नहा भयवईवयणं ति; समागओ ते हिययणंदणो' । एयमायण्णिऊण परितुद्वा रयणवई । दिन्नं तीए पारिओसियं । रागवचनमार्यपत्रेण, प्राप्तं प्राप्तव्यम, उपलब्धः सिद्धिमार्गः। कथं चान्यथा परमानन्द शब्दः श्रुतदेवताकल्पाया भगवत्या मुखान्निष्क्रामति । अभ्यधिकजातहर्षया वन्दिता गणिनी, भणिता च सविनयम् । भगवति ! किं कल्पतेऽत्र भगवत्या रजन्यां स्थातं, न हि। गणिन्या भणितम्-धर्मशीले ! यत्र त्वं तत्र नास्ति विरोधः। तथापि गच्छामि तावत् साम्प्रतम् । अदूरे एवास्माकं प्रतिश्रयः । ततः पुनर गमिष्यामीति । रत्नवत्या भणितम् - भगवति ! अनुग्रहः । वन्दित्वाऽभ्युत्थिता गणिनी । अनअजिता च तया । वन्दित्वा च निवृत्तोचितदेशात् । कृतं प्रदोषक रणीयम् । नमस्कारपरायाश्चातिगता रजनी। प्रभाते चापृच्छय श्वसुरमनज्ञाता च तेन गता गणिनीसमीपम् । वन्दिता गणिनी । श्रुता धर्मदेशना । समागता स्वगृहम् । द्वितीय दिवसे धर्मानुरागतः स्वगृहस्थिताया एव समागता गणिनो। एव प्रतिदिवसं गणिनीपर्युपासनपराया अतिक्रान्ताश्चत्वारो दिवसाः। समागतः पञ्चमे दिने कुमारः । निवेदितश्चन्द्रसुन्दर्या गणिनीसमीपसंस्थिताया रत्नवत्याः, यथा 'देवि ! नान्यथा भगवती. वचनमिति, समागतस्ते हृदयनन्दनः। एवमाकर्ण्य परितुष्टा रत्नवती। दत्तं तस्याः पारितोषिक म्। सोचा- इसमें सन्देह नहीं कि शकुन अनुकूल हैं, अत: आर्यपुत्र ने वीतराग के वचन भली प्रकार सुने हैं, प्राप्त करने योग्य वस्तु प्राप्त की है, सिद्धि का मार्ग पाया है। अन्यथा परमानन्द का शब्द श्रुतदेवता के समान भगवती के मुख से कैसे निकलता? अत्यधिक हर्ष से युक्त हो गणिनी की वन्दना की और विनयपूर्वक कहा'भगवती ! भगवती यहाँ रात्रि में ठहरेंगी अथवा नहीं ?' गणिनी ने कहा- 'धर्मशीले ! जहाँ तुम हो, वहाँ विरोध नहीं है, तथापि इस समय मैं जा रही हूँ। हमारा आश्रम पास में ही है । अतः पुन: आऊँगी।' रत्नवती ने कहा -'भगवती! अनुग्रह किया' (ऐसा कहकर) वन्दना की। गणिनी उठी और रत्नवती उनके पीछे चली। वन्दना कर (रत्नवती) योग्य स्थान से लौट आयी । सन्ध्या के योग्य कार्यों को किया । नमस्कार मन्त्र का पाठ करते हुए रात बीती। प्रातःकाल श्वसुर से पूछकर और उनसे अनुमति प्राप्त कर गणिनी के पास गयी । गणिनी की वन्दना की। धर्मोपदेश सुना। अपने घर आयी। दूसरे दिन धर्मानुराग से जब वह अपने घर में थी, तभी गणिनी आयीं। इस प्रकार प्रतिदिन गणिनी की उपासना में तत्पर रहते हुए चार दिन बीत गये। पांचवें दिन कुमार आया । चन्द्रसुन्दरी ने गणिनी के समीप स्थित रत्नवती से निवेदन किया कि 'देवि ! भगवती के वचन झूठे नहीं थे, तुम्हारे हृदय को आनन्द देनेवाला आ गया।' यह सुनकर रत्नवती सन्तुष्ट हुई । (उस ने) उसे पारितोषिक दिया। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '७७२ [समराइञ्चकहा एत्थंतरम्मि कुमारो वि सह विग्गहेण दळूण नरवई साहिऊण विग्गहवुत्तंतं राइणो सबहुमाणं सम्माणिओ णेण समागओ रयणवइसमीवं । दट्ठण य 'कहं कयत्था चेव देवी सगया गणिणीए' त्ति हरिसिओ चित्तेगं। वंदिया णेण गणिणी। धम्मलाहिओ गणिणीए। भणियं कुमारेण-भयवइ, पेच्छ मम पुण्णोदयं, जेण पडिबोहिओ अहं भयवया सुगिहीयनामधेएण गुरुणा बीयहिययभूया य मे तए देवि त्ति; दिट्ठा य भवसयदुल्लहदसणा भयवई। गणिणीए भणियं-कुमार, नत्थि असज्झं कुसलाणुबंधिपुण्णोदयस्स। एएण पाणिनो पावंति सुहपरंपराए मुत्तिसुहं पि, किमंग पुण अन्नं । कुमारेणं भणियं -एवमेयं । जइ वि पुग्णपावक्खएण मुत्ती, तहावि तस्स कुसलाणुबंधिपुण्णमेव कारणं। न कुसलाणुबंधिपुण्णविवागमतरेण तारिसा भावा लभंति, जारिसेसु पुण्णपावक्खयनिमित्तकुसलजोयाराहणं ति। गणिणोए भणियं-साहु, सम्ममवधारियं कुमारण। अहवा न एत्थ अच्छरोयं । निमित्तमत्त चेव देसणा तत्तोवलंभे कुसलाणं। एवं च धम्मकहावावारेण कंचि वेलं गमेऊण गया गणिणी पडिस्सयं । अन्नोन्नधम्मसंपत्तीए य परितुळं मिहुणयं । भुत्तुत्तरकालं च साहिओ परोप्पर ___ अत्रान्तरे कुमारोऽपि सह विग्रहेण दृष्ट्वा नरपति कथयित्वा विग्रहवृत्तान्तं राज्ञः सबहुमानं सम्मानितस्तेन समागतो रत्नवतीसमीपम् । दृष्ट्वा च 'कथं कृतार्था एव देवो संगता गणिन्या' इति हर्षितश्चित्तेन । वन्दिता तेन गणिनी । धर्मलाभितो गणिन्या। भणित कुमारेण । भगवति ! पश्य मम पुण्योदयम्, येन प्रतिबोधितोऽहं भगवता सुगृहीतनामधयेन गुरुणा द्वितीयहृदयभूता च मे त्वया देवीति, दृष्टा च भवशतदुर्लभदर्शना भगवती। गणिन्या भणितम् -- कुमार ! नास्त्यसाध्यं कुशलानुबन्धिपुण्योदयस्य । एतेन प्राणिनः प्राप्नुवन्ति सखपरम्परया मुक्तिसुखम पि, किमङ्ग पुनरन्यद् । कुमारेण भणितम्-एवमेतद् । यद्यपि पुण्यपापक्षयेण मुक्तिः, तथापि तस्य कुशलानुबन्धिपुण्यमेव कारणम् । न कुशलानुबन्धिपुण्यविपाकमन्तरेण तादृशा भावा लभ्यन्ते, यादृशेषु पुण्यपापक्षयनिमितकुशलयोगाराधनमिति। गणिन्या भणितम् - साधु, सम्यगवधारितं कुमारेण । अथवा नात्राश्चर्यम् । निमित्तमात्रमेव देशना तत्त्वोपलम्भे कुशलानाम् । एवं च धर्मकथाव्यापारेण कांचिद् वेलां गमयित्वा गता गणिनी प्रतिश्रयम् । अन्योऽन्यधर्मसम्प्राप्त्या च परितुष्टं मिथुनकम् । भक्तो इसी बीच विग्रह के साथ राजा को देखकर, राजा से विग्रह का वृत्तान्त कहकर आदरपूर्वक उनसे सम्मानित होकर कुमार रत्नवती के पास आया और देखकर कि गणिनी के साथ देवी कैसी कृतार्थ है, इस प्रकार चित्त से हर्षित हुआ। उसने गणिनी की वन्दना की। गणिनी ने धर्मलाभ दिया । कुमार ने कहा-'मेरे पुण्योदय को देखो कि मुझे भगवान सुगृहीत नामवाले गुरु ने प्रतिबोधित किया और मेरे दूसरे हृदय के समान देवी को आपने प्रतिबोधित किया और सैकड़ों भवों में दुर्लभ दर्शनवाली भगवती को देखा।' गणिनी ने कहा-'कुमार ! शुभ परिणामवाले पुण्योदय के लिए कुछ भी असाध्य नहीं है। इससे प्राणी सुख की परम्परा से मुक्ति-सुख को भी पाते हैं, अन्य की तो बात ही क्या।' कुमार ने कहा--'यह सच है। यद्यपि पुण्य और पाप के क्षय से मुक्ति होती है तथापि मुक्ति का कारण शुभ परिणामवाला पुण्य ही है। शुभ परिणामवाले पुण्यफल के बिना वैसे पदार्थ प्राप्त नहीं होते, जैसे पुण्य और पाप के नष्ट होने के कारणभूत पुण्य योग की आराधना से प्राप्त होते हैं । गणिनी ने कहा-'ऐसा ही है, कुमार ने ठीक निश्चय किया अथवा इसमें आश्चर्य नहीं है । पुण्यवालों की तत्त्व की प्राप्ति उपदेश के निमित्त मात्र ही है।' इस प्रकार धर्मकथा द्वारा कुछ समय बिताकर गणिनी आश्रम (प्रतिश्रय) में चली गयीं। परस्पर धर्म की प्राप्ति से दोनों सन्तुष्ट हुए। भोजन करने के बाद इन दोनों ने आपस में धर्म का वृत्तान्त Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो भवो] ७७३ मिमेहि धम्मवतंतो। गयाइं गणिणीसमीवं, सुया धम्मदेसणा। समागयाणि उचियसमएण । एवं च पइदिणं धम्मजोगाराहणपराण अइक्कंतो कोइ कालो। भावियाणि धम्मे । कालक्कमेणेव समुप्पन्नो रयणवईए पुत्तो। नतुयमुहदसणकयत्थत्तणेणं च कुमारं रज्जे अहिसिंचिय पव्वइओ मेत्तीबलो। कुमारो वि जाओ महाराओ ति। तस्स य धम्मगणप्पहावेण अणरत्तसामंतमंडलं रहियं कंटएहि अलंकियं रज्जगुणेण समद्धासिवं लच्छीए निच्चपमुइयजणं सुट्टियाए तिवग्गणीईए सयलजणपससणिज्जं देवगुरुपज्जुवासणपरयाए रज्जमणुपालेंतस्स अइक्कंतो कोइ कालो। ___ अन्नया समागो जलयकालो, ओत्थरियमंबरं जलहरेहि, पवाइया कलंबवाया, वियभिओ गज्जियरवो, उल्लसिया वलायपंती, विप्फुरिया विज्जुलेहा, हरिसिया वप्पीहया, जायं परिसणं, पणच्चिया सिहंडिणो, पणट्ठा रायहंसा, पव्वालिया वसुमई, भरिया कुसारा, पवत्तो ददुररवो, उब्भिन्ना कंदला, उक्कंठियाओ पहियजायाओ, निव्वयं गोमाहिसक्क । पवड्ढमाणाणुबंधे य जलयकाले सरसरियापूरदंतणत्थं समं अहासन्निहियपरियणेण निग्गओ राया। दिट्ठा सरिया कटुतणकलि त्तरकालं च कथित: परस्परमाभ्यां धर्मवृत्तान्तः । गती गणिनीसमीपम्, श्रुता धर्मदेशना। समागतो उचितसमयेन। एवं च प्रतिदिनं धर्मयोगाराधनपरयोरतिक्रान्तः कोऽपि कालः। भावितौ धर्मे । कालक्रमेणैव समुत्पन्नो रत्नवत्याः पुत्रः । नप्त मुखदर्शन कृतार्थत्वेन च कुमारं राज्येऽभिषिच्य प्रवजितो मैत्रोबलः। कुमारोऽपि जातो महाराज इति । तस्य च धर्मगुणप्रभावेनानुरक्तसामन्तमण्डलं रहितं कण्टकरलंकृतं राज्यगुणेन समध्यासितं लक्ष्म्या नित्यप्रमुदितजनं सुस्थितया त्रिवर्गनीत्या सकलजनप्रशंसनीयं देवगुरुपर्युपासनपरतया राज्यमनुपालयतोऽतिक्रान्तः कोऽपि कालः। ___अन्यदा समागतः जलदकालः, अवस्तृतमम्बरं जलधरैः, प्रवाताः कदम्बवाताः, विज़म्भितो जितरवः, उल्लसिता बलाकापङ क्तिः, विस्फुरिता विद्युल्लेखाः, हर्षिताश्चातकाः, जातं प्रवर्षणम्, प्रनर्तिताः शिखण्डिनः, प्रनष्टा राजहंसा, प्लाविता वसुमती, भृताः कासाराः, प्रवृत्तो दर्दुररवः, उद्भिन्नाः कन्दलाः, उत्कण्ठिताः पथिकजायाः, निर्वतं गोमाहिषचक्रम् । प्रवर्धमानानुबन्धे च जलदकाले सर:सरित्पूरदर्शनार्थ समं यथासन्निहितपरिजनेन निर्गतो राजा । दृष्टा सरित् काष्ठतृणकलि कहा । दोनों गणिनी के पास गये । धर्मोपदेश सुना । योग्य समय पर वापस आये । इस प्रकार प्रतिदिन धर्मयोग की आराधना-परायण होते हुए दोनों का कुछ समय बीत गया। दोनों ने धर्म भाव रखा । कालक्रम से रत्नवती के पुत्र उत्पन्न हुआ। पौत्र के मुख-दर्शन से कृतार्थ होकर कुमार का राज्य पर अभिषेक कर मंत्रीबल प्रवजित हो गया। कुमार भी महाराज हो गये। धर्मगुण के प्रभाव से अनुरक्त समस्त सामन्त समूहवाले, कण्टकों से रहित, राज्यगुण से अलंकृत, लक्ष्मी से अधिष्ठित, प्रतिदिन लोगों को प्रमुदित करते हुए, धर्म, अर्थ और काम की सुस्थिर नीति से लोगों द्वारा प्रशंसनीय, देव और गुरु के उपासना-परायण होकर राज्य का पालन करते हुए (उनका) कुछ समय बीत गया । ___ एक बार वर्षाकाल आया। मेघों ने आकाश को आच्छादित कर लिया। हवा के झोंके चले । गर्जन का शब्द बढ़ा। बगुलों की पंक्तियाँ हर्षित हुईं। बिजली चमकने लगी। पपीहे हर्षित हुए। खूब वर्षा हुई। मोरों ने नृत्य किया। राजहंस दिखाई नहीं पड़े। पृथ्वी जल से भर गयी, तलैयाँ भर गयीं, मेंढकों का शब्द होने लगा । अंकुर फूट पड़े । पथिकों की स्त्रियाँ उत्कण्ठित हो गयीं । गाय और भैसों का समूह शान्त हुआ। वर्षा बढ़ने पर तालाब और नदियों की बाढ़ देखने के लिए समीपवर्ती परिजनों के साथ राजा निकला। लकड़ी, तण Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७४ [ समराहच्चकहा लेण पूरिया जलोहेण वित्यरंती सबओ, निवाडयंती कुलाणि, विणासयंती आरामे, कलसयंती अप्पाणयं, संगया करजलयरेहि, रहिया बुहजणसेवणिज्जेण जलेण, अहिटिया कल्लोलेहि, वज्जिया मज्जायाए, अच्चंतभीसगेगं महावत्तसंघाएणं बालाइभयजणणि ति। तं च कंचि वेलं पुलइय पविट्ठो नयरिं राया। अइक्कंता कइइ दियहा। सरयसमए आसपरिवाहणनिमित्तं वाहियालि गच्छमाणेण पुणो पयइभावढ़िया संगया सच्छोदएण वज्जिया कूरजलयरेहिं विसिट्ठजणोवभोयसंपायणसमत्था स च्चेव दिट्ठति । तं च दळूण सुमरियपुत्ववुत्तंतस्स राइणो तहाकम्मपरिणइवसेण समुप्पन्नो संवेओ। चितियं च णेण-अहो णु खलु असारो बज्झरिद्धिवित्थरो, सपरावगारओ य परमत्थेण। एसेव सरिया एत्थ निदसणं ति। जहा इमा वित्थरंती सव्वो अप्पपरावगारिणी पुव्वोवलद्धवृत्तंतेण, तहा पुरिसो वि वित्थरंतो बज्झवित्थरेण; सो खलु महारंभ रिग्गयाए निवाडेइ सुहभावकूलाणि, विणासेइ धम्मचरणारामे, कलसेइ कम्मुणा अप्पाणयं, संजुज्जए कूरसत्तेहि, विउज्जए निरीहसाहुजणेण, सेविज्जए उम्मायकल्लोलेहि, वज्जिज्जए किच्चमज्जायार । एवं च महामोहावत्तमझवत्ती लेन पूरिता जलोधेन विस्तृण्वती सर्वतः, कूलानि निपातयन्ती, विनाशयन्त्यारामान्, कलुषन्त्यात्मानम्, संगता क्रूरजलचरः, रहिता बुधजनसेवनीयेन जलेन, अधिष्ठिताः कल्लोलैः, वजिता मर्यादया, अत्यन्तभीषणेन महावर्तसंघातेन बालादिभय जननीति । तां च कांचिद् वेलां दृष्ट्वा प्रविष्टो नगरी राजा । अतिक्रान्ता कतिचिद् दिवसाः। शरत्समये अश्वपरिवाहननिमित्तं वाह्यालि (अश्वखेलनभूमि) गच्छता पुनः प्रकृतिभावस्थिता संगता स्वच्छोदकेन वजिता क्रूरजलचरैविशिष्टजनोपभोगसम्पादनसमर्था सैव दृष्टेति । तां च दृष्ट्वा स्मृतपूर्ववृत्तान्तस्य राज्ञः तथाकर्मपरिणतिवशेन समुत्पन्न: संवेगः । चिन्तितं च तेन-अहो नु खल्वसारो बाह्य ऋद्धिविस्तारः, स्वपरापकारकश्च परमार्थेन । एषव सरिदत्र निदर्शनमिति । यथेयं विस्तृण्वती सर्वत आत्मपरापकारिणी पूर्वोपलब्धवृत्तान्तेन; तथा पुरुषोऽपि विस्तृण्वन् बाह्यविस्तारेण; सः खलु महारम्भपरिग्रहतया निपातयति शुभभावकूलानि, विनाशयति धर्मचरणारामान्, कलुषयति कर्मणाऽऽत्मानम्, संयुज्यते क्रूरसत्त्वैः, वियुज्यते निरीहसाधुजनेन, सेव्यते उन्मादकल्लोलैः, वय॑ते कृत्यमर्यादया। एवं च महामोहावर्तमध्यवर्ती निरथि और कीचड़ से भरी हुई जलवाली नदी को देखा । वह चारों ओर फैली हुई थी। किनारों को गिरा रही थी। उद्यानों का विनाश कर रही थी। अपने आपको कलुषित (कीचड़ से युक्त) कर रही थी ! क्रूर जलचरों से युक्त थी। विद्वानों के द्वारा सेवन करने योग्य जल से रहित थी। बड़ी-बड़ी भयंकर भवरों के समूह से बच्चों आदि को भय उत्पन्न कर रही थी। उसे कुछ समय देख कर राजा नगरी में प्रविष्ट हुआ। कुछ दिन बीत गये। शरत्काल में घोड़े को चलाने के लिए अश्वक्रीडा-भूमि में जाते हुए पुन: स्वाभाविक रूप में स्थित, स्वच्छ जल से युक्त, क्रूर जलचरों से रहित, विशिष्ट लोगों के उपभोग को पूर्ण करने में समर्थ वही नदी दिखाई दी। उसे देखकर, जिसे पूर्ववृत्तान्त याद आ गया है, ऐसे राजा को कर्म की परिणतिवश विरक्ति उत्पन्न हो गयी। उसने सोचा -ओह ! बाह्य ऋद्धि का विस्तार असार है और यथार्थ रूप से अपना और दूसरे का अपकारक है । यही नदी यहाँ दृष्टान्त है । जैसे यह नदी पूर्व उपलब्ध वृत्तान्त से विस्तृत होती हुई सभी ओर से अपना अपकार करने वाली थी, उसी प्रकार पुरुष भी बाह्य विस्तार से (अपना) विस्तार करता हुआ अपना अपकारी है। वह मनुष्य महान् आरम्म और परिग्रह से शुभभाव रूपी किनारों को गिराता है, धर्मपालन रूप पद्यानों का विनाश करता है । अपने आपको कर्मों से कलुषित करता है, क्रूर प्राणियों से युक्त होता है, निरीह साधुओं से वियुक्त होता है, Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो भवो] ७७५ निरत्थियाए अहोपुरिसियाए अवियारिऊण परमत्थं, अणालोचिऊण आयइं, अपोच्छऊण तस्स मंगुरत्तं, माइंदयालविब्भमे तम्मि असइ पत्ते दि अपरिचिए अवयारए नियमेण अच्चंतगिद्धो सपरावयारए ति । रहिओ य णेणं, जहा इमो सरिया पयइभावे वट्टमाणी सोहणा, तहा पुरिसो वि विज्जमाणे विवेए निरत्थयपरिकिलेसरहिओ संगओ सुद्धासएण वज्जिओ पावमित्तेहि जीवलोओवयारोवभोयसंपायणसमत्थो हवइ, अविज्जमाणे अवायगमणपडिबधे बज्झविहववित्थरभावो उण विवेइणो वि महंतं परलोयंतरायं निबंधणं मिच्छाहिमाणस्स उच्छायणं चित्तनिव्वईए संपायणं परिकिलेसाण पणासणं नाणपरिणईए वेरियं संतोसामयस्स बंधवं असव्ववसायाणं अयाणयं वियंभसुहस्स वियाणयं कवडनीईणं वज्जियं कुसलजोएण संगयं पावाणुमईए। तहा जइ वि केसिंचि दव्वोबयारसंपायणसमत्थमेयं, तहावि तरो; तमो न अन्नपीडाए विणा परमत्थओ सो वि संभवई। पहाणो य भावोवयारो न यापरिचत्तारंभपरिग्गहो सव्वहा तं संपाडेइ। जुत्तं च मणुयभावे तस्स संपायणं, किमन्नेण निरत्यएणं ति । चितयंतस्स समुप्पन्नो सयलदुक्खविउडणेक्कपच्चलो कुसलपरिणामो। कयाऽऽहोपुरुषिकयाऽविचार्य परमार्थमनालोव्यायतिम्, अप्रेक्ष्य तस्य भङ गुरत्वम्:, मायेन्द्रजालविभ्रमे तस्मिन्नसकृत् प्राप्तेऽपि अपरिचितेऽपकारके नियमेनात्यन्तगृद्धः स्वपरापकारक इति । रहितश्च तेन यथेयं सरित् प्रकृतिभावे वर्तमाना शोभना, तथा पुरुषोऽपि विद्यमाने विवेके निरर्थकपरिक्लेशरहितः संगतः शद्ध शयेन वजितः पापमित्रैर्जीवलोकोपकारोपभोगसम्पादनसमर्थो भवति, अविद्यमानेऽपायगमनप्रतिबन्धेः बाह्यविभवविस्तारभावः पुनविवेकिनोऽपि महान् परलोकान्तरायः, निबन्धनं मिथ्याभिमानस्य उच्छादनं चित्तनिर्वतेः, सम्पादन परिक्लेशानां, प्रण शनं ज्ञानपरिणतेः, वैरिकः सन्तोषामृतस्य, बान्धवोऽसद्व्यवसायानाम् , अज्ञायको विश्रम्भसुखस्य, विज्ञायकः कपटनीतीनाम, वजितः कूशनयोगेन, संगतः पापानुमत्या । तथा यद्यपि केषांचिद् द्रव्योपकारसम्पादनसमर्थमेतद, तथापीत्वरः, ततो नान्यपीडया विना परमार्थतः सोऽपि सम्भवति । प्रधानश्च भावोपकारः, न चापरित्यक्तारम्भपरिग्रहः सर्वथा तं सपादयति । युक्तं च मनुजभावे तस्य सम्पादनम् । किमन्येन निरर्थके नेति । चिन्तयतः समुत्पन्नः सकलदुःविकुटनैकप्रत्यलः कुशलपरिणामः । प्रवर्धमान शुभपरिणामश्च उन्मादरूपी तरंगों से सेवित होता है, कर्तव्य की मर्यादा को छोड़ देता है । इस प्रकार महामोहरूपी भंवरों के मध्य में होकर निरर्थक अभिमान के कारण परमार्थ का विचार न कर, भावीफल का विचार न कर, उसकी नश्वरता को न देख, मायामयी इन्द्रजाल के सदृश भ्रमरूप उस फल को बार-बार प्राप्त करता है, फिर भी उसके अपकार से अपरिचित हो, नियम से अत्यन्त आसक्त हुआ अपना और दूसरे का अपकारी होता है । विस्तार से रहित जैसे यह नदी स्वाभाविक स्थिति में विद्यमान होकर सुन्दर है, उसी प्रकार पुरुष विवेक के विद्यमान होने पर निरर्थक क्लेश से रहित हो, शुद्ध आशय से युक्त हो, पापी मित्रों से रहित हो संसार के उपकार और उपभोग का सम्पादन करने में समर्थ होता है । बाह्य वैभव के विस्तार के भावरूपी सर्वनाश पर प्रतिबन्ध न होने से विवेकी व्यक्ति के भी परलोक (-गमन) में बहुत बड़ा विघ्न होता है, मिथ्या अभिमान का बन्धन होता है, चित्त की शान्ति का नाश होता है, क्लेशों का सम्पादन होता है, ज्ञानरूप फल का विनाश होता है । वह सन्तोष रूपी अमृत का वैरी हो जाता है, असत्कर्मों का बन्धु बन जाता है, विश्वास रूप सुख को न जाननेवाला हो जाता है, कपटनीतियों का जानकार होता है, शुभयोग से रहित होता है और पाप की अनुमति से युक्त होता है। यद्यपि किन्हीं-किन्हीं को धन आदि देकर उपकार करने में यह समर्थ होता है, तथापि निष्ठुर होता है, अतः Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चकहा पवड्ढमाणसुहपरिणामोय नियत्तो राया । साहिओ णेण एस वइयरो रयणवईसहियाण मंतीणं । भणियं च हिं- देव, एवमेयं, न अन्नह त्ति । करेउ समीहियं देवो । अलं एत्थ कालक्खेवेण । अइचंचला जीवलोfoई, मुहुत्तमेतं पिय तं पसंमिज्जए जं परमत्थसाहणपराणं । तओ 'किच्चमेयं' ति चितिऊण राइणा दवावियमाघोसणापुव्वयं महादाणं, काराविया सव्वाग्रयणेसु पूया, सम्माणियाओ पयाओ, निवेसिओ रज्जे धिइबलो । ७७६ तओ य पउत्तिपुरिसेहितो कासिया विसयसंठियं वियाणिऊण भयवंतं विजयधम्मायरियं पहाणसामंतामच्च संगओ समं रयणवईए पयट्टो गुरुसमीवं राया । पत्तो कालक्कमेण । दिट्ठो वाणारसोयरसंठओ भयवं विजयधम्मो । वदिओ पहदुवयणकमलेणं । धम्मलाहिओ गुरुणा, पुच्छिओ आगमणपओयणं । साहियं राइणा । परितुट्ठो गुरू, उवबूहिओ य णेण । तओ पसत्थेण तिहिकरणमुहुत्त जोएण वाणारसीनयरिसामणा संपाडियमहादव्वोवयारो समं पुव्वभणियपरियणेणं महाविभू विज्झमाणण परिणामेण संजायचरणपरिणामो पव्वइओ राया । निवृत्तो राजा । कथितस्तेनैष व्यतिकरो रत्नवतीसहिताना मन्त्रिणाम् । भाणतं च तै:- देव ! एवमेतद्, नान्यथेति । करोतु समीहित देवः । अलमत्र वालक्षेपेण । अतिचञ्चल, जीवलोकस्थितिः, मुहूर्त मात्रमपि च तत् प्रशस्यते यत् परमार्थसाधनपराणाम् । ततः 'कृत्यमेतद्' इति चिन्तयित्वा राज्ञा दापितमा घोषणा पूर्वकं महादानम्, कारिता सर्वायतनेषु पूजा, सन्मानिताः प्रजाः, निवेशितो राज्ये धृतिबलः । ततश्च प्रवृत्तिपुरुषैः काशीविषयसंस्थितं विज्ञाय भगवन्तं विजयधर्माचार्यं प्रधानसामन्तामात्यसङ्गतः समं रत्नवत्या प्रवृत्तो गुरुसमीपं राजा ! प्राप्तः कालक्रमेण । दृष्टो वाराणसीनगरीसंस्थितो भगवान् विजयधर्मः । वन्दितः प्रहृष्टवदनकमलेन । धर्मलाभितो गुरुणा, पृष्ट आगमनप्रयोजनम् । कथितं राज्ञा । परितुष्टो गुरुः । उपबृंहितश्चानेन । ततः प्रशस्तेन तिथिकरण मुहूर्तयोगेन वाराणसीन गरी स्वामिना सम्पादितमहा द्रव्योपचारः समं पूर्वभणितपरि अनेन महाविभूत्या विशुध्यमानेन परिणामेन सञ्जातचरणपरिणामः प्रव्रजितो राजा । दूसरे को पीड़ा दिये बिना वह उपकार भी सम्भव नहीं होता है। भाव उपकार ही प्रधान है अतः बिना आरम्भ और परिग्रह का त्याग किये सब प्रकार उसका सम्पादन नहीं करता है, जबकि मनुष्यत्व में उसका सम्पादन करना युक्त है, अन्य निरर्थक से क्या । ऐसा विचार करते हुए ( उसके ) समस्त दुःखों को नष्ट करने में एकमात्र समर्थ शुभ परिणाम उत्पन्न हुआ । बढ़े हुए शुभ परिणामोंवाला यह राजा वहाँ से लौट आया। उसने इस घटना को रत्नवती सहित मन्त्रियों से कहा । उन्होंने कहा - 'महाराज ! यह सही है, अन्यथा नहीं है । महाराज इष्टकार्य करें । इस विषय में विलम्ब न करें ।' संसार की स्थिति अत्यन्त चंवल हैं, परमार्थ-साधन में रत हैं, उनको प्रशस्त होती है । अतः यह करणीय है - ऐसा सोचकर महादान दिलाया, सभी आयतनों में पूजा करायी, प्रजाओं का सम्मान किया, राज्य पर धृतिबल को बैठाया । मुहूर्तमात्र के लिए भी जो राजा ने घोषणा कराकर अनन्तर गुप्तचरों से भगवान् विजयधर्माचार्य को काशी देश में स्थित जानकर प्रधान सामन्त, मन्त्री और रत्नवती के साथ राजा गुरु के पास चल दिया। कालक्रम से पहुँचा । वाराणसी में स्थित भगवान् विजयधर्म को देखा । हर्षित मुखकमल हो वन्दना की। गुरु ने धर्मलाभ दिया, आने का प्रयोजन पूछा। राजा ने बताया, गुरु सन्तुष्ट हुए । उन्होंने बधाई दी । अनन्तर उत्तम तिथि, करण और मूहूर्त में वाराणसी नरेश द्वारा महान् द्रव्य से सेवित होकर परिजनों के साथ महाविभूति से युक्त हो विशुद्धभाव से चारित्ररूप परिणामवाला राजा प्रव्रजित हो गया। Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठो भवो ] अइक्कतो कोइ कालो । अहिज्जियं सुत्तं, अन्भत्यो किरियाकलावो । उचियसमए य जाया से इच्छा 'पवज्जामि अयं एगल्लविहारपडिमं' । पुच्छिओ गुरू, अणुन्नाओ य णेणं' । कया सत्ताइतुलणा । निव्वूढेण पवन्नो सिद्धतविहिणा एगल्लविहारप डिमं ति । निरइयारकप्पेण य विहरमाणस्स अवतो कोइ कालो । अन्नया य गओ कोल्लागसन्निवेलं ठिओ य तत्थ पडिमाए' । दिट्ठो मलयपतिथएणं वाणमंतरेण । जाओ से कोषो । चितियं च णेणं - पेच्छ सो पावो पावपरिणईए कीइसो जाओ त्ति । वावाएमि संपयं, एसो य एत्युवाओ । एवं चेव संठियस्स मुएमि उर्वार महामहंत सिलं ति । तीए संचण्णियंगुवंगो वज्जपहारभिन्नो विय गिरी सयसिक्करो गमिस्सह । वावाइए य एयम्मि कयत्थो अह, सफलं विज्जाबलं । ता लहुं समीहियं करेमि त्ति । चितिऊण अइरोद्दज्झाणसंगएणं अदूरदेसवत्तिगिरिवराओ गहिया महासिला, उप्पइऊण दूरमंबरं भयवओ उवरि मुक्का य णेण । पीडिओ तीए भयवं काएण, न उण भावेण । निरूविओ वाणमंतरेण । जाव 'न वावाइओ' त्ति, ७७७ अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । अधीतं सूत्रम्, अभ्यस्तः क्रियाकलापः । उचितसमये च जाता तस्येच्छा 'प्रपद्येऽहमेककविहारप्रतिमाम्' । पृष्टो गुरुः, अनुज्ञातश्च तेन । कृता सत्त्वादितुलना । निर्व्यूढेन प्रपन्नः सिद्धान्तविधिना एककविहारप्रतिमामिति । निरतिचारकल्पेन च विहरतोऽतिक्रान्तः कोऽपि कालः । अन्यदा च गतः कोल्लाकसन्निवेशम् स्थितश्च तत्र प्रतिमया । दृष्टो मलयप्रस्थितेन वानमन्तरेण । जातस्तस्य कोपः । चिन्तितं च तेन --पश्य स पापः पापपरिणत्या कीदशो जात इति । व्यापादयामि साम्प्रतम्, एष चात्रोपायः । एवमेव संस्थितस्य मुञ्चाम्युपरि महामहतीं शिलामिति । तया सञ्चूर्णिताङ्गोपाङ्गो वज्रप्रहारभिन्न इव गिरिः शतशर्करो गमिष्यति । व्यापादिते चैतस्मिन् कृतार्थोऽहम्, सफलं विद्याबलम् । ततो लघु समीहितं करोमीति । चिन्तयित्वाऽतिरौद्रध्यान सङ्गतेनादूरदेशवर्तिगिरिवराद् गृहीता महाशिला, उत्पत्य दूरमम्बरं भगवत उपरि मुक्ता च तेन । पीडितस्तया भगवान् कायेन, न पुनर्भावेन । निरूपितो वानमन्तरेण । यावद् 'न व्यापादितः' इति कुपितो कुछ समय बीता। सूत्र पढ़ा, क्रियाओं के समूह का अभ्यास किया। उचित समय पर उसकी इच्छा हुईमैं एकाकी विहार करने की प्रतिमा प्राप्त करू । गुरु से पूछा । उन्होंने अनुमति दे दी। सत्त्वादि तुलना की । पूर्णतया देखकर सैद्धान्तिक विधि से अकेले विहार करने की प्रतिमा को प्राप्त हुआ । निरतिचार रूप से विहार करते हुए कुछ समय बीत गया । एक बार कोल्लाक सन्निवेश में गया और वहाँ प्रतिमा-योग से स्थित हो गया। मलय की ओर जाते हुए बानमन्तर ने देखा । उसे क्रोध उत्पन्न हुआ और उसने सोचा- देख, वह पापी पाप के फलस्वरूप कैसा हो गया । अब मारता हूँ, यह यहाँ उपाय है। इस प्रकार स्थित ( इसके ) ऊपर बहुत बड़ी शिला छोड़ता हूँ । उस शिला से अंगोपांगों के चूर्ण हो जाने पर बज्र के प्रहार से टूटे हुए पर्वत के समान ( इसके ) सैकड़ों टुकड़े हो जायेंगे। इसके मर जाने पर मैं कृतार्थ हो जाऊँगा, मेरा विद्यावल सफल हो जायेगा । अतः शीघ्र ही इष्ट कार्य करता हूँ --- ऐसा सोचकर अत्यन्त रौद्र ध्यान से युक्त हो समीपवर्ती पर्वत से बहुत बड़ी शिला ली, दूर आकाश में ले जाकर भगवान् के ऊपर छोड़ दी । उसने भगवान् को शरीर से पीड़ित किया, भाव से नहीं । वानमन्तर ने देखा - 'नहीं १० गुरुणा - पा. ना. २. विवित्तपएसे पडिमाए - पा. ज्ञा. । Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ওওও [ समराइच्चकहा कुविओ वाणमंतरो। चितियं च णेण-अहो से महापावस्स सामत्थं, अहो जीवणसत्ती, अहो ममोवरि अवन्ना, अहो परलोयपक्खवाओ। ता तहा करेमि, जहा सव्वं से अवेइ । गहिया महलयरी सिला, विमुक्का तहेव । पीडिओ तीए वि भयवं काएण,न उण भावेण। निरूविओ वाणमंतरेण । जाव न वावाइओ ति । अन्ना विमका, तीए विन वावाइओ ति। विसण्णो वाणमंतरो। चितियं च णेण-न एस महापावो वावाइउं तोरइ। ता करेमि से धम्मंतरायं। विडंबेमि लोए। कंचि गेहं मसिऊण मएमि एयसमोवे मोसं, पयासेमि य लोए, जहा इमिणा महापावेण इयमणचिट्टियं ति । एवं च कए समाणे पाविस्सइ महापावो महई कयत्थणं ति । चितिऊण संपाडियमणेणं । साहियं दंडवासियाण। गया दंडवासिया'। दिट्ठो णेहि भयवं। जाओ तेसि वियप्पो। अहो इमस्स पसन्ना मत्ती, तवसोसियं सरीरं, उवभोयरहिओ आगारो, अणाउलं चित्तं। ता कहं एस एवं करिस्सइ । अहवा विचित्ता गई कवडाण । ता निरूवेमो ताव मोसं। निरूविओ निउंजदेसे दिट्टो यहि । समुप्पन्ना संका। पुच्छिओ भयवं । जाव न जंपइ ति, ताडिओ एक्केण। तहावि न जंपइ ति। करयाए हरि वानमन्तरः। चिन्तितं च तेन -अहो तस्य महापापस्य सामर्थ्यम्, अहो जीवनशक्तिः, अहो ममोपर्यवज्ञा, अहो परलोकपक्षपातः । ततस्तथा करोमि यथा सर्वे तस्यापैति । गृहीता महत्तरी शिला, विमुक्ता तथैव । पीडितस्तयाऽपि भगवान् कायेन, न पुनर्भावेन । निरूपितो वानमन्तरेण । यावन्न व्यापादित इति । अन्या विमुक्ता, तयाऽपि न व्यापादित इति। विषण्णो वानमन्तरः । चिन्तितं च तेन-नैष महापापो व्यापादयितुं शक्यते । ततः करोमि तस्य धर्मान्तरायम। विडम्बयामि लोके । किंचिद् गेहं मुषित्वा मुञ्चाम्येतत्समीपे मोषम, प्रकाशे च लोके, यथाऽनेन महापापेनेदमनुष्ठितमिति । एवं च कृते सति प्राप्स्यति महापापो महती कदर्थनामिति । चिन्तयित्वा सम्पादितमनेन । कथित दण्डपाशिकानाम् । गता दण्डपाशिकाः। दृष्टीभगवान् । जातस्तेषां विकल्पः । अहो अस्य प्रसन्ना मूत्तिः, तपःशोषितं शरीरम्, उपभोगरहित आकारः, अनाकुलं चित्तम् । ततः कथमेष एवं करिष्यति । अथवा विचित्रा गतिः कपटानाम् । ततो निरूपयामः तावन्नोषम् । निरूपितो निकुञ्जदेश, दष्टश्च तैः । समुत्पन्ना शङ्का । पृष्टो भगवान् । यावन्न जल्पतीति ताडित एकेन । तथापि न जल्पतीति। करतया मरा है। अतः वानमन्तर कुपित हुआ और उसने सोचा-ओह ! उस महापापी की सामर्थ्य, ओह जीवनशक्ति, ओह मेरे प्रति अवज्ञा, ओह परलोक के प्रति पक्षपात ! अतः वैसा करता हूँ, जिससे सब नष्ट हो जाय। उसने और भी बड़ी शिला ली और उसी प्रकार छोड़ी। उससे भी भगवान् काय से पीड़ित हुए, भाव से नहीं। वानमन्तर ने देखा- नहीं मरा है । अन्य शिलाएँ छोड़ी तो भी नहीं मरा । वानमन्तर खिन्न हुआ और उसने सोचाइस महापापी को नहीं मारा जा सकता अत: उसके धर्म में विघ्न करता हूँ। संसार में उपहास कराऊँगा । घर से कुछ चुराकर इसके समीप में चुरायी हुई वस्तु को छोडूंगा और संसार में प्रकट कर दूंगा कि इस महापापी ने यह किया है अर्थात् इसने चोरी की है। ऐसा करने पर महापापी अत्यधिक तिरस्कार पायेगा । ऐसा सोचकर इसने (वैसा ही) किया। सिपाहियों से कहा । सिपाही गये। उन्होंने भगवान को देखा। उन्होंने सोचा-3 प्रसन्न मूर्ति, तप से सुखाया हुआ शरीर, उपभोगरहित आकार और आकुलतारहित चित्त ! अतः यह ऐसा कैसे करेगा ? अथवा कपटियों की गति विचित्र है। अतः चुरायी हुई वस्तु को देखता हूँ। निकुंज भाग में देखा, उन्हें दिखाई दी। शंका उत्पन्न हुई। भगवान से पूछा। नहीं बोले । एक ने मारा तो भी नहीं बोले । क्रूर स्वभाव १. 'मणिसमी व हरयधिक ; पास-पाशा, । १, अबभीषपरिभोसरडियो Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो भवो 1 ७७६ सिओ वाणमंतरो। बद्धं निरयाउयं, निकाचियं रोज्झाणाहिणिवेसेण । चितियं दंडवासिएहिकिमम्हाणमेइणा, राइणो साहेमो ति। साहियं वीससेणराइणो। समागओ राया। दिट्टो णेण भयवं, पच्चभिन्नाओ य । वंदिओ परमभत्तीए । भणिया दंडवासिया भो भो न तुहिं भयवओ किंचि पडिकलमासेवियं ति। दंडवासिएहि भणियं-न किंचि तारिसं। राइणा भणियं-भो एस भयवं अम्हाण सामी महारा यगुणचंदो निरुवसग्गं महिं पालिऊण सयलसंगचाई संपत्तज्झाणजोओ अपडिबद्धो सवभावेसु चिहियाणट्टाणसंपायणपरो एगल्लविहारसेवणेण करेइ सफलं मणयत्तणं ति। दंडवासिएहि भणियं-देव, धन्नो खु एसो। खामिओ तेहिं । राइणा भणियं-केण तुम्हाण एवं साहियं । दंडवासिएहि भणियं-देव, इहेव सो चिटुइ ति। राइणा भणियं-कहिं कहि, आणेह सिग्छ । एयं सोऊण अदंसणीभूओ वाणमंतरो। न दिट्ठो दंडवासिएहि, भणियं च हिं-देव, संपयं चेव दिट्ठो, इयाणि न दीसइ त्ति। राइणा भणियं-भो जइ एवं, ता अमाणुसो सो भयवओ उवसग्गकारी भविस्सइ। ता अलं तेण किलिटुसत्तेण। निवेएह तुन्भे अंतेउराणं सयलजणवयस्स य, जहा हर्षितो वानमन्तरः। बद्धं नरकायुः, निकाचितं रौद्रध्यानाभिनिवेशेन। चिन्तितं दण्डपाशिकःकिमस्माकमेतेन, राज्ञः कथयाम इति। कथितं विष्वक्सेनराजस्य । समागतो राजा । दृष्टस्तेन भगवान्, प्रत्यभिज्ञातश्च । वन्दितः परमभक्त्या। भणिता दण्डपाशिकाः । भो भो न युष्माभिर्भगवतः किंचित् प्रतिकूलमासेवितमिति । दण्डपाशिकैर्भणितम्- न किंचित् तादृशम्। राज्ञा भणितम्-भो एष भगवान् अस्माकं स्वामी महाराजगुणचन्द्रो निरुपसर्गां महीं पालयित्वा सकलसङ्गत्यागी सम्प्राप्तध्यानयोगोऽप्रतिबद्धः सर्वभावेष विहितानुष्ठानसम्पादनपर एक कविहारसेवनेन करोति सफलं मनुजत्वमिति । दण्डपाशिकैर्भणितम् -देव ! धन्यः खल्वेषः । क्षामितस्तैः । राज्ञा भणितम्-केन युष्माकमेतत् कथितम् । दण्डपाशिकर्भणितम्-देव ! इहैव स तिष्ठतीति । राज्ञा भणितम्--कुत्र कुत्र, आनयत शीघ्रम् । एतच्छ त्वाऽदर्शनीभूतो वानमन्तरः । न दृष्टा दण्डपाशिकः, भणितं च तैः-देव ! साम्प्रतमेव दृष्टः, इदानीं न दृश्यते इति । राज्ञा भणितम्-भो यद्येवं ततोऽमानुषः स भगवत उपसर्गकारी भविष्यति । ततोऽलं तेन क्लिष्टसत्त्वेन। निवेदयन ययमन्तःपुराणां सकल जनवजस्य च, वाला होने के कारण वानमन्तर हर्षित हुआ । अत्यधिक रौद्रध्यान की आसक्ति के कारण नरक की आयु बाँधी। सिपाहियों ने सोचा-हम लोगों को इससे क्या, राजा से कहते हैं । विष्वक्सेन राजा से कहा । राजा आया। उसने भगवान् को देखा और पहचान लिया। परमभक्ति से युक्त हो वन्दना की। सिपाहियों से कहा-'रे सिपाहियो! तुम लोगों ने कुछ प्रतिकूल कार्य तो नहीं किया ?' सिपाहियों ने कहा- 'वैसा कुछ नहीं किया। राजा ने कहा'अरे यह भगवान् हमारे स्वामी महाराज गुणचन्द्र निर्विघ्न पृथ्वी का पालन कर, समस्त परिग्रहों का त्याग कर, ध्यान योग को पा, समस्त पदार्थों के प्रति निरासक्त हो, विहित अनुष्ठान के सम्पादन में रत रहते हुए, अकेले विहार करने का सेवन करते हुए मनुष्यत्व सफल कर रहे हैं।' सिपाहियों ने कहा- 'महाराज ! ये धन्य हैं।' उन्होंने क्षमा मांगी। राजा ने कहा--'तुम लोगों से यह किसने कहा ?' सिपाहियों ने बताया-- 'महाराज ! वह यहीं बैठा है।' राजा ने कहा- 'कहाँ है, कहाँ है ? जल्दी लाओ।' यह सुन वानमन्तर अदृश्य हो गया। सिपाहियों को दिखाई नहीं पड़ा । उन्होंने (आकर) कहा-'महाराज ! अभी-अभी दिखाई दिया था, अब नहीं दिखाई पड़ रहा है। राजा ने कहा-'अरे ऐसा है तो अमानुष होगा, उसने भगवान् पर उपसर्ग किया होगा। अतः उस विरोधी प्राणी से बस करो (अर्थात् उसका खोजना व्यर्थ है)। तुम सब अन्तःपुर के समस्त जन से कहो Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८० [ समराइच्चकहा 'समागओ भयवं तुम्हाण परमसामी, ठिओ उत्तमवए मुत्तिमंतो विय धम्मो, पावपसमणो देसणेण, वंदणिज्जो सयाणं, निबंधणं परमनिव्वुईए महारायगुणचंदो; ता एह, तं अत्तणोऽणुग्गहढाए भत्तिविहवाणुरूवेणमुक्यारेण वंदह त्ति । दंडवासिएहि भणियं-जं देवो आणवेइ । गया दंडवासिया। निवेइयं रायसासणं अंतेउरजणाणं। आणंदिया एए, पयट्टा भयवंतवंदणवडियाए, पत्ता महाविच्छड्डेण। पूइओ भयवं वंदिओ हरिसनिब्भरेहि, थुओ संतगुणदीवणाए। विम्हिया तस्स देसणेणं। एत्यंतरम्मि निवेइयं राइणो सिलावडणनिग्घायमोहपडिबुद्धणं कटुवाहएणं, जहा 'महाराय, एयस्स भयवओ उवरि केणावि गयणचारिणा विमुक्का महंती सिला; न चालिओ भयवं तओ विभागाओ; तन्निवडणनिग्घायओ समागया मे मुच्छा; तओ परं न याणामि, कि कयं तेण भयवओ; एत्तियं पुण जाणामि, एयं पि सिलादुयं तेणेव महापावकम्मेण मुक्क' ति। एयं सोऊण उविग्गा अंतेउरजणा। पीडिओ राया, भणिय च ण-अहो महादुक्खमणहूयं भयवया, अहो किलिटुत्तणं खुड्डजीवाणं, अहो विवेयसुन्नया, अहो जहन्नत्तणं, अहो निसंसया, अहो अलोइयत्तं, अहो गुणपओसो, यथा 'समागतो भगवान् युष्माकं परमस्वामी, स्थित उत्तमव्रते मूर्तिमानिव धर्मः, पापप्रशमनो दर्शनेन, वन्दनीयः सताम्, निबन्धन परमनिर्वृतेर्महाराजगुणचन्द्रः, तत एत, तमात्मनोऽनुग्रहार्थं भक्तिविभवानुरूपेणोपचारेण वन्दध्वमिति । दण्डपाशिकर्भणितम् - यद् देव आज्ञापयति । गता दण्डपाशिकाः । निवेदितं राजशासनमन्तःपुर जनानाम् । आनन्दिता एते, प्रवृत्ता भगवद्वन्दनप्रत्ययं, प्राप्ता महाविच्छAण । पूजितो भगवान् वन्दितो हर्ष निर्भरैः, स्तुतः सद्गुणदीपनया। विस्मितास्तस्य दर्शनेन । अत्रान्तरे निवेदितं राज्ञः शिलापतननिर्घातमोहप्रतिबद्धन काष्ठवाहकेन, यथा 'महाराज ! एतस्य भगवत उपरि केनापि गगनचारिणा विमुक्ता महती शिला, न चालितो भगवान ततो विभागात्, तन्निपतननिर्घाततः समागता मे मूर्छा, ततः परं न जानामि, किं कृतं तेन भगवतः, एतावत पुनर्जानामि, एतदपि शिलाद्विकं तेनैव पापकर्मणा मुक्तमिति । एतच्छृ त्वोद्विग्ना अन्तःपुरजनाः। पीडितो राजा, भणितं च तेन-अहो महादुःखमनुभूतं भगवता, अहो क्लिष्टत्व क्षुद्रजीवानाम्, अहो विवेकशून्यता, अहो जघन्यत्वम्, अहो नृशंसता, अहो अलौकिकत्वम्, अहो गुणप्रद्वषः, अहो अकल्याण कि तुम्हारे परमस्वामी आये हैं, मूर्तिमान धर्म के समान उत्तम व्रत में स्थित हैं, (उनके) दर्शन से पाप शान्त हो जाता है । सज्जनों के द्वारा वे वन्दनीय हैं, परम शान्ति से युक्त (वे) महाराज गुणों में चन्द्रमा के समान (गुणचन्द्र) हैं । अत: आओ, अपने अनुग्रह के लिए भक्ति और वैभव के अनुरूप सेवा कर उनकी वन्दना करो। सिपाहियों ने कहा-'महाराज की जैसी आज्ञा।' सिपाही चले गये। राजा की आज्ञा को अन्तःपुर में निवेदन किया । ये लोग आनन्दित हुए, भगवान् की वन्दना के लिए चल पड़े। बड़े वैभव के साथ आये, भगवान् की पूजा की, हर्ष से भरकर वन्दना की, सद्गुणों का प्रकाशन कर स्तुति की, उनके दर्शन से विस्मित हुए। इसी बीच शिला के गिरने की कड़क से मूच्छित होकर होश में आये हुए लकड़ी ढोनेवाले ने राजा से निवेदन किया-'महाराज ! आकाश में गमन करनेवाले किसी ने भगवान् के ऊपर यह बहुत बड़ी शिला छोड़ी, फिर भी भगवान को उस स्थान से विचलित नहीं कर सका । उस (शिला) के गिरने की कड़क से मुझे मूर्छा आ गयी, अत: नहीं जानता हूँ, उसने भगवान् का क्या किया ? इतना जानता हूँ कि ये दोनों शिलाएं उसी पापी ने छोड़ी हैं।' यह सुनकर अन्तःपुर के लोग उद्विग्न हो गये। राजा को पीड़ा हुई । उसने कहा-'ओह ! भगवान् ने महादुःख भोगा । क्षुद्र जीवों का विरोध आश्चर्यमय है। ओह विवेकशून्यता ! ओह नीचता ! ओह नृशंसता! Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो भवो ] ७६१. अहो अकल्लाणभायणया, अहो कम्मपरिणामसामत्थं, जेण भयवओ वि परिचतसव्वसंगस्स सम्वभावसमभाववत्तिणो सयलजणोवयारनिरयस्स अप्पडिबद्धविहारिणो एवमवसग्गकरणं ति। सम्वहा नस्थि नामाकरणिज्ज मोहपरतंताणं। एवं विलविऊण 'अहो भयवओ वि उवसग्गो' ति गहिओ महासोएण। तं च तहाविहं वियाणिऊण अभिप्पेयज्झाणसमत्तीए अणाढविऊणमन्नज्माणं ओसरिऊण कायचेझैं भणियं भयवया–महाराय, अलमेत्थ सोएण। सकयकम्मफलमेयं, केत्तियं वा इमं । अणादिकम्मसंताणवसवत्तिणो जीवस्स दुक्खरूवो चेव संसारो। अन्नं च सुणसु जोवा सकम्मपरिणामओ विचित्ताई। सारीरमाणसाइं दुक्खाइ भमंति भुजंता ॥ ९४७ ।। जेणेव उ संसारे जम्मजरामरणरोगजणियाई। पियविरहपरम्भत्थणहीणजणोमाणणाई च ॥९४८ ॥ तेणेव उ सप्पुरिसा किलेसबहुलस्स भवसमुदस्स। धणियं विरत्तभावा धम्मतरुवरं पवज्जति ॥ ६४६ ॥ भाजनता, अहो कर्मपरिणामसामर्थ्यम्, येन भगवतोऽपि परित्यक्तसर्वसङ्गस्य सर्वभावसमभावर्तिनः सकलजनोपकारनिरतस्याप्रतिबद्धविहारिण एवमुपसर्गकरणमिति। सर्वथा नास्ति नामाकरणीयं मोहपरतन्त्राणाम् । एवं विलप्य 'अहो भगवतोऽप्युपसर्गः' इति गृहीतो महाशोकेन । तं च तथाविधं विज्ञायाभिप्रेतध्यानसमाप्तौ अनारभ्यान्यध्यानमुपसृत्य कायचेष्टां भणितं भगवता--महाराज ! अलमत्र शोकेन, स्वकृतकर्मफलमेतत्, कियद् वेदम् । अनादिकर्मसन्तानवशतिनो जीवस्य दुःखरूप एव संसारः। अन्यच्च शृणु जीवाः स्वकर्मपरिणामतो विचित्राणि । शारीरमानसानि दुःख.नि भ्रमन्ति भुजानाः ।।९४७।। येनैव तु संसारे जन्मजरामरणरोगजनितानि। प्रियविरहपराभ्यर्थनहीनजनावमाननानि च ।।९४८।। तेनेव तु सत्पुरुषाः क्लेश बहुलस्य भवसमुद्रस्य । गाढं विरक्तभावा धर्मतरुवरं प्रपद्यन्ते ॥६४६।। ओह अलौकिकता ! ओह गुणों के प्रति द्वेष और अकल्याणपात्रता ! ओह कर्मों के फल की सामर्थ्य जो कि समस्त परिग्रहों का त्याग किये हुए, सभी पदार्थों में समान दृष्टि रखनेवाले, समस्त मनुष्यों के उपकार में निरत, एकलविहारी भगवान् पर भी इस प्रकार का उपसर्ग हुआ ! मोह से परतन्त्र हुए प्राणियों के लिए सर्वथा कुछ अकरणीय नहीं है-इस प्रकार विलाप कर 'ओह भगवान् का उपसर्ग' इस प्रकार अत्यधिक शोकग्रस्त हो गया। उसे उस प्रकार जानकर, इष्ट ध्यान की समाप्ति होने पर दूसरे ध्यान का आरम्भ न कर, शरीर की चेष्टाओं के समीप जाकर भगवान् ने कहा- 'महाराज ! इस विषय में शोक मत करो, यह अपने किये हुए कर्मों का फल है। अथवा यह कितना-सा है, अनादि कर्मरूप सन्तति के वशवर्ती प्राणी का संसार ही दुःखरूप है। दूसरी बात भी है, सुनो इस संसार में अपने ही कर्मों के फलस्वरूप जीव जन्म, बुढ़ापा और मरणरूपी रोगों से उत्पन्न प्रियविरह, दूसरों से याचना, हीनजनों के द्वारा किये हुए निरादररूप विचित्र शारीरिक और मानसिक दुःखों को भोगते हुए जिससे भ्रमण करते हैं, उसी से सज्जन पुरुष क्लेश की बहुलतावाले संसार-समुद्र में अत्यधिक विरक्त Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८२ सम्मत्तमूलमंतं महंत सुयनाणबद्ध बंधिल्लं । छट्ठमाइवित्थियपवरतवचरितसाहालं ॥ ६५० ॥ सोलंगवरद्वारस] सहस्सघणपत्तबहल छाइल्लं । तिर्यासदमणुयबहुविहपायडरुद्दरिद्धिकुसुमालं ॥ ६५१ ॥ अग्वाबाहुप्पेहड निरुवमखयर हिय भुवण महिएणं । मणिकमणिज्जेणं सिवसोक्खफलेण फलवंतं ॥ ६५२ ॥ जिणजलय केवलामलजलधारानिवहरुइ र सिच्चतं । विविमणिविहग से वियमणुदियहम छिन्नसंताणं ॥ ६५३ ॥ ते उण तिवसविलासिणिमुहपंकयभमरभावमणुहविडं । धम्मतरुकुसुमभूयं पावंति फलं पि मुत्तिसुहं ॥ ९५४ ॥ कावुरिसा उण बंधवनेहक्खयलक्ख णिच्चवे हीण | मूढा तुच्छाण कए दढं किलिस्संति भोयाण ॥ ६५५ ॥ सम्यक्त्वमूलवन्तं महाश्रुतज्ञानबद्ध स्कन्धवन्तम् । षष्ठाष्टमादिविस्तृत प्रवरतपश्चारित्रशाखावन्तम् ॥५०॥ शीलाङ्गवराष्टादशसहस्रघन पत्र बहलच्छायावन्तम् । त्रिदशेन्द्र मनुज बहुविधप्रकटरुचि र ऋद्धिकुसुमवन्तम् ॥५१॥ अव्याबाधोद्भटनिरुपमक्षय रहित भुवनमहितेन । मुनिजनकमनीयेन शिवसौख्यफलेन फलवन्तम् ॥६५२। जिनजलदकेवलामलजलधारानिवहरुचिरसिच्यमानम् । विविध मुनिविहगसेवितमनुदिवस मच्छिन्नसन्तानम् ॥५३॥ ते पुनस्त्रिदशविलासिनीमुखपङ्कजभ्रमरभावमनुभूय । धर्मतरुकुसुमभूतं प्राप्नुवन्ति फलमपि मुक्तिसुखन् ।।६५४ ॥ कापुरुषाः पुनर्बान्धव स्नेहक्षयलक्ष्यनित्यवेधिनाम् । मूढास्तुच्छानां कृते दृढं क्लिश्यन्ति भोगानाम् ॥५५॥ भावों से मुक्त हो धर्मरूपी श्रेष्ठ वृक्ष का सुदृढ़ आश्रय लेते हैं । सम्यक्त्व उस वृक्ष का मूल है। महान् श्रुतज्ञान उसका स्कन्ध है, वह षष्टाष्टमादि विस्तृत और उत्कृष्ट तप से युक्त चारित्ररूपी शाखाओं वाला है, शील के श्रेष्ठ अठारह हजार भेदरूपी घने पत्तों से अत्यधिक छाया वाला है, देवेन्द्र और मनुष्यों में अनेक प्रकार से प्रकट सुन्दर ऋद्धिरूपी फूलोंवाला है, अव्याबाध, सर्वोत्तम, निरुपम, क्षयरहित, संसार के द्वारा प्रशंसनीय, मुनिजनों के लिए सुन्दर बगनेवाले मोक्षसुखरूपी फल से फलवाला है, जिनेन्द्र भगवान् रूपी मेघ की केवलज्ञानरूपी स्वच्छ और सुन्दर जब धाराओं के समूह से सींचा जाता है, अनेक प्रकार के मुनिरूपी पक्षियों से सेवित है, प्रतिदिन उसकी परम्परा का छेद नहीं होता है । वे मुनिजन धर्मवृक्ष के फूलरूप देवांगनाओं के मुखकमलों के, भ्रमरों के समान भावों का अनुभव कर मुक्तिसुखरूप फल भी पाते हैं। मूर्ख कायरपुरुष वान्धवों के स्नेह का क्षय करने रूप लक्ष्य के लिए नित्य छेदनेवाले तुच्छ भोगों के लिए अत्यधिक दुःखी होते हैं और नीचजनों की सेवा, अनेक तरह के [ समराइच्चकहा Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो भवो] ७८३ नीयजणपज्जुवासणमणभिमयाणेयवेसकरणं च । उन्भडसमरपवेसं नियबंधवघायणं चेव ॥ ६५६ ॥ वित्थिण्णजलहितरणं सम्भावियमित्तवंचणं तह य। तं नत्थि जं न बहुसो करेंति विसयाहिलासेण ॥ ६५७ ॥ तह वि य पुन्यज्जियविविहकम्मपरिणामओ उ संपत्ती। परिणामदारुणेहि वि न होइ भोएहि सम्वेहि ॥६५८ ॥ पेच्छंता वि य धणियं विज्जुलयाडोवचंचलं जीयं । अयरामरं व मुणिऊण तहवि अप्पाणयं मूढा ॥६५६ ॥ कामं विसयासेवणपमहेहि सकम्मरुक्खमूलाई । कलसे हि' सिंचिऊणं फलाइ परिणामविरसाइं॥६६०॥ निरयगमणाइयाइं भुजंता णेयभेयभिन्नाई। हिंडंति अकयपुण्णा घोरे संसारकंतारे ॥६६१ ॥ नीचजनपर्युपासनमन भिमतानेकवेशकरणं च । उद्भटसमरप्रवेशं निजबान्धवघातनं चैव ।।९५६।। विस्तीर्णजलधितरणं सद्भावितमित्रवञ्चनं तथा च । तन्नास्ति यन्न बहुशः कुर्वन्ति विषयाभिलाषेण ॥९५७।। तथाऽपि च पूर्वाजितविविधकर्मपरिणामतस्तु सम्प्राप्तिः । परिणामदारुणैरपि न भवति भोगैः सर्वैः ।।९५८॥ पश्यन्तोऽपि च गाढं विद्युल्लताटोपचञ्चलं जीवितम् । अजरामरमिव ज्ञात्वा तथाऽप्यात्मानं मूढाः ॥९५६।। कामं विषयासेवनप्रमूखैः स्वकर्मवक्षमलानि । कलशैः सिक्त्वा फलानि परिणामविरसानि ॥६६०॥ निरयगमनादिकानि भुञ्जाना अनेकभेदभिन्नानि । हिण्डन्ते अकृतपुण्या घोरे संसारकान्तारे ॥६६॥ अमान्य वेषों को बनाना, प्रचण्ड युद्ध में प्रवेश करना, अपने ही बान्धवों का घात करना, विस्तृत समुद्र तैरना, सद्भाव रखनेवाले मित्रों को धोखा देना तथा अन्य ऐसा कार्य नहीं है जो विषयाभिलाषा से ये न करते हों। तथापि पूर्वोपाजित अनेक प्रकार के कर्मों के फलस्वरूप परिणाम में होने पर भी सभी भोगों की प्राप्ति नहीं होती है। जीवन को विद्युल्लता के समान अत्यन्त चंचल देखते हुए भी मूढ़ लोग अपने आपको अजर-अमर के समान जानकर, अपने कर्मरूपी वृक्ष की जड़ों को विषयसेवनरूप प्रमुख कलशों से सींचकर, परिणाम में नीरस और अनेक भेदों से युक्त नरकादि गमनों को भोगते हैं और पुण्य न कर संसाररूपी गहनवन में भटकते रहते हैं । सो हे सौम्य ! Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइच्चकहा ७८४ ता एवंविहरूवे संसारे पयइनिग्गुणे सोम। कम्मवसयाणमेवं विहाइ को पुच्छए इहई ॥६६२ ॥ मरएसु कम्मवसएण दारुणं सुणसु जं मए दुक्खं । पत्तं अणंतखुत्तो परिभमंतेण संसारे ॥ ६६३ ॥ अपइट्ठाणे नरए तेत्तीसं सागराइ अणवरयं ।। वज्जसिलापउमेसुं भिन्नो उप्फिडणपडणेहि ॥ ६६४ ॥ सीमंतयम्मि य तहा पक्को निरयग्गिसंपलितास ।। कंदूसु य कुम्भीसु य लोहकवल्लीसु य घणासु ।। ६६५॥ सेसेस वि नरएसं पव्वयजंतेहि करगरहि च । वहिओ म्हि मंदभग्गो अन्नेहि य तिव्वसत्हिं ॥ ६६६ ॥ भिन्नो खइयो य अहं अइरोइतिसूलवज्जतुंडेहि । तत्तजुपरहवरेसु य भिन्नच्छो वाहिओ बहुसो ॥ ६६७ ॥ तत एवंविधरूपे संसारे प्रकृतिनिर्गणे सौम्य । कर्मवशगानामेवंविधानि कः पृच्छतीह ॥९६२।। नरकेष कर्मवशगेन दारुणं शृणु यन्मया दुःखम् । प्राप्तमनन्तकृत्वः परिभ्रमता संसारे । ६६३॥ अप्रतिष्ठाने नरके त्रयस्त्रिशतं सागरान अनवरतम । वज्रशिलापछेषु भिन्न उत्स्फिटनपतनैः ।।६६४।। सीमन्तके च तथा पक्वो निरयाग्निसम्प्रदीप्तासु । कन्दूषु च कुम्भीषु च लोहकटाहीषु च घनासु ॥६६५।। शेषेष्वपि नरकेषु पर्वतयन्त्रैः करपत्रैश्च । वधितोऽस्मि मन्दभाग्योऽन्यैश्च तीव्रशस्त्रैश्च ।।६६६।। भिन्नः खादितश्चाहमतिरौद्रत्रिशूलवज्रतुण्डैः । तप्तयुगरथवरेषु च भिन्नाक्षो' वाहितो बहुशः ॥६६७॥ स्वभाव से निर्गुण इस संसार में कर्म के वशीभूत इस प्रकार के दुःखों को कौन पूछता है ? कर्म के वश संसार में भ्रमण करते हुए नरकों में जो मैंने अनन्त दारुण दुःख प्राप्त किये हैं, उन्हें सुनो-अप्रतिष्ठान नरक में तेतीस सागर तक निरन्तर वज्रशिलारूप कमलों पर पटककर भेदा गया, सीमन्तक नरक में जलती हुई नरकाग्नि में पंतीली, हाँडी तथा घने लोहे के कहाड़ों में पकाया गया। शेष नरकों में भी मन्दभाग्य मैं पर्वतयन्त्रों, आरियों तथा अन्य तीक्ष्ण अस्त्रों द्वारा वध किया गया। अति भयंकर त्रिशूलों और वज्र की नोकों द्वारा भेदकर मैं (कई बार) खाया गया। अनेक बार आँखें फोड़कर तपाये हुए जुओं वाले रथों पर मैं बैठाया गया। वहां पर १. भिन्नयो--. ज्ञा.। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमो भको] ७८५ कप्पेऊण य सहसा तिलं तिलं तत्थ निरयपालेहि। परिहिंसादोसेणं को बलि फुरफरतोऽहं ॥ ६६८ ॥ उक्खणिऊण य जीहं विरस बोल्लाविओ बला भीओ। अलियवयणदोसेणं दुक्खत्तो कंठगयपाणो ॥६६६॥ असिचक्कभिन्नदेहो बहुसो परदन्वहरणदोसेणं । विक्खित्तो छेत्तूणं दिसोदिसं गिद्धवंद्रेण ।। ६७०॥ परदारगमणदोसेण सिलि निरयजलणपज्जलियं । अवगृहावियपुब्वो जंतेसु य पीडिओ' धणियं ॥ ९७१ ॥ वायस सुणदिकाइएहि करुणं समारडतो य। खइओ बहुएहि दढं परिगगहारम्भदोसेप्यं ॥ ६७२ ॥ उक्कत्तिकण बहुसो विरसाइ खाविओ समसाइ। मंसम्मि लोलुयत्तणदोसेण आमपक्काई ॥६७३॥ कल्पयित्वा च सहसा तिलं तिलं तत्र निरयपालैः । परिहिंसादोषेण कृतो वलिं स्फुरन्नहम् ॥६६८।। उत्खाय च जिह्वां विरसं वादितो बलाद् भीतः । अलीकवचनदोषण दुःखार्तः कण्ठगतप्राणः ॥६६६॥ असिचऋभिन्नदेहो बहुशः परद्रव्यहरणदोषेण । विक्षिप्तश्छित्त्वा दिशि दिशि गृध्रवृन्देण ॥९७०॥ परदारगमनदोषेण शाल्मलि निरयज्वलनप्रज्वलितम् । अवगूहितपूर्वो यन्त्रेषु च पीडितो गाढम् ॥६७१।। वायसशुनकढंकादिभिः करुणं समारटंश्च । खादितो बहुभिर्दू ढं परिग्रहारम्भदोषेण ॥९७२॥ उत्कर्त्य बहुशो विरसानि खादितः स्वमांसानि । मांसे लोलुपत्वदोषेण आमपक्वानि ॥६७३।। नरकयाजों ने परहिंसा के दोष से एकाएक कांपते हुए मुझे तिल-तिल काटकर मेरी बलि दी है। झूठ बोलने के दोष से, दुःख से आर्त कण्ठगत प्राणवाले तथा डरे हुए मेरी जीभ उखाड़कर जबरदस्ती खराब शब्द कराया गया। दूसरे के धन का आहरण करने के दोष से अनेक बार तलवार और चक्र से भिदा हुआ शरीरवाला मैं गृध्रसमूह द्वारा छेदा जाकर दिशा-दिशा में बिखेर दिया गया। परस्त्री-गमन के दोष से, नरक की आग से पहले से ही प्रज्वलित शाल्मली वृक्ष से (मेरा) आलिंगन कराया गया और यन्त्रों से (आलिंगन कराकर) अत्यधिक पीड़ित किया गया । परिग्रह और आरम्भ के दोष से करुण शब्द करते हुए कौआ. कुत्ता तथा ढंकादि से अनेक बार भरपुर खाया गया । मांस में प्रतिलोलुपता के झोष से नीरस तथा कच्चे-पक्के अपने ही मांस को अनेक बार पीलियो पा.हा., गुणयककका पहिया । Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३[समराइच्चकहा तह पाइओ रसंतो तत्ताइ तउयतंबसीसाइं। संडासरियमहो मज्जरसासंगदोसेणं ॥६७४ ॥ . तिरिएस वि ससारे असई पत्ताइ तिव्वदुक्खाई। वहवाहणनेलंछणदहणकणभेय भिन्नाई ॥ ६७५ ॥ मणुएस वि य नराहिव! परवसदारिद्दपंडगादीणि । एवं न किंचि एय ति चयसु निक्कारणं सोय ॥६७६ ॥ राइणा भणियं-भयवं, असोयणिज्जो तुमं, कओ तए सफलो मणयजम्मो, पत्तं विवेयाउहं, निउतो ववसाओ, थिरीको अप्पा, विजिओ भावसत्तू, वसीकया तवसिरी, उज्झिओ पमाओ, वोलियं भवगहणं, पत्तप्पाओ मोक्खो ति। सोयणिज्जो उण सो किलिटुसत्तो, जो भयवओ उवसग्गकारि त्ति । भयवया भणियं-महाराय. ईइसो एस संसारो; ता किमन्नचिताए, अप्पाणयं चितेहि । राइणा भणियं-आइसउ भयवं, कस्स उण समीवे अहं सयलसंगचायं करेमि। भयवया भणियंभयवओ विजयधम्मगुरुणो ति। पडिस्सुयं राइणा, अणुचिट्ठियं विहाणेण । विहरिओ भयवं । तथा पायितो रसन् तप्तानि वपुताम्रसीसानि । संदंशधृतमुखो मद्यरसासङ्गदोषेण ॥६७४।। तिर्यक्ष्वपि संसारेऽसकृत्प्राप्तानि तीव्रदुःखानि । वधवाहननिर्लाञ्छनदहनाङ्कनभेदभिन्नानि ।।९७५॥ मनुजेष्वपि च नराधिप ! परवशदारिद्रयपण्डगादीनि । एवं न किञ्चिदेत दिति त्यज निष्कारणं शोकम् ।।९७६॥ राज्ञा भणितम् -भगवन् ! अशोचनीयस्वम, कृतस्त्वया सफलं मनजजन्म, प्राप्त विवेकायुधम्, नियुक्तो व्यवसायः, स्थिरीकृत आत्मा, विजितो भावशत्रुः, वर्श कृता तपश्रोः, उज्झितो प्रमाद., अतिक्रान्तं भवगहनम्, प्राप्तप्रायो मोक्ष इति । शोचनीयः पुनः स क्लिष्टसत्त्वः, यो भगवत उपमर्गकारीति । भगवता भणितम् -महाराज ! ईदृश एष संसारः, ततः किमन्यचिन्तया, आत्मानं चिन्तय । राज्ञा भणितम्-आदिशतु भगवान्, कस्य पुनः समोपेऽहं सकलसङ्गत्यागं करोमि । भगवता भणितम्-भगवतो विजयधर्मगुरोरिति । प्रतिश्रुतं राज्ञा, अनुष्ठितं विधानेन । विहृतो भगवान। काटकर खिलाया गया । मद्यरस के प्रति आसक्ति के दोष से सँडासी से मुंह में डालकर तपाये हुए रांगे, तांबे तथा शीशे का रस पिलाया गया। इस संसार में वध, वाहन, छेदन, जलाना, अंकन, भेदनरूप भेदवाले तीव्र दुःखों को अनेक बार तिर्यचगतियों में भी प्राप्त किया और मनुष्य भवों में भी । हे राजन्, दूसरे के वश में होना. दरिद्रता तथा नपसक होना आदि दुःखों को भोगा। यह तो कुछ नहीं है अत: निष्कारण शोक छोड़ो।' १९४७-६७६।। : राजा ने कहा--'भगवन् ! आप शोक करने के योग्य नहीं हैं, आपने मनुष्यजन्म को सफल कर दिया। विवेकरूपी आयुध को पा लिया, कार्य नियुक्त कर लिया, आत्मा को स्थिर कर लिया, भावरूप शत्रु को जीत लिया. प्रमाद को छोड दिया, तपरूप लक्ष्मी को वश में कर लिया, गहन संसार को लाँघ लिया और मोक्ष को लगभग पा लिया। वह विरोधी प्राणी शोक करने के योग्य है जिसने भगवान पर उपसर्ग किया। भगवान ने कहा---'महाराज ! यह संसार ऐसा ही है अत: अन्य की चिन्ता से क्या, अपने विषय में सोचो।' राजा ने :: कहाँ : 'भगवन, आदेश दीजिए मैं किसके पास समस्त परिग्रहों का त्याग करूँ ?' भगवान ने कहा- 'भगवान् विजय धर्म गुरु के पास समस्त परिग्रहों का त्याग कीजिए।' राजा ने स्वीकार किया और विधिपूर्वक अनुष्ठान किया। - Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो भवो ] . ७८७ अइक्कतो कोइ कालो। इओ य वाणमंतरस्स खीणप्पाए इहभवाउए उदयाभिमुहोहूयं रिसिवहपरिणामसंचियं असुह- .. कम्म, समुप्प-नो तिव्वो वाही उवहयाइ इंदियाइं, पणट्ठो नियसहावो, उइण्णा असुहवेयणा । तओ य उवयरिज्जमाणो पसिद्धोवक्कमेण सहावविवरीययाए अहिययरमक्कंदमाणो अनिउणवेज्जवयणेण अप्पसिद्धोवक्कमेण विट्ठाइविट्टालणाइकंटयसयणीयसंगओ महामोहगमणेण परिचत्तकंदसद्दो गमिऊण कंचि कालं अइरोद्दज्झाणदोसेण मओ समाणो समुप्पन्नो महातमाहिहाणाए निरयपुढवीए तेत्तीससागरोवमाऊ नारगत्ताए ति। भयवं पि विहरिऊण विसुद्धविहारेण सेविऊण परमसंजमं खविऊण कम्मरासि काऊण भावसंलेहणं भाविऊण भावणाओ खामिऊण सव्वजीवे गंतण पहाणथंडिल वंदिऊण वीयरागे रुभिऊण चेटाओ काऊण महापयत्तं पवन्नो पायवोवगमणं ति । अणुपालिऊण तमेगंतनिरइयारं वंदिज्जमाणो मुणिगणेहि अति कान्तः कोऽपि कालः। ___ इतश्च वानमन्तरस्य क्षीणप्राये इहभवायुषि उदयाभिमुखीभूतं ऋषिवधपरिणामसंचितमशुभकर्म, समुत्पन्नस्तीवो व्याधिः, उपहतानीन्द्रियाणि, प्रनष्टो निजस्वभावः, उदीर्णाऽशुभवेदना। ततश्चोपचर्यमाणः प्रसिद्धोपक्रमेण स्वभावविपरीततयाऽधिकतरमा क्रन्दन् अतिनिपुणवैद्यवचनेनाप्रसिद्धोपक्रमेण विष्टादिविट्टालनादि (अस्पृश्यपरिलेपन)-कण्टक शयनीयसङ्गतो महामोहगमनेन परित्यक्ताक्रन्दशब्दो गमयित्वा कंचिद् कालमतिरौद्रध्यानदोषेण मृतः सन् समुत्पन्नो महातमोऽभिधानायां निरयपृथिव्यां त्रयस्त्रिशत्सागरोपमायु रकत्वेनेति । भगवानपि विहृत्य विशुद्धविहारेण सेवित्वा परमसंयम क्षपयित्वा कर्मराशि कृत्वा भावसंलेखनां भावयित्वा भावना: क्षामयित्वा सर्व जीवान् गत्वा प्रधानस्थण्डिलं वन्दित्वा वीतरागान् रुद्ध्वा चेष्टाः कृत्वा महाप्रयत्नं प्रपन्नः पादपोपगमनमिति । अनुपाल्य तदेकान्तनिरतिचारं वन्द्य भगवान् विहार कर गये । कुछ समय बीत गया। इधर इस भव की आयु लगभग क्षीण होने पर, ऋषि के वधरूप परिणामों से अशुभ कर्मों का संचय करने के कारण वानमन्तर को तीव्र रोग उत्पन्न हो गया, इन्द्रियाँ विनष्ट हो गयीं, अपना स्वभाव खो गया, अशुभ वेदना उदीर्ण हुई। अनन्तर प्रसिद्ध उपक्रमों से उपचार किया जाता हुआ, स्वभाव की विपरीतता से अत्यधिक चीखता हुआ, अत्यन्त निपुण वैद्य के वचनों से अप्रसिद्ध उपक्रम के द्वारा विष्टा, वीट आदि अस्पृश्य लेपन तथा काँटों की शय्या से युक्त हो अत्यधिक मूच्छित हो चीखना छोड़कर, कुछ समय बिताकर, अत्यन्त रौद्रध्यान के दोष से मरकर 'महातम' नामक नरक की पृथ्वी में तेतीस सागर की आयुवाले नारकी के रूप में उत्पन्न हुआ। भगवान् भी विहार कर विशुद्ध विहार से परम सयम का सेवन कर, कर्मराशि का क्षय कर, भावपूर्वक सल्लेखना धारण कर, भावनाओं का चिन्तन कर, समस्त जीवों को क्षमाकर, प्रधान स्थण्डिल जाकर, वीतरागों की वन्दना कर, चेष्टाओं को रोककर, महाप्रयत्न कर समाधिमरण को प्राप्त हुए। उस (समाधिमरण) का अत्यन्त रूप से निरतिचार पालन कर मुनिजनों द्वारा वन्दित हो, लोगों से पूज्य हो, अप्सराओं द्वारा गाये Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८८ [ समराइन्याहा पूइज्जमाणो लोएण उवगिज्जमाणो अच्छराहिं थुत्वमाणो देवसंधाएण चइऊण देहं समुप्पन्नो बबटुसिद्ध महाविमामे तेतीससागरोधमाऊ देवत्ताए ति। ॥ समत्तो अटुंमो भवो॥ मांनो मुनिगणः पूज्यमानो लोकेनोपगीयमानोऽप्सरोभिः स्तूयमानो देवसंघातेन त्यक्त्वा देहं समुत्पन्नः सर्वार्थसिद्धे महाविमाने त्रयस्त्रिशत्सागरोपमायुर्देवत्वेनेति । ॥ समाप्तोऽष्टमभवः ।। जाकर, देवसमूह द्वारा स्तुत हो, देह त्याग कर सर्वार्थसिद्धि नामक विमान में तेतीस सागर की आयुवाले देव के रूप में उत्पन्न हुए। ॥ आठवां भव समाप्त ॥ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ नवमो भवो॥ गणचंदवाणमंतर जं भणियमिहासि तं गयमियाणि। वोच्छामि जमिह सेसं गुरूवएसाणुसारेणं ॥ ६७७ ॥ अत्थि इहेव जंबद्दीवे मेवे भारहे वासे उत्तुंगभवणसंरुद्धरविरहमग्गा माणिक्कमुत्ताहिरण्णधन्नाउलरुदहट्टमग्गा सुसन्निविटुतियचउक्कचच्चरा देवउलविहाराराममंडिया उज्जेणी नाम नयरो। जा तिलयकयच्छाया वियड्ढवेसाहिराममहकमला। पायारेण पिएण व पिय व्व गाढं समवगूढा ॥ ६७८ ॥ अथिरत्तणकुविएण व दटूणं कहवि महियलोइण्णा। फलिहारज्जुनिबद्धा तिहुयणरिद्धि व्व जा विहिणा॥ ६७६ ॥ गुणचन्द्रवानमन्तरयोर्यद् भणितमिहासीत् तद्गतमिदानीम् । वक्ष्ये यदिह शेषं गुरूपदेशानुसारेण ॥ ६७७ ॥ अस्तीहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे उत्तुङ्गभवनसंरुद्ध रविरथमार्गा माणिक्यमुक्ताहिरण्यधान्याकुलविस्तीर्णहट्टमार्गा सुसन्निविष्टत्रिकचतुष्कचत्वरा देवकुलविहाराराममण्डिता उज्जयिनी नाम नगरी। या तिलककृतच्छाया विदग्धवेश्या (वेषा)-भिराममुखकमला। प्राकारेण प्रियेणेव प्रियेव गाढं समवगूढा ॥ ६७८ ॥ अस्थिरत्वकुपितेनेव दृष्ट्वा कथमपि महीतलावतीर्णा । परिखारज्जुनिबद्धा त्रिभुवन ऋद्धिरिव या विधिना ॥ ६७६ ॥ गुणचन्द्र तथा वानमन्तर के विषय में जो कहा गया था वह बीत गया। अब जो शेष है उसे गुरु के उपदेश के अनुसार कहता हूँ ।।९७७॥ इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के भारतवर्ष में उज्जयिनी नामक नगरी थी। वहां के ऊँचे-ऊँचे भवनों से सूर्य के रथ के मार्ग रोके जाते थे। वहाँ के बाजारों के विस्तृत मार्ग मणि, मोती, स्वर्ण तथा धान्यों से व्याप्त थे। वहां तिराहों और चौराहों पर भलीप्रकार चबूतरे बनाये गये थे तथा वह नगरी मन्दिरों, विहारों और उद्यानों से मण्डित थी। जो (नगरी) तिलक वृक्षों के द्वारा छाया प्रदान किये हुए (स्त्री-पक्ष में-तिलक के द्वारा कान्तियुक्त) चतुस्र, वेश्या (अथवा विदग्ध वेशवाली स्त्री) के मुख के समान कमलों से युक्त; प्राकार के द्वारा उस प्रकार आलिंगित थी, जिस प्रकार प्रिय के द्वारा प्रिया का आलिंगन किया जाता है; जो तीनों भुवनों की ऋद्धि के समान Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६० सव्वो जीए सुरूवो सव्यो गुणरयणभूसिओ निच्चं । सव्वो सुवित्थयधणो सव्वो धम्मुज्जुओ लोओ ॥ ६८० ॥ रेहति जीए सीमा सरेहि नलिणीवणेहि य सराई । कमलेहि य नलिणीओ कमलाइ य भमरवंद्र हि ॥ ६८१ ॥ तीए य राया पणयारिवंद्र सामन्नसयलविहवो वि । नवरमसामन्नजसो नामेणं पुरिससीहो ति ॥ ६८२ ॥ कित्ति व्व तस्स जाया निम्मलवसुब्भवाऽकलंका य । सव्वंगसुंदरी सुंदरि ति नामेण ससिवयणा ।। ६८३ ॥ धम्मत्थभग्गपसरं तोए सह सोक्खमणुहवंतस्स । पणsaणकयाणंद वोलीणो कोइ कालो त्ति ॥ ६८४ ॥ ओय सो सव्वट्टसिद्धमहाविमाणवासी देवो अहाउयमणुपालिऊण तओ चुओ समाणो [ समराइच्चकहा सर्वो यस्यां सुरूपः सर्वो गुणरत्नभूषितो नित्यम् । सर्वः सुविस्तृतधनः सर्वो धर्मोद्यतो लोकः ॥ ६८० ॥ राजन्ति यस्यां सीमा सरोभिर्नलिनीवनैश्च सरांसि । कमलैश्च नलिन्यः कमलानि च भ्रमरवन्द्रः ॥ ८१ ॥ तस्यां च राजा प्रणतारिवन्द्रसामान्य सकल विभवोऽपि । नवरमसामान्ययशा नाम्ना पुरुषसिंह इति ॥ ६८२ ॥ कीर्तिरिव तस्य जाया निर्मलवंशोद्भवाऽकलङ्का च । सर्वाङ्गसुन्दरी सुन्दरीति नाम्ना शशिवदना ॥ ६८३ ॥ धर्मार्थाभिग्नप्रसरं तया सह सौख्यमनुभवतः । प्रणयिजनकृतानन्दमतिक्रान्तः कोऽपि काल इति ॥ ९८४ ॥ इतश्च स सर्वार्थसिद्धमहाविमानवासी देवो यथाऽऽयुष्कमनुपालय ततश्च्युतः सन् समुत्पन्नः थी, जिसे ब्रह्मा ने अस्थिर रूप से ( थोड़े समय के लिए) कुपित होकर ही किसी प्रकार पृथ्वीतल पर उतरी हुई देखकर परिवारूपी रस्सी से बाँध दिया था; जिस (नगरी) में सभी मनुष्य सुन्दर रूपवाले थे, सभी नित्यरूप गुरूपी रत्नों से विभूषित थे, सभी के पास विस्तृत धन था और सभी लोग धर्म में उद्यत थे । जिसकी सीमा तालाब, कमलिनी, वनों से युक्त तडागों से तथा कमल, कमलिनी और भौंरों के समूह से युक्त कमलों से शोभायमान थी, उस नगरी में शत्रुओं से नमस्कृत और समस्त वैभवों में सामान्य होने पर भी असामान्य यशवाला पुरुषसिंह नाम का राजा था । निर्मल वंश में उत्पन्न, कलंकरहित, सर्वांग सुन्दरी, चन्द्रमुखी 'सुन्दरी' नाम की ( उसकी पत्नी थी, जो कीर्ति के समान थी । धर्म और अर्थ के विस्तार को नष्ट न करते हुए प्रणयीजनों के योग्य आनन्द पाते हुए, उसके साथ सुख का अनुभव करते हुए उसका कुछ समय बीत गया ।। ६७८ ६८४|| इधर वह सवार्थसिद्धि नामक महाविमान का निवासी देव आयु पूरी कर, वहाँ से च्युत होकर, 'सुन्दरी' के गर्भ में आया । उसने ( सुन्दरी ने) उसी रात में प्रातःकालीन वेला में स्वप्न में सूर्य को मुख से बदर में प्रवेश Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो भवो] समुप्पन्नो संदरीए कुच्छिसि । दिट्ठो य तीए सुविणयम्मि तीए चेव रयणीए पहायसमयम्मि पणासयंतो तिमिरं मंडयंतो नहसिरि विवोहयंतो कमलायरे पगासयंतो जोवलोयं वंदिज्जमाणो लोएहि थत्वमाणो रिसिगणेहि उवगिज्जमाणो किन्नरेहिं अग्धिज्जमाणो लच्छीए अच्चंतपसंतमंडलो मिबंधणं सम्वकिरियाण चूडामणी उदयधराहरस्स सम्बत्तमतेयरासी दिणयरो क्यणेणमयरं पविसमाणो ति। पासिऊण य तं सुहविउद्धा । सिट्टो य तीए जहाविहि दइयस्स। हरिसवसुम्मिन्नपुलएणं भणिया य तेणं-देवि, तेल्लोक्कविक्खाओ ते पुत्तो भविस्सइ । तओ सा 'एवं' ति भत्तारवपणमहिणंदिऊण हरिसिया चित्तेण । तओ विसेसओ तिवग्गसंपायणरयाए संपाडियसयलमणोरहाए अभग्गमाणपसरं पुण्णहलमणहवंतीए पत्तो पसूइसमओ। तओ पसत्थे तिहिकरणमहत्तजोए विणा परिकिलेसेण पसूया एसा । जाओ से दारओ। निवेइओ राइणो पुरिससोहस्स हरिसनिब्भराए सिद्धिमइनामाए सुंदरिचेडियाए । परितुट्ठो राया। दिन्नं सिद्धिमईए पारिओसियं । भणिया य पडिहारी; जहा समाइससु णं मम वयपेण जहासन्निहिए पडिहारे, जहा 'मोयावेह मम रज्जे कालघंटापओएण सव्वबंधणाणि, सुन्दर्याः कुक्षौ । दृष्टश्च तया स्वप्ने तस्यामेव रजन्यां प्रभातसमये प्रणाशयन् तिमिरं मण्डयन् नभःश्रियं विबोधयन कमलाकरान् प्रकाशयन जीव लोकं वन्द्यमानो लोकैःस्तूयमान ऋषिगणरुपगीयमानः किन्नरैरय॑मानो लक्षम्याऽत्यन्तप्रशान्तमण्डलो निबन्धनं सर्वक्रियाणां चूडामणिरुदयधराधरस्य सर्वोत्तमतेजोराशिदिनकरो वदनेनोदरं प्रविशन्निति । दृष्ट्वा च तं सुखविबुद्धा। शिष्टश्च तया यथाविधि दयितस्य । हर्षवशोभिन्नपुलकेन भणिता च तेन-देवि ! त्रैलोक्यविख्यातस्ते पुत्रो भविष्यति । ततः सा ‘एवम्' इति भर्तृवचनमभिनन्द्य हर्षिता चित्तेन । ततो विशेषतस्त्रिवर्गसम्पादनरतायाः सम्पादितसकलमनोरथाया अभग्नमानप्रसरं पुण्यफलमनुभवन्त्याः प्राप्त: प्रसूतिसमयः । ततः प्रशस्ते तिथिक रणमुहूर्त योगे विना परिक्लेशेन प्रसूतैषा जातस्तस्य दारकः । निवेदितो राज्ञः पुरुषर्षा सहस्य हर्षनिर्भरया सिद्धिमतीनामया सुन्दरीचेटिकया । परितुष्टो राजा । दत्तं सिद्धिमत्यै पारितोषिकम् । भणिता च प्रतीहारो, यथा समादिश तद मम वचनेन यथासन्निहितान् प्रतीहारान यथा मोचयत मम राज्ये कालघण्टाप्रयोगेण सर्वबन्धनानि. दापयत घोषणापूर्वकमनपेक्षितानुरूपं करते हुए देखा। वह अन्धकार को नष्ट कर रहा था, आकाश-लक्ष्मी का मण्डन कर रहा था, कमलों के समूह को जाग्रत कर रहा था, संसार को प्रकाशित कर रहा था। लोग उसकी वन्दना कर रहे थे, ऋषिगण स्तुति कर रहे थे, किन्नर गान कर रहे थे, लक्ष्मी अर्घ्य दे रही थी। वह अत्यन्त शान्त परिवेशवाला था, समस्त क्रियाओं का कारण था, उदयाचल का चूडामणि था तथा सर्वोत्तम तेजराशि था। उसे देखकर (यह) सुखपूर्वक जाग उठी। उसने विधिपूर्वक पति से निवेदन किया। हर्षवश जिसे रोमांच प्रकट हो रहा था, ऐसे उसने (राजा ने) उससे कहा-'देवी ! तीनों लोकों में विख्यात तुम्हारा पुत्र होगा।' अनन्तर पति के वचनों का 'अच्छा !' इस प्रकार अभिनन्दन कर चित्त से हर्षित हुई । अनन्तर विशेष रूप से धर्म, अर्थ और काम में रत रहते हुए समस्त मनोरथों को सम्पादित कर, जिसके विस्तार को नष्ट नहीं किया जा सकता है, ऐसे पुण्य के फल का अनुभव करते हुए (उसका) प्रसव का समय आया। अनन्तर शुभ तिथि, करण और मुहूर्त के योग में बिना क्लेश के इसने प्रसव किया । उसके पुत्र उत्पन्न हुआ। हर्ष से भरी हुई सिद्धिमती नामक सुन्दरी की दासी ने राजा पुरुषसिंह से निवेदन किया । राजा सन्तुष्ट हुआ। (उसने) सिद्धिमती को पारितोषिक दिया और प्रतीहारी से कहा कि मेरे कथनानुसार समीपवर्ती प्रतीहारों को आज्ञा दो कि समय (सूचक) घण्टा बजाकर मेरे राज्य के समस्त बन्दियों को छोड़ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९२ [ समसइन्धकहा दवायेह घोसमापुव्वयं अणवेक्खियाणुरुवं महादाण, विसज्जावेह पउमरायपमहाणं मवईल मम पुत्तजन्मपत्ति, निवेएह देवीपुत्तजम्मन्भुदयं पउराणं, कारवेह अयालछणभूयं नपरमहूस' ति। समाहा य तीए जहाइटें पडिहारा । अणुचिट्ठियं रायसासमं पडिहारेहि । कारावियं च तेहिं बहुविहवरतूरणियनिग्धोसं । लीलाविलासविन्भममग्गपणच्चंतजुवइजणं ॥ ६८५॥ वेल्लहलबाहलइयाविलोलवलउल्लसंतझंकारं । हेलुच्छलंतकरकमलरियविमलवरद्ध तं ॥ ६८६ ॥ कम्पूरकुंकुमुप्पंकपंकपूरियनहंगणाभोय । बहलमयणाहिकद्दमखुप्पंतपडतनायरयं ॥ ६८७ ।। करकलियकणसिंगयतलिलपहारुल्लसंतसिक्कारं । मयवसविसंखलच्छलियगीयलयजणियजणहासं ॥ ६८८ ॥ महादानम्, विसर्जयत पद्मराजप्रमुखानां नरपतीनां मम पुत्रजन्मप्रवृत्तिम्, निवेदयत देवीपुत्रजन्माभ्युदय पौराणाम् । कारयताकालक्षणोद्भूतं नगरमहोत्सवमिति । समादिष्टाश्च तया यथाऽऽदिष्टं प्रतीहाराः । अनुष्ठितं राजशासनं प्रतीहारैः । कारितं च तैर्बहुविधवर सूर्य जनितनि?षम् । लोलाविलासविभ्रममार्गप्रनृत्ययुवतिजनम् ।। ६८५ ।। कोमलबाहुलतिकाविलोलवलयोल्लसदझंकारम् । हेलोच्छलत्करकमलधृतविमलव लान्तम् (?) ।। ६८६ ॥ कर्पूरकुङ कुमोत्पङ्कपङ्कपूरितनभोऽङ्गणाभोगम् । बहलमृगनाभिकर्दम मज्जयतनागरकम् ॥ ६८७ ॥ करकलितकनकशृङ्गसलिलप्रहारोल्लसत्सीत्कारम् । मदवशविशृखलोच्छलितगीतलयजनितजनहासम्।। ६८ ॥ दिया जाय, घोषणापूर्वक अनपेक्षित अनुरूप महादान दिलाओ, पद्मराज प्रमुख राजाओं को मेरे पुत्रजन्म का समाचार भिजवा दो, नागरिकों को महारानी के पुत्रजन्मरूप अभ्युदय का निवेदन करो। असामयिक रूप से प्रकट नमरमहोत्सव को कराओ। जैसा आदेश दिया था वह प्रतीहारों को बतला दिया गया। प्रतीहारों ने राजा की असा को पूर्ण किया। - प्रतीहारों ने अनेक प्रकार के उत्कृष्ट वाद्यों से उत्पन्न निर्घोष कराया। लीलाओं के विलास के विप्रन से मार्ग में युवतियां नाचने लगीं। उन युवतियों के कोमल बाहुरूपी लताओं के चंचल कड़ों से झंकार प्रकट हो रही थीं। अनायास ही उहाले हुए हस्तकमलों पर वे स्वच्छ गेंदों को उछाल रही थीं। उस समय कपूर और केसर की उठी हुई धुलि आकाशरूपी आँगन के विस्तार को पूर्ण कर (भर) रही थी (अथवा आकाशरूपी स्त्री के शरीर को व्याप्त कर रही थी), अत्यधिक कस्तूरी की कीचड़ में फिसलते हुए नागरिक गिर रहे थे, सुन्दर हाथों में स्थित सोने के झोगों द्वारा जल के प्रहार करने से सौ-सौ की ननि जल रही थी, मदहोश और विश्वल Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो भवो ] लीलालसविसमचलंतल लियपयरणरणंतमंजीरं । चल मेहलाकला बुल्लसंत कलकंकिणिकलावं ॥ ६८६ ॥ अन्नोन्नसमुक्खित्तुत्तरीयदीसंतथणयवित्थारं । हलहलय मिलियनायरयलोयरुद्धतसंचारं ॥ ६६ ॥ तूरियजणाणमणवरयचित्तविखष्पंतमहरिहाभरणं । विजियसुरलोयविहवं वद्धावणयं मणभिरामं ॥ ६६१ ॥ आनंदिया पउरजणवया । संपाडियं वद्धावणाइयं उचियकरणिज्जं । एवं च पइदिणं महंतमाणंदसोक्खमणहवंतस्स समइच्छितो पढमो मासो । पइट्टावियं नामं दारयस्स 'उचिओ एस एयस्स' त्ति कलिऊण सुमिणयदंसणेण पियामहसंतियं समराइच्चो ति । एत्यंतर म्म सो वि वाणमंतरजीवो नारओ तओ नरयाओ उव्वट्टिऊण नाणाविहतिरिएसु हिडिऊण पाविण दुखाइं तहाकम्मपरिणइवसेण गोमाउअत्ताए मरिऊण इमीए चेव नयरीए पाणवाडयम्मि गठिगाभिहाणस्स पाणस्स जक्खदेवाभिहाणाए भारियाए कुच्छिसि समुत्पन्नो सुय लीलालसविषमचलल्ललितपदरण रणन्मञ्जीरम् । चलमेखला कला पोल्लसत्कलकिङ्किणीकलापम् ।। ६८६ ॥ अन्योऽन्यसमुत्क्षिप्तोत्तरीयदृश्यमानस्तनविस्तारम् । कौतुक मिलितनागरलोकरुध्यमानसञ्चारम् || ६६० ॥ तौयिकजनानामनवरत चित्रक्षिप्यमानमहार्हाभिरणम् । विजितसुरलोकविभवं वर्धापनकं मनोऽभिरामम् ॥ ६६१ ॥ ७६३ आनन्दिताः पौरजनव्रजाः । सम्पादितं वर्धापनकादिकमुचितकरणीयम् । एव च प्रतिदिनं महदानन्दसौख्यमनुभवतः समतिक्रान्तः प्रथमो मासः । प्रतिष्ठापितं नाम दारकस्य 'उचित एष एतस्य' इति कलित्वा स्वप्नदर्शनेन पितामहसत्कं समरादित्य इति । अत्रान्तरे सोऽपि मानमन्तरजीवो नारकस्ततो नरकादुद्धृत्य नानाविधतिर्यवाहिण्ड्य प्राप्य दुःखानि तथाकर्मपरिणतिवशेन गोमायुकतया मृत्वाऽस्यामेव नगर्यां प्राणवाटके ग्रन्थिकाभिधानस्य प्राणस्य यक्षदेवाभिधानाया भार्यायाः कुक्षौ समुत्पन्नः सुततयेति । जातः कालक्रमेण प्रतिष्ठापितं होकर उछाले हुए गीतों की लय लोगों में हँसी उत्पन्न कर रही थी । लीला से थके होने के कारण विषम गति वाले सुन्दर पैरों के घुँघरू रुनझुन शब्द कर रहे थे । चंचल मेखलाओं पर छुद्र घण्टिकाएं सुशोभित हो रही थीं । एक-दूसरे पर उत्तरीय फेंकने से ( युवतियों के) स्तनों का विस्तार दिखलाई पड़ रहा था। कौतूहल से इकट्ठे हुए नागरिकों से मार्ग रुक गया था। बाजे बजानेवालों पर निरन्तर अनेक कीमती आभूषण न्यौछावर किये जा रहे थे । (इस प्रकार ) स्वर्ग के वैभव को जीतने वाला, मनोभिराम महोत्सव हो रहा था ।। ८५-६६१।। नागरिकों का समूह आनन्दित हुआ । बधाई आदि योग्य कार्यों का सम्पादन किया । इस प्रकार प्रतिदिन महान् आनन्द और सुख का अनुभव करते हुए पहला मास समाप्त हुआ । यह इसके योग्य है--- एसा मानकर स्वप्न के दर्शनानुसार शिशु का नाम पितामह के सदृश समरादित्य रखा गया । इसी बीच वह वानमन्तर का जीव नारकी भी उस नरक से निकलकर अनेक तिर्यंच योनियों में भ्रमण कर, दुःखों को प्राप्त कर वैसे कर्मों के वश सियार के रूप में मरकर इसी नगरी के प्राणवाटक में ग्रन्थिक नाम Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६४ [ समराइच्चकहा ताए ति । जाओ कालक्कमेण । पइट्ठावियं से नामं गिरिसेणो त्ति। सो य कुरूवो जडमई दुविखओ दरिदो ति दुखेण कालं गमेइ । ___समराइच्चो य विसिळं पुष्णफलमणुहवंतो पुटवभवसुकयवासणागुणेण बालभावे वि अबालभावचरिओ सयलसत्थकलासंपत्तिसुंदरं पत्तो कुमारभावं । पुष्वभवम्भासेण अणुरत्तो सत्थेसु चितए अहिणिवेसेण, उप्पिक्खए चित्तभावे, निरूवेई सम्म, घडेइ तत्तजत्तीए, भावए समभावेण, वडढए सद्धाए, पउंजए गोयरम्मि, गच्छए संवेयं । एवं च सत्थसंगयस्स तत्तभावणाणुसरणवलेणं जायं जाइसरणं । न विन्नायं जणेण। तओ सो अब्भत्थयाए कुसलभावस्स पहीणयाए कम्मुणो विसुद्धयाए नाणस्स हेययाए विसयाणं उवाएययाए पसमस्स अविज्जमाणयाए दुक्कडाणं उक्कडयाए जीववीरियस्स आसन्नयाए सिद्धिसंपत्तीए न बहु मन्नए रायलच्छि, न उज्जओ सरीरसक्कारे, न कोलए चित्तकोलाहि, न सेवए गामधम्मे, केवलं भवविरत्तचित्तो सुहझाणजोएणं काल गमेइ ति। त च तहाविहं दळूण समुप्पन्ना पुरिससीहस्स चिंता । अहो णु खलु एस कुमारो अणन्नसरिसे तस्य नाम गिरिषेण इति । स च कुरूपो जडम तिर्दु:खितो दरिद्र इति दुःखेन कालं गमयति । समरादित्यश्च विशिष्ट पुण्य फलमनुभवन् पूर्वभवसुकृतवासनागुणेन बालभावेऽप्यबालभावचरितः सकलशास्त्रकलासम्पत्तिसुन्दरं प्राप्तः कुमारभावम्। पूर्वभवाभ्यासेनानुरक्तः शास्त्रेषु चिन्तयत्यभिनिवेशेन, उत्प्रेक्षते चित्रभावान्, निरूपयति सम्यक, घटयति तत्त्वयुक्त्या, भावयति समभावेन, वर्धते श्रद्धया, प्रयुङ क्ते गोचरे, गच्छति संवेगम् । एवं च शास्त्रसंगतस्य तत्त्वभावनानुसरणबलेन जातं जातिस्मरणम् । न विज्ञातं जनेन । ततः सोऽभ्यस्ततया कुशलभावस्य प्रहो नतया कर्मणः विशद्धतया ज्ञानस्य हेयतया विषयाणामपादेयतया प्रशमस्याविद्यमानया दुष्कृतानामुत्कटतया जीववीर्यस्यासन्नतया सिद्धिसम्प्राप्तेन बह मन्यते राजलक्ष्मीम्, नोद्यतः शरीरसत्कारे न क्रीडति चित्रक्रीडाभिः, न सेवते ग्रामधर्मान्, केवलं भवविरक्तचित्तः शभध्यानयोगेन कालं गमयतीति । तं च तथाविधं दृष्ट्वा समुत्पन्ना पुरुषसिंहस्य चिन्ता । अहो नु खल्वेष कुमारोऽनन्यसदशोऽपि वाले चाण्डाल (प्राण) की यक्षदेवा नाम की पत्नी के गर्भ में पुत्र के रूप में आया। कालम से जन्म हआ। उसका नाम गिरिषेण रखा गया । वह कुरूप, जड़बुद्धि और दरिद्र था अतः दुःखित होकर समय बिता रहा था। समरादित्य पूर्वभव के संस्कारों के गुण से पुण्य के फल का अनुभव करता हुआ, बालक होने पर भी अबाल होने का आचरण करता हआ समस्त शास्त्र और कलाओं की सम्पत्ति से सुन्दर कुमारपने को प्राप्त हआ। पूर्वभव के अभ्यास से वह शास्त्रों में अनुरक्त रहकर अविरल चिन्तन करता रहता था, अनेक प्रकार के भावों का अनुमान करता था, भली प्रकार देखता था, तात्त्विक युक्तियों का मेल कराता था, समभाव से भावना करता था, श्रद्धा से बढ़ता था अर्थात् उसकी आस्था बढ़ रही थी, मार्ग का प्रयोग करता था और विरक्ति मार्ग पर गमन कर रहा था। इस प्रकार शास्त्र से युक्त तात्त्विक भावना के अनुसरण के बल से (उसे) जातिस्मरण हो गया। लोगों को (यह) ज्ञात नहीं हुआ। अनन्तर वह शुभभावों के अभ्यास, कर्म की हीनता, ज्ञान की विशुद्धता, विषयों की हेयता, शान्ति की उपादेयता, पापों की अविद्यमानता, जीव की शक्ति की उत्कटता और सिद्धि की प्राप्ति की समीपता के कारण राजलक्ष्मी का आदर नहीं करता था. शरीर के सत्कार में उद्यत नहीं था, अनेक प्रकार की क्रीड़ाओं को नहीं करता था, इन्द्रियों के विषयों का सेवन नहीं करता था, केवल संसार से विरक्तचित्त होकर शुभ ध्यान के योग से ही समय बिताता था। उसे उस प्रकार देखकर पुरुषसिंह को चिन्ता हुई। ओह ! यह कुमार चित्त में अनन्य सदृश होने, रूप में Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो भवो] ७६५ वि चित्ते संदरो वि स्वेण पत्ते वि पढमजोवणे संगओ वि काहिं पेच्छंतो वि रायकन्नयाओ निरुवहओ वि देहेण जत्तो वि इंदियसिरीए रहिओ वि मुणिसणेणं न छिप्पए जोव्वणवियारेहि, न पेच्छए अद्धच्छिपेच्छिएण, न जंपए खलियवयणेहि, न सेवए गेयाइकलाओ, न बहु मन्नए भूसणाई, न घेप्पए मएण, न मच्चए अज्जक्याए, न पत्थए विसयसोरखं । ता किं पुण इमं ति । पुण्णसंभारजुत्तो य एसो, जेण दिट्ठो देवीए एयसंभवकाले पसत्थसुविगओ; गब्भसंगए एयम्मि नत्थि ज मे न संजायं । अओ भवियव्वमेयस्स महापइट्ठाए, पावियत्वमेयसंबंधणमम्हेहि पारत्तियं । ता एस एत्थुवाओ। करेमि से दुल्ललियगोटिसंगए निम्माए कलाहिं वियक्खणे रइकीलासु आराहए परचित्तस्स अद्धासिए मयणेण विसिटकुलसमुप्पन्ने पहाणमित्ते। तओ तेसि संसग्गीए संपाडिस्सइ मे परमपमोयं ति। चितिऊण कया कुमारस्स दुल्ललियगोटीचूडामणिभूया मुत्तिमंता विय महुमयणदोगुदुगाई असोयकामंकुरललियंगयप्पमुहा पहाणमित्ता। भणिया य राइणा--तहा तुहिं जइयत्वं, जहा कुमारो विसिट्ठ चित्ते सुन्दरोऽपि रूपेण प्राप्तेऽपि प्रथमयौवने संगतोऽपि कलाभिः पश्यन्नपि राजकन्यका निरूपहतो. ऽपि देहेन युक्तोऽमीन्द्रियश्रिया रहितोऽपि मुनिदर्शनेन न स्पृश्यते यौवनविकारैः, न प्रेक्षतेऽर्धाक्षिप्रेक्षितेन, न जल्पति स्खलितवचनैः, न सेवते गेयादिकलाः, न बहु मन्यते भूषणानि, न गृह्यते मदेन, न मुच्यते आर्जवतया, न प्रार्थते विषयसौख्यम् । ततः किं पुनरिदमिति । पुण्यसम्भारयुक्तश्चषः, येन दृष्टो देव्या एतत्सम्भवकाले प्रशस्तस्वप्नः, गर्भ सङ्गते चैतस्मिन् नास्ति यन्मे न सञ्जातम् । अतो भवितव्यमेतस्य महाप्रतिष्ठया, प्राप्तव्यमेतत्सम्बन्धेनास्माभिः पारत्रिकम्। तत एषोऽत्रोपायः । करोमि तस्य दुर्ललितगोष्ठीसङ्गतानि निर्मातानि (निपुणानि) कलाभिविचक्षाणि रतिक्रीडासु आराधकानि परचित्तस्याध्याश्रितानि मदनेन विशिष्टकुलसमत्वन्नानि प्रधान मित्राणि । ततस्तेषां संसर्गेण सम्पादयिष्यति मे परमप्रमोदमिति । चिन्तयित्वा कृतानि कुमारस्य दुर्ललितगोष्ठीचडामणिभूतानि मूर्तिमन्तीव मधुमदनदोगुन्दकादीनि अशोककामाङ कुरललिताङ्गप्रमुखानि प्रधानमित्राणि । भणितानि राज्ञा तथा युष्माभिर्यतितव्यं यथा कुमारी विशिष्टलोकमार्ग प्रपद्यते । सुन्दर होने, कुमारावस्था प्राप्त होने, कलाओं से युक्त होने, राजकन्याओं को देखने, शरीर के निरुपहत होने, इन्द्रिय-लक्ष्मी से युक्त होने, मुनिदर्शन से रहित होने पर भी यौवन के विकारों से स्पृष्ट नहीं होता है। अधखुली आँखों से नहीं देखता है, स्खलित वचन नहीं बोलता है, गाने योग्य आदि कलाओं का सेवन नहीं करता है, भूषणों का आदर नहीं करता है, मद से गृहीत नहीं होता है, आर्जव (सरलता) को नहीं छोड़ता है और विषय-सुखों की प्रार्थना नहीं करता है। अत: यह क्या, यह पुण्य के भार से युक्त है; क्योंकि महारानी ने इसके उत्पन्न होने के समय में शुभ स्वप्न देखा था और गर्भ से युक्त होने पर वह कोई पदार्थ नहीं, जिसकी मुझे उपलब्धि नहीं हुई हो या जो पूरा नहीं हुआ हो । अत: इसकी महाप्रतिष्ठा होनी चाहिए, इसके सम्बन्ध में हमें पारलौकिक गति (सद्गति) प्राप्त करनी चाहिए । अतः यहाँ उपाय है । मैं (अब) उसके ललित गोष्ठियों से युक्त, कलाओं में विलक्षण, रतिक्रीड़ाओं में निपुण, दूसरे के चित्त की आराधना करने वाले, काम से अधिष्ठित तथा विशिष्ट कुलों में उत्पन्न ऐसे प्रधान मित्र बनाता हूँ। उनके संसर्ग से मुझे अत्यधिक प्रमोद होगा-ऐसा सोचकर प्रधान मित्रों को बनाया। राजा ने अशोक, कामांकुर, ललितांग प्रमुखों को कुमार का प्रधानमित्र बनाया। ये मित्र ललित गोष्ठी के चूड़ामणि थे और शरीरधारी वसन्त, कामदेव या उत्तम जाति के देव (के समान) थे। राजा ने उनसे कहा कि तुम लोगों को उस प्रकार का यत्न करना चाहिए जिससे कुमार विशिष्ट लौकिक मार्ग को प्राप्त Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६६ लोयमग्गं पवज्जइ । तेहिं भणियं - जं देवो आणवेइ । अक्ता कss दिया । उवगया वीसत्थयं । आढत्तो य णेहिं महरोवक्कमेण कुमारो, गायंति मणहरं, पढति गाहाओ, पुच्छंति वोणापओए, पसंसंति नाडयाइं; विद्यारेति कामसत्थं, दसति चित्ताई, वर्णेति सारसमिहुण्याई, निदंति चक्काई, कुणंति इत्थिकहं, दंसेति सरवराई, कारेंति जलकीड, निवेति उज्जाणेसु, पसाहिति सुंदरं, कीलंति डोलाहिं, रएंति कुसुमसत्थरे, थुणंति विसमबाणं ति । कुमारो उण पवड्ढमाणसंवेओ 'अहो एएसि मूढया ! कहं पुण एए पडिबोहियव्व' त्ति उवाचतापरो उवहसीलयाए पडिकूलमभणमाणो चिट्ठइ । एवं च अइवकंतो कोइ कालो । तेसि पडिबोहणत्थं तु fife नायपेच्छणाइ अब्भुवगयं कुमारेण, वड्ढिया पीई, नीया य परमवीसत्थयं । अन्नयाय एस एत्थ विसयाहिओ उवाओ' त्ति मंतिऊण परोप्परं कओ असोएण कामसत्थसंगो | भणियं च गण -- भो किपरं पुण इमं कामसत्थं । कामंकुरेण भणियं - भो किमेत्य पुच्छि - rai अविगलतिवग्गसाहणपरं ति । कामसत्यभणियपओयन्त्रणो हि पुरिसस्स सदारचित्ताराहणतैर्भणितम् - यद् देव आज्ञापयति । अतिक्रान्ताः कतिचिद् दिवसाः । उपगता विश्वस्तताम् । आरब्धश्च तैर्मधुरोपक्रमेण कुमारः, गायन्ति मनोहरम्, पठन्ति गाथाः, पृच्छन्ति वीणा प्रयोगान्, प्रशंसन्ति नाटकानि, विचारयन्ति कामशास्त्रम्, दर्शयन्ति चित्राणि वर्णयन्ति सारसमिथुनकानि, निन्दन्ति चक्रवाकान्, कुर्वन्ति स्त्रीकथाम्, दर्शयन्ति सरोवराणि कारयन्ति जलक्रीडाम्, निवेशयन्त्युद्यानेषु, प्रसाधयन्ति सुन्दरम् क्रीडयन्ति दोलामि:, रचयन्ति कसुमस्रस्तरान् स्तुवन्ति विषमबाणमिति । कुमारः पुनः प्रवर्धमानसंवेगः 'अहो तेषां मूढता, कथं पुन प्रतिबाधितव्याः' इत्युपायचिन्तापर उपरोधशीलतया प्रतिकूलमभणन् तिष्ठति । एवं चातिक्रान्तः कोऽपि कालः । तेषां प्रतिबोधनार्थं तु किञ्चिद् नाटकप्रेक्षणाद्यभ्युपगतं कुमारेण वृद्धा प्रोतिः, नीताश्च परमविश्वस्तताम् । अन्यदा च 'एषोऽत्र' विषयाधिक उपाय:' इति मन्त्रयित्वा परस्परं कृतोऽशोकेन कामशास्त्रप्रसङ्गः । भणितं च तेन - भोः किं परं पुनरिदं कामशास्त्रम् । कामाङ कुरेण भणितम् - भोः ! किमत्र प्रष्टव्यम्, अविकलत्रिवर्गसाधनपरमिति । कामशास्त्रभणितप्रयोगज्ञस्य हि पुरुषस्य स्वदारचित्ताराकरें । उन्होंने कहा- जो महाराज आज्ञा दें । कुछ दिन बीत गये । (वे मित्र) विश्वस्तता को प्राप्त हुए। उन्होंने कुमार के प्रति मधुर उपक्रम आरम्भ किये। वे मनोहर गाते थे, गाथाएँ पढ़ते थे, वीणा के प्रयोग पूछते थे, नाटकों की प्रशंसा करते थे, कामशास्त्र पर विचार करते थे, चित्र दिखलाते थे, सारस के जोड़ों का वर्णन करते थे । चकवों की निन्दा करते थे, स्त्रीकथा करते थे, सरोवर दिखलाते थे, जलक्रीड़ाएं कराते थे, उद्यानों में डेरा डालते थे, सुन्दर प्रसाधन करते थे, झूला झूलते थे, फूलों के बिस्तर बनाते थे और कामदेव की स्तुति करते थे । पुनः कुमार बढ़ी हुई विरक्तिवाला होकर -'ओह इनकी मूढ़ता, इन्हें पुन: कैसे प्रतिबोधित करें - इस उपाय की चिन्ता में रत रहते हुए अनुग्रह स्वभाववाले होने के कारण प्रतिकूल न कहते हुए स्थित रहते थे । इस प्रकार कुछ समय बीत गया । उनको प्रतिबोधित करने के लिए कुमार ने नाटक, प्रेक्षण आदि स्वीकार किये, प्रीति बढ़ी और अत्यधिक विश्वस्त हो गये । एक बार 'यह यहाँ विषयों में प्रवृत्ति का बहुत बड़ा उपाय है' ऐसी मन्त्रणा कर अशोक ने परस्पर काम का प्रसंग छेड़ दिया । उसने कहा - 'हे (मित्रो ! ) यह कामशास्त्र क्या है ?' कामांकुर ने कहा- 'अरे इसमें क्या पूछना, अविकल रूप से धर्म, अर्थ और काम का साधन करनेवाला कामशास्त्र है । कामशास्त्र में कहे हुए प्रयोग [ समराइच्चकहा Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो भवो ] संरक्खण सुद्धभावओ विसुद्धदाणाइकिरियापसिद्धीए य महंतो धम्मो । अणुरत्तदारासुद्धसुए हितो य तथाणुबंध फलसारा संपज्जति अत्यकामा विवज्जए उण तिन्हं पि विवज्जओ । जओ अणाराहणेण दारचित्तस्स न परमत्थओ सरकखणं, असंरक्खणे य तस्स असुद्धसुयभावओ तेस निरयाइजोयणाए विसुद्ध दाणाइकिरियाभावओ महंतो अहम्मो, अणणरत्तदाराविसुद्धसुरहितोय पणस्संति अत्थकामा, नय कामसत्यभणियपओयपरिन्नाणरहिओ नियमेण सदारचित्तं आराहेइ ति । एएण कारणेणं विग्गसाहणपरं कामसत्थं ति । ललियंगएण भणियं - सोहणमिणं, न एत्थ कोइ दोसो । एयं तु सोहणपरं, घम्मत्थाण साफल्यानिदरिसणपरं ति; न जओ कामाभावे धम्मत्थाणमन्नं फलं न य निष्फलत्ते तेसि पुरिसत्थया । न य मोक्खफल साहगत्तणेणं सफला इमे, जओ अलोइओ मोक्खो समाहिभावणाभाणपगरिसफलो य । तम्हा धम्मत्थाण सापल्लयानिदरिसणपरमेयं ति । एवं चैव सोहणपरं । असोएण भणियं - कुमारो एत्थ पमाणं ति । कामंकुरेण भणियं - सुट्ठ पमाणं । धनसंरक्षणेन शुद्धसुतभावतो विशुद्धदानादिक्रिया प्रसिद्धयां च महान् धर्मः । अनुरक्तदारशुद्धसुताभ्यां च तदनुबन्धफलसारौ सम्पद्यतेऽर्थकामौ विपर्यये पुनस्त्रयाणामपि विपर्ययः । यतोऽनाराधनेन दारचित्तस्य न परमार्थतः संरक्षणम्, असंरक्षणे च तस्याशुद्धसुतभावतस्तेषां निरयादियोजनया विशुद्धदानादिक्रियाभावतो महान् अधर्मः अननुरक्तदाराविशुद्धसुताभ्यां च प्रणश्यतोऽर्थकामौ न च कामशास्त्रभणितप्रयोगपरिज्ञानरहितो नियमेन स्वदारचित्तमाराधयतीति । एतेन कारणेन त्रिवर्गसाधनपरं कामशास्त्रमिति । ललिताङ्गेन भणितम् - शोभनमिदम्, नात्र कोऽपि दोषः । एतत्तु शोभनतरम्, धर्मार्थयोः साफल्यता निदर्शनपरमिति, न यतः कामाभावे धर्मार्थयोरन्यत् फलम्, न च निष्फलत्वे तयोः पुरुषार्थता । न च मोक्षफलसाधकत्वेन सफलाविमौ यतोऽलौकिको मोक्षः समाधिभावनाध्यानप्रकर्षफलश्च । तस्माद् धर्मार्थयोः साफल्यतानिदर्शनपरमेतदिति । एवमेव शोभनतरमिति । अशोकेन भणितम् - कुमारोऽत्र प्रमाणमिति । कामाङकुरेण भणितम्- सुष्ठु प्रमाणम् । ललिताङ्गकेन भणितम् -- यद्यवं ततः करोतु प्रसादं कुमारः, कथयतु किमत्र शोभनतरमिति । कुमारेण भणितम् - ७६७ को जाननेवाले पुरुष के अपनी स्त्री के चित्त की आराधना और उसके संरक्षण से शुद्ध पुत्र की भावना करने और विशुद्ध दानादि क्रियाओं की प्रसिद्धि से महान् धर्म होता है । स्त्री और शुद्ध (सुसंस्कृत ) पुत्र में अनुरक्त होने से तत्सम्बन्धी अनुबंध ही है फल और सार जिनमें ऐसे अर्थ और काम दोनों को ही सम्पादित करते हैं। विपरीत स्थिति में धर्म, अर्थ और काम तीनों की विपरीतता होती है; क्योंकि स्त्री के चित्त की आराधना न करने से परमार्थ रूप से उसका संरक्षण नहीं होता । परमार्थतः (स्त्री के चित्त का) संरक्षण न होने पर अशुद्ध सुतभाव से उनके नरकादि का संसर्ग होता है और उससे विशुद्ध दानादि क्रियाओं का अभाव होने से महान् अधर्म होता है । विशुद्ध रूप से स्त्री और पुत्र में अनुरक्त न होनेवाले के अर्थ और काम दोनों ही नष्ट हो जाते हैं, कामशास्त्र में कथित प्रयोग के ज्ञान से रहित व्यक्ति नियम से अपनी स्त्री के चित्त की आराधना नहीं करता है। इस तरह कामशास्त्र धर्म, अर्थ और काम का साधन करने में सक्षम है।' ललितांग ने कहा- 'यह ठीक है, यहाँ कोई दोष नहीं है । यह 'बहुत अच्छा है, धर्म और अर्थ की सफलता का द्योतन करने में समर्थ है, क्योंकि काम के अभाव में धर्म और अर्थ का अन्य कोई फल नहीं है । धर्म और अर्थ के निष्फल होने पर पुरुषार्थ भी नहीं रहता । मोक्षफल के साधक होने से धर्म और अर्थ सफल हैं, ऐसा भी नहीं है; क्योंकि मोक्ष अलौकिक है और समाधि - भावना तथा ध्यान की चरम सीमा का फल । अतः धर्म और अर्थ की सफलता का यह निदर्शन ( दृष्टान्त ) है । यही शोभनतर है । अशोक ने कहा - ' इस विषय में कुमार प्रमाण हैं ।' कामांकुर ने कहा- 'भलीभाँति प्रमाण हैं ।' ललितांग ने तो Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्च कहा ललियंगण भणियं - जइ एवं, ता करेउ पसायं कुमारी; साहेउ, किमेत्थ सोहणयरं ति । कुमारेण मणियं - भो, न तुमेह कुप्पियब्वं भणामि अहमेत्थ परमत्थं । सव्र्व्वेहि भणियं -कुमार, अन्नाणना को कोवो । ता करेउ पसायं कुमारो, भणाउ परमत्थं ति । कुमारेण भणियं - भो सुणह । कत्थं खुपरमत्थओ करेंतसुतमाणमन्नाणपयासणपरं जओ कामा असुंदरा पयईए विडंबना विसावमा परिभोए वच्छला कुचेट्टियस्स । एएहि अहिहूया पाणिणो महामोहदोसेण न पेच्छं ति परमत्यं, न सुगंति हियाहियाई, न वियारंति कज्जं, न चितंति आयई । जेण कामिणो सयाऽसुइएस असुइनिबंधणे कलमलभरिएसु महिलायणंगेसु चंदकुंदेदोवरेहितो वि अहिययररम्मबुद्धीए अहिलासाइरेगेण असुइए विथ गडसूयरा धणियं पयट्टति; अओ न पेच्छंति परमत्थं । जओ य दुल्लहे मणुजम्मे ल े कम्मपरिणईए साहए सुद्धधम्मस्स चंचले पयईए संसारवद्धणेसु निव्वाणवेरिएस बालबहुमएस बुह्यण गरहिएस सज्जति कामेसु; अओ न मुणंति हियाहियाई । जओ य असंतेसु वि इमे काम संपाडण निमित्तं निष्फलं उभयलोएस कुणंति चित्तचेट्ठियं खमंति अक्खमाए, किस्सिंति ७२८ भन युष्माभिः कुपितव्यम्, भणामि अहमत्र परमार्थम् - सर्वैर्भणितम् । अज्ञाननाशने कः कोपः । ततः करोतु प्रसादं कुमारः, भणतु परमार्थमिति । कुमारेण भणितम् - भोः शृणुत । कामशास्त्रं खलु परमार्थतः कुर्वच्छृण्वतामज्ञानप्रकाशनपरम्, यतः कामा असुन्दरा: प्रकृत्या, विडम्बना जनानां विषोपमाः परिभोगे, वत्सलाः कुचेष्टितस्य । एतैरभिभूताः प्राणिनो महामोहदोषेण न पश्यन्ति परमार्थम्, न जानन्ति हिताहिते न विचारयन्ति कार्यम्, न चिन्तयन्त्यायतिम् । येन कामिनः सदाऽशुचि केष्वशुचिनिबन्धनेषु कलमलभृतेषु महिलाजनाङ्गेषु चन्द्रकुन्देन्दीवरेभ्योऽपि अधिकतर - रम्यबुद्धयाऽभिलाषातिरेकेणाशुचाविव गर्ताकरा गाढं प्रवर्तन्ते, अतो न प्रेक्षन्ते परमार्थम् । यतस्त्र दुर्लभे मनुजजन्मनि लब्धे कर्मपरिणत्या साधके शुद्धधर्मस्य चञ्चले प्रकृत्या संसारवर्धनेषु निर्वाणवैरिकेषु बालबहुमतेषु बुधजनगर्हितेषु सज्जन्ति कामेषु, अतो न जानन्ति हिताहिते । यतश्चासत्स्वपि एषु कामसम्पादननिमित्तं निष्फलमुभयलोकेषु कुर्वन्ति चित्रचेष्टितम्, क्षमन्ते कहा - 'यदि ऐसा है तो कुमार कृपा करें, कहिए, यहाँ क्या शोभनतर है ?' कुमार ने कहा- 'हे मित्रो ! आप सभी कुपित मत होना, मैं इस विषय में यथार्थ बात कहता हूँ ।' सभी मित्रों ने कहा- 'अज्ञान का नाश करने में कैसा कोप ! अतः कुमार कृपा कीजिए, सही बात कहिए ।' कुमार ने कहा - 'हे मित्रो ! सुनो। निश्चित रूप से कामशास्त्र को परमार्थ बतलाना या सुनना अज्ञान का प्रकाशन है; क्योंकि काम स्वभाव से असुन्दर है, भोग करने में विष के समान काम मनुष्यों का उपहास रूप है । कुचेष्टाओं का प्रिय है । इससे अभिभूत प्राणी महामोह के दोष से परमार्थ को नहीं देखते हैं, हित और अहित को नहीं जानते हैं। कार्य का विचार नहीं करते हैं, भावी फल को नहीं सोचते हैं, जिससे कामी सदा अपवित्र, अपवित्रता के सम्बन्ध से युक्त, कीचड़ और मल से भरे हुए महिलाओं के अंगों में चन्द्रमा, कुन्द पुष्प और नीलकमल से अधिक रमणीय बुद्धि से अभिलाषा की अधिकता के कारण उसी प्रकार प्रवृत्त होते हैं, जिस प्रकार से अपवित्र गड्ढे में सुअर गाढ़ रूप से प्रवृत्त होते हैं । इसीलिए वे परमार्थं को नहीं देखते हैं। चूंकि कामी पुरुष कर्मों की परिणति से दुर्लभ मनुष्यजन्म प्राप्त होने पर तथा शुद्ध धर्म का साधक होने पर ( भी ) स्वभाव से चंचल, संसार को बढ़ानेवाले, निर्वाण के वैरी, अज्ञानियों द्वारा आदर पाये विद्वानों द्वारा गहित कामों में लग जाते हैं। इसी से वे हित और अहित को नहीं जानते हैं । हुए. Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्मो भवो] .७६६ अकिलिसिपव्वं, थुणंति अथोयव्वाई, झायंति अज्झाइयव्वाइं; अओ न वियारेति कज्ज।मओय उवहसंति सच्चं, कुणंति कंदप्पं, निदंति गुरुयणं, चयंति कुसलमग्गं, हवंति ओहसणिज्जा, पावंति उम्माय, निदिज्जति लोएणं, गच्छंति नरएसु; अओ न पेच्छंति आयइं । अन्नं च । इहलोए चेव कामा कारणं वहबंधणाण, कुलहरं इस्साए, निवासो अणवसमस्स, खेत्तं विसायभयाण, अओ व निदियों धम्मसत्थेसु । एक्वट्ठिए समाणे निरूबेह मज्भल्यभावेण, कह ण कामसत्थं अविगलतिवग्गसाहयफ्रं ति । जं च भणियं 'कामसत्थभणियपओयामुणो हि पुरिसस्स सयारचित्ताराहनसंरक्खण सुखसुपर भावओ विसुद्धदाणाइकिरियापसिद्धीए य महतो धम्मो त्ति, एवं पि न जुतिसंगयं । जओन कामसत्वभणियपओयन्त वि पुरिसो नियमेण सदारचित्ताराहणं करोति। दीसंति खलु इमेसि पि वहिचरंता दारा । नयासम्मपओयजणिओ तओ वहिचारो ति जुत्तमासंकिउ, न जओ एत्य निच्छए पमाण । दोसइ य तप्पओयन्न एगदारचित्ताराहनपरो वि अन्नस्स तमणाराहयंतो, अपओयन्नू वि याराहातो अक्षमया, क्लिश्यन्त्यक्ले शितव्यम्, स्तुवन्त्यस्तोतव्यानि ध्यायन्त्यध्यातव्यानि, अतो न विचारयन्ति कार्यम् । यतश्चोपहसन्ति सत्यम्, कुर्वन्ति कन्दर्पम्, निन्दन्ति गुरुजनम्, त्यजन्ति कुशलमार्गम, भवन्त्युपहसनीयाः, प्राप्नुवन्त्युन्मादम्, निन्द्यन्ते लोकेन, गच्छन्ति नरकेषु, अतो न प्रेक्षन्ते आयतिम् । अन्यच्च, इहलोके एव कामाः कारणं वधबन्धनानाम्, कुलगृहमीायाः, निवासोऽनुपशमस्य, क्षेत्रं विषादभयानाम; अत एव निन्दिता धर्मशास्त्रेषु। एवम वस्थिते सति निरूपयत मध्यस्थभावेन, कथं नु कामशास्त्रमविकल त्रिवर्गसाधनपरमिति । यच्च भणितं 'कामशास्त्रणित प्रयोगज्ञस्य हि पुरुषस्य स्वदारचित्ताराधनसंरक्षणेन शुद्धस्तभावतो विशुद्धदानादिक्रियाप्रसिद्ध या च महान धर्म' इति । एतदपि न युक्तिसंगतम। यतो न कामशास्त्रणितप्रयोगज्ञोऽपि पुरुषो नियमेन स्वदारचित्ताराधनं करोति । दृश्यन्ते खल्वेषामपि व्यभिचरन्तो दाराः । न चासम्यक्प्रयोगजनितस्ततो व्यभिचार इति युक्तमाशङ्कितुम, न यतोऽत्र निश्चये प्रमाणम् । दृश्यते च तत्प्रयोगज्ञ एकदारचित्ताराधनपरोऽपि अन्यः स तमनाराधयन्, अप्रयोगज्ञोऽपि चाराधहिताहित का विवेक न होने पर काम के सम्पादन के लिए इहलोक और परलोक दोनों में नाना प्रकार की चेष्टाएं करते हैं, अक्षमा के द्वारा क्षमा किये जाते हैं, क्लेश को न पहुँचाने योग्य को दुःख पहुँचाते हैं, स्तुति न करने योग्यों की स्तुतियां करते हैं, ध्यान न करने योग्यों का ध्यान करते हैं, अतः कार्य का भी विचार नहीं करते हैं। चूंकि सत्य का उपहास करते हैं, काम (सेवन) करते हैं गुरुओं की निन्दा करते हैं, शुभमार्ग छोड़ देते हैं, उपहास के योग्य होते हैं, उन्माद को प्राप्त करते हैं, लोक-निन्दित होते हैं, नरकों में गमन करते हैं, अत: भावी फल का भी विचार नहीं करते हैं। इस लोक में ही काम बन्ध और बन्धन का कारण है, ईया का कुलगृह (पित गह) है, अशान्ति का निवास है, विषाद और भयों का क्षेत्र है, अतएव धर्मशास्त्रों में (भी) इसकी नि है। ऐसी स्थिति में माध्यस्थ्य भाव से देखो। कामशास्त्र अविकल रूप से धर्म, अर्थ और कामरूप त्रिवर्ग का साधन करने में कंसे समर्थ है ? जो कहा गया है कि कामशास्त्र में कथित प्रयोग को जाननेवाले पुरुष का निश्चित रूप से अपनी स्त्री के चित्त की आराधना और संरक्षण से शुद्ध भाव से और विशुद्ध दानादि क्रियाओं को प्रसिद्धि से महान् धर्म होता है--यह भी युक्तिसंगत नहीं हैं, क्योंकि कामशास्त्र में कथित प्रयोग को जानने वाला भी पुरुष नियम से अपनी स्त्री के चित्त की सेवा नहीं करता है । इनकी स्त्रियाँ भी व्यभिचार करती हुई देखी जाती हैं। 'ठीक प्रयोग से जनित नहीं है, अत: व्यभिचार हैं' - ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि इस विषय का निश्चय करने में प्रमाण नहीं है । और ऐसा भी देखा जाता है कि कामशास्त्र में कथित Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०० [ समराइच्चकहा ति। तम्हा जं किंचि एयं । जं पि वेज्जगोदाहरणेण एत्थ जाइजुत्ति भणंति, सा वि य पयइ निग्गुणतण कामाण जीवियस्थिणो खग्गसिरच्छेयाकरियाविहाणजुत्तितुल्ल त्ति न बहुमया बुहाणं। एवं सुद्धसुयभावो विसुद्धदाणाइकिरियापसिद्धी य वभिचारिणी दोसंति। कामसत्थपराणं पि सुया अकुलउत्तया पयईए भयंगपाया चेटिएण । अणुरत्तदाराइं पिय निरवेक्खाणि दाणाइकिरियासु, तुच्छयाणि पयईए, अहियं विवज्जयकारीणि । अओ जं पि जंपियं 'अणुरत्तदारासुद्धसुएहितो य तयणुबद्धफल. सारा संपज्जति अत्थकाम' ति, तं पि य असमंजसमेव । एवं च ठिए समाणे जं पि भणियं विवज्जए उण तिण्हं पि विवज्जओ' त्ति इच्चेवमाइ, तं पि परिहरियमेव, वभिचारदोसेण समाणो खु एसो। इहई न हि न कामसस्थभणियपओयन्नुणो वि एसो न होइ। अओ न तम्विवज्जयनिमित्तो खलु एसो, अवि य अकुसलाणबंधिकम्मोदयनिमित्तो, विवज्जओ वि अकुसलाणुबंधिकम्मोदयनिमित्तो त्ति निरत्ययं कामसत्थं । तहा जं च भणियं 'एयं तु सोहणयरं, धम्मत्थाण साफल्लयानिदरिसणपरं काम यन्निति । तस्माद् यत्किञ्चिदेतत् । यदीप वैद्यकोदाहरणेनात्र जातियुक्ति भणन्ति, साऽपि च प्रकृतिनिर्गणत्वेन कामानां जीविताथिनः खड्गशिरश्छेद क्रियाविधानयुक्तितुल्येति न बहुमता बुधानाम् । एवं शुद्धसुतभावो विशुद्धदानादिक्रियाप्रसिद्धिश्च व्यभिचारिणो दृश्यते । कामशास्त्रपराणामपि सुता अकुलपुत्रका: प्रकृत्या भुजङ्गप्रायाश्चेष्टितेन । अनुरक्तदारा अपि च निरपेक्षा दानादिक्रियासु तुच्छाः प्रकृत्या, अधिक विपर्ययकारीणः । अतो यदपि जल्पितम् 'अनुरक्तदारशुद्धसुताभ्यां च तदनुबद्धफलसारौ सम्पद्यतेऽर्थकामौ' इति, तदपि चासमञ्जसमेव । एवं च स्थिते सति यदपि भणितं 'विपर्यये पुनस्त्रयाणामपि विपर्यय इति' इत्येवमादि, तदपि परिहृतमेव, व्यभिचारदोषेण समानः खल्वेषः । इह नहि न कामशास्त्रभणितप्रयोगज्ञस्यापि एष न भवति । अतो न त द्विपर्ययनिमित्तः खल्वेषः, अपि चाकुश लानुबन्धिकर्मोदयनिमित्तः, विपर्ययोऽपि अकुशलानुबन्धिकर्मोदयनिमित्त इति निरर्थकं कामशास्त्रम् । तथा यच्च भणितम् एतत्तुशोभनतरम्, धर्मार्थयोः साफल्यतानिदर्शनपरं प्रयोग का ज्ञाता एक स्त्री के चित्त की सेवा करने में तत्पर होने पर भी दूसरा उसकी सेवा नहीं करता है और जो कामशास्त्र में कथित प्रयोग का ज्ञाता नहीं है, वह सेवा (भक्ति) करता है । अतः यह यत्किचित् है। यद्यपि वैद्यक के उदाहरण से यहाँ जातियुक्त कहते हैं, वह जातियुक्त भी कामों के स्वभावतः निर्गुण होने से, जीवन चाहनेवालों के लिए तलवार से सिर काटने की क्रिया का विधान करने की युक्ति के समान है, अतः विद्वानों को यह मान्य नहीं है । इस प्रकार शुद्ध पुत्रभाव और विशुद्ध दानादि क्रियाओं की प्रसिद्धि व्यभिचारिणी दिखाई देती है। कामशास्त्रपरों के भी पुत्र व्यभिचारियों, सदृश आचरण करने से स्वभावतः अकुलपुत्र ही हैं । पत्नी में अनुरक्त होकर भी व्यक्ति दानादि क्रियाओं से निरपेक्ष, प्रकृति से तुच्छ और अधिक विपरीत कार्यों को करनेवाले होते हैं । अतः जो कहा गया कि शुद्ध सुत और स्त्री में आसक्त उस सम्बन्धी फल और साररूप अर्थ और काम को प्राप्त करते हैं'–वह भी ठीक नही है । ऐसी स्थिति में यह जो कहा गया है : विपरीत स्थिति में धर्म, अर्थ और काम तीनों की विपरीतता होती है'- इत्यादि, वह भी निरस्त हो गया । इस संसार में ऐसा नहीं है कि कामशास्त्र में कथित प्रयोग को न जाननेवालों को यह न होता हो। अतः प्रयोग को न जानना यह निश्चित रूप से धर्म, अर्थ और काम की विपरीतता का कारण नहीं है, अतुि बँधे हुए अशुभ कर्मों का उदय ही इसका कारण है । विपरीत होने पर भी अशुभ कर्मों का उदय ही कारण होने से कामशास्त्र निरर्थक है तथा जो कहा गया हैधर्म और अर्थ की सफलता का निदर्शनपरक होने से यह कामशास्त्र शोभनतर है; क्योंकि काम के अभाव में Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो भवो] ८०१ सत्यं ति, न जओ कामाभावे धम्मत्थाणमन्नं फलां, न य निष्फलत्ते तेसि पुरिसस्थया, न य मोक्खफलसाहगतेण सफला इमे, जओ अलोइओ मोक्खो समाहिभावणाझाणपगरिसफलो य'त्ति, एयं पुण असोहणयरं । जओ पामागहियकंडुयणपाया कामा विरसयरा अवसाणे भावंधयारकारिणो असुहकम्मफलभूया कहं धम्मस्थाण फलं ति, कहं वा तहाविहाणं धम्मत्थाण पुरिसत्थया, जे जणेंति कामे नासेंति उवसमं कुणंति अमित्तसंगमाणि अवणेति सव्ववसायं संपाडयंति अणायई अवपूरंति सोयं विहेंति लाघवाइं ठावेति अप्पच्चयं हरंति अप्पमायपाणे कारेंति अणुवाएयं ति। जंपिय सरीरदिइहेउभावेण आहारसधम्माणो कामा परिहरियव्वा य एत्थ दोस' त्ति मोहदोसेण भणंति मंदबुद्धिणो, तं पिन हु बहजणमणोहरं । जओ विणा वि एएहि मणियतत्ताणं पेच्छमाणाण जहाभावमेव बोंदिविरत्ताण तीए सुद्धज्झाणाण रिसीण दोसइ सरीरठिई; सेवमाणाण वि य ते तज्जणियपावमोहेण अच्चंतसेवणपराणं खयादिरोगभावओ विणासो त्ति । ता कहं ते सरीरदिइहेयवो, कहं वा आहारसधम्माणो त्ति । न य एयसंगया दोसा अपरिचतेहिं एएहि अभिन्ननिबंधणत्तेण तीरंति परिहरिउं। कामशास्त्रमिति, न यत: कामाभावे धर्मार्थयोरन्यत् फलम्, न च निष्फलत्वे तयोः पुरुषार्थता, न च मोक्षफलसाधकत्वेन सफलाविमौ, यतोऽलौकिको मोक्षः समाधिभावनाध्यानप्रकर्षफलश्च' इति, एतत् पुनरशोभनत रम् । यतः पामागृहीतकण्डयनप्रायाः कामा विरसतरा अवसाने भावान्धकारकारिणोऽशभकर्मफलभूताः कथं धर्मार्थयोः फल मिति, कथं वा तथाविधयोः धर्मार्थयोः पुरुषार्थता, यो जनयतः कामान्, नाशयत उपशमम्, कुरुतोऽमित्रसंगमान्, अपनयतः सद्व्यवसायम्, सम्पादयतोऽनायतिम, अवपूरयतः शोकम्, विधत्तो लाघवानि, स्थापयतोऽप्रत्ययम, हरतोऽप्रमादप्राणान, कारयतोऽनुपादेयमिति । यदपि च 'शरीरस्थितिहेतुभावेनाहारसधर्माण: कामाः परिहर्तव्याश्चात्र दोषः' इति मोहदोषेण भणन्ति मन्दबद्धयः, तदपि न खलु बुधजनमनोहरम । यतो विनाप्येतैतितत्त्वानां पश्यतां यथाभावमेव वोन्दिविरक्तानां, तया शुद्धध्यानानामृषीणां दृश्य ते शरीरस्थितिः, सेवमानानामपि च तान् तज्जनितपापमोहेनात्यन्तसेवनपराणा क्षयादिरोगभावतो विनाश इति । ततः कथं ते शरीरस्थितिहेतवः, कथं वाऽऽहारसधर्माण इति । न चैतत्संगता दोषा अपरित्यक्तरेतैरधर्म और अर्थ का अन्य फल नहीं है और धर्म और अर्थ के निष्फल होने पर पुरुषार्थ नहीं रहता है, मोक्षफल का साधक होने से धर्म और अर्थ सफल हैं, ऐसा भी नहीं है। क्योंकि मोक्ष अलोकिक है। और समाधि-भावना तथा ध्यान की चरमसीमा का यह फल है-यह भी ठीक नहीं है; क्योंकि खुजली के हो जाने पर खुजलाने के समान काम अन्त में नीरस होते हैं, भावनान्धकार को करनेवाले तथा अशुभ कर्म के फलभूत हैं अतः धर्म और अर्थ का फल काम कैसे हो सकते हैं ? उस प्रकार के धर्म और अर्थ में पुरुषार्थ कैसे हो सकता है जो काम को उत्पन्न करते हैं, शान्ति का नाश करते हैं, शत्रुओं का मेल कराते हैं, अच्छे कार्यों को दूर करते हैं, भावी फल की प्राप्ति होने का सम्पादन करते हैं, शोक की पूर्ति करते हैं, लघुता को धारण करते हैं, अविश्वास की स्थापना करते हैं, अप्रमादी प्राणों का हरण करते हैं, और ग्रहण न करने योग्य को कराते हैं (ऐसे उस तरह के धर्म और अर्थ में पुरुषार्थता कैसे सम्भव है ?)। शरीर की स्थिति के कारण आहार के तुल्य काम का परिहार करने में दोष होता है-ऐसा मोह के दोष से जो मन्दबुद्धि वाले लोग कहते हैं वह (कथन भी विद्वानों के लिए मनोहर नहीं है; क्योंकि इनके बिना भी तत्त्वों को जाननेवाले, सही रूप से देखनेवाले, शरीर से विरक्त रहनेवाले तथा शुद्ध ध्यान करनेवाले ऋषियों के शरीर की स्थिति दिखाई देती है और उनका सेवन करने पर भी उससे उत्पन्न पाप के कारण मोह से अत्यन्त सेवन करने में रत रहनेवालों का, क्षय आदि रोग के होने से, विनाश होता है । Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०२ [ समराइच्चकहा न खल मोत्तण मोहं कामाणमणुवसमाईण य अन्नं निमित्तं ति चितेह चित्तेण । एवंवट्टिए समाणे 'न हि हरिणा विज्जति त्ति जवा न पइरिज्जति' एवमादि पहसणप्पायं कामसत्थवयणं । तम्हा न कामफलाण धम्मत्थाण पुरिसत्थया, अवि य मोक्खफलाणमेव । न य अलोइओ मोक्खो; जओ विसिट्टमुणिलोयलोइओ, रहिओ जम्माइपहि, वज्जिओ आवाहाए, समत्ती सव्यकज्जाणं, पर रिसो सुहस्स । समाहिभावणाझाणादमओ वि न हि न धम्मसरूवा, अवि य ते चेव भावधम्मो । इयरो वि निरीहस्स तप्फलो चेव हवइ, अन्नहा 'गरहियाणि इट्टापूयाणि' त्ति भावियव्वं सत्थवयणं । न य कामा अणिदिया, पयट्टति पयईए पसिद्धा तिरियाणं पि मंगला सरूवेणं । ता किमेएसि सत्थेग। जं पि भणियं 'बालासंपओओ पराहीणो त्ति उवायं अवेक्खइ,उवायपडिवत्तीय कामसत्थाओ,तिरियाणं तु अणावरिया इत्थिजाई रिउकाले य नियमिया पवित्ती अबुद्धिपुवा या त्ति, एयं पि मोहपिसुणयं; जओ उवाएया चेव न हवति कामा असुंदरा पयईए विडंबणा जणाण विसोवमा परिभोए वच्छला कुचेहि यस्स त्ति दंसियं मए । अओ अदत्तादाणगहणविसयसत्थकप्पं खु एवं ति। करेंतसुणेतयाणमन्नाणपयासणपरं कामसत्यं । भिन्ननिबन्धनत्वेन शक्यन्ते परिहर्तुम् । न खलु मुक्त्वा मोहं कामानामनुपशमादीनां चान्यन्निमित्तमिति चिन्तयत चित्तेन । एवमवस्थिते सति 'नहि हरिणा विद्यन्ते इति यवा न प्रतिरियन्ते' एवमादि प्रहसनप्रायं कामशास्त्रवचनम् । तस्मान्न कामफलयोर्धर्थियोः पुरुषार्थता, अपि च मोक्षफलयोरेव । न चालौकिको मोक्षः, यतो विशिष्टमुनिलोकलोकितो रहितो जन्मादिभिः, वजित आबाधया, समाप्तिः सर्वकार्याणाम्, प्रकर्षः सुखस्य । समाधिभावनाध्यानादयोऽपि न हि न धर्मस्वरूपाः, अपि च त एव भावधर्मः । इतरोऽपि निरीहस्य तत्फल एव भवति, अन्यथा 'गहिते इष्टापूर्ते' इति भावयितव्यं शास्त्रवचनम् । न च कामा अनिन्दिताः, प्रवर्तन्ते प्रकृत्या प्रसिद्धाः तिरश्चामपि मङ्गलाः (अशभाः) स्वरूपेण । ततः किमेतेषां शास्त्रेण । यदपि भणितं 'बालासम्प्रयोगः पराधीन इत्युपायमपेक्षते उपायप्रतिपत्तिश्च कामशास्त्राद्, तिरश्चां तु अनावृता स्त्रीजाति ऋतुकाले च नियमिता प्रवृत्तिरबुद्धिपूर्वा च' इति, एतदपि मोहपिशुनकम, यत उपादेया एव न भवन्ति कामा असुन्दरा: प्रकृत्या विडम्बना जनानां विषोपमाः परिभोगे वत्सलाः कचेष्टितस्येति दर्शितं मया । अतोऽदत्ताद'नग्रहणविषयशास्त्रकल्पं खल्वेतदिति । कुर्वच्छृण्वतामज्ञानप्रकाशनपरं कामशास्त्रम् । भणितं च अतः काम देह की स्थिति के कारण कैसे हो सकते हैं और कैसे वे (काम) आहार के समान धर्मवाले हो सकते हैं ? कामी व्यक्तियों द्वारा कामसंगत दोष अभेद सम्बन्ध होने से नहीं छोड़े जा सकते हैं । मोह को छोड़कर काम के शान्त न होने का अन्य कोई कारण नहीं है-ऐसा चित्त से विचार करो। ऐसा निश्चय हो जाने पर 'हरिणों के होने की वजह से जो न बोये जायें' ऐसा नहीं होता है। इस प्रकार के कामशास्त्र के वचन उपहास प्राय हैं। अत: धर्म और अर्थ की पुरुषार्थता कामरूप फल में नहीं; अपितु मोक्षफल में ही है। मोक्ष अलौकिक नहीं है। क्योंकि विशिष्ट मुनिजन ने उसका दर्शन किया है, जन्मादि से रहित है, आबाधा से रहित है, समस्त कार्यों की समाप्ति है और सुख की चरमसीमा है । समाधि, भावना और ध्यान आदि धर्म के स्वरूप न हों-ऐसा नहीं है; अपितु वे ही भावधर्म हैं । फिर यह बात भी है कि इच्छारहित के वही फल होता है, अन्यथा इष्ट के अपूरक और निन्दित हैं'- इस प्रकार की भावना करना चाहिए। काम अनिन्दित हों ऐसा नहीं है। प्रकृति से प्रसिद्ध ये काम तियंचों के भी स्वरूप स अशुभरूप प्रवृत्ति करते हैं। अतः इन तियंचों के लिए शास्त्र से क्या । यह जो कहा गया है कि 'मूर्यों का प्रयोग पराधीन है, अत: उपाय की अपेक्षा है और उपाय का ज्ञान कामशास्त्र से होता है, तिथंचों के तो स्त्रीजाति नग्न है और ऋतुकाल में नियमित रूप से अबुद्धिपूर्वक प्रवृत्ति होती है'-यह कहना भी मोह का सूचक है, क्योंकि काम ग्रहण करने योग्य नहीं ठहरते हैं, काम स्वभावतः असुन्दर हैं, भोग Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो भवो] ८०३ भणियं च सुद्धचित्तेहि तं नाम होइ सत्थं जं हियमत्थं जणस्स दंसेइ । जं पुण अहियं ति सया तं नणु कत्तोच्चयं सत्यं ॥ ६६२ ॥ अहिया तओ पवित्ती होइ अकज्जम्मि मंदबुद्धीणं । असुहोवएसरूवं जत्तेण तयं पयहियव्वं ॥ ६६३ ॥ इहरा पज्जलइ च्चिय वम्महजलणो जणस्स हिययम्मि । किं पुण अणत्थपंडियकुकव्वहविहोमिओ संतो ॥ ६६४ ॥ ता ज कामुद्दोरणसमत्थमेत्थं न तं बहजणेण । सुमिणे वि जंपियव्वं पसंसियव्वं च दुव्वयणं ॥ ६६५॥ पसमाइभावजणयं हियमेगतेण सव्वसत्ताण । निउणेण जंपियव्वं पसंसियव्वं च सुविसुद्धं ॥ ६६६॥ एवं च ठिए समाणे अलं दुव्वयणसंगयाए कामसचिताए त्ति। शद्धचित्तः तन्नाम भवति शास्त्रं यद् हितमर्थं जनस्य दर्शयति । यत् पुनरहितमिति सदा तन्ननु कुतस्त्यं शास्त्रम् ।।६६२॥ अहिता ततः प्रवृत्तिर्भवत्य कार्ये मन्दबुद्धीनाम् । अशुभोपदेशरूपं यत्नेन तत् प्रहातव्यम् ।।९६३॥ इतरथा प्रज्वलत्येव मन्मथज्वलनो जनस्य हृदये। किं पुनरनर्थपण्डितकुकाव्यहविर्तुत: सन् ॥६६४॥ ततो यत् कामोदीरणसमर्थमत्र न तद् बुधजनेन । स्वप्नेऽपि जल्पितव्यं प्रशंसितव्यं च दुर्वचनम् ।। ६६५॥ प्रशमादिभावजनक हितमेकान्तेन सर्वसत्त्वानाम् । निपूणेन जल्पितव्यं प्रशंसितव्यं च सुविशुद्धम् ॥६६६॥ एवं च स्थिते सत्यलं दुर्वचनसङ्गतया कामशास्त्रचिन्तयेति । में विष के समान होने के कारण मनुष्यों का उपहास करते हैं, कुचेष्टा करनेवालों के प्रिय हैं- ऐसा मैंने दर्शाया ही है । अत: यह बिना दिये ग्रहण करने रूप विषयवाले शास्त्र (चोर्यशास्त्र) के समान हैं। कामशास्त्र की रचना करना, सुनना अज्ञान-प्रकाशनपरक है । शुद्धचित्तवालों ने कहा है - ___ शास्त्र वह होता है जो लोगों को हितकारी प्रयोजन दिखलाता हो। जो अहित प्रयोजन को दिखलाये वह निश्चय से शास्त्र कैसे हो सकता है ? अहितकारी प्रयोजन दिखलाने से मन्दबुद्धिवालों की प्रवृत्ति अकार्य में होती है अत: उस अशुभोपदेशरूप अहितकारी प्रयोजन का यत्न से नाश करना चाहिए। दूसरे प्रकार से, लोगों के हृदय में कामाग्नि प्रज्वलित होती ही है । कुकाव्यरूपी हवि का होम कर अनर्थकारी पण्डित होने से क्या लाभ ? अत: जो कुवचन काम को उत्पन्न करने में समर्थ हो उसे विद्वानों को स्वप्न में भी नहीं बोलना चाहिए और न ही उसकी प्रशंसा करनी चाहिए। प्रशम आदि भावों का जनक एकान्त रूप से सभी प्राणियों का हितकारी तथा सुविशुद्ध वचन ही निपुण व्यक्ति को कहना चाहिए और उसीकी प्रशंसा करनी चाहिए ।।६६२-६६६।। ऐसा स्थित होने पर दुर्वचन से युक्त कामशास्त्र का चिन्तन करना व्यर्थ है।' Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०४ [ समराइच्चकहा ___ एयं सोऊण विम्हिया असोयादी। चितियं च हिं-अहो विवेगो कुमारस्स, अहो भावणा, अहो भवविराओ, अहो कयन्नुया । सव्वहा न ईइसो मुणिजणस्स वि परिणामो होइ, किं तु फडं पि जपमाणो दूमेइ एस अम्हे ति । चितिफण जंपियं असोएण-कुमार, एवमेयं, कि तु सव्वमेव लोयमग्गाईयं जंपियं कुमारेण । ता अलमिमीए अइपरमचिताए। न अणासेविए लोयमग्गे इमीए वि अहिगारो त्ति । ता लोयमग्गं पडुच्च किपरं पुण कामसत्थं ति साहेउ कुमारो। कामंकुरेण भणियंसोहणं भणियं असोएण। ललियगएण भणियं-न असोओ असोहणं भणिउं जाणइ। कुमारेण भणियं-भद्द, अपरमथपिच्छो पाएण लोओ भिन्नई य। ता न तंमग्गेण इमस्स अहं किपि परयं अवेमि । सव्वहा कंदप्पियाण बालाणमविणोयविणोयपायं एयं, जओ कामसुहाई पि कम्मपरिणामनिबंधणाई जीवाणं, वउणे य तम्मि न परमत्थेण इमिणा पओयणं ति। उत्तरपयाणासामत्थेण 'एवमेयं' ति अब्भवगयं असोआईहिं।। अइक्कंता कइइ दियहा । आलोचियमणेहिं । तवस्सिप्पाओ कुमारो, कहं अम्हारिसेहिं विसएसु एतत् श्रुत्व . विस्मिता अशोकादयः । चिन्तितं च तैः-अहो विवेकः कुमारस्य, अहो भावनाः अहो भवविराग', अहो कृतज्ञता । सर्वथा नेदशो मुनिजनस्यापि परिणामो भवति, किन्तु स्पष्टमपि जल्पन दुनोत्येषोऽस्मानिति । चिन्तयित्वा जल्पितमशोकेन-कुमार ! एवमेतद्, किन्तु सर्वमेव लोकमार्गातीतं जलियतं कुमारेण। ततोऽलमनयाऽतिपरमार्थचिन्तया। नानासे विते लोकमार्गे अस्या अप्यधिकार इति । ततो लोकमार्ग प्रतीत्य किपरं पुनः कामशास्त्रमिति कथय । कुमारः । कामाङ - करेण भणितम .. शोभनं भणितमशोकेन । ललिताङ्कन भणितम -नाशोकोऽशोभनं भणितं जानाति । कुमारेण भणितम् भद्र ! अपरमार्थप्रेक्षः प्रायेण लोको भिन्नरुचिश् । ततो न तन्मार्गेग स्याह किमपि परतां (तात्पर्यम्) अवैमि । सर्वथा कान्दर्पिकानां बालानामविनोदविनोदप्रायमेतद्, यतः काम सुखान्यपि कर्मपरिणामनिबन्धनानि जीवानाम्, विगुणे च तस्मिन् न परमार्थेनानेन प्रयोजनमिति । उत्तरप्रदानासामर्थ्येन ‘एवमेतद्' इत्यभ्युपगतमशोकादिभिः । अतिक्रान्ताः कतिविद् दिवसाः। आलोचितमेभिः । तपस्विप्रायः कुमारः, कथमस्मादृश यह सुनकर अशोक आदि विस्मित हुए और उन्होंने सोचा-कुमार का विवेक, भावना, संसार के प्रति विराग (और) कृतज्ञता आश्चर्ययुक्त है। इस प्रकार का परिणाम सर्वथा मुनिजनों का भी नहीं होता है; किन्तु स्पष्ट कहते हुए भी यह हमारे लिए दु:खी करता है, ऐसा सोचकर अशोक ने कहा --- 'कुमार ! यह सही है; किन्तु कुमार ने सभी संसारमार्ग से अतीत कहा है अत: इस परमार्थ के अतिचिन्तन से बस । अनेक प्रकार से सेवित लोकमार्ग में इसका भी अधिकार है। अतः लोकमार्ग की अपेक्षा कामशास्त्र क्या है, इस विषय में कुमार कहें। कामांकुर ने कहा-'अशोक ने ठीक कहा।' ललितांग ने कहा- 'अशोक ऐसा कथन तो जानता ही नहीं है जो ठीक न हो।' कुमार ने कहा - 'भद्र ! सामान्यतः लोक परमार्थ को न देखनेवाला और भिन्न रुचिवाला होता है । अत: उस मार्ग से मैं इसका कुछ भी तात्पर्य नहीं जानता हूँ। कामियों का यह विनोद सर्वथा बच्चों के विनोद के समान है। क्योंकि काम से सुखी भी जीव कर्म के परिणाम से बँधे हुए हैं। काम में कोई गुण न होने से परमार्य से इसका कोई प्रयोजन नहीं है । उत्तर प्रदान करने की सामर्थ्य न होने से 'यह ठीक है' - इस प्रकार अशोक आदि ने स्वीकार कर लिया। कुछ दिन बीत गये। इन लोगों ने विचार-विमर्श किया। कुमार तपस्वी जैसे हैं, हम जैसे लोग विषयों Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो भयो] ८०५ पयट्टाविउ तीरह। तहावि अस्थि एक्को उवाओ। उवरोहसीलो खु एसो, पडिवन्ना य अम्हे इमेण मित्ता। ता अब्भत्थेम्ह एवं कलत्तसंगहमंतरेण, कयाइ संपाडेइ अम्हाणं समीहियं ति । ठाविऊण सिद्धतं समागए अवसरे भणियं असोएण-भो कुमार, पुच्छामि अहं भवंतं, किमेत्थ जीवलोए सुपुरिसेण मित्तवच्छलेण हो यव्वं किं वा नहि । कुमारेण भणियं-~भो साहु पुच्छ्यि , साहेमि भवओ। एत्थ खलु तिविहो मित्तो हवइ । तं जहा । अहमो मज्झिमो उत्तिमो ति। जो खल संजोइओ अप्पणा विस्समाणो अत्ताहियं अणुयत्तिज्जमाणो पयईए सेविज्जमाणो पइदिणं लालिज्जमाणो जत्तण विलोट्टए विहरम्मि, नावेक्खइ सुकयाई, न रक्खइ वयणिज्ज, परिच्चयइ खणण; एस एयारिसो अणसमयसेवियपरिच्चाई नाम जहन्नमित्तो। जो उण जहाकहंचि संगओ दिस्समाणो अत्तबुद्धीए अणयत्तिज्जमाणो अजत्तेण सेविज्जमाणो विभाए लालिज्जमाणो ऊसवाइएस तक्खणं न विसंवयइ, विहरे अवेक्खाइ ईसि सुकयाई, रक्खइ मणागं वयणिज्जं, परिच्चयइ विलावपुस्वयं विलंबेण; एस एयारिसो छणसेवियपरिच्चाई नाम मज्झिममित्तो। जो उण अजत्तेण दिट्ठाभट्ठी बहु मन्नए सुकयं, विषयेष प्रवर्तयितं शक्यते । तथाऽप्यस्त्येक उपायः । उपरोधशीलः खल्वेषः, प्रतिपन्नानि च वयमनेन मित्राणि । ततोऽभ्यर्थयामहे एतं कल त्रसंग्रहमन्तरेण, कदाचि सम्पादयत्यस्माकं समीहितमिति । स्थापयित्वा सिद्धान्तं समागतेऽवसरे भणितमशोकेन-भोः कुमार ! पृच्छाम्यहं भवन्तम्, किमत्र जीवलोके सुपुरुषेण मित्रवत्सलेन भवितव्यं किं वा नहि। कुमारेण भणितम्-भोः साधु पृष्टम्, कथयामि भवतः। अत्र खलु त्रिविधं मित्रं भवति तद्यथा, अधमं मध्ममं उत्तममिति । यः खलु संयोजित आत्मना दृश्यमान आत्माधिकम नुवृत्यमानःप्रकृत्या सेव्यमानः प्रतिदिवसं लाल्यमानो यत्नेन विलुटयति (परावर्तते) विधुरे, नापेक्षते सुकृतानि, न रक्षति वचनीयम्, परित्यजति क्षणेन, एष एतादशोऽनुसमयसेवितपरित्यागी नाम जघन्यमित्रम् । यः पुनर्यथाकथंचित् संगतो दृश्यमान आत्मबुद्धयाऽनुवत्यमानोऽयत्नेन सेव्यमानो विभागे लाल्यमान उत्सवादिषु तत्क्षणं न विसंवदति, विधुरे अपेक्षते इंषत सुकृतानि, रक्षति मनाग वचनीयम्, परित्यजति विलापपूर्वकं विलम्वेन; एष एतादृशः क्षणसेवितपरित्यागी नाम मध्यममित्रम् । यः पुनरयत्नेन दृष्टापृष्टो बहु मन्यते सुकृतम्, उपागच्छति, में कैसे प्रवृत्त करा सकते हैं ? तथापि एक उपाय है। यह अनुग्रह करने के स्वभाववाले हैं और उन्होंने हम लोगों को मित्र बनाया है। अत: विवाह करने के लिए इनसे प्रार्थना करते हैं, कदाचित् हमारे इच्छित कार्य को पूर्ण कर दें। इस प्रकार सिद्धान्त स्थापित कर अवसर आने पर अशोक ने कहा- 'हे कुमार ! मैं आपसे पूछता हूँ, इस संसार में अच्छे आदमी के लिए मित्र प्रेमी होना चाहिए अथवा नहीं ?' कुमार ने कहा-'हे मित्र ! ठीक पूछा, आपसे कहता हूँ। इस संसार में तीन प्रकार के मित्र होते हैं। वे इस प्रकार हैं---अधम, मध्यम, उत्तम । जो निश्चित रूप से अपने से मिला हुआ होता है, अपने से अधिक दिखाई देता है, स्वभाव से अनुसरण करनेवाला होता है, प्रतिदिन सेवा किया जाता है, यत्न से लालन किया जाता है, दुःख के समय में पलट जाता है, सुकृतों की अपेक्षा नहीं करता है, निन्दा से नहीं बचता है और क्षण भर में त्याग देता है-यह इस प्रकार से प्रति समय सेवित हो कर परित्याग करनेवाला जघन्य मित्र है। जो जिस किसी प्रकार सम्बधिन्त दिखाई देता है, अपनी बुद्धि से अनुसरण करता है, अयत्नपूर्वक सेवा किया जाता है, अलगाव होने पर लालित किया जाता है, उत्सवादि में उसी क्षण विसंवाद नहीं करता है, दुःख के समय में कुछ अच्छा कार्य करने की अपेक्षा करता है, कुछ निन्दा से बचाता है तथा विलापपूर्वक विलम्ब से छोड़ता है-यह इस प्रकार क्षणसेवितपरित्यागी नाम का मध्यममित्र है। जो Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०६ [समराइच्चकहा उवागच्छए मेत्ति पयट्टए उवयारे, मोयावए दुहाओ, जणेइ गोरव, वड्ढेइ माणं, करेइ संपयं, विहेइ सोक्खं, न परिच्चयइ आवयाए; एस एयारिसो जोक्कारमेतेण सेवियापरिच्चाई नाम उत्तिममित्तो ति। एवंघट्टिए समाणे सुपुरिसेणालोचिऊण नियमईए सव्वहा उत्तिममित्तवच्छलेण होयत्वं ति। कामंकुरेण भणियं-भो को उण इहाहिप्पाओ। पसिद्धमेवेयं, जं जहन्नमज्झिमे चइऊण उत्तिमो सेविज्जइ । कुमारेण भणियं- नणु एवमेव एत्थाहिप्पाओ, जं जहन्नमज्झिमे चइऊण उत्तिमो सेविज्जइ त्ति । ललियंगएण भणियं-भो न एयमुज्जुयं, गंभीरं खु एयं न विसेसओ अविवरियं जाणीयइ । ता विवरेहि संपयं, के उण इमे तिणि मित्ता। कुमारेण भणियं - भो जइ नावगयं तुम्हाणं, ता सुणह संपयं । एत्थ खलु परमत्थमित्ते पडुच्च पसिणो उत्तरं च जुज्जइ त्ति जंपियं मए। पसिद्धं तु लोइयं, को वा सचेयणो तयत्थं न याणइ । ता इमे मित्ता देहसयणधम्मा। तत्थ जहन्नमित्तो देहो, मज्झिमो सयणो, उत्तमो धम्मो त्ति । जेण देहो तहा तहोवचरिज्जमाणो वि अणसमयमेव दंसेइ वियारे, अहियपक्खसंगयं अणुयत्तइ जरं, चरिमावयाए य उज्झइ निरालंबं ति; एस जहन्नमित्तो। मैत्रीम, प्रवर्तते उपकारे, मोचयति दुःखात्, जनयति गौरवम्, वर्धयति मानम, करोति सम्पदम, विदधाति सौख्यम्, न परित्यजत्यापदि, एष एतादृशो जयकारमात्रेण सेवितापरित्यागी नामोत्तममित्रमिति । एवमवस्थिते सति सुपुरुषणालोच्य निजमत्या सर्वथोत्तमित्रवत्सलेन भवितव्यमिति । कामाङ करेण भणितम्-भो कः पुनरिहाभिप्रायः। प्रसिद्धमेवैतत्, यद् जघन्यमध्यमौ त्यक्त्वोत्तमः सेव्यो । कमारेण भणितम्-नन्वेवमेवात्राभिप्रायः, यद् जघन्यमध्यमौ त्यक्त्वोत्तमः सेव्यते इति । ललिताङ्गेन भणितम् –भो ! नैतद् ऋजुकम्, गम्भीरं खल्वेतद्, न विशेषतोऽविवृतं ज्ञायते । ततो विवृण साम्प्रतम्, कानि पुनरिमानि नीणि मित्राणि। कुमारेण भणितम्-भो ! यदि नावगतं युष्माकम्, ततः शृणुत साम्प्रतम् । अत्र खलु परमार्थमित्राणि प्रतीत्य प्रश्न उत्तरं च यज्यते इति जल्पितं मया । प्रसिद्धं तु लौकिकम्, को वा सचेतनस्तदर्थं न जानाति । तत इमानि मित्राणि देहस्वजनधर्माः । तत्र जघन्यमित्रं देहः, मध्यमं स्वजनः, उत्तमं (मित्र) धर्म इति । येन देहस्तथा तथोपचर्यमाणोऽपि अनुसमयमेव दर्शयति विकारान्, अधिकपक्षसङ्गतमनुवर्तते जराम्, चरमापदि प्रयत्न के ही दिखाई देता है, बिना पूछे ही अच्छे कार्यों का आदर करता है, मैत्री के समीप आता है, उपकार में प्रवृत्ति लगाता है, दुःख से छुड़ाता है, गौरव को उत्पन्न करता है, मान को बढ़ाता है, सम्पदा को करता है, सुख को प्रदान करता और आपत्ति में त्यागता नहीं है - यह इस प्रकार का जयकार मात्र से सेवित त्याग न करनेवाला उत्तम मित्र है । ऐसा स्थित होने पर सुपुरुष को अपनी बुद्धि से विचार कर सर्वथा उत्तममित्र से प्रेम करनेवाला होना चाहिए । कामांकुर ने कहा -'हे मित्र ! यहाँ क्या अभिप्राय है, यह प्रसिद्ध ही है कि जघन्य और मध्यम को छोडकर उत्तम का सेवन किया जाता है।' कुमार ने कहा निश्चित रूप से यही यहाँ अभिप्राय है कि जघन्य और मध्यम को छोड़ कर उत्तम का सेवन किया जाता है।' ललितांग ने कहा-'अरे यह सरल नहीं है, यह गम्भीर है, विशेष रूप से ढंका हुआ नहीं जाना जाता है। अतः इस समय वर्णन करें, स्पष्ट करें, ये कोन तीन मित्र हैं ?' कुमार ने कहा-'हे मित्रो ! यदि तुम लोगों ने नहीं जाना तो अब सुनो । यहाँ परमार्थ मित्र की अपेक्षा प्रश्त करना और उत्तर देना ठीक है, ऐसा मैंने कहा था। लौकिक तो प्रसिद्ध है। कौन सचेतन व्यक्ति उस अर्थ को नहीं जानता है ? तो ये मित्र देह, स्वजन और धर्म हैं । उनमें जघन्यमित्र देह है, मध्यममित्र स्वजन है, उत्तममित्र धर्म ह; क्योंकि देह इस प्रकार सेवा किये जाने पर भी प्रति समय विकारों को दर्शाता है, अधिक पक्षों से युक्त होने पर बुढ़ापे का अनुसरण करता है, चरम आपत्ति में बिना सहारे के छोड़ जाता है, (अतः) यह जघन्यमित्र है। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो भवो ८०७ सयणो उण ममत्ताणुरूवं करेइ पडिममतं, किलिस्सइ गिलाणाइकज्जे, परिच्चयइ गयजीयसारं, सुमरइ य पत्यावेसु, एस मज्झिममित्तो त्ति। धम्मो उण संगओ जहाकहंचि वच्छली एगतेण भविसाई भएसु निव्वाहए मित्तयं ति; एस उत्तमो। एवं च नाऊण अधुवे विसयसोक्ख असारे पयईए मोहणे परमत्थस्स दारुणे विवाए अवहीरिए धीरेहिं, पाविए माणुसत्ते उत्तमे भवाण दुल्लहे भवाडवीए सुखेते गुणधणाण साहए निव्वाणस्स उज्झिऊण मोहं चितिऊणायई अचिचिंतामणिसन्निहे वोयरायप्पणीए उवादेए नियमेण होइ वच्छला सप्पुरिससेविए उत्तममित्त घम्मे त्ति । एयं सुणमाणाण तहामन्वयाए असोयाईण विचित्तया । कम्मपरिणामस्स कुमारसन्निहाणसामत्थेण विसुद्धयाए जोयाण उक्कडयाए वीरियस्स वियंभिओ कुसलपरिणामो, वियलिओ किलिट्टकम्मरासी, अवगया मोहवासणा, तुट्टा असुहाणुबंधा, जाओ कम्मगठिभेओ, खओवसममुवयं मिच्छत्तं, आविहजो सम्मत्तपरिणामो । तओ समुप्पन्नसंवेगेण जंपियं असोएण- कुमार, एवमेयं, न एत्थ संदेहो, सोहणं समाइलैं कुमारेणं । कामकुरेण भणियं- सोहणाओ वि सोहणं । अहवा इयमेव एक्कं सोहणं, नत्थि अन्नं चोज्झति निरालम्बमिति, एतद् जघन्यमित्रम् । स्वजन: पुनर्ममत्वानुरूपं करोति प्रतिममत्वम, क्लिर ति ग्लानादिकायें, परित्यजति गतजीवितसारम्, स्मरति च प्रस्तावेष, एतद् मध्यममित्रमिति । धर्मः पुनः सङ्गतो ययाकथंचिद् वत्सल एकान्तेनाविषादी भयेषु निर्वाहयति मित्रतामिति, एतद् उत्तमम् । एवं च ज्ञात्वाऽध्रुवाणि विषयसौख्यान्यसाराणि प्रकृत्या मोहनानि परमार्थस्य दारुणानि विपाकेवधीरितानि धीरैः, प्राप्ते मानुषत्वे उत्तमे भवानां दुर्लभे भवाटव्यां सुक्षेत्रे गुणधान्यानां साधके निर्वाणस्य उज्झित्वा मोहं चिन्तयित्वाऽऽयतिमचिन्त्यचिन्तामणिसन्निभे वीतरागप्रणीते उपादेये नियमेन भवत वत्सलाः सत्पुरुपसेविते उत्तममित्रे धर्म इति । एतच्छण्वतां तथाभव्यतयाऽशोकादीनां विचित्रतया कर्मपरिणामस्य कुमारसन्निधानसामर्थ्येन विशुद्धतया योगानामुत्कटतया वीर्यस्य विज़म्भितः कुशलपरिणामः, विचलित: क्लिष्टक र्मराशिः, अपगता मोहवासना त्रुटिता अशुभानुबन्धाः, जातः कर्मग्रन्थिभेदः, क्षयोपशममुपगतं मिथ्यात्वम्, आविर्भूतः सम्यक्त्वपरिणामः । ततः समुत्पन्नसंवेगेन जल्पितमशोकेन-कुमार ! एतमेतद्, नात्र सन्देहः, शोभनं समादिष्टं कुमारेण । कामाङ कुरेण भणितम् -- शोभनादपि शोभनम् । अथवेदमेवैकं शोभन म स्वजन ममत्व के अनुरूप प्रतिममत्व को करता है, बीमारी आदि के कार्य में दु:खी होता है, प्राणों के चले जाने पर छोड़ देता है, प्रस्तावों (प्रसगों) में स्मरण करता है (अत:) यह मध्यममित्र है। जिस किसी प्रकार मिला हुआ धर्म एकान्त रूप से प्रेमी, भयों में विषाद न करनेवाला परममित्रता का निर्वाह करता है (अतः) यह उत्तममित्र है। इस प्रकार स्वभावतः विषयसुखों को अनित्य, असार, मोहित करनेवाले. परिणाम में दारण, और धीरों के द्वारा तिरस्कृत जानकर उत्तम भवों में संसाररूपी वन में दुलभ, गुणरूप धान्यों के लि! सुक्षेत्र, निर्वाण के साधक मनुष्यभव के प्राप्त होने पर मोह को छोड़कर, भावी फल का विचार कर, अचिन्तनीय चिन्तामणि के समान, वीतराग के द्वारा प्रणीत, नियमपूर्वक उपादेय, और सत्पुरुषो से सेवित उत्तममित्ररूप धर्म में आप लोगों को प्रेमयुक्त होना चाहिए।' यह सुनकर अशोक आदि की वैसी भव्यता, कर्मों के परिणाम की विमित्रता, कुमार के समीप होने की सामर्थ्य, योगों की विशुद्धता और शक्ति की उत्कटता से शुभ परिणाम बढ़ा, द:ख देनेवाले कर्मों की राशि विचलित हुई, मोह का सस्कार नष्ट हुआ, अशुभ से सम्बन्ध छूटे । कर्म की गाँठ खुल गयी, मिथ्यात्व का क्षयोपशम हुआ और सम्यक्त्व का परिणाम प्रकट हुआ। अनन्तर जिसे वैराग्य उत्पन्न हुआ है ऐसे अशोक ने कहा- 'कुमार, यह सही है, इसमें सन्देह नहीं है, कुमार ने ठीक ही कहा।' कामांकुर बोला- 'शोभन से भी अधिक शोभन है, अथवा एक Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०८ [समराइच्चकहा सोहणं ति। ललियंगएण भणियं-कि बहुगा, अन्नाणनिद्दापसुत्ता पडिबोहिया अम्हे कुमारेण, दंसियाई हेओवादेयाई । ता पयट्टम्ह सहिए, संपाडेमो कुमारसासणं । असोएण भणियं-कुमार, साहु जंपियं ललियंगएण; ता समाइसउ कुमारो, जमम्हेहि कायव्वं ति । कुमारेण भणियं-भो संखेवओ ताव एयं । उझियव्यो विसयराओ, चितियव्वं भवसरूवं, वज्जियत्वा कुसंसग्गी, सेवियव्वा साहुणो; तओ जहासतीए दाणसीलतवभावणापहाणेहि होयव्वं ति। असोयाईहिं भणियं-साहु कुमार साहु, पडियन्नमिणमम्हेहिं । कुमारेण भणियं --भो धन्ना खु तुम्भे; पावियं तुम्हेहिं फलं मणुयजम्मस्स । तेहि भणियं - कुमार साहु, एवमेयं; धन्ना खु अम्हे, न खलु अहन्नाण कुमारदसणं संपज्जइ । एवं चाहिणंदिऊण कुमारं संपूइया विसेसेण कुमारेण उचियाए वेलाए गया सहाणाइ असोयाई। पारद्धं जहोचियमणुट्ठाणमेएहिं । अइक्कता कइइ दियहा। एत्थंतरम्मि समागओ महुसमओ, वियंभिया वसिरी, मंजरिओ चूयनियरो, कुसुमिया तिलयाई, उल्लसिया अइमुत्तया, पवत्तो मलयाणिलो, मुइयं भमरजालं, पसरिओ परहुयारवो; हिं नास्त्यन्यत् शोभनमिति । ललिताङ्गेन भणितम् -- किं बहुना, अज्ञाननिद्राप्रसुताः प्रतिबोधिता वयं कमारेण दर्शितानि हेयोपादेयानि । ततः प्रवर्तामहे स्वहिते, सम्पादयामः कुमारशासनम् । अशोकेन भणितम्- कुमार ! साधु जल्पितं ललिताङ्गन, ततः समादिशतु कुमारो यस्माभि: कर्तव्यमिति । कुमारेण भणितम् - भोः संक्षेपतस्तावदेतद् । उज्झितव्यो विषयरागः, चिन्तियितव्यं भवस्वरूपम्, वर्जयितव्यः कुसंसर्गः, सेवितव्याः साधवः, ततो यथाशक्ति दानशीलतपोभावनाप्रधानैर्भवितव्र - मिति । अशोकादिभिर्भणितम्- साधु कुमार ! साधु, प्रतिपन्नमिदमस्माभिः। कुमारेण भणितम्भो धन्या खलु यूयम्, प्राप्तं युष्माभिः फलं मनुज जन्मनः । तैर्भणितम् कुमार ! साधु, एवमेतद्, धन्याः खलु वयम्, न खल्वधन्यानां कुमारदर्शनं सम्पद्यते । एवं चाभिनन्द्य कुगारं सम्पूजिता विशेषेणोचितायां वेलायां गताः स्वस्थानान्यशोकादयः, । प्रारब्धं यथोचितमनुष्ठानमेतैः । अतिक्रान्ताः कतिचिद् दिवसाः। ___अत्रान्तरे समागतः मधुसमयः, विजृम्भिता वनश्रीः, मञ्जरितश्चत निकरः, कुसुमिताः तिलकादयः, उल्लसिता अतिमुक्ताः प्रवृत्तो मलयानिलः, मुदित भ्रमरजालम्, प्रसृतः परभृतारवः, यही सही है. अन्य नहीं है।' ललितांग ने कहा---'अधिक क्या कहें, अज्ञान की नींद में सोये हुए हम लोगों को कूमार ने जगाया। छोड़ने योग्य और ब्रहण करनेयोग्य पदार्थ दिखलाये। अतः अपने हित में प्रवत्त होते हैं, कुमार की आज्ञा का पालन करते हैं।' अशोक ने कहा-'कुमार ! ललितांग ने ठीक कहा, अत: जो हमारा कर्तव्य हो, उसकी कुमार आज्ञा दें।' कुमार ने कहा - 'सक्षेप यह है--विषयों के प्रति राग छोड़ना चाहिए, संसार के स्वरूप का विचार करना चाहिए, बुरे संसर्ग का त्याग करना चाहिए, साधुओं की सेवा करना चाहिए। अनन्तर यथाशक्ति, दान, शील, तप और भावनाप्रधान होना चाहिए। अशोक आदि ने कहा--'ठीक है कुमार ! ठीक है, हम लोगों ने स्वीकार किया।' कुमार ने कहा- हे मित्रो ! तुम सब धन्य हो, तुम लोगों ने मनुष्य जन्म का फल पा लिया।' उन्होंने कहा-'कुमार ! ठीक है, यह ऐसा ही है, हम सभी लोग धन्य हैं । अधयों को कुमार का दर्शन प्राप्त नहीं होता ।' इस पुकार कुमार का अभिनन्दन कर विशेषणोचित बेला में पूजा कर अशोक आदि (मित्र) अपने-अपने स्थान पर चले गये । इन लोगों ने यथायोग्य अनुष्ठान प्रारम्भ किया। कुछ दिन बीत गये। - इसी बीच वसन्त का समय आया, वन की शोभा बढ़ी, आम्रसमूह मंजरित हुआ, तिलक आदि पुष्पित हुए, अतिमुक्ता विकसित हूई, मलयवायु चलने लगा, भ्रमरों का समूह प्रसन्न हुआ, कोयलों का शब्द फैला, यह वह Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो भवो ] च मम मित्तरज्जमिमं ति उत्तणो कघत्थेइ बालवुड्ढ पि मयणो, सिसिरसत्तुविगमेण विय वियसियकमलवणा कमलिणी, महुसमागमसुहेण विय पणट्टतमाओ जंति जामिणीओ, उउलच्छिदंसणपसत्ता, विय तहा परिमंथरगमणा वासरा; जहिं च अग्घए नवरंगय, बहुमया पसन्ना, वहति डोलाओ, सेविज्जति काणणाई, मणहरो चंदो, अहिमओ गेयविही, वट्टति पेरणाई, पियाओ कामिणीओ; जहिं च विसेसुज्जलने वच्छाई कोलंति तरुणवंद्राई, भमंति महाविभूईए देवयाणं पि रहवरा, मयणवाहभएन विय सरणाई अल्लियंति विययमेसु पियाओ । एवंविहे य महसमए राइणो पुरिससीहस्स नयरिच्छणदंसणनिमित्तं समागया नयरिमहंतया । विग्नत्तो णेहिं राया- देव, देवे नरवइम्मि निच्चच्छणो नयरीए; तहावि समागओ महुसमओ त्ति विविहचच्चरीदंसणेण देवपसायलालियाणं पयाणं छणाओ वि गरुयं छणंतरं करेउ देवो नायरयाणं ति । राइणा चितियं - अहो सोहणमुवत्थियं, मयणमितो खु महुसमओ । ता कुमारं एत्थ निउंजामि, जेण तहा विचित्तसंसारवियारदंसणेण संजायरसंतरो संपाडेइ मे परियणस्स य समीहियाहियं सोक्खं ति । चितिऊण भणिया महंतया । ८०६ यत्र च मम मित्रराज्यमिदमिति दृप्तः कदर्थयति बालवृद्धमपि मदनः, शिशिरशत्रुविगमेनेव विकसित मलवदना कमलिनी, मधुसमागमसुखेनेव प्रनष्टतमसो यान्ति यामिन्यः, ऋतुलक्ष्मीदर्शनप्रसक्ता इव तथा परित्यागमना वासराः, यत्र च राजते नवरङ्गकम्, बहुमता प्रसन्ना, वहन्ति दोनाः काननानि, मनोहरश्चन्द्रः, अभिमतो गेयविधिः वर्तन्ते प्रेक्षणकानि, प्रियाः कामिन्यः यत्र च विशेषोज्ज्वलनेपथ्यानि क्रीडन्ति तरुणवन्द्राणि, भ्रमन्ति महाविभूत्या देवतानामपि रथवराः मदनव्याधभयेनेव शरणान्यालीयन्ते प्रियतमेषु प्रियाः । एवंविधे मधुसमये राज्ञः पुरुषसिंहस्य नगरीक्षणदर्शननिमित्तं समागता नगरीमहान्तः । विज्ञप्तस्तै राजा - देव ! देवे नरपतौ नित्यक्षणो नगर्याः, तथापि समागतो मधुसमय इति विविधचर्चदर्शनेन देवप्रसादलालितानां प्रजानां क्षणादपि गुरुकं क्षणान्तरं करोतु देवो नागरकानामिति । राज्ञा चिन्तितम् - अहो शोभनमुपस्थितम्, मदन मित्रः खलु मधुसमयः । ततः कुमारमत्र नियुञ्जे, येन तथा विचित्रसंसारविकारदर्शनेन सञ्जातरसान्तरः सम्पादयति मे परिजनस्य च समीहिताधिक स्थान है जहाँ पर मेरे मित्र का राज्य है- सोचकर अभिमानी काम बाल-वृद्धों का भी तिरस्कार करने लगा, शिशिररूपी शत्रु से अलग होते ही मानो कमलिनी विकसित कमल के समान मुखवाली हो गयी । वसन्त के समागम के सुख से रात्रियाँ नष्टान्धकार होकर व्यतीत होने लगीं । ऋतुलक्ष्मी के दर्शन में लगे हुए के समान दिन गमन में मन्दगतिवाले हो गये; वहाँ नयी रंगभूमि सुशोभित होने लगो, प्रसन्नों का सम्मान होने लगा, झूला झुलाए जाने लगे, उद्यानों का सेवन होने लगा, चन्द्रमा मनोहर हो गया, गाने की विधि इष्ट हो गयी, नाटक होने लगे, कामिनियाँ प्रिय हो गयीं; तरुण विशेष उज्ज्वल परिधान पहिन क्रीडा करने लगे, देवताओं के भी श्रेष्ठरथ महान् विभूति के साथ घूमने लगे । मदनरूपी बहेलिये से भयभीत हो मानो प्रियाएँ प्रियतमों की शरण में लीन होने लगीं । ऐसे वसन्त समय में राजा पुरुषसिंह की नगरी का उत्सव देखने के लिए नगर के बड़े लोग आये। उन लोगों ने राजा से निवेदन किया- 'महाराज ! महाराज के राजा होने पर नगरी का उत्सव नित्य होता रहता है, तथापि वसन्त समय आया है अतः अनेक प्रकार की नृत्य मण्डलियाँ देखकर महाराज की कृपा से लालित प्रजा के महोत्सव से भी अधिक महाराज ! नागरिकों का महोत्सव करें ।' सोचा- ओह ! कामदेव का मित्र वसन्त ठीक उपस्थित हुआ । अतः इसमें कुमार को नियुक्त जिससे उस प्रकार के विचित्र राजा ने करता हूँ, Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१० [ समसइञ्चकहा भो संपाडिया मम तुहि बहुसो नियविभूइदंसणेग निव्वई, अहं पुण तुम्हाण कुमारदंसणेण अहियं संपाडेमि । अन्नं च, संपयं कुमारो एत्य कारणपुरिसो; ता तम्सि चेव बहुमाणो कायव्वो ति। महंतहि भणियं-जं देवो आणवेइ। अन्नं च, देवपसायाओ वि एस महापसाओ जहिं कुमारदसणं ति। निग्गया महंतया। राइणा वि सद्दाविओ कुमारो, भणिओ य सबहुमाणं-वच्छ, ठिई एसा इमीए नयरीए, जं मयणमहूसवे दटुवाओ नयरिचच्चरीओ राइणा, दिवाओ प मए अणेगसो। संपयं पुण अणुगंतव्वो गुरुसमणुगओ मग्गो त्ति तेणेव विहिणा तुम पि पेच्छाहि । एवं च कए समाणे ममं परियणस्स नायरयाण य महंतो पमोओ हवइ । कुमारेण भणियं-जं ताओ आणवेइ। तओ हरिसिओ राया, दिन्ना समाणत्ती पडिहाराणं। हरे भणह मम वयणाओ नाणगब्भपमुहे पहाणसचिवे, जहा 'नयरिच्छणचच्चरीदसणसुहं संजत्तेह रहवराइयं कुमारस्स, मम वयणाओ नायरयाइपरिओसनिमित्तं रायपयवत्तिणा गंतव्वमज्ज गेण छणचच्चरीदंसणनिमित्तं' ति । 'ज देवो आणवेइ' ति भणिऊण 'कुमारो अज्ज छणच च्चरीओ पेक्खिस्सइ, भवियन्वमम्हाणं पि कल्लाणेणं' ति हरिसौख्यमिति । चिन्तयित्वा भणिता महान्तः-भोः सम्पादिता मम युष्माभिर्बहुशो निजविभूतिदर्शनेन निर्वतिः, अहं पुनर्युष्माकं कुमा दर्शनेनाधिकं सम्पादयामि । अन्यच्च, साम्प्रतं कमारोऽत्र कारणपुरुषः, ततस्तस्मिन्नेव बहुमानः कर्तव्य इति। महद्भिर्भणितम्-यद्देव आज्ञापयति । अन्यच्च, देवप्रसादादप्येष महाप्रसादो, यत्र कमारदर्शन मिति । निर्गता महान्तः । राज्ञाऽपि शब्दायितः कुमारः, भणितश्च सबहुमानम्--वत्स ! स्थितिरेषा अस्या नगर्याः, यद् मदनमहोत्सवे द्रष्टव्या नगरचर्चर्यो राज्ञा, दृष्टाश्च मयाऽनेकशः। साम्प्रतं पुनरनुगन्तव्यो गुरुसमनुगतो मार्ग इति तेनैव विधिना त्वमपि प्रेक्षस्व । एवं च कृते सति मम परिजनस्य नागरकानां च महान् प्रमोदो भवति। कुमारेण भणितम्-यत् तात आज्ञापयति । ततो हर्षितो राजा, दत्ता समाज्ञप्तिः प्रतीहाराणाम् । अरे भणत मम वचनाद् ज्ञानगर्भप्रमुखान्, प्रधानसचिवान्, यथा 'नगरीक्षणवर्चरीदर्शनसुखं संयात्रयत रथवरादिकं कुमारस्य, मम वचनाद् नागरिकादिपरितोषनिमित्तं राजपदवतिना गन्तव्यमद्यानेन क्षणचर्चरीदर्शननिमित्तम्' इति । 'यद् देव आज्ञापयति' इति भणित्वा 'कुमारोऽद्य क्षणचर्चरी: संसार के विकार के दर्शन से दूसरा ही रस उत्पन्न होकर मेरे परिजनों को इच्छा से भी अधिक सुख की प्राप्ति हो-ऐसा सोचकर बड़े लोगों से कहा-'आप. लोगों ने अनेक प्रकार की विभूति का दर्शन कराकर मुझे शान्ति पहुँचायी, पुन: मैं आप लोगों को कुमार का दर्शन कराकर अधिक सम्पादित करता हूँ। दूसरी बात यह है, इस समय कुमार यहाँ कारणपुरुष हैं, अतः उनका ही सम्मान करना चाहिए।' बड़े लोगों ने कहा- 'जो महाराज आज्ञा दें। दूसरी बात यह है कि महाराज की कृपा से भी अधिक यह कृपा है कि कुमार यहाँ के दर्शन करेंगे । बड़े लोग चले गये (निकल गये)। राजा ने भी कुमार को बुलाया और आदरपूर्वक कहा-'पुत्र ! इस नगर की यह मर्यादा है कि मदन-महोत्सव में नगर की नृत्य-मण्डलियों को राजा देखे । मैं अनेक बार देख चुका है। इस समय बड़े लोगों से अनुगत मार्ग का अनुसरण करना चाहिए, अत: उसी विधि से तुम भी देखो। ऐसा करने पर मेरे परिजनों और नागरिकों को महान् प्रमोद होगा।' कुमार ने कहा--'पिताजी की जो आज्ञा।' अनन्तर राजा हर्षित हुआ, प्रतीहारों को आज्ञा दी.-'अरे ! मेरे वचनों के अनुसार ज्ञानगर्भप्रमुख प्रधान सचिवों से कहो कि नगर के महोत्सव में नृत्यमण्डली देखने के सुख के लिए कुमार का श्रेष्ठ रथ आदि ले जाओ, मेरे कथनानुसार नागरिक आदि के सन्तोष के लिए राज्याधिकारियों को इस महोत्सव की नृत्यमण्डलियां देखने के लिए जाना चाहिए ।' 'महाराज जैसी आज्ञा दें। ऐसा कहकर 'कुमार आज महोत्सव की नृत्य मण्डलियां देखेंगे (अत:) Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८११ नमो भवो ] सियमणेहिं तुरियतुरियं निवेइया समाणत्ती पडिहारहि । 'अहो भवियव्वमेत्थ परमाणंदेणं' ति आणदिया सचिवा | भणियं च णेहि-जं देवो आणवेइ । तयणंतरं च सज्जिओ रहवरो, कया जंतजोया, निवेसियं आयवत्तं, दिन्नाओ वेजयंतीओ, निबद्धं किंकिणीजालं, निविट्ठाई रयणदामाई, ओलंबिया मुत्ताहारा, विरइयाओ मणितारयाओ, उवगप्पियं आसणं, लंबिया चामरोऊला । एत्थंतरम्मि इमं वइयरमवयच्छिऊण विसेसुज्जलनेवच्छाई सहरिसं समागयाई पायमूलाई, कुंकुमखोयभरिएहि कच्चो हि वसंतनेवच्छधारी मंडयंतो विय छणं मिलिओ भुयंगलोओ, विचित्तजाणारूढा संगणं परियणं पमोयवियसंतलोयणं कुमारदंसणू सुयत्तेण उवत्थिया रायउत्ता, धवलहरनिज्जूह एहि छणासयदंसणत्थं ओहसियथलन लिणिसोहाई विणिग्गयवयणकमलं ठियाइं अंतेउराई । एत्थंतरम्मि पत्तो नयरीए ऊसको । निवेइयं राइणो सचिवेहि-देव, संपाडियं कुमारमंतरेण देवसासणं; संपयं, देवो पमाणं ति । हरिसिओ राया । भणिओ य णेण कुमारो-वच्छ, करेहि महापुरिसकर णिज्जं वढेहि ऊसवं नायरयाणं । कुमारेण भणियं-जं ताओ आणवेइ । पणमिऊण सह असोयाइए ह प्रेक्षिष्यते, भवितव्यमस्माकमपि कल्याणेन' इति हर्षितमनोभिः त्वरितत्वरितं निवेदिता समाज्ञप्तिः प्रतीहारै: । 'अहो भवितव्यमत्र परमानन्देन' इत्यानन्दिताः सचिवाः । भणितं च तैः - यद् देव आज्ञापयति । तदनन्तरं च सज्जितो रथवरः, कृता यन्त्रयोगाः, निवेशितमातपत्रम्, दत्ता वैजयन्त्यः, निबद्धं किङ्किणीजालम्, निविष्टानि रत्नदामानि, अवलम्बिता मुक्ताहाराः, विरचिता मणितारकाः, उपकल्पितमासनम्, लम्बिताश्चामरावचूलाः । अत्रान्तरे इमं व्यतिकरमवगम्य विशेषोज्ज्वलनेपथ्यानि सहर्षं समागतानि पात्रमूलानि कुङ कुमक्षोदभृतैः कच्चोलैर्वसन्तनेपथ्यधारी मण्डयन्निव क्षणं मिलितो भुजङ्गलोकः, विचित्रयानारूढाः सङ्गतेन परिजनेन प्रमोदविकसद्लोचनं कुमारदर्शनोत्सुकत्वेनोपस्थिता राजपुत्राः, धवलगृहनिर्यू हकेषु क्षणातिशयदर्शनार्थमुपहसितस्थलनलिनीशोभानि विनिर्गतवदनकमलं स्थितान्यतः पुराणि । अत्रान्तरे प्रवृत्तो नगर्यामुत्सवः । निवेदितं राज्ञः सचिवैः - देव ! सम्पादितं कुमारमन्तरेण देवशासनम्, साम्प्रतं देवः प्रमाणमिति । हर्षितो राजा । भणितश्च तेन कुमारः - वत्स ! कुरु महापुरुषकरणीयम्, वर्धस्वोत्सवं नागरकानाम् । कुमारेण हम लोगों का भी कल्याण होना चाहिए' इस प्रकार हर्षित मनों से शीघ्रतातिशीघ्र प्रतीहारों ने आज्ञा निवेदन की । 'ओह ! आज परम आनन्द होगा - इस प्रकार सचिव हर्षित हुए । उन्होंने कहा - 'जो महाराज आज्ञा दें ।' तदनन्तर श्रेष्ठ रथ तैयार किया गया, यन्त्र लगाये गये, छत्र स्थापित किया गया, पताकाएँ फहरायी गयीं, छोटी-छोटी घण्टियाँ बाँधी गयीं, रत्नों की मालाएँ लटकायी गयीं, आसन की रचना की गयी और चँवर तथा चौरीमा गुच्छे लटकाए गये। इसी बीच इस घटना को सुनकर विशेष उज्ज्वल वेष धारण किये हुए अभिनेता हर्ष पूर्व आये । वे प्यालों में केसर का चूर्ण भरे हुए थे, वसन्त के वेष को धारण किये हुए थे, मानो महोत्सव का मण्डन करते हुए विट पुरुष मिल गये । विचित्र सवारियों पर आरूढ़ परिजनों के साथ प्रमोद से जिनके नेत्र खिल रहे थे ऐसे राजपुत्र कुमार के दर्शन की उत्सुकता से उपस्थित हुए । धवलगृह के दरवाजों में महोत्सव की की अतिशयता देखने के लिए स्थल- कमलिनी की शोभा का उपहास करनेवाली, मुखकमलों को निकाले हुए अन्त:पुरिकाएँ खड़ी हो गयीं। इसी बीच नगर में उत्सव आरम्भ हुआ। राजा से सचिवों ने निवेदन किया 'महाराज ! कुमार के अतिरिक्त, महाराज की आज्ञा पूरी कर दी, अब महाराज प्रमाण हैं।' राजा हर्षित हुआ और उसने कुमार से कहा- 'वत्स ! महापुरुषों के योग्य कार्य करो, नागरिकों के उत्सव को बढ़ाओ ।' कुमार ने कहा - ' जो Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्च कहा पट्ट रहाहिमुहं अहिणं दिज्जमाणो अंतेउरेहि पण मज्जमाणा रायउत्तेहि थुव्वमाणो भुयंगलोएण पुलइज्जमाणो पायमूलेहिं पत्तो रहसमीवं, आरूढो रहवरे, उवविट्ठा पहाणासणम्मि । निवेसिया असोयाई जहाजोग जाणेसु । भणियं च पेण- अज्ज सारहि, चोएहि अहिमयदेसगमणं पइ तुरंगमे । 'जं देवो आणवेइ' त्ति भणिऊण चोइया तुरंगमा । एत्थंतरम्मि समुद्धाइओ जयजयारवो, पहयं गमणतूरं चलिया रायउता, पणच्चियाइं पायमूलाई, उल्लसिया भुयंगा, खुहिओ पेच्छवजणो, पत्ता केली, विभिओ कुंकुमरओ । एवं च महया विमद्देण पेच्छमाणो सव्वमेयं संवेगभावियमई समोइण्णो रायमगं कुमारो । पवत्तो पेच्छिउं चच्चरीओ नाणाविहाओ रिद्धिविसेससोहियाओ जुत्ता विविग्भमेह तपसचच्चरीसमाओ संगयाओ हरिसेण वज्जेतेहि विविहत रेहि मणहराओ लोयस संवेगजणणीओ बुहाण | पेच्छमाणो 'अहो मोहसामत्थं, अहो अकज्जधीरया, अहो पमायचेट्टि, अहो अदीहदरिसिया, अहो अणालोयगत्तं, अहो असुहभावणा, अहो अमित्तजोओ, अहो संसारविलसियं' ति चितयंतो पवड्ढमाणेण संवेएण वियारयंतो कम्माई, भावयंतो कुसलजोए ८१२ भणितम् - यत् तात आज्ञापयति । प्रणम्य सहाशोकादिभिः प्रवृत्तो रथाभिमुखमभिनन्द्यमानोऽन्तःपुरैः प्रणम्यमानो राजपुत्रैः स्तूयमानो भुजङ्ग लोकेन प्रलोक्यमानः पात्रमूलैः प्राप्तो रथसमीपम्, आरूढो रथवरम्, उपविष्टः प्रधानासने । निवेशिता अशोकादयो यथायोग्ययानेषु । भणितं च तेनआर्य सारथे ! चोदयाभिमतदेशगमनं प्रति तुरङ्गमान् । यद् देव आज्ञापयति' इति भणित्वा चोदितास्तुरङ्गमाः । अत्रान्तरे समुद्धावितो जयजयारवः प्रहृतं गमनतूर्यम्, चलिता राजपुत्राः, प्रवर्तितानि पात्रमूलानि, उल्लसिता भुजङ्गाः, क्षुब्धः प्रेक्षकजनः प्रवृत्ता केलिः, विजृम्भितं कुङ कुमरजः । एवं च महता विमर्देन प्रेक्षमाणः सर्वमेतत् संवेगभावितमतिः समवतीर्णो राजमार्ग कुमारः । प्रवृत्तः प्रेक्षितुं चर्चरीर्नानाविधा ऋद्धिविशेषशोभिता युक्ता विदग्धविभ्रमा स्त्रदशचर्चरी समाः सङ्गता हर्षेण वाद्यमानैर्विविधर्यैर्मनोहरा लोकस्य संवेगजननीबुधानाम् । पश्यन् 'अहो मोहसामर्थ्यम्, अहो अकार्यधीरता, अहो प्रमादचेष्टितम्, अहो अदीर्घदर्शिता, अहो अनालोचकत्वम्, अहो अशुभभावनाः, अहो अमित्रयोगः, अहो संसारविलसितम्' इति चिन्तयन् प्रवर्धमानेन संवेगेन विचारयन् आज्ञा पिताजी ।' प्रणाम कर अशोकादि के साथ रथ की ओर चला । अन्तःपुर से अभिनन्दन किया जाता हुआ, राजपुत्रों के द्वारा नमस्कृत, विट पुरुषों के द्वारा स्तुति किया जाता हुआ, अभिनेताओं से देखा जाता हुआ रथ के समीप आया । श्रेष्ठ रथ पर चढ़ा। प्रधान आसन पर बैठ गया । अशोक आदि (मित्रों) को यथायोग्य आसनों पर बैठाया। उसने (कुमार ने कहा - 'आर्य सारथी ! इष्ट स्थान पर जाने के लिए घोड़ों को प्रेरित करो।' 'जो महाराज आज्ञा दें ' -- ऐसा कहकर घोड़ों को हांका । तभी जय-जय का शब्द उठा, प्रयाणकालीन बाजे बजे, राजपुत्र चले, अभिनेताओं ने नृत्य किया, विट पुरुष खिल गये, देखनेवाले लोग विचलित हो गये, क्रीड़ा आरम्भ हुई, केसर की धूलि फैल गयी। इस प्रकार बड़ी भीड़ से देखा जाता हुआ इन सबके प्रति वैराग्य बुद्धिवाला कुमार राजमार्ग पर उतरा । नृत्य मण्डलियाँ देखने लगा। वे नाना प्रकार की थीं, ऋद्धि विशेष से शोभित थीं, विदग्ध पुरुषों के विभ्रम से युक्त थीं । देवताओं की नृत्यमण्डलियों के समान हर्ष से युक्त थीं । अनेक प्रकार के बाजे बजाए जा रहे थे । संसारी प्राणियों के लिए मनोहर थीं और विद्वानों को वैराग्य उत्पन्न कर रही थीं। उन्हें देखकर 'ओह मोह की सामर्थ्य, ओह अकार्य की धीरता, ओह प्रमाद की चेष्टा, ओह अदीर्घदशिता, ओह अनालोचकता, ओह अशुभ भावना, ओह अमित्र का योग, ओह संसार का विलास - ऐसा सोचता हुआ बढ़ी हुई विरक्ति से कर्मों Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो भवो ] ८१३ विमुज्झमाणेण नाणेण पुलइज्जमाणो चच्चरीहि जणितो तासि तोसं निरूवयंतो पेरणाई 'देव पेच्छ एयं' ति भणिज्जमाणो सारहिणा अइगओ कंचि भूमिभागं । । ७ विट्ठो य णेण देवढियाए अइबीहच्छदंसणो असुइणा देहेण गलंतभासुरवयणो संकुचिएहि हत्थे ऊस्सूणचलणजुयलो पणट्टाए नासियाए विणिग्गघतंबनयणो परिगओ मच्छियाहि महावाहिगहिओ को पुरिलो ति । तं च दट्ठूण 'अहो कम्मपरिणइति करुणापवन्नहियएण पडिबोहण निमित्तं जणसमूहस्स भणिओ सारही अज्ज सारहि, अह कि पुण इमं पेरणं ति । तेण भणियं देव, न खल एवं पेरणं, एसो खु वाहिगहिओ पुरिसोति । कुमारेण भणियं-अ -अज्ज, अह को उण इमो वाही । सारहिणा भणियं देव, जो सुन्दरं पि सरीरं अयालेण एवं विणासेइ । कुमारेण भणियं -अज्ज, gha सो अहिओ लोस्स; ता कीस ताओ एवं विसहइ । सारहिणा भनियं- कुमार, अबको एस तायस्स । कुमारेण भणियं आ कहमवज्झो नाम । लोयपडिबोहणत्थं च मग्गियं खग्गं । 'अरे रे दुट्ठवाहि, मुंच मुंच एयं ठाहि वा जुज्झसज्जो' त्ति भणमाणो उट्ठिओ रहवराओ, पयट्टो तस्स संमुहं । कर्माणि, भावयन् कुशलयोगान् विशुद्धयमानेन ज्ञानेन दृश्यमानश्चर्चरीभिर्जनयन् तासां तोषं निरूपयन् प्रेरणानि ( प्रेक्षणकानि ) 'देव ! पश्यंतत्' इति भण्यमानः सारथिनाऽतिगतः कञ्चिद् भूमिभागम् । दृष्टश्च ते देवकुलपीठिकायामतिबीभत्स दर्शनोऽशुचिना देहेन गलद्भासुरवदनः संकुचिताभ्यां हस्ताभ्यः मुच्छून चरणयुगलः प्रनष्टया नासिकया विनिर्गतताम्रनयनः परिगतो मक्षिकाभि• महाव्याधिगृहीतः कोऽपि पुरुष इति । तं च दृष्ट्वा 'अहो कर्मपरिणतिः' इति करुणाप्रपन्नहृदयेन प्रतिबोधननिमित्तं जनसमूहस्य भणितः सारथि: - आर्य सारथे ! अथ किं पुनरिदं प्रेक्षणकमिति । तेन भणितम् - देव ! न खल्वेतत् प्रेक्षणकम्, एष खलु व्याधिगृहीतः पुरुष इति । कमारेण भणितम् - आर्य ! अथ कः पुनरयं व्याधिः । सारथिना भणितम्- देव ! यः सुन्दरमपि शरोरम कालेनैवं विनाशयति । कुमारेण भणितम् - आर्य ! दुष्टः खल्वेषोऽहितो लोकस्य ततः कस्मात् तात तं विसहते । सारथिना भणितम् - कुमार ! अवध्य एष तातस्य । कुमारेण भणितम्-आः कथमवध्यो नाम । लोकप्रतिबोधनार्थं च मार्गितं खड्गम् । 'अरेरे दुष्टव्याधे ! मुञ्च मुञ्चैतम् तिष्ठ वा युद्ध का विचार करता हुआ, विशुद्ध ज्ञान से शुभयोगों की भावना करता हुआ, नृत्यमण्डलियों के द्वारा देखा जाता हुआ, उनको सन्तोष उत्पन्न करता हुआ, नाटकों को देखता हुआ, 'महाराज ! इसे देखो' इस प्रकार सारथी के द्वारा कहा जाता हुआ वह कुछ दूर आगे निकल गया । उसने देवमन्दिर के चबूतरे पर अत्यन्त बीभत्स दर्शनवाला, अपवित्र देह से म्लान मुखवाला, संकुचित हाथोंवाला, दोनों पैर जिसके सूजे हुए थे, नाक जिसकी नष्ट हो गयी थी, जिसकी आँखें लाल-लाल निकल आयीं और जिससे मक्खियाँ लिपटी हुई थीं ऐसा बहुत बड़े रोग से ग्रस्त कोई पुरुष देखा । उसे देखकर 'ओह कर्म का फल !' इस प्रकार करुणाशील हृदयवाले कुमार ने जनसमूह को जाग्रत् करने के लिए सारथी से कहा'आर्य सारथी ! क्या यह नाटक है ?' उसने कहा - 'महाराज ! यह नाटक नहीं है, इस आदमी को रोग ने घेर लिया है ।' कुमार ने कहा - 'आर्य ! यह रोग कौन-सा है ?' सारथी ने कहा - 'महाराज ! जो सुन्दर शरीर को भी असमय में इस प्रकार विनष्ट कर देता है ।' कुमार ने कहा- 'आर्य ! यह दुष्ट है और संसार का अहितकर है अतः पिताजी इसे कैसे सहते हैं ?' सारथी ने कहा - ' कुमार ! इसे पिता जी नहीं मार सकते हैं ।' कुमार ने कहा - 'ओह, कैसे नहीं मारा जा सकता ?' लोगों के प्रतिबोधन के लिए तलवार ली । 'अरे रे दुष्ट रोग ! इसे Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१४ [समराइन्धकहा 'हा किमेयं ति उवसंताओ चच्चरीओ, मिलिया नायरया। पयंपिओ सारही-देव, न खलु वाही नाम कोइ दुटपुरिसो निग्गहारिहो नरवईण, अवि य जीवाणमेव सकम्मपरिणामणिओ संकिलेसविसेसो। ता अप्पहू एयस्स राइणो, साहारणो खु एसो सव्वजीवाण। कुमारेण भणियं-भो नायरया, किमेवमेवं । नायरएहि भणियं-देव, एवमेयं । कुमारेण भणियं-अज्ज सारहि, एएण गहिओ वि एसो चइऊण नियबलं अमणोरमाए एयमवत्थाए कोस एवं चिट्ठइ । सारहिणा भणियंदेव, ईइसो चेव एसो वाही; जेण एएण गहियस्स पणस्सइ बलं, असोहणा अवत्था, दुक्खफलं चेट्टियं ति । कुमारेण भणियं-अज्ज सारहि, कस्स उण एसो न पहवइ। सारहिणा भणियं-देव, परमत्येण धम्मपच्छसेविणो अहम्मापच्छविरयस्स कस्सइ महाभागस्स। कुमारेण भणियं-अज्ज सारहि, जइ एवं, ता को उण इह उवाओ । सारहिणा भणियं-देव, खेत्तं वाहिणो पाणिणो, परमत्थेण नत्थि उवाओ मोत्तूणं धम्मतिगिच्छं। कुमारेण भणियं-भो नायरया, किमेवमेयं । नायरएहि भणियंदेव, एवमेयं । कुमारेण भणियं- भो जइ एवं, ता सव्वसाहारणे एयम्मि असोहणे पयईए अवयारए सज्जः' इति भणन उत्थितो रथवरात्, प्रवृत्तस्तस्य सम्मुखम् । 'हा किमेतद्' इति उपशान्ताश्चर्यः, मिलिता नागरकाः। प्रजल्पितः सारथिः- देव ! न खलु व्याधिर्नाम कोऽपि दुष्टपुरुषो निग्रहा) नरपतीनाम्, अपि च जीवानामेव स्वकर्मपरिणामजनितः संक्लेशविशेषः । ततोऽप्रभव एतस्य राजानः, साधारणः खल्वेष सर्वजीवानाम् । कुमारेण भणितम् - भो नागरकाः! किमेवमेतत् । नागरकर्भणितम-देव! एवमेतत् । कूमारेण भणितम-आर्य सारथे ! एतेन गहीतोऽपि एष त्यक्त्वा निजबलमनोरमायामेतदवस्थायां कस्मादेवं तिष्ठति । सारथिना भणितम्-देव ! ईदृश एवैष व्याधिः, येनतेन गृहीतस्य प्रणश्यति बलम, अशोभनाऽवस्था, दुःखफलं चेष्टितमिति । कुमारेण भणितम-आर्य सारथे ! कस्य पूनरेष न प्रभवति। सारथिना भणितम- देव! परमार्थेन धर्मपथ्यसेविनोऽधर्मापथ्यविरतस्य कस्यचिद् महाभागस्य । कुमारेण भणितम् - सारथे ! यद्येवं ततः कः पुनरिहोपायः । सारथिना भणितम् -देव ! क्षेत्रं व्याधेः प्राणिनः, परमार्थेन नास्त्युपायो मुक्त्वा छोड़ दे अथवा युद्ध के लिए तैयार हो जा', ऐसा कहता हुआ उत्तम रथ से उठा, उक्त व्यक्ति के सामने चला 'हाय, यह क्या !' इस प्रकार नत्यमण्डलियाँ शान्त हो गयीं, नागरिक इकठे हो गये । सारथी ने कहा'महाराज ! रोग नाम का कोई दुष्ट पुरुष नहीं है, जिसको राजा वश में कर सकता हो, अपितु जीवों के ही अपने कर्मफल से उत्पन्न दुःख विशेष का नाम ही रोग है। अत: इस पर राजाओं की सामर्थ्य नहीं है, यह सभी प्राणियों के लिए सामान्य है।' कुमार ने कहा- 'हे नागरिको ! क्या यह ऐसा ही है ?' नागरिकों ने कहा'महाराज ! यह ऐसा ही है।' कुमार ने कहा-'आर्य सारथी ! इस व्याधि से गृहीत भी यह (व्यक्ति) अपनी शक्ति को छोड़कर कैसे इस असुन्दर अवस्था में ठहर रहा है ?' सारथी ने कहा-'महाराज ! यह रोग ऐसा ही है कि इसके जकड़ लेने पर शक्ति नष्ट हो जाती है, हालत बुरी हो जाती है और चेष्टाएँ दुःखफलवाली हो जाती हैं ।' कुमार ने कहा-'यह किस पर सामर्थ्य नहीं दिखलाता है अर्थात् यह रोग किसे नहीं होता है ?' सारथी ने कहा-'परमार्थ से धर्मरूपी पथ्य का सेवन करनेवाले और अधर्मरूपी अपथ्य से विरत किसी महाभाग्यशाली पर यह सामर्थ्य नहीं दिखलाता है ।' कुमार ने कहा-'आर्य सारथी ! यदि ऐसा है तो यहाँ कौन-सा उपाय है ?' सारथी ने कहा-'रोग के स्थान कर लेने पर प्राणी का वास्तव में धर्मचिकित्सा को छोड़कर (अन्य Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो भवो ] एगंतेण विज्जमाणोवाए अचितिऊण एवं अलमिमिणा नच्चिएण, उवाएं चैव खलु जुत्तो जत्तोति । नायरएहि भणियं देव, एवमेयं, तहावि लोयट्ठिई एसा; ता न जुत्तं देवस्स सयलनायरयाण पवत्ते महूसवे अत्थाणे रसभंगकरणं । सारहिणा भणियं देव, जुत्तं भणियमेहि; ता विविहरणाई ताव पेक्ख देवो ति । कुमारेण भणियं -अज्ज, एवं । तओ पवत्ताओ चच्चरीओ, पेच्छमाणो य कुमारो गओ कंचि भूमिभागं । दिट्ठे च णेण नियधरोवरिट्ठियं निसण्णं सव्वंगएसु अच्चंत सिढिलगत्तं पणट्ठेहि सिरोरुहे हिं पगलंतलोयणं कंपमाणेण देहेण वज्जियं दसणावलीए संगयं काससासेहिं परिहूयं परियणेण जरापरिणयं सेट्ठिमिहुणयं ति । तं च दट्ठूण 'अहो असारया संसारस्स' त्ति पवड्ढमाणसंवेएण पडिबोनिनित्तमेव भणिओ सारही- -अज्ज सारहि, अह किं पुण इमं पेरणं ति । तेण भणियं - देव, न खलु एयं पेरणं, एवं खु जरापीडियं सेट्ठिमिहुणयं ति । कुमारेण भणियं - अज्ज, अह का उण एसा जरा भण्णइ । सारहिणा भणियं देव, जा अजिणं पि सरीरं कालेण एवं करेइ । कुमारेण भणियं ८१५ धर्मचिकित्साम् । कुमारेण भणितम् - भो नागरका ! किमेवमेतद् । नागरकैर्भणितम् - देव ! एवमेतद् । कुमारेण भणितम् - भो यद्येवं ततः सर्वसाधारणं एतस्मिन् अशोभने प्रकृत्याऽपकारके एकान्तेन विद्यमानोपाये अचिन्तयित्वा एतमलमनेन नर्तितेन, उपाये एव खलु युक्तो यत्न इति । नागरकैर्भणितम् - देव ! एवमेतद्. तथापि लोकस्थितिरेषा ततो न युक्तं देवस्य सकलनागरकाणां प्रवृत्ते महोत्सवेऽस्थाने रसभङ्गकरणम् । सारथिना भणितम् - देव ! युक्तं भणितमेतैः, ततो विविधप्रेक्षणानि तावत् पश्यतु देव इति । कुमारेण भणितम् - आर्य ! एवम् । ततः प्रवृत्ताश्चर्चर्यः । प्रेक्षमाणश्च कुमारो गतो कञ्चिद् भूमिभागम् । दृष्टं च तेन निजगृहोपरिस्थितं निसन्तं ( क्लान्तं ) सर्वाङ्गकेषु अत्यन्तशिथिलगात्रं प्रनष्टः शिरोरुहैः प्रगलल्लोचनं कम्पमानेन देहेन, वर्जितं दशनावल्या, संगतं कासश्वासैः परिभूतं परिजनेन, परिणतं श्रेष्ठमिथुनकमिति । तच्च दृष्ट्वा 'अहो असारता संसारस्य' इति प्रवर्धमानसंवेगेन प्रतिबोधननिमित्तमेव भणितः सारथि: - आर्य सारथे ! अथ किं पुनरिदं प्रेक्षणकमिति । तेन भणितम् - देव ! न खल्वेतत् प्रेक्षणकम् एतत् खलु जरापीडितं श्रेष्ठिमिथुनकमिति । कुमारेण कोई ) उपाय नहीं है।' कुमार ने कहा - 'हे नागरिको ! क्या यह ठीक (सच ) है ?' नागरिकों ने कहा- 'यह ठीक ( सच) है। कुमार ने कहा- 'अरे, ऐसा है तो इस अशोभन का सभी के लिए सामान्य होने तथा स्वभाव से अपकारक होने पर एकान्त से उपाय विद्यमान होने पर इसे न सोचकर नाचना व्यर्थ है, उपाय में ही यत्न करना निश्चित रूप से ठीक है।' नागरिकों ने कहा- 'यही ठीक है, तथापि यह संसार की मर्यादा है, अतः महाराज का समस्त नागरिकों के महोत्सव में प्रवृत्त होने पर रसभंग करना उचित नहीं है ।' सारथी ने कहा- 'महाराज ! इन लोगों ने ठीक कहा है अतः महाराज अनेक प्रकार के दृश्य देखें ।' कुमार ने कहा- 'आर्य ! ठीक है ।' अनन्तर नृत्यमण्डलियां चलीं । कुमार देखता हुआ कुछ दूर और चला । उसने एक बूढ़े सेठ के जोड़े को देखा । वह अपने घर के ऊपर बैठा हुआ था। उसके सभी अंग क्लान्त थे, शरीर अत्यन्त ढीला था, बाल खतम हो गये थे, नेत्र नष्ट हो गये थे, शरीर कांप रहा था, दन्तपंक्ति से रहित था, खाँसी श्वासों से युक्त और परिजनों से तिरस्कृत था । उसे देखकर 'ओह, संसार की असारता ! इस प्रकार बढ़ी हुई विरक्तिवाला कुमार प्रतिबोधन के लिए ही सारथी से बोला- 'आर्य सारथी ! क्या यह नाटक है ?' उसने कहा - 'महाराज ! निश्चित रूप से यह नाटक नहीं है । यह बुढ़ापे से पीड़ित सेठ दम्पती हैं ।' कुमार Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१६ [समराइच्चकहा अज्ज, दुवा खु एसा अहिया लोयस्स; ता कीस ताओ एवं उवेक्खइ । सारहिणा भणियं-कुमार, अणायत्ता खु एसा तायस्स । कुमारेण भणियं-आ कहमणायत्ता नाम। जणपडिबोहणत्थं च मग्गिऊण खग्गं 'आ पावे दुटुजरे, मुंच मुंच एयं सेद्विमिहुणयं, इत्थिया तुमं, किमवरं भणियसि' त्ति भणमाणो समुट्ठिओ रहवराओ, पयट्टो तयभिमुहं । 'हा किमेयमवर' ति उवसंताओ चच्चरीओ, मिलिया पुणो जणा। पणिओ सारहिणा-देव, न हि जरा नाम काइ विग्गहवई इत्थिया, जा एवमुवलंभारिहा देवस्स, किंतु सत्ताणमेवीरालियसरीरिणं कालवसेण परिणई एसा। अओ न उवलभारिहा देवस्स, साहारणा य एसा एएसि देहीणं । कुमारेण भणियं-भो भो नयरिजणा, किमेवमेयं ति । तेहिं भणियं-देव, न संदेहो। कुमारेण भणियं-अज्ज सारहि, अओ परं अवगओ मए इमीए भावत्थो अभवणविही य, ता भणामि अज्जं नरिजणं च । न कायवो खेओ, कि जुत्तमेयाए पणासणोए पोरुसस्स अश्यारिणीए धम्मत्थकामाण जणणीए परिहवस्स संबद्धणोए ओहसणिज्ज भणितम् -आर्य ! अथ का पुनरेषा जरा भण्यते । सारथिना भणितम् - देव ! याऽजीर्णमपि शरीरं कालेनैवं करोति । कुमारेण भणितम्-आर्य ! दुष्टा खल्वेषाऽहिता लोकस्य, ततः कस्मात् तात एतामुपेक्षते । सारथिना भणितम्-कुमार ! अनायत्ता खल्वेषा तातस्य । कुमारेण भणितम्-आः कथमनायत्ता नाम । जनप्रतिबोधनार्थं च मार्गयित्वा खड्गं 'आ पापे दुष्ट जरे ! मुञ्च मुञ्चैतत् श्रेष्ठिमिथुनकम्, स्त्री त्वम्, किमपरं भण्यसे' इति भणन् समुत्थितो रथवरात्, प्रवृत्तस्तदभिमुख म्। 'हा किमेतदपरम्' इत्युपशान्ताश्चर्यः, मिलिता: पुनर्जनाः । प्रभणितः सारथिना-देव ! नहि जरा नाम काऽपि विग्रहवतो स्त्री, या एवमुपलम्भार देवस्य, किन्तु सत्त्वानामेवौदारिकश रोरिणां कालवशेन परिणतिरेषा, अतो नोपलम्भारे देवस्य, साधारणा चैषा एतेषां देहिनाम् । कुमारेण भणितम्-- भो भो नगरीजनाः ! किमेवमेतदिति । तैर्भणितम्- देव ! न सन्देहः । कुमारेण भणितम्-आर्य सारथे ! अतः परमवगतो मयाऽस्या भावार्थोऽभवनविधिश्च । ततो भणाम्याय नगरीजनं च । न कर्तव्यः खेदः, किं युक्तमेतस्यां प्रणाशन्यां पौरुषस्य अपकारिण्यां धर्मार्थकामानां जनन्यां परिभवस्य ने कहा-'बुढ़ापा किसे कहा जाता है ?' सारथी ने कहा-'महाराज ! जो न जीर्ण हुए भी शरीर को समय पर ऐसा कर देता है ।' कुमार ने कहा-'आर्य ! यह बुढ़ापा संसार के लिए अहितकर है अतः पिताजी क्यों इसकी उपेक्षा करते हैं ?' सारथी ने कहा - 'कुमार ! यह पिताजी के आधीन नहीं है।' कुमार ने कहा- 'अरे कैसे आधीन नहीं है ?' लोगों के प्रतिवोधन के लिए तलवार लेकर - अरे पापी दुष्ट बुढ़ापे ! इस सेठ दम्पती को छोड़, (जरा नाम होने कारण) तू स्त्री है, अधिक क्या कहा जाय !' ऐसा कहकर श्रेष्ठ रथ से वह उठा और उसकी ओर बढ़ा । 'हाय ! यह अब और क्या हो गया !' इस प्रकार नृत्यमण्डलियाँ शान्त हो गयीं। लोग पून: इकटठे हो गये । सारथी ने कहा - 'महाराज ! जरा (बुढ़ापा) नाम की कोई शरीरधारिणी स्त्री नहीं है जो महाराज के इस प्रकार के उलाहने के योग्य हो, किन्तु औदारिक शरीरवाले प्राणियों की काल के आधीन यह परिणति होती है, अतः महाराज के उलाहने के योग्य नहीं है । इन शरीरधारियों के लिए यह साधारण है।' कुमार ने कहा हे हे नागरिको ! क्या यह ठीक (सच) है ?' उन्होंने कहा-'महाराज ! निस्सन्देह ठीक (सच) है ।' कुमार ने कहा 'आर्य सारथी ! मैंने इसका भावार्थ जान लिया और न होने की विधि भी जान ली। अतः आर्य से, नगरी के लोगों से कहता हूँ। खेद न करें । पौरुष की नाशिनी, धर्म-अर्थ काम की अपकारिणी, निरादर को उत्पन्न करने Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो भवो] ८१७ भावाण पहवंतीए वि मोत्तूण धम्मरसायणं इयमेवंविहं असमंजसं चेट्टियं ति । एवं च सोऊण 'अहो कुमारस्स विवेओ; महो परमत्थदरिसिया; न एत्थ किचि अन्नारिसं, केवलं पहवइ महामोहोति चितिऊण समं नयरिजणवएण संविग्गो सारही। भणियं च णेण-देव, साहु जंपियं देवेण। तहावि अणादिभवभत्था मोहवासणा न तीरए चइउंति। कुमारेण भणियं-अज्ज, एवं ववस्थिए अलं मोहवासणाए। दारुणविवाओ वाही रोदा य पावा जरा हवंति किलेपायाओ नियमेण पाणिणो; भणियमज्जेण, 'अस्थि य पांडवक्खो एयासि धम्मचरणं' ति । तो दिटुविवायाण वि न तम्मि जत्तो त्ति अउवा मोहवासणा। ____एत्थंतरम्मि दिट्ठो कुमारेण नाइदूरेण नीयमाणो समारोविओ जरखट्टाए समोत्थओ जुण्णवत्येण उक्खित्तो दीणपुरिसेहि सदुक्खकइवयबंधुसंगओ रुयमाणेण इत्थियाजणेण अवकंदमाणाए पत्तीए पुलोइज्जमाणो जणेण पंचत्तमुवगओ दरिद्दपुरिसो त्ति । तं च दळूण जंपियमणेण - अज्ज सारहि, अलं ताव मोहवासणाचिताए; साहेहि मज्झ, किं पुण इमं पेरणं ति । सारहिणा चितियं- अहो संवधिन्यामुपहसनीयभावानां प्रभवन्त्यामपि मुक्त्वा धर्मरसायन मिदमेवंविधमसमञ्जसं चेष्टितमिति । एतच्च श्रुत्वा 'अहो कुमारस्य विवेकः, अहो परमार्थदर्शिता, नात्र किञ्चिदन्यादशम, केवलं प्रभवति महामोहः' इति चिन्तयित्वा समं नगरीजनवजेन संविग्नः सारथिः । भणितं च तेन - देव ! साधु जल्पितं देवेन। तथाप्यनादिभवाभ्यस्ता मोहवासना न शक्यते त्यक्तुमिति । कमारेण भणितम-आर्य ! एवं व्यवस्थितेऽलं मोहवासनया। दारुणविपाको व्याधि:, रोद्रा च पापा जरा भवन्ति क्लेशपाया नियमेन प्राणिनः ; भणितमार्येण-'अस्ति च प्रतिपक्ष एतासां धर्मचरणम्' इति । ततो दष्टविपाकानामपि न तस्मिन् यत्न इत्यपूर्वा मोहवासना। अत्रान्तरे दृष्टः कुमारेण नातिदूरेण नीयमानः समारोपितो जरत्खट्वायां समवस्तृतो जीर्णवस्त्रेणोत्क्षिप्तो दोनपुरुषैः सदु:खकतिपयबन्धु सङ्गतो रुदता स्त्रीजनेन आक्रन्दन्त्या पत्न्या प्रलोक्यमानो जनेन पञ्चत्वमुपगतो दरिद्रपुरुष इति । तं च दृष्ट्वा जल्पितमनेन-आर्य सारथे; अलं तावन्मोहवासनाचिन्तया, कथय मह्य, किं पुनरिदं प्रेक्षणकमिति । सारथिना चिन्तितम् वाली, उपहास के योग्य अवस्था को बढ़ानेवाली इसके समर्थ होने पर भी धर्मरूपी रसायन को छोड़कर इस प्रकार का असंगत कार्य करना क्या ठीक है ?' यह सुनकर-ओह कुमार का विवेक, ओह परमार्थदशिता ! यहाँ पर कोई और नहीं, केवल महामोह प्रभाव दिखा रहा है। ऐसा सोचकर नागरिकों के समूह के साथ सारथी उदविग्न हआ। उसने कहा-'महाराज ! आपने सही कहा तो भी अनादि भवों से अभ्यस्त मोह के संस्कार नहीं छोड़े जा सकते ।' कुमार ने कहा- 'ऐसी स्थिति में मोह का संस्कार व्यर्थ है, रोग का फल भयंकर होता है. जरा (बुढ़ापा) रोद्र और पापी होता है, इनसे प्राणी सदा दुःखी होते हैं।' आर्य ने कहा- 'इन का प्रतिपक्ष धर्म का आचरण है।' किन्तु फल देखते हुए भी उसके विषय में यत्न नहीं करते – यह मोह का अपूर्व संस्कार है।'.. इसी बीच कुमार ने समीप में ही पुरानी खाट पर रखकर ले जाते हुए मृत्यु को प्राप्त निर्धन पुरुष को देखा । वह पुराने वस्त्रों से ढका था, दीन मनुष्य उसे उठाए हुए थे। वह कुछ दुःखी बन्धुओं से युक्त था। (उसके पास) स्त्रियाँ रो रही थीं, पत्नी चीख रही थी, लोग देख रहे थे। उसे देखकर इसने कहा - 'आर्य सारथी ! मोह के संस्कार के विषय में सोचने से बस करो, मुझे बताओ, क्या यह नाटक है ?' सारथी ने सोचा-ओह वैराग्य Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चकहा frodeकारणपरंपरा, अहो असारया संसारस्स । ता किमेत्य साहेमि । न य न याणइ इमं पवंचमेसो । अभिन्न कमीइसी बाणी । अम्हारिसजण विवोहणत्थं तु तक्केमि एस एवं चेदृइ । ता इमं एत्थ पत्ता, साहेमि एयं जहट्ठियं ति । चितिऊण जंपियं सारहिणा - देव, न खलु एयं पेरणं, एसो खु पुरिसोति । कुमारेण भणियं -अज्ज, अह को उण इमो मच्चू । सारहिणा भणियंदेव, जेण घत्यो पुरिसो बंधवेहि पि एवं परिच्चइथइ । कुमारेण भणियं - अज्ज, दुट्ठो खु एसो अहिओ लोस्स; ता कीस ताओ एवं न वहेइ । सारहिणा भणियं- कुमार, अवज्झो एस तायस्स । कुमारेण भणियं- - आ कहमवज्झो नाम तायस्स । लोयपडिबोहणत्थं च मग्गियं खग्गं । 'अरे रे बुट्टमच्चु, मुंच मुंच एयं, ठाहि वा जुज्झसज्जो' त्ति भणमाणो उट्ठिओ रहवराओ, पयट्टो तस्स संमुहं । भणिओय सारहिणा - देव, न खलु मच्चू नाम कोइ दुट्टपुरिसो निग्गहारिहो राईण, अवि य जीवाणमेव सम्मपरिणामणिओ देहपरिच्चायधम्मो । ता अप्पहू एयस्स रायाणो, साहारणो खु एसो सव्वजीवाण । कुमारेण भणियं - भो नायरया, किमेवमेयं । नायरएहिं भणियं - देव, एवं । कुमारेण ८१८ अहो निर्वेदका रणपरम्परा, अहो असारता संसारस्य । ततः किमत्र कथयामि । न च न जानातीमं प्रपञ्चमेषः । अनभिज्ञस्य कथमीदृशी वाणी । अस्मादृशजनविबोधनार्थं तु तर्कये एष एवं चेष्टते । तत इदमंत्र प्राप्तकालम्, कथयाम्येतद् यथास्थितमिति । चिन्तयित्वा जल्पितं सारथिना - देव ! न खल्वेतत् प्रेक्षणकम्, एष खलु मृत्युग्रस्तः पुरुष इति । कुमारेण भणितम् - आर्य ! अथ कः पुनरयं मृत्युः । सारथिना भणितम् - देव ! येन ग्रस्तः पुरुषो बान्धवैरप्येवं परित्यज्यते । कुमारेण भणितम् - आर्य ! दुष्टः खल्वेषोऽहितो लोकस्य ततः कस्मात् तात एतं न घातयति । सारथिना भणितम् - कुमार ! अवध्य एष तातस्य । कुमारेण भणितम् - - आः कथमवध्यो नाम तातस्य । लोकप्रतिबोधनार्थं च मार्गितं खड्गम् । 'अरेरे दुष्टमृत्यो ! मुञ्च मुञ्चैतम् तिष्ठ वा युद्धसज्ज:' इति भणन् उत्थितो रथवरात् प्रवृत्तस्तस्य सम्मुखम् । भणितश्च सारथिना -देव ! न खलु मृत्युर्नाम कोऽपि दुष्टपुरुषो निग्रहार्हो राज्ञाम् अपि च जीवानामेव स्वकर्मपरिणामजनितो देहपरित्यागधर्मः । ततोऽप्रभव एतस्य राजानः, साधारणः खल्वेष सर्वजीवानाम् । कुमारेण भणितम् - भो नागरका : ! के कारण की परम्परा, ओह ससार की असारता ! अतः यहाँ क्या कहूँ ? ऐसी बात नहीं है कि यह इस जंजाल को न जानते हों । अनभिज्ञ व्यक्ति की ऐसी वाणी कैसे हो सकती है ? मैं अनुमान करता हूँ कि हम जैसे लोगों को अब समय आ गया है, इनसे सही बात कहता त करने के लिए यह इस प्रकार की चेष्टा कर रहे हैं। अतः हूँ - ऐसा सोचकर सारथी ने कहा - 'महाराज, यह नाटक नहीं है, यह मृत्यु से ग्रस्त पुरुष है।' कुमार ने कहा'आर्य ! यह मृत्यु क्या है ?' सारथी ने कहा- महाराज, इससे ग्रस्त हुए पुरुष को बान्धव भी छोड़ देते हैं । कुमार ने कहा - 'आर्य ! यह तो दुष्ट है, लोक के लिए अहितकारी है । तब पिताजी किस कारण से इसका घात नहीं करते हैं ?' सारथी ने कहा - 'कुमार ! यह तात (महाराज) द्वारा अवध्य है । कुमार ने कहा'आह, पिताजी क्यों नहीं मार सकते ?' और लोगों के प्रतिबोधन के लिए लिए खड्ग मँगाई । 'अरे दुष्ट मृत्यु ! छोड़ दे, छोड़ दे इसे, अथवा युद्ध को तैयार हो जा।' कहते हुए रथ से उठे और उसके सामने बढ़े । सारथी ने कहा - 'महाराज मृत्यु नाम राजा के द्वारा दण्ड देने योग्य कोई दुष्ट पुरुष नहीं, अपितु उत्पन्न शरीरपरित्यागरूप धर्म है। अतः इस पर राजा का पराक्रम साधारण है।' कुमार ने कहा- हे नागरिको ! क्या यह ऐसा ही जीवों का ही अपने कर्म के परिणाम से नहीं चलता। यह सभी जीवों के लिए Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमी भवो] ८१६ भणियं-अज्ज सारहि, एएण घत्थं पि कोस एए बंधवा एवं परिच्चयंति । सारहिणा भणियं-देव, किमेइणा संपयं, गओ खु एसो एत्थ कारणभूओ। कडेवरमिणं केवलं चिट्ठमाणमवगाराए । कुमारेण मणियं-अज्ज सारहि जइ एवं, ता कोस एए बंधवा विलवंति । सारहिणा भणियं- कुमार, पिओ खु एसो एएसि गओ दीहजताए, अदंसणमियाणि । एएण सरिऊण सुकयाइं सोयभरपीडिया अचयंता निरंभिउ अविज्जमाणोवायंतरा य एवं विलवंति। कुमारेण भणियं-अज्ज सारहि, जइ पिओ, कोस इमं नाणुगच्छति । सारहिणा भणियं-देव, असक्कमयं; न कहेइ गच्छंतो, नावेक्खए सिणेहं, न दोसइ अप्पणा, न नज्जए थाम, विचित्ता कम्मपरिणई, अणवट्ठिया संजोया, न ईइसो अणुबंधो; अओ नाणुगच्छंति । कुमारेण भणियं-अज्ज सारहि, जइ एवं, ता निरत्थया तम्मि पिई। सारहिणा मणियं देव, परमत्थओ एवं । कुमारेण भणियं-अज्ज सारहि, जइ एवं, ता को उण इहोवाओ। सारहिणा भणियं-देव, जोगिगम्मो उवाओ, न अम्हारिसेहि नज्जइ। कुमारेण भणियं-भो नायरया, किमेवमेयं । नायरएहि भणियं-देव, एवं । कुमारेण भणियं-भो जइ एवं, ता सव्वसाकिमेवमेतद् । नागरकैर्भ णितम् देव ! एवम् । कुमारेण भणितम्-आर्य सारथे ! एतेन ग्रस्तमपि कस्माद् एते बान्धवा एतं परित्यजन्ति । सारथिना भणितम्-देव ! किमेतेन साम्प्रतम्, गत खल्वेषोऽत्र कारणभूतः। कलेवरमिदं केवलं तिष्ठदपकाराय । कुमारेण भणितम्-आर्य सारथे ! यद्येवं ततः कस्मादेते बान्धवा विलपन्ति । सारथिना भणितम्- कुमार! प्रियः खल्वेष एतेषां गतो दीर्घयात्रया, अदर्शनमिदानीम् । एतेन स्मृत्वा सुकृतानि शोकभरपीडिता अशक्नुवन्तो निरोधम् अविद्यमानोपायान्तराश्चैवं विलपन्ति । कुमारेण भणितम्-आर्य सारथे! यदि प्रियः, कस्मादिम नानुगच्छन्ति । सारथिना भणितम्-देव ! अशक्यमेतद्, न कथयति गच्छन्, नापेक्षते स्नेहम, न दृश्यते आत्मना, न ज्ञायते स्थानम्, विचित्रा कर्मपरिणतिः, अनवस्थिताः संयोगाः, नेदशोऽनुबन्धः, अतो नानुगच्छन्ति । कुमारेण भणितम्-आर्य सारथे ! यद्येवं ततो निरर्थका तस्मिन प्रीतिः। सारथिना भणितम्--देव, परमार्थत एवम् । कुमारेण भणितम्-आर्य सारथे ! यद्येवं ततः किं पूनरिहोपायः। सारथिना भणितम् -देव ! योगिगम्य उपायः, नास्मादशयिते । कमारेण भणितम -भो नागरकाः ! किमेवमेतद् । नागरकैर्भणितम्-देव ! एवम् । कुमारेण भणितम् --भो यद्येवम है ?' नागरिकों ने कहा - 'महाराज ! ऐसा ही है।' कुमार ने कहा-'आर्य सारथी! इससे ग्रस्त होते हुए भी इसे बान्धव कैसे छोड़ देते हैं ?' सारथी ने कहा- 'महाराज ! अब इससे क्या, यहां इसका कारणभूत चला गया । केवल यह शरीर अपकार के लिए विद्यमान है।' कुमार ने कहा --'आर्य सारथी ! यदि ऐसा है तो ये बान्धव क्यों विलाप कर रहे हैं ?' सारथी ने कहा-'कुमार ! यह इनका प्रिय था, दीर्घयात्रा के लिए जाने के कारण अब इसका दर्शन नहीं हो सकेगा। इसके अच्छे कार्यों का स्मरण कर, शोक के भार से पीड़ित होकर उस शोक को रोक न पाने से, और कोई दूसरा उपाय विद्यमान न होने से ये विलाप कर रहे हैं।' कुमार ने कहा'आर्य सारथी ! यदि प्रिय है तो ये लोग इसका अनुसरण क्यों नहीं करते हैं ?' सारथी ने कहा-'यह अशक्य है, जाते हुए नहीं कहता है, स्नेह की अपेक्षा नहीं रखता है, अपने आपके द्वारा नहीं दिखाई देता है, स्थान नहीं जाना जाता है। कर्म की परिणति विचित्र है, संयोग अस्थिर हैं, इस प्रकार का सम्बन्ध नहीं है, अत: अनुसरण नहीं करते हैं ।' कुमार ने कहा-'आर्य सारथी ! यदि ऐसा है तो फिर यहाँ क्या उपाय है ?' सारथी ने कहा'महाराज ! उपाय योगियों के द्वारा जानने योग्य है; हम जैसे लोगों द्वारा नहीं जाना जाता है।' कुमार ने कहा -'हे नागरिको ! क्या यह सही है ?' नागरिकों ने कहा-'महाराज ! ऐसा ही है ।' कुमार ने कहा-'अरे, ऐसा Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० [समराइच्चकहा हारणे एयम्मि असोहणे पयईए अवयारए एगतेण विज्जमाणोवाए अचितिऊण एवं अलमिमिणा नच्चिएण, एओवाए चेव खलु एस जुतो जत्तो ति। एयमायण्णिऊण संविग्गा नायरया, पवन्ना केइ मगं, निबद्धाई बाहिबोयाई। अवेक्खिऊण कुमारस्स महाणुभावयं विम्हिया चित्तेण पडिबद्धा कुमारे, उवरया नच्चियवाओ, वावडा साहुवाए, पयट्टा जहोचियं करणिज्ज । एत्यंतरम्मि देवसेणमाहणाओ इमं वइयरमायण्णिऊण अहिययरभीएण राइणा कुमाराहवणनिमित्तं पेसिओ पडिहारो। समागओ एसो, भणियं च णेण-कुमार, महाराओ आणवेइ, जहा कुमारेण सिग्घमागंतव्वं ति। कमारेण भणियं-जं गुरू आणवेइ । भणिओ य सारही--अज्ज सारहि, नियतेहि रहवरं। 'जं कमारो आणवेइ' त्ति नियत्तिओ सारहिणा रहवरो। गओ नरवइसमीवं। पणमिओ ण राया। उवविट्टो तयंतिए, भणिओ य ण-कुमार, भणिस्सामि किंचि अहं कुमारं; ता अवस्समेव तं कायव्वं कुमारेण । कुमारेण भणियं--ताय, अलंघणीयवयणा गुरवो, न एवं संततभारारोवणे कारणमवगच्छामि । अहवा कि ममेइणा, अमीमंसा गुरू; सव्वहा जं ततः सर्वसाधारणे एतस्मिन्नशोभने प्रकृत्याभकारके एकान्तेन विद्यमानोपायेऽचिन्तयित्वैतमलमनेन नतितेन, एतदुपाये एव खल्वेष युक्तो यत्न इति । एवमाकर्ण्य संविग्ना नागरकाः, प्रपन्ना: केऽपि मार्गम्, निबद्धानि बोधिबोजानि । अवेक्ष्य कुमारस्य महानुभावतां विस्मिताश्चित्तेन प्रतिबद्धाः कुमारे, उपरता नर्तितव्याद्, व्यापृताः साधुवादे, प्रवृत्ता यथोचितं करणीयम् । - अत्रान्तरे देवसेनब्राह्मणादिमं व्यतिकरमाकाधिकतरभीतेन राज्ञा कुमाराह्वाननिमित्तं प्रेषितः प्रतीहारः । समागत एषः, भणितं च तेन-कुमार ! महाराज आज्ञ पयति, यथा कुमारेण शीघ्रमागन्तव्यमिति । कमारेण भणितम् यद् गुरुराज्ञापयति । भणितश्च सारथिः-आर्य सारथे ! निवर्तय रथवरम् । 'यत् कुमार आज्ञ पयत' इति निवर्तितः सारथिना रथवरः । गतो नरपतिसमीपम् । प्रणतस्तेन राजा। उपविष्टस्तदन्तिके, भणितश्च तेन-कुमार ! भणिष्यामि किञ्चिदहं कमारम्, ततोऽवश्यमेव तत् कर्तव्य मेव कुमारेण। कुमारेण भणितम् - तात ! अलङ्घनीयवचना गुरवः, न एवं सन्ततभारारोपणे कारणमवगच्छामि । अथवा किं ममैतेन, अमीमांस्या गुरवः, सर्वथा है तो सर्वसाधरण के लिए यह अशोभन होने, स्वभाव से अपकारी होने तथा एकान्त से उपाय विद्यमान होने पर ऐसे न सोचकर, इस नाचने से बस अर्थात् यह नाचना व्यर्थ है, इस उपाय में ही यह यत्न ठीक है।' यह सुनकर कुछ नागरिक उद्विग्न हुए, कुछ लोग मार्ग को प्राप्त हुए, ज्ञान के बीज बाँधे, कुमार को महानुभावता, देख कर चित्त से विस्मित हुए, कुमार से बँध गये,नृत्य से विरत हो गये, 'सच है सच है-ऐसा कहने लग गये, यथायोग्य कार्यों में लग गये । इसी बीच देवसेन ब्राह्मण से इस घटना को सुनकर अत्यधिक भयभीत राजा ने कुमार को बुलाने के लिए प्रतीहार भेजा । यह आया और इसने कहा - 'कुमार ! महाराज आज्ञा देते हैं कि कुमार शीघ्र आयें।' कुमार ने कहा-'पिताजी की जैसी आज्ञा।' सारथी से कहा-'आर्य सारथी ! रथ को लौटाओ।' 'कुमार की जो आज्ञा' ऐसा कहकर सारथी ने रथ लौटाया। कुमार राजा के पास गया। उसने राजा को प्रणाम किया, उनके पास बैठा । राजा ने कहा-'कुमार ! मैं कुमार से कुछ कहूँगा अतः कुमार को उसे अवश्य करना चाहिए।' कुमार ने कहा- 'पिताजी ! माता-पिता के वचन न लंघन करने योग्य होते हैं, इस प्रकार के निरन्तर भार के आरोपण का कारण नहीं जानता हूँ अथवा मुझे इससे क्या, बड़ों की आज्ञा के विषय में कुछ वितर्क नहीं करना चाहिए, जो आप Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमौ भवो ] - तुम्भे आणवेह | राइणा भणियं वच्छ, एरिसो चेव तुमं ति, केवलं मम नेहो अवरभद्र । ता भणिस्सं अवसरेण; संपयं करेहि उचियं करणिज्जं । कुमारेण भणियं-जं गुरू आणवेद ति । पण मऊण सविषयं निग्गओ कुमारी, गओ निययगेहं कथं उचियकरणिज्जं । अइक्कंता कes दिया । अन्नया समं असोयाईहि धम्मकहावावडस्स नियभवणसेविणो विसुद्धभावस्स समागओ पडिहारो । भणियं च णेण – कुमार, महाराओ आणवेइ, जहा 'आगया एत्थ तुह माउलसयासाओ केणावि पण अमहिया महंतया; ता कुमारेण सिग्धमागतव्वं 'ति । 'जं गुरू आणवेइ' त्ति मणिऊण उओि कुमारी, गओ सह असोयाईह रायसमीवं । दिट्ठो राया । पणमिऊण उबविट्टो तयंतिए । भणिओ य राहणा - वच्छ, पेसियाओ तुह मामएणं महारायखग्गसेणेणं सबहुमाणं आसत्तवेणि (य) विसुद्धाओ नियसुयाओ विग्भमवइकामलयाहिहाणाओ जीवियाओ वि इट्ठयराओ सयंवराओ दुवे कन्याओ । एयाओ य बहुमाणेण तस्स राइणो अणुवत्तमाणेण विसिलोयमग्गं अणुराएण यद् यूयमाज्ञापयत । राज्ञा भणितम् - वत्स ! ईदृश एव त्वमिति, केवलं मम स्नेहोऽपराध्यति । ततो भणिष्याम्यवसरेण, साम्प्रतं कुरूचितं करणीयम् । कुमारेण भणितम् - यद् गुरुराज्ञापयतीति । प्रणम्य सविनयं निर्गतः कुमारः, गतो निजगेहम्, कृतमुचितकरणीयम् । अतिक्रान्ताः कतिचिद् दिवसाः । =२१ अन्यदा सममशोकादिभिर्धर्मकथाव्यापृतस्य निजभवन सेविनो विशुद्धभावस्य समागतः प्रतिहारः । भणितं च तेन कुमार ! महाराज आज्ञापयति, यथा 'आगता अत्र तव मातुलसकाशात् harपि प्रयोजनाभ्यधिका महान्तः, ततः कुमारेण शीघ्रमागन्तव्यम्' इति । 'यद् गुरुराज्ञापयति' इति भणित्वोत्थितः कुमारः । गतः सहाशोका दिभी राजसमीपम् । दृष्टो राजा । प्रणम्योपविष्टस्तदन्तिके । भणितश्च राज्ञा-वत्स ! प्रेषिते तव मामवेन महाराजखड्गसेनेन सबहुमानमासक्तवचनीयविशुद्धे निजसुते विभ्रमवतीकामलताभिधाने जीवितादपीष्टतरे स्वयंवरे द्व े कन्यके । एते च बहुमानेन तस्य राज्ञोऽनुवर्तमानेन विशिष्टलोकमार्गमनुरागेण कन्ययोराज्ञया गुरुजनस्यावश्यं - सब आज्ञा देंगे सर्वथा वही होगा ।' राजा ने कहा- 'वत्स ! तुम ऐसे ही हो, (अर्थात् तुमसे यही अपेक्षा थी) केवल मेरा स्नेह ही यहाँ अपराध कर रहा है। अतः अवसर पाकर कहूँगा । अब योग्य कार्यों को करो । कुमार ने कहा'पिताजी की जो आज्ञा ।' विनयपूर्वक प्रणाम कर कुमार निकल गया। अपने निवास गया, योग्य कार्यों को किया । कुछ दिन बीत गये । 1 एक बार जब कुमार अपने घर पर अशोक आदि (मित्रों) के साथ धर्मकथा में विशुद्ध भावों से लगा हुआ था तब प्रतीहार आया और उसने कहा- 'कुमार ! महाराज आज्ञा देते हैं कि तुम्हारे मामा के साथ किसी प्रयोजन से विशिष्ट लोग आये हैं, अत: कुमार शीघ्र आवें ।' 'पिताजी की जो आज्ञा' ऐसा कहकर कुमार उठा और अशोक आदि के साथ राजा के पास गया। राजा को देखा । (कुमार) प्रणाम कर उनके पास बैठ गया । राजा ने कहा - 'कुमार ! तुम्हारे मामा महाराज खड्गसेन ने आदरपूर्वक लोकापवाद से रहित विभ्रमवती और कामलता नामक, प्राणों से भी अधिक प्यारी, दो कन्याएँ स्वयंवर में भेजी हैं। उन महाराज के प्रति आदर ( एवं ) दोनों कन्याओं के विशिष्ट सांसारिक मार्ग में अनुवर्तित अनुराग से तथा बड़ों की आज्ञा से कुमार अवश्य ही इष्ट Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ [समराइचकहा कन्नयाणं आणाए गुरुपणस्त अवस्सं कुमारेण इत्थसंपत्तीए आणं दियवाओ। एवं च कए समाणे तस्स राइणो विसिटुलोयस्स कन्नयाणं गरुसयणस्स य नियमेण निव्वुई संजायइ । एयमायण्णिऊण चितियं कुमारेण-अहो न सोहणमिणं । दुक्खहेयवो संजोया, निओयवयणं च एयं, अम्भत्थिओ य पुवि, तं पि मन्ने इमं चेव । अलंघणीया गुरवो, 'इटुत्थसंपत्तीए नियमेण निव्वुइ' त्ति सोहणा य वाणी, न यावि भावओ गुरुआणापराण संजायए असोहणं। एवमभिचितयंतो सासंकेण विय भणिओ महाराएण - वच्छ, अलमेत्थ चिताए, सुमरेहि मम पत्थणं । ता सा चेव एसा । न एत्थ भवओ कल्लाणपरंपरं मोत्तूण अन्नारिसो परिणामो । अओ अवस्समेव कायव्वं एवं कुमारेण । तो एयमायण्णिय 'अहो सोहणपरा वाणि' ति हरिसियमणेण जंपियं कुमारेण . ताय, जं तुम्भे आणवेह । एवं सोऊण हरिसिओ राया। भणियं च णेण - साहु वच्छ साहु, उचिओ ते विवेओ, सोहणा गुरुभत्ती, भायणं तुम कल्लाणाणं । अन्नं च, जाणामि अहं भवओ विसुद्धधम्मपक्खवायं, जुत्तो य एसो सयाण । असारो संसारो, नियाणं निव्वेयस्स; तहावि कुसलेण अणुयत्तियव्वो कमारेणेष्टार्थसम्पत्त्याऽऽनन्दयितव्ये । एवं च कृते सति तस्य राज्ञो विशिष्टलोकस्य कन्ययोर्गुरुजनस्य च नियमेन निर्वतिः सजायते । एवमाकर्ण्य चिन्तितं कुमारेण- अहो न शोभनमिदम् । दुःखहेतवः संयोगाः, नियोगवचनं चैतद्, अयथितश्च पूर्वम्, तदपि मन्ये इदमेव । अलङ्घनीया गरवः, इष्टार्थसम्पत्त्या नियमेन निर्वृतिः' इति शोभना च वाणी, न चापि भावतो गुर्वाज्ञापराणां सजायतेऽशोभनम् । एवमभिचिन्तयन् साशङ्केनेव भणितो महाराजेन-वत्स ! अलमत्र चिन्तया, स्मर मम प्रार्थनाम् । ततः सैवैषा । नात्र भवतः कल्याणपरम्परां मुक्त्वाऽन्यादृशः परिणामः । अतोऽवश्यमेव कर्तव्यमेतत् कुमारेण । तत एतदाकर्ण्य 'अहो शोभनतरा वाणी' इति हर्षितमनसा जल्पितं कुमारेण -तात ! यद् यूयमाज्ञापयत । एवं श्रुत्वा हर्षितो राजा । भणितं च तेन-साधु, उचितस्ते विवेकः, शोभना गुरुभक्तिः; भाजनं त्वं कल्याणानाम्। अन्यच्च, जानाम्यहं भवतो विशुद्धधर्मपक्षपातम् युक्तश्चेष सताम् । असारः संसारः, निदानं निर्वेदस्य, तथापि कुशलेनानुवर्तितव्यो पदार्थों की प्राप्ति से इन दोनों को अवश्य ही आनन्दित करें। ऐसा करने पर उन राजा को, विशिष्ट लोगों को तथा कन्या के माता-पिता को अवश्य ही शान्ति उत्पन्न होगी।' यह सुनकर कुमार ने सोचा-ओह ! यह ठीक नहीं है। संयोग दुःख के कारण हैं और यह बन्धन का वचन है। पहले प्रार्थना की गयी थी, फिर भी इसे ही मानता हूँ। बड़ों के वचन अलंघनीय होते हैं, 'इष्ट की प्राप्ति से निश्चित रूप से शान्ति होती है, यह वाणी ठीक है । भावपूर्वक बड़ों की आज्ञा में तत्पर लोगों का बुरा नहीं होता है, ऐसा सोचते समय मानो आशंका से मुक्त होकर महाराज ने कहा-'वत्स । चिन्ता मत करो, मेरी प्रार्थना का स्मरण करो। अतः यह वही है । यहाँ तुम्हारे कल्याण की परम्परा को छोड़कर अन्य प्रकार का परिणाम नहीं है, अतः कुमार को इसे अवश्य करना चाहिए । अनन्तर इसे सुनकर -'ओह वाणी अधिक सुन्दर है' इस प्रकार हर्षित मन से कुमार ने कहा'पिताजी ! जो आप आज्ञा दें।' यह सुनकर राजा हर्षित हुआ और उसने कहा-'ठीक है, ठीक है, तुम्हारा विवेक उचित है, बड़ों के प्रति भक्ति अच्छी है, तुम कल्याणों के पात्र हो। दूसरी बात यह है कि मैं धर्म के प्रति तुम्हारा पक्षपात जानता हूँ। यह सज्जनों के लिए उचित है। संसार असार है, वैराग्य का कारण है, तो Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो भवो] ८२३ लोयधम्मो, कायव्वा कुसलसंतती, जइयव्वं परोवयारे, अणुयत्तियन्वो कुलक्कमो । एवं च अन्भत्ये लोयधम्मे परिणए एगतेण निप्फन्ने पोरसे पइट्ठिए वंसम्मि जाणिए लोयसारे परिणए वयम्मि अवगएहिं उवद्दवेहि गुणभायणीकए अप्पाणे जुत्तं विसुखधम्मासेवणं । ता सोहणमणचिट्टियं कुमारेण । एवमेव भवओ परिणामसुंदरं भविस्सइ । एत्थंतरम्मि कच्छंतरगएण हरिसविसेसओ महया सद्देण जंपियं सिद्धत्थपुरोहिएण-भो अलं संदेहेण, अवस्समेव भविस्सइ । अणंतरं च वियंभिओ मंगलतूरसहो, गलगुलियं मत्तहस्थिणा, उग्घुट्टो जयजयारवो बदिलोएण । 'अणुगूलो सउणसंघाओ' ति हरिसिओ राया। भणियं च ण-कुमार, अवस्समेव एयं एवं हविस्सइ, अणुगलो सउणसंघाओ। अन्नं च, विसुद्धधम्मो विय कारणं चेव तुमं परमसुंदराण । गहियसउणत्थो हरिसिओ कुमारो। भणियं चण-नत्थि तायासीसाणमसज्झं । एत्थंतरम्मि पढियं कालनिवेयएण निण्णासिऊण तिमिरं मोहं च जणस्स संपयं सूरो। नहमज्झत्थो चेट्टाए धम्मकिरियं पवत्तेइ ॥६६७॥ लोकधर्मः, कर्तव्या कुशलसन्ततिः, यतितव्यं परोपकारे अनुवर्तितव्यः कुल क्रमः। एवं चाभ्यस्ते लो धर्भ परिणते एकान्तेन निष्पन्ने पौरुषे प्रतिष्ठिते वंशे ज्ञाते लोकसारे परिणते वयसि अपगतैरुपद्रवैर्गुणभाजनीकृते आत्मनि युक्तं विशुद्धधर्मासेवनम् । ततः शोभनमनुष्टितं कुमारेण । एवमेव भवतः परिणामसुन्दरं भविष्यति । अत्रान्तरे कक्षान्तरगतेन हर्षविशेषतो महता शब्देन जल्पितं सिद्धार्थपुरोहितेन - भो अलं सन्देहेन, अवश्यमेव भविष्यति । अनन्तरं च विजृम्भितो मङ्गलतर्यशब्दः, गुलुगुलितं मत्तहस्तिना, उद्धृष्टो जयजयारवा बन्दिलोकेन । 'अनुकूलः शकुनसंघातः' इति हर्षितो राजा । भणितं च तेन-कुमार! अवश्यमेवैतद् एव भविष्यति, अनुकूलः शकुनसंघातः । अन्यच्च, विशुद्ध धर्म इव कारणमेव त्वं परमसुन्दराणाम् । गृहीतशकुनार्थो हर्षितः कुमारः। भणितं च तेननास्ति ताताशिषामसाध्यम् । अत्रान्तरे पठितं कालनिवेदकेन - निश्यि तिमिरं मोहं च जनस्य साम्प्रतं सूरः । नभोमध्यस्थश्चेष्टया धर्मक्रियां प्रवर्तयति ॥६६७।। - - भी कुशल व्यक्ति को लोकधर्म का अनुसरण करना चाहिए, कुशल सन्तान उत्पन्न करना चाहिए, परोपकार में यत्न करना चाहिए, कुल परम्परा का अनुसरण करना चाहिए। इस प्रकार अभ्यस्त लोकधर्म के परिणत होने, अत्यन्त रूप से पौरुष की निष्पत्ति होने, वंश की प्रतिष्ठा होने और संसार का सार जानने पर वद्धावस्था में उपद्रवों से रहित होने तथा गुणों को आत्मा में पात्र बनाने पर विशुद्ध धर्म का सेवन करना ही युक्त है। अतः कुमार ने ठीक किया । इस तरह तुम्हारा परिणाम सुन्दर होगा।' इसी बीच दूसरे कमरे में गये हुए सिद्धार्थ पुरोहित ने विशेष हर्ष से जोर की आवाज में कहा - 'अरे ! सन्देह करना व्यर्थ है, अवश्य ही होगा।' अनन्तर मंगल बाजों का शब्द बढ़ा, मतवाले हाथी ने दहाड़ा, बन्दीजनों ने 'जय-जय' शब्द की घोषणा की। शकुनों का समूह अनुकूल है-इस प्रकार राजा हर्षित हुआ और उसने कहा- 'कुमार ! 3.वश्य ही यह इस प्रकार होगा, शकुन अनुकूल हैं । दूसरी बात यह है कि विशुद्ध धर्म के समान अत्यधिक कल्याणों के कारण तुम ही हो।' शकुन के अर्थ को ग्रहण कर कुमार हर्षित हुआ और उसने कहा-'पिताजी के आशीर्वादों से कुछ भी असाध्य नहीं है। इसी बीच कालनिवेदक ने पढ़ा - लोगों के अन्धकार और मोह को नाश कर अब सूर्य आकाश के मध्य में स्थित होकर चेष्टा द्वारा धर्म Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२४ मज्जति जणा केई देवाण करेंति केइ पूयाओ । anuts देति केई गुरुसुस्सूसापरा केई ||८| मोत्तूण भाणजोयं मुणओ वि जणस्सऽणुग्गहट्ठाए । fusaणत्थमन्नं जोयंतरमो पवज्जंति ॥ ६६ ॥ इय नयरीए नराहिव जणसमुदाओ विसुद्ध किरियाए । तुह मणुयजम्मसारं परमं सूएइ कल्लाणं ॥ १०००॥ तओ एयमायण 'अए कहं मज्भण्हसमओ'त्ति जंपियं राहणा - कुमार, संपाडेहि उचियकरणिज्जं । 'जंताओ आणवेह' त्ति पणमिऊण निग्गओ कुमारो। भणियं च राहणा- भो भो अमच्चा, करावेह तुम्भे समंतओ कुमारविद्धिसरिसं वद्धावणाई | अमचेहि भणियं जं देवो आणवेइ । पारद्धं च णेहि, दवावियं महादाणं, कराविया नयरिसोहा, पूइयाओ देवयाओ, निवेदयं पउराण, सद्दावियाई पायमूलाई, दवाविद्या आणंदभेरी, पूराविया हरिससंबा, विन्नत्तमंतउराण, समाहूया राइणो, निउत्ताइं पेच्छणयाई । तओ थेववेलाए चेव पहट्टपउरकलयलरवं पणच्चतेहि मज्जन्ति जनाः केऽपि देवानां कुर्वन्ति केऽपि पूजाः । दानादि ददति केऽपि गुरुशुश्रूषापराः केऽपि ॥८॥ मुक्त्वा ध्यानयोगं मुनयोऽपि जनस्यानुग्रहार्थम् । पिण्डग्रहणार्थ मन्यद् योगान्तरं प्रपद्यन्ते ॥ ६६ ॥ इति नगर्यां नराधिप ! जनसमुदायो विशुद्ध क्रियया । [समराइका तव मनुजजन्मसार परमं सूचयति कल्याणम् ॥ १०००॥ तत एवमाकर्ण्य 'अरे कथं मध्याह्नपमयः' इति जल्पितं राज्ञा - कुमार, सम्पादय उचितकरणोयम् । 'यत् तात अज्ञापयति' इति प्रणम्य निर्गतः कुमारः । भणितं च राज्ञा - भो भो अमात्याः ! कारयत यूयं समन्ततः कुमारवृद्धिसदृश वर्द्धापनादि । अमात्यैर्भणितम् - यद् देव आज्ञापयति । प्रारब्धं च तः, दापितं महादानम्, कारिता नगरीशोभा, पूजिता देवताः, निवेदितं पौराणाम्, शब्दायितानि पात्रमूलानि, दापिताऽऽनन्दर्भरी, पूरिता हर्षशङ्खा, विज्ञप्तमन्तःपुराणाम् । समाहूता राजानः, नियुक्तानि प्रेक्षणकानि । ततः स्तोकवेलायामेव प्रहृष्टपोरकलकलरवं प्रनृत्य क्रिया के प्रति प्रवृत्ति कर रहा है। कुछ लोग स्नान कर रहे हैं, कुछ देवों की पूजा कर रहे हैं, कुछ लोग दान दे रहे हैं, कुछ लोग गुरु की सेवा में रत हैं । ध्यानयोग को छोड़कर मुनि भी लोगों पर अनुग्रह करने के लिए भोजन ग्रहण करने हेतु दूसरे योग को प्राप्त हो रहे हैं। इस प्रकार हे राजन् ! नगरी में विशुद्ध क्रिया के द्वारा जनसमुदाय आपके उत्कृष्ट मनुष्यजन्म के साररूप कल्याण को सूचित कर रहा है ।। ६६७ १०००|| अनन्तर यह सुनकर - 'ओह, क्या मध्याह्न समय हो गया है ?' राजा ने 'करो।' जो आज्ञा पिताजी-ऐसा कहकर, प्रणाम कर, कुमार निकल गया। आप सभी लोग चारों ओर कुमार की बुद्धि के अनुरूप महोत्सवादि कराओ।' जो आज्ञा ।' उन्होंने प्रारम्भ कर दिया, अत्यधिक दान दिलाया गया, नगरी की शोभा पूजा की गयी । नगरवासियों से निवेदन किया गया, पात्रमूल (नर्तकों की एक जाति) बुलायी गयी । आनन्द की भेरी बजवायी गयी । हर्ष के शंख बजाये गये, अन्तःपुरिकाओं से निवेदन किया गया । राजाओं को बुलाया गया, खेल-तमाशे कराये गये । अनन्तर थोड़ी ही देर में, जबकि नगरवासी हर्षित होकर कोलाहल की ध्वनि कर रहे कहा- 'कुमार ! योग्य कार्यों को राजा ने कहा - 'हे हे मन्त्रियो ! मन्त्रियों ने कहा - " महाराज की करायी गयी, देवताओं की Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो भवो] ८२५ पायमलेहि वज्जतपुण्णाहतूरं गंभीरबंदिमंगलरवेण पवत्तपिट्ठाययरयं सोहियं सिंदूरधूलोए आउलं अंतेउरेहि मिलंतरायलो महया विमद्देण विसेसियतियसलोयं जायं महावद्धावणय। परिउट्टो राया। गणाविओ वारेज्जदियहो । साहिओ जोइसिएहि-देव,अज्जेव पंचमीए सोहणो त्ति । राइणा भणियंसुट्ट सोहणो। समाइट्टा अमच्चा। करेह विवाहसंजत्ति कुमारस्स । तेहि भणियं-देव, धन्नो कुमारो, कया चेव संजत्ती । किमेत्थमवरं कायव्वं । तहावि जं देवो आणवेइ। आइट्ठोणेहि भंडारिओ। मह, रयणायर, निरूवेहि पहाणमुहपंतोओ, समप्पेहि देवीण, नीणेहि नाणाहरणं, निउंजेहि दायए। तेण भणियं-जं अमच्चा आणवेंति, न एत्थ मे विलंबो। भणिओ चेलभंडारिओ-भद्द देवंगनिहि, पयडेहि देवंगाई, संपाडेहि परियणस्स, संजत्तेहि राय देवीण जोगाई, कारावेहि उल्लोयं । तेण भणयं --जं अमच्चा आणति, सव्वं सज्जमेयं । भणिओ महाउहबई-भद्द महामायलि, निस्वेहि महापहाणाउहाई, समप्पेहि नरकेसरीणं, नाणेहि रहवरे, निउंजेहि विविहसोहाए। तेण भणियं-जं द्भिः पात्रमूलैर्वाद्यमानपुण्याहतूर्यं गम्भीरबन्दिमङ्गल रवेण प्रवृत्तपिष्टातक रजः शोभितं सिन्दरधल्याऽऽकलमन्तःपुरमिलद्रराजलोकं महता विमण विषितत्रिदशलोकं जात महावर्धापनकम । परितुष्टो राजा। गणितो विवाहदिवसः। कथितो ज्योतिषिकः- देव, अद्यैव पञ्चम्यां शोभनइति । राज्ञा भणितम्-सुष्ठ शोभनः । समादिष्टा अमात्याः । कुरुत विवाहसंयात्रां कमाररय। तैर्भणितम्-देव ! धन्यः कुमारः, कृतव संयात्रा। किमत्रापरं कर्तव्यम् । तथापि यद् देव आज्ञापयति । आदिष्टस्तैर्भाण्डागारिकः-भद्र रत्नाकर ! निरूपय प्रधान मुख पंक्तीः (प्रधाशभसामग्रीः ?), समर्पय देवीनाम्, नय (निष्कासय) नानाभरणम्, नियुङ क्ष्व दायकान् । तेन भणितम्यदमात्या आज्ञापयन्ति, नात्र मे विलम्बः । भणितश्चेलभाण्डागारिक:-भद्र ! देवाङ्गनिधे ! प्रकटय देवदूष्यानि, सम्पादय परिजनस्य, संयात्रय राजदेवो नां योग्यानि, कारयोल्लोचम् । तेन भणितम्-यदमात्या आज्ञापयन्ति; सर्वं सज्जमेतत् । भाणतो महायुधपतिः - भद्र महामातले ! निरूपय महाप्रधानायुधानि, समर्पय नरकेसरिणाम, न्य (निष्कासय) रथवरान्, नियुङ क्ष्व ! विविधशोभया (सुभटानाम् ?) । तेन भणितम् - यदमात्या आज्ञापयन्ति, सम्पन्नमेवैतद् । भणितो थे, नर्तक नाच रहे थे, पुष्याह नामक बाजा बजाया जा रहा था, बन्दियों का गम्भीर मंगल शब्द हो रहा था, चूर्ण की धलि उड़ रही थी, सिन्दूर की धूलि शोभित हो रही थी, अन्त.पुर आकुल हो रहा था, राजा लोग मिल रहे थे तथा अत्यधिक भीड़ के कारण स्वर्गलोक की विशेषता को जो उत्पन्न कर रहा था-- ऐसा बहुत बड़ा उन्सव हुआ। राजा सन्तुष्ट हुआ । विवाह के दिन की गणना करायी। ज्योतिषियों ने कहा-'महाराज ! आज पंचमी ही शुभ है।' राजा ने कहा- 'ठीक है, शुभ है।' मन्त्रियों को आज्ञा दी-'कुमार की विवाहयात्रा कराओ।' उन्होंने कहा-'महाराज ! कुमार धन्य हैं। विवाहयात्रा की ही जा चुकी और क्या करना है तथापि जो महाराज की आज्ञा।' उन्होंने (अमात्यों ने) भण्डारी को आज्ञा दी-'भद्र रत्नाकर ! प्रधान शुभ सामग्री को दिखाओ, महारानियों को समर्पित करो, अनेक आभरणों को निकालो, देनेवालों को नियुक्त करो।' उसने कहा- 'जो आमात्य आज्ञा दें, इसमें मुझे विलम्ब नहीं है।' वस्त्रों के भण्डारी से कहा - 'भद्र देवांगनिधि ! वस्त्रों को निकालो, परिजनों को दो, महारानियों के योग्य वस्त्र भिजवाओ, चाँदनी लगवाओ ।' उसने कहा-'जो मन्त्री — आज्ञा दें। ये सब तैयार हैं।' महायुधपति से कहा – 'भन्न महामातलि ! प्रमुख बड़े आयुधों को दिखलाओ, Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चकहा अमच्या आणवेंति, संपन्नमेवेयं । भणिओ महापीलुवई - भद्द गर्योचतामणि, पयडेहि वेयंडे, संपाडेहि परियणस्स, संजतेहि वारुयाओ, करावेहि सव्वमुचियं । तेण भणियं-जं अमच्या आणवेंति, न एत्थ विक्खेवो । भणिओ महासवई - भद्द केकाणधूलि, गच्छ निरूवेहि वंदुराओ, भूसेहि तुरए, पेसेहि उचियाण, ठावेहि नरिदगोयरे । तेण भणियं -- जं अमच्चा आणवेंति, सिद्धमेवेयं । एवं च आएससमणंतरं जाव एवं संपज्जइ, ताव अवरेहि महया रिद्धिसमुवएण बहुयाजन्नावासे संपाडियं उचियकरणिज्जं निव्वत्तिओ महाउल्लोवो, ऊसियाइं मणितोरणाई, निबद्धा कंचणधया, ठविया कणयवेई, कया कंच मंगलकलसा, संजोइयं ण्हवणयं, पउत्तो कुलविही, महावियाओ वहुयाओ, पूयावियाओ मयणं, करावियाओ ति, भूसावियाओ मणहरं । एत्थंतरम्मि 'आसन्नं पसत्थं लग्गं सि पहाणजोहसियवयणाओ संपाडियसयलकुलविही पूजिऊण कुलदेवयाओ वंदिऊण गुरुयणं संमाणिकण मित्ते पेच्छिऊण मंगलाणि विवाहगमण निमित्तं समं असोयाईहिं समारूढो रहवरं कुमारो। उट्टिओ आनंदकलयलो, पहयाई मंगलतूराई, पणच्चियाओ वारविलासिणीओ, पगाइयाइं मंगल मंतेउराई, चलिया महापपति: ( महाहस्तिपकः ) - भद्र गजचिन्तामणे ! प्रकटय गजान्, सम्पादय परिजनस्य, संयात्रय वारुकाः (हस्तीनीः), कारय सर्वमुचितम् । तेन भणितम् - यदमात्या आज्ञापयन्ति, नात्र विक्षेपः ( विलम्बः) । भणितो महाश्वपतिः भद्र केकाणधूले ! ( अश्वचूडामणे ? ) गच्छ, निरूपय मन्दुराः (वाजिशाला:), भूषय तुरगान् प्रेषयोचितानाम्, स्थापय नरेन्द्रगोचरान् । तेन भणितम् - यदमात्या आज्ञापयन्ति, सिद्धमेवैतद् । एवं चादेशसमनन्तरं यावदेतत् सम्पद्यते तावदपरैर्महता ऋद्धिसमुदयेन वधुकाजन्यावासे सम्पादितमुचितकरणीयम् । निर्वर्तितो महोत्लोचः, उत्सितानि (बद्धानि) मणितोरणानि, निबद्धाः काञ्चनध्वजाः, स्थापिता कनकवेदिः कृताः काञ्चनमङ्गलकलशाः, संयोजितं स्नपनकम्, प्रयुक्तः कुलविधि, स्नपिते बधुके, पूजिते मदनम् कारिते रतिम् भूषिते मनोहरम् । अत्रान्तरे 'आसन्नं प्रशस्तं लग्नम्' इति प्रधानज्योतिषिकवचनाद् सम्पादितसकल कुल विधिः पूजयित्वा कुलदेवता वन्दित्वा गुरुजनं सम्मान्य मित्राणि प्रेक्ष्य मङ्गलानि विवागमननिमित्तं सममशोकादिभिः समारूढो रथवरं कुमारः । उत्थित आनन्दकलकलः, प्रहतानि मङ्गलतूर्याणि, प्रननिता ८२६ प्रधानपुरुषों को दो श्रेष्ठ रथों को निकालो, अनेक प्रकार की शोभा से युक्त योद्धाओं को नियुक्त करो।' उसने कहा - 'जो मन्त्रिगण आज्ञा दें। ये सब किया ही जा चुका है।' प्रधान महावत ( महा पिलुपति ) से कहा- 'भद्र गजचिन्तामणि ! हाथियों को निकालो, परिजनों को दिखाओ, हथनियों को तैयार करो, सब ठीक करो ।' उसने कहा - ' जो मन्त्रिगण आज्ञा दें। देर नहीं है ।' महाश्वपति ( प्रधान घुड़सवार) से कहा -- ' भद्र अश्वचूडामणि ( केकाणधूलि), जाओ, घुड़शालाओं को देखो, घोड़ों को विभूषित करो, योग्य घोड़ों को भेजो, राजमार्ग पर खड़ा करो ।' उसने कहा - 'जो आमात्य आज्ञा दें। यह किया ही जा चुका।' इस प्रकार के आदेश के बाद जब यह कार्य पूरा किया जाने लगा तब दूसरे लोगों ने बड़ी विभूति के साथ वधू के जनवास में योग्य कार्यों को कराया। बहुत बड़ी चांदनी लगायी, मणिनिर्मित तोरण बांधे गये, सोने की ध्वजाएं बाँधी गयीं, स्वर्णवेदी रखी गयीं, सोने के मंगलकलश स्थापित किये गये, स्नान का जल लाया गया, कुलविधि की गयी, दोनों बधुओं ने स्नान किया, कामदेव की पूजा की, रति की पूजा की, मनोहर आभूषण पहिने । इसी बीच शुभ लग्न (घड़ी) आ गयीइस प्रकार प्रधान ज्योतिषी के कथनानुसार समस्त कुलाचार को कर, कुलदेवियों की पूजा कर, गुरुजनों की वन्दना कर, मित्रों का सम्मान कर, मांगलिक वस्तुओं को देखकर, विवाह के निमित्त जाने के लिए अशोक आदि के साथ कुमार श्रेष्ठ रथ पर आरूढ़ हुआ । आनन्द की ध्वनि उठी, मंगल बाजे बजाये गये, वेश्याओं ने नृत्य Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मवमो भवो] ८२७ महारायाणो, पवियंभिओ भुयंगलोओ, आणंदिया नयरी, हरिसिओ राया। तओ महया विमद्देण संवेगमावियमई चितयंतो भवसरूवं थुन्यमाणो बंदीहिं पसंसिज्जमाणो लोएण पत्तो विवाहभवणं, ओइण्णो रहवराओ, संपाडिओ से विही, कयमणेणोचियं । विट्ठाओ वहूओ अइसंदराओ रूवेण । तत्थ विम्भमवई कणयावदाया, कामलया उण सामला, सिणिद्धदसणाओ य दो वि नियवणेहि । विन्भमवई गयदंतमई विय धीउल्लिया कंकुमकयंगराया अच्चंतं विरायए, कामलया उण धोइंदणीलमणिमई विय सरसहरियंदविलेवण त्ति । ताओ य दट्ठण चितियं कुमारेण - अहो एयासि कल्लाणा आगिई, पसत्थाई अंगाई, निक्कलंक लायण्णं, विसुद्धो आभोओ, उवसंता मुत्ती, संदराई लक्खणाइ, अणहा धीरया, उचिओ विणयमग्गो; अओ भवियव्वमेयाहिं पत्तभूयाहिं। एत्थंतरम्मि वत्तो हत्थग्गहो. जालिओ अग्गी. कयं जहोचियं, भमियाडं मंडलाइं, संपाडिया जणोक्यारा, दिन्नं महादाणं. घोसिया वरवरिया, वत्तो विवाहजन्नो, संपाडिया सरीरदिई। परिणओ वासरो, सीयलीहूयं रविबिबं, संहरिओ किरणनियरो, समागया संझा, कणयरसरज्जिय पिव जायं नहंगणं, वियंभिया पुन्ववारविलासिन्यः, प्रगीतानि मङ्गलमन्तःपुराणि, चलिता महाराजाः, प्रविम्भितो भुजङ्गलोकः, आनन्दिता नगरी, हर्षितो राजा। ततो महता विमर्देण संवेगभावितमतिश्चिन्तयन् भवस्वरूपं स्तयमानो बन्दिभिः प्रशस्यमानो लोकेन प्राप्तो विवाहभवनम्, अवतीर्णो रथवरात् सम्पादितस्तस्य विधिः, कृतमनेनोचितम् । दृष्टे वध्वौ अतिसुन्दरे रूपेण । तत्र विभ्रमवती कनकावदाता, कामलता पुनः श्यामला, स्निग्धदर्शने च द्वे अपि निजवर्णैः । विभ्रमवती गजदन्तमयीव पुत्रिका कुङ कमकृताङ्गरागाऽत्यन्तं विराजते, कामलता पुनधौ तेन्द्रनीलमणिमयीव सरसहरिचन्दनविलेपनेति । ते च दृष्ट्वा चिन्तितं कुमारेण - अहो एतयोः कल्याणाऽऽकृतिः, प्रशस्तान्यङ्गानि, निष्कलङ्क लावण्यम्, विशुद्ध आभोगः, उपशान्ता मूर्तिः, सुन्दराणि लक्षणानि, अनघा धीरता, उचितो विनतमार्गः, अतो भवितव्यमेताभ्यां पात्रभूताभ्याम् । अत्रान्तरे वृत्तो हस्तग्रहः, ज्वालितोऽग्निः, कृतं यथोचितम्, भ्रान्तानि मण्डलानि, सम्पादिता जनोपचाराः, दत्तं महादानम्, घोषिता वरवरिका, वृत्तो विवाहयज्ञः, समादिता शरीरस्थितिः। परिणतो वासरः, शीतलीभूतं रविबिम्बम्, संहृत: किरणनिकरः, समागताः सन्ध्या, कनकरसरजितमिव जातं नभोङ्गणम्, विजृम्मिता पूर्वदिक्, समुद्गतश्चन्द्रः, किया, अन्तःपुरिकाओं ने मंगल गीत गाये, महाराजा चले, विटों का समूह बढ़ा, नगरी आनन्दित हुई, राजा हर्षित हुआ । अनन्तर अत्यधिक भीड़ के साथ वैराग्य बुद्धि से संसार के स्वरूप का विचार करता हुआ, बन्दियों से स्तुति किया जाता हुआ, लोगों द्वारा प्रशंसा किया जाता कुमार विवाहभवन में आया, श्रेष्ठ रथ से उतरा, उसकी विधि का सम्पादन किया गया, इसने योग्य विधि पूरी की। अत्यन्त सुन्दर रूप में दोनों वधएं दिखाई दीं। उनमें विभ्रमवती स्वर्ण के समान स्वच्छ थी और कामलता श्यामवर्ण वाली थी, किन्तु अपने-अपने रंगों से दोनों मनोहरदर्शन वाली थीं। कुंकुम का अंगराग लगाये हुए विभ्रमवती हाथी-दांत से बनी हई गडिया के समान शोभित हो रही थी। सरस हरिचन्दन के विलेपन से युक्त कामलता स्वच्छ इन्द्रमनीलमणि से निर्मित गुड़िया के समान शोभित हो रही थी। उन दोनों को देखकर कुमार ने सोचा ओह ! इनकी आकृति कल्याणमय है, अंग प्रशस्त हैं, सौन्दर्य निष्कलंक है, छवि विशुद्ध है, मूर्ति शान्त है, लक्षण सुन्दर हैं, निष्पाप धैर्य है, विनय का मार्ग योग्य है अतः इन दोनों को पात्र होना चाहिए । इसी बीच पाणिग्रहण हुआ, अग्नि जलाई गयी, यथायोग्य कार्य किये गये, मण्डल घुमाये गये (फेरे हुए), लोगों का आदर किया गया, महादान दिया गया, ईप्सित वस्तु के दान की घोषणा की गयी, विवाह-यज्ञ पूरा हुआ, शारीरिक क्रियाएँ की । दिन ढल गया, सूर्य ठण्डा पड़ गया। किरणें लुप्त हुई, सन्ध्या आयी, आकाश का आँगन स्वर्ण रस से रंजित हो गया, Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइच्चकहा दिसा; समग्गओ चंदो, उल्लसिया नहसिरी, उवारूढो पओसो। एत्थंतरम्मि समं असोयाईहि विरायंतमणिपदीवं संगयं कुसुमोवयारेण सेवियं भमरावलीए पलंबमाण वंपयदाम वासियं पडवासेहिं संगयं पवरसयणीएण वियंभमाणसुरहिधूवं विहूसियं सपरिवाराहि वहूहि वासभवण मइयओ कुमारो। ससंभमाहिं अब्भुट्टिओ वहहिं । निसण्णो सयणीए। जहारहं च निसण्णा असोयाई वयंसया । उवविट्ठा सप्तयपोट्टसन्निहे चित्तावडिमसूरयम्मि विन्भमवई कामलया य । कुंदलयामाणिणीपमुहो तेसि सहियणो जहारुहं । नवरं विन्भमवईए कुंदलया कामलयाए य माणिणी सन्निहाणे उवविढाओ । इंगियागारकुसलाहिं मुणियकालकायव्वयाहिं उवणीयमेयाहिं कुमारस्स तंबोलं, समप्पिया य कुंदलयाए वउलकुसुममाला। भणियं च णाए-- कुमार, अच्चताणुरायओ सहत्थगुत्था खु एसा तुह पिययमाए त्ति । भणिऊण समप्पिया कुमारस्स। पडिच्छिया य तेणं । माणिणीए वि उवणीयं माहवीकुसुमदामं । भणियं च णाए-कुमार, एयं पि एवं चेव; ता निहेउ एयाई जहाजोयं कुमारो, करेउ एयासि सफलमणुरायं ति। कुमारेण भणियं उल्लसिता नभ:श्रीः, उप रूढ: प्रदोषः । अत्रान्तरे सममशोकादिभिविराजमणिप्रदीपं संगतं कुसुमोपचारेण सेवितं भ्रमरावल्या, प्रलम्बमानचम्पकदाम वासितं पटवासैः संगतं प्रवरशयनीयेन विज़म्भमाण सुरभिधूपं विभूषितं सपरिवाराभ्यां वधूभ्यां वासभवनं गतः कुमारः। ससम्भ्रमाभ्यामभ्युत्थितो वधूभ्याम् । निषण्णः शयनोये । यथार्ह च निषण्णा अशोकादयो वयस्याः । उपविष्टा शशकोदरसन्निभे चित्रपटीमसूरके विभ्रमवती कामलता च । कुन्दलतामानिनीप्रमुखस्तयोः सखीजनो यथार्हम । नवरं विभ्रमवत्याः कुन्दलता कामलतायाश्च मानिनी सन्निधाने उपविष्टे । इङ्गिताकारकुशलाभ्यां ज्ञातकालकर्तव्याभ्यामुपनीतमेताभ्यां कुमारस्य ताम्बूलम , समपिता च कुन्दलतया बकुलकुसुममाला। भणितं च तया-कुमार ! अत्यन्तानुरागतः स्वहस्तग्रथिता खल्वेषा तव प्रियतमयेति । भणित्वा समर्पिता कुमारस्य । प्रतीप्सिता च तेन । मानिन्याऽपि उपनीतं माधवीक सुमदाम । भणितं च तया-कुमार ! एतदप्येवमेव, ततो निदधातु एते यथायोगं कुमारः, करोत्वे तयोः सफल मनुराग पूर्व दिशा खुली, चन्द्रमा उदित हुआ, आकाशरूपी लक्ष्मी शोभायमान हुई, रात्रि का प्रथम प्रहर उत्पन्न हुआ। इसी बीच अशोकादि (मित्रों) के साथ कुमार शयनगृह गया। वह शयनगृह मणियों के दीपकों से सुशोभित हो रहा था, फूलों की सजावट से युक्त था, भ्रमरों की पंक्ति से सेवित था। वहाँ चम्पे की मालाएं लटक रही थीं। वह सुगन्धित द्रव्यों से सुवासित था। उत्कृष्ट शय्या से युक्त था । सुगन्धित धूप वहाँ बढ़ रही थी तथा सपरिवार दोनों वधुओं से विभूषित था। शीघ्र ही दोनों वधुएं उठ गयीं। कुमार शय्या पर बैठा। यथायोग्य स्थान पर अशोकादि मित्र बैठे । चन्द्रमा के समान चित्रपट वाले गद्दे पर विभ्रमवती और कामलता बैठीं। कुन्दलता और मानिनी प्रमुख उन दोनों की सखियाँ यथायोग्य स्थानों पर बैठीं। विभ्रमवती के पास केवल कुन्दलता और कामलता के पास मानिनी बैठीं। इशारे और संकेत में कुशल ये दोनों कर्तव्य का समय जानकर कुमार को पान लायीं और कुन्दलता ने बकुल के फूलों की माला समर्पित की और उसने कहा- 'कुमार! अत्यन्त अनुराग से आपकी प्रियतमा ने इसे अपने हाथ से गूंथा है'-कहकर कुमार को समर्पित की। कुमार ने स्वीकार कर ली। मानिनी भी माधवी पुष्पों की माला लायी और उसने कहा-'कुमार ! यह भी इसी प्रकार की है। अतः कुमार इन दोनों को यथायोग्य धारण करें। इन दोनों के अनुराग को सफल करें।' कुमार ने कहा-'इन Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो भवो ] १२९ भोईओ, ममोवरि एयासिमणराओ ति चितियव्वं । कुंदलयाए भणियं-चितियमिणं ति.। सुणेउ कुमारो। जयप्पभोइमेव बंदिणा समुग्धोसिज्जमाणं सुयं कुमारनामयं रायधूयाहि, तयप्पभोइमेव गहियाओ पमोएग विसाएण य थणंति रायकन्नयाजम्मं निदंति य, अब्भसंति कलाकलावं चयंति य, कुणंति कुमारसंकहं न कुणंति य, झिज्जति देहेण, वड्ढंति विम्भमेहि, मुच्चंति लज्जाए, घेप्पंति उव्वेवएण । एयं च पेच्छिऊण 'किमयं ति विसण्णो राया। निउणसहियायणाओ य निसुओ एस वइयरो। तओ 'थाणे अहिलासो' त्ति हरिसनिन्भरेण पेसियाओ इहं। आगच्छमाणीओ य 'संपन्नमम्हाण समीहियभहियं' ति मयणगोयरादीयवियारसुहसमेयाओ पवड्ढमाणेण सुहाइसएण इह संपत्ताओ ति । चितियं च एयासिमणुरायमंतरेण । कुमारेण चितियं-हंत अत्थि एयासि ममोवरि अणुराओ, अणुरत्ता य पाणिणो आयई न गणेति, आयणति वयणं, गेण्हति निवियप्पं, पयति भावेण, संपाडेति किरियाए। या इमं एत्थ पत्तयालं। करेमि एयासि धम्मदेसणं ति। चितिऊण जंपियं कुमारण-भोईओ, किमेवमेयं, अत्थि तुम्हाण ममोवरि अणुराओ ति। मिति । कुमारेण भणितम्-भवत्यौ ! ममोपर्येतयोरनुराग इति चिन्तयितव्यम् । कुन्दलतया भणितम-चिन्तितमिदमिति । शृणोतु कुमारः । यत्प्रभृत्येव बन्दिना समुद्घोष्यमाणं श्रुतं कमारनामकं राजदुहितभ्यां तत्प्रभ त्येव गृही ते प्रमोदेन विषादेन च स्तुतो राजकन्यकाजन्म निन्दतश्च, अभ्यस्यतः कलाकलापं त्यजतश्च, कुरुतः कुमारसंकथां न करुतश्च, क्षीयेते देहेन, वर्धते विभ्रमैः मुच्येते लज्जय', गृह्य ते उद्वेगेन । एतच्च प्रेक्ष्य 'किमेतद्' इति विषण्णो राजा। निपूणसखीजनाच्च निश्रत एष व्यतिकरः । ततः 'स्थ नेऽभिलाषः' इति हर्षनिर्भरण प्रेषिते इह । आगच्छन्त्यौ च 'सम्पन्नमावयोः समीहिताभ्यधिकम्' इति मदनगोचर।दिक विकारसुख समेते प्रवर्धमानेन सुखातिशयेनेह सम्प्राप्ते इति । चिन्तितं चैतयोरनुरागस्यान्तरेण । कुमारेण चिन्तितम्-हन्त अस्त्येतयोर्ममोपर्यनुरागः, अनुरक्ताश्च प्राणिन आयति न गणयन्ति, आ.र्णयन्ति वचनम्, गृह्णन्ति निर्विकल्पम, प्रवर्तन्ते भावेन, सम्पादयन्ति क्रियया-तत इदमत्र प्राप्त कालम् । करोम्येतयोर्धर्मदेशनामिति । चिन्तयित्वा जल्पितं कुमारण-भवत्यौ ! किमेवमेतद्, अस्ति युवयोर्ममोपर्यनुराग इति । एतदाकर्ण्य दोनों का मेरे ऊपर अनुराग है ऐसा आप दोनों को सोचना चाहिए ।' कुन्दलता ने कहा-'यही सोचा है । कुमार सुनिए ! जब से, बन्दी के द्वारा घोषित किये जाते हुए कुमार के नाम को दोनों राजपुत्रियों ने सुना उसी समय से ही प्रमुदित होकर स्तुति की और विषादयुक्त होकर राजकन्या के रूप में जन्म लेने की निन्दा की। कलाओं का अभ्यास करना छोड़ दिया, (बस) कुमार की कथा करती रहीं, और कुछ नहीं। दोनों की देह क्षीण होती गयी. विभ्रम बढ़ता गया, लज्जा छूटती गयी और उद्वेग ने ग्रहण कर लिया। यह देखकर 'यह क्या !' इस प्रकार महाराज खिन्न हए । निपुण सखीजनों से यह घटना सुनी। अनन्तर 'उचित स्थान पर अभिलाषा की इस प्रकार हर्ष से भरकर इन दोनों को यहाँ भेज दिया। आकर हम दोनों का मनोरथ अत्यधिक रूप से पूर्ण हो गया' इस प्रकार काम के मार्ग आदि विकाररूप सुखों से युक्त होकर बड़े हुए सुख की अधिकता से दोनों यहां आयी हैं । इन दोनों के अनुराग के विषय में जान लिया।' कुमार ने सोचा-हाय ! इन दोनों का मेरे ऊपर अनुराग है और अनुरक्त प्राणी फल को नहीं मानते हैं, वचनों को सुनते हैं, निर्विकल्प को ग्रहण करते हैं, भाव से प्रवृत्त होते हैं, क्रिया से सम्पादन करते हैं । तो यहाँ समय आ गया है। इन दोनों को धर्मोपदेश देता हूँऐसा सोचकर कुमार ने कहा- 'क्या यह ठीक है कि आप दोनों का मेरे ऊपर अनुराग है ?' यह सुनकर हर्ष Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चकहा मायणिऊण हरिसविसायसारं 'हंत किमयमतिगंभीरं मंतियं'ति चितिऊण वामचलणंगुट्टयालिहिमणिकोट्टिमं सविसेसंबंधुराहि न जंपियमिमोहिं । कुंदलयाए भणियं- कुमार, अमणमाणीहिं पि ature साहियमिमीहि कुमारस्स अहिप्पेयमिमिणा संभ्रमेण दिव्वबुद्धीए अवहारेउ कुमारो । कुमारेण भणियं - भोईओ, जइ एवं ता सुणेह जस्स जं पइ अहियपवत्तणिच्छा, तस्स तं पड़ कोइसो अणुराओ ति । माणिणीए भणियं - कुमार, कहमियमहियं ति नावगच्छामि । कुमारेण भणियं -- भोइ, सुण एत्थ नायं । ८३० after armsafare मयणउरं नाम नयरं । तत्थ पज्जुन्नाहिहाणो राया । रई नाम से भारिया । ताणं च विसयसुहमणुहवंताण अइक्कंतो कोइ कालो । अन्नया य गओ राया आसवाहणियाए । रईए य वित्तनिज्जूहट्टियाए दिसावलोयणसमयम्मि दिट्ठो रायमग्गवत्ती देवयाययणपत्थिओ विमलम सत्यवापुतो सुहंकरो नाम सेट्ठी जुवाणओ त्ति । तं च दट्ठूण अविवेयसामत्थओ अन्भत्थयाए गामधम्माण समुत्पन्नो तीए तस्सोवरि अहिलासो । पुलइओ सविब्भमं । एसा विय समागया हर्षविषादसारं 'हन्त किमेतदतिगम्भीरं मन्त्रितम्' इति चिन्तयित्वा वामचरणाङ्गुष्ठलिखितमणिकुट्टिमं सविशेषबन्धुराभ्यां न जल्पितमाभ्याम् । कुन्दलतया भणितम् कुमार ! अभणन्तीभ्यामपि वाचा कथितमाभ्यां कुमारस्याभिप्रेतमनेन सम्भ्रमेण दिव्पबुद्ध्याऽवधारयतु कुमारः । कुमारेण भणितम् - भवत्यौ ! यद्येवं ततः शृणुतम् । यस्यायं प्रत्यहितप्रवर्तनेच्छा तस्य तं प्रति कीदृशोऽनुराग इति । मानिन्या भणितम् - कुमार ! कथमिदमहितमिति नावगच्छामि । कुमारेण भणितम् - भवति ! शृण्वत्र ज्ञातम् । अस्ति कामरूपविषये मदनपुरं नाम नगरम् । तत्र प्रद्युम्नाभिधानो राजा - रतिर्नाम तस्य भार्या । तयोश्च विषयसुखमनुभवतोरतिक्रान्तः कोऽपि कालः । अन्यदा च गतो राजाश्ववाहनिकया । रत्या च विचित्रनिर्यूहस्थितया दिगवलोकनसमये दृष्ये राजमार्गवर्ती देवतायतनप्रस्थितो विमलमति सार्थवाहपुत्रः शुभङ्करो नाम श्रेष्ठी युवेति । तं च दृष्ट्वाऽविवेकसामर्थ्यतोऽभ्यस्ततया ग्राम्यधर्माणां समुत्पन्नस्तस्यास्तस्योपर्यभिलाषः । दृष्टः सविभ्रमम् । एषाऽपि च समागता तस्य दृष्टि और विषाद से युक्त होकर 'हाय, यह क्या गम्भीर बात पूछी' - ऐसा सोचकर बायें चरण के अँगूठे से माणजटित फर्श को कुरेदते हुए विशेष रूप से झुकी हुई ये दोनों नहीं बोलीं । कुन्दलता ने कहा- 'कुमार ! वाणी से न कहती हुई भी इन दोनों ने कुमार के अभिप्रेत को घबड़ाहट से कह दिया है। दिव्यबुद्धि से कुमार जान लें ।' कुमार ने कहा – 'यदि ऐसा है तो आप दोनों सुनिए । जिसकी जिसको अहित में प्रवृत्त कराने की इच्छा हो उसका उसके प्रति अनुराग कैसा ?' मानिनी ने कहा- ' कुमार ! यहाँ अहित कैसा ? मैं नहीं समझी ।' कुमार ने कहा - 'आप इस विषय में जानी हुई बात सुनिए । कामरूप देश में मदनपुर नाम का नगर था। वहाँ पर प्रद्युम्न नाम का राजा था। उसकी रति नाम की पत्नी थी। उन दोनों का विषय-सुख का अनुभव करते हुए कुछ समय बीत गया। एक बार राजा अश्ववाहनिका ( इक्के) से गया । विचित्र दरवाजे में खड़ी हुई रति ने दिशाओं को देखते हुए सड़क पर चलकर देवमन्दिर की ओर प्रस्थान करते हुए विमलमति सार्थवाह (व्यापारी) के पुत्र शुभंकर नामक युवा सेठ को देखा । उसे देखकर अविवेक की सामर्थ्य तथा विषयाभिलाओं के अभ्यास से उसकी उस पर अभिलाषा हो गयी। सविलास देखा । Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो भवो] ८३१ तस्स विद्विगोयरं, मोहदोसेण निरूविया, अन्झोववन्नो तीए। अहो चित्तन्नुओ ति परिउट्ठा रई। ठिओ सोएगदेसे मोहदोसेण, दुन्निवारणीओ मयणपसरो त्ति । 'हला, आणेहि एयं जुवइजणमणसुहं जुवाणय'ति भणिऊण पेसिया रईए अभिन्नरहस्सा जालिणी नाम चेडी। 'सुबुज्झाव(वि)याणि एत्थ वइयरे कामिहिययाई' ति पयारिऊणमाणिओ य णाए, पेसिओ वासहरे, उवविट्ठो पल्लंके । पणामियं से रईए तंबोलं, अद्धगहियमणेण । एत्यंतरम्मि सुओ बंदिकलयलो। 'समागओ राय' त्ति भीया रई । 'न एत्थ अन्नो उवाओ' ति पेसिओ कच्चहरए । पविट्ठो राया, उवविट्ठो पल्लंके, ठिओ कंचि वेलं । भणियं च णेण-अरे सद्दावेह वारियं, पविसामो पावरखालयं ति । सद्दिओ वारिओ। सुयमिणं सुहंकरेण । 'नियमओ वावाइज्जामि' त्ति अच्चंतभीएण जीवियाभिलासिणा अगाहे वच्चकुवे निच्चंधयारम्मि अच्चंतदुरहिगंधे निवासे किमिउलाण पवाहिओ अप्पा। निवडिओ वच्चहरयाओ कंठए, भरिओ (असुइएण, विधिओ किमोहि, निरुद्धो दिटिपसरो, संकोडियं अंगं, उइण्णा वेयणा, आउलीहूओ दढं, गहिओ संमोहेण । इओ य सो राया पच्चवेक्खियं अंगरखेंहि पविट्टो वच्चहरयं । गोचरम् । मोहदोषण निरूपिता, अध्युपपन्नस्तस्याम् । 'अहो चित्तज्ञ.' इति परितुष्टा रतिः । स्थितः स एकदेशे मोहदोषेण, दुनिवारणीयो मदनप्रसर इति 'हला (सखि), आनयतं युवतिजनमनःसुखं युवानम्' इति भणित्वा प्रषिता रत्याऽभिन्न रहस्या जालिनी नाम चेटी। 'सुबोधितानि अत्र व्यतिकरे कामिहृदयानि' इति प्रतार्यानीतश्च नया, प्रेषितो वासगृहे, उपविष्टः पल्यङ्क । अर्पितं तस्य रत्या ताम्बूलम्, अर्धगृहोतमनेन । अत्रान्तरे श्रुतो बन्दिकलकलः । 'समागतो राजा' इति भीता रतिः । 'नात्रान्य उपायः' इति प्रेषितो वर्चीगृहे । प्रविष्टो राजा, उपविष्टः पल्यङ्क, स्थितः काञ्चिद् वेलाम् । भणितं चानेन - अरे शब्दाययत नापितम् । प्रविशामः पायुक्षालकमिति । शब्दायितो नापितः । श्रुतमिदं शुभङ्करेण । 'नियमतो व्यापाये' इति अन्यन्तभीतेन जीविताभिलाषिणा अगाधे वर्चःको नित्यान्धकारेऽत्यन्तदुरभिगन्धे निवासे कृमिकलानां प्रवाहित आत्मा । निपतितो व!गहात् कण्ठके, भृतोऽशुचिना, विद्धः कृमिभिः; निरुद्धो दृष्टिप्रसरः, संकोटितमङ्गम् , उदीर्णा वेदना, आकलीभूतो दृढम्, गृहीतः सम्मोहेन । इतश्च स राजा प्रत्युपेक्षितं (शोधित) अङ्गरक्षकैः प्रविष्टो व!गृहम् । यह भी उसके दृष्टिगोचर हुई । मोह के दोष से देखा, उसके प्रति आसक्त हो गया। 'ओह चित्त को जानने वाला है' - इस प्रकार रति सन्तुष्ट हुई। वह मोह के दोष से एक ओर खड़ा हो गया। काम का विस्तार कठिनाई से रोका जाने योग्य होता है । 'सखी! युवतियों के मन को सुख देनेवाले इस युवक को लाओ'-ऐसा कहकर रति ने रहस्य का भेदन न करनेवाली जालिनी नामक दासी को भेजा। इस अवसर पर कामियों के हृदय जागत हैं' अत: छलपूर्वक यह ले आयी, शयनगृह में भेज दिया, पलग पर बैठ गया। रति ने उसे पान दिया । इसने आधा (पान, लिया। इसी बीच बन्दियों का कोलाहल सुनाई दिया। 'राजा आ गये हैं' - इस प्रकार रति भयभीत हुई। यहाँ अन्य कोई उपाय नहीं है अतः शौचालय में भेज दिया। राजा प्रविष्ट हुआ, पलग पर बैठा, कुछ समय बैठा रहा। इसने कहा - 'अरे ! नाई को बुलाओ। शौचालय में प्रवेश करें।' नाई को बुलाया। यह शुभंकर ने सुना। 'निश्चित रूप से मारा जाऊँगा' - अत्यन्त भयभीत होकर जीने की अभिलाषा से अगाध वर्चकप (शौचालय का गड्ढा, मोरी) में जहाँ पर कि सदैव अन्धकार रहता था, कीडों के समह का निवास था अपने आपको डाल दिया। शौचालय से कण्ठक (मोरी) में गिर गया, अपवित्र पदार्थ से भर गया, कीड़ों से बिंध गया, नेत्रों का विस्तार रुक गया, देह सिकुड़ गयी, वेदना उत्पन्न हुई, अत्यधिक आकुल हो गया, मूच्छित हो Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३२ [समराइच्चकहा कया सरीरदिई । निग्गओ वच्चहराओ, ठिओ रईए सह चित्तविणोएण । अइक्कतो वासरो। ठिओ अस्थाइयाए। एत्यंतरम्मि निरूवाविओ सुहंकरो रईए। न दिट्ठो य तहियं भणियं च णाए-हला जालिणि, कहं पुण सो भविस्सइ । तीए भणियं -देवि, भयाहिहूओ नणं पवाहिऊण अप्पाणयं वच्चफूवे मओ भविस्सइ । रईए भणियं- एवमेयं, कहमन्नहा अदंसणं ति । अवगया तच्चिता। इओ य सो सुहंकरो तम्मि वच्चकूवे तहादुक्खपीडिओ भवियव्वयानिओएण विइतकम्मवसवत्ती असुचिरसपाणभोयणो गमिऊण कंचि कालं विसोहणनिमित्तं फोडिए वच्चहरए असुइनिग्गमणमग्गेण वावन्नदेहच्छवी पणटुनहरोमो निग्गओ रयणीए । परखालिओ कहंचि अप्पा । महया परिकि लेसेण गओ नियया वणं । 'को एसो अमाणुसो' ति भीओ से परियणो। भणियं सुहंकरेण-- मा बीहेह. सुहंकरो अहं । विमलमइणा भणियं-पुत्त, कि तए कयं, जेण ईइसो जाओ; किं वा तुज्झ विमोक्खणं कीरउ । सुहंकरेण भणियं-ताय, अलं मझ मरणासंकाए। सो च्चेव अहं । तं च कयं, जेण ईइसो जाओ म्हि; तं साहेमि मंदभग्गो तायस्स। किं तु विवित्तमाइसउ ताओ। अवगओ परियणो । 'न कृता शरीरस्थितिः। निर्गतो व!गहात, स्थितो रत्या सह चित्रविनोदेन । अतिक्रान्तो वासरः स्थित आस्थानिकायाम् । अत्रान्तरे निरूपितः शुभकरो रत्या। न दृष्टश्च तत्र। भणितं च तयाहला जालिनि ! कथं पुनः स भविष्यति। तया भणितम् -- देवि ! भयाभिभूतो नूनं प्रवाह्यात्मानं वर्चःकूपे मतो भविष्यति । ररया भणितम्-एवमेतत्, कथमन्यथाऽदर्शन मिति । अपगता तच्चिन्ता। इतश्च स शभङ्करस्तस्मिन् वर्चःकूपे तथा दुःखपीडितो भवितव्यतानियोगेन विचित्रकर्मवशवर्ती अशुचिरसपानभोजनो गमयित्वा कञ्चित् कालं विशोधननिमित्तं स्फोटिते वक़गृहेऽशुचिनिर्गमनमार्गेण व्यापन्नदेहच्छवि: प्रनष्टनखरोमा निर्गतो रजन्यम्। प्रक्षालित: कचिदात्मा। महता परिक्लेशेन गतो निजभवनम् । 'क एषोऽपानुषः' इति भीतस्तस्य परिजनः। भणितं शभङ्करणमा बिभीत, शुभङ्करोऽहम् । विमलमतिना भणितम्-पुत्र ! किं त्वया कृतम्, येनेदृशो जातः, किं वा तव विमोक्षणं क्रियताम् । शुभकरण भणितम् - तात ! अलं मम मरणःशङ्कया। स एवाहम् । तच्च कृतं येनेदृशो जातोऽस्मि, तत् कथयामि मन्दभाग्यस्तातस्य, किन्तु विविक्तमादिशतु तातः । गया। इधर वह राजा अंगरक्षकों से शोधित शौचालय में प्रविष्ट हुआ । शारीरिक क्रिया की। शौचालय से निकल आया, रति के साथ अनेक प्रकार के विनोद करता हुआ बैठा। दिन बीत गया। राजा राजसभा में बैठा। इसी बीच रति ने शुभंकर को देखा। वहाँ दिखाई नहीं दिया । उसने कहा-'सखी जालिनी ! उसका क्या हुआ होगा?' उसने कहा-'महारानी! भय से अभिभूत होकर निश्चित रूप से अपने को मोरी में गिराकर मर गया होगा।' रति ने कहा-'यही बात है, नहीं तो दिखाई क्यों नहीं दिया ?' उसकी चिन्ता दूर हुई। इधर वह शुभंकर उस शौचालय के गडढे में उस प्रकार के दु:ख से पीड़ित होकर होनहार के कारण विचित्र कर्मों के वश होकर, अपवित्र का रसपान कर कुछ समय बिताकर धोने के लिए शौचालय के खुलने पर अशुचि के निकलने के मार्ग से रात्रि में निकल गया। उसके शरीर की प्रभा मारी गयी (नष्ट हो गयी), नाखून और रोम नष्ट हो गये । किसी प्रकार अपने को धोया। बड़े क्लेश से अपने भवन गया। 'यह कौन अमानुष है'-इस प्रकार उसके परिजन भयभीत, हुए। शुभंकर ने कहा - 'मत डरो, मैं शुभंकर हूँ।' विमलमति ने कहा- 'पुत्र ! तुमने क्या किया जिससे ऐसे हो गए ? अथवा तुम्हें छोड़ दें ?' शुभंकर ने कहा-'पिता जी ! मेरे मरण की शंका मत करो। मैं वही हैं। वह किया, जिससे ऐसा हो गया हूं, मन्दभाग्य मैं वह सब पिताजी से कहता हूँ, किन्तु पिताजी ! एकान्त में मिलने की Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमी भवो ] एत्थ अन्नो उवाओ, जहट्ठियमेव साहेमि'त्ति चितिऊण साहियमणेण (पवेसाइनिग्गमणपज्जव साणं नियतं तं ) । 'अहो अकज्जासेवण संकष्पफलं ति संविग्गो से पिया । पेसिओ णेण गेहं । कओ निवायथामे, संतपिओ सहस्सपागाई हिं, कालपरियाएण समागओ पुव्वावत्थं । उचियसमएण पयट्टो देवयाययणं, ओइण्णो रायमग्गे, दिट्ठो रईए । तहेव सामपुव्वयं पेसिया से जालिणी । मोहदोसेण समागओ सुहंकरो । आगयमेते य समागओ राया । तहेव जायाइं वच्चकूदे पडणनिग्गमणाई । पुणो पण पुणो दिट्ठो, पुणो पेसिया पुणो वि हम्मिओ । एवं पुणो बहुसो ति । तओ पुच्छामि तुम्भे, कि तीए रईए तम्मि सुहंकरे अणुराओ अस्थि किं वा नस्थिति । माणिणीए भणियं - कुमार, परमत्थओ नत्थि । बुद्धिरहिया य सा रई; जेण न निरूवेइ वत्युं न निहालए नियभावं, न पेच्छए सपरतंतयं, न चिंतेइ तस्सायई ति । कुमारेण भणियं - भोइ, जइ एवं. ता ममम्मि वि नत्थि एयासिमणुराओ, बुद्धिरहियाओ य एयाओ । जेण असुंदरे पयईए निबंधणे इस्साईणं चंचले सरूवेण इच्छंति तुच्छभोए त्ति; अओ न निरूवेंति वत्युं । तहा सव्युत्तमं माणुसत्तं अपगतः परिजनः । 'नात्रान्य उपाय:, यथास्थितमेव कथयामि इति चिन्तयित्वा कथितोऽनेन ( प्रवेशादिनिपर्यवसानो निजवृत्तान्तः) । 'अहो अकार्यासेवन संकल्पफलम्' इति संविग्नस्तस्य पिता । प्रेषितस्तेन गेहम् । कृतो निवातस्थाने, सन्तर्पितः सहस्रपाकादिभिः, कालपर्यायेण समागतः पूर्वावस्याम् । उचितसमयेन प्रवृत्तो देवतायतनम् अवतीर्णो राजमार्गे दृष्टो रत्या । तथैव सामपूर्वकं प्रेषिता तस्य जालिनी । मोहदोषेण समागतः शुभङ्करः । आगतमात्रे च समागतो राजा । तथैव जातानि वर्चः कूपे पतननिर्गमनानि । पुनः प्रगुणः पुनः दृष्टः, पुनः प्रेषिता, पुनरपि गतः । एवं पुनर्बहुश इति । ८३३ ततः पृच्छामि युवाम्, किं तस्या रत्यास्तस्मिन् शुभङ्करेऽनुरागोऽस्ति किं वा नास्तीति । मानिन्या भणितम् — कुमार ! परमार्थतो नास्ति । बुद्धिरहिता च सा रतिः, येन न निरूपयति वस्तु, न निभालयति निजभावम्, न प्रेक्षते स्वपरतन्त्रताम् न चिन्तयति तस्यायतिमिति । कुमारेण भणितम् - भवति ! यद्येवम्, ततो मय्यपि नास्त्येतयोरनुरागः, बुद्धिरहिते चैते । येनासुन्दरान् प्रकृत्या निबन्धनानीर्ष्यादीनां चञ्चलान् स्वरूपेणेच्छतस्तुच्छभोगानिति, अतो न निरूपयतो वस्तु । आज्ञा दीजिए। परिजन चले गये । 'यहाँ पर अन्य कोई उपाय नहीं है अत: ठीक ठीक कहता हूँ' - ऐसा सोचकर इसने प्रवेश से लेकर निकलने तक का वृत्तान्त कहा । 'ओह ! अकार्य के सेवन करने के संकल्प का फल - इस प्रकार उसके पिता घबराये । उन्होंने घर भेजा । शान्त स्थान में रखा, सहस्रपाक (हजार औषधियों से बनाया हुआ एक प्रकार का तेल ) आदि से सेंक किया । समय पाकर पहली अवस्था में आ गया। योग्य समय पर देवमन्दिर गया, राजमार्ग (सड़क) पर उतरा, रति ने देखा । उसी प्रकार समझाकर उसने जालिनी को भेजा । मोह के दोष से शुभंकर आया । आते ही राजा आ गया। उसी प्रकार मलाशय में गिरना और निकलना। फिर से ठीक हुआ । रति ने पुनः देखा, फिर से जालिनी को भेजा, फिर से गया। इस प्रकार पुनः अनेक बार हुआ । अतः आप दोनों से पूछता हूँ, उस रति का शुभंकर में अनुराग है अथवा नहीं ? वह रति बुद्धिहीन है, जिस कारण वस्तु को नहीं देखती है, अपने भाबों को नहीं पहचानती है, अपनी परतन्त्रता को नहीं देखती हैं, उसका भावीफल नहीं देखती है। कुमार ने कहा- 'भवती ! यदि ऐसा है तो मेरे प्रति भी इन दोनों का अनुराग नहीं है और ये दोनों बुद्धिरहित हैं, जिससे स्वभाव से असुन्दर बन्धनों को ईर्ष्यादि के चंचल स्वरूप से तुच्छ भोगों Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चकहा दुल्लहं भवसमुद्दे पाहणं नेव्वाणस्स न निउंजेंति धम्मेत्ति; अओ न निहालेंति नियभावं । तहा भुवणडामरो मच्चू अइकूरो पयईए, गोयरे तस्स एयाओ न चितयंति अत्तयं ति; अओन पेच्छति सपरतंतयं । तहाऽसुंदरं विसयविसं अइमोहणं जीवाणं हेऊ गन्भनिरयस्स, निउंजंति मं तत्थ त्ति; अओ म चिति मज्झायई । ता एवं ववस्थिए अहियपवत्तणेण भण कहं एयासि परमत्थओ ममोवरि अणुराओ ति । एयमाय णिऊण संविग्गाओ बहूओ, जाया विसुद्धभावणा, खविओ कम्मरासी पाविधं देसचरणं । तओ सद्धाइसएण सबहुमाणं पणमिऊण कुमारचलणजुयलं जंवियमिमीहि । उज्जउत्त, एवमेयं, न एत्थ किंचि अन्नारिसं । विग्भमवईए भणियं - अज्जउत्त, मम उण इमं सोऊण अवगer विय मोहो, समुप्पन्नमिव सम्मं नाणं, नियत्तो विय विसयराओ, संजायमिव भवभयं ति । कामलयाए भणियं - -अज्जउत्त, ममावि सव्वमेयं तुल्लं । ता एवं ववत्थिए अंगीकयजणोचियं सरिसं नियाणुरायस्स आणवेउ अज्जउत्तो, जमम्हेहि कायव्वं ति । कुमारेण भणियं - साहु भोईओ साहु, उचिओ विवेओ, सुलद्धं तुम्हाण मणुयत्तं, जेण ईइसी कुसल बुद्धि त्ति । ता इमं एत्थ जुत्तं । एए खु ८३४ तथा सर्वोत्तमं मानुषत्वं दुर्लभं भवसमुद्रे प्रसाधनं निर्वाणस्य न नियोजयतो धर्मे इति, अतो न निभालयतो निजभावम् । तथा भुवनडमरो ( - भयङ्करो ) मृत्युरतिक्रूरः प्रकृत्या, गोचरे तस्यैते न चिन्तयत आत्मानमिति, अतो न पश्यति स्वपरतन्त्रताम् । तथाऽसुन्दरं विषयविषमतिमोहनं जीवानां हेतुर्गर्भ निरयस्य, नियोजयतो मां तत्रेति, अतो न चिन्तयतो ममायतिम् । तत एवं व्यवस्थिते अहितप्रवर्तनेन भण कथमेतयोः परमार्थतो ममोपर्यंनुराग इति । एतदाकर्ण्य संविग्ने वध्वी, जाता विशुद्धभावना, क्षपितः कर्मराशिः, प्राप्तं देशचरणम् । ततः श्रद्धातिशयेन सबहुमानं प्रणम्य कुमारचरणयुगलं जल्पितमाभ्याम् - आर्यपुत्र ! एवमेतद्, नात्र किञ्चिदन्यादृशम् । विभ्रमवत्या भणितम्आर्यपुत्र ! मम पुनरिदं श्रुत्वाऽपगत इव मोहः समुत्पन्नमिव सम्यग् ज्ञानम्, निवृत्त इव विषयरागः, सञ्जातमिव भवभयमिति । कामलतया भणितम् - आर्यपुत्र ! ममापि सर्वमेतत् तुल्यम् । तत एवं व्यवस्थितेऽङ्गीकृतजनोचितं सदृशं निजानुरागस्याज्ञापयत्वार्यपुत्रः यदावाभ्यां कर्तव्यमिति । कुमारेण भणितम् - साधु भवत्यौ ! साधु, उचितो विवेकः, सुलब्धं युवयोर्मनुजत्वम्, येनेदृशी कुशल को चाहती हैं, अतः वस्तु को नहीं देखती हैं तथा संसार-समुद्र में दुर्लभ सर्वोत्तम मनुष्यत्व को निर्वाण के प्रसाधन के लिए धर्म में नहीं लगाती हैं, अतः अपने भावों को नहीं पहचानती हैं। मृत्यु भयंकर है, स्वभाव से अतिक्रूर है, उसके मार्ग में ये दोनों अपने आपका विचार नहीं करती हैं। अतः अपनी परतन्त्रता को नहीं देखती हैं। विषयरूपी विष असुन्दर हैं, जीवों को अत्यन्त मोहित करनेवाले हैं, गर्भरूप नरक के कारण हैं। मुझे चूंकि वहाँ नियुक्त करती हैं, अत: मेरे भावी परिणाम की चिन्ता नहीं करती हैं। अतः ऐसी स्थिति में अहित में ही प्रवृत्ति कराने के कारण कहो कैसे यथार्थ रूप से इन दोनों का मेरे प्रति अनुराग है ? यह सुनकर दोनों बधुएँ उद्विग्न हुईं, विशुद्ध भावना उत्पन्न हुई, कर्मराशि नष्ट हो गयी, एकदेश चारित्र प्राप्त किया । अतः श्रद्धा की अधिकता से आदरपूर्वक कुमार के चरणों को प्रणाम कर इन दोनों ने कहा- 'आर्यपुत्र ! यह ऐसा ही है, किसी अन्य प्रकार का नहीं है ।' विभ्रमवती ने कहा- 'आर्यपुत्र ! यह सुनकर मानो मेरा मोह नष्ट हो गया, सम्यग्ज्ञान उत्पन्न हो गया, विषयों के प्रति राग की निवृत्ति हो गयी । संसार से भय उत्पन्न हो गया ।' कामलता ने कहा- 'आर्यपुत्र ! मेरे लिए भी ये सब वैसे ही हैं, अतः ऐसी स्थिति में लोगों के योग्य स्वीकार्य अपने अनुराग के सदृश आर्यपुत्र आज्ञा दें कि हम लोगों का क्या कर्त्तव्य है ।' कुमार ने कहा- 'आप दोनों अच्छी हैं, ठीक हैं, विवेक उचित है, आप दोनों ने Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमी भवो ] विसया मोहजणिया मोहहेयवो मोहसरूवा मोहाणुबंधा; संकिलेसजणिया संकिलेस हेयवो संकिलेसरूवा संकिसानुबंध त्ति परिच्चयह जावज्जीव, छड्डेह मोहचेट्टियाइ, अंगीकरेह पसमं, भावेह कुसल बुद्धि, freवेह भववियारे, आलोचेह चित्तेण, संतप्पेह गुरूणं, उज्जमेह धम्मेति । एयमायणिऊण विसुद्ध - यरपरिणामाहिं निम्बडियभावसारं जंपियमिमी हि-जं अज्जउत्तो आणवेइ। परिचत्ता जावज्जीव- मेव अम्हेहि अज्जउत्त तुम्हाणुमईए विसया, सेसे उ सत्ती पमाणं । एयमायणिऊण हरिसिओ कुमारो | चितियं च णेण - अहो एयासि धन्नया, अहो सुधीरत्तणं, अहो निरवेक्खया इहलोयं पर, अहो समुयायारो, अहो हलुयकम्मया, अहो उवसमो, अहो परमत्यन्नुया, अहो वयणविन्नासो, अहो महत्त्तणं अहो गंभीरयति । चितिऊण जंपियमणेण - साहु भोईओ साहु, कयत्था खु तुम्भे अणुमयं ममेयं तुम्भकुसलाण्ट्ठाणं । परिचत्ता भए वि जावज्जीवं विसया, अगीकयं बम्भचेरं । 'अहो सोहणं अहो सोहणं ति जंपियं असोयाईहिं । वढिओ कुसलपरिणामो । अहासन्निहिय aure निओएण निर्वाडिया कुसुमवट्टी | आनंदिया सव्वे । एत्थंतरम्मि 'अहो धन्नया एयासि बुद्धिरिति । तत इदमत्रयुक्तम् । एते खलु विषया मोहजनिता मोहहेतवा मोहस्वरूपा मोहानुबन्धाः संक्लेश जनिताः संक्लेशहेतवः संक्लेशस्वरूपाः संक्लेशानुबन्धा इति परित्यजतं यावज्जीवम्, मुञ्चतं मोहचेष्टितानि, अङ्गीकुरुतं प्रशमम् भावयतं कुशलबुद्धिम्, निरूपयतं भवविकारान्, आलोचयतं चित्तेन, सन्तर्पतयतं गुरून्, उद्यच्छतं धर्मे इति । एतदाकर्ण्य विशुद्धतरपरिणामाभ्यां निर्वृत्तभावसार जल्पितमाभ्याम् - यदार्यपुत्र आज्ञापयति । परित्यक्ता यावज्जीवमेवावाभ्यां आर्यपुत्र ! युष्माक मनुमत्या विषयाः शेषे तु शक्ति: प्रमाणम् । एतदाकण्यं हृषितः कुमारः । चिन्तितं च तेन - अहो एतयोर्धन्यता, अहो सुधीरत्वम्, अहो निरपेक्षतेहलोकं प्रति, अहो समुदाचारः, अहो लघुकर्मता, अहो उपशमः, अहो परमार्थज्ञता, अहो वचनविन्यासः, अहो महार्थत्वम्, अहो गम्भीरतेति चिन्तयित्वा जल्पितमनेन - साधु भवत्यो ! साधु, कृतार्थ खलु युवाम्, अनुमतं ममंतद् युवयोः कुशलानुष्ठानम् । परित्यक्ता मयाऽपि यावज्जीवं विषयाः, अङ्गीकृतं ब्रह्मचर्यम् । अहो 'शोभन महो शोभनम्' इति जल्पितमशोकादिभिः । वर्धितः कुशल परिणामः । यथासन्निहितदेवताया नियोगेन निपतिता कुसुमवृष्टिः । आनन्दिताः सर्वे । अत्रान्तरे 'अहो धन्यर्ततयोः, अहो ममोपरि सुहृत्त्वम्' श्रेष्ठ मनुष्यत्व प्राप्त किया, जिससे इस प्रकार की शुभ बुद्धि है । तो यहाँ यह युक्त है - ये विषय निश्चित रूप से मोह से उत्पन्न हैं, मोह के कारण हैं, मोह स्वरूपी हैं, मोह के परिणाम हैं, संक्लेश से उत्पन्न हैं, संक्लेश के कारण हैं, संक्लेश स्वरूप हैं, संक्लेश के परिणाम हैं, अतः जीवन भर के लिए छोड़ो, मोह की चेष्टा छोड़ो, शान्ति अंगीकार करो, शुभ बुद्धि की भावना करो, भवविकारों को देखो, मन में विचार करो । गुरुओं को सन्तृप्त करो, धर्म में प्रयत्न करो ।' यह सुनकर विशुद्ध परिणामवाली, जिनका पदार्थों के विषय में रस छूट गया है, ऐसी उन दोनों ने कहा- 'जो आर्यपुत्र आज्ञा दें। आपकी अनुमति से हम ने जीवन भर के लिए विषय छोड़ दिये, शेष को शक्ति प्रमाण छोड़ेंगे।' यह सुनकर कुमार हर्षित हुआ, उसने सोचा- 'ओह इन दोनों की धन्यता, सुधीरता, इस लोक के प्रति निरपेक्षता, ओह उचित व्यवहार, ओह लघुकर्मता, ओह उपशम, ओह परमार्थ का ज्ञानपना, ओह वचन-विन्यास, ओह महार्थता, ओह गम्भीरता' ऐसा सोचकर इसने कहा- 'तुम दोनों अच्छी हो, ठीक हो, निश्चित रूप से कृतार्थ हो । तुम दोनों के लिए शुभ कार्य की मैंने अनुमति दी । मैंने भी जीवनभर के लिए विषय छोड़ दिया, ब्रह्मचर्य अंगीकार कर लिया । 'ओह ठीक है, ठीक है' ऐसा अशोक आदि (मित्रों) ने कहा । शुभ परिणाम बढ़ा | समीप में विद्यमान देवी के कारण फूलों की वर्षा हुई, सभी लोग आनन्दित हुए। तभी 'ओह इन ८३५ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्च कहा अहो ममोवरि सुहित्तणं' ति पवड्ढमाणसुहपरिणामस्स तयावरणकम्मखओवसमओ वड्ढमाणयं समुपपन्नमोहिनाण कुमारस्स । पविक्खिओ तीयाइभावो । संविग्गो अइसएण । सुओ एस वइयरो आनंदपडिहाराओ राइणा देवीए य। विसण्णो राया । भणियं च णेण - हा हा अजुत्तमनुचिट्ठियं कुमारेण । देवीए भणियं -हा जाय, परिचत्तं भवसुहं । एत्थंतरम्मि गहियखग्गरयणा दिप्पमाणेण मउडेणं कुंडलालयविहूसियमुही एक्कावलोविरासिरोहरा हारलयासंगएणं थणजुएणं मणिकडयजुत्तबाहुलया रोमावलीसणाहेणं मज्झेण रसणादामसंग नियंबा परिहिएणं देवद्वसेणं मणिनेउरसणाहचलया चच्चिया हरियंदणेण सुरतरुकुसुमधारिणी महा आभोएण परिहवंती मणिपदीवे अच्चंतसोमदंसणा समागया तत्थ देवया । 'अहो किमेयमच्छरीयं' ति विम्हियमणेहिं हरिसविसायगब्भिणं पणमिया एएहिं । मणियं च णाए - महाराय, अलमलं विसाएण । जुत्तमणुचिट्ठियं कुमारेण । परिचत्तं विसं, गहियममयं उज्झिया किलोवया, पयडियं पोरुसं अवहत्थिया खुद्दया, अंगीकयमुयारत्तं; छिन्नो भवो, संधिओ मोक्खो ति । ता कयत्थो इति प्रवर्धमानशुभपरणामस्य तदावरण कर्मक्षयोपशमता वर्धमानकं समुत्पन्नमवधिज्ञान कुमारस्य । प्रवीक्षितोऽतीतादिभावः । संविग्नोऽतिशयेन । श्रुत एष व्यतिकर आनन्दप्रतीहाराद् राज्ञा देव्या च । विषण्णो राजा । भणितं च तेन - हा हा अयुक्तमनुष्ठितं कमारेण । देव्या भणितम् -- हा जात ! परित्यक्तं भवसुखम् । ८३६ अत्रान्तरे गृहीतखड्गरत्ना दीप्यमानेन मुकुटेन कुण्डलालकविभूषितमुखी एकावलीविराजितशिरोधरा हारलतासङ्गतेन स्तनयुगेन मणिकटकयुक्तबाहुलता रोमावलिसनाथेन मध्येन रसनादामसंगनितम्बा परिहितेन देवदूष्येन मणिनुपुरसनाथचरणा चर्चिता हरिचन्दनेन सुरतरुकुसुमधारिणी महताऽऽभोगेन परिभवन्ती मणिप्रदीपान् अत्यन्तसौम्यदर्शना समागता तत्र देवता । 'अहो किमेतदाश्चर्यम्' इति विस्मितमनोभ्यां हर्षविषादगभितं प्रणता एताभ्याम् । भणितं च तयामहाराज ! अलमलं विष देन । युक्तमनुष्ठितं कुमारेण । परित्यक्तं विषम्, गृहीतममृतम्, उज्झिता क्लीवता, प्रकटितं पौरुषम्, अपहस्तिता क्षुद्रता, अङ्गीकृतमुदारत्वम्, छिन्नो भवः, सन्धितो मोक्ष दोनों की धन्यता, ओह मेरे ऊपर सुहृद्भाव' इस प्रकार बढ़े हुए शुभ परिणामों वाले कुमार के अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से निरन्तर बढ़नेवाला अवधिज्ञान उत्पन्न हो गया । अतीतादि भावों को देखा । अत्यधिक उद्विग्न हुआ। यह घटना आनन्द प्रतीहार से राजा और महारानी ने सुनी। राजा खिन्न हुआ, उसने कहा'हाय ! कुमार ने अयुक्त कार्य किया ।' महारानी ने वहा - 'हाय पुत्र ! सांसारिक सुख त्याग दिया !' इसी बीच वहाँ देवी आयी। वह हाथ में खड्गरत्न लिये हुए थी । उसका मुकुट चमक रहा था । कुण्डल और केशों से उसका मुख विभूषित था। उसकी गर्दन में एक लड़ीवाला हार शोभित हो रहा था । उसके दोनों स्तन हाररूप लता से युक्त थे । उसकी भुजारूपी लताएँ मणिनिर्मित या मणिखचित कड़े से युक्त थीं । ( उसका ) मध्यभाग (कमर का भाग) रोमों की पंक्ति से युक्त था । ( उसके ) नितम्ब करधनी से युक्त थे | देववस्त्र को वह पहिने हुए थी। उसके दोनों चरण मंगियुक्त (मणिनिर्मित) नूपुरों से युक्त थे। हरिचन्दन का शरीर में लेप किये हुए थी । कल्पवृक्ष का फूल धारण किये हुए थी। बड़े आकार से मणिनिर्मित दीपकों को तिरस्कृत कर रही थी (तथा) देखने में अत्यन्त सौम्य थी। 'ओह यह क्या आश्चर्य है - इस प्रकार विस्मित मनवाले, हर्ष और विषाद से भरे हुए इन दोनों ने प्रणाम किया। उस देवी ने कहा- 'महाराज ! विषाद मत करो, कुमार ने ठीक किया, विष का त्याग कर दिया, अमृत को ग्रहण कर लिया, नपुंसकता छोड़ दी, पुरुषार्थं प्रकट कर दिया, छुद्रता को गले में Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो भवो] ८३७ कुमारो। देवि ! तुमं पि छड्डेहि सोयं, असोणिज्जो कुमारो, परिचत्तमणेण भवदुक्खं, अंगीकयं सासयसुहं । तुम पि धन्ना, जीए ईइसो सुओ समप्पन्नो। निबंधणं एस बयाण निवईए। ता परिच्चय विसायं, आलोचेहि कज्ज ति । राइणा भणियं-भयवइ, का तुम। देवयाए भणियंमहाराय, खग्गपहरणोवलक्खिया सुदरिसणा नाम देवया अहं, तुह पुत्तगणाणुराइणी इहं भवणे परि राणा चितियं अहो पत्तस्स गणा, जेण देवयाओवि अणरायंक ति। हरिसिया देवी। भणिय च णाए- महाराय, ईडसो कुमारस्स पहावी, जेण देवयाओ विएवं मंतेति । ता एहि, गच्छम्ह तस्स अंतियं, पेच्छामो धम्मपिडं, करेमो तयणुचिट्टियं, सव्वहा जुत्तमेयं ति । राइणा भणियं -एहि, एवं करेग्ह । तओ पणमिऊण देवयं विसुज्झमाणपरिणामाइं गयाइं कुमारसमीवं । मुणियं कुमारण, अन्मट्टियाइं सहरिसं, पणमियाई विणएण, निविट्ठाई कओ आसणपरिगहो। पमिऊण जंपियं कुमारेण- ताय, किमेयमणचियमिवाणचिट्टियं, अंबाए वि, कीस न सहाविओ अहं। राइणा भणियं- कमार, नेयमणुचियं । साहिओ देवयावतंतो। देवीए भणियं - कुमार, गुणपगरिसो तुम, इति । ततः कृतार्थः कुमारः । देवि ! त्वमपि मुञ्च शोकम, अशोचनीयः कमारः, परित्यक्त मनेन भवदुःखम्, अङ्गीकृतं शाश्वतसुखम् । त्वमपि धन्या, यस्या ईदृशः सुतः समुत्पन्नः । निबन्धनमेष बहूनां निवृतेः । ततः परित्यज विषादम्, आलोचय कार्यमिति । राज्ञा भणितम्-भगवति ! का त्वम् । देवतया भणितम्-महाराज ! खड्गप्रहरणोपलक्षिता सुदर्शना नाम देवताऽहम्, तव पत्रगुणानुरागिणीह भवने परिवसामि । राज्ञा चिन्तितम् अहो पुत्रस्य गुणाः. येन देवता अप्यनुरागं कुर्वन्ति । हर्षिता देवी । भणितं च तया--महाराज ! ईदृशः कुमारस्य प्रभावः, येन देवता अप्येवं मन्त्रयन्ति । तत एहि, गच्छावस्तस्यान्तिकम्, पश्यावो धर्मपिण्डम्, कुर्वस्तदनुष्ठितम्, सर्वथा युक्तमेतदिति । राज्ञा भणितम्-एहि, एवं कुर्वः । तत: प्रणम्य देवतां विशध्यमानपरिणामौ गती कुमारसमीपम् । ज्ञातं कुमारेण, अभ्युत्थिती सहर्षम्। प्रणतो विनयेन, निविष्टे आसने कृत आसनपरिग्रहः। प्रणम्य जल्पितं कुमारेण-तात ! किमेतदनुचितमिवानुष्ठितम, अम्बयाऽपि, कस्मान्न शब्दायितोऽहम् । राज्ञा भणितम्-कुमार ! नेदमनुचितम् । कथितो देवतावृत्तान्तः । देव्या हाथ देकर हटा दिया, उदारता अंगीकार कर ली, संसार का छेद कर दिया, मोक्ष से मिलन कर लिया। अत: कुमार कृतार्थ हुए । महारानी ! तुम भी विषाद छोड़ो, कुमार शोक के योग्य नहीं हैं । इन्होंने सांसारिक सुख का त्याग कर दिया, शाश्वत सुख अंगीकार कर लिया । तुम भी धन्य हो, जिसके ऐसा पुत्र उत्पन्न हुआ। यह बहुत से लोगों की मुक्ति का कारण है । अतः विषाद का त्याग करो, कार्य का विचार करो।' राजा ने कहा- 'भगवति, तुम कौन हो?' देवी ने कहा-'महाराज ! तलवार के प्रहार से पहचानी जानेवाली मैं सुदर्शना नामक देवी हूँ, तुम्हारे पुत्र के गुणों की अनुरागिनी हो यहाँ निवास करती हूँ। राजा ने सोचा-ओह पुत्र के गुण, जिससे देवता भी अनुराग करते हैं। महरानी (देवी) हर्षित हुई और उसने कहा- 'महाराज ! कुमार का ऐसा ही प्रभाव है, जिससे देव भी इस प्रकार सलाह देते हैं। तो आओ, कुमार के पास चलें, उसका धर्म-शरीर देखें, उसके धार्मिक कार्य को करें, यह सर्वथा उचित है ।' राजा ने कहा-'आओ, यही करें।' अनन्तर देवी को प्रणाम कर विशुद्ध होते हुए परिणामोंवाले वे दोनों कुमार के पास गये । कुमार को ज्ञात हुआ, हर्षपूर्वक उठा, दोनों को विनयपूर्वक प्रणाम किया, दोनों को आसन दिये, आसनों को ग्रहण किया गया। प्रणाम कर कुमार ने कहा-'पिता जी ! यह क्या अनुचित सा कार्य किया, माता जी ने मुझे क्यों नहीं बुला लिया ?' राजा ने कहा-'कुमार ! यह अनुचित नहीं है।' देवी Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चकहा त्वया अणरुहो आएसस्स। कुमारेण भणियं-अंब, मा एवं भण। गुरवो खु तुब्भ, गुरआएससंपाडणमेव कारणं गुणपगरिसस्स। राइणा भणियं—कुमार, अइदुक्करं कय तए। कुमारेण भणियं-ताय, किमिह दुक्करं । सुणाउ ताओ। ___ अत्थि खलु केइ चत्तारि पुरिसा। ताणं दुवे अच्चतमत्थगिद्धा अवरे विसयलोलुया। पवन्ना एगमद्धाणं । दिवा य हि कहिंचि उद्देसे मणिरयणसुवण्णपुग्णा दुवे महानिहो तियससुंदरिसमाओ य दो चेव इत्थियाओ। पावियं जं पावियव ति पहट्ठा चित्तेण, धाविया अहिमुहं । सुओ य हिं कुओइ सद्दो । भो भो पुरिसा, मा साहसं मा साहसं ति। निरूवेह उवरिहत्तं, निवडइ तुम्हाण उवरि महापव्वओ, एयगोयरगयाणं च अलमेइणा चेट्ठिएण। तओ निरूवियमणेहि । दिट्ठो य नाइदूरे समद्धासियनहंगणो रोदो दंसणेण अक्कमंतो जहासन्नजीवे अणिवारणिज्जो सुराण पि सामत्थेण दुयं निवडमाणो पव्वओ त्ति । तओ जंपियमणेहि-भो एवं ववत्थिए को उण इह उवाओ। आर्याण्णयं कुओइ। न खलु संपयं उवाओ। किंतु इच्छंति जे अत्थविसए, ते संपतेहिं असंपत्तेहि वा जहासन्नयाए अवटुम्भंति एएण; तहा अवटुद्धा य पावेंति पुणो पुणो एवमेवावट्ठहणं ति । जे उण निरीहा अत्थविसएसु भणितम् – कुमार ! गुणप्रकर्षस्त्वमनह आदेशस्य । कुमारेण भणितम्- अम्ब ! मंवं भण। गुरवः खलु यूयम्, गुर्वादेशसम्पादनमेव कारणं गुणप्रकर्षस्य। राज्ञा भणितम्--कुमार ! अतिदुष्कर कृतं । कमारेण भणितम-तात ! किमिह दुष्करम । शृणोतु तातः सन्ति खलु केऽपि चत्वारः पुरुषाः। तेषां द्वावत्यन्तमर्थगद्धौ अपरौ विषयलोलुपौ। प्रपन्ना एकमध्वानम् । दृष्टाश्च तैः कथञ्चिदुद्देशे मणिरत्नस्वर्णपूौं द्वौ महानिधी त्रिदशसुन्दरीसमे च द्वे एव स्त्रियो । प्राप्तं यत् प्राप्तव्यमिति प्रहृषिताश्चित्तेन धाविता अभिमुखम् । श्रुतश्च तैः कुतश्चित् शब्दः । भो भोः पुरुषा! मा साहसं मा साहसमिति । निरूपयतोपरिसम्मुखम्, निपतति युष्माकमुपरि महापर्वतः, एतद्गोचरगतानां चालमेतेन चेष्टितेन । ततो निरूपितमेभिः। दृष्टश्च नातिदूरे समध्यासितनभोङ्गणो रोद्रो दर्शनेनाक्रामन् यथाऽऽसन्नजीवान् अनिवारणीयः सुराणामपि सामर्थ्येन द्रुतं निपतन् पर्वत इति । ततो जल्पितमेभिः-भो ! एवं व्यवस्थिते कः पुनरिहोपायः । आकणितं कुतश्चित्-न खलु साम्प्रतमुपायः । किन्तु इच्छन्ति येऽर्थविषयेषु ते सम्प्राप्तरसम्प्राप्तर्वा यथासन्नतयाऽवष्टभ्यन्ते एतेन, तथाऽवष्टब्धाश्च प्राप्नुवन्ति पुनः पुनरेवमेवावष्टम्भनमिति । ये पुननिरीहा का वृत्तान्त कहा। महारानी ने कहा-'कुमार ! गुणों की चरमसीमा वाले तुम आदेश के योग्य नहीं हो।' कुमार ने कहा-'माता ! ऐसा मत कहो। आप माता-पिता हो, माता-पिता के आदेश का पालन करना ही गणों के प्रकर्ष का कारण है।' राजा ने कहा-'कुमार ! तुमने अत्यधिक कठिन कार्य किया है।' कुमार ने कहा-'पिता जी ! कठिन कार्य कैसा ! पिता जी सुनिए कोई चार पुरुष थे। उनमें से दो अत्यन्त धन के लालची थे, दूसरे दो विषयलोलपी थे। मार्ग में जा रहे थे। उन्होंने किसी स्थान पर मणि, रत्न और स्वर्ण से पूर्ण दो महानिधि और देवांगनाओं के समान दो स्त्रियाँ, देखीं। जो प्राप्त करने योग्य वस्तु थी वह प्राप्त कर ली, इस प्रकार चित्त में हर्षित हए । सामने दौड़े। उन्होंने कहीं से शब्द सुना-हे हे पुरुषो ! साहस मत करो, साहस मत करो। ऊपर की ओर देखो, तुम्हारे ऊपर महापर्वत गिर रहा है। इसके मार्ग में आए लोगों को इन चेष्टाओं में नहीं पड़ना चाहिए। समीप में ही आकाश रूपी आँगन में अधिष्ठित, देखने में विकराल, समीपवर्ती जीवों पर आक्रमण करता हुआ, देवताओं से भी न रोके जाने योग्य शीघ्र ही गिरते हुए पर्वत को देखा। अनन्तर इन लोगों ने कहा-अरे ! ऐसी स्थिति में क्या उपाय है? कहीं से सुना-अब उपाय नहीं है, किन्तु जो पदार्थों के विषयों की इच्छा करते हैं वे प्राप्त होने अथवा न होने पर समीपवर्ती होने से इसके द्वारा आक्रान्त हो जाते हैं, उस प्रकार से आक्रान्त हए वे पूनः पुनः आक्रान्तपने Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो भवो] ८३६ भावेंति तयसारयं, ते वि जहासन्नयाए अवटुभति एएण; तहा अवटुद्धा य न पावेंति पुणो पुणो एवमेवावट्टहणं ति, अवि य मुच्चंति कालेण इमाओ उवद्दवाओ। तओ एगेहि चितियं-किमम्हाणमिमीए दोहचिताए । सव्वहा पयट्टम्ह अस्थविसएसु, जं होउ तं होउ त्ति। संपहारिऊण पयट्टा सहरिसं । अन्ने 'उ हा हा एवं परिपंथिए एयम्मि नियमनस्सरेहि असुंदरेहिं विवाए किमेत्थ अत्यविसएहिति चितिऊण नियत्ता अत्थविसयाहिं, भाति तयसारयं, जुज्जति नियनियफलेहि। ता एवं ववस्थिए निरूवेउ ताओ के एत्थ दक्करकारया के वा नहि। राणा चितियं-जे पयटॅति अत्यविसएसु,ते दुक्करकारया;जओ तहा परिपंथिए पव्वए नियमणस्सरेहि असुंदरेहि विवाए किमत्थविसएहि; कीइसी वा तहाभए पवत्ती ? अणालोचयत्तमेगंतेण; किं वा तीए तहादिट्ठपज्जताए उवहासटाणयाए अत्थविसयपत्थणाए ? परमत्येण निव्वेयकारणमेयं सयाणं ति। चितिऊण जंपियं राइणा- कुमार, जे पयति , ते दुवकरकारया; अपवत्तणं तु जुत्तिजुत्तमेव, किमेत्य दुक्करं ति । कुमारेण भणियं - ताय, जइ एवं, ता पडते मच्चपदवए वावायए तिहुयणस्स अइभीसणे पयईए दुज्जए अर्थ विषयेषु भावयन्ति तदसारताम्, तेऽपि यथासन्नतयाऽवष्टभ्यन्ते एतेन, तथाऽवष्टब्धाश्च न प्राप्नुवन्ति पुनः पुनरेवमेवावष्टम्भनमिति, अपि च मुच्यन्ते कालेनास्मादुपद्रवात् । तत एकैश्चिन्तितम् -किमस्माकमनया दीर्घचिन्तया। सर्वथा प्रवर्तामहेऽर्थविषयेषु, यद् भवतु तद् भवत्विति । सम्प्रधार्य प्रवृत्ताः सहर्षम् । अन्ये तु हा हा एवं परिपन्थिनि एतस्मिन् नियमनश्वरैरसुन्दरैविपाके किमत्र अर्थविषयः' इति चिन्तयित्वा निवृत्ता अर्थविषयाभ्याम्, भावयन्ति तदसारताम, युज्यन्ते निजनिजफलैः। तत एवं व्यवस्थिते निरूपयतु तातः, केऽत्र दुष्करकारका: के वा नहि। राज्ञा चिन्तितम-ये प्रवर्ततन्तेऽर्थविषयेषु ते दुष्करकारकाः, यतस्तथा परिपन्थिनि पर्वते नियमनश्वरैरसन्दरैविपाके किमर्थविषयः, कीदृशी वा तथाभये प्रवृत्तिः। अनालोचकत्वमेकान्तेन, किं वा तया तथादृष्टपर्यन्तया उपहासस्थानयाऽर्थविषयप्रार्थनया, परमार्थेन निर्वेदकारणमेतत् सतामिति । चिन्तयित्वा जल्पितं राज्ञा-कुमार ! ये प्रवर्तन्ते ते दुष्करकारकाः, अप्रवर्तनं तु युक्तियुक्त मेव, किमत दष्करमिति । कमारेण भणितम-तात ! यद्येवं ततः पतति मत्यूपर्वते व्यापादके त्रिभुवनको प्राप्त करते हैं । जो पदार्थ और विषयों के इच्छुक नहीं हैं और उसकी असारता की भावना करते हैं वे भी समीपवर्ती होने से इससे आक्रान्त हो जाते हैं, उस तरह मून्छित हुए वे पुन: इस प्रकार आक्रान्तपने को नहीं प्राप्त होते हैं, अपितु समय पाकर इस उपद्रव से छूट जाते हैं। अनन्तर कुछ लोगों ने सोचा- हम लोगों को इस दीर्घ चिन्ता से क्या, (हम तो) सर्वथा पदार्थ और विषयों में प्रवृत्ति करते हैं, जो हो सो हो- ऐसा निश्चय कर हर्षपूर्वक प्रवृत्त हो गये। दूसरे जन-हा हा, निश्चय से नाश होनेवाले, असुन्दर फलवाले तथा विरोधी इन पदार्थों के विषयों से क्या ऐसा सोचकर पदार्थों के विषयों से निवत्त हो गये, असारता की भावना करने लगे। अपने-अपने फलों को प्राप्त किया। तो ऐसी स्थिति में पिताजी देखिए, कौन यहाँ कठिन कार्य करनेवाले हैं और कौन नहीं हैं ?' राजा ने सोचा--जो पदार्थ और विषयों में प्रवृत्ति करते है वे कठिन कार्य करनेवाले हैं; क्योंकि उस विरोधी पर्वत के होने पर निश्चित रूप मे नाश होनेवाले पदार्थ और विषयों से क्या, उस प्रकार का भय होने पर प्रवृत्ति कैसी ? अत्यन्तरूप से निर्विचारणा है अथवा उस प्रकार की अदृष्ट पर्यन्त उपहास के स्थानवाली पदार्थों और विषयों की प्रार्थना से क्या लाभ, जो कि सज्जनों के लिए यथार्थरूप से वैराग्य का कारण है - ऐसा सोचकर राजा ने कहा-'कुमार ! जो प्रवृत्त होते हैं वे कठिन कार्य करनेवाले हैं, और जो Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चकहा पयारंतरेण अविभाविज्जमाणसरूवे विओजए इट्ठभावाण समापडणसंगए कारए असमंजसाण किलेसायासकारगा अत्यविसया विसविवायसरिसा य; विसयचासो य अव्वावाहो पयईए कारणं अमयभावस्स सलाहणिज्जो स्याण अकिलेस सेवणिज्जो से विज्जइति किमेत्थ दुक्करं । कहं वा एवंविहे जीवलोएन दुक्करं अत्थविसयाणुवत्तणं ति । राइणा भणियं वच्छ, एवमेयं, जया सम्मालोइज्जइ । कुमारेण भणियं - ताय, असम्मालोचणं पुण न होइ आलोचणं । राइणा भणियं -- वच्छ, एवमेयं, कि तु दुरंतो महामोहोति । कुमारेण भणियं - ताय, ईइसो एस दुरंतो, जेण एयसामत्थेण पाणिणो एवंविहे जीवलोए पहवंते वि उद्दाममच्चुंमि पेच्छमाणा वि एयसामत्थं गोयरगया वि एयस्स घेप्पमाणा वि जराए विउज्जमाणा वि इट्ठेहिं परिगलंते वि वीरिए चोइज्जमाणा वि धीरेहिं 'न अम्हाण वि एवमेयं परिणम, अन्नो व अम्ह चितओ, जं किंचि वा एयं, अचितणीयं च धीराणं, अत्थि वा आयत्तमुवायंतरं, मोहववसायसज्झं वा इमं, अवहीरणा वा उवाओ, अच्वंतिया वा अत्यविसय 'त्ति अगणिऊण जराइदोस जालं सव्वावत्थासु बाला काऊण गयनिमोलियं परिचय सव्वमन्नं कुसलपक- ख ८४० स्यातिभीषणं प्रकृत्या दुर्जये प्रकारान्तरेणाविभाव्यमानस्वरूपे वियोजके इष्टभावानां सदापतनसङ्गते कारकेऽसमञ्जसानां क्लेशायासकारको अर्थ विषयौ विषविपाकसदृशौ च विषयत्यागश्चाव्याबाधः प्रकृत्या कारणममृत भावस्य श्लाघनीयः सतामक्लेश सेवनीयः सेव्यते इति किमत दुष्करम् कथ वैवंविध जोवलोके न दुष्करमर्थ विषयानुवर्तनमिति । राज्ञा भणितम् - वत्स ! एवमेतद् यद सम्यगालोच्यते । कुमारेण भणितम् - तात ! असम्यगालोचनं पुनर्न भवत्यालोचनम् । राज्ञा भणितम् - वत्स ! एवमेतत्, किन्तु दुरन्तो महामोह इति । कुमारेण भणितम् - तात ! ईदृश एष दुरन्तः, येनैतत्सामर्थ्यन प्राणिन एवंविधे जीवलोके प्रभवत्यपि उद्दाममृत्यो प्रेक्षमाणा अपि एतत्सामर्थ्यं गोचरगता अध्येतस्य गृह्यमाणा अपि जरया वियुज्यमाना अपीष्टः परिगलत्यपि वीर्ये चोद्यमाना अपि धीरैः 'नास्माकमप्येवमेतत् परिणमति, अन्यो वाऽस्माकं चिन्तकः यत् विचिद् वैतद्, अचिन्तनीयं च धीर णाम् अस्ति वाऽऽयत्तमुपायान्तरम्, भो, व्यवसायसाध्यं वेदम्, अवधीवोपायः, आत्यन्तिका वाऽर्थविषयाः' इत्यगणयित्वा जरादिदोषजाल सर्वावस्थासु बालाः प्रवृत्त नहीं होते हैं वे ही ठीक हैं, यहाँ कठिन कार्य ही क्या है' कुमार ने कहा - पिताजी ! यदि ऐसा है तो तीनों लोकों के लिए अत्यन्त भयंकर, मारक मृत्युरूपी पर्वत के गिरने पर स्वभाव से दुर्जेय, दूसरे प्रकार से जिनके स्वरूप प्रकट होते हैं, जो इष्ट भावों के वियोजक हैं, सदा पतन से युक्त हैं, असगत कार्यों के करनेवाले हैं, क्लेश और थकावट को उत्पन्न करते हैं ऐसे पदार्थ और विषय विषफल के समान हैं और विषयों का त्याग रुकावट न डालनेवाला, स्वभाव से अमृतत्व का कारण, सज्जनों की प्रशंसा के योग्य है और बिना क्लेश के सेवन किया जाता है अतः यहाँ कठिन कार्य क्या है ? अथवा संसार में पदार्थ और विषयों का अनुसरण दुष्कर कैसे नहीं है ? राजा ने कहा- 'वत्स ! यह सच है, जब भलीभाँति विचार किया जाता है ।' कुमार ने कहा - 'पिताजी ! भली प्रकार विचार न करना विचार नहीं होता है।' राजा ने कहा- 'यह ठीक है; किन्तु महामोह का अन्त कठिनाई से होता है ।' कुमार ने कहा- 'पिताजी ! यह दुरन्त ऐसा है कि इसके सामर्थ्यं से प्राणी इस प्रकार के संसार में उत्कट मृत्यु के सामर्थ्ययुक्त होने पर भी, इसकी सामर्थ्य को देखते हुए भी, बुढ़ापे से जकड़ जाने, इष्टों से वियोग होने, शक्ति के नष्ट होने, धीर व्यक्तियों के द्वारा प्रेरित होने पर भी 'हमारी यह इस प्रकार की परिणति नहीं है, अथवा हम लोगों की चिन्ता करनेवाला अन्य है. यह जो कुछ भी भी, इसके मार्ग पर जाते हुए Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो भवो ] चेट्ठियं महया पयत्तेण निव्वडियभावसारं पयट्टति अत्यविसएसु, न पयट्टति जराइदोसनिग्धायणसमत्ये हिए सव्वजीवाण अचितचिंतामणिसन्निहे साहए नेव्वाणस्स वीयरागदेसिए धम्मेति । एय मायणिऊण संजायसुहयरपरिणामेण जंपियं राइणा-वच्छ, एवमेयं, न एत्थ किचि अन्नह त्ति । देवीए भणियं वच्छ, सव्वमेवमयं मोहनिद्दाविगमेण परिणयप्पायमम्हाणं । किं तु न संपन्नं बालाण अलिसि ति विग्गा विय म्हि । कुमारेण भणियं -अंब, अलमुब्वेएण; संपन्नपायमेयासि अहिलसियं । धन्नाओ इमाओ, सफलं माणुसत्तणमेयाणं, संगयाओ मोक्खबीएण । तओ देवीए पुलोइयं तासि वयणं । पणमिऊण गुरुवणं जंपियमिमोहिं - अंब, नेहमेतनिमित्तो खु उच्देवो अंबाए । अन्ना जहा उवइमज्जउत्तेण तव एयं सफलं माणुसत्तमम्हाण, पाविओ अज्जउत्तघरिणिसद्दो गुरुयणाणहावेण तरूवं च सेसं पि । ता संपन्नमम्हाण अहिलसियाहियं ति, परिच्चयउ उब्वेवमंबा । तओ देवीए चितियं-- अहो एयासि रूवं, अहो उवसमो, अहो परमत्थन्नुया, अहो वयणविन्नासो, अहो गुरुभक्ती, अहो महत्यत्तणं, अहो गंभीरया, अहो समुयायारोति । चितिऊण जंपियमिमीए - उचिय कृत्वा गजनिमीलिकां परित्यज्य सर्वमन्यत् कुशलपक्षचेष्टितं महता प्रयत्नेन निष्पन्नभावसारं प्रवर्तन्तेऽविषयेषु न प्रवर्तन्ते जरादिदोषनिर्घातनसमर्थे हिते सर्वजीवानां अचिन्त्यचिन्तामणिसन्निभे साधके निर्वाणस्य वीतरागदेशिते धर्मे इति । एतदाकर्ण्य सञ्जातशुभतर परिणामेन जल्पितं राज्ञा - वत्स ! एवमेतद्, नात्र किञ्चिदन्यथेति । देव्या भणितम् - वत्स ! सर्वमेवमेतद् मोहनिद्राविगमेन परिणतप्रायमस्माकम् । किन्तु न सम्पन्नं बाल योरभिलषितमित्युद्विग्नेवास्मि । कुमारेण भणितम् -- अम्ब ! अलमुद्व ेगेन, सम्पन्नप्रायमेतयोरभिलषितम् । धन्ये इमे सफलं मानुषत्वमेतयोः, सङ्गते मोक्षबीजेन । ततो देव्या प्रलोकित तयोर्वदनम् । प्रणम्य गुरुजनं जल्पितमाभ्याम् - अम्ब ! स्नेहमात्रमिनित्तः खल्वुद्वेगोऽम्बायाः । अन्यथा यथोपदिष्टमार्यपुत्रेण तथैवंतत्, सफलं मानुषत्वप्राप्त आर्यपुत्रगृहिणीशब्दो गुरुजनानुभावेन तदनुरूपं च शेषमपि । ततः सम्पन्न मावयोरभिलषिताधिकमिति, परित्यजतद्वेगमम्बा । ततो देव्या चिन्तितम् - अहो एतयो रूपम्, कहो उपशमः, अहो परमार्थज्ञता, अहो वचनविन्यासः, अहो गुरुभक्तिः, अहो महार्थत्वम्, अहो गम्भीरता, ८४१ है, धीरों के द्वारा अचिन्तनीय है, भावी फल का दूसरा उपाय है अथवा यह मोह के निश्चय द्वारा साध्य है. अथवा तिरस्कार का उपाय है, अथवा पदार्थ तथा विषय अविनाशी है - इस प्रकार बुढ़ापे आदि दोषों कोन मानकर सभी अवस्थाओं में मूर्ख व्यक्ति गजनिमीलन कर ( आँखें मूंदकर ), अन्य सब शुभपक्ष वाली चेष्टाओं का त्याग कर, अत्यधिक प्रयत्न से जिन्हें पदार्थों में रस उत्पन्न हुआ है ऐसे होकर वे पदार्थ और विषयों में प्रवृत्त होते हैं। बुढ़ापा आदि दोषों के नाश करने में समर्थ, समस्त जीवों के लिए हितकर, अचिन्त्य चिन्तामणि के समान वीतराग प्रणीत मोक्ष के धर्म में प्रवृत्त नहीं होते हैं ।' यह सुनकर जिसके अत्यधिक शुभ परिणाम उत्पन्न हुए हैं ऐसे राजा ने कहा - 'पुत्र ! यह इसी प्रकार है, अन्य किसी प्रकार नहीं ।' महारानी ने कहा -- 'यह सब ऐसा ही है, मोहरूपी निद्रा के नष्ट हो जाने के कारण हम लोग बदल गये ( जाग्रत हो गये ). किन्तु बालिकाओं की अभिलाषा पूर्ण नहीं हुई, अतः मैं उद्विग्न ही हूँ ।' कुमार ने कहा- माताजी! उद्वेग मत जए, इन दोनों की अभिलाषा सम्पन्न प्राय है। ये दोनों धन्य हैं, इन दोनों का मनुष्यमव सफल है, ये दोनों मोक्ष के बीज से युक्त हैं।' अनन्तर महारानी ने उनका मुख देखा। माता-पिता ( सास, श्वसुर ) को प्रणाम कर इन दोनों ने कहा - ' माता ! निश्चित रूप से माता का उद्वेग मात्र स्नेह से निर्मित है, अन्यथा फिर आर्यपुत्र ने जो उपदेश दिया वह वैसा ही है। हम दोनों का मनुष्यभव सफल हुआ, गुरुजनों की कृपा से आर्यपुत्र की गृहिणी शब्द को प्राप्त किया और उसके अनुरूप शेष को भी प्राप्त किया । अतः हम लोगों की अभिलाषा से अधिक Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४२ [ समराइच्चकहा मेयं खग्गसेणधूयाण, जमेवं गुरुयणो अणुवत्तीयइ। एत्थंतरम्मि नाइदूरे पुरंदरभट्टगेहम्मि समद्धाइओ अक्कंदो पवित्थरिओ भरेण । 'हा किमेयं ति' संभंतो राया। भणियं च णेण - अरे वियाणह, किमयं ति। कुमारेण भणियं-ताय, अलं कस्सह गमणखेएण, वियाणियमिणं । राइणा भणियं-वच्छ,, किमयं ति। कुमारेण भणियं - ताय, संसारविलसियं । राइणा भणियं-वच्छ, न विसेसओऽवगच्छामि। कुमारेण भणियं-सुणाउ ताओ। अद्धउवरओ पुरंदरभट्टो त्ति तन्निमित्तं पवत्तो तस्स गेहे अक्कंदो। राइणा भणियं-वच्छ, सो अज्जेव दिट्ठो मए। कुमारेण भणियं-ताय, अकारणमिणं मरणधम्मीणं। राइणा भणियं-वच्छ, न कोइ एयस्स वाही अहेसि; ता कहं पुण एस उवरओ। कुमारेण भणियं-ताय, अवत्तव्वो एस वइयरो गरहिओ एगंतेण । राइणा भणियं--वच्छ, ईइसो एस संसारो, किमेत्थ अगरहियं नाम । महंतं च मे कोउयं ति साहेउ वच्छो। न य एत्थ कोइ असज्जणो। सज्जणकहियं च गरहियं न वित्थरइ पाएण; संपयं वच्छो पमाणं ति । कुमारेण भणियं-ताय, मा एवमाणवेह; जइ एवं निब्बंधो, ता सुणाउ अहो समुदाचार इति । चिन्तयित्वा जल्पितमनया-उचितमेतत् खड्गसेनदुहित्रोः, यदेवं गुरुजनोsनुवर्त्यते। ___अत्रान्तरे नातिदूरे पुरन्दरभट्टगेहे समुद्धावित आक्रन्दः प्रविस्तृतो भरेण । 'हा मिमेतद्' इति सम्भ्रान्तो राजा । भणितं च तेन - अरे विजानीत, किमेतदिति । कुमारेण भणितम्-तात ! अलं कस्यचिद् गमनखेदेन, विज्ञातमिदम् । राज्ञा भणितम् - वत्स ! किमेतदिति । कुमारेण भणितम् - तात ! संसारविलसितम् । राज्ञा भणितम्- वत्स ! न विशेषतोऽवगच्छामि। कुमारेण भणितम्शृणोतु तातः । अझैपरत: पुरन्दरभट्ट इति तन्नि मित्तं प्रवृत्तस्तस्य गेहे आऋन्दः । राज्ञा भणितम्वत्स ! सोऽद्यैव दृष्टो मया । कुमारेण भणितम्-तात ! अकारणमिदं मरणधर्माणाम् । राज्ञा भणितम्-वत्स ! न कोऽप्येतस्य व्याधिरासीत्, ततः कथं पुनरेष उपरतः । कुमारेण भणितम् - तात ! अवक्तव्य एष व्यतिकरो गहित एकान्तेन । राज्ञा भणितम्-वत्स ! ईदश एष संसार:, किमत्रागहितं नाम । महच्च मे कौतुकमिति कथयतु वत्सः । न चात्र कोऽप्यसज्जनः । सज्जनकथितं च गहितं न विस्तीर्यते प्रायेण, साम्प्रतं वत्सः प्रमाणमिति । कुमारण भणितम्-तात ! मैवमाज्ञासम्पन्न हो गया। माताजी ! उद्वेग छोड़िए।' अनन्तर महारानी ने सोचा-ओह, इन दोनों का रूप, ओह उपशम, ओह यथार्थ वस्तु का जानना, ओह वचनों की रचना, ओह बड़ों के प्रति भक्ति, ओह महार्घता, ओह गम्भीरता, ओह उचित व्यवहार-ऐसा सोचकर इसने (महारानी ने कहा-खड्गसेन की पुत्रियों के यह योग्य है जो कि इस प्रकार बड़ों का अनुसरण करती हैं। तभी समीप में ही पुरन्दर भट्ट के घर से रोने की आवाज आयी, भीड़ इकट्ठी हो गयी । 'हाय यह क्या !' राजा घबराया और उसने कहा-'अरे ज्ञात करो क्या हुआ ?' कुमार ने कहा- 'कोई ज्ञात करने का कष्ट मत करो, इसे ज्ञात कर लिया।' राजा ने वहा-'वत्स ! यह (सब) क्या है ?' कुमार ने कहा- 'पिता जी ! संसार का खेल है यह।' राजा ने कहा- 'वत्स ! ठीक से नहीं समझा।' कुमार ने कहा-'पिताजी सुनिए, पुरन्दर भट्ट मरणासन्न है अतः उसके लिए उसके घर में रुदन हो रहा है ।' राजा ने कहा- 'वत्स ! उसे आज ही मैंने देखा था।' कुमार ने कहा-'मरण स्वभाववालो के लिए यह कोई कारण नहीं है।' राजा ने कहा'वत्स ! इसे कोई रोग भी नहीं था, अत: यह कैसे मरणासन्न हो गया !' कुमार ने कहा- 'पिता जी ! यह घटना अत्यन्त निन्दित होने के कारण न कहने योग्य है।' राजा ने कहा---'पुत्र ! यह संसार ऐसा ही है, यहां पर अनिन्दित क्या है। मुझे बड़ा कौतूहल है, अतः पुत्र कहो । यहाँ कोई असज्जन नहीं है और सज्जनों के द्वारा | Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो भवो ] ८४३ ताओ | अद्वाइओएस नियमहिलियाए नम्मयाभिहाणाए विसप्पओएण । ता पेसेहि ताव तत्थ विसनिग्धायणसमत्थे वेज्जे, जीवइ तओ ओसहपओएण । अन्नं च । तग्गेहपओलिदक्खिणावर दिसाभाए इमिणा चैव विसप्पओएण तोए दरघाइओ कुक्कुरो । तस्स वि इमो चेव ओसहविही परंजियो; जीविस्सइ सो वि इमिणा । राइणा चितियं- अहो नाणाइसओ कुमारस्स । जहाभणियमाइसिऊण पेसिया वेज्जा, भणियं च राइणा - कुमार, किं पुण तीए इमस्स असव्वसायस्स निमित्तं । कुमारेण भणियं - ताय, अविवेओ निमित्तं; तहवि पुण विसेसओ इमं । वल्लहा सा पुंरदरस्स मोहदोसेण पसत्ता अज्जुणाभिहाणे नियदासे । सुयमणेण सवणपरंपराए, न सद्दहियं सिणेहओ | अइक्कतो कोइ कालो । अन्नया य 'मा संताणविणासो हवउ' त्ति साहियं से जीए । पुत्त, न सुंदरा ते महिलिया; ता मा उवेक्खसु ति । चितियं पुरंदरेण न खलु एयमेवं भवइ । अभिन्नचित्ता में पिययमा, अंबाय एवं बाहरई । निबद्धवेराओ य पायं सासुयावहूओ । refoot अंबा, पियमा उण पगरिसो गुणाण । चवलाओ य इत्थियाओ त्ति रिसिवयणं, न य पयत; यद्येवं निर्बन्धः, ततः शृणोतु तातः । अर्धव्यापादित एष निजमहिलया नर्मदाभिधानया विषप्रयोगेण । ततः प्रेषय तावत् तत्र विषनिर्घातनसमर्थान् वैद्यान्, जीवति तत औषधप्रयोगेण । अन्यच्च तद्गेहप्रतोलिदक्षिणा पर दिग्भागेऽनेनैव विषप्रयोगेण तया दरघातित कुर्कुरः । तस्याप्ययमेषविधिः प्रयोक्तव्यः, जीविष्यति सोऽप्यनेन । राज्ञा चिन्तितम् - अहो ज्ञानातिशयः कुमारस्य । यथा भणितमादिश्य प्रेषिता वैद्याः, भणितं च राज्ञा - कुमार ! किं पुनस्तस्या अस्यासद्व्यवसायस्य निमित्तम् । कुमारेण भणितम् - तात ! अविवेको निमित्तम्; तथापि पुनर्वशेषत इदम् । वल्लभा सा पुरन्दरस्य मोहदोषेण प्रसक्ताऽर्जुनाभिधाने निजदासे । श्रुतमनेन श्रवणपरम्परया, श्रद्धितं स्तः । अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । अन्यदा च 'मा सन्तानविनाशो भवतु' इति कथितं तस्य जनन्या । पुत्र ! न सुन्दरा ते महिला, ततो मोपेक्षस्वेति । चिन्तितं पुरन्दरेण - खल्वेतदेवं भवति । अभिन्नचित्ता मे प्रियतमा, अम्बा चैवं व्याहरति । निबद्धवैरे च प्रायः श्वश्रूवध्वी । अमत्सरिणी चाम्बा, प्रियतमा पुनः प्रकर्षो गुणानाम्, चपलाश्च स्त्रिय इति ऋषिवचनम्, न चान्यथा कहा हुआ निन्दित प्रायः नहीं फैलता है, अब पुत्र प्रमाण हैं ।' कुमार ने कहा - 'पिता जी, ऐसी आज्ञा मत दो, यदि आग्रह है तो पिताजी सुनिए - अपनी नर्मदा नामक पत्नी के द्वारा विष के प्रयोग से यह अधमरा हुआ है, अतः वहाँ विष को नष्ट करने में समर्थ वैद्यों को भेजिए, औषधि के प्रयोग से यह जीवित हो जायेगा । दूसरी बात यह है कि उसी घर की गली के दक्षिण-पश्चिम भाग में इसी विष के प्रयोग से उस कुत्ते को भी अधमरा कर दिया है उसके लिए भी यही औषधि के नियम का प्रयोग करना चाहिए, वह भी इससे जीवित हो जायेगा। राजा ने सोचा- ओह कुमार के ज्ञान की अधिकता ! कहने के अनुसार आदेश देकर वैद्य भेजे । राजा ने कहा - 'कुमार ! उसके असत्कार्य का क्या कारण है ?' कुमार ने कहा - 'पिताजी ! अविवेक कारण है तथापि विशेषरूप से यह बात है पुरन्दर की प्रिया मोह के दोष से अपने अर्जुन नामक दास के प्रति आसक्त हो गयी। इसने कानों-कान सुना, स्नेहवश विश्वास नहीं किया । कुछ समय बीत गया। एक बार 'सन्तान का विनाश न हो' अतः उसकी माँ ने कहा - 'पुत्र ! तुम्हारी स्त्री ठीक नहीं है अतः उसकी उपेक्षा मत करो।' पुरन्दर ने सोचा'निश्चय से यह ऐसी नहीं होगी । मेरी प्रियतमा अभिन्न हृदयवाली है और माता ऐसा कहती है ! सास-बहू का Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४४ [समराइच्चकहा अन्नहा हवइ । विसमा य मयणवाणा। ता परिक्खामि ताव एवं ति। चिंतिऊण पइरिक्कम्मि भणिया नम्मया-सुंदरि, रायाएसेणं गंतव्वं मए माहेसरं, आगंतब्धं च सिग्धमेव । ता सुंदरीए कइवि दियहे सम्ममातियव्वं ति । नम्ममाए भणियं - अन्ज उत्त, अहं पि गच्छामि; कोइसं मम तए विणा सम्मति भणमाणी परुइया एसा । भणिया य पुरंदरेण सुंदरि, अलं सिणेहकायरयाए, न मम तत्थ खेवो त्ति। नम्मयाए भणियं-अज्जउत्तो पमाणं ति। बिइयदियहे य निग्गओ पुरंदरो, गओ मायापओएण। अइवाहिऊण कहिंचि वासरं पविट्ठो रयणीए। गओ अद्धरत्तसमए निययभवणं,पविट्ठो वासगेहं । दिट्ठा य ण सुरयायासखेयसहपसुत्ता समं अज्जुणएण नम्मया । कुविओ खु एसो,पणट्ठा विवेयवासणा । चितियं चणेण-सहाहारतुल्लाओ इत्थियाओ; जत्तेण एतासि भोओ पालणं च । दुट्ठो य दुरायारो अज्जणओ, जो मे कलत्तं अहिलसइ; ता एयं वावाएमि त्ति । चितिऊण सुहपसुत्तो वावाइओ णेण अज्जुणओ। वावाइऊण य निग्गओ वासगेहाओ। चितियं च ण-पेच्छामि, कि मे पिययमा करेइ त्ति । ठिओ एगदेसे । तहाविहरुहिरफंसेण विउद्धा नम्लया। दिट्ठो य णाए दोहनिद्दापसुत्तो अज्जुणओ। चितियं भवति । विषमाश्च मदनबाणाः। ततः परीक्षे तावदेतामिति । चिन्तयित्वा प्रतिरिक्ते भणिता नर्भदा-सुन्दरि ! राजादेशेन गन्तव्यं मया माहेश्वरम्, आगन्तव्यं च शीघ्रमेव । ततः सन्दर्या कत्यपि दिवसान सम्यगासितव्यमिति । नर्मदया भणितम्-आर्यपुत्र ! अहमपि गच्छामि, की दशं मम त्वया विना सम्यगिति भणन्ती प्ररुदितैषा। भणिताच पुन्द रेण-सुन्दरि! अलं स्नेहकातरतया. न मम तत्र क्षेप (बिलम्ब) इति । नर्मदया भणितम्- आर्यपुत्रः प्रमाणमिति। द्वितीय दिवसे च निर्गतः पुरन्दरः, गतो मायाप्रयोगेण । अतिबाह्य कुत्रचिद् वासरं प्रविष्टो रजन्याम् । गतोऽर्धरात्रसमये निजभवनम, प्रविष्टो वासगेहम् । दृष्टा च तेन सुरतायासखेदसुख प्रसुप्ता सममर्जनेन नर्मदा। कुपितः खल्वेषः, प्रनष्टा विवेकवासना । चिन्तितं च तेन-सुधाहारतुल्या: स्त्रियः, यत्नेनैतासां भोगः पालनं च । दुष्टश्च दुराचारोऽर्जनः, यो मे कलत्रमभिलषति, तत एतं व्यापादयामीति । चिन्तयित्वा सुखप्रसुप्तो व्यापादितस्तेनार्जुनः । व्यापाद्य च निर्गतो वासगेहात् । चिन्तित च तेनपश्यामि, कि मे प्रियतमा करोतीति । स्थित एकदेशे। तथाविधरुधिरस्पर्शन विबुद्धा नर्मदा । दष्टश्च प्र यः वैर बँधा रहता है। मेरी माता ईर्ष्यालु नहीं है, पुन: प्रियतमा में गुणों की अधिकता है, 'स्त्रियाँ चंचल होती है' ऐसा ऋषि का वचन है अत: अन्य या नहीं होगा। काम के बाण विषम होते हैं। अत: इसकी परीक्षा करता हूँ-ऐसा सोचकर एकान्त में नर्मदा से कहा---'सुन्दरी ! राजाज्ञा से मुझे माहेश्वर को जाना है और शीघ्र ही आ जाऊँगा। अत: सुन्दरी, कुछ दिन तक भली प्रकार रहना।' नर्मदा ने कहा-'आर्यपुत्र ! मैं भी चलूंगी, तुम्हारे बिना भलीप्रकार कैसे रहूँगी?' - ऐसा कहती हुई यह रो पड़ी। पुरन्दर ने कहा-'सुन्दरी ! स्नेह से दुःखी मत होओ, वहाँ पर मैं देर नहीं करूंगा।' नर्मदा ने कहा- 'आर्यपुत्र प्रमाण हैं।' दूसरे दिन पुरन्दर निकल गया, छल से गया । कुछ दिन बिताकर रात्रि में प्रविष्ट हुआ। आधी रात के समय अपने घर में गया, शयनगृह में प्रवेश किया। उसने सम्भोग के परिश्रम की थकावट से सुखपूर्वक अर्जुन के साथ सोई हुई नर्मदा को देखा। यह कुपित हुआ, विवेक का संस्कार नष्ट हो गया। उसने सोचा-स्त्रियाँ अमृत के तुल्य होती हैं, इनका यत्न से भोग और पालना करना चाहिए। अर्जुन दुराचारी और दुष्ट है जो कि मेरी प्रिया की अभिलाषा करता है, अतः इसे मारता हूँ-ऐसा सोचकर सुख से सोये हुए अर्जुन को उसने मार दिया। मारकर शयनगृह से निकल गया। उसने सोचा-देखू मेरी प्रिया क्या करती है। एक स्थान पर खड़ा रहा । उस प्रकार के खून के स्पर्श से नर्मदा Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मवमो भवो ] ८४५ 1 चणाए -हा हा विवन्नो मे पिययमो, हा हय म्हि मंदभाइणी । अह केण उण एवं वबसियं कूरो खु सो पावो । कोस वा अहं न वावाइया, किं वा ममं जीवइ ( जीविएण) अवणीयं हिययबंधणं । नियत्ता इहकहा । सव्वा इसो एस संसारो ति । चितिऊण वासगेहभित्तिमूले खया दीहखड्डा, निहओ तहिं अज्जुणओ । एयमवलोइऊण अवक्कतो पुरंदरो, गओ अहिमयपएसं । कया य णाए तहिं पए से लहिया, कप्पिया तस्स बोंदी, पूएइ पइदिणं, करेइ बलिविहि, निहेइ नेहदीवं, आलिंगइ सिणेहमोहेण । उचिमणं च आगओ पुरंदरो। न दंसिओ तेण वियारो, न लक्खिओ नम्मयाए । अइक्कंता कइइ दिया । दिट्ठा पुरंदरेण यलहियातुस्सा । वितियं च णेण - अहो से मूढया, अहो अणराओ । अहवा अणहीयसत्थो ईइसो चेव इत्थियायणो होइ । कि ममेइणा । सुहाहारतुल्लाओ इत्थियाओ रिसिवयणं । ता करेउ एसा जं से पडिहायइ । पुठिंब व तीए सह विसयसुहमणुहवंतस्स अइक्कता दुवाल संवच्छरा । इओ य अईयचमदिणे पत्थुयाए पक्वाइयाए उवगप्पिए विविहदियभोयणे अभुत्तेसं दिसुं समासन्नाए भोयजवेलाए दिट्ठा पुरंदरेण तीए थलहियाए पिंडविहाणमुवगप्पयंती तया दीर्घनिद्राप्रसुप्तोऽर्जुनः । चिन्तितं च तया - हा हा विपन्नो मे प्रियतमः, हा हताऽस्मि मन्दभागिनी । अथ केन पुनरेवं व्यवसितम्, क्रूरः खलु स पापः । वस्माद् वाऽहं न व्यापादिता, किंवा मम जीवितेन,अपनीतं हृदयबन्धम् । निवृत्ता रतिसुखकथा । सर्वथेदृश एष संसार इति । चिन्तयित्वा वासगेहभित्तिमूले खाता दीर्घगर्ता, निखातस्तत्रार्जुनः । एवमवलोक्याप क्रान्तः पुरन्दरः, गतोऽभिमतप्रदेशम् । कृता च तया तत्र प्रदेशे स्थलिका, कल्पिता च तस्य बोन्दिः, पूजयति प्रतिदिनम्, करोति बलिविधिम् निदधाति स्नेहदीपम्, आलिङ्गति स्नेहमोहेन । उचितसमयेन चागतः पुरन्दरः, न दर्शितस्तेन विकारः, न लक्षितो नर्मदया । अतिक्रान्ताः कत्यपि दिवसाः । दृष्टः पुरन्दरेण स्थलकाशुश्रूषा | चिन्तितं च तेन - अहो तस्या मूढता, अहो अनुरागः । अथवाऽनधीतशास्त्र ईदृश एव स्त्रीजनो भवति । किं ममैतेन । सुधाहारतुल्या स्त्रिय इति ऋषिवचनम् । ततः करोत्वेषा, यत् तस्याः प्रतिभाति । पूर्वभिव तया सह विषयसुखमनुभवतोऽतिक्रान्ता द्वादश संवत्सराः । इतश्चातीतपञ्चमदिने प्रस्तुतायां पक्षादिकायामुपकल्पिते विविधद्विज भोजनेऽभुक्तेषु द्विजेषु समासन्नायां जाग गयी। उसने दीर्घनिद्रा में सोये हुए अर्जुन को देखा और (उसने सोचा- हाय हाय, मेरा प्रियतम मर गया, हाय में मन्दभागिनी मारी गयी। किसने ऐसा किया होगा ? निश्चित रूप वह पापी क्रूर है। अथवा मुझे क्यों नहीं मारा ? मेरे जीने से क्या ( अर्थात् मेरा जीना व्यर्थ है ) । हृदय के बन्धन दूर हो गये । सम्भोग सुख की कथा निवृत्त हो गयी । यह संसार ऐसा ही है - ऐसा सोचकर शयनगृह की दीवार के नीचे बड़ा गड्ढा खोदा, उसमें अर्जुन को गाड़ दिया । यह देखकर पुरन्दर चला गया । इष्ट स्थान पर गया। उस स्थान पर उस स्त्री ने छोटा चबूतरा बनवाया और उसकी मूर्ति बनवायी, प्रतिदिन पूजा करने लगी, बलि की विधि करने लगी, स्नेह का दीप रखने लगी, स्नेह के मोह से आलिंगन करने लगी । उचित समय पर पुरन्दर आया । उसने विकार नहीं दिखलाया, नर्मदा ने लक्षित नहीं किया। कुछ दिन बीत गये । पुरन्दर ने चबूतरे की सेवा देखी। उसने सोचाओह उसकी (पत्नी की) मूढ़ता, ओह अनुराग ! अथवा शास्त्र नपढ़ी हुई स्त्रियाँ ऐसी ही होती हैं। मुझे इससे क्या । स्त्रियाँ अमृत के आहार के तुल्य होती हैं - ऐसा ऋषिवचन है, अतः उसे जो दिखाई दे वह करे। पहले जैसा विषयसुख अनुभव करते हुए बारह वर्ष बीत गये। इधर पिछले पाँचवें दिन पक्षादि के आने पर अनेक प्रकार के भोजन ब्राह्मणों के लिए बनाने तथा ब्राह्मणों के भोजन करने पर जब भोजन का समय आया तो पुरन्दर ने उसी Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४६ [ समराइच्चकहा नम्मया। तओ ईसि विहसिऊण जंपियमणेण - हला, किमणेण अज्जावि । एयमायण्णिय भिन्नमिमीए हिययं । चितियं च णाए-हंत एएण मे पिपयमो वावाइओ, अन्नहा कहं एस एवं जंपइ। अहो से कूरहिययया। ता इमं एत्थ पत्तयालं; वावाएमि एवं हिययनंदणसत्तुं, करेमि वेरनिज्जायणं । एसो य एत्थुवाओ, देमि से विसभोयणं ति । चितिऊण आणावियं विसं । अवसरो त्ति कयमज्ज विसभोयणं पउत्तं च गाए । एस एत्थ वइयरो। राइणा भणियं-वच्छ, कुक्कुरवइयरो कहं ति । कुमारेण भणियं-ताय, तस्स वि इमीए चेव थलहिगासंणिविटुपिययमोवद्दवगारी इमो त्ति तं चेव विसभोयणं पउत्तं । अवि य तन्नेहमोहियाए तस्सोवद्दवनिमित्तमेयाए। सो चेव सत्त वारे एस हओ अज्जुणो ताय ॥१००१॥ जं सो मरिऊण तहा अचितसामत्थकम्मदोसेण।। एत्थेव सत्त वारे उववन्नो होणजम्मेसु ॥१००२॥ भोजनवेलायां दृष्टा परन्दरेण तस्यां स्थलिकायां पिण्डविधानमुपकल्पयन्ती नर्मदा। तत ईषद् विहस्य जल्पितमनेन-हला! किमनेनाद्यापि। एतदाकर्ण्य भिन्नमस्या हृदयम् । चिन्तितं च तयाहन्त एतेन मे प्रियतमो व्यापादितः, अन्यथा कथमेष एवं जल्पति। अहो तस्य क्रूरहृदयता । तत इदमत्र प्राप्तकालम्, व्यापादयाम्येतं हृदयनन्दनशत्रुम्, करोमि वैर निर्यातनम् । एष चात्रोपायः । ददामि तस्य विषभोजनमिति। चिन्तयित्वाऽऽनायितं विषम् । अवसर इति कृतमद्य विषभोजनम्। प्रयुक्तं च तया। एषोऽत्र व्यतिकरः । राज्ञा भणितम् - वत्स ! कुकुरव्यतिकरः कथमिति । कुमारेण भणितम् -तात ! तस्याप्यनयंव स्थलिकासन्निविष्टप्रियतमोद्रवकारी अयमिति तदेव विषभोजनं प्रयुक्तम । अपि च, तत्स्नेहमोहितया तस्योपद्रवनिमित्तमेतया। स एव सप्त वारान् एष हतोऽर्जुनस्तात ॥१००१।। यत् स मृत्वा तथाऽचिन्त्यसामर्थ्यकर्मदोषेण । अत्रैव सप्त नारान् उपपन्नो हीनजन्मसु ॥१००२।। चबूतरे पर पिण्डविधान करती हुई नर्मदा को देखा। अनन्तर कुछ हंसकर इसने कहा- 'सखी ! अब इससे क्या (लाभ है) ?' यह सुनकर इसका हृदय भिद गया। इसने सोचा- हाय, इसी ने मेरे प्रियतम को मारा है नहीं तो यह ऐसा कैसे कहता? इसकी (पति की) क्रूर हृदयता ! तो अब समय आ गया है, हृदय को आनन्द देनेवाले के शत्रु इसको (पति को) मारती हूँ, वैर का बदला चुकाती हूँ। यहाँ यह उपाय है, उसे विष का भोजन देती हूँऐसा सोचकर विष मंगवाया। 'अवसर है'-यह सोचकर उसने आज विष का भोजन बनाया, उसे दे दिया। यहाँ यह घटना हुई।' राजा ने कहा- 'पुत्र ! कुत्ते की घटना कैसी है ?' कुमार ने कहा-'पिता जी! उसको भी इसने 'चबूतरे पर विद्यमान प्रियतम पर यह उपद्रव करता है' सोचकर वही विष का भोजन दे दिया। कहा भी है सके प्रति स्नेह से मोहित होकर उस उपद्रव के कारण मात्र से इसी के द्वारा सात बार मारा गया। वह मरकर कर्म के दोषों की अचिन्त्य सामर्थ्य से यहीं सात बार हीन जन्मों में पैदा हुआ। Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनमो भवो ] foffiहकोइल म्यभेगाल ससप्पसाणभावेण । नियमरणथाम पडिबंधदोसओ पाविओ मरणं ॥ १००३॥ धी संसारो जहियं जुवाणओ परमरुवगव्वियओ । मरिऊण जायइ किमी तत्थेव कलेवरे नियए ॥१००४ ॥ घाइज्जइ मूढणं मूढो तन्नेहमोहियमणेण । जहियं तहि चेव रई एवं पि हु मोहसामत्थं ॥१००५॥ ता एस कुक्कुरवइयरोति । एयमायण्णिऊण संविग्गो राया । चितियं च णेण - अहो दारुणया संसारस, अहो विचित्तया कम्मपरिणईए, अहो विसयलोलुयत्तं जीवाणं, अहो अपरमत्यनुया; सव्वा महागहणमेयं त्ति । एत्थंतरम्मि समागया वेज्जा । भणियं च हि-देव, देवपसाएण जीवाविओ पुरंदरभट्टो कुक्कुरो य । एयमायण्णिय हरिसिओ राया। भणियं च णेण - कहं जीवाविओ ति । वेज्जेहि भणियं - देव, दाऊण छड्डावणाई छड्डाविओ विसं, तओ जीवाविओ ति । ८४७ कृमिगृह कोकिल मूषक भेकालससर्पश्वानभावेन । निजमरणस्थानप्रतिबन्धदोषतः प्राप्तो मरणम् ॥१००३॥ धिक् संसारं यत्र युवा परमरूपगर्वितः । मृत्वा जायते कृमिस्तत्रैव कलेवरे निजके ॥ १००४॥ घात्यते मूढेन मूढस्तत्स्नेह मोहितमनसा | यत्र तत्रैव रतिरेतदपि खलु मोहसामर्थ्यम् || १००५॥ तत एष कुर्कु व्यतिकर इति । एतदाकर्ण्य सविग्नो राजा । चिन्तितं च तेन - अहो दारुणता संसारस्य, अहो विचित्रता कर्मपरिणतेः, अहो विषयलोलुपत्वं जीवानाम्, अहो अपरमार्थज्ञता, सर्वथा महागहनमेतदिति । अत्रान्तरे समागता वैद्या:, भणितं च तैः - देव ! देवप्रसादेन जीवितः पुरन्दरभट्टः कुकुरश्च । एतदाकर्ण्य हषितो राजा । भणितं च तेन - कथं जीवित इति । वैद्यैर्भणितम् - देव ! दत्त्वा छर्दनानि छदितो विषं ततो जीवित इति । कीड़ा, पालतू कोयल, चूहा, मेंढक, हंसपदी लता, सर्प और कुत्ते के रूप में अपने मरणस्थान के संसर्ग के दोष से मृत्यु को प्राप्त हुआ। संसार को धिक्कार कि जहाँ पर परमरूप से गर्वित युवक मरकर उसी अपने शरीर में कड़ा होता है । मूढ़ता के कारण मूढ़ जिसका घात करता है, स्नेह से मोहित बुद्धिवाला उसी में रति करता है, यह भी मोह की सामर्थ्य है ।। १००१-१००५ ।। तो यह कुत्ते का वृत्तान्त है।' यह सुनकर राजा उद्विग्न हुआ और उसने सोचा- ओह संसार की भयंकरता, ओह कर्मों के फल की विचित्रता, ओह जीवों की विषयों के प्रति लोलुपता, ओह परमार्थ का ज्ञान न होना, ये सर्वथा अत्यधिक गहन है । इसी बीच वैद्य आये और उन्होंने कहा - ' महाराज की कृपा से पुरन्दर और कुत्ता जीवित है । यह सुनकर राजा हर्षित हुआ और उसने कहा- कैसे जीवित रहे ?' वैद्यों ने कहा - 'महाराज ! के करानेवाली दवाइयां देने के बाद विष के कर दिया, उससे जीवित रहे आये । Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्च कहा एत्थंतरमि बालायवसरिसो पयासयंतो नयर वियंभिओ उज्जोओ, पवज्जियाओ देवदुदुहोओ, पसरिओ पारियाया मोओ, सुव्वए दिव्वगेयं, वढिओ हरिसविसेसो । राइगा भणियं वच्छ, किमेति । कुमारेण भणियं - ताय, देवप्पाओ । राइणा भणियं वच्छ, को उण एस देवो, कि निमित्तं वा अयंडे उपाओ । कुमारेण भणियं - ताय, एस खलु गुणधम्मसेट्ठिपुत्तो जिणधम्मो नाम सेट्ठिकुमारो अज्जेव देवत्तमणुपत्तो । मित्तमारियाविबोहणत्थं च आगओ इहासि । पडिबोहियाणि य ताणि । तओ देवलोयगमननिमित्तं 'दंसेमि एयासि नियर्या रिद्धि'ति उप्पइओ इर्याणि । राणा भणियं - बच्छ, कहं पुण एस अज्जेव देवत्तमणुप्पत्तो, कहं वा विबोहिओ णेण मित्तो भारिया य । कुमारेण भणियं - ताय, एसो वि वइयरो कम्मपरतंतसच चेद्वाणुरुवो; तहावि ताएण पुच्छिओ त्ति साहीयइ । अन्ना कहं ईइसमेव इहलोयपरलोयविरुद्ध साहिउं पारीयइ । राइणा भणियं वच्छ, ईइसो एस संसारो, किमेत्थ नोक्खयं ति । कुमारेण भणियं - ताय, जइ एवं ता सुण । 'एस खलु जिणधम्मो जिणवयणभावियमई विरत्तो संसारवासाओ निरीहो विसएसुं भावए ८४८ । अत्रान्तरे बालातपसदृशः प्रकाशयन् नगरी विजृम्भित उद्योतः प्रवादिता देवदुन्दुभयः, प्रसृतः पारिजातामोदः, श्रूयते दिव्यगेयम्, वर्धितो हर्षविशेषः । राज्ञा भणितम् - वत्स ! किमेतदिति । कुमारेण भणितम् - तात ! देवोत्पातः । राज्ञा भणितम् - वत्स ! कः पुनरेष देवः किंनिमित्तं वाऽकाण्डे उत्पातः । कुमारेण भणितम् - तात ! एष खलु गुणधर्मश्रेष्ठिपुत्रो जिनधर्मो नाम श्रेष्ठिकुमारोऽद्यैव देवत्वमनुप्राप्तः । मित्रभार्याविबोधनार्थं चागत इहासीत् । प्रतिबोधिते च ते । ततो देवलोकगमननिमित्तं दर्शयाम्येतयोनिजऋद्धिम्' इति उत्पतित इदानीम् । राज्ञा भणितम् - वत्स ! कथं पुनरेषोऽयैव देवत्वमनुप्राप्तः, कथं वा विबोधितं तेन मित्रं भार्या च । कुमारेण भणितम्तात ! एषोऽपि व्यतिकरः कर्म परतन्त्र सत्त्वचेष्टानुरूपः, तथापि तातेन पृष्ट इति कथ्यते । अन्यथा कथमिदृशमेव इहलोकपरलोकविरुद्धं कथयितुं पार्थते । राज्ञा भणितम् - वत्स ! ईदृश एष संसार:, किमत्र अपूर्वमिति । कुमारेण भणितम् - तात ! यद्येवम्, ततः शृणु एष खलु जिनधर्मो जिनवचनभावितमतिविरक्तो संसारवासाद् निरीहो विषयेष भावयति इसी बीच प्रातःकालीन सूर्य के समान नगरी को प्रकाशित करता हुआ प्रकाश फैला, देवों के नगाड़े बजे, कल्पवृक्षों की सुगन्धि फैली, दिव्य गीत सुनाई पड़े, हर्षविशेष बढ़ा। राजा ने कहा- 'वत्स ! यह सब क्या है ?' कुमार ने कहा - 'पिताजी ! देव का ऊपर की ओर गमन है ।' राजा ने कहा- 'यह देव कौन है ? अथवा असमय मे कैसे ऊपर गया ?' कुमार ने कहा- 'पिता जी ! यह गुणधर्म सेठ का पुत्र जिनधर्म नामक श्रेष्ठिकुमार आज ही देवत्व को प्राप्त हुआ है। मित्र और पत्नी को जाग्रत करने के लिए यहाँ आया था। उन सभी को प्रतिबोधित किया । अनन्तर स्वर्ग को गमन करने के लिए इनको ऋद्धियां दिखलाऊंगा' ऐसा सोचकर इस समय ऊपर गया है । राजा ने कहा - ' यह कैसे आज ही देवत्व को प्राप्त हुआ है, कैसे उसने मित्र और पत्नी को संबोधित किया ?' कुमार ने कहा - 'पिता जी ! यह घटना भी कर्म से परतन्त्र प्राणी की चेष्टा के अनुरूप है, फिर भी पिता जी ने पूछा है अतः कहता हूँ अन्यथा कैसे इस लोक और परलोक के विरुद्ध कहने में समर्थ होता ?' राजा ने कहा'पुत्र ! यह संसार ऐसा ही है, यहाँ अपूर्व क्या है ।' कुमार ने कहा 'पिताजी! यदि ऐसा है तो सुनो यह जिनधर्म जिनेन्द्र भगवान के वचनों के अनुसार भावनावाली बुद्धि का होकर संसारवास से विरक्त Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो भवो ] ८४६ कुसलपक्ख । मित्तो य से धणयत्तो नाम, भारिया बंधला। सा उण अविवेयसामत्थओ संगया धणयत्तेण। अइक्कतो कोइ कालो । अज्ज उण जिणधम्मो निरवेक्खयाए इहलोयं पइ असाहिऊणं परियणस्स नियगेहासन्नसुन्नगेहे ठिओ सव्वराइयं पडिमं । न याणिओ बंधलाए। एसा वि विइण्णधणयत्तसंकेया घेत्तण लोहखीलयसणाहपायं पल्लंक गया त सुन्नगेहं । अंधयारदोसेण जिणधम्मपाओवरि ठाविओ पल्लंको। विद्धो तओ खीलएण । समागओ धणदत्तो; निवन्तो पल्लंके, निसण्णा बंघुला. आलिगिया धणयत्तेण, पवत्तं मोहणं। भारायासेण पोलिओ खोलिओ ताव जाव पायतलं विभिदिऊण निमिओ धराए। वयणाइसएण मच्छिओ जिणधम्मो, ओयल्लो भित्तिकोणे, न लक्खिओ इयरेहिं । समागया चेयणा, आभोइओ वइयरो, वढिया कुसलबुद्धी। चितियं च णेण-- अहो खलु ईइसा इमे विसया मोहति कुसलबुद्धि, नासेति सीलरयणं, पाति दुग्गईए, सम्वहा दुच्चिगिच्छा एए जीवाण भाववाहिणो। ता धन्ना महामणी तहोवसमलद्धि जुत्ता तियणेक्कगुरवो भयवतो तित्थणाहा, जेसि सन्निहाणओ वि जोग्गदेहावस्थियाणं अविसेसेण पायं न होइ पावबुद्धी पाणिणं ति । अहं पुण अधन्नो अच्चंतसंगयाण कुशलपक्षम् । मित्रं च तस्य धनदत्तो नाम, भार्या बन्धुला (लता)। सा पन रविवेकसामर्थ्यत: सङ्गता धनदत्तेन । अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । अद्य पुनजिनधर्मो निरपेक्षतयेहलोक प्रत्यकथयित्वा परिजनस्य निजगेहासन्नशून्यगेहे स्थित: सर्वरात्रिकी प्रतिमाम । न ज्ञातो बन्धुल (तया। एषाऽपि वितीर्णधनदत्तसंकेता गृहीत्वा लोहकीलकसनाथ पादं पल्यत गता त शन्य गेहम् । अन्धकारटोषण जिनधर्मपादोपरि स्थापितः पल्यङ्कः। विद्धस्ततः कीलकेन। समागतो धन दत्तः, निपन्नः पल्यङ्के, निषण्णा बन्धुला (लता), आलिङ्गिता धनदत्तेन, प्रवृत्त मोहनम् । भारायासेन पीडितः कीलकस्तावत् यावत् पादतलं विभिद्य न्यस्तो (प्रविष्ट:) धरायाम् । वेदनातिशयेन मच्छितो जिनधर्मः, पर्यस्तो भित्तिकोण, न लक्षित इतराभ्याम् । समागता चेतना, आभोगितो व्यतिकरः, वद्धिता कशलबुद्धिः । चिन्तितं च तेन- अहो खलु ईदृशा इमे विषया मोहयन्ति कुशल बुद्धिम् , नाशयन्ति शील रत्नम , पातयन्ति दुर्गती, सर्वथा दुश्चिकित्स्या एते जीवानां भावव्याधयः । ततो धन्या महामुनयस्तथोपशमलब्धियुक्ता स्त्रुिवनैकगुरवो भगवन्तस्तीर्थनाथाः, येषां सन्निधानतोऽपि योग्यदेशाव हो गया, विषयों के प्रति अभिलाषा रहित हो गया और शुभपक्ष की भावना करने लगा। उसका मित्र धनदत्त और पत्नी बन्धला नाम की थी। वह अविवेक की सामर्थ्य से धनदत्त के साथ हो गयी। कुछ समय बीत गया। पुनः आज जिनधर्म इस लोक की निरपेक्षता से परिजनों से न कहकर अपने घर के पास सूने घर में सम्पूर्ण रात्रि के लिए प्रतिमायोग में स्थित हो गया। बन्धुला ने नहीं जाना। यह भी धनदत्त के द्वारा दिये हुए सकेत के अनुसार लोहे की कीलोंवाले पलंग को लेकर उस सूने घर में गयी। अन्धकार के दोष से जिनधर्म के पैर पर पलँग रख दिया। उस कील से वह बिंध गया । धनदत्त आया, पलंग पर पड़ गया, बन्धला बैठ गयी। धनदत्त ने उसका आलिंगन किया, मोह से युक्त हो गये । भार के उद्योग से कील ने तब तक पीड़ा दी जब तक पैर के तलुए को भेदकर पृथ्वी में प्रविष्ट (न) हो गयी। वेदना की अधिकता से जिनधर्म मूच्छित हो गया। दीवार के कोने में गिर पड़ा । दोनों ने नहीं देखा । होश आया, घटना ज्ञात हुई, शुभबुद्धि बढ़ी और उसने सोचा - ओह ! निश्चित रूप से ये विषय शुभबुद्धि को मोहित करते हैं, शीलरूपी रत्न का नाश करते हैं, दुर्गति में गिराते हैं । इन भवव्याधियों की जीवों के द्वारा चिकित्सा होना कठिन है । अत: महामुनि तथा उपशमलब्धि से युक्त तीनों भवनों के अद्वितीय गुरु भगवान् तीर्थंकर धन्य हैं, जिनके समीप रहने पर भी योग्य स्थान में अवस्थित प्राणियों Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५० [ समराइच्चकहा पयत्तेण वि सम्वहा न चएमि भावोवयारं काउं मित्तभारियाणं पि, किमंग पुण अन्नेसि । अहो मे अप्पंभरित्तणं, अहो दुक्खहेउया, अहो अकयत्थत्तणं, अहो कम्मपरिणई; जेण मए वि संगयाणं एएस ईइस किलिचेद्वियं उवहासपायं लोए निबंधणं कूगइवासस्स । सम्वहा विराहियं मए सुहासियरयणं, जमेवं सुणीयइ, 'न खल निष्फलो कल्लाणमित्तजोओ' त्ति । कोइसी वा मम कल्लाणया, जेण एवमेयं हवइ । अत्थि एयाणमवरि मम पक्खवाओ। इमं पुण भयवंतो केवली वियाणंति । सहा परममन्तसुमरणे करेमि पयत्तं ति। तमेव चितिउमाढत्तो। नमो वीयरायाणं नमो गरुयणस्स त्ति । एवं भावसारं चितयंतो विमुक्को जोविएण, उप्पन्नो बम्भलोए । दिन्नो अणेणोवओओ। कोऽहमिमो कि दाणं का दिक्खा को व मे तवो चिण्णो । जेण अहं कयपुण्णो उप्पन्नो देवलोगम्मि ॥१००६॥ एव चितयतेण ओहिणा आभोइयं सव्वं । अकाऊण देवकिच्चं पहाणकरुणासगओ विबोहणनिमित्तं मित्तभारियाण सयराहमेव समागओ इहइं। न एवंविहाण अईवरायपडिबद्धाणं विणिवायस्थितानामविशेषेण प्रायो न भवत पाबद्धिः प्राणिनामिति । अह परधन्योऽत्यन्त सहत्योः प्रयत्नेनापि सर्वथा न शक्नोभि भावोपकारं तु मित्रभार्ययोरपि, किमङ्ग पुनरन्येषाम् । हो मे आत्मभरित्वम , अहो दुःखहेतता, अहो अकृतार्थत्वम, अहो कर्मपरिणतः, येन मयाऽप सड़तयो रेत शेरोदृशं क्लिष्ट वेष्टि तमुपहासप्रायं लोके निबन्धनं कुगतिवासस्य । सर्वथा विराधितं मया सुभाषितरत्नम्, यदेवं श्रूयते न खलु निष्फलः कल्याणमित्रयोगः' इति । कीदृशी वा मन कल्याणता, येनैवमेतद् भवति । अस्त्येतयोरुपरि मम पक्षपातः। इदं पुनर्भगवन्तः केवलिनो विजानन्ति । सर्वथा परममन्त्रस्मरणे करो म प्रयत्नमिति । तदेव चिन्तयितुमारब्धः। नमो वीतर गेभ्यः, नमो गुरुजनायेति । एवं भावसारं चिन्तयन् विमुक्तो जीवितेन, उत्पन्नो ब्रह्मलोके । दत्तोऽनेनोपयोगः । कोऽहमय किं दानं का दीक्षा कि वा मया तपश्चीर्णम । येनाहं कृतपुण्य उत्पन्नो देवलोके ॥१००६॥ एवं चिन्तयताऽवधिनाऽऽभोगितं सर्वम । अकृत्वा देवकृत्यं प्रधानकरुणासङ्गतो विबोधननिमित्तं मित्रभार्ययोः शीघ्रमेव समागत ह । नैवंविधानामतीवरागप्रतिबद्धानां विनिपात दर्शन की सामान्यत: पापबुद्धि नहीं होती है। मैं अधन्य हैं जो कि प्रयत्न से अत्यधिक मिले हए मि और भार्या का भावों से उपकार नहीं कर सकता हूँ. दसरों की तो बात ही क्या । ओह मेरा अपने आपका भरणपोपण करने वाला होना, ओह दुःख का कारणपना, ओह अकृतार्थता, ओह कमों का फल; जिससे मैं भी इन दोनों के साथ इस प्रकार दुःखी चेष्टावाला उपहासप्राय और लोक में कुगतिवास का कारण होऊँगा। सर्वथा मैंने सभाषितरूपी रत्न का विगधन कर दिया जो कि इस प्रकार सुना जाता है कि कल्याण (करने वाले) मित्र का मिलना निश्चित रूप से निष्फल नहीं होता है। मेरी कैसी कल्याणता जो कि यह इस प्रकार हो रहा है। मेरा इन दोनों पर पक्षपात है। इसे भगवान केवली जानते हैं। सर्वथा परममन्त्र (णमोकार मंत्र) का स्मरण करने का प्रयत्न करता है। उसी का स्मरण करना आरम्भ किया। वीतरागों को नमस्कार हो, गरुजनों को नमस्कारहो। इस प्रकार साररूप भावों का चिन्तन करते हुए जीवन छोड़ा, ब्रह्मलोक में उत्पन्न हआ। इसने ध्यान लगाया। यह मैं कौन हूँ? मैंने क्या दान, दीक्षा अयवा तपश्चरण किया, जिससे मैं पूण्य कर स्वर्गलोक में उत्पन्न हुआ ? ||१००६॥ . इस प्रकार सोचले हए अवधिज्ञान से सब जान लिया । देवों के करने योग्य कार्यों को न कर प्रधानकरुणा से यक्त हो मित्र और पत्नी को संबोधित करने के लिए शीघ्र यहाँ आया । इस प्रकार के तीव्र राग में बंधे हए Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो भवो] दसणमंतरेण संभवइ बोहो त्ति पउत्ता देवमाया, कया बंधुलाए विसूइया। गहिया महावेयणाए, वेउब्वियं अतुइजंबालं अइचिक्कणं फासेण पगिट्टदुरहिगंध अमणोरमं असुइभक्खणरयाणं पि। सव्वहा तेण एवंविहेण भिन्ना उभयपासओ। हा हा मरामि त्ति अवलंबए धणयनं । भिज्जए पुणो पुणो घणयतो वि तेण पावेण विय लिप्यमाणो जंबालेण । गहिओ सोयवेयणाहि; जाया महाअरई । चितियं च ण-अहो कोइसं जायं ति । उविग्गो मणागं ओसरइ बंधलाओ। तीए चितियं-अहो एयस्स नेहो, संपथं चेव उब्वियइ। भणियं च णाए-हा हा मरामि ति, महई मे वेयणा, भज्जति अंगाई। तेण भणियं-किमहमेत्थ करेमि, असझं खु एयं । तीए भणियं-संवाहेहि मे अंगं । लग्गो संवाहिउं उवरोहमेत्तेण। लेसिया हत्या, न चएइ वावारिउं। तओ चितियमणेण - अहो किपि एयं अइपुव्वमम्हेहि मुत्तिमंतं विय पावं, पगरिसो असंदराणं । भणियं च सकरुणं-पिए, किमहमेत्थ करेमि, न वहति मे हत्था । गहिओ य अरईए, सव्वहा पावविलसिथमिणं । बंधलयाए चितियं- एवमेयं न अन्नहा। महंतमेवेयं पावं, जं परमदेवयाकप्पो सिणेहाल वंचिओ भत्तारो, कयमिणं उभयलोय. मन्तरेण सम्भवति बोध इति प्रयुक्ता देवमाया, कृता बन्धुलाया (लतायाः) विसूचिका । गृहीता महावेदनया, विकवितमशुचिजम्बालमति चिक्कणं स्पर्शेन प्रकृष्ट दुरभिगन्धममनोरममशुचिभक्षणरतानामपि । सर्वथा तेनेवंविधेन भिन्ना उभयपार्वतः। हा हा म्रिये इत्यवलम्बते धनदत्तम । भिद्यते पुनर्धनदत्तोऽपि तेन पापेनेव लिप्यमानो जम्बालेन । गृहीतः शोक वेदनाभिः, जाता महाऽरतिः । चिन्तितं च तेन-अहो कीदृशं जात मिति । उद्विग्नो मनागपसरति बन्धुलायाः (लतायाः)। तया -अहो एतस्य स्नेहः. साम्प्रतमेव सद वेक्ति। भणितं च तया-हा हा म्रिय इति, महती मे वेदना, भज्यन्तेऽङ्गानि । तेन भणितम - किमहमत्र करोमि, असाध्यं खल्वेतत् । तया भणितम् - संवाहय मेऽङ्गम् । लग्नः संवाहयितुमुपरोधमात्रेण। श्लेषितौ हस्तौ, न शक्नोति व्यापारयितुम् । ततश्चिन्तितननेन-अहो किमप्येतददृष्टपूर्वमावाभ्यां मूतिम दिव पापं, प्रकर्षोऽसुन्दराणाम् । भणितं च सकरुणम् - प्रिये ! किमहमत्र करोमि, न वहतो मे हस्तौ । गृहीतश्चारत्या, सर्वथा पापविलसितमिदम् । बन्धु (त)या चिन्तितम् --एवमेतद् नान्यथा। महदेवैतत् पापम्, यत् परमदेवताकल्पः चिन्तित लोगों को अधःपतन दिखाये बिना बोध सम्भव नहीं है-ऐसा विचारकर देवमाया का प्रयोग किया। बन्धूला को हैजा कर दिया । उसे अत्यधिक वेदना ने जकड़ लिया, स्पर्श की अपेक्षा अत्यन्त चिकना विष्टा का कीचड़ कर दिया जो कि अपवित्र पदार्थों के भक्षण में रत रहने वालों की विष्टा से भी अत्यधिक दुर्गन्धित और बुरा था । उसने इस प्रकार दोनों पार्श्वभाग तोड़ दिये । 'हाय हाय, मर गयी' इस प्रकार धनदत्त का सहारा लिया । धनदत्त भी उसी पाप रो कीचड़ (विष्टा) से लिप्त हआ बार बार भिद गया। शोक और वेदना ने घेर लिया, अत्यधिक अरति उत्पन्न हुई और उसने सोचा-ओह ! कैसा हो गया ? इस प्रकार उद्विग्न होकर थोड़ा बन्धुला के पास सरका । उसने सोचा-ओह इसका स्नेह, इस समय भी उद्विग्न हो रहा है। उसने कहा - 'हाय मैं मर गयी, मुझे बहुत वेदना हो रही है, अंग-अंग टूट रहे हैं।' उसने कहा-'मैं यहाँ क्या करूँ, यह असाध्य है।' उसने कहा--'मेरे अंगों को दबाओ।' अनुग्रह मात्र से दबाने में लग गया। हाथ चिपक गये, चलाने में समर्थ नहीं हुआ। अनन्तर इसने सोचा-ओह ! यह पहले न देखा गया हम दोनों का कोई मानो शरीरधारी पाप है, अशोभन की चरमसीमा है। करुगायुक्त होकर कहा-'प्रिये ! मैं यहाँ क्या करूँ ? मेरे हाथ नहीं चलते हैं। अरति ने ग्रहण कर लिया, सर्वथा यह पाप की क्रीड़ा है ।' बन्धुला ने सोचा- ऐसा ही है, अन्यथा नहीं है । यही Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चकहा विरुद्धं । समागया संवेयं, 'हा अज्जउत्त' त्ति रोविडं पयत्ता । धणदत्तेण चितियं - हा अणज्ज धनयत्त, एवंविहे जीवलोए एहमे ते असारे सरीरम्मि सोऊन पियवयंसवयणं उवजीविऊण तप्पसाए किमियविति । एवंविहाण चेट्ठियाण ई इसा चैव परिणइति । हा पिश्वयंस, दूढो मए तुमं ति । चितिऊण संवेगसार मुवगओ मोहं । एत्यंत रम्मि एस एत्थ पडिबोहणसमओ त्ति जाणिऊण ओहिणा तेसि विष्पलोहणेण दिव्यरूवधारिणा संबेगवुढिनिमित्तं सवपूयणाववएसेण दिल्नं दरिसणं । निव्वत्तिया सवपूया । अवहरिया तीसे वेयणा इयरस्स य सोयाणती । दिट्ठो तेहि देवो । वंदिओ भावेण । चितियं च हि - अहो णे एयपहावेण अवगया वेयणा, अहो से सत्ती, अहो रूवं, अहो दित्ती, अहो कंती | बिहिहिं पण मिओ सविनयं । भणियं च हि- भयवं, को तुमं; कि निमित्तं वा इहागओ सि । तेण भणियं - देवो अहं जिणधम्मपडिमापूयणत्थं समागओ म्हि । तेहि भणियं - कहिं जिणधम्मपडिमा । दंसिया देवेण 'एसा पडिम'त्ति । दिट्ठा य णेहिं । हा जिणधम्मविवन्नपडिमा वियदीसइति 1 ८५२ स्नेहालुर्वञ्चितो भर्ना, कृतविमुभयलोक विरुद्धम् । समागता संवेग म् 'हा आर्यपुत्र' इति रोदितुं प्रवृत्ता । धनदत्तेन विन्तितम् - हा अनार्य धनदत्त ! एवंविध जीवलोके एतावन्मात्र सारे शरीरे वास्तव्य तत्त्रसादान् किमिदमुचितमिति । एवविधानां चेष्टितानामीदृश्येव परिणतिरिति । हा प्रियवयस्य ! दूढो मया त्वमिति । चिन्तयित्वा संवेगसारमुपगतो मोहम् । अत्रान्तरे एषोऽत्र प्रतिबोधन समय इति ज्ञात्वाऽवधिना तयोविप्रलोभनेन दिव्यरूपधारिणा संवेगवृद्धिनिमित्तं शवपूजनव्यपदेशेन दत्तं दर्शनम् । निर्वर्त्तिता शवपूजा | अपहृता तस्या वेदना इतरस्य च शोकानलः । दृष्टस्ताभ्यां देवः । वन्दितो भावेन । चिन्तितं ताभ्याम् अहो आवयोरेतत्प्रभावेणापगता वेदना; अहो तस्य शक्तिः, अहो रूपम्, अहो दीप्तिः, अहो कान्तिः । विस्मताभ्यां प्रणतः सविनयम् । भणितं च ताभ्याम् - भगवन् ! कस्त्वम्, किं निमित्तं वेहागतोऽसि । तेन भणितम्-- देवोऽहं जिनधर्मप्रतिमापूजनार्थ समागतो. स्मि । ताभ्यां भणितम् - कुत्र जिनधर्मप्रतिमा । दर्शिता देवेन, 'एषा प्रतिमा' इति । दृष्टा च ताभ्याम् | हा जिनधर्मविपन्नप्रतिमेव दृश्यते इति संक्षुब्धौ हृदयेन । भणितं च बहुत बड़ा पाप है कि परमदेवता के समान स्नेह करनेवाले पति को धोखा दिया, यह इस लोक और परलोक दोनों लोकों के विरुद्ध किया। विरक्ति आ गयी। हाय आर्यपुत्र ! इस प्रकार ( कहकर ) रोने लगी । धनदत्त ने सोचा- हाय अनार्य धनदत्त ! इस प्रकार के संसार में इतना असार शरीर होने पर प्रियमित्र के वचन सुनकर उनकी कृपा से जीकर क्या यह (करना) उचित था ? इस प्रकार के कार्य करनेवालों का फल ऐसा ही होता है । हाय प्रियमित्र ! मैंने तुम्हारे साथ द्रोह किया ऐसा विरक्ति के सार का विचार कर मूच्छित हो गया ।। इसी बीच - 'यह यहाँ सम्बोधित करने का समय है, इस प्रकार अवधिज्ञान से विचारकर, उन्हें छलकर विरक्ति की बुद्धि के लिए दिव्यरूप धारण कर (देव ने शव की पूजा करने के छल से दर्शन दिया । शवपूजा पूर्ण की उसकी (बन्धुला की ) वेदना हर ली, 'ओह उसकी शक्ति, ओह रूप, ओह दीप्ति, ओह कान्ति' - इस प्रकार विस्मित हुए इन दोनों ने विनयपूर्वक प्रणाम किया। दोनों ने कहा- 'भगवन् ! तुम कौन हो ? अथवा किस कारण यहाँ आये हो ?' उसने कहा 'मैं देव हूँ, जिनधर्म की प्रतिमा का पूजन करने के लिए आया हूँ ।' उन दोनों ने कहा- 'जिनधर्म की प्रतिमा कहाँ है ?' देव ने दिखा दी -- 'यह है प्रतिमा ।' उन दोनों ने देखा - मरा हुआ जिनधर्मप्रतिमा के समान दिखाई देता है, अतः हृदय से क्षुब्ध हुए। उन दोनों ने कहा- 'भगवन् ! यह Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो भवो] ८५३ संखुद्धाणि हियएण। भणियं च हि -- भयवं, विगयजीवा विय एसा लक्खीयइ, ता को एस्थ परमत्थो, साहेउ भयवं ति। भणमाणाई निवडियाई चलणेसु । भणियं च हि- कहिं जिणधम्मो । देवेण भणियं -देवतीहूओ । तओ निरूवमाणेहि दिट्ठो मंचखीलवेहो। 'हा कयमकज्जमम्हेहि' भणमाणाणि उक्गयाणि मोहं । समासासियाणि देवेण । लज्जाइसएण समारद्वाणि अत्ताणयं वावाइ। निवारियाणि देवेण । भणियं च णेण ---भो भो कि निमित्तं तुब्भे अत्ताणयं वावाह। तेहि भणियं ---भयवं, अलमम्हाण निमित्तसवणेण, दिव्वनाणनयणो भयवं किं वा नयाणइ । ता इमं चेव अम्हाण पतयालं । देवेण भणियं --अलं मरणमेत्तेण, तदुवएसपालणं तुम्ह पत्तयालं। तेहि भणियंभयवं, अओग्गाणि अम्हे तदुवएस्स, गओ य सो भयवं अम्हाणमदंसणीयमवत्थं ति। देवेण भणियं-- ता जोग्गाणि तुम्हे, जेणेवं परितप्पह । न खल किलिटुकम्माण आसे विए वि अकज्जे कयाइ पच्छायावो होड़, संदरो य एसो. पकवालणं पावमलस्स। न यावि सो गओताणमटसणीयमवत्थं ति, जो सो चेव अहयं ति। न खिज्जियव्वं च तुहिं । ईइसी एसा कम्मपरिणई, दारुणं मोहचेट्टियं, अभ्याम् -भगवन् ! विगत जीवेव एषा लक्ष्यते, ततः कोऽत्र परमार्थः, कथयतु भगवानिति भणन्तो निपतितौ चरणयोः । भणितं च ताभ्याम् - कुत्र जिनधर्मः । दवन भणितम्-दवत्वीभूतः। ततो निरूपया दष्टो मञ्चकीलक वेधः । 'हा कृतमकार्यमावाभ्याम्' भणन्तावुपगतौ मोहम । सम?वासितौ दवेन । लज्जातिशयेन समारब्धावात्मानं व्यापादयितुम् । निवारितौ देवेन । भणितं च तेन-भो भाः किनिमित्तं युवामात्मानं व्यापादयथः । ताभ्यां भणितम्- भगवन् ! अलम वयोनिमित्तश्रवणेन । दिव्यज्ञान नयनो भगवान् किं वा न जानाति । ततः इदमेवावयोः प्राप्तकालम । देवन भणितम् अलंकरणमात्रेण; तदुपदेशपालनं युवयोः प्राप्तकालम् । ताभ्यां भणितम्-भगवन ! अयोग्यो आवां तदुपदेशस्य, गतश्च स भगवान आवयोरदर्शनीयामवस्थामिति । देवेन भणितम्ततो योग्यौ युवाम्, येनैवं परितप्यथे। न खलु क्लिष्टकर्मणामासे वितेऽपि अकार्ये कदाचित पश्चात्त पो भवति, मुन्दरश्चैषः, प्रक्षालनं पापमलस्य : न चापि स मतो युवयोरदर्शनीयामवस्थामिति, यतः स एवाह मिति । न खेत्तव्यं च युवाम्याम् ईदृशी एषा कर्मपरिणतिः, दारुणं मोहचेष्टितम्, प्रतिमा प्राणरहित-सी दिखाई देता है । अत: यहाँ वास्तविकता क्या है ? भगवन् कहिए'---ऐसा कहते हुए दोनों चरणों में गिर गये। उन दोनों ने कहा .. 'जिनधर्म कहाँ है?' देव ने कहा--- देवत्व को प्राप्त हो गया।' अनन्तर देखते हुए पाये की कील बिंधी हुई दिखाई दी। 'हाय, हम दोनों ने अकार्य किया'-ऐला कहते हुए मूच्छित हो गये । देव ने होश में लाया । लज्जा की अधिकता से अपने आपको मारना प्रारम्भ किया। देव ने दोनों को रोका । उसने कहा- 'अरे अरे, आप दोनों अपने आपको क्यों मारते हैं ?' उन दोनों ने कहा - 'भगवन् ! हम दोनों का कारण मत सुनिए । भगवान् दिव्य ज्ञानरूपी नेत्रवाले हैं, क्या नहीं जानते हैं। अतः हम लोगों की यही मृत्यु आ गई है । देव ने कहा-मरण मात्र व्यर्थ है. उसके उपदेश के पालन करने का आप दोनों का समय आ गया है। उन दोनों ने कहा -'हम दोनों उस उपदेश के योग नहीं हैं, वह भगवान हम दोनों के द्वारा न देखी जाने योग्य अवस्था को चले गये हैं।' देव ने कहा-'अतः तुम दोनों योग्य हो; जो कि इस प्रकार सन्ताप कर रहे हो। जिनका कर्म दुःख देनेवाला है उन्हें अकार्य का सेवन करने पर भी पश्चात्ताप नहीं होता है, पापरूपी मल को धोने के लिए यह (इस प्रकार का सन्ताप) सुन्दर है। वह आप लोगों के द्वारा न दिखाई देने योग्य अवस्था को भी नहीं गया है; क्योंकि वह मैं ही हूँ। आप दोनों को खिन्न नहीं होना चाहिए। यह कर्म की परिणति Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५४ [समराइच्च कहा रोद्दा विसयत्तणी सव्वा, किमेइणा । संपयं पि धम्ममेत्तसरणाई होइ, परिच्चयह सव्वमन्नं । तेहि भणियं -- जं भयवं आइसइ । किं तु अवस्समेव उज्झियत्वा अम्हेहि पाणा, न सकुणेमो अकज्जाय कलंकदूसियं बोंदि तुह वयणाओ जणियपच्छायावाई संपयं खणमवि धारेउं । एवं ववस्थिए समाइसउ भयवं ति । साहिओ देवेण धम्मो, परिणओ भावेण । कया सव्वविरई, पच्चक्खायमण सणं, जाओ त्रिसुपरिणामो, निदियाई पुग्वदुक्कडाई, परिणओ संवेओ, भावियं भवसरूवं, पडिबुद्धाणि ति । कय किच्चभावेण पक्खिविध नियकडेवरं उप्पइओ देवो ति । एयमायणऊण संविग्गो राया । भणियं च णेण - अहो न किंचि एयं माइंदजालसरिसं भवचेट्ठियं | दुल्लहो खलु इहं कल्लाणमित्तजोओ, हिओ एगंतेण न इओ किंचि हिययरं, जेण एयाण fa एवं पहाणगुणलाही ति । सव्र्व्वेहि भणियं - महाराव, एवमेयं । संविग्गाणि सव्वाणि, विरताणि भवाओ। राइणा भणियं वच्छ, कहिं पुण एयाण उववाओ भविस्सइ । कुमारेण भणियं -- ताय, सोहम्मे । राइणा भणियं - विरुद्धयारीणि एयाणि । कुमारेण भणियं-ताय, सच्चमेय; विरुद्धयारीणि, रौद्रा विषयवर्तनी सर्वथा, किमेतेन । साम्प्रतमपि धर्ममात्रशरणो भवतम्, परित्यजतं सर्वमन्यत् । ताभ्यां भणितम् - यद् भगवान् आदिशति । किन्त्वदयमेव उज्झितव्या आवाभ्यां प्राणाः, न शक्नुवोऽकार्याच रणकलङ्कदूषितां बोन्दि (शरीरं) तव वचनाद् जनितपश्चात्तापो साम्प्रतं क्षणमपि धारयितुम् । एवं व्यवस्थिते समादिशतु भगवानिति । कथितो देवेन धर्मः, परिणतो भावेन । कृता सर्वविरतिः, प्रत्याख्यातमनशनम्, जातो विशुद्धपरिणामः निन्दितानि पूर्वदुष्कृतानि परिणतः संवेगः, भावितं भवस्वरूपम्, प्रतिबुद्धाविति । कृत्यकृत्यभावेन प्रक्षिप्य निजकलेवरमुत्पतितो देव इति । एतदाकर्ण्य संविग्नो राजा । भणितं च तेन - अहो न किञ्चिदेतद्, मायेन्द्रजालसदृशं, भवचेष्टितम् । दुर्लभः खलु इह कल्याणमित्रयोगः, हित एकान्तेन न इतः किञ्चिद् हिततरम्, येन एतयोरपि एवं प्रधानगुणलाभ इति । सर्वैर्भणितम् - महाराज ! एवमेतत् । संविग्नाः सर्वे, विरक्ता भवात् । राज्ञा भणितम् - वत्स ! कुत्र पुनरेतयोरुपपातो भविष्यति । कुमारेण भणितम् - तात ! सौधर्मे । राज्ञा भणितम् - विरुद्धकारिणो एतौ । कुमारेण भणितम्-तात ! सत्यमेतद्, ऐसी ही है, मोह की चेष्टा भयंकर है, विषयों का रास्ता भयकर है। इससे क्या इस समय भी आप दोनों अन्य सब छोड़कर मात्र धर्म की शरण में होइए। उन दोनों ने कहा- 'जो भगवान् आदेश दें। किन्तु हम दोनों अवश्य ही प्राण छोड़ देंगे, अकार्य का आचरण करनेरूपी कलंक से युक्त शरीर को आपके वचनों से उत्पन्न पश्चात्ताप वाले हम दोनों अब क्षण भर भी धारण करने में समर्थ नहीं हैं । ऐसी स्थिति में आप आदेश दें ।' देव ने धर्मं कहा, भावपूर्वक परिणत हो गया । समस्त परिग्रहों को छोड़ दिया, अनशन धारण किया, विशुद्ध परिणाम उत्पन्न हुआ, पहले के खोटे कार्यों की निन्दा की, संवेग वृद्धिंगत हुआ, संसार के स्वरूप का विचार किया, दोनों जागृत हो गये । कृतकृत्य होकर अपने शरीर को फेंक कर देव ऊपर चला गया । यह सुनकर राजा भयभीत हुआ और उसने कहा - 'ओह यह कुछ नहीं है, सांसारिक कार्यं मायामयी इन्द्रजाल के सदृश हैं, यहाँ पर निश्चय से कल्याणमित्र का मिलना दुर्लभ है, एकान्तरूप से ( कल्याणमित्र का मिलना ) हितकर है, इससे अधिक कोई हितकर नहीं है जिससे इन दोनों को भी इस प्रकार प्रधान गुणों का लाभ हुआ ।' सबने कहा--'यह ठीक है ।' सभी उद्विग्न हुए, संसार से विरक्त हो गये । राजा ने कहा - 'पुत्र ! ये दोनों कहाँ उत्पन्न होंगे ?' कुमार ने कहा- 'पिता जी ! सौधर्म स्वर्ग में ।' राजा ने कहा - 'ये दोनों विरुद्ध कार्य करने Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५५ नवमो भवो ] किंतु पडिवन्नमेएहि पच्छायावओ धम्मचरण, जाया भावओ विरइपरिणई। तीए य एवंविहं चेव सामत्थं जमविराहियाए पडिवत्तिकालओ न दोग्गई पाविज्जइ । राइणा भणियं - तहावि विरुद्धयारीणि एयाणि, कहं देवलोयसंपत्ती एयाण जुज्जई त्ति । कुमारेण भणिय-ताय, सुंदरा विरइपरि संगया अप्पमाण छेदणी दुक्खाण जणणी सुहपरंपराए । इमीए संगया पाणिणो नत्थि तं कल्ला जंन पाउति । राइणा भणियं वच्छ, इयमेव कहमेयारिसाणं संजायइ, कहं वा इमीए पडिवत्तिजग्गा एवंविहेसु अकुसलेसु पयट्टति । कुमारेण भणियं - ताय, विचित्ता कम्मपरिणई । किं तु न एएसि अइस किलेससारा अकुसलपवित्ती तहाविहकम्मपरिणामओ पवित्तिमेत्तं रहिया अणुअच्चंतभावसारा रहिया अइयारेहिं संगया आगमेण निरवेवखा भवपवंचे त्ति । राणा भणियं वच्छ, एवमेयं, कहमन्नहा ईइसी पवित्ती भवं छिंदइ । कुमारेण भणियं-ताय, एवमेयं सम्ममवहारियं ताण । अन्नं च । विन्नवेमि तायं । न खलु मे रई एयम्मि नडपेड ओवमे विरुद्धकारिणौ, किन्तु प्रतिपन्नमेताभ्यां पश्चात्तापतो धर्मचरणम, जाता भावतो विरतिपरिणतिः । तस्याश्नैवंविधमेव सामर्थ्यम्, यदविराधितया प्रतिपत्तिकालतो न दुर्गतिः प्राप्यते । राज्ञा भणितम्तथापि विरुद्धकारिणावेतौ कथं देवलोकसम्प्राप्तिरेतयोर्युज्यते इति । कुमारेण भणितम् - तात ! सुन्दरा विरतिपरिणतिः सङ्गताऽप्रमादेन छेनी दुःखानां जननी सुख (शुभ) परम्परायाः । अनया सङ्गताः प्राणिनो नास्ति तत् कल्याणं यन्न प्राप्नुवन्ति । राज्ञा भणितम् - वत्स ! इयमेव कथमेतादृशयोः सञ्जायते, कथं वाऽस्याः प्रतिपत्तियोग्या एवंविधेष्व कुशलेषु प्रवर्तन्ते । कुमारेण भणितम्तात ! विचित्रा कर्मपरिणतिः, किन्तु नैतयोरतिसंक्लेशसारा अकुशलप्रवृत्तिस्तथाविधकर्मपरिणामतः प्रवृत्तिमात्र रहितानुबन्धेन, कुशलपक्षे त्वत्यन्त भावसारा रहिताऽतिचारैः सङ्गता आगमेन निरपेक्षा भवप्रपञ्चे इति । राज्ञा भणितम् - वत्स ! एवमेतत् कथमन्यथा ईदृशी प्रवृत्तिर्भवं छिनत्ति । कुमारेण भणितम् - तात ! एवमेतत् सम्यगवधारितं तातेन । अन्यच्च, विज्ञपयामि तातम् । न खलु मे रति वाले हैं ।' कुमार ने कहा – 'पिता जी ! ठीक है कि ये दोनों विरुद्ध कार्य करनेवाले हैं; किन्तु इन दोनों ने पश्चात्ताप से धर्माचरण प्राप्त किया, भावपूर्वक विरतिभाव उत्पन्न हुआ। उस विरति परिणति की ऐसी सामर्थ्य है कि इस विरतिपरिणति की प्राप्ति के समय से ही इसकी विराधना न करने से दुर्गति की प्राप्ति नहीं होती है । राजा ने कहा--' तो भी ये दोनों विरोधी कार्य करनेवाले हैं। इन दोनों की स्वर्गलोक की प्राप्ति कैसे ठीक है ?' कुमार ने कहा – पिता जी ! विरतिरूप परिणाम सुन्दर हैं, अप्रमाद से युक्त है, दुःखों का छेद करनेवाला है। और सुख की परम्परा को उत्पन्न करने वाला है। इससे युक्त प्राणी ऐसा कोई कल्याण नहीं, जिसे न पात हो ।' राजा ने कहा - 'पुत्र ! ऐसे लोगों के यहीं (विरतिरूप परिणाम ) कैसे उत्पन्न हो जाते हैं ? इसके पाने के योग्य प्राणी कैसे अशुभों में प्रवृत्त हो जाते हैं ?' कुमार ने कहा 'पिताजी! कर्म की परिणति विचित्र है, किन्तु इन दोनों की अत्यन्त दुःखरूप खारवाली अशुभपरिणति नहीं है, उस प्रकार के कर्म के परिणाम से प्रवृत्ति मात्र करने से ये बन्धरहित हैं, शुभपक्ष में यह अत्यन्त भावरूप सारवाली, अतिचारों से रहित, आगम से युक्त और संसार के जंजाल से रहित है ।' राजा ने कहा- 'वत्स ! ठीक है, नहीं तो ऐसी प्रवृत्ति संसार का छेद कैसे करती ।' कुमार ने कहा- 'पिताजी ! यही है, पिता जी ने ठीक समझा। दूसरी बात पिताजी से यह निवेदन करता Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५६ [ समराइच्चकहा असुंदरे पयईए अगवट्टियसिगेहविभमे निहाणभूए सवावयाणं महाधोरसंसारम्मि। ता इच्छामि तायाणुन्नाओ एयमन्तरेण जइउं । संसिझंति नियमेण पाणिणो गुरुसमाइट्ठाई विहिणा पवत्तमाणस्स कुसलसमीहियाई। ता करेउ ताओ पसायं, अणुजाणउ म एयवइयरम्मि। भणमाणो निवडिओ चलणेसु । राइणा भणियं-वच्छ, नणु सवसिमेव अम्हाणमयं निच्छओ, ता अणुजापिओ मए। अहवा तुम चेव अम्हाण विमलनाणभावओ भावोवयारसंपायणेण कारणपरिसयाए गुरू, किमवं. पुच्छसि । ता करेहि कारवेहि य जं एत्थ उचिय ति । कुमारेण भणियं-ताय, महापसाओ; उचियं च ववसियं ताएण। एत्थंतरम्मि गलियपाया रयणी, पहयाइं पाहाउयाई तुराई, विभिओ बंदिसहो, पवाइया पच्चसपवणा, उल्लसिओ अरुणो, पणटुमंधयारं, समागया दिवसलच्छी, विउद्धं नलिणिसंडं, मिलियाई चक्कवायाई । पविट्ठा अमच्चा। साहियं तेसि कुमारचरियं, जाणाविओ निययाहिप्पाओ । बहुमओ अमच्चाण । भणियं च तेहिं -देव, जुतमेयं, सिझइ य एवं देवस्स । अचिवितामणिभूओ कुमारो रेतस्मिन् नटपेट कोपमेऽसुन्दरे प्रकृत्या अनवस्यतस्नेहविभ्रमे निधानभूते सर्वापदां महाघोरसंसारे। तत इच्छामि तातानुज्ञात एतत्सम्बन्धन यतितुम् । ससिध्यन्ति नियमेन प्राणिनो गुरुसमादिष्टानि विधिना प्रवत मानस्य कुशलसमीहितानि । ततः करोतु तातः प्रसादम्, अनुजानातु म मेतद्व्यतिकरे। भणन् निपतितश्चरणथोः । राज्ञा भणितम्- वत्स ! ननु सर्वेषामेवास्माकमयं निश्चयः, ततोऽनुज्ञातो मया । अथवा त्वमेवास्माकं विमलज्ञानभावता भावोपकारसम्पादनेन कारणपुरुषतया गुरुः, किमेव पृच्छसि । ततः करु कारय च यदत्रोचितमिति । न मारेण भणितम्-तात ! महाप्रसादः, उचितं च व्यवसित तातेन। अत्रान्तरे गलितप्राया रजनी, प्रहतानि प्राभातिकानि तूर्याणि, विजृम्भितो बन्दिशब्दः, प्रवाताः प्रत्यूषपवनाः, उल्लसितोऽरुणः, प्रनष्टमन्धकारम, समागता दिवा लक्ष्मीः, विबद्ध नलिनी. षण्डम, मिलिताश्चक्रवाकाः। प्रविष्टा अमात्याः । कथितं तेषां कुमारचरितम ज्ञापितो निजाभिप्रायः। बहुमतोऽमात्यानाम्, भणितं च तैः-देव ! युक्तमेतद्, सिध्यति चैतद् देवस्य । अविन्त्यचिन्तामणि हैं कि नट के पिटारे के समान असुन्दर, प्रकृति से चंचल, अस्थिर स्नेहरूपी भ्रमवाले, समस्त आपत्तियो के स्थानस्वरूप इस महाभयंकर संसार में निश्चितरूप से मेरी रति नहीं है, अत: पिताजी से आज्ञा पाकर इस सम्बन्ध में प्रयत्न करना चाहता हूँ। गुरु के द्वारा उपदेशित विधि से शुभ मनोरथों में प्रवृत्त हुए प्राणी नियम से सिद्धि प्राप्त करते हैं। अतः पिताजी कृपा कीजिए, इस अवसर पर मुझे आज्ञा दीजिए' ऐसा कहकर चरणों में गिर गया। राजा ने कहा-'निश्चित रूप से हम सभी लोगों का यह निश्चय है, अत: मैंने अनुमति दी, अत: तुम ही इस निर्मल ज्ञान से भावोपकार करने के कारण-गुरुप होने से हमारे गुरु हो, इस प्रकार क्यों पूछते हो ? अतः यहाँ पर जो योग्य हो, उसे करो और कराओ।' कुमार ने कहा- 'पिताजी ! बड़ी कृपा की और पिताजी ने सही निश्चय किया। इसी बीच रात्रि क्षीणप्राय हो गयी, प्रात:कालीन वाद्य बजे, बन्दियों का शब्द बढ़ा, प्रातःकालीन वायु चली, अरुणोदय हुआ, अन्धकार नष्ट हो गया, दिवसलक्ष्मी आयी, कमालनिया का समूह खिल गया, चकव मिल गये। मन्त्रियों ने प्रवेश किया। उनसे कुमार का चरित कहा, अपना अभिप्राय प्रकट किया। अमात्यो ने माना और उन्होंने कहा 'महाराज ! यह ठीक है, यह महाराज को सिद्ध होगा। अचिन्त्यचिन्तामणि के समान कुमार Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो भवो ] एत्थ मंगलं । राइणा भणियं-अज्जा, एवमेयं; ता करेह उचियकरणिज्जं, अलं विलंबेण । अमच्चेहि भणियं-ज' देवो आणवेइ। घोसाविया वररिया, पट्टियं महादाणं, कराविया सव्वाययणपूया, संमाणिओ पउरजणवओ, पूजिया बंदिमादी, संमाणिया सामंता, पूजिया गरवो, ठाविओ रज्जम्मि निवभाइणेओ पसत्थजोएण उचिओ खत्तियवंसस्स मणिचंदकुमारो त्ति। तओ य पसत्थे तिहिकरणमुहुत्तजोए समं गुरुयणेण मित्तवंद्रेण धम्मपत्तीहि अमच्चलोएण पहाणसामंतेहिं पुरंदरेण उयत्तसेट्टीहि उचियनायरेहि महया रिद्धिसमदएण समारूढो दिव्वसिवियं; वज्जतेहिं मंगलतूरेहि नच्चंतेहिं पायमूलेहि थुव्वमाणो बंदोहिं पूरंतो य पण इमणोरहे संगओ रायलोएण अणुहवंतो कुसलकम्मं पुलइज्जमाणो नायरएहि जणेतो तेसि विम्हयं वड्ढयंतो संवेगं विहितो बोहिबीयाई विसुज्झमाणपरिणामो खवेंतो कम्मजालं महया विमद्देण निगओ नयरीओ गओ पुप्फकरण्डयं उज्जाण । एत्थंतरम्मि समा. गया देवा, पत्युयं पूधाकम्म, जाओ महाभयओ, आणंदिया नयरी । गओ य भयवओ सोलंगरयणाय भूतः कुमारोऽत्र मङ्गलम्। राशा भणितम-आर्या ! एमेवतद, ततः करुलोचितकरणीयम, अलं विलम्बेन । अमात्यैर्भणितम् - यद् देव आज्ञापयति । घोषिता वरवरिका, प्रवर्तितं महादानम कारिता सर्वायतनपूजा, सम्मानित: पौरजनवजः, पूजिता वन्द्यादयः, सम्मानिताः सामन्ताः, पूजिता गुरवः, स्थापितो राज्ये निजभागिनेयः प्रशस्तयोगेन उचितः क्षत्रियवंशस्य मुनिचन्द्रकुमार इति । ततश्च प्रशस्ते तिथिकरणमुहूर्तयोगे समं गुरुजनेन मित्रवन्द्रण धर्मपत्नीभ्याममात्यलोकेन प्रधानसामन्तैः पुरन्दरेण उदात्तश्रेष्ठिभिरुचितनागरैमहता ऋद्धिसमुदायेन समारूढो दिव्यशिबिकाम, वाद्यमानै मङ्गलतून त्यदभिः पात्रमलैः स्तूयमानो बन्दिभिः पूर यंश्च प्रणयिमनोरथान् सङ्गतो राजलोकेनानभवन कुशलकर्म दुश्यमानो नागरकैर्जनयन् तेषां विस्मयं वर्धयन संवेगं विदधद बोधिबीजानि विशध्यमानपरिणामः क्षपयन् कर्मजालं महता विमर्देण निर्गतो नगर्या, गतः पूष्पकरण्डकमद्यानम। अत्रान्तरे समागता देवाः, प्रस्तुतं पूजाकर्म, जातो महाभ्युदयः, आनन्दिता नगरी। गतश्च भगवतः यहाँ मंगलरूप हैं।' राजा ने कहा-'आर्य ! यह ठीक है, अत: योग्य कार्यों को कराओ, विलम्ब मत करो।' अमात्यों ने कहा-'जो महाराज की आज्ञा।' ईप्सित वस्तु के दान देने की घोषणा की, बहुत अधिक दान दिया, सभी मन्दिरों में पूजा करायी, नगरवासियों का सम्मान किया, बन्दियों आदि का सत्कार किया, सामन्तों का सम्मान किया, गुरुओं की पूजा की, क्षत्रियवंश के योग्य कुमार मुनिचन्द्र को राज्य पर बैठाया। अनन्तर उत्तम तिथि, करण और मुहूर्त के योग में गुरुजन, मित्रसमूह, दोनों धर्मपत्नियों, अमात्यजन, प्रधान सामन्तों, नागरिकों, बड़े सेठों और योग्य नगरवासियों के साथ बड़ी ऋद्धि से युक्त हो दिव्य पालकी पर (कुमार) सवार हुआ । उस समय मंगल वाद्य बजाये जा रहे थे, अभिनेता नत्य कर रहे थे, बन्दीजन स्तुति कर रहे थे, याचकों का मनोरथ पूर्ण किया जा रहा था, नृपजन साथ थे, शुभकर्मों का अनुभव किया जा रहा था, नागरिक देख रहे थे, उनको विस्मय हो रहा था, उनकी विरक्ति बढ़ रही थी, वे बोधिबीज धारण कर रहे थे - इस प्रकार विशुद्ध परिणामों से कर्मसमूह को नष्ट करते हुए बड़ी भीड़ के साथ निकल कर राजा पुष्पक रण्डक उद्यान में गया। इसी बीच देव आये, पूजा कार्य प्रस्तुत किया, बहुत बड़ा अभ्युदय हुआ, नगरी आनन्दित हुई। शील के भेदों के समुद्र, १. कयं चैव देवस्स कुमारस्स य नियपुण्णसम्भारेण के अम्हे कायव्वस्न । तहा बि जं देवो-पा. शा. । Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५८ [ समराइच्चकहा रस्स चउनागधारिणो पहासायरियस्स पायमले, जहुत्तसिद्धतविहिणा पवन्नो पव्वज ति। वंदिओ देवराईहिं, पूजिओ मुणिचंदेण । कराविया णेण नयरीए जिणाययणेसु अट्ठाहिया, घोसाविया अमारी हरिसिया जणवया, पयट्टा धम्ममगे। ___ इमिणा वइयरेण दूमिओ गिरिसेणो, गहिओ कसाएहि । चिंतियं च णेण-अहो मूढया जणस्स, जमेयस्सि अपंडियरायउत्ते एवंविहो बहुमाणो। अवणेमि एएसि बहुमाणभायणं, बावाएमि एवं दुराया। समागओ इयाणि एस अम्हारिसाणं पि दंसणगोयरं । ता निव्ववेमि चिरयालपलित्तं एयमंतरेण हिययं । पयट्रो छिद्दन्नेसणे। भयवं च समराइच्चो जहुत्तसंजमपरिवालणरई भयवओ पहासायरियस्स पायमूले परिवसइ । अइक्कंतो कोइ कालो। पुव्वभवब्भासजोएण विसिट्ठखओवसमभावओ थेवयालेणेवाहिज्जियं दुवालसंगं, आसेविओ किरियाकलावो, ठाविओ वायगपए। अन्नया य सीसगणसंपरिवडो विहरमाणो अहाकप्पेण विबोहयंतो भवियारभिदे गओ शीलाङ्गरत्नाकरस्य चतुर्ज्ञानधारिणः प्रभासाचार्यस्य पादमूले, यथोक्तसिद्धान्तविधिता प्रपन्नः प्रवज्यामिति । वन्दितो देवराजभिः, पूजितो मुनिचन्द्रेण । कारिता तेन नगर्यां जिनायतनेषु अष्टाह्निका, घोषिताऽमारी, हर्षिता जनवजाः, प्रवृत्ता धर्म मार्गे। अनेन व्यतिकरेण दूनो गिरिषेणः, गृहीतः कषायैः। चिन्तितं च तेन-अहो मढता जनस्य, यदेतस्मिन् अपण्डितराजपुत्रे एवंविधो बहुमान: । अपनयाम्येतेषां बहुमानभाजनम, व्यापादयाम्येतं दुराचारम् । समागत इदानीमेषोऽस्मादृशानामपि दर्शनगोचरम् । ततो निर्वापयामि चिरकालप्रदीप्तमेतद्विषये हृदयम् । प्रवृत्तश्छिद्रान्वेषणे । भगवांश्च समरादित्यो यथोक्तसंयमपरिपालनरतिर्भगवतः प्रभासाचार्यस्य पादमले परिवसति । अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । पूर्वभवाभ्यासयोगेन विशिष्टक्षयोपशमभावत: स्तोककाले नैवाधीतं द्वादशाङ्गम्, आसेवितः क्रियाकलापः, स्थापितो वाचकपदे । अन्यदा च शिष्यगणसम्परिवृतो विहरन् यथाकल्पं विबोधयन् भविकारविन्दानि गतोऽयोध्या चार ज्ञान के धारी प्रभासाचार्य के पादमूल में गये, यथोक्त सिद्धान्त विधि से दीक्षा प्राप्त की। देवों और राजाओं ने वन्दना की, मुनिचन्द्र ने पूजा की। उसने नगर के जिनायतनों से अष्टाह्निका करायी, अमारी घोषित की, जनसमूह हर्षित हुआ, धर्ममार्ग में प्रवृत्त हुआ। ___इस घटना से गिरिषेण दुःखी हुआ। (उसे) कषायों ने जकड़ लिया। उसने सोचा--ओह लोगों की मूढ़ता, जो इस मूर्ख राजपुत्र का इस प्रकार सम्मान कर रहे हैं। इनके सम्मान के पात्र को दूर करता हूँ, इस दुराचारी को मारता हूं। यह इस समय हम जैसे लोगों के भी दृष्टिपथ में आ गया, अतः इसके विषय में चिरकाल से जलते हुए हृदय को शान्त करता हूँ। वह छिद्रान्वेषण में लग गया । भगवान् समरादित्य यथोक्त संयम के पालन में रत होकर भगवान् प्रभासाचार्य के चरणमूल में रहने लगे। कुछ समय बीत गया । पूर्वभवों के अभ्यास के योग से विशिष्ट क्षयोपशम भाव के कारण थोड़े से ही समय में द्वादशांग पढ़ लिया । क्रियाओं का पालन किया। वाचक पद पर स्थापित हो गये। एक बार शिष्यगण के साथ नियमानुसार विहार करते हुए, भव्यकमलों को सम्बोधित करते हुए (वह) Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमी भवो ] अओभाउरि, तत्थ विय वंदननिमित्तं साहुसावगसमेओ रिसभदेवसंगयं महाविभूईए सक्कावयारं नाम चेइयं । दिट्ठ 'च तेण तहियं वियडं उज्जाणमज्झभार्याम्म । आहरणं नयरीए आययणं भवणनाहस्स ॥ १००७॥ सिंखकुमुपगोखीरहारसरयन्भकुंदचं दनिहं । कप्पतरुनियर परिययमुप्पेहडधय वडाइणं ॥ १००८ ॥ मरयमरमुहु (म्म) भडमऊहलसिरोरुतोरणसणाहं । उत्तगंसुरलोए तियसाहिववरविमाणं व ॥ १०० ॥ वित्थिष्णमरगय सिलासंचयसंजणिय वियडदढपीढं । रयणसयलोहविरइयनिम्मलमणिकोट्टिमाभोयं ॥ १०१०॥ दिलसंतसालि हंजियमणिमयथम्भालिनिमियसोहिल्लं । कच्छंतरोरुमणहरपरिलंबियमोत्तिओऊलं ॥ १०११॥ पुरोम्, तत्रापि च वन्दननिमित्तं साधु श्रावकसमेत ऋषभदेवसंगत महाविभूत्या शक्रावतारं नाम चैत्यम् । दृष्ट च तेन तत्र विकट मुद्यान मध्यभागे । आभरणं नगर्या आयतनं भुवननाथस्य ॥ १००७॥ सितशङ्खकुमुदगोक्षो रहा रश रदभ्रकुन्दचन्द्रनिभम् । कल्पतरुनिक रपरिगत मुद्भटध्वजपटाकीर्णम् ॥१००८ ।। मरकतमयरम्योद्भटमयूखल सदुरुतोरणसनाथम् । उत्तुङ्गं सुरलोके त्रिदशाधिपव रविमानमिव ॥ १०० ॥ विस्तीर्णमरकतशिलासञ्चयसनितविकटदृढपीठम् । रत्नसकलौघविरचितनिर्मलमणिकुट्टिमाभोगम् ॥ १०१०॥ विलसच्छालभञ्जिकामणिमयस्तम्भालि निर्मितशोभावद् । कक्षान्तरोरुमनोहर परिलम्बितमौक्तिकावचूलम् । १०११ ।। ८५६ अयोध्यापुरी पहुँचे । वहाँ भी साधु और श्रावकों के साथ ऋषभदेव की प्रतिमा से युक्त बड़ी विभूतिवाले शक्रावतार नामक चैत्य पर गये । उन्होंने (समरादित्य ने वहाँ विशाल उद्यान के बीच मुनिपति ऋषभनाथ की प्रतिमा से विभूषित नगरी के आभरणस्वरूप त्रिलोकीनाथ का आयतन (मन्दिर) देखा । उसका रंग सफेद शंख, कुमुद, गाय के दूध, हार, शरत्कालीन मेघ, कुन्दपुष्प और चन्द्रमा के समान था । वह कल्पवृक्षों से घिरा हुआ था, उत्तुंग ध्वजावस्त्रों से व्याप्त था, मरकतमणि से युक्त रमणीय प्रचण्ड किरणों से शोभायमान विस्तीर्ण तोरणों से युक्त था, ऊँचाई के कारण वह स्वर्गलोक के दूसरे विमान के समान मालूम पड़ रहा था । मरकतमणि की बड़ी-बड़ी शिलाओं के समूह से उसकी मजबूत विकट पीठिका बनाई गयी थी । समस्त रत्नों के समूह से उसका निर्मल मणिनिर्मित फर्श बनाया गया था । मणिमय खम्भों के समूह से निर्मित शोभावाली शालभञ्जिकाएँ ( पुतलियाँ) वहीं शोभित हो रही थीं। कक्षाओं के अन्दर विस्तीर्ण, मनोहर, मोतियों के चौरीनुमा गुच्छे लटक रहे थे । www.jaingelibrary.org Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६० गमहर भित्तिविरइयजलंतरयणोहदीवयसणाहं । तिसतकुसुम जलरुहाय रच्चियमणियडुच्छंगं ॥ १०१२॥ सेवागयसुरचारणवर विलयारद्ध महरसंगीयं । उज्झतागरुपरिमलघणवासियदिसिवहाभोयं ॥ १०१३॥ विहितवतेयदिष्यंत मुनियपरमत्थसुद्धभावाणं । चारणमणीग थुइरवनिसुणणसं मुइयसिद्धयणं ॥ १०१४।। धम्मचक्कट्टिस्स भयवओ तियसनाहनमियस्स । मणिवणो पडिमा विहूसियं उसहसामिम्स ||१०१५॥ तं पेच्छिऊण सम्मं मणिमयसोवाणविमलपंतीए । आरुहिऊण सतोसं भुवणगुरू वंदिओ तेण ॥ १०१६॥ वंदिऊण य निसण्णो एगदेसे । समागया तत्थ चारणमुणी विज्झाहरा सिद्धाय । वंदिओ हिं [ समराइच्चकहा गर्भगृहभित्तिविरचितज्वलद्रत्नौघदीपकसनाथम् । त्रिदशतरुकुसुमजलरुहप्रकराचित मणितटोत्सङ्गम् ॥१०१२॥ सेवागतसुरचारणवरवनितारब्धमधुर संगीतम् । दह्यमाना गुरुपरमलघनवासितदिक्पथाभोगम् ॥१०१३॥ विवधतपः तेजोदीप्यमानज्ञातपरमार्थशुद्ध भावानाम् । वारणमुनीनां स्तुतिरवनिःश्रवणसम्मुदितसिद्धजनम् ॥१०१४॥ धर्मवरचक्रवर्तिनो भगवतस्त्रिदशनाथनतस्य । मुनिपतेः प्रतिमया विभूषितं ऋषभस्वामिनः ।। १०१५।। तद् दृष्ट्वा सम्यग् मणिमय सोपानविमलपङ्क्त्या । आरुह्य सतोषं भुवनगुरुर्वन्दितस्तेन ।। १०१६ ॥ वन्दित्वा च निषण्ण एकदेशे । समागतास्तत्र चारणमुनयो विद्याधराः सिद्धाश्च । वन्दि - देदीप्यमान रत्नों से निर्मित दीपकों से युक्त गर्भगृह की दीवार बनाई गयी थी । पारिजात पुष्प और कमलों के समूह से मणिनिर्मित तट की गोद सजी हुई थी। सेवा के लिए आये हुए देव, चारण तथा सुन्दर स्त्रियों के द्वारा मधुर संगीत आरम्भ किया जा रहा था। जलाये हुए अगुरु की गुगन्ध से विस्तृत आकाश सुवासित हो रहा था । अनेक प्रकार के तपों के तेज से देदीप्यमान यथार्थ रूप से शुद्ध भावों के जाननेवाले चारणमुनियों की उत्तम स्तुतियों के सुनने से सिद्ध जन आनन्दित हो रहे थे । मणिनिर्मित सीढ़ियों की विमलपंक्ति से चढ़कर उस प्रतिमा के भलीभांति दर्शन कर समरादित्य ने तीनों लोकों के गुरु की वन्दना की ।। १००७-१०१६ ।। वन्दना कर एक स्थान पर बैठ गये। वहाँ पर चारणमुनि, विद्याधर और सिद्ध आये। उन्होंने भगवान् Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो भवो] ८६१ भयवं । एत्थंतरम्मि मुणियसमराइच्चागमणो समं परियणेण पमोयविलसंतलोयणो भयवओ वंदणनिमितं अओज्झानयरिसामी समागओ पसन्नचंदो। कया भयवओ पूया। तओ वंदिऊण चेइए समराइच्चवायगं च उवविट्ठो तस्स पुरओ । झणियं च ण-भयवं, एस एत्थ नाहिनंदणो पढमधम्मचक्कवट्टी सुणीयइ । ता कि परेण नासि धम्मो; अह आसि, कहमेस पढमधम्मचक्कवटि त्ति। भयवया भणियं सोम्म, सुण । इस भरहवासे इमीए ओसप्पिणीए एस भयवं पढमधम्मचक्कवट्टी। न उण परेण नासि धम्मो, कि तु अणाइमंता तित्थयरा, तप्परूविओ य धम्मो अणाइमं चेव। राइणा भणियंभयवं, किमेसा ओसप्पिणी सम्बत्थ हवइ, भयवया भणियं-- सोम्म, नहि; अवि य पंचसु भरहेसु पंचसु य एरवएसु, विदेहेसु पुण अवढिओ कालो। तेसु सव्वकालमेव हवंति घम्मनागया तित्थयरा चक्कवट्टिणो वासुदेवा बलदेवा य, तहा सिझंति पाणिणो। भरहेरवएसु अणवढिओ कालो; न सव्वकालमेव एयमेवं हवइ, किंतु पवत्तए कालचक्कं। तं पुण पमाणओ वीससागरोवमकोडाकोडिमाणं । एत्थ ओसप्पिणी उस्सप्पिणी य । एक्केवकाए छन्विहा कालपरूवणा । तं जहा । सुसमसुसमा सुसमा सुसम तस्तैर्भगवान । अत्रान्तरे ज्ञातसमरादित्यागमनः समं परिजनेन प्रमोदविलसद्लोचनो भगवतो वन्दननिमित्तमयोध्यानगरीस्वामी समागतः प्रसन्नचन्द्रः। कृता भगवतः पजा। ततो वन्दित्वा चैत्यानि समरादित्यवाचकं चोपविष्टस्तस्य पुरतः । भणितं च तेन-भगवन् ! एषोऽत्र नाभिनन्दनः प्रथमधर्मचक्रवर्ती भ्रूयते. ततः किं परेण नासाद् धर्मः, अथासीद्, कथमेष प्रथमधर्मचक्रवर्तीति । भगवता भणितम् -- सौभ्य ! शृणु । इह भरतवर्षेऽस्यामवसपिण्यामेष भगवान प्रथमधर्मचक्रवर्ती। न पुनः परेण नासोद् धर्मः, किन्तु अनादिमन्तस्नीर्थकपाः, तत्प्ररूपितश्च धमोऽनादिमानेव । राज्ञा भणितम-भगवन ! किमेषाऽवसर्पिणी सर्वत्र भवति । भगवता भणितम्-सौम्य ! नहि; अपि च पञ्चसु भरतेषु पञ्चसु चैरवतेषु, विदेहेषु पुनरवस्थितः कालः । तेषु सर्वकालमेव भवन्ति धर्मनायकास्तीर्थक राश्चक्रवतिनो वासुदेवा बलदेवाश्च, तथा सिध्यन्ति प्राणिनः । भरतरवतेषु अनवस्थितः कालः, न सर्वकालमेव एतदेवं भवति, किन्तु प्रवर्तते कालचक्रम् । तत् पुनः प्रमाणतो विशतिसागरोपमकोटाकोटी मानम् । अत्राव पिणी उपिणा च। एकैकस्याः षड विधा काल की वन्दना की। इसी बीच समरादित्य का आगमन जानकर आनन्द से विकसित नेत्रोंवाला अयोध्या नगरी का स्वामी प्रसन्नचन्द्र परिजनों के साथ भगवान की वन्दना के लिए आया । भगवान् की पूजा की । अनन्तर चैत्यों तथा समरादित्य वाचक की वन्दना कर उनके सामने बैठ गया और उसने कहा-'भगवन् ! यह यहाँ नाभि के पुत्र ऋषभदेव प्रथम धर्मचक्रवर्ती सुने जाते हैं,उनसे पहले या धर्म नहीं था? यदि था तो ये प्रथम धर्मचक्रवर्ती कैसे हुए ?' भगवान ने कहा-'सौम्य ! सुनो। इस भारतवर्ष में इस अवसर्पिणी के यह प्रथम धर्मचक्रवर्ती हैं । ऐसी बात नहीं है कि उनसे पहले धर्म नहीं था, किन्तु तीर्थंकर अनादि हैं और उनके द्वारा प्ररूपित धर्म भी अनादि है।' राजा ने कहा-'भगवन् ! क्या यह अवसर्पिणी सब जगह होती है ?' भगवान ने कहा-'सौम्य ! नहीं, अपित पाँच भरत, पाँच ऐरावत और विदेहों में काल अवस्थित है। उनमें सब कालों में धर्मनायक तीर्थंकर, चक्रवती, वासुदेव, बलदेव होते हैं और प्राणी मोक्ष जाते हैं । भरत और ऐरावत क्षेत्रों में काल अनवस्थित है, सब समयों में यह इस प्रकार नहीं रहता है, किन्तु कालचक्र प्रवर्तित होता है। उसका प्रमाण बीस कोड़ाकोड़ि सागर है । यहाँ अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी होती है। प्रत्येक की छह प्रकार की कालप्ररूपणा होती है। वह यह है-सुखम Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६२ [ समराइच्चकहा दुस्समा दुस्समसुसमा दुस्समा दुस्समदुस्सम त्ति। एयाओ य एयपमाणाओ हवंति । सुसमसुसमा पवाहरूवेण चत्तारि सागरोवमकोडाकोडोओ, सुसमा तिण्णि, सुसमदुस्समा दोन्नि, दुस्समसुसमा एगा सागरोवमकोडाकोडी ऊणा बायालीसेहि वरिससहस्सेहिं । इगवीसवरिससहस्समाणा दुस्समा, इगवीसवरिससहस्माणा चेव दुस्समदुस्सम त्ति । तत्थ सुसमसुसमाए पारंभसमम्मि तिपलिओवमाउया लोया, पमाणेण तिण्णि गव्याणि। उवभोगपरीभोगा जम्मंतरसुकयबीयजायाओ। कप्पतरुसमूहाओ होंति किलेसं विणा तेसि ॥१०१७॥ ते पुण दसप्पगारा कप्पतरू समणसमयकेहिं । धीरेहि विणिट्टिा मणोरहापूरगा एए ॥१०१८॥ मत्तगया य भिगा तुडियंगा दीवजोइचित्तंगा। चित्तरसा मणियंगा गेहागारा अणियणा य ॥१०१६॥ प्ररूपणा । तद् यथा - सुषमसुषता, सुषमा, सुषमदुःषमा, दुःषमसुषमा, दुःषमा, दुःषमदुःष मेति । एताश्चंतत्प्रमाणा भवन्ति । सुषमसुषमा प्रवाहरूपेण चतस्रः सागरोपमकोटाकोटयः, सुषमा तिस्र., सुषमदुःषमा द्व, दुःषमसुषमा एका सागरोपमकोटाकोटी ऊना द्विचत्वारिंशद्भिर्वर्षसहस्रः। एकविंशतिवर्षसहस्रमाना दुःषमा, एकविंशतिवर्षसहस्रमानव दुःषमदुःषमेति। तत्र सुषमसुषमाया : प्रारम्भसमये त्रिपल्योपमायुष्का लोकाः, प्रमाणेन त्रीणि गव्यूतानि । उपभोगपरिभोगा जन्मान्तरसुकृतबीजजातात् । कल्पतरुसमूहाद् भवन्ति क्लशं विना तेषाम् ॥१०१७।। ते पुनर्दशप्रकाराः कल्पतरवः श्रमणसमकेतुभिः । धीरैर्विनिर्दिष्टा मनोरथापूरका एते ॥१०१८।। मत्तङ्गकाश्च भृङ्गाः तूर्याङ्गा दीपज्योतिश्चित्राङ्गाः । चित्ररसा मणिताङ्गा गेहाकारा अनग्नाश्च ॥१०१६॥ सुखमा, सुखमा, सुखम-दुःखमा, दुःखम-सुखमा, दु:खमा, दु:खम-दुःखमा। ये इस प्रमाणवाले होते हैं-सुखमसुखमा प्रवाहरूप से चार कोडाकोड़ी सागर का, सुखमा तीन कोडाकोड़ी सागर का, सुखम-दुःखमा दो कोडाकोड़ी सागर का, दुःखम-सुखमा बयालीस हजार वर्ष कम एक कोडाकोड़ी सागर का, दुःखमा इक्कीस हजार वर्ष का और दुःखमा-दुःखमा भी इक्कीस हजार वर्ष का होता है। उनमें से सुखमा -सुखमा के प्रारम्भ समय में तीन पल्य की आयुवाले लोग होते हैं, उनका प्रमाण तीन गव्यूति (कोश) का होता है । उन लोगों के उपभोग परिभोग के लिए बिना क्लेश के दूसरे जन्मों के पुण्यरूपी बीज से उत्पन्न कल्पवृक्षों के समूह होते हैं । वे कल्पवृक्ष दश प्रकार के होते हैं । श्रमणों के सिद्धान्तों के लिए पताका के तुल्य धीरपुरुषों ने इन्हें मनोरथ को पूर्ण करने वाला बतलाया है। उनके नाम ये हैं-मतंगक, भूग, तूर्यांग, दीपशिखा, ज्योति, चित्रांग, Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो भवो] ८६३ मत्तंगएसु मज्जं सुहपेज्जं भायणाणि भिगेसु । तुडियंगेसु य संगयतुडियाणि बहुप्पगाराणि ॥१०२०॥ दीवसिहा जोइसनामया य निच्चं करति उज्जोयं। चित्तंगेसु य मल्लं चित्तरसा भोयणट्टाए ॥१०२१॥ मणियंगेसु य भसणवराणि भवणाणि भवणरुक्खेसु। आइण्णेसु य पत्थिव वत्थाणि बहुप्पगाराणि ॥१०२२॥ एएसु य अन्नेसु य नरनारिगणाण ताणमुवभोगो। भविया पुणब्भवरहिया इय सव्वन्नू णिणा बेंति ॥१०२३॥ न खलु एयाण विसिट्ठा धम्माधम्मसन्ना। खीयमाणाणि य आउयपमाणाणि हवंति जाव सुसमारंभकालो। सुसमारंभकाले उण दुपलिओवमाउया, पमाणेण दोन्नि गाउयाणि । उवभोगपरिभोगा वि जणा(काला)णुहावेण ऊणाणुहावा । न खलु एयाण वि विसिट्ठा धम्माधम्मसन्ना । खीय मत्तङ्गकेष मद्यं सुखपेयं भाजनानि भङ्गेषु । तूर्याङ्गेषु च संगततूर्याणि बहुप्रकाराणि ॥१०२०।। दीपशिखा ज्योति म काश्च नित्यं कुर्वन्ति उद्योतम् । चित्राङ्गेषु च माल्यं चित्ररसा भोजनार्थम् ॥१०२१।। मणिताङ्गेषु च भूषणवराणि भवनानि भवन वृक्षेषु । आकोर्णेषु च पार्थिव ! वस्त्राणि बहुप्रकाराणि ॥१०२२॥ एतेषु चान्येषु च नरनारीगणानां तेषामुपभोगः । भविका: ! पुनर्भवरहिता इति सर्वज्ञा जिना ब्रुवन्ति ॥१०२३॥ न खल्वेतेषां विशिष्टा धर्माधर्मसंज्ञा । क्षीयमाणानि चायःप्रमाणानि भवन्ति यावत सुषमारम्भकाल: । सुषमारम्भकाले पुनद्विपल्योपमायुष्का:, प्रमाणेण द्वे गव्यते। उपभोगपरिभोगा अपि जना(काला)नुभावेन ऊनानुभावाः। न खल्वेतेषामपि विशिष्टा धमधिर्मसंज्ञा। क्षीयमाणानि चित्ररस, मणितांग, गेहाकार और अनग्न। मतंगकों में सुख से पीने योग्य मद्य होता है, भृगों में पात्र होते हैं, तयांग अनेक प्रकार के वाद्यों से युक्त होते हैं, दीपशिखा और ज्योति नाम के कल्पवृक्ष नित्य उद्योत (प्रकाश) करते हैं, चित्रांगों में मालाएं होती हैं, चित्ररस भोजन के लिए होते हैं, मणितांगों में श्रेष्ठ आभूषण होते हैं, भवनवृक्षों (गेहाकारों) में भवन और आकी) (अनग्नों) में अनेक प्रकार के वस्त्र होते हैं। उस समय के नरनारी इनका और अन्य कल्पवृक्षों का उपभोग करते हैं, भव्य होते हैं, पुनर्भव से रहित होते हैं, ऐसा सर्वज्ञ जिन कहते हैं ॥१०१७-१०२३॥ ये धर्म और अधर्म की संज्ञा से विशिष्ट नहीं होते हैं। सुखमा के आरम्भ समय के ये क्षीयमाण (निरन्तर कम होते गये) आयुप्रमाण वाले होते हैं । सुषमा के आरम्भ काल में लोग दो पल्य की आयुवाले होते हैं और इनकी लम्बाई दो गव्यूति (कोश) की होती है । लोगों के उपभोग-परिभोग भी काल के प्रभाव से कम-कम Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६४ [ समराइच्चकहा माणाणि य आउयपमाणाणि हवंति जाव सुसमदुस्समारंभकालो । सुसमदुस्समारंभकाले उण एगपलिओवमाउया, पमाणेण एगं गव्वयं हवइ । उवभोपपरि मोगा वि जणा(काला)णुभावेण ऊणाणभावा। न खल एयाण वि विसिट्टा धम्माधम्मसन्ना हवइ। खीणपायाए य इमीए ओयरइ एत्थ भयवं पढमपुहइवई सयलकलासिप्पदेसओ वंदणिज्जो सुरासुराण जयदगुरूतेलोक्कबंधू अन्नाणतिमिरनासणो भवियकुमयायरससी पढमधम्मचक्कट्टी आदितित्थगरो ति। तओ पवत्तए वारेज्जाइकिरिया दानसीलतवभावणामओय विसिट्टधम्मो। खीयमाणाणि य आउयपमाणाणि हवंति जाव दुस्समसुसमारंभकालो । दुस्समसमारंभकाले उण चउरासीपुटवलक्खाउया, पमाणेण पंचधणुसयाणि । उवभोगपरिभोगा उण जणा(कालाणहावेण ऊणाणुहावा। अइक्कमइ कप्पतरुकप्पो, अवि य पवरोसहिमाइएहितो हवंति ऊणाणहावा य हाइ। य किसिद्धा धम्माधम्मसन्ना जओ इमीए हवंति तित्थयरा चक्कवधिणो वासदेवा बलदेवा य। खीयमाणाणि य आउप्पमाणाणि हात जाव दुस्समारंभकालो। दुस्समारंभकाले य पायं वास समाउया, पमाणेण सत्तहत्था। उवभोग चायु प्रमाणानि भवन्ति यावद् सुषमदु.षमा रम्भकालः । सुपमदुःषमारम्भकाले पुन रेकपल्योपमायुष्काः, प्रमाणेन एकं गव्यूत भवति । उपभोगपरिभोगा अपि जना(कालानुभावेन ऊनानुभावाः। न खल्वेतेषामपि विशिष्टा धर्माधर्मसंज्ञा भवति । क्षोणप्रायायां चास्पामवत रत्यत्र भगवान प्रथम पृथिवीपतिः सकलकलाशिल्पदेशको वन्दनीयः सुरासुराणां जगद्गुरुस्त्रलोक्यबन्धुरज्ञानतिमिरनाशनो भविककुमुदाकरशशो प्रथमधर्मचक्रवर्ती आदितीर्थकर इति । ततः प्रवर्तते विवाहादिक्रिया दानशीलतपोभावनामयश्च विशिष्टधर्मः । क्षीयमाणानि चार प्रमाणानि भवन्ति यावद् दुःषमसुषमारम्भकाल: । दुःषमसुषमारम्भकाले पुनश्चतुरशीतिपूर्वलक्षायुष्काः, प्रमाणेन पञ्च धनु:शतानि । उपभोगपरिभोगाः पुनर्जना (काला)नुभावेन ऊनानुभावाः । अतिक्रामति कल्पतरुकल्प', अपि च प्रवरोषध्यादिकेभ्यो भवन्ति ऊनानुभावाश्च । भवति च विशिष्टा धर्माधर्मसंज्ञा, यतोऽस्यां भवन्ति तीर्थक राश्चक्रवर्तिनो वासुदेवा बलदेवाश्च । क्षोयमाणानि चायु:प्रमाणानि भवन्ति यावद् दुःषमारम्भकाल: । दुःषमारम्भकाले च प्रायो वर्षशतायुष्काः प्रमाणेन प्रभाव वाले होते हैं। इनमें भी धर्माधर्म संज्ञा का भेद नहीं रहता है। सुखम-दुखमा काल के आरम्भ में लोग एक पल्य की आयुवाले होते हैं, लम्बाई एक गव्य ति होती है । लोगों का उपभोग-परिभोग भी काल के प्रभाव से कम-कम होता जाता है। इनमें भी धर्माधर्म संज्ञा का भेद नहीं रहता है । इस काल के क्षीणप्राय हाने पर भगवान आदि तीर्थंकर का अवतार हआ। वे प्रयन राजा थे, समस्त कला और शिलयों का उपदेश देनेवाले थे, सूर और असुरों के द्वारा वन्दनीय थे, संसार के गुरु थे, तोनों लोकों के बन्धु थे, अज्ञानान्धकार का नाश करनेवाले थे, भव्धजनों रूपी कुमुदों के समूह के लिए चन्द्रमा थे और प्रथम चक्रवर्ती थे। उनमे विवाहादि त्रिया, दान, शील, तप और भावनामय विशिष्ट धर्म का प्रवर्तन हुआ । सुखम-दुःखमा काल के लोगों की आयु में दुःखम-सुखमा काल के आरम्भ तक ह्रास होता रहता है । दुःखम-सुखमा काल के आरम्भ में अस्सी लाख पूर्व की आयु होती है लम्बाई पाँच सौ धनुष होती है, लोगों का उपभोग-परिभोग भी काल के प्रभाव से कम-कम होता जाता है । कल्पवृक्षों के होने के नियम का अतिक्रमण होता है और श्रेष्ठ औषधियाँ आदि होती हैं जो कि न्यून-न्यून प्रभाव वाली होती हैं । धर्म और अधर्म संज्ञा का भेद होता है; क्योंकि इसमें तीर्थंकर, चक्रवर्ती, वासुदेव और बलदेव होते हैं । दुःखमा काल के आरम्भ तक आयु का ह्रास होता रहता है। दु:खमा काल के आरम्भ में प्राय: सौवर्ष की Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो भवो] परिभोगा य ओसहिमाइएहितो हवंति ऊणाणुहावा य। हवइ तहा य हीयमाणा विसिट्ठा धम्माधम्मसन्ना, जओ इमीए वि अणुवत्तए तित्थं, पहवंति य मिच्छत्तकोहमाणमायालोहा । खीयमाणाणि य आउपमाणाणि हवंति जाव दुस्समदुस्समारंभकालो । दुस्समदुस्समारंभकाले वीसवरिसाउया पाएण दुहत्थपमाणण पज्जंते य सोलसरिसाउया पमाणेणं एगहत्था । उवभोगपरिभोगा उ अमणोरमेहि मंसमाईहितो हवंति ऊणाणुहावा य, धणियं न हवइ य विसिट्ठा धम्माधम्मसन्ना। एवमेसा ओसपिणी। उस्सप्पिणी वि पच्छाणपु-वीए एवंविहा चेव हवइ । एवमेयं पवत्तए कालचक्कं । एवं च इह भरहवासे इमीए ओसप्पिणीए एस भयवं पढमधम्मचक्कवट्टी, न उण परेण नासि धम्मो त्ति। राइणा भणियं -भयवं एवमेयं, अवणीओ अम्हाण मोहो; भयवया अणुग्गिहीओ अहं इच्छामि अणुसदि। __ एत्थंतरम्मि समागओ तत्थ अच्चंतमझत्थो संगओ बुद्धीए परलोयभीरू परिणओ वोवत्थाए इदसम्माहिहाणो माहणो त्ति । वंदिऊण भयवंतं गुरुं च उवविट्ठो गुरुसमीवे । भणियं च ण-भयवं, स तहस्ताः। उपभोगपरिभोगाश्च ओषध्यादिकेभ्यो भवन्ति ऊनानुभावाश्च । भवति तथा च हीयमाना विशिष्टा धर्माधर्मसंज्ञा, यतोऽस्यामप्यनुवर्तते तीर्थम, प्रभवन्ति च मिथ्यात्वक्रोधमानमायालोभाः। श्रीयमाणानि चायुःप्रमाणानि भवन्ति यावद् दुःष मदुःषमारम्भकालः। दुःषमदुःषमारम्भकाले विंशतिवर्षायुष्काः प्रायण द्विहस्तप्रमाणेन पर्यन्ते च षोडशवर्षायुष्का: प्रमाणनंकहस्ताः। उपभोगपरिभोगास्तु अमनोरमैौसादिभिर्भवन्ति ऊनानुभावाश्च, गाढ न भवति च विशिष्टा धर्माधर्मसंज्ञा । एत्र मेषाऽवसपिणा। उत्सपिण्यपि पश्चानुपूर्वा एवविधंव भवति । एवमेतत् प्रवर्तते कालचक्रम् । एवं चेह भरत वर्षऽस्यामवसपिण्यामेष भगवान् प्रथमधर्मचक्रवर्ती, न पुनः परेण नासीद् धर्म इति । राज्ञा भणितम् -भगवन् ! एवमेतद्, अपनीतोऽस्माकं मोहः, भगवताऽनुगृहीतोऽहमिच्छाम्यनुशास्तिम् । ___ अत्रान्तरे सभागतस्तत्रात्यन्तमध्यस्थः संगतो बुद्धया परलोक भीरुः परिणतो क्योऽवस्थया इन्द्रशर्माभिधानो ब्राह्मण इति। वन्दित्वा भगवन्तं गुरुं चोपविष्टो गुरुसमीपे । भणितं च तेन आय होती है, लम्बाई सात हाथ होती है। उपभोग और परिभोग औषधि आदि से होते हैं और प्रभाव न्यूनन्यून होते जाते हैं तथा धर्माधर्म सता हीयमान (निरन्तर कम होनेवाली) विशिष्ट होती है। क्योंकि इसमे भी तीर्थ का अनुसरण होता है और मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया और लोभ को उत्पत्ति होती है। दुःखम-दुखमा काल के आरम्भ तक (प्राणियों की) आयु का ह्रास होता रहता है। दुःखम-दुखमा काल के आरम्भ में बीस वर्ष की आय होती है, लम्बाई दो हाथ होती है, अन्त में सोलह वर्ष की आयु होती है, लम्बाई एक हाथ होती है। उपभोगपरिभोग अमनोरम मांसादि से होते हैं, न्यून प्रभाव होते हैं, अत्यन्त रूप से धर्माधर्म सज्ञा का भेद नहीं होता है। इस प्रकार यह अवसर्पिणी होती है। उत्सर्पिणी भी पश्चात् कम से इसी प्रकार होती है। इस प्रकार यह कालचक्र प्रवर्तित होता है। इस प्रकार इस भरतवर्ष की इस अवसिपिणी में यह भगवान प्रथम धर्मचक्रवर्ती थे। पहले धर्म नहीं था, ऐसा नहीं है ।' राजा ने कहा-'भगवन् ! ठीक है, हमारा मोह दूर हो गया। भगवान् से अनुगृहीत हुआ मैं आदेश की इच्छा करता हूँ।' इसी बीच वहाँ अत्यन्त मध्यस्थ बुद्धि से युक्त परलोक से डरनेवाला, वृद्धावस्था वाला इन्द्रशर्मा नामक ब्राह्मण आया। भगवान् और गुरु की वन्दना कर गुरु के पास बैठ गया । उसने कहा-'भगवन् ! जो ये आपके Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६६ [समराइच्चकहा जमेयं तुम्ह समए नाणावरणिज्जाइलक्खणं अट्ठप्पगारं कम्ममत्तं, एयं विसेसओ कहमेस जीवो बंधति। भयवया भणियं-सोम, सुण। एवं समए पढिज्जइ। नाणपडिणीययाए नानिण्हवणयाए नाणंतराएणं नाणपओसेणं नाणच्चासायणाए नाणविसंवायणजोएणं नाणावरणिज्ज कम्मं बंधइ । एवं दसणपडिणीययाए जाव दंसणविसंवायणजोएणं दसणावरणिज्ज कम्मं बंधइ। पाणाण कंपणयाए भूयाणकंपणयाए जीवाणकपणयाए सत्ताणकंपणयाए बहणं पाणाणं भयाणं जीवाणं सत्ताणं अदुक्खणयाए असोयणयाए अजूरणयाए अपरियावणयाए सायावेयणिज्ज कम्मं बंधइ। परदुक्खणयाए जाव परियावणयाए असायावेयणिज्ज कम्मं बंधइ। तिव्वकोहयाए तिन्वमाणयाए तिब्वमाययाए तिव्वलोह्याए तिव्वदसणमोहणिज्जयाए तिव्वचरितमोडणिज्जयाए मोहणिज्जं कम्मं बंधड । महारंभयाए महापरिग्गयाए पंचेंदियवहेणं कुणिमाहारेपं जीवो निरयाउयं कम्मं, बंधइ । माइल्लयाए अलियवयणेणं कडतुलकडमाणणं तिरिक्खजोणियाउयं कम्मं बंधइ। पगइविणीययाए साण कोसयाए अम मणस्साउयं कम्मं बंधई। सरागसंजमेणं संजमासंजमेणं बालतवोकम्मेणं अकामनिज्जराए देवाउयं रिययाए भगवन् ! यदेतद् युष्माकं सपये ज्ञानावरणीयादिलक्षणमष्टप्रकारं कर्मोवतम्, एतद विशेषतः कथमेष जीवो बध्नाति । भगवता भणितम् - सौम्य ! शृणु । एवं समये पठ्यते । ज्ञानप्रत्यनीकतया, ज्ञाननिह्नवतया, ज्ञानान्तरायेण, ज्ञानप्रद्वषेण ज्ञानात्याशातनया ज्ञान विसंवादनयोगेन ज्ञानावरणीयं कर्म बध्नाति । एवं दर्शनप्रत्यनीकतया, यावद् दर्शनविसंवादनयोगेन दर्शनावरणीयं कर्म बध्नाति। प्राणानुकम्पनतया, भूतानुकम्पनतया, जीवा नुकम्पनतया, सत्त्वानक मानतया बहूनां प्राणानां भूतानां जीवानां सत्त्वानामदुःख तयाऽखेदनतयाऽशोचनतयाऽपरिता पनतया सातवेदनीयं कर्म बध्नाति । परदुःखतया यावत् परितापनतयाऽसातवेदनीय कर्म बध्नाति । तीव्रक्रोधतया तीवमानतया तीवमायतया तीव्रलोभतया तीव्रदर्शनमोहनीयतया तीव्रचारित्रमोहती यतया मोहनीयं कर्म बध्नाति । महारम्भतया महापरिग्रहतया पञ्चेन्द्रियवर्धन मांसाहारेण जीवो निरयायुःकर्म बध्नाति । मायिकतया अली कवचनेन कूटतुलाकूटमानेन तिर्यग्यो निकायुःकम बध्ना त । प्रकृतिविनीततया सानुक्रोशतयाऽमत्सरिकतया मनुष्यायुःकर्म बध्नाति । स रागसंयमेन संयमासंयमेन आगम में ज्ञानावरणीय आदि लक्षणवाला आठ प्रकार का कर्म कहा गया है, इसे यह जीव विशेषरूप से कैसे बांधता है ?' भगवान ने कहा – 'सौम्य ! सुनो-आगप में इस प्रकार पढ़ा जाता है (कहा गया है)। ज्ञान का विरोध रखने से, ज्ञान को छिपाने से, ज्ञान में विघ्न करने से, ज्ञान के प्रति द्वेष करने से, ज्ञान को नष्ट करने से ज्ञान का खण्डन करने से ज्ञानावरणीय कर्म बाँधता है। इसी प्रकार दर्शन का विरोध करने से, दर्शन का खण्डन करने तक के योग से दर्शनावरणीय कर्म बाँधता है। प्राणियों, भूतो. जीवों (तथा) सत्त्वों पर अनुकम्पा (दया) करने से बहुत से प्राणी, भूत, जीव, सत्त्वों को दुःख न देने, शोक न पहुँचाने, खेद न पहुँचाने और कष्ट न पहुंचाने से सातवेदनीय कर्म बांधता है। दूसरे को दुःख देने से लेकर (दूसरे को) कष्ट देने तक असात वेदनीय कम बांधता है। तीव्र क्रोध, तीव्र मान, तीव्र माया, तीव्र लोभ, तीव्र दर्शनमोहनीय, तीव्र चारित्रमोहनीय से मोहनीय कर्म बांधता है । महान आरम्भ, महान् परिग्रह. पंचेन्द्रियों का वध (तथा) मांसाहार से जीव नरकायुकम बाँधता है । माया करने, झूठ बोलने, कम-बढ़ तोलने, कम-बढ़ बाँट रखने से तिर्यंचयोनि सम्बन्धी आयुकर्म बांधता है। प्रकृति से विनीत होने, दयायुक्त होने और द्वेषरहित होने से मनुष्यायु कर्म बांधता है । सराग सयम, संयमा Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६७ नवमो भवो ] कम्मं बंध | काय उज्जुप्रयाए भावज्जुययाए भासुज्जुययाए अविसंवायणजोएणं सुहनामं कम्मं बंधइ । काय अणुज्जुयाए जाव विसंवायणजोएन असुहनामति । जाइकुलरूवतव सुयबल लाभ इस्सरियामएणं उच्चrगो कम्मं बंधइ । जाइमएणं जाव इस्सरियमएणं नीयागोयं कम्म बंधइ । दाणलाभभोगउवभोगवीरियंतराएवं अंतरायं कम्मं बंधइ । एवं भो देवापिया, एयं विसेसओ एस जावो अटूप्पगार कम्म बध । इंदसम्मेण भणियं - भयवं, एवमेयं । अह एवं ववत्थिए कि पुण मोक्खबीयं, कहं वा तयं पाविज्जइ । भयवया भणियं - सोम, सुण | मोक्खबीयं ताव एवं पारंभी सुहस्स पसमसवेगाइलिंगं उच्छायणं कम्मपरिणईए पावणं एतेणं कम्मिधणस्स सुहायपरिणामलक्खणं अचितचितामणिसन्निहं सम्मत्तं । एयं च एवं पाविज्जइ वीयरागाइदंसणेण विसुद्धधम्मसवणाए गुणाहियसंगमेणं पक्खवाएणं गुणेसु तहाभव्वयानिओएण अणुगंपाइभावणाए विसिटुकम्मखओवस मेणं ति । इंदसम्मेण भणिय- भयवं, एवमेयं । अह एवं ववथिए एगंत सुहसरूवो मोक्खो कहं दुक्ख सेवणारूवाओ संजमाणुट्ठाणाओ ति । बालतपःकर्मणाऽकामनिर्जरया देवायुः कर्म बध्नाति । कायऋजुकतया भावऋजुकतया भाषऋऋजकतयाऽविसंवादनयोगेन शुभनामकर्म बध्नाति । कायानृजुकतया यावद् विसंवादनयोगंनाशुभनामेति । जातिकुलरू तपः श्रुतबल लाभैश्वर्यामदेनोच्चगीतं कर्म बध्नाति । जातिमदेन यावद् ऐश्वर्यमदेन नोचगोत्रं कर्म बध्नाति । दानलाभभोगवीर्यान्तरायेणान्तरायकर्म बध्नाति । एवं भो देवानुप्रिय ! एतद् विशेषत एष जीवोऽष्टप्रकारं कर्म बध्नाति । इन्द्रशर्मणा भणितम् - भगवन् ! एवमेतत् । अथैवं व्यवस्थिते किं पुनर्मोक्षबीजं कथं वा तत् प्राप्यते । भगवता भणितम्सौम्य श्रणु । मोक्षबीजं तावदेतत् । प्रारम्भः सुखस्य प्रशमसवेगादिलिङ्गमुच्छादनं कर्मपरिणते: पावनमेकान्तेन कर्मेन्धनस्य शुभात्मपरिणामलक्षणमचिन्त्यचिन्तामणिसन्निभं सम्यक्त्व । एतच्चैव प्राप्यते वीतरागादिदर्शनेन विशुद्धधर्मश्रवणेन गुणाधिकसङ्गमेन पक्षपातेन गुणेषु तथाभव्यतानियोगे - नानुकम्पादिभावनया विशिष्ट कर्मक्षयोपशमेनेति । इन्द्रशर्मणा भणितम् - भगवन् ! एवमेतत् । अर्थ व्यवस्थिते एकान्तसुखस्वरूपो मोक्षः कथं दुःखासेवनरूपात् संगमानुष्ठानादिति । भगवता वचन संयम, बालतप करने और अकामनिर्जरा से देवायुकमं बाँधता है। शरीर की सरलता, भाव की सरलता, की सरलता और विरोध न करने के योग से शुभ नामकर्म बाँधता है। शरीर की सरलता न रखने से लेकर विरोध रखने तक के योग से अशुभनामकर्म बाँधता है । जाति, कुल, रूप, तप, शास्त्र, बल, लाभ, ऐश्वर्य का मदन करने से उच्चगोत्र कर्म बाँधता है । जातिमद से लेकर ऐश्वर्य के मद तक के योग से नीचगोत्र कर्म बाँधता हैं । दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य के अन्तराय से अन्तराय कर्म बाँधता है। इस प्रकार हे देवानुप्रिय ! इस तरह विशेष रूप से यह जीव आठ प्रकार का कर्म बांधता है।' इन्द्रशर्मा ने कहा- 'भगवन् ! यह ठीक है । ऐसा निर्धारित होने पर पुनः मोक्ष का बीज क्या है, वह कैसे प्राप्त होता है ?' भगवान् ने कहा- 'सौम्य ! सुनो। मोक्ष का बीज इस प्रकार है-सुख का आरम्भ, प्रशम, संवेग आदि लक्षणोंवाला, कर्म की परिणति का नाश करनेवाला, कर्मरूपी ईंधन के लिए जल, शुभ आत्मपरिणाम रूप लक्षणवाला और अचिन्त्य चिन्तामणि के समान सम्यक्त्व (मोक्ष का बीज) है । यह इस प्रकार प्राप्त होता है -- वीतरागादि के दर्शन, विशुद्ध धर्मश्रवण, जो गुणों में अधिक हो उसका साथ करने, गुणों में पक्षपात करने तथा भव्यता का नियोग, अनुकम्पा (दया) आदि भावना (तथा) विशिष्ट कर्मों के क्षयोपशम से ( प्राप्त होता है) ।' इन्द्रशर्मा ने कहा- 'भगवन् ! यह ठीक है । ऐसा Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइच्चकहा भयवया भणियं-सोम, सुण । जहा चिगिच्छासेवणाओ सहसरूवा आरोग्गया, तहा संजमाणटाणाओ एगंसुहसरूवो मोक्खो ति। न यावि परमत्थओ दुक्ख सेवणारूवं संजमाणुटुाणं परमसुहपरिणामजोगओ विसुद्धलेसाणुभावओ य । एवं च समए पढिज्जइ। अवि य __ न वि अस्थि रायरायस्स तं सुहं नेय देवरायस्स। जं सुहमिहेव साहो हुस्स) लोयव्वावाररहियस्स ॥१०२४॥ अन्नं च । जे इमे अज्जत्ताए समणा निग्गंथा, एए णं कस्स तेउलेसं वीइवयंति । मासपरियाए समणे निग्गंथे वाणमंतराण देवाणं तेउलेसं वीइवयइ, एवं दुमासपरियाए समणे निग्गंथे असुरिंदवज्जियाणं भवणवासीणं देवाणं तेउलेसं वीइवयइ, तिमासपरियाए समणे निग्गंथे असुर(रिद)कुमाराणं देवाणं तेउलेसं वीइवयइ, चउमासपरियाए समणे निग्गंथे गहगणनवखत्तताराख्वाणं जोइसियाणं तेउलेसं वीइवयइ, पंचमासपरियाए समणे निग्गंथे चंदिमसूरियाणं जोइसिदाणं जोइसरातीणं तेउलेसं वीइवयइ, छम्मासपरियाए समणे निग्गंथे सोहम्मीसाणाणं देवाणं तेओलेसं भणितम-सौम्य ! शृण । यथा चिकित्सासेवनात् सुखस्वरूपारोगता, तथा संयमानुष्ठानाद एकान्तसुखस्वरूपो मोक्ष इति । न चापि परमार्थतो दुःखसेवनारूपं संयमानुष्ठानं परमशुभपरिणामयोगतो विशुद्धलेश्यानुभावतश्च । एवं च समये पठ्यते । अपि च, नाप्यस्ति राजराजस्य तत् सुखं नैव देवराजस्य । यत् सुखमिहैव साधोर्लोकव्यापाररहितस्य ।।१०२४।। __ अन्यच्च, ये इमेऽद्यतया श्रमणा निर्ग्रन्थाः, एते कस्य तेजोलेश्या व्य तवजन्ति । मासपर्यायः श्रमणो निर्ग्रन्थो वानमन्तराणां देवानां तेजोलेश्यां व्यतिव्रजति । एवं द्विमास यिः श्रमणो निर्ग्रन्थोऽसरेन्द्रजितानां भवनवासिनां देवानां तेजोलेश्यां व्यतिव्रजति । त्रिमासपर्यायः श्रमणो निर्ग्रन्योऽसुरेन्द्रकुमाराणां देवानां तेजोलेश्यां व्यतिव्रजति । चतुर्मासपर्याय: श्रमणो निर्ग्रन्थो ग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणां ज्योतिष्कानां तेजोलेश्यां व्यतिवति । पञ्चमासपर्यायः श्रमणो निर्ग्रन्थश्चन्द्रसूर्याणां ज्योतिष्केन्द्राणां ज्योतिष्कराजानां तेजोलेश्यां व्यतिव्रजति। षण्मासपर्यायः श्रमणो निर्धारित होने पर एकान्त सुखस्वरूपवाला मोक्ष दुःखसेवनरूप संयम का पालन करने से कैसे होता है ? भगवान ने कहा---'सौम्य ! सनो। जैसे चिकित्सा का सेवन करने सखस्वरूप वाली अरोगता होती है उसी प्रकार संयम का पालन करने से एकान्त सुखस्वरूप मोक्ष होता है । संयम का पालन करना परमार्थ से दुःख का सेवन करने रूप नहीं है। क्योंकि परम शभपरिणामों का योग रहता है और विशद्ध लेश्या का प्रभाव रहता है। आगम में इस प्रकार पढ़ा जाता है। कहा भी है. इस संसार के व्यापार से रहित साधु का जो सुख है वह सुख न तो राजाओं के चक्रवर्ती का है, न देवराज इन्द्र का है।।१०२४॥ दूसरी बात, आज जो ये श्रमण निर्ग्रन्थ हैं ये किसकी तेजोलेश्या का उल्लंघन करते हैं ? एक मास की अवस्था वाला (जिसे श्रमण हुए एक मास हुआ है) श्रमण निर्ग्रन्थ वानमन्तर देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण करता है । इसी प्रकार जिसे श्रमण निर्ग्रन्थ हुए दो माह हुए हैं वह असुरेन्द्र को छोड़कर भवनवासी देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण करता है । जिसे श्रमण निर्ग्रन्थ हुए तीन माह हो गया है वह असुरेन्द्र कुमार देवों की तेजोलेश्या का उल्लंघन करता है। जिसे श्रमण निग्रन्थ हुए चार माह हो गये हैं वह ग्रहगण, नक्षत्र, तारारूप ज्योतिषी देवों की तेजोलेश्या का उल्लंघन करता है । जिसे श्रमण निम्रन्थ हुए पांच माह हो गये हैं वह चन्द्रमा, Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मवमो भवो ] वीइवयइ, सत्तमासपरियाए समणे निग्गंथे सणंकुमारमाहिंदाणं देवाणं तेउलेसं वोइवयइ, अट्टमासपरियाए समणे निग्गंथे बंभलोगलंतगाणं देवाणं तेओलेसं वीइवयइ, नवमासपरियाए समणे निग्गंथे महासुक्कसहस्साराणं देवाणं तेउलेसं वीइवयइ, दसमासपरियाए समणे निग्गंथे आरणच्चयाणं देवाणं तेउलेसं वीइवयइ, एक्कारसमासपरियाए समणे निग्गंथे गेवेज्जाणं देवाणं तेउलेसं वीइवयइ, वारसमासपरियाए समणे निग्गंथे अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं तेउलेसं वीइवयइ; तेणं परं सुक्के सक्काभिजाई भवित्ता सिझइ बज्झई मच्चइ सव्वदुक्खाणमंतं करेइ । एवं भो देवाणुप्पिया, य यावि परमत्थओ दुक्खसेवणाणरूवं संजमाणढाणं ति । इंदसम्मेण भणियं-भयवं, एवमेयं, इच्छामि अणुसदि। एत्थंतरम्मि पुवागएणव पणामपुव्वयं भणियं चित्तंगएण भयवं, के पुण पाणिणो कि कइप्पगारं किठिडयं वा कम्मं बंधति। भयवया भणियं-सोम, सण । निर्ग्रन्यः सौधर्मशानानां देवानां तेजोलेश्यां व्यतिव्र जति । सप्तमासपर्यायः श्रमणो निर्ग्रन्थः सनकमारमाहेन्द्राणां देवानां तेजोलेश्यां व्यतिव्रजति । •ष्टमासपर्यायः श्रमणो निर्ग्रन्थो ब्रह्म. लोकलान्तकानां देवानां तेजोलेश्यां व्यतिव्र जति । नवनासपर्या रः श्रमणो निर्ग्रन्थो महाशक्रसहसाराणां देवानां तेजोलेश्या व्यतिव्रजति । दशमासपर्यायः श्रमणो निर्ग्रन्थ आरणाच्यूतानां देवानां तेजोलेश्यां व्यतिव्रजति । एकादशमासपर्यायः श्रमणो निर्ग्रन्थो ग्रैवेयकानां देवानां तेजोलेश्यां व्यतिव्रजति । द्वादशमासपर्यायः श्रमणो निर्ग्रन्थोऽनुत्तरोपपातिकानां देवानां तेजोलेश्यां व्यतिव्रजति। ततः परं शुक्लः शुक्लाभिजातिभूत्वा सिध्यति बुध्यते मुच्यते सर्वदुःखानामन्तं करोति । एवं भो देवानुप्रिय ! न चापि परमार्थतो दुःखसेवनानुरूपं संयमानुष्ठानमिति । इन्द्रशर्मणा भणितम्भगवन् ! एवमेतद्, इच्छाम्यनुशास्तिम्। अत्रान्तरे पूर्वागतेनैव प्रणामपूर्वकं भणितं चित्रा देन- भगवन् ! के पुनः प्राणिनः कि कतिप्रकारं किंस्थितिक वा कर्म बध्नन्ति । भगवता भणितम्-सौम्य ! शृणु। सूर्य, ज्योतिषी देवों के इन्द्रों की, तथा ज्योतिष्क राजा की तेजोलेश्या का उल्लंघन करता है। जिसे श्रमण निर्ग्रन्थ हुए छह माह हो गये हैं वह सौधर्म और ईशान देवों की तेजोलेश्या का उल्लंघन करता है । जिसे श्रमण निर्ग्रन्थ हए सात माह हो गये हैं वह सनत्कुमार माहेन्द्र स्वर्ग के देवों की तेजोलेश्या का उल्लंघन करता है। जिसे श्रमण निर्ग्रन्थ हुए आठ माह हो गये हैं वह ब्रह्म और लान्तव स्वर्ग के देवों की तेजोलेश्या का उल्लंघन करता है । जिसे श्रमणनिर्ग्रन्थ हुए नव मास हो गये हैं बह महाशुक्र और सहस्रार स्वर्ग के देवों की तेजोलेश्या का उल्लंघन करता है। जिसे श्रमण निर्ग्रन्थ हुए दस माह हो गये हैं वह आरण और अच्युत स्वर्ग के देवों की तेजोलेश्या का उल्लंघन करता है। जिसे श्रमण निर्ग्रन्थ हुए ग्यारह माह हो गये हैं वह ग्रेवेयक देवों की तेजोलेश्या का उल्लंघन करता है। जिसे श्रमण निर्ग्रन्थ हुए बारह मास हुए हैं वह अनुत्तर और औपपातिक देवों की तेजोलेश्या का उल्लंघन करता है । उसके बाद वाला श्रमणनिम्रन्थ निर्मल शुक्ललेण्या वाला होकर सिद्धि को प्राप्त करता है, बोध को प्राप्त हो जाता है, मुक्त हो जाता है, समस्त दुःखों का अन्त करता है । इस प्रकार हे देवानुप्रिय ! संयम का पालन करना परमार्थ से दुःखसेवन करने के अनुरूप नहीं है।' इन्द्रशर्मा ने कहा'भगवन् ! यह सच है, आदेश की इच्छा करता हूँ।' इसी बीच मानो पहले से आये हुए चित्रांगद ने प्रणामपूर्वक कहा-'भगवन् ! कौन प्राणी किस स्थिति Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइच्चकहा ८७० सत्तविहबंधगा होति पाणिणो आउवज्जगाणं तु। तह सुहमसंपराया छविहबंधा मुणेयव्वा ॥१०२५।। मोहाउयवज्जाणं पगडीणं ते उ बंधगा भणिया। उवसंतखोणमोहा केवलिणो एगविहबंधा ॥१०२६॥ ते उण दुसमयठिइयस्स बंधया न उण संपरायस्स । सेलेसोपडिवन्ना अबंधया होंति विन्नेया॥१०२७॥ अपमत्तसंजयाणं बंधठिई होइ अट्ठ उ मुहुत्ता। उक्कोसेण जहन्ना भिन्नमुहुत्तं तु विन्नेया ॥१०२८॥ जे वि पमत्ताऽणाउट्टियाए बंधति तेसि बंधठिई। संवच्छराइं अट्ठ उ उक्कोसियरा मुहुत्तंतो॥१०२६॥ सम्मट्ठिीणं पि हु गठिं न कयाइ वोलए बंधो। मिच्छट्ठिीणं पुण उक्कोसो सुत्तभणिओ उ ॥१०३०॥ सप्तविधबन्धका भवन्ति प्राणिन आयुर्वर्जानां तु । तथा सूक्ष्मसम्परायाः षड्विधबन्धा ज्ञातव्याः ॥१०२५॥ मोहायुर्वर्जानां प्रकृतीनां ते तु बन्धका भणिताः। उपशान्तक्षीणमोहाः केवलिन एकविधबन्धाः ।।१०२६॥ ते पुनद्विसमयस्थितिकस्य बन्धका न पुनः सम्परायस्य । शंलेशोप्रतिपन्ना अबन्धका भवन्ति विज्ञ याः ।।।।१०२७।। अप्रमत्तसंयतानां बन्धस्थितिर्भवत्यष्ट तु मुहूर्ताः । उत्कर्षेण जघन्या भिन्नमुहूर्त तु विज्ञया ॥१०२८॥ येऽपि प्रमत्ता अनाकुट्टया बध्नन्ति तेषां बन्धस्थितिः। संवत्सराण्यष्ट तु उत्कृष्टा इतरा मुहूर्तान्तः ॥१०२६॥ सम्यग्दृष्टोनामपि खलु ग्रन्थि न कदाचिद् व्यतिक्रामति बन्धः । मिथ्यादृष्टिनां पुनरुत्कृष्ट: सूत्रभणितस्तु ॥१०३०॥ वाले कर्म को बाँधते हैं ?' भगवान् ने कहा-'सौम्य ! सुनो आयु को छोड़े हुए जीव के बन्ध सात होते हैं तथा सूक्ष्मसाम्परायों के छह प्रकार का बन्ध जानना चाहिए । आयकर्म से रहित मोह प्रकृतियों का बन्ध कहा गया है-उपशान्तमोह, क्षीणमोह और सयोगकेवली का एक प्रकार का बन्ध होता है । पुन: वे बन्ध दो समय की स्थितिवाले होते हैं, किन्तु साम्पराय के ऐसा नहीं होता है। शील के स्वामीपने को प्राप्त हुए अबन्धक होते हैं--ऐसा जानना चाहिए। अप्रमत्तसंयतों का बन्ध और स्थिति उत्कृष्ट रूप से आठ मुहूर्त की होती है । जघन्य स्थिति भिन्न मुहुर्त जानना चाहिए । जो प्रमत्त गुणस्थान में बिना काटे हुए बन्ध करते हैं उनकी बन्धन की स्थिति उत्कृष्ट आठ वर्ष और जघन्य मुहूर्त भर की होती है । सम्यग्दृष्टियों की भी ग्रन्थि कदाचित् बन्ध का अतिक्रमण नहीं करती है। मिथ्यादृष्टियों की उत्कृष्ट स्थिति सूत्र में कही गयी है ॥१०२५-१०३०॥ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मवमो भवो ] चित्तंगएण भणियं भयवं, एवमेयं; अवणीओ अम्हाण मोहो; भयवया अणुग्गिहीओ दर्द इच्छामि अर्सा । एत्यंतर म्म समागया कालवेला, अवगया नरिदाई, कयं भयवया उचियकरणिज्जं । बिइयदिय य तम्सि चेव चेइए अवद्वियस्स भयवओ समागओ अग्गिभूई नाम माहणो । वंदिऊण भयवंतमाइदेवं समराइच्चधायगं च उवविट्ठो तयंतिए । सविनयं जंपियमणेण - भयवं, साहेहि मज्झ देवयाविसेसं तदुवासणाविह उवासणाफलं च । भयवया भणियं - सोम, सुण । देवयाविसेसो ताव सो वीयरागो वज्जिओ दोसेण परमनाणी पूजिओ सुरासुरेहि परमत्यदेसगो हिओ सव्वजीवाण अचितमापो रहिओ जम्ममरणेहिं कयकिच्चो परमप्प त्ति । तदुवासणाविही उण जहासत्तीए निरीहेण चित्तेण अच्च त भावसारं उचिएणं कमेणं रहियमइयारेहिं तदुवएससारं अणुट्ठाणं दाणस्स पालणं विरईए आसेवणं तवस्स भावणं भावणाणं ति । उवासणाफलं पुण सुंदरं देवत्तं महाविमाणाइं अच्छरसाओ दिव्वा काम भोया सुकुल पच्चाइयाई सुंदरं रूवं विसिट्ठा भोया वियवखणत्तं धम्मपडिवत्ती परमपय ८७१ चित्राङ्गदेन भणितम् - भगवन् ! एवमेतद्, अपनीतोऽस्माकं मोहः, मगवताऽनुगृहीतो दृढमिच्छाम्यनुशास्तिम् । अत्रान्तरे समागता कालवेला, अपगता नरेन्द्रादयः, कृतं भगवतोचितकरणीयम् । द्वितीयदिवसे च तस्मिन्नेव चैत्येऽवस्थितस्य भगवतः समागतोऽग्निभूतिर्नाम ब्राह्मणः । वन्दित्वा भगवन्तमादिदेवं समरादित्यवाचकं चोपविष्टस्तदन्तिके । सविनयं जल्पितमनेन - भगवन् ! कथय मम देवताविशेषं तदुपासनाविधिमुपासनाफलं च । भगवता भणितम् - सौम्य ! शृणु । देवताविशेषस्तावत स वीतरागो वर्जितो दोषेण परमज्ञानी पूजितः सुरासुरैः परमार्थदेशको हितः सर्वजीवानामचिन्त्यमाहात्म्यो रहितो जन्ममरणाभ्यां कृतकृत्यः परमात्मेति । तदुपासनाविधिः पुनर्यथाशक्ति निरीहेण चित्तेनात्यन्तभावसारमुचितेन क्रमेण रहितमतिचारैस्तदुपदेशसा रमनुष्ठानं दानस्य पालनं विरत्या आसेवनं तपसो भावनं भावनानामिति । उपासनाफलं पुनः सुन्दरं देवत्वं महानिमानानि अप्सरसो दिव्याः कामभोगाः सुकुलप्रत्यागतादिः सुन्दरं रूपं विशिष्टा भोगा विचक्षणत्वं धर्मप्रति चित्रांगद ने कहा- 'भगवन् ! यह ऐसा ही है, हमारा मोह दूर हो गया, भगवान् से अनुगृहीत होकर आदेश की इच्छा करता हूँ ।' इसी बीच समय हो गया, राजा आदि चले गये। भगवान् ने योग्य कार्यों को किया। दूसरे दिन जब भगवान् उसी चैत्य में ठहरे हुए थे तब अग्निभूति नाम का ब्राह्मण आया । भगवान् आदिदेव और समरादित्य वाचक को नमस्कार कर उनके समीप बैठ गया । विनयपूर्वक इसने कहा- 'भगवन् ! मुझसे देवताविशेष और उसकी उपासना की विधि तथा उपासना का फल कहिए ।' भगवान ने कहा 'सौम्य ! सुनो। जो वीतरागी, दोषरहित, परमज्ञानी, सुर और असुरों से पूजित, परमार्थ का उपदेश देनेवाला, समस्त जीवों का हितकारी, अचिन्त्य माहात्म्यवाला, जन्म और मरण से रहित, कृतकृत्य और परमात्मा हो वह 'देवता विशेष' है । यथाशक्ति निरभिलाष चित्त से अत्यन्त भावरूप सारवाला होकर उचित क्रम से, अतिचारों से रहित, उनके साररूप उपदेशों का पालन करना, दान देना, विरति का पालन करना, तप का सेवन करना, भावनाओं का चिन्तन करना, उस देवताविशेष की उपासना विधि है । उपासना का फल स्वर्ग में सुन्दर देवपना, देवांगनाओं के साथ दिव्य काम Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७२ [समराइच्चकहा गमणं ति । एयमायण्णिऊण हरिसिओ अग्गिभूई । भणियं च णेण-भयवं, जो वीय रागो, सो परममज्झत्थयाए न कस्सह उवयारं करेइ ‘मा अन्नेसि पीडा भविस्सइ' ति; अकरतो य त 'हिओ सव्वजीवाणं'ति को एत्थ हेऊ। भववया भणियं-सोम, सुण। न खलु परमत्थदेसणाओ महामोहनासणेण अन्नो कोइ उवयारो । करेइ यतं भयवं अन्नपीडाचाएणं ति । एसेव एत्थ हेऊ । अग्गिभइणा भणियं-भयवं एवमुवासणाए को तस्स उवयारो, अविज्जमाणे य तम्मि कहं भणियफलसिद्धी, कह वा सा तओ त्ति । भयवया भणियं-सोम, सुण। न खलु तदुवगाराओ एत्थ फलसिद्धी, किंतु तदुवासणाओ। दिट्ठा य एसा तदुवगाराभावे वि विहिओवासणाओ चितामणिमंतजलणेहि; न य ते तेहिं तिप्पंति, किं तु तदणुसरणजवणासेवणेण अहिप्पेयत्थस्स होइ संपत्ती, न य सान तेहितो त्ति। एयमायण्णिऊण पडिबद्धो अग्गिभूई। भणियं च णेण---अहो भयवया सम्ममावेइयं, अवगओ मोहो, इच्छामि अणुसासणं ति। एत्यंतरम्मि अहिणवसावगो संगएणं वेसेणं सपरियणो समागओ धरिद्धिसेट्टी। कया भयवओ पत्तिः परमपदगमनमिति । एतदाकर्ण्य हर्षितोऽग्निभूतिः । णित चानेन- भगवन् ! यो वीतरागः स परममध्यस्यतया न कस्यचिदुपकारं करोति 'माऽन्येषां पीडा भविष्यति' इति, अकर्वश्च तं 'हितः सर्वजीवानाम्' इति कोऽत्र हेतुः। भगवता भणितम्-सौम्य ! शृणु। न खलु परमार्थदेशनाया महामोहनाशनेनान्यः कोऽप्युपकारः । करोति च तं भगवान् अन्यपीडात्यागेनेति । एष एवात्र हेतुः । अग्निभूतिना भणितम् -भगवन् ! एवमुपासनया कस्तस्योपकारः, अविद्यमाने च तस्मिन् कथं भणितफलसिद्धिः, कथं वा सा तत इति । भगवता भणितम्-सौम्य ! शृणु। न खलु तदुपकारादत्र फलसिद्धिः, किन्तु तदुपासनया । दृष्टा चैषा तदुपकाराभावेऽपि विहितोपासनाया चिन्तामणिमन्त्रज्वलनैः, न च ते तैः तृप्यन्ति, किन्तु तदनुसरणजपनासेवनेनाभिप्रेतार्थस्य भवति सम्प्राप्तिः, न च सा न तेभ्य इति । एतदाकर्ण्य प्रतिबद्धोऽग्निभूतिः। भणतं च तेन- अहो भगवता सम्यगावेदितम्, अपगतो मोहः, इच्छाम्यनुशासनमिति ।। अत्रान्तरेऽभिनवश्रावक: संगतेन वेषेण सपरिजनः समागतो धनऋद्धिश्रेष्ठी। कृता भगवत: भोग, अच्छे कुल में आना, सुन्दर रूप, विशिष्ट भोग, प्रवीणपना, धर्म की प्राप्ति और मोक्षगमन - ये उपासना के फल हैं।' यह सुनकर अग्निभूति हर्षित हुआ और इसने कहा -- 'भगवन् ! जो वीतराग होता है वह परमध्यस्थ होने से न किसी का उपकार करता है. न दसरों को पीडा पहुँचाता है। इस प्रकार न करता हआ वह सब जीवों का हितकारी है - इसमें क्या हेतु है ?' भगवान् ने कहा- 'सौम्य ! सुनो। परमार्थ उपदेश (दशना) का महामोह के नाश करने के अतिरिक्त कोई उपकार नहीं है। उसे भगवान् दूसरों का पीड़ा न पहुंवाकर करते हैं, यही यहाँ कारण है।' अग्निभूति ने कहा-'भगवन् ! इसी प्रकार उनकी उपासना से क्या उपकार होता है और उनके विद्यमान न होने पर कैसे कथित फल की सिद्धि होती है अथवा वह कैसे होती है ?' भगवान् ने कहा - 'सौम्प ! सुनो। निश्चय से उनके उपकार से यहाँ फल की सिद्धि नहीं होती है, अपितु उपासना से होती है। यह देखा जाता है कि चिन्तामणि मन्त्र के द्वारा उपकार का अभाव होने पर भी उपासना करने से चिन्तामणि मन्त्र की चमक से वे तृप्त नहीं होते हैं; किन्तु उसका अनुसरण, जाप, सेवन से इष्ट पदार्थ की प्राप्ति होती है, अतः नहीं कहा जा सकता है कि वह प्राप्ति उस मन्त्र से नहीं हुई । यह सुनकर अग्निभूति जाग्रत् हो गया और उसने कहा- 'ओह ! भगवान् ने ठीक बतलाया, मोह दूर हो गया। आदेश चाहता हूं।' तभी नवीन श्रावक के वेष से युक्त परिजनों के साथ धनऋद्धि सेठ आया। भगवान् की पूजा की। Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७३ नवमो भवो] पूया। तो वंदिऊण भयवंतं वायगं च उवष्टिो तदंतिए । भणियं च णेण-भयवं, साहूण कयकारणाणुमईभयभिन्ना सावज्जजोयविरई; ता कहमेतेसि सावयाण थूलगपाणाइवायादिरूवाणन्वयप्पयाणे इयरम्मि अणुमई न होइ । भयवया भणियं-सोम, अविहिणा होइ न उ विहिप्पयाणेण । सेट्टिणा भणियं-भयवं, केरिसं विहिप्पयाणं । भयवया भणियं-सोम, सुण। संसिऊण संवेगसारं जहाविहिणा भवसरूवं अणवद्वियं एगंतेण कारणं दुक्खपरंपराए, तन्निग्घायणसमत्थं च अच्चंतियरसायणं जीवलोए अक्खेवेण साहगं मोक्खस्स जट्टियं साहुधम्म, जणिऊण सुद्धभावपरिणई वढिऊण संवेगं तहाविहकम्मोद रण अपडिबज्नमाणेसु तं सावएसु उज्जएसु अणुव्वयगहणम्मि मज्झत्थस्स मुणिणो पसत्थखेत्ताइम्मि आगाराइपरिसुद्धं पयच्छंतस्स विहिप्पयाणं ति। सेट्टिणा भणियं-भयवं एवं पि कहं तस्स इयरम्मि अणुमई न होइ । भयवया भणियं - सोम, सुण । गाहावइचोर(पुत्त)ग्गहणविमोवखणयाए एत्थ दिळंतो। अस्थि इह वसंतउरं नपरं, जियसत्तू राया, धारिणी देवी । नट्टाइसएण परिउट्ठो से भत्ता। भणिया य जेण-भण, किं ते पियं करीयउ। तीए भणियं - अज्जउत्त, कोमईए पूजा । ततो वन्दित्वा भगवन्तं वाचकं चोपविष्टस्तदन्तिके । भणितं च तेन- भगवन ! साधनां कृतकारणान मतिभेदभिन्ना सावद्ययोगविरतिः, ततः कथमेतेषां श्रावकाणां स्थल प्राणातिपातादिपाणवतप्रदाने इतरस्मिन् अनुमतिर्न भवति । भगवता भणितम्-सौम्य ! अविधिना भवति, न त विधिप्रदानेन । श्रेष्ठिना भणितम् --भगवन ! कीदृशं विधिप्रदान म । भगवता भणितम्-सौम्य ! शृण । शंसित्वा संवेगसारं यथाविधि भवस्वरूपमनवस्थितमेकान्तेन कारणं दुःखपरम्परायाः, तन्निर्घातनसमर्थं चात्यन्तिक रसायनं जीवलोकेऽक्षेपेण साधकं मोक्षस्य यथास्थितं साधधर्मम; जनित्वा शद्धभावपरिणति वर्धित्वा संवेगं तथाविधकर्मोदयेनाप्रतिपद्यमानेषु तं भाव केषद्यतेष अणुव्रतग्रहणे मध्यस्थस्य मुने: प्रशस्तक्षेत्रादिके आकारादिपरिशद्धं प्रयच्छतो विधिप्रदानमिति । श्रष्ठिना भणितम् - भगवन् ! एवमपि कथं तस्येतरस्मिन् अनुमतिर्न भवति । भगवता भणितमसौम्य ! शृणु । गृहपतिचौर (पुत्र)ग्रहणविमोक्षणतया अत्र दृष्टान्त: । अस्ति इह वसन्तपुरं नगरम, जितशत्र राजा, धारिणी देवी। नाट्यातिशयेन परितुष्टस्तस्या भर्ता। भणिता च तेन अनन्तर भगवान् वाचक की वन्दना कर उनके पास बैठा और उसने कहा-'भगवन् ! साधुओं की सावद्ययोगविरति कृत-कारित-अनुमोदना भेद से भिन्न है अतः इन श्रावकों के स्थूल हिंसा के त्यागादिरूप अणुव्रतों के प्रदान करते समय दूसरे सावद्ययोगविरति में अनुमति क्यों नहीं है ?' भगवान् ने कहा - 'सौम्म ! विधिरहित होती है, विधिपूर्वक प्रदान करने से नहीं होती है ।' सेठ ने कहा- 'भगवन् ! विधिपूर्वक प्रदान करना कैसा होता है?' भगवान् ने कहा --'सौम्प ! सुनो-विधिपूर्वक विरक्ति के सार की प्रशंसा करके अस्थिर संसार के स्वरूप को जो अत्यन्त रूप से दुःव की परम्परा का कारण है, उसे नष्ट करने में समर्थ और जो संसार में अविनाशी रसायन है नया मोक्ष का साधक है ऐसे यथास्थित साधुधर्म को शुद्ध भावों की परिणति उत्पन्न कर, वैराग्य बढ़ाकर उस प्रकार के कर्मों के उदय से उस प्रकार के कर्मों को अंगीकार न करने से उन श्रावकों के अणवत ग्रहण में उद्यात होने पर मध्यस्थ मुनि के प्रशस्त क्षेत्रादि में आकर आदि से शुद्ध विधि प्रदान की जाती है। सेठ ने कहा"भगवन् ! इस प्रकार कैसे उसकी दूसरे में अनुमति नहीं होती है ?' भगवान ने कहा-'सौम्य ! सुनो। गहपति के चोरपुत्र के पकड़ने और छोड़ने का दृष्टान्त है। यहाँ वसन्तपुर नामक नगर है । वहाँ का राजा जित शत्रु था और धारगी महारानी थी। नाट्य के अतिशय से उसके ऊपर पति सन्तुष्ट हुआ और उसने कहा कहो, Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७४ [ समराइच्चकहा अंतेउराण जहिच्छापयारेण ऊसवपसाओ त्ति। पडिस्सुयमणेण । समागओ सो दियहो। करा वियं राइणा घोसणं, जहा 'जो अज्ज एत्थ पुरिसो वसिहिह, तस्स मए सारीरो निगहो काययो' । उग्गदंडो राय त्ति निग्गया सव्वपुरिसा, नवरं एगस्स सेट्ठिणो छस्सुया संववहारवावडयाए लहु न निग्गया। ढक्कियाओ पओलीओ। भएण तत्थेव निलुक्का। वतो रयणीए ऊसवो। बिइदियहे राइणा पउत्ता चारिगा। हरे गवेसह; को एत्थ न निग्गओ त्ति। तेहिं निउणबुद्धीए गवेसिऊण साहियं रन्नो। महाराय, अमुगसेट्ठिस्स छस्सुया न निग्गय त्ति । कुविओ राया। भणियं च ण-वावएह ते दुरायारे । गहिया रायपुरिसेहि, उवणीया वज्झथामं । एयमायण्णिऊण भीओ तेसि पिया। समागओ नरवइसमीवं । विन्नत्तो राया। देव, खमसु ममेक्कमवराह मुयह एक्कवारमेए। 'मा अन्ने वि एवं करेस्संति' त्ति न मेल्लेइ राया। पुणो पुणो भण्ण पाणेण ‘मा कुलखओ भवउ' त्ति मुक्को से जेट्टपुत्तो। बहुमन्निओ सेटिणा। वावाइया इयरे। न य समभावस्स सम्बेसु एगबहुमन्नणे अणुमई सेसेसु त्ति । एस दिद्रुतो, इमो इमस्स उवणओ। रायतुल्लो सावओ, वावाइज्जमाणवाणियगसुयतुल्ला जीवनिकाया, भण, किं ते प्रियं क्रियताम। तया भणितम--आर्य पुत्र ! कौमुद्यामन्तःपुरा यथेच्छाप्रकारेणोत्सव प्रमःद इति । प्रतिश्रतमनेन। समागतः स दिवसः । कारित राज्ञा घोषणम, यथा 'योऽद्यात्र पुरुषो वत्स्यति तस्य मया शारो निग्रहः कर्तव्यः' । उग्रदण्डो राजेति निर्गत: सर्वपुरुषाः, नवरमेकस्य श्रेष्ठिनः षट सुता: संव्यवहारव्यापततया लघन निर्गताः । स्थगिता: प्रतोल्य: : भयेन तत्रैव गुप्ताः । वृत्तो रजन्यामुत्सवः। द्वितीयदिवसे राज्ञा प्रयुक्ताश्चारिकाः- अरे गवेषयत, कोऽत्र न निर्गत इति । तनिष गबुद्धया गवेषयित्वा कथितं राज्ञ:--महाराज ! अमुव श्रेष्ठिन षट् सुता न निर्गता इति । कुपितो राजा । भणितं च तेन - गपादयत तान् दुराचारान् । गृहीता राजपुरुष, उपनता वध्यस्थानम् । एतदाकर्ण्य भीतस्तेषां पिता। समागतो नरपतिसमीपम। विज्ञप्तो राजा देव ! क्षमस्व ममैकमपराधम्, मुञ्चतैकवारमेतान् । 'माऽन्येऽप्येवं करिष्यन्ति' इति न मुञ्चति राजा। पुनः पुनर्भण्यमानेन ‘मा कुलक्षयो भवतु' इति मुक्तस्तस्य ज्येष्ठपुत्रः । बहुमानतः श्रेष्ठिना । व्यापादिता इतरे । न च समभावस्य सर्वेष्वेकबहुमाननेऽनुमतिः शेषष्विति । एष दृष्टान्तः । अास्योपनयः । तेरा क्या प्रिय कहँ ? उसने कहा -आर्यपुत्र ! कौमुदी महोत्सव पर अन्त पुरवासियों की इच्छानुसार उत्सव करें, ऐसा अनुग्रह कीजिए । इसने स्वीकार किया। वह दिन आया । राजा ने घोषणा करायी कि 'यहाँ आज जो पुरुष निवास करेगा, उसे मैं शारीरिक दण्ड दूंगा।' 'राजा कठोर दण्डदेने वाला है' ऐसा सो वार सभी पुरुष निकल गये । केवल एक सेठ के छह पुत्र व्यापार में लगे रहने से शीघ्र नहीं निकले । गलियाँ रोक दी गयी थीं। भय से वे वहीं छिप गये । रात्रि में उत्सव हुआ। दूसरे दिन राजा ने दूत भेजे । अरे खोजो, यहाँ कोन नहीं निकला ? उन्होंने चतुर बुद्धि से खोजकर राजा से कहा-महाराज ! अमुक सेठ के छह पुत्र नहीं निकले। राजा कुपित हआ और उसने कहा -- उन दुराचारियों को मार डालो। राजपुरुषों ने पकड़ लिया, वध करने योग्य स्थान पर ले गये । यह सुनकर उनका पिता डर गया राजा के पास आया। राजा से निवेदन किया--महार मेरा अपराध क्षमा करो, इन्हें एक बार छोड़ दो। नहीं, अन्य भी ऐसा करेंगे'---इस प्रकार राजा ने नहीं छोड़ा। बार-बार कहे जाने पर 'कुल का विनाश न हो' अतः उसका बड़ा लड़का छोड़ दिया। सेठ ने आदर किया। दूसरे मार डाले गये। सभी के प्रति समभाव होने पर एक को न मारने की आज्ञा का आदर करने में शेष को मार डालने की अनुमति नहीं है -- यह दृष्टान्त है। इसकी उपलब्धि यह है । श्रावक राजा के तुल्य है। मारे जानेवाले Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो भयो] ८७५ वाणियगतुल्लो साहू, बिन्नवणतुल्ला अणुव्वयगहणकाले साहुधम्मदेसणा । एवं च सुहुमजीवनिकायअमुयणे वि सावयस्स न तेसु साहुणो अणुमई, इयरहा होइ अविहिनिप्फन्न । एवं सव्वत्थ अविहिनिप्फन्नो दोसो। अओ चेव भयवया भणियं-पढम नाण तओ दय त्ति । नाणपुव्वयं सव्वमेव सम्माणद्वाणं ति । एयमायण्णिऊण हरिसिओ धरिद्धी। भणियं च ण-भयवं, एवमयं, अहो सुदिट्ठो भयवं तेहि धम्मो। एत्थतरम्मि पुव्वागएणव पणमिऊण भयवतं भणियं जसोय देण। भयवं, जे खल इह थेवस्स वि पमायचेट्टियस्स दारुणविवागा सुणीयंति, ते किं तहेव उदाहु अन्नहा। भयवया भणियं- सोम, सुण । जे आगमणिया ते तहेव; जो न अन्नहावाइणो जिणा। ज उण आगमबाहिरा, तेसु जइच्छ त्ति । असोयचंदेण भणियं-भयवं, जइ एवं, ता कीस केसिंचि पाणवहाइकिरियापवत्ताण अच्चंतविरुद्धकारीण वि इद्वत्थसंपत्ती विउला भोगा दोहमाउयं अतुट्टो य तयणुबंधो; अन्नेसि च थेवे वि अवराहे सव्वविवज्जओ ति। भयवया भणियं -सोम, सुण। विचित्ता कम्मपरिणई। जे खलु राजतल्यः श्रावकः, व्यापाद्यमानवाणिजकसुततुल्या जीवनिकायाः, वाणिजकतल्यः साधुः विज्ञापनतुल्या अणुव्रतग्रहणकाले साधुधर्मदेशना । एवं च सूक्ष्मजीवनिकायामोचनेऽपि श्रावकस्य न तेष साधोरनुमतिः, इतरथा भवत्यविधिनिष्पन्ना । एवं सर्वत्राविधिनिष्पन्नो दोषः । अत एव भगवता भणितम्-प्रथमं ज्ञानं ततो दयेति। ज्ञानपूर्वकं सर्वमेव सम्यगनुष्ठानमिति । एतदाकर्ण्य हषितो धनऋद्धिः । भणितं च तेन-भगवन ! एवमेतद्, अहो सुदृष्टो भगवद्भिर्धर्मः । ___ अत्रान्तरे पूर्वागतेनैव प्रणम्य भगवन्तं भणितमशोकचन्द्रण-भगवन् ! ये खल्विह स्तोकस्यापि प्रमादचेष्टितस्य दारुणविपाकाः श्रूयन्ते, ते किं तथैव उताहो अन्यथा । भगवता भणितम्-सौम्य ! शृणु । ये आगमभणितास्ते तथैव, यतो नान्यथावादिनो जिनाः । ये पुनरागमबाह्यास्तेषु यदृच्छति । अशोकचन्द्रेण मणितम्-भगवन् ! यद्येवम्, ततः कस्मात् केषांचित् प्राणवधादिक्रिया प्रवृत्तानामत्यन्तविरुद्धकारिणामपि इष्टार्थसम्प्राप्तिविपुला भोगा दीर्घमायुरटिश्च तदनुबन्धः, अन्येषां च स्तोकेऽप्यप राधे सर्व विपर्यय इति । भगवता भणितम्-सौम्य ! शृण । विचित्रा कर्मपरिणतिः। ये खल्व वणिकपुत्रों के समान जीवसमूह है, साधु वणिक् के समान है। अणुव्रत ग्रहण करते समय साधु का धर्मोपदेश निवेदन के तुल्य है । इस प्रकार सूक्ष्म जीवों का समूह न छोड़ने पर भी श्रावक के लिए उनके विषय में साधु की अनुमति नहीं है। दूसरे प्रकार से अविधि की निष्पत्ति होती है। इस प्रकार सब जगह अविधि की निष्पत्ति का दोष है । अत एव भगवान् ने कहा है-पहले ज्ञान हो तब दया। ज्ञानपूर्वक सभी धार्मिक विधि-विधान ठीक होते हैं । यह सुनकर धनऋद्धि हर्षित हुआ और उसने कहा-'भगवन् ! यह ठीक है, ओह ! भगवान् ने धर्म भलीभौति देखा (जाना) है। . इसी बीच मानो पहले आये हुए होने से अशोकचन्द्र ने भगवान् को प्रणाम कर कहा-'भगवन् ! जो कि यहाँ थोड़े से भी प्रमाद करने के भयंकर फल सुने जाते हैं, क्या वे वैसे ही हैं अथवा दूसरे प्रकार से हैं ?' भगवान ने कहा-'सौम्य ! सुनो । जो आगम में कहे गये हैं, वैसे ही हैं; क्योंकि जिन अन्यथा कहनेवाले नहीं होते हैं । जो आगमबाह्य हैं उनमें इच्छानुसार नियम है।' अशोकचन्द्र ने कहा- 'भगवन ! यदि ऐसा है तो कैसे किन्हीं प्राणि | आदि क्रियाओं में लगे हए अत्यन्त विरुद्ध कार्य करनेवालों के इष्ट पदार्थों की प्राप्ति होती है और वह सिलसिला नष्ट नहीं होता है; और दूसरे व्यक्तियों के थोड़े से अपराध पर सब विपरीत हो जाता है ?' भगवान् ने कहा-'सौम्य ! सुनो । कर्म की परिणति विचित्र है। जो अशुभबन्ध वाले कर्मों से युक्त, संसार का अभिनन्दन Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७६ [समराइच्चकहा अकुसलाणुबंधिकम्मजता संसाराहिणंदिणो खुद्दसता दोग्गइगामिणो कल्लाणपरंमुहा भायणं अणत्याणं, तेसि खलु अकुसलपवत्तीए पावभरसंपूरणत्यं इट्टत्थसपत्ताइ संजायए, विवरीयाणं तु भणियभावविवरीयभावओ सव्वविवज्जओ ति। असोयचंदेण भणियं-भयवं, एवमेयं। अहो मे अवणीओ मोहो भयवया। एत्थंतरम्मि पुवागएणव पणमिऊण भयवंतं भणियं तिलोयणेण-भयवं अभयदाणोबट्ठभदाणाण ओघओ कि पहाण परं ति । भयवया भणियं - सोम, सुण । अभयदाणं । रायपत्तिचोरग्गहणविमोक्खणयाए एत्थ दिह्रतो । अत्थि इहेव बम्भउरं नयरं, कुसद्धओ राया, कमलुया महादेवी, ताराबलिप्पमहाओ अन्नदेवीओ। अन्नया य राया वायायणोविट्ठो समं कमलुयापमुहाहि चहि अग्गभहिसीहिं अक्खजूयविणोएण चिट्ठइ, जाव अणेयकसाघायदूमियदेहो बद्धो पयंडरज्जूए दंडवासिएण आणीओ तक्करो। भणियं च ण - देव, कयमणेण परदव्वावहरणं ति। राइणा भणियं-वावाएहि एयं । पयट्टाविओ दंडवासिएण वज्झभूमि। तओ पाणवल्लहयाए अवलोइऊण दोणवयणेण दिसाओ कुशलानुबन्धिकर्मयुक्ताः संसाराभिनन्दिनः क्षुद्रसत्त्वा दुर्गतिगामिनः कल्याणपराङ मुखा भाजनमनानाम्, तेषां खल्व कुशलप्रवृत्त्या पापभरसम्पूरणार्थमिष्टार्थसम्प्राप्त्यादि संजायते, विपरीतानां तु भणितभावविपरीत भावतः सर्वविपर्यय इति । अशोकचन्द्रेण भणितम-भगवन ! एवमेतद। अहो मेऽपनीतो मोहो भगवता। ___ अत्रान्तरे पूर्वागतेनैव प्रणम्य भगवन्तं भणितं त्रिलोचनेन-भगवन् ! अभयदानोपष्टम्भदानयोरोघतः किं प्रधानतरमिति । भगवता भणितम्-सौम्य ! शृणु। अभयदानम्। राजपत्नो चोरग्रहणविमोक्षणतयाऽत्र दृष्टान्तः । अस्तीहैव ब्रह्मपुर नगरम्, कुशध्वजो राजा, कमलुका महादेवी, तारावलाप्रमुखा अन्यदेव्यः। अन्यदा च राजा वातायतनोपविष्ट: समं कमलुकाप्रमुखाभिश्चतसभिरग्रमहिषोभिरक्षद्यूतविनोदेन तिष्ठति, यावदनेककशाघातदूनदेहो बद्धः प्रचण्डरज्ज्वादण्डपाशिकेनानीतस्तस्करः । भणितं च तेन-देव ! कृतमनेन परद्रव्यापहरणमिति । राज्ञा भणितम् -~-व्यापादयतम् । प्रतितो दण्डपाशिकेन वध्यभूमिम् । ततः प्राणवल्लभतयाऽवलोक्य दीनवदनेन दिश करनेवाले, दुर्गति में जानेवाले, कल्याण से पराङ्मुख और अनर्थों के पात्र क्षुद्र प्राणी हैं, निश्चित रूप से उन्हें पाप के समूह की पूर्ति के लिए इष्ट पदार्थों की प्राप्ति आदि हो जाती है और जो विपरीत होते हैं उनके कथित भावों से विपरीत भाव होने के कारण सब विपरीत होता है।' अशोकचन्द्र ने कहा-'भगवन् ! यह ऐसा ही है। ओह ! मेरा मोह भगवान ने दूर कर दिया।' इसी बीच मानो पहले से आये हुए त्रिलोचन ने प्रणाम कर भगवान् से कहा-'भगवन् ! अभयदान और वस्तुदान में सम्पूर्ण रूप से कौन अधिक प्रधान है ?' भगवान् ने कहा --'सौम्य ! अभयदान प्रधान है। राजपत्नी के चोरी में पकड़ने और छोड़ने का यहाँ दृष्टान्त है-यहीं ब्रह्मपुर नगर है। वहाँ कुशध्वज राजा और कमलुका महारानी थी, तारावती प्रमुख अन्य महारानियाँ थीं। एक बार राजा खिड़ की में कमलुका प्रमुख चार पटरानियों के साथ द्यूतकीड़ा करता हुआ बैठा था । तभी अनेक कोड़ों के मारने से दुःखी शरीरवाले, बड़ी रस्सी से बंधे एक चोर को कोतवाल लाया और उसने (कोतवाल ने) कहा-महाराज ! इसने दूसरे के धन का अपहरण किया है। राजा ने कहा - इसे मार डालो। कोतवाल उसे बाह्मभूमि में ले गया। अनन्तर प्राण प्यारे होने के कारण दीनमुख हो दिशाओं की ओर देखकर वह चिल्लाया-ओह ! पहले पहल चोरी करनेवाला, मनोरथ को प्राप्त न Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो भवो] ८७७ अक्कंदियमणेण । अहो पढमचोरकारी असंपत्तमणोरहो वावाइज्जामि अहन्नो त्ति । एयमायण्णिऊण सोगियाओ देवीओ। विन्नत्तो ताहि राया। अज्जउत, मा असंपत्तमणोरहो वावाइज्जउ, अज्जउत्तपसाएण करेमो किपि एयस्स । अणुमयं राइणा, भणियं 'करेह' । तओ एगाए मोयाविऊण अभंगाविओ सहस्सपागेण, महाविओ सप्पओयं, व्हावाविओ गंधोयगाईहि, दिन्नं खोमजुयलं । लग्गा दस सहस्सा। भणिजो य तीए-एत्तियगो मे विहवो ति। अन्नाए करादिओ आसवपाणं, भक्खाविओ विलंके, विलिपाविओ जक्श्वकद्दमेणं, दिन्नं कडिसुत्तयं । परिच्चाओ वीसं सहस्साई। भणिओ य तीए-एत्तियगो मे विहवो ति। अन्नाए भुंजाविओ कामियं, पायाविओ दक्खापाणगाई, भूसाविओ दिव्याहरणेहि, दिन्नं तंबोलं। लग्गो एत्थ लक्खो। भणिओ य तीए-एत्तियगो मे विहवो त्ति। मउलिया कमलुया, भणिया नरिदेण-न देसि तुमं किंचि । तीए भणियंअज्जउत्त, नत्यि मे विहवो एयस्स सुंदरयरदाणे । राइणा भणियं - जीवलोयसारभूया मे तुमं, पहवसि मम पाणाणं पि; ता कह नत्थि। तीए भणिय - अज्जउत्त, महापसाओ; जइ एवं, ता देमि किचि आक्रन्दितमनेन । अहो प्रथमचौर्यकारी असम्प्राप्तमनोरथो व्यापाद्येऽधन्य इति । एतदाव मे शोकिता देव्यः। विज्ञप्तस्ताभो राज्ञा--आर्यपुत्र ! मा असम्प्राप्त मनोरथो व्यापाद्यताम्, आर्यपुत्रप्रसादेन कुर्मः किमप्येतस्य । अनुमतं राज्ञा, भणित 'कुरुत' । तत एकया मोचयित्वाऽभ्यङ्गितः सहस्रपाकेन, मर्दितः सप्रयोगम, स्नपितो गन्धोदकादिभिः, दत्तं क्षौम युगलम् । लग्नानि दश सहस्राणि । णितश्च तयाएतावान् मे विभव इति । अन्यया कारित आसपानम्, भक्षितो विलकान् (भौजनानि ?), विलेपितो यक्षकर्दमेन, दत्तं कटिसूत्रकम् । परित्यागो विशतिः सहस्राणि । भणितश्च तया- एतावान् मे विभव इति। अन्यया भोजितः कामितम्, पायितो द्राक्षापानकानि, भूषितो दिव्याभरणैः. दत्तं ताम्बूलम् । लग्नोऽत्र लक्षः । भणितश्च तया- एतावान् मे विभव इति । मुकुलिता कमलुका, भणिता नरेन्द्रेण-न ददासि त्वं किञ्चित् । तया भणितम्-आर्यपुत्र ! नास्ति मे विभव एतस्य सुन्दरतरदाने। राज्ञा भणितम् -जीवलोकसारभूता में त्वम्, प्रभवसि मम प्राणानापि, ततः कथं नास्ति । तया भणितम्-आर्यपुत्र ! महाप्रसादः, यद्यव ततो ददामि किञ्चिदहमार्यपत्रानुमत्या। करनेवाला अधन्य (मैं) मारा जाऊंगा। यह सुनकर देवियों को शोक हुआ। उन्होंने राजा से निवेदन कियाआर्यपुत्र ! मनोरथ को न प्राप्त करनेवाले को मत मारो, आर्यपुत्र ! इस पर कृपा करो। राजा ने अनुमति दे दी, कहा-करो। तब एक ने छडाकर सहस्रक का लेप किया, भली-भांति मर्दन किया, गन्धोदक आदि से नहलाया, रेशमी वस्त्र का जोड़ा दिया । दस हजार (मुद्राएँ) दी। उसने (रानी ने) कहा-मेरा वैभव इतना है । दूसरी ने मद्यपान कराया, भोजन खिलाया, यक्षकर्दम (केसर, अगर, कपूर और कस्तूरी का समभाग मिश्रण) का विलेपन कराया, कटिसूत्र (करधनी) दी । बीस हजार स्वर्ण मुद्राओं का त्याग किया और उसने कहा- मेरा वैभव इतना है । (एक) दूसरी ने इष्ट भोजन कराया, अंगूर का रस पिलाया, दिव्य आभरणों से विभूषित किया, पान दिया । यहाँ उस चोर के एक लाख दीनारें हाथ लगी । उस रानी ने कहा-मेरा वैभव इतना ही है । कमलुका फीकी पड़ गयी। राजा ने कहा-तुम कुछ नहीं देती हो। उसने कहा-इसके लिए अत्यधिक सुन्दर दान करने का वैभव मेरे पास नहीं है । राजा ने कहा- तुम मेरे लिए संसार की सारभूत वस्तु हो, मेरे प्राणों से भी अधिक प्यारी हो, अत: कैसे तुम्हारे पास वैभव नहीं है ? उसने कहा - आर्यपुत्र ! बड़ी कृपा की । यदि ऐसा है तो मैं आर्यपुत्र की अनुमति से कुछ देती हूँ । राजा ने कहा-ऐसा ही करो। उसने (कमलुका ने) चोर से कहा-भद्र ! Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७८ [ समराइच्चकहा अहं अज्जउत्ताणमईए। राइणा भणियं-एवं करेहि। भणिओ य तोए चोरो। भद्द, दिट्ठो तए अकज्जबीपतरुकुसुमग्गमो। तेण भणियं-सामिणि, सुटठ दिट्टो, अओ चेव संजायपच्छायावो विरओ अहं जावज्जीवमेवाकज्जायरणस्स । देवीए भणियं-जइ एवं, ता दिन्नं मए इमस्स अभयं । राइणा भणियं-सुदिन्नं ति । हरिसिओ चोरो, मोइयं सुंदरयरं ति । परितुट्ठा कमलुया। हसियं ससदेवीहि । महादेवीए भणियं-किमिमिणा हसिएण; एवं चेव पुच्छह, किमेत्थ सुंदरयरं ति । पुच्छिओ चोरो। भणियं च ण-मरणभयाहिभूएण न नायं मए सेस ति न याणामि विसेसं। संपयं पुण सुहिओ म्हि । एवमेयं ति पडिवन्न सेसदेवीहि । एसेव एत्थुवणओ ति। हरिसिओ तिलोयणो, भणियं च ण-भयवं, एवमेयं । एत्थंतरम्मि समागया कालवेला, गओ सावयजणो, पारद्धं भयवया उचियकरणिज्ज । एवं च नाणादेसेसु सफलं विहरमाणस्त अईओ कोइ कालो। अन्नया य समागओ अवंतिजणवयं । जाया सिस्सनिष्फत्ति ति विसिटुजोयाराहणत्थं भावणाविहाणम्मि रफवाहसन्निवेसाओ नाइदूरम्मि चेव विवित्ते असोयउज्जाणे ठिओ समराइच्चवायगो पडिमं ति । दिट्ठो य किलिट्टकम्मसंगएण गिरिसेणेण, राज्ञा भणितम्-एवं कुरु । भणितश्च तया चौरः-- भद्र ! दृष्टस्त्वयाऽकार्यबीजतरुकुसमोद्गमः । तेन भणितम्-स्वामिनि ! सुष्ठ दृष्टः, अत एव सजातपश्चात्तापो विरतोऽहं यावज्जीवमेवाकार्याचरणात् । देव्या भणितम्-यद्येवं ततो दत्तं मयाऽस्याभयम् । राज्ञा भणितम्-सुदत्तमिति । हर्षितश्चौरः, मोदितं सुन्दरत रमिति । परितुष्टा कमलुका । हसितं शेषदेवीभिः । महादेव्या भणितम्किमनेन हसितेन, एतपेव पच्छत, किमत्र सुन्दरतरमिति । पृष्टश्चौरः । भणित च तेन-मरणभयाभिभूतेन न ज्ञातं मया शेषमिति न जानामि विशेषम्। साम्प्रतं पुनः सुखितोऽस्मि । एवमेतदिति प्रतिपन्नं शेषदेवीभिः । एष एवात्रोपनय इति । हर्षितस्त्रिलोचनः, भणितं च तेन-भगवन् ! एवमेतद। अत्रान्तरे सभागता कालवेला, गतः श्रावकजनः, प्रारब्ध भगवतोचितकरणीयम् । एवं च नानादेशेषु सफल विहरतोऽतीतः कोऽपि कालः । अन्यदा च समागतोऽवन्तीजनपदम् । जाता शिष्यनिष्पत्तिरिति विशिष्टयोगाराधनार्थं भावनाविधाने रफवाहसन्निवेशाद् नातिदूरे एव विविक्तेऽशोकोद्याने स्थितः समरादित्यवाचक: प्रतिमायामिति । दृष्ट श्च क्लिष्टकर्मसंगतेन गिरिषेणेन, 'प्रभूतं तुमने अकार्यरूपी बीज का वृक्ष और फूलों का निकलना देख लिया । उसने कहा--स्वामिनी ! भली-भाँति देख लिया अतएव उत्पन्न हए पश्चात्ताप वाला मैं जीवन-भर के लिए अकार्य का आचरण करने से विरत होता हूँ। महारानी ने कहा - यदि ऐसा है तो मैं इसे अभय देती हूँ। राजा ने कहा --ठीक किया। चोर हर्षित हुआ, अनुमोदन किया-अत्यधिक सुन्दर है। कमलुका सन्तुष्ट हुई। शेष महारानियाँ हसीं। महादेवी ने कहा--इस हँसने से क्या, इसी से पूछो- यहाँ अत्यधिक सुन्दर क्या है ? चोर से पूछा तो उसने कहा-मरण के भय से अभिभूत होकर मैंने शेष नहीं जाना, अतः विशेष नहीं जानता हूँ । इस समय पुनः सुखी हूं: यह ठीक है, इस प्रकार शेष महारानियों ने स्वीकार किया । यही यहाँ उपलब्धि है । त्रिलोचन हर्षित हुआ और उसने कहा---'भगवन् ! यह ठीक है।' इसी बीच समय हो गया, श्रावकजन चले गये, भगवान् ने योग्य कार्यों को प्रारम्भ किया। इस प्रकार अनेक देशों में सफल विहार करते हुए कुछ समय बीत गया। एक बार अवन्ती जनपद में आये। शिष्य परिपक्व हए अतः विशिष्ट योग की आराधना के लिए रवाह सन्निवेश के समीप शन्य अशोक उद्यान में समरादित्य वाचक प्रतिमायोग से चिन्तन में तल्लीन होकर स्थित हो गये। बुरे कर्मों से युक्त गिरिषेण ने देखा । 'बहत काल ------ ---- --- ---- Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो भवो] ८७६ 'पहूयं कालं हिंडाविओ' त्ति अच्चंतकुविएण रोद्दज्झाणवत्तिणा चितियं च णेण-एस एत्थ पत्थावो, न पुण एयारिसो संजायइ; ता वावाएमि एयं दुरायारं, पूरेमि अत्तणो मणोरहे; तहा य वावाएमि, जहा महतं दुक्खमणुहवइ पावो ति। तो सिग्धमेव कुओइ आणिऊण वेढिओ जरचीरेहि, सितो अयसितेल्लेणं, लाइओ अग्गी। भयवया पवढमाणजोयाइसएण न वेइयं सव्वमेयं । पवत्ते य दाहे जाओ माणसंकमो । चितियं च ण -हंत किमयं ति । अहो दारुणो भावो । पडिवन्नो कस्सइ अहं अणत्थहेउभावं । अहवा अलमिमिणा चितिएणं । सामाइयं एत्थ पवरं। नियत्तिया चिता, ठिओ विसुद्धजमाणे. परिणओ जोओ. जायं महासामाइयं, पवत्तमउव्वकरणं. उल्लसिया खवगसेढी. विभियं जीववीरियं, निहया कम्मसत्ती, वढिओ झाणाणलो, दड्ढं मोहिंधणं, पावियाओ लद्धीओ, जायं जोगमाहप्पं; विसोहिओ अप्पा, ठाविओ परमजोए, खवियं घाइकम्म, उप्पाडियं केवलनाणं ति । एत्थंतरम्मि भयवओ पहावेण अहासन्नखेत्तवत्ती चलियासणो समाणो आहोइऊण ओहिणा घेतूण कुसुमनियरं जइणयरीए गईए अणेगदेवयापरियरिओ महया पमोएण आगओ वेलंधरो। कालं हिण्डितः' इत्यत्यन्तकुपितन रौद्रध्यानवतिना चिन्तितं च तेन-एषोऽत्र प्रस्तावो (अवसरः) न पुनरेतादृशः संजायते, ततो व्यापादयाम्येतं दुराचारम्, पूरयाम्यात्मनो मनोरथान्, तथा च व्यापादयामि यथा मह दुःखमनुभवति पाप इति । ततः शीघ्रमेव कुतश्चिदानीय वेष्टितो जरच्चीवरैः, सिक्तोऽतसोतेलेन, लगितोऽग्निः । भगवता प्रवर्धमानयोगातिशयेन न वेदितं सर्वमेतद् । प्रवृत्ते च दाहे जातो ध्यानसंक्रमः । चिन्तितं च तेन-हन्त किमेतदिति । अहो दारुणो भावः। प्रतिपन्नः कस्यचिदमनर्थहेतुभावम् । अथवा अलमनेन चिन्तितेन । सामायिकमत्र प्रवरम् । निवतिता चिन्ता, स्थितो विशुद्धध्याने, परिणतो योगः, जातं महासामायिकम्, प्रवृत्तमपूर्वकरणम्, उल्लसिता क्षपकश्रेणिः, विजम्भितं जीववीर्यम, निहता कर्मशक्तिः, वधितो ध्यानानल:, दग्धं मोहेन्धनम्, प्राप्ता लब्धयः. जातं योगमाहात्म्यम्, विशोधित आत्मा, स्थापितः परमयोगे, क्षपितं घातिकर्म, उत्पादितं केवलज्ञानमिति । अत्रान्तरे भगवतः प्रभावेण यथासन्नक्षेत्रवर्ती चलितासनः सन् आभोग्यावधिना गहीत्वा कुसुमनिकरं जवनतर्या गत्याउने कदेवता परिवृतो महता प्रमोदेनागतो वेलन्धरः । प्रणतो भगवान्, घूमा' इस प्रकार अत्यन्त कुपित होकर रौद्र ध्यान से युक्त हो उसने सोचा- यह यहाँ अवसर है । बाद में ऐसा नहीं मिल सकता अतः इस दुराचारी को मारता हूँ, अपना मनोरथ पूर्ण करता हूँ, उस प्रकार मारूंगा जिसमें पापी बहत अधिक दुःख का अनुभव करे। अत: शीघ्र ही कहीं से पुराने कपडे लाकर लपेट दिये. अलसी का तेल सींचा, आग लगा दी। बढ़ते हए योग की अतिशयता वाले भगवान ने यह सब नहीं जाना । अग्नि जलने पर ध्यान में परिवर्तन हआ। उन्होंने सोचा --खेद है, यह क्या ? ओह भाव दारुण है। कोई मेरे अनर्थ के कारण में लग गया अथवा ऐसा विचार करने से बस अर्थात यह सोचना व्यर्थ है । यहाँ पर सामायिक उत्कृष्ट है । चिन्ता दूर हुई, विशुद्ध ध्यान में स्थित हुए. योग परिणत हुआ, महासामायिक उत्पन्न हुआ, अपूर्वक रण प्रवृत्त हुआ, क्षाकगि मुशोभित हुई, आ म शक्ति बढ़ी, कर्म की शक्ति मारी गयी, ध्यानरूपी अग्नि बढ़ी, लब्धियां प्राप्त की, योग का माहात्म्य उत्पन्न हुआ, आत्मा की शुद्धि की, परमयोग में स्थापित किया, घातिया कर्मों का नाश किया, केवलज्ञान उत्पन्न किया। इसी बीच भगवान् के प्रभाव से समीप स्थानवी आसन हिलने पर अवधिज्ञान से जानकर, फलों का समूह लेकर अत्यधिक तेज गति से अनेक देवताओं के साथ अत्यधिक प्रसन्न होकर वेलन्धर आया। भगवान को Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८० [समराइन्धकहा पणमिओ भयवं, पाडिया कुसुमवुट्ठी, विज्झविओ हुयासणो, अवणीयाइं चोराई। हंत किमयं ति संखद्धो गिरिसेणो। भणिओ वेलंधरेण - अरे रे दुरायार महापावकम्म अणज्ज पुरिसाहम अदद्वन्व सोयणिज्ज, कि तए इमं ववसियं। एत्यंतरम्मि य तओ नाइदूरदेसवत्ती समागओ मुणिचंदराया नम्मयापमहाओ देवीओ महासामंता य । दिट्ठो यहिं भयवं, वंदिओ परमभत्तीए। पुच्छिओ वेलंधरो। अज्ज, किमयं ति । वेलंधरेण भणियं -महाराय, अप्पणो ऽवगाराय इमिणा अणजेण अआयसत्तणो अमयभूयस्स भयवओ एवं जल णदाणपओएण पाणंतियं अज्झवसियं । राइणा भणियं-अहह अहो मोहसामत्थं, अज्ज, अइदारुणमज्झवसियं । अह कि पुण इमस्स अज्झवसायस्स कारणं । चंदसोमलेसो भयवं वच्छलो सव्वजीवाण निबंधणं पमोयस्स अणुप्पायओ पोडाए ति । वेलंधरेण भणियं --महाराय, न खलु अहमेत्थ कारणमवगच्छामि, एत्तियं पुण तक्के मि। असुहकम्मोदयओ मणेयदुक्खहेऊ कुगइनिवासबंधवो अणंतसंसारकारणं एयस्स । अन्नहा कहमीइसमझवस्सइ। राइणा भणियं-अज्ज, एवमेयं; तहावि भयवंतं पुच्छम्ह । वेलंधरेण भणियं- महाराय, एवं । पातिता कुसुमवृष्टिः, विध्यापितो हुताशनः, अपनीतानि चीवराणि । हन्त किमेतदिति संक्षब्धो गिरिषेणः । भणितो वेलन्धरेण-परेरे दुराचार ! महापापकर्मन् ! अनार्य ! पुरुषाधम ! अद्रष्टव्य ! शोचनीय ! कि त्वयेदं व्यवसितम्। अत्रान्तरे च ततो नातिदूरदेशवर्ती समागतो मुनिचन्द्रराजो नर्मदाप्रमुखा देव्यो महासामन्ताश्च । दृष्टश्च तैर्भगवान्, वन्दितः परमभक्त्या। पृष्टो वेलन्धरःआर्य ! किमेतदिति । वेलन्धरेण भणितम् – महाराज ! आत्मनोऽपकारायानेनानार्येण अजातशत्रोरमतभूतस्य भगवत एवं ज्वलनदानप्रयोगेण प्राणान्तिकमध्यवसितम् । राज्ञा भणितम् - अहह अहो मोहसामर्थ्यम्, आर्य ! अनिदारुणमध्यवसितम्। अथ किं पुनरस्याध्यवसायस्य कारणम। चन्द्रसौम्यलेश्यो भगवान वत्सलः सर्वजीवानां निबन्धनं प्रमोदस्यानुत्पादकः पीडाया इति। वेलन्धरेण भणितम्-महाराज ! न खलु अहमत्र कारणवगच्छ मि, एतावत् पुनः तर्कये । अशुभकर्मोदयोऽनेकदुःखहेतुः कुगतिनिवासबान्धवोऽनन्तसंसारकारणमेतस्य । अन्यथा कथमी दशमध्यवस्यति । राज्ञा भणितम् - आर्य ! एवमेतद्, तथापि भगवन्तं पृच्छामः । वेलन्धरेण भणितम्- महाराज ! एवम् । प्रणाम किया, फूलों की वर्षा की, आग बुझायी, वस्त्र हटाये। हाय यह क्या, इस प्रकार गिरिषेण क्षुब्ध हुआ। वेलन्धर ने कहा-'अरे रे दुराचारी ! महापापी ! अनार्य ! अधम पुरुष ! न देखने योग्य ! शोक करने योग्य ! तूने यह क्या किया?' इसी बीच समीपस्थानवर्ती मुनिचन्द्र राजा, नर्मदा प्रमुख महारानियाँ और महासामन्त आये। उन्होंने भगवान के दर्शन किये और अत्यधिक भक्ति से युक्त हो वन्दना की। वेलन्धर से पूछा 'आर्य ! यह क्या ?' वेलन्धर ने कहा-'महाराज ! अपने अपकार के लिए इस अनार्य ने अजातशत्रु, अमृततुल्य भगवान को आग लगाकर उनके प्राणों का अन्त करने का प्रयास किया।' राजा ने कहा-'हा हा, ओह मोह का सामर्थ्य, आर्य ! अत्यन्त भयंकर कार्य किया। इसके इस प्रयास का क्या कारण है ? भगवान चन्द्रमा के समान शुभलेश्या वाले, सभी प्राणियों से प्रेम करनेवाले, आनन्द के कारण और पीड़ा को न उत्पन्न करनेवाले हैं।' वेलन्धर ने कहा -'महाराज ! मैं यहाँ कारण नहीं जानता हूं, किन्तु इतना अनुमान करता हूँ कि अशुभ कर्मों का उदय अनेक दुःखों का कारण, कुगति में निवास करने का बान्धव और इस संसार का करग है, नहीं तो ऐसा प्रयास कैसे करता ?' राजा ने कहा-'आर्य ! यह सच है, फिर भी भगवान से पूछ रहा हूँ।' वेलन्धर ने कहा-'महाराज ! ऐसा ही है। Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो भवो ८८१ एत्थंतरम्मि भयवओ केवलमहिमानिमित्तं महया देववंद्रण एरावणारूढो वज्जतेणं दिव्व. तूरेणं गायतेहिं किन्नरेहि नच्चंतेणं अच्छरालोएणं महापमोयसंगओ आगओ देवराया। सोहियं धरणिपीढं, संपाडिया समया, सित्तं गंधोदएण, कओ कुसुमोवयारो, निविट्ठ कणयपउमं, आणंदिया देवा, हरिसियाओ देवीओ। उवविट्ठो भयवं । वंदिओ देवराइणा । भणियं च--- कयत्थो सि भयवं, ववगओ ते मोहो, नियत्ता संकिलेसा, विणिज्जिओ कम्मसत्त, पाविया केवलसिरी, उवगियं भवियाण, तोडिया भववल्ली, पावियं सिवपयं ति । एवं संथुओ भावसारं। एयमायण्णिय 'अहो भगवओ सिद्ध महिलसियं' ति आणंदिओ मुणिचंदो देवीओ सामंता य। वंदिओ यहिं पुणो पुणो भत्तिबहुमाणसारं । एत्थंतरम्मि पगाइया किन्नरा, पणच्चियाओ अच्छराओ, पवत्ता केवलमहिमा, जाओ महापमोओ, समागया जणवया। एत्थंतरम्मि 'अहो महाणुभावया एयस्स, असोहणं च मए कयं' ति चितिऊण अविखविय कुसलपक्खबीयं अवगओ गिरिसेणपाणो। एस समओ त्ति पत्थुया धम्मदेसणा । भणियं च भयवया -- अत्रान्तरे भगवतः केवल महिमानिमित्तं महता देववन्द्रेण ऐरावणारूढो वाद्यमानेन दिव्यतूर्येण गायद्भिः किन्नरैर्न त्यताऽप्स रोलोकेन महाप्रमोदसङ्गतो देवराजः । शोधितं धरणीपीठम्, सम्पादिता समता, सिक्तं गन्धोदकेन, कृतः कुसुमोपचारः. निविष्टं कनकपद्मम्, आनन्दिता देवाः, हर्षिता देव्यः । उपविष्टो भगवान । वन्दितो देवराजेन, भणितं च कृतार्थोऽसि भगवन !. व्यपगतस्ते मोहः, निवृत्ताः संक्लेशाः, विनिर्जितः कर्मशत्रुः, प्राप्ता केवल श्रीः, उपकृतं भविकानाम्, त्रोटिता भववल्ली, प्राप्तं शिवपदमिति । एवं संस्तुतो भावसारम् । एतदाकर्ण्य 'अहो भगवतः सिद्ध म भिलषितम्' इत्यानन्दितो मुनिचन्द्रो देव्यः सामन्ताश्च । वन्दितश्च तैः पुनः पुनर्भक्तिबहुमानसारम् । अनान्तरे प्रगीताः किन्नराः, प्रनतिताः अप्सरसः, प्रवृत्ता केवल महिमा, जातो महाप्रमोदः, समागता जनवजाः। अत्रान्तरे 'अहो महानुभावता एतस्य, अशोभन च मया कृतम्' इति चिन्तयित्वा आक्षिप्य कुशल पक्षबीजमपगतो गिरिषणप्राणः । एष समय इति प्रस्तता धर्मदेशना। भणितं च भगवता-भो इसी बीच भगवान् के केवलज्ञान महोत्सव के लिए बड़े देवसमूह के साथ, ऐरावत हाथी पर सवार हो अत्यधिक आनन्द से युक्त होकर इन्द्र आया। उस समय दिव्य बाजे बज रहे थे, किन्नर गा रहे थे (तथा) अप्सराएँ नृत्य कर रही थीं। पृथ्वी का पृष्ठ भाग शोधा, भूमि एक-सी कर दी, गन्धोदक से सींचा, फूलों को सजाया, स्वर्णकमल स्थापित किये, देव आनन्दित हुए, देवियाँ हर्षित हुई। भगवान विराजमान हुए। इन्द्र ने वन्दना की और कहा-'भगवन् ! आप कृतार्थ हैं, आपका मोह नष्ट हो गया, दुःख दूर हो गये, कर्मरूपी शत्रु को जीत लिया, केवलज्ञानरूपी लक्ष्मी प्राप्त कर ली, भव्यों का उपकार किया, संसाररूपी लता तोड दी, मोक्ष पद प्राप्त किया। इस प्रकार भावनाओं के साररूप स्तवन किया । यह सुनकर 'ओह भगवान् की अभिलाषा सिद्ध हो गई'-इस प्रकार मुनिचन्द्र, महारानियाँ और सामन्त आनन्दित हए। उन्होंने बार-बार भक्ति और आदर के साथ वन्दना की । इसी बीच किन्नरों ने गान किया, अप्सराओं ने नृत्य किया, केवलज्ञान महोत्सव हुआ बहुत आनन्द हुआ, जनसमूह उमड़ पड़ा। तभी 'ओह, इसकी महानुाभावता, मैंने बुरा किया'- ऐसा सोचकर कुशल (शुभ) पक्ष का बीज फेंककर गिरिषेण चाण्डाल निकल गया। यह समय है इस प्रकार धर्मोपदेश प्रस्तुत किया और भगवान ने कहा – 'हे Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1८२ [समराइच्चकहा भो भो देवाणप्पिया, अणाइम एस जीवो कंचणोक्लो व्व संगओ कम्ममलेण, तद्दोसओ पावेइ चित्तवियारे, उप्पज्जइ बहुजोणीसु, कयत्थिज्जइ जरामरणेहि, वेएइ असुहवेदणं, दूमिज्जए संजोयविओएहिं, वाहिज्जए मोहेण, सन्निवाइओ विय न याणइ हियाहियं, बहु मन्नए अपच्छं, परिहरइ हियाई, पावइ महावयाओ। ता एवं ववत्थिए परिच्चयह मूढयं, निरूवेह तत्तं, पूएह गुरुदेवए, देह विहिदाणं, उज्झेह किच्छाई, अगीकरेह मेत्ति, पवज्जह सोलं, अब्भसह तवजोए, भावेह भावणाओ, छड्डेह अग्गह, झाएह सुहज्झाणाई, अवणेह कम्ममलं ति । एवं, भो देवाणुप्पिया, अवणीए कम्ममलम्मि कल्लाणीहूए जीवे विसुद्धे एगंतेण न होंति केइ दुक्कयजणिया वियारा, होइ अच्चंतियं परमसोक्खं ति । ता जहासत्तीए करेह उज्जम उवइट्टगुणेसु । एयमायण्णिय संविगा परिसा। भणयं च णाएभयवं, एवमेयं ति । पडिवन्ना गणंतरं । पूजिऊण भयवंतं गओ देवराया। जपियं मणिचंदेण- भयवं, कि पूण तस्स पूरिसाहमस्स भयवओ वि उवसग्गकरणे निमित्तं । भयवया भणियं-सोम, सुण । गुरुओ अकुसलाणुबंधो, सो य एवं संजाओ त्ति । साहियं गणसेणग्गिभो देवानुप्रियाः! अनादिमानेष जीवः काञ्चनोपल इव संगत: कममलेन, तद्दोषतः प्राप्नोति चित्रविकारान, उत्पद्यते बहुयोनिष, कदर्थ्यते जरामरणाभ्याम् वेदयत्यशुभवेदनम् दूयते संयोगवियोगाभ्याम्, बाध्यते मोहेन, सान्निपातिक इव न जानाति हिताहितम्, बहु मन्यतेऽपथ्यम्, परिहरति हितानि, प्राप्नोति महापदः। तन एवं व्यवस्थिते परित्यजत मूढताम्, निरूपयत तत्त्वम्, पूजयत गुरुदेवते, दत्त विधिदानम्, उज्झत कृच्छाणि, अङ्गीकुरुत मैत्रीम्, प्रपद्यध्वं शीलम्, अभ्यस्यत तपोयोगान्, भावयत भावनाः, मुञ्चताग्रहम्, ध्यायत शुभध्यानानि, अपनयत कर्ममल मिति । एवं भो देवानुप्रिया ! अपनीते कर्ममले कल्याणीभूते जीवे विशुद्ध एकान्तेन न भवन्ति केऽपि दुष्कृतजनिता विकारा:, भवति आत्यन्तिकं परमसौख्यामिति । ततो यथा शक्ति कुरुतोद्यममुपदिष्टगुणेषु । एवमाकर्ण्य संविग्ना परिषद् । भणितं च तया भगवन् ! एवमेतदिति। प्रतिपन्ना गुणान्तरम् । पूजयित्वा भगवन्तं गतो देवराजः।। जल्पितं मुनिचन्द्रेण-भगवन् ! किं पुनस्तस्य पुरुषाधमस्य भगवतोऽप्युपसर्गकरणे निमित्तम। भगवता भणितम् -- सौम्य शृणु । गुरुकोऽकुशलानुबन्धः स च एवं संजात इति । कथितं गुणसेनाग्निहे देवानुप्रिय ! यह जीव अनादि है, स्वर्णयुक्त पत्थर के समान कर्ममल से युक्त है, कर्ममल के दोष से अनेक प्रकार के विकारों को प्राप्त करता है, अनेक योनियों में उत्पन्न होता है, जरा और मरण से तिरस्कृत होता है, अशुभ वेदना का अनुभव करता है, संयोग और वियोग से दुःखी होता है, मोह से बाध्य होता है, सन्निपात के गेगी के समान हित और अहित को नहीं जानता है, अपथ्य का आदर करता है, हितों का निवारण करता है, महान् आपति को प्राप्त करता है - ऐसा निर्धारित होने पर मढ़ता को छोड़ो, तत्त्व को देखो, गुरु और देवताओं की पूजा करो, विधिपूर्वक दान दो, कठिन कार्य छोड़ो, मैत्री अंगीकार करो, शील को प्राप्त करो. तप और योगों का अभ्यास करो, भावनाओं का चिन्तन करो, आग्रहों को छोड़ो, शुभ ध्यानों को ध्याओ, कर्ममलों को हटाओ। इस प्रकार हे देवानुप्रिय ! कर्ममल के दूर हो जाने पर कल्याणीभूत विशुद्ध जीव में एकान्त से कोई बुरे कर्मजन्य विकार नहीं होते हैं, अविनाशी परमसुख होता है। अत: उपदिष्ट गुणों में यथाशक्ति उद्यम करो।' यह सुनकर सभा विरक्त हो गयी और उसने कहा---'भगवन् ! यह उचित है।' दूसरे गुणों को प्राप्त हुए भगवान् बी पूजा कर इन्द्र चला गया। मुनिचन्द्र ने कहा-'भगवन् ! अधम पुरुष का भगवान् के ऊपर उपसर्ग करने का क्या कारण था ?' भगवान ने कहा-'सौम्य ! सुनो-बहुत बड़ा अशुभ सम्बन्ध था, वह इस प्रकार (प्रकट) हुआ। इस तरह Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो भवो ] ८८३ सम्माइकहानयं । एवं च सोऊण संविग्गो राया देवीओ वेलंधरो सामंता य। चितियं च णेहिं - अहो न किचिएयं सव्वहा दारुणं अन्नाणं ति । वेलंधरेण भणियं - भयवं, कोइसो इमस्स परिणामो भविस्सs | भयवया भणियं - अनंतरं निरयगमणं तिव्बाओ वेदणाओ, परंपरेण उ अणतो संसारो ति । नम्मयाए भणियं - भयवं; केरिसा उण नरया हवंति, केरिसा नारया कीइसीओ वा तत्थ वेयणाओ हवंति । भयवया भणिय- धम्मसीले, सुण । तेणं नरया अंतो वट्टा बाहिं चउरंसा अहे खरुपसंठाणसंठिया निच्चधयारतमसा ववगयगहचं दसूरनक्खत्तजो इस पहा मेयवसारुहिरपूयपडलचिक्खल्ललित्ताणुले वणतला असुई विस्सा परमदुरभिगंधा काउअगणिवण्णाभा कक्खडकासा दुरहियासा असुभा नरया । अवि य थिमिथितखारोदया चलचलें तहिमसक्करा घरघरतवसकद्दमा फिणिफिणेंत पूयाउला घोग्घएंतरुहिरोज्झरा सिमिसिमित कमिवित्थरा जलजलेंतउवकाउला कणकणेंतअसिपायवा पुफुएंतभीमोरगा सुंसुएंतखरमारुया धगधगेत दित्ताणला करकरेंत जंताउला । अवि यशर्मादिकथानकम् । एतच्च श्रुत्वा संविग्नो राजा देव्यो वेलन्धरः सामान्ताश्च । चिन्तितं च तैः -- अहो न किञ्चिदेतत् सर्वथा दारुणमज्ञानमिति । वेलन्धरेण भणितम् - भगवन् ! कीदृशोऽस्य परिणामो भविष्यति । भगवता भणितम् - अनन्तरं निरयगमनं तीव्र वेदनाः, परम्परेण त्वनन्तः संसार इति । नर्मदा भणितम् - भगवन् ! कीदृशाः पुनर्नरका भवन्ति, कीदृशा नारकाः कीदृश्यो वा तत्र वेदना भवन्ति । भगवता भणितम् - धर्मशीले ! शृणु । ते नरका अन्तो वृत्ता बहिश्चतुरस्रा अधःक्षुरप्रसंस्थानसंस्थिता नित्यान्धकारतमसो व्यपगतग्रहचन्द्रसूर्यनक्षत्रज्योतिः प्रभा मेदवसारुधिरपूयपटल कर्दमानुलेपनलिप्ततला अशुचयो विस्राः परमदुरभिगन्धाः कापोताग्निवर्णाभाः वर्कश स्पर्शा दुरध्यासा ( दुःसहाः) अशुभा नरकाः । अपि च - थिमिथिमत्क्षारोदकाः चलचलद्द्द्दिमशर्कराः घरघरवसा कर्दमाः फिणिफणत्पूयाकुला घोग्घद्रुधिरनिर्झराः सिमिसिमत्कृमिविस्तरा जलजलदुल्काकुलाः कणकणदसिपादपाः पुप्फुयद्भीमोरगाः सुसुयत्खरमारुता धगधगद्दीप्तानलाः, करकरद्यन्त्राकुलाः। अपि च गुणसेन से अग्निशर्मा सम्बन्धी कथानक कह दिया। यह सुनकर राजा, महारानियाँ, वेलन्धर और सामन्त विरक्त हो गये । उन्होंने विचार किया - अहो ! यह और कुछ नहीं, सर्वथा दारुण अज्ञान है । वेलन्धर ने कहा- भगवन् ! इसका परिणाम कैसा होगा ?' भगवान् ने कहा- 'अनन्तर ( गिरिषेण का ) नरक में गमन होगा, तीव्र वेदना होगी, परम्परा से अनन्त संसार होगा । नर्मदा ने कहा- 'भगवन् ! नरक कैसे होते हैं ? नारकी कैसे होते हैं ? वहाँ पर वेदना कैसी होती है ?" भगवान् ने कहा - 'धर्मशीले ! सुनो-वे नरक अन्त में गोल, बाहर चौकोर, नीचे छुरे के आकार के रूप में स्थित हैं । नित्य गहन अन्धकार वहाँ रहता है; ग्रह, चन्द्रमा, सूर्य और नक्षत्रों की ज्योति से वे रहित होते हैं, मज्जा, चर्वी, खून तथा पीप के समूह की कीचड़ से उनके तल लिप्त रहते हैं तथा वे अपवित्र मुर्दा जलने की अथवा कच्चे मांस की गन्ध से युक्त, अत्यधिक दुर्गन्धवाले, धूसर अग्नि के वर्ग के समान आभावाले, कठोर स्पर्शं वाले, दुःसह और अशुभ होते हैं। घिम घिम करते हुए लवण जलों, चल चल करते हुए हिमकणों, घर-घर करती हुई चर्बी की कीचड़, फिन्- फिण् करती हुई पीप, घद्-घद् करते हुए खून के झरनों, सिम-सिम करते हुए कीड़ों के समूह, जल-जल करती हुए उल्काओं, कण-कण करते हुए असिवृक्षों, फुफकारते हुए भयंकर सर्पों, धग्धग् करके जलती हुई अग्नियों और कर्र-करं करते हुए यन्त्रों से (वे नरक) व्याप्त हैं । कहा भी है Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८४ [समराइच्चकहा आयससुतिक्खगोक्खुरुयकंटयाइण्णविसमपहमग्गा। असिसत्तिचक्ककप्पणिकुंततिसूलाइदुप्पेच्छा ।।१०३१॥ दुव्वण्णा दुग्गंधा दुरसा दुप्फासदुद्रुसद्दजया। घोरा नरयावासा जत्थुप्पज्जति नेरइया ॥१०३२॥ नेरइया उण काला कालोहासा गंभीरलोमहरिसा भीमा उत्तासणया परमकिण्हा वण्णण । ते णं तत्थ निच्च भीया निच्चं तत्था निच्चं तसिया निच्चं उविग्गा निच्चं परमासुहसंबद्धा निरयभवं पच्चणुहवमाणा चिट्ठति । वेयणाओ उ इह विचित्तकम्मजणियाओ विचित्ता हवंति दारुणा उत्तिमंगच्छेया करवत्तदारणं सलवेहणाणि विसमजोहारोगा असंधिच्छेयणाणि तत्ततंबाइपाणं भक्खणं बज्जतुंडेहि अंगबलिकरणाणि दरियसावयभयं अत्थिउद्धरणाणि घोरनिक्खुडपवेसा पलितलोहित्थियालिंगणाणि सव्वओ सत्थजोगो जलंतसिलापडणाणि मोहपरायत्तय त्ति एवमाइयाओ महंतीओ वेयणाओ। निरुवमा य साहाविगी उण्हसीयवेयण त्ति। आयससुतीक्ष्णगोक्षुरककण्टकाकीर्णविषमपथमार्गाः । असिशक्तिचक्रकल्पनीकुन्तत्रिशूलादिदुष्पेक्षाः ॥१०३१॥ दुर्वर्णा दुर्गन्धा दूरसा दुःस्पर्शदुष्टशब्दयुताः। घोरा नरकावासा यत्रोत्पद्यन्ते नैरयिकाः ॥१०३२॥ नैरयिकाः पुनः कालाः कालावभासा गम्भीरलोमहर्षा भीमा उत्रासनकाः परमकृष्णा वर्णेन । ते तत्र नित्यं भोता नित्यं त्रस्ता नित्यं त्रासिता नित्यमुद्विग्ना नित्यं परमाशुभसम्बद्धा निरभयं प्रत्यनुभवन्तस्तिष्ठन्ति । वेदनास्तु इह विचित्रकर्मजनिता विचित्रा भवन्ति दारुणा उत्तमाङ्गच्छेदाः करपत्रदारणं शलवेधनानि विषम जिह्वारोगा असन्धिच्छेदनानि तातताम्रादिपानं भक्षणं वज्रतुण्डरङ्गबलिकरणानि दृप्तश्वापदभयमस्थ्युद्ध रणानि घोरनिष्कुट प्रवेशाः प्रदी तलोहस्त्र्यालिङ्गनानि सर्वतः शस्त्रयोगो ज्वलच्छिलापतनानि मोहपरायत्ततेति एवमादिका महत्यो वेदनाः । निरुपमा च स्वाभाविकी उष्णसितवेदनेति । गाय के खुर के समान पैने लोहे के नुकीले काँटों से व्याप्त विषम पथोंवाले वहाँ के मार्ग हैं । तलवार, शक्ति, चक्र, कैंची, भाले और त्रिशूल आदि से कठिनाईपूर्वक देखे जाने योग्य हैं। नरक का आवास बुरे वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और दुष्ट शब्दों से युक्त तथा भयंकर है, जहाँ नारकी उत्पन्न होते हैं ॥१०३१-२०३२।। नारकी गहरे नीले रंग के, लोहे के समान चमकवाले, गहरे रोमकूपों वाले, भयंकर, डरावने और अत्यधिक काले वर्ण के होते हैं। वे वहाँ पर नित्य भयभीत, नित्य त्रस्त, नित्य त्रासित, नित्य उद्विग्न, नित्य अत्यधिक अशुभ से युक्त नरक के भय का अनुभव करते हए विद्यमान रहते हैं। यहाँ पर नाना प्रकार के कर्मों से उत्पन्न अनेक प्रकार की भयंकर वेदनाएं होती हैं -सिर काटना, करौंत से चीरना शुल से वेधना. विषम जीभ के रोग, जोड़ों से रहित स्थानों को काटना, तपाए हुए तांबे आदि का पार करना, भक्षण करना, वज्र की नोकों से (काटकर) अंगों की बलि देना, गर्वीले हिंसक जन्तुओं का भय, हड्डियों का उखाड़ा जाना, भयंकर बगीचे में प्रवेश. तपाए हए लोहे के अस्त्रों से आलिंगन, सभी ओर से शस्त्रों का योग, जलती हई शिलाओं का गिरना मोह का पराधीनपना आदि ऐसी तीव्र वेदनाएँ होती हैं। गर्मी और सर्दी की वेदनाएँ अनुपम और स्वाभाविक रूप से होती हैं। Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो भवो ] ८९५ सुलसमंजरीए भणियं-भयवं, केरिसाणि सुरविमाणाणि, केरिसा देवा, कोइसी वा तत्थ सायावेयणाओ। भयवया भणियं-धम्मसीले, सुण । ते णं विमाणा विचित्तसंठाणा सव्वरयणामया अच्छा सण्हा लण्हा वट्ठा मट्ठा नीरया निम्मला निप्पंका निक्कंकडच्छाया सप्पहा समिरीया सउज्जोवा पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा खेमा सिवा किंकरअमरदंडोवरक्खिया लाउल्लोवि(इ)यमहिया गोसीससरस (रत्त)चंदणदद्दरदिन्नपंचंगुलितला उवचियचंदणकल सा चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागा आसत्तोसत्तविउलवट्टवग्धारियमल्लदामकलावा पंचवण्णसरससुरभिमक्कपुष्फपुंजोवयारकलिया कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कधूवमघमतगंधुद्धयाभिरामा सुगंधवरगंधगंधिया गंधर्वाट्टमया अच्छरगणसंघसं(वि)किण्णा दिव्वतुडियसहसंपन्न (ण इय)ति । देवा उण मणहरविचित्तचिधा सुरूवा महिड्ढिया महज्जुइया महायसा महब्बला महाणुभावा महासोक्खा हारविराइयवच्छा कडयतुडियर्थभियभुया अंगयकुंडलमट्टगंडयलकण्णपोढधारी विइत्तहत्थाहरणा विचित्तमालामउली सुलसमजर्या भणितम्-भगवन् ! कीदृशानि सुरविमानानि, कोदशा देवाः, कीदृशी वा तत्र सातवेदना । भगवता भणितम् --धर्मशीले ! शृणु । तानि विमानानि विचित्रसंस्थानानि सर्वरत्नमयानि अच्छानि चक्ष्णाणि (मसृणानि) घृष्टानि मृष्टानि नीरजांसि निमलानि निष्पानि निष्कङ्कटच्छायानि सप्रभाणि, समरीचीनि सोद्योतानि प्रासादीयानि दर्शनीयानि, अभिरूपाणि प्रतिरूपाणि क्षेमाणि शिवानि किंकरामरदण्डोपरक्षितानि लेपितधवलितमहितानि गोशीर्षस रस रक्तचन्दनदर्द रदत्तपञ्चाङ गुलितलानि उपचितचन्दन कलशानि चन्दन घटसुकृततोरणप्रतिद्वारदेशभागानि आसक्तोत्सक्तविपुलवृत्तप्रलम्बितमाल्यदामव लापानि पञ्चवर्णसरससुरभिमवतपुष्पपुजोपचारकलितानि कालागुरुप्रवरकुन्दरुष्कतुरुष्कधूपमघायमानगन्धोद्धृताभिरामाणि सुगन्धवरगन्धगन्धितानि गन्धवतिभूतानि अप्सरोगणसंघ (वि)कीर्णानि दिव्यत्रुटितशब्दसम्पन्ना(प्रणदिता)नोति । देवाः पुनर्मनोहरविचित्रविह्नाः सुरूपा महद्धि का महाद्युतिका महाय गसो महाबला सुलसमंजरी ने कहा---'भगवन् ! देवविमान (स्वर्ग) कैसे होते हैं, देव कैसे होते हैं अथवा वहाँ पर सातवेदना (सुखरूप अनुभूति) कैसी होती है ?' भगवान् ने कहा--'धर्मशीले ! सुनो। वे विमान विचित्र आकार वाले, समस्त रत्नों से युक्त, स्वच्छ, चिकने, माँजे हुए, साफ किये हुए, धूलिरहित, निर्मल, कीचड़रहित, कांटों से रहित और छाया से युक्त स्थानवाले, प्रभायुक्त किरणों से युक्त, प्रकाशयुक्त, प्रसन्न, दर्शनीय, योग, सुन्दर, कल्याणमय, शिव, किंकर देवताओं के दण्ड से रक्षित (तथा) सफेद लेपन से महत्त्वपूर्ण होते हैं। गोरोचन और सरस लाल चंदन के धने हथेलियों के निशान बने होते हैं, चन्दन के कलश इकट्ठे रहते हैं, मेहराबदार द्वारों तथा (अन्य) प्रत्येक द्वार पर भलीभांति चन्दन के घड़े बने होते हैं, अत्यधिक गोल लम्बी मालाओं के समूह गुंथे रहते हैं, पाँच रंगों के सरस सुगंधित छोड़े हुए फूलों के समूह की सेवा से युक्त होते हैं, काला अगर, श्रेष्ठ कुन्द, रुष्क और तुरुष्क की धूप से भरी हुई गन्ध के बढ़ने से सुन्दर लगते हैं, अच्छी और उत्तम गन्ध से सुवासित अगरबत्तियों से युक्त होते हैं, अप्सराओं के समूह से व्याप्त रहते हैं, दिव्य वाद्यों के शब्दों से युक्त होते हैं । देव मनोहर, विचित्र चिह्नोंवाले, सुन्दर रूपवाले, महान् ऋद्धियोंवाले, महाद्युतिवाले, महान् यश, महान् बल, महान् Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८६ [समराइच्चकहा कल्लाणगपवरवत्थपरिहिया कल्लागगपवरमल्लाणुलेवणवरा भासुरबोंदो पलंबवणमालाधरा दिव्येणं वणेणं दिवेणं गंधेगं दिवेणं फासेगं दिब्वेणं संघपणेणं दिव्वेणं संठाणेणं दिव्वाए इउढीए दिव्वाए जुईए दिवाए पहाए दिव्वाए छायाए दिव्वाए अच्चोए दिव्वेणं तेएणं दिव्वाए लेसाए दस दिसाओ उज्जोवेमाणा पहासेमाणा महयाऽहयनट्टगीयवाइयतंतोतलतालतुडियघणमुइंगपडपडह(प)वाइयरवेण दिव्वाई भोगभोगाई भुजमाणा विहरति । अवि य, सुरही पवणो विमलं नहंगणं निच्चकालमज्जोओ। अविरहियपंकयाई जलाइ सइ पुफिया वप्पा(च्छा) ॥१०३३॥ अब्दायावन्वीवंसकसतालयविचिकंचीणं(?) । वरमुरवाणं च रवो नेव य गेव य गेयस्स वोच्छित्तो ॥१०३४॥ महानुभावा महासौख्या हारविराजितवक्षसः कटकनुटितस्तम्भितभजा अङ्गदकुण्डलमष्टगण्डतलकर्णपीठधारिणो विचित्रहस्ताभरणा विचित्रमालामौलयः कल्याणकप्रवरवस्त्रपरिहिताः कल्याणकप्रवरमाल्यानुलेपनधरा भासुरशरीराः प्रलम्बवनमालाधरा दिव्येन वर्णन दिव्येन गन्धेन दिव्येन स्पर्शण दिव्येन संहननेन दिव्येन संस्थानेन दिव्यया ऋद्धया दिव्यया द्युत्या दिव्यया प्रभया दिव्यया कायया दिव्यया अचिषा दिव्येन तेजसा दिव्यया लेश्यया दश दिश उद्घोतयन्तः प्रभासयन्तो महताहतनाटयगीतवादिवतन्त्रीतलतालत्रुटितघनमृदङ्गपटुपटह(प्र)वादितरवेण दिव्यान् भोग्यभोगान् भुजाना विरहन्ति । अपि च सुरभिः पवनो विमलं नभोङ्गणं नित्यकालमुद्द्योतः । अविरहितपङ्कजानि जलानि सदा पुष्पिता वृक्षाः ॥१०३३।। अव्याहतविविधवंशकांस्यतालकविपञ्चिकाञ्चीनाम् (?) । वरमुरजानां च रवो नैव च गेयस्य व्युच्छित्तिः ।।१०३४॥ प्रभाव और महान् सुखवाले होते हैं तथा हार से उनका वक्षःस्थल शोभित होता है । मुड़े हुए कड़ों से भजाएँ दढ रहती हैं । बाजूबन्द, कुण्डल, चिकने गाल, कान और ठोड़ी को धारण करनेवाले, हाथ के विचित्र आभूषणों से युक्त, विचित्र मालाओं और मुकुटोंवाले, सुन्दर और उत्तम वस्त्रों को धारण किये हुए, सुन्दर उत्तम माला और लेपन धारण किये हुए, देदीप्यमान शरीरवाले, बड़ी फूलमाला धारण किये हुए, दिव्य वर्ण, दिव्य गन्ध, दिव्य स्पर्श, दिव्य शारारिक दृढ़ता (संहनन), दिव्य आकार (संस्थान), दिव्य ऋद्धि, दिव्य द्युति, दिव्य प्रभा, दिव्य कान्ति, दिव्य किरण, दिव्य तेज, दिव्य लेश्या से दशों दिशाओं को उद्योतित करते हुए, प्रभायमान करते हुए बड़े जोर से उच्चारित नाट्य, गीत, वादित्र, तन्त्री, ताली, मंजीरे (अथवा संगीत में नियत मात्राओं पर तालो बजाना), घंटा, मृदंग, तथा निपुणता से बजाए हुए ढोलों की ध्वनि से युक्त हो दिव्य भोगों को भोगते हए विहार करते हैं। कहा भी है (वे देव) सुगन्धित वायु, स्वच्छ आकाशरूपी आँगन, नित्य समय रहनेवाला उद्योत, कमलों से रहित न होनेवाले जल, सदा खिले हुए फूलों से सदैव युक्त रहते हैं, विशेष रूप से न बजाए गये अनेक प्रकार की बाँसुरी, मँजीरे, वीणा (तथा) श्रेष्ठ की ध्वनि से गीत निरन्तर चलते रहते हैं। इन्द्रियों के इष्ट विषय शब्द, Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो भवो] ८८७ इटा इंदियविसया सद्दफरिसरसरूवगंधड्ढा। .. संधियधणू अणंगो सुसंगयाओ य देवीओ ॥१०३५॥ निच्चं च ताहि सहिया सिंगारागारचारुरूवाहिं । नट्टगुणगीयवाइयनिउणाहि मणाहिरामाहिं ॥१०३६॥ कोलंता सविलासं रइरसचउराहि जणियपरिओसं। रइसागरावगाढा गयं पि कालं न याति ॥१०३७॥ सुलोयणाए भणियं-भयवं, देवा देवसुहं च एवं भयवया सुंदरमावेइयं; ता कि इओ वि संदरयरा सिद्धा सिद्धसुहं च । भयवया भणियं-धम्मसीले, अइमहंतं खु एत्थ अंतरं। कि देवाण सुदरतं, जाणं जोओ अवसरीरेण, दारुणं कम्मबंधपारतंतं, उक्कडा कसाया, पहवइ महामोहो, अवसाणिदियाणि, गरुई विसयतण्हा, विचित्ता उक्करिसावगरिसा, उद्दामं माणसं, अनिवारिओ मच्चू, विरसमवसाणं ति । कोइसं वा एवंविहाणं सुहं । गंधव्वाइजोगो वि परमत्थओ दुक्खमेव । जओ इष्टा इन्द्रियविषयाः शब्दस्पर्शरसरूपगन्धाढ्याः । संहितधनू रनङ्गः सुसङ्गताश्च देव्यः ॥१०३५॥ नित्यं च ताभिः सहिताः शृङ्गाराकारचारुरूपाभिः । नाट्यगुणगीतवादिवनिपुणाभिर्मनोऽभिरामाभिः ॥१०३६॥ कीडन्तः सविलासं रतिरसचतुराभिनितपरितोषम् । रतिसागरावगाढा गतमपि कालं न जानन्ति ॥१०३७॥ सुलोचनया भणितम्-भगवन् ! देवा देवसुखं चैतद् भगवता सुन्दरमावेदितम, ततः किमितो. ऽपि सुन्दरतराः 'सद्धाः सिद्धसुखं च । भगवता भणितम्-धर्मशीले ! अतिमहत् खल्वत्रान्तरम् । किं देवानां सुन्दरत्वम् , येषां योगोऽध्रुवशरीरेण, दोरुणं कर्मबन्धपारतन्त्र्यम्, उत्कटा: कषायाः, प्रभवति महामोहः, अवशानीन्द्रिायणि, गुर्वी विषयतृणा, विचित्रा उत्कर्षापकर्षाः; उद्दाम मानसम्, अनिवारितो मृत्युः, विरसमवसानमिति । कीदृशं वैवंविधानां सुखम् । गान्धर्वादियोगोऽपि परमार्थतो दुःखमेव । यतः स्पर्श, रस, रूप और गन्ध से व्याप्त रहते हैं, कामदेव के धनुष तथा देवियों से युक्त रहते हैं। शृंगार और आकार से सुन्दर रूपवाली, नाट्य, गीत और वादित्र में निपुण तथा मन को सुन्दर लगनेवाली, रति के रस में चतुर होने के कारण सन्तोष उत्पन्न करनेवाली उन देवियों के साथ रतिसागर में डूबकर नित्य विलासपूर्वक क्रीड़ा करते हुए बीते हुए भी समय को नहीं जानते हैं।' १०३३-१०३७।। सुलोचना ने कहा - 'भगवन् ! देव और देवों का सुख भगवान ने अच्छी तरह बतला दिया तो क्या सिद्ध और सिद्धों का सुख इससे भी अधिक सुन्दर है ?' भगवान् ने कहा-'धर्मशीले ! इसमें बहुत बड़ा अन्तर है। देवों की सुन्दरता क्या है, जिनका अनित्य शरीर के साथ संयोग है, दारुण कर्मों के बन्धन की परतन्त्रता है, उत्कट कषायें हैं, बलवान् महामोह है, अवश इन्द्रियाँ हैं, विषयों के प्रति भारी तृष्णा है, नाना प्रकार के उत्कर्ष अपकर्ष हैं, उत्कट मन है, जिसका निवारण नहीं किया जा सकता ऐसा मरण है तथा जिनका अवसान नीरस होता है इस प्रकार के अंगों को सुख कैसा ? गीत आदि का योग भी यथार्थरूप से दुःख ही है; क्योंकि Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८८ [समराइच्चकहा "सव्वं गीयं विलवियं, सव्वं न विडंबियं । सव्वे आहरणा भारा, सव्वे कामा दुहावहा ॥" संदरा, धम्मसीले, परमत्थओ सिद्धा, सहं पि तेसिमेव; जेण ते ठिया णियसरूवे मक्का कम्मबंधणेण परिणिट्टियपओयणा वज्जिया मणोरहेहि खीणभवसत्ती जाणति सव्वभावे पेच्छंति परमत्थेण अपरोवयाविणो नेव्वाणकारणं बुहाणं विरहिया जम्ममरणेहि ति। किं वा न ईइसाणं सुहं, जओ नियत्ता सव्वावाहाओ परमाणंदजोएण । अवि य सिद्धस्स सहोरासी सव्वद्धापिडिओ जइ हवेज्जा। सोऽणंतवग्गभइओ सव्वागासे न माएज्जा ॥१०३८।। न वि अत्थि माणसाणं तं सोक्खं न वि य सव्वदेवाणं । जं सिद्धाणं सोक्खं अव्वावाहं उवगयाणं ॥१०३६॥ अन्न पि। अस्थि नायं, तं सणउ धम्मसोला। सुलोयणाए भणियंता अणुग्गहेउ भयवं अम्हे । भयवया भणियं-अत्थि खिइप्पइट्टियं नाम नयर, जं उत्तंगेहिं भवणदेउलेहि पायाल “सर्वं गीतं विलपितं सर्वं नाट्यं विडम्बितम् । सर्वे आभरणा भाराः सर्वे कामा दुःखावहाः ॥" सुन्दरा धर्मशीले ! परमार्थतः सिद्धाः, सुखमपि तेषामेव; येन ते स्थिता निजस्वरूपे मुक्ताः कर्मबन्धनेन परिनिष्ठितप्रयोजना वनिता मनोरथैः क्षीणभवशक्तयो जानन्ति सर्वभावान् पश्यन्ति परमार्थेन अरोपतापिनो निर्वाणकारणं बुधानां विरहिता जन्ममरणाभ्यामिति । किं वा नेदशानां सुखम्, यतो निवृत्ताः सर्वाबाधातः परमानन्दयोगेन । अपि च - सिद्धस्य सुखराशिः सर्वाद्धापिण्डितो यदि भवेत् । सोऽनन्तवर्गभक्ताः सर्वाकाश न मायात् । १०३८।। नाप्यस्ति मानुषाणां तत् सौख्यं नापि च सर्वदेवानाम् । यत् सिद्धानां सौख्यमव्याबाधामुपगतानाम् ।।१०३६।। अन्यदपि । अस्ति ज्ञातम्, तच्छृणोतु धर्मशीला । सुलोचनया भणितम्-ततोऽनुगृह्णातु भगवान् अस्मान् । भगवता भणितम् -अस्ति क्षितिप्रतिष्ठितं नाम नगरम्, यद् उत्तुङ्गर्भवनदेव "समस्त गीत विलाप है, समस्त नाट्य विडम्बना है, समस्त आभूषण भार हैं, समस्त काम दुःख लानेवाले हैं।'' धर्मशीले ! परमार्थरूप से सिद्ध और उनका सुख सुन्दर है जिससे वे अपने स्वरूप में स्थित हैं, कर्मों के बन्धन से मुक्त हैं, पूर्ण हए प्रयोजनोंवाले हैं, मनोरथों से रहित हैं, संसार की शक्ति को क्षीण कर चुके हैं, समस्त पदार्थों को यथार्थरूप से जानते देखते हैं, दूसरों को क्लेश नहीं पहुँचाते हैं, विद्वानों के निर्वाण के कारण हैं (तथा) जन्म और मरण से रहित हैं। अथवा ऐसे सिद्धों को क्या सुख नहीं है; वे तो समस्त पीड़ाओं अथवा मानसिक क्लेशों से रहित हैं और परम आनन्द से युक्त हैं। कहा भी है सिद्धों का सख यदि समस्त रूप में प्रत्यक्ष रूप से एकत्रित हो जाय तो वह समस्त आकाश के अनन्त वर्गों में भी नहीं समा सकता । अव्याबाधपने को प्राप्त हुए सिद्धों का जो सुख है वह सुख न तो मनुष्यों का है और न समस्त देवों का ॥१०३८-१०३६॥ दूसरी बात भी जानने योग्य है उसे धर्मशीले सुनें।' सुलोचना ने कहा- भगवान् हम लोगों पर अभुग्रह करें।' भगवान् ने कहा - 'क्षितिप्रतिष्ठित नाम का नगर था जो ऊंचे-ऊंचे भवनों, मन्दिरों, पाताल को प्राप्त हुई Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो भवो ] ८८४ मुवगएणं फरिहाबंधेणं गयणयलविलग्गेणं पायारेगं विसेसिया धणयपुरि इड्ढोए भवणेहि य सुरिंदभवणाई। तम्मि य जियसत्तू नाम नरवई होत्था। अंतेउरप्पहाणा देवी नामेण जयसिरी अस्थि । सो तीए समं राया भोए भुजेइ सुरतुल्ले ॥१०४०॥ अह अन्नया कयाई पारद्धिनिमित्तनिग्गओ राया। चडिओ पवरतुरंगे जाए वल्हीयदेसम्मि ॥१०४१॥ वत्ते वि य जीववहे अवहरिओ तेण वाउवेगेण । छढो य महागहणे विझगिरिक्कंदरे राया ॥१०४२।। तो तम्मि विसमदेसे खलिओ आसस्स अइवेगो। एत्थंतरम्मि सन्नद्धबद्धकवएण दिट्ठो सबरेण सो राया। तेण य 'महाणुभावो कोइ एस पुरिसो पडिओ भीममहाडवीए, ता करेमि सम्ममचिओवयारं' ति चितिऊण काऊण तस्स पणामं गहिओ आसो खलीणम्मि, नीओ जलसमीवं । उत्तिण्णो नरवई; उप्पल्लाणिओ तुरओ, मज्जिओ राया, कलैः पाताल मुपगतेन परिखाबन्धेन गगनतल विलग्नेन प्राकारेण विशिष्य धनदपुरी ऋद्धया भवनश्च सुरेन्द्रभवनानि । तस्मिश्च जितशत्रर्नाम नरपति रभवत् । अन्तःपुरप्रधाना देवी नाम्ना जयश्रे रस्ति। स तया समं राजा भोगान् भुङ क्ते सुर तुल्यान् ।।१०४०।। अथान्यदा कदाचित् पापद्धिनिमित्तं निर्गतो राजा । आरूढः प्रवरतुरंगे जाते वाह्निकदेशे ॥१०४१।। वृत्तेऽपि च जीववधे अपहृतस्तेन वायुवेगेन। क्षिप्तश्च महागहने विन्ध्यगिरिकन्दरे गजा ॥१०४२॥ ततस्तस्मिन् विषमदेशे स्खलितोऽश्वस्यातिवेगः । अत्रान्तरे सन्नद्धवद्धकवचेन दृष्ट: शबरेण स राजा । तेन च 'महानुभावः कोऽप्येष पुरुषः पतितो भीममहाटव्याम्, ततः करोमि सम्यगुचितोपचारम्' इति चिन्तयित्वा कृत्वा तस्य प्रणाम गृहीतोऽश्व: खलीने, नीतो जलसमीपम् । उत्तीर्णो नरपतिः, उत्पल्याणितस्तुरगः, मज्जितो राजा, स्नपितः खाई, आकाश को छूनेवाले प्राकार, ऋद्धि में कुबेर की नगरी से विशिष्ट तथा इन्द्र के भवनो के समान भवनो से युक्त था। वहाँ पर जितशत्रु नाम का राजा हुआ। ___ उसकी समस्त अन्तःपुर में प्रधान जयश्री नाम की महारानी थी। वह राजा उसके साथ देवताओं के समान भोगों को भोगता था। एक बार राजा वाह्लीक देश में उत्पन्न हुए उत्कृष्ट घोड़े पर सवार होकर कदाचित् शिकार के लिए निकला । जीववध में लग जाने पर उस राजा को उस घोड़े ने वेग से अपहरण कर विन्ध्याचल की अत्यधिक भयंकर घाटी में छोड़ दिया। अनन्तर उस ऊँची-नीची भूमि में घोड़े का तीव्र वेग स्खलित हो गया ।।१४०-१०४२।। इसी बीच कवच को बाँध कर तैयार हुए शबर द्वारा वह राजा दिखाई दिया। उसने 'यह कोई महान प्रभाववाला पुरुष जंगल में भटक गया है अतः उचित सेवा करता हूँ'-ऐसा सोचकर प्रणाम कर घोड़े की लगाम पकड कर उसे जल के पास ले गया। राजा उतरा.घोडे की जीन उतारी, राजा ने स्नान किया, गबर ने Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६० हविओ सबरेण आसो दावि ( मि ) ऊण मुक्को पउरदु ( दुरु) व्यापए से । तओ सुगंधीणि सुसायाणि कयल जंबीर फणसाईणि उवणेऊण फलाणि निवडिओ चलणेसु । भणियं च णेण - करेउ पसायं देवो माणग्गद्वार आहारगहणेणं । राइणा चितियं - अहो एयस्स अकारणवच्छलया, अहो विणओ, अहो वयविन्नासो, अहो ममोवरि भत्तिबहुमाणो, अहो महापुरिसचेट्ठियकायव्वुज्जत्तया, अहो सज्जनगरिसोति । ता करेमि एयस्स अहं आहारगहणेण धिरं । मा से वइमणस्सं संभाविस्सइ त्ति । पडिस्सुयं राइणा । महापसाओ त्ति काऊण पुणो वि पडिओ पाएसु सबरो । उवभुत्ताई फलाई राइणा । एत्थंतरम्मि परिणओ वासरो, अत्थमृवगओ सूरो, जाओ संझाकालो, कयं उचियकरिणज्जं राइणा । संपाडिओ से सबरेण वरतूलि अइसत्यंतो कुसुमसत्थरो । संजमिऊण तूणीरयं को त्यो माओ नरवइसमोवं । 'देव सुवसु वीसत्थो' त्ति भणिऊण पारद्धं पासेसु भमिउं । काण गुरुदेवयान मोक्कारं पसुत्तो राया चितयंतो सबरमहानुभावयं । तओ परिणया सव्वरी, उइओ अंसुमाली । समराइच्च कहा एत्थंतरम्मि तुरयपयमग्गेणं समागयं रायसेन्नं । विउद्धो राया बंदिबोलेण । तओ ढोइओ शबरेणाश्वो दामयित्वा मुक्तः प्रचरदूर्वाप्रदेशे । ततः सुगन्धीनि सुस्वादानि कदलजम्बीरपनसादीन्युपनीय फलानि निपतितश्चरणयोः । भणितं च तेन - करोतु प्रसादं देवो ममानुग्रहार्थमाहारग्रहणेन । राज्ञा चिन्तितम् - अहो एतस्याकारणवत्सलता, अहो विनयः, अहो वचनविन्यासः, अहो ममोपरि भक्ति बहुमान:, अहो महापुरुषचेष्टितक र्तव्योद्युक्तता, अहो सज्जनप्रकर्ष इति । ततः करोम्येतस्याहमाहारग्रहणेन धृतिम् । मा अस्य वैमनस्यं सम्भावयिष्यति इति । प्रतिश्रुतं राज्ञा । महाप्रसाद इति कृत्वा पुनरपि पतितः पादयोः शबरः । उपभुक्तानि फलानि राज्ञा । अत्रान्तरे परिणतो वासरः, अस्तमुपगतः सूर्यः, जातः सन्ध्याकालः, कृतमुचितं करणीयं राज्ञा । सम्पादितस्तस्य शबरेण वरतूलि - कामतिशयानः कुसुमस्रस्तरः । संयम्य तूणीरकं कोदण्डव्यग्रहस्तः समागतो नरपतिसमीपम् । 'देव ! स्वपिहि विश्वस्तः' इति भणित्वा प्रारब्धं पार्श्वयोर्भ्रमितुम् । कृत्वा गुरुदेवतानमस्कारं प्रसुप्तो राजा चिन्तयन् शबर महानुभावताम् । ततः परिणता शर्वरी, उद्गतोऽशुमाली । अत्रान्तरे नरगपदमार्गेण समागतं राजसैन्यम् । विबद्धो राजा बन्दिशब्देन । ततो ढौकितो घोड़े को स्नान कराया, रस्सी बाँधकर हरियाली वाले स्थान में छोड़ दिया। अनन्तर सुगन्धित अच्छे स्वादवाले केले, जॅमीरी, कटहल आदि फल लाकर चरणों में रख दिये और कहा - 'महाराज ! मुझ पर अनुग्रह करने के लिए आहार ग्रहण करने की कृपा कीजिए।' राजा ने सोचा - ओह इसका अकारण प्रेम, ओह विनय, ओह बातचीत करने की शैली, ओह मुझ पर भक्ति और सम्मान, ओह महापुरुष की चेष्टा तथा कर्त्तव्य के प्रति उद्यत होना, ओह सज्जनता की चरम सीमा । अतः आहार ग्रहण कर इसे धैर्य बँधाऊँगा । इसे वैमनस्य उत्पन्न न हो । राजा ने स्वीकार किया। बहुत बड़ी कृपा मानकर शबर पुनः पैरों में गिर गया। राजा ने फल खाये । इसी बीच दिन ढल गया, सूर्य अस्त हो गया, सन्ध्याकाल हो गया। राजा ने योग्य कार्य किया। उस शबर ने श्रेष्ठ रुई के गद्दे को भी मात करनेवाला फूलों का विस्तर बिछाया। तरकश उतारकर हाथ में धनुष लेकर राजा के पास आया - 'महाराज ! विश्वस्त होकर सोइए' ऐसा कहकर अगल-बगल भ्रमण करना प्रारम्भ कर दिया । गुरु और देवताओं को नमस्कार कर राजा शबर की महानुभावता का विचार करता हुआ सो गया । अनन्तर रात ढल गयी, सूर्य उदित हुआ । इसी बीच घोड़े के पदचिह्नों के रास्ते से राजा की सेना आ गयी । बन्दियों के शब्द से राजा जाग गया । Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो भवो ] महासवइणा पंचवल्लहाण पहाणो तुरुक्कतुरओ । आरूढो तम्मि राया । चडाविऊण वल्हीए सबरनाथं गओ सनयरं । पविट्ठो महावद्धावणएहिं । मज्जिओ नरवई सह पल्लिनाहेण । कयं गुरुदेवयाणं उचियकर णिज्जं । तओ अग्गासणे निवेसिकण पल्लिनाह भुत्तं राइणा । भुत्तत्तरवेलाए सहत्थेण विलिपिऊणसबरनाहं परिहाविऊण देवयजुगलं दिन्नं से अणग्धेयं समत्थं नियमाहरणं । एत्थंतरम्मि समागया अत्यावेला । सूइयं कालनिवेयएण राइणो । उवविट्ठो अत्थाइया मंडवे सह सबरनाहेण । तओ पुच्छिओ अमच्चसामतेहि-देव साहेहि, को एस पुरिसो, जो एवं देवेण संपूइओ त्ति । तओ साहिओ राइना आसावहाराइओ पसुत्तदरिसणपज्जवसाणो पल्लिणाहचेट्ठियवृत्तंतो । तओ अत्थाइयपुरिसेहि परसिओ एस बहुपगारं । ठिया कंचि कालं नाडयपेक्रणयविणोएणं । समप्पिओ राइणा रायसुंदरी पहाणलक्खियाए । तज्जिया भणिया ) य णेण - अहो रायसुंदरि, उवचरियण्वो तए एस सन्भावसारं मम पाणदायगो । तीए भणियं - जं देवो आणवेइ । गहेऊण य तं पल्लिणाहं करम्मि गया नियभवणं एसा । आरूढा सत्तमवा (चा) उक्खभम्मि रद्दहरे । तं च सोउल्लोइयं ८६१ । महाश्वपतिना पञ्चवल्लभानां प्रधानस्तुरुष्कतुरग: । आरूढस्तस्मिन् राजा । आरोप्य वाह्लीके शबरनाथं गतः स्वनगरम् । प्रविष्टो महावर्धापनकैः । मज्जितो नरपतिः सह पल्लिनाथेन । कृतं गुरुदेवतानामुचितकरणीयम् । ततोऽग्रासने निवेश्य पल्लिनाथं भुक्तं राज्ञा । भुक्तोत्तरवेलायां स्वहस्तेन विलिप्य शबरनाथं परिधाप्य देवदूष्ययुगलं दत्तं तस्यानर्घ्यं समस्तं निजमाभरणम् । अत्रान्तरे समागता आस्थानिकावेला । सूचितं कालनिवेदकेन राज्ञः । उपविष्ट आस्था निकामण्डपे सह शबरनाथेन । ततः पृष्टोऽमात्यसामन्तैः - देव ! कथय, क एष पुरुषः, य एवं देवेन सम्पूजित इति । ततः कथितो राज्ञा अश्वापहारादिकः प्रसुप्तदर्शनपर्यवसानः पल्लिनाथ चेष्टितवृत्तान्तः । तत आस्थानिकापुरुषः प्रशंसित एष बहुप्रकारम् । स्थितौ कंचित् कालं नाटकप्रेक्षणकविनोदन | समर्पितो राज्ञा राजसुन्दर्याः प्रधानलक्षितायाः । तर्जिता ( भणिता ) च तेन - अहो राजसुन्दरि ! उपचरितव्यस्त्वया एष सद्भावसारं मम प्राणदायकः । तया भणितम् - यद् देव आज्ञापयति । गृहीत्वा च पल्लीनाथं करे गता निजभवनमेषा । आरूढौ सप्तमवायु (चतुः ) स्तम्भे रतिगृहे । तच्च ( तस्मिश्च ) लेपित पूछा - 'महाराज, कहिए, यह अनन्तर महान् अश्वपति, पाँच प्रिय घोड़ों में प्रधान तुरुष्क घोड़े को लाया गया। उस पर राजा सवार हुआ । वाह्लीक देश के घोड़े पर शबरराज को बैठाकर अपने नगर को गया । बड़े उत्सवों के साथ प्रविष्ट हुआ । राजा ने शबरनाथ के साथ नहाया । गुरु और देवताओं के योग्य कार्यों को किया । अनन्तर अग्रासन पर शबरनाथ बैठाकर राजा ने भोजन किया । भोजन के बाद अपने हाथ से शबरनाथ का विलेपन कर, दिव्यवस्त्र पहना कर उसे अपने समस्त आभूषण दिये। तभी राजसभा का समय हो गया। समय का निवेदन करनेवाले ने सूचित किया । राजसभा में शबरनाथ के साथ बैठा । अनन्तर अमात्य और सामन्तों ने पुरुष कौन है जो इस प्रकार महाराज के द्वारा सम्मानित किया गया है ?' अनन्तर से लेकर सोते हुए दिखलाई देने तक का वृत्तान्त शबरनाथ की चेष्टाओं सहित सुनाया। सभा के पुरुषों ने इसकी अनेक प्रकार से प्रशंसा की। कुछ समय तक नाटक तथा प्रेक्षणक से विनोद करते हुए दोनों कुछ समय ठहरे। राजसुन्दरी को प्रधानरूप से लक्षित कर राजा ने समर्पित कर दिया और उससे कहा - 'हे राजसुन्दरी ! यह के सार और मेरे प्राणदायक हैं । अतः योग्य सेवा करना ।' उसने कहा - 'जो महाराज की आज्ञा ।' शबरनाथ का हाथ पकड़कर यह अपने भवन में गयी । सात खण्डोंवाले चौकोर रतिगृह पर दोनों आरूढ़ हुए । वह दिव्य अंगराग (चूर्ण) और वस्त्र लपेटकर धवल बनाया गया था श्रेष्ठ चित्रों पर उदित हुए चन्द्रमा की राजा ने घोड़े द्वारा अपहरण सद्भाव Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९२ [समराइच्चकहा देवंगाइवत्थपूयाए सवित्तकम्मुज्जलं बद्धेण वरचित्ताडियचंदोदएणं ओलंबिएहि पंचवणियसुरहिकुसुमदामेहिं पज्जलियाहिं मणिप्पदोवियाहिं धुव्वंतीहि अणवरयधुन्वमाणकालागरुकप्पूरपउराहि धवघडियाहि गंडोवहाणयालिंगणिसमेयाए तूलियाए सोविओ दंतमयपल्लंके । कओ उचिओवयारो। पाइओ महमाहवाइपवरासवाई। एवं च पंचविहं विसयसुहमणुहवंतस्स अइक्कंतो कोइ कालो। अन्नया च विन्नत्तो अणेण राया - देव, गच्छामि । राइणा भणियं-जं रोयइ देवाणुप्पियस्स । तओ दाऊणमणग्धेयं दविणजायं चेलाइयं च महग्घमुल्लं दिन्ना से सहाया पच्चइयपुरिसा। भणिया ते राहणा-हरे पल्लिवई पल्लिपएसे मोत्तणागच्छह ति। तेहि भणियं-जं देवो आणवेइ। तओ पणमिऊण नरवइं गओ सबरणाहो पत्तो कइवयवियहेहिं नियपल्लि। विसज्जिया रायपुरिसा। पविट्रो नियगेहे । समागओ तस्स समीवं सबरलोओ। पुच्छिओ हिं-कत्थ तुम गओ सि, कहिं वा ठिओ सि एत्तियं कालं, किं वा तए लद्धं । तओ साहिओ तेण रायदरिसणाइओ पल्लिपवेसपज्जवसाणो नियवुत्तंतो। तओ अहिययरं सकोउहल्लो पुच्छइ तं जणसमूहो । धवलितं ते देवाङ्गादिवस्त्रपू गया सचित्रकर्म (णि) उज्ज्वल (ले) वरचित्रापतितचन्द्रोदयेन अवलम्बितैः पञ्चणिकसरभिकसुमदामभि: प्रज्वलिताभिर्मणिप्रदीपिकाभिधू यमानाभिरनवरतधप्यमानकालागहकप रप्रचराभिधू पघटिकाभिर्गण्डोपधानालिङ्गनीसमेतायां तूलिकायां स्वापितो दन्तमयपल्यड़े। कत उचितोपचारः । पायितो मधुमाधवादिप्रवरासवानि । एवं च पञ्चविध विषयसुखमनभवतोऽतिक्रान्तः कोऽपि कालः । अन्यदा विज्ञप्तोऽनेन राजा । देव ! गच्छामि । राज्ञा भणितम् -यद रोचते दवानप्रियाय । ततो दत्त्वाऽनयं द्रविण जातं चेलादिकं च महार्घमूल्यं दत्तास्तस्य सहायाः प्रत्ययितपरुषाः भणितास्ते राज्ञा - अरे पल्लीपति पल्लोप्रदेशे मुक्त्वाऽऽगच्छतेति । तैर्भणितम-यद देव आज्ञापयति। ततः प्रणम्य नरपतिं गतः शबरनाथः प्राप्तः कतिपय दिवसैनिजपल्लीम। विसजिता राजपुरुषाः। प्रविप्टो निजगेहे। समागतस्तस्य समीपं शबरलोकः । पृष्टस्तैः - कूत्र त्वं गतोऽसि, कत्र वा स्थितोऽसि एतावन्तं कालम्, किं वा त्वया लब्धम् । ततः कथितस्तेन राजदर्शनादिकः पल्लोप्रवेशपर्यवसानो निजवृत्तान्तः । ततोऽधिकतरं सकुतूहलः पृच्छति तं जनसमूहः किरणें पड़ने से उज्ज्वल लग रहा था, पाँच रंग की सुगन्धित फूलमालाएं वहाँ लटकाई गयी थीं, मणिनिर्मित दीपक जलाए गये थे, निरन्तर धुआँ छोड़नेवाले काले अगरु, कपूर और प्रचुर धूप के छोटे-छोटे मिट्टी के घड़ों से यक्त था। हाथीदांत से बने हुए रूई भरे विस्तर गण्डोपधान (गाल के नीचे का तकिया) और आलिंगनी घटनों आदि के नीचे रखने का तकिया) से युक्त पलंग पर उसे सुलाया। योग्य सेवा की। मधु, मद्य आदि श्रेष्ठ रस पिलाये। इस तरह पाँच प्रकार के विषयों के सुख का अनुभव करते हुए, समय बीत गया। एक बार इसने राजा से निवेदन किया-'महाराज ! जा रहा हूँ।' राजा ने कहा- 'जो देवानुप्रिय को अच्छा लगे ।' अनन्तर बहुमूल्य धन, सोना, वस्त्रादिक देकर उसके साथ विश्वस्त पुरुष भेज दिये। उनसे राजा ने कहा- 'अरे शबरस्वामी को शबरस्थान में पहुँचाकर आओ।' उन्होंने कहा-'जो महाराज की आज्ञा।' अनन्तर राजा को प्रणाम कर शबरनाथ चला गया। कुछ दिन में अपनी बस्ती में पहुंच गया। राजपुरुषों को वापस भेज दिया। अपने घर में प्रवेश किया। उसके पास शबर लोग आये। उन्होंने पूछा- 'आप कहाँ चले गये थे ? इतने समय तक कहाँ रहे अथवा आपने क्या प्राप्त किया?' अनन्तर उसने राजा के दर्शन से लेकर शबर बस्ती में प्रवेश करने तक का अपना वृत्तान्त कहा । तब अत्यधिक कौतूहल से युक्त होकर लोगों के समूह ने उससे पूछा Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो भबो] ८६३ केरिसओ सो राया कोइसरूवं च होइ तन्नयरं। केरिसओ तत्थ जणो किविस्सिट्टो य परिभोगो॥१०४४।। सो साहिउं न सक्कइ उवमारहियम्मि तत्थ रणम्मि। ते विति तत्थ उवमा पत्थरगुहरुक्खमालेसु ॥१०४५॥ भक्खाणं च फलाइ जुवईसु पुलिंदयाण जुबईओ। आभरणेसु य गुंजा विलेवणं गेरुयाईसु॥१०४६॥ सो साहेउं वंफइ नयरस्स गुणे जहट्ठिए तेसि । निव्वाएऊण मुहं पुणो वि तुहिकाओ ठाइ ॥१०४७॥ एवं उवमारहिओ न तीरए एत्थ साहिउं मोक्खो। नवरं सद्दहियव्वो न अन्नहा भणइ सव्वन्नू ॥१०४८।। न वि अस्थि माणसाणं तं सोक्खं न वि य सव्वदेवाणं । जं सिद्धाणं सोक्खं अव्वाबाहं उवगयाणं ॥१०४६॥ कीदृशः स राजा की दृशरूपं च भवति तन्नगरम् । कीदृशस्तत्र जनः किंविशिष्टश्च परिभोगः ।।१०४४।। स कथयितुं न शक्तोति उपमारहिते तत्रारण्ये । तान् ददाति तत्रोपमाः प्रस्तरगुहावृक्षमालेषु ।।१०४५।। भक्ष्याणां च फलानि युवतिषु पुलिन्द्राणां युवतयः। आभरणष गुञ्जा विलेपन गरुकादिषु ॥१०४६॥ स कथयितुं काङ क्षति नगरस्य गुणान् यथास्थितान् तेषाम् । निर्वाच्य मुखं पुनरपि तूष्णोक स्तिष्ठति ।।१०४७॥ एवमुपमारहितो न शक्यतेऽत्र कथयितुं मोक्षः। नवरं श्रद्धातव्यो नान्यथा भणति सर्वज्ञः ॥१०४८।। नाप्यस्ति मानुषाणां तत् सौख्यं नापि च सर्वदेवानाम् । यत् सिद्धानां सौख्यमव्याबाधामुपगतानाम् ॥ १०४६ । 'वह राजा कैसा है ? उस नगर का रूप कैसा है ? वहाँ पर लोग कैसे हैं और परिभोग कैसा है ? उस उपमारहित जंगल में वह शबर बता नहीं पाता है। उन लोगों को वहाँ पत्थर, गुफा, वृक्ष, माला, खाने योग्य वस्तुओं, फल, युवतियों में शबर युवतियों, आभूषणों में गुंजा तथा गरुक आदि के विलेपन की उपमा देता है । वह उन लोगों से नगर के यथार्थ गुण कहना चाहता है, किन्तु मुख से न कह पाने के कारण चुपचाप रहता है। इसी प्रकार यहाँ उपमारहित मोक्ष का कथन नहीं किया जा सकता, केवल ऐसी श्रद्धा करना चाहिए, क्योंकि सर्वज्ञ झूठ नहीं बोलते हैं । अव्याबाध को प्राप्त हुए सिद्धों का जो सुख है वह मनुष्यों और समस्त देवों का भी नहीं है ॥' १०४४-१०४६॥ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६४ [ समराइच्चकहा एयं आपण्णिऊण 'एवमेयं' ति संविग्गा सव्वे । वेलन्धरेण भणियं-भयवं, कोइसं पुण सरूवं सिद्धस्स। भयवधा भणियं-सोम, सुण। से न दोहे न रह(ह)स्से न वट्टे न तंसे न चउरंसे न परिमंडले; वण्णेण न किण्हे न नोले न लोहिए न हालिद्दे न सुविकले; गंधणं न सुरहिगंधे न दुरहिगंन्धे; रसेणं न तित्ते न कडुए म कसाए न अंबिले न लवणे न महुरे; फंसेण न कक्खडे न मउए न गरुए न लहुए न सीए न उण्हे न निद्धे न लक्खे; न संगे न रहे न काउ न इत्थी न पुरिसे न अन्नहा। परिन्ना सन्ना उवमा चेव न विज्जइ। अरूवी सत्ता अपयस्स पयं नत्थि। से न सद्दे नासहे,से न रूवे नारूवे, से न गन्धे नागन्धे, से न फासे नाफासे, से न रसे नारसे । इमेयं सिद्धसरूवं ति । अवि य सयलपवंचरहियं सत्तामत्तसरूवं अणन्ताणंदं परमपयं ति। एयमायण्णिऊण खओवसममवगयं चारित्तमोहणीयं मणिचंदस्स देवीणं सामंताण य। भणियं च हिं—भयवं, अग्गिहीयाणि अम्हे भगवया इमिणा धम्मदेसगेण । समप्पन्नो य अम्हाणं भयवओ चरियसवणेण संसारचारयाओ निव्वेओ। ता आइसउ भयवं, किमम्हेहि कायव्वं ति। भयवया भणिय-धन्नाणि तुम्भे। पावियं एतदाकर्ण्य ‘एवमेतद्' इति सविग्नाः सर्वे । वेलन्धरेण भणितम् - भगवन् ! कीदश पुनः स्वरूप सिद्धस्य । भगवता भणितम् -सौम्य ! शृण । स न दी? न ह्रस्वो न वृत्तो न व्यस्रो न चतुरस्रो न परिमण्डलः; वर्णेन न कृष्णो न नीलो न लोहितो न हारिद्रो न शुक्लः; गन्धेन न सुरभिगन्धो न दुरभिगन्धः; रसेन न तिक्तो न कटको न कषायो नाम्लो न लवणो न मधुरः; स्पर्शन न कर्क शो न मृदुर्न गुरुको न लघुको न शीतो न उष्णो न स्निग्धो न रूक्षः; न सङ्गो न रुहो न क्लोबो न स्त्री न पुरुषो नान्यथा। परिज्ञा संज्ञा उपमा चैव न विद्यते । अरूपी सत्ता, अपदस्य पदं नास्ति । स न शब्दो नाशब्दः, न रूपो नारूपः, स न गन्धो नागन्धः, स न स्पर्शो नास्पर्शः स न रसो नारसः । इदमेतत् सिद्धस्वरूपमिति । अपि च सकलप्रपञ्चरहितं सत्तामात्रस्वरूपमनन्तानन्दं च परमपदमिति । एतदाकर्ण्य क्षयोपशममुपगतं चारित्रमोहनीयं मुनिचन्द्रस्य देवीनां सामन्तानां च । भणितं च तैःभगवन् ! अनुगृहीता वयं भगवताऽनेन धर्मदेशनेन । समुत्पन्नश्चास्माकं भगवतश्चरित्रश्रवणेन संसारचारकाद् निर्वेदः । तत आदिशतु भगवान्, किमस्माभिः कर्तव्यमिति । भगवता भणितम्-- यह सुनकर- 'यह ऐसा ही है' इस प्रकार सभी लोगों ने अनुभव किया। वेलन्धर ने कहा- 'भगवन् ! सिद्ध का स्वरूप कैसा है ?' भगवान ने कहा-'सौम्य ! सुनो । वे सिद्ध न दीर्घ, न ह्रस्व, न गोल, न तिकोने, न चौकोर और न घेरेवाले हैं। वर्ण से न कृष्ण, न नील, न लाल, न पीले, न शुक्ल हैं। गन्ध से न सुगन्धित हैं, न दुर्गन्धित हैं। रस में न तीखे हैं, न कडुए हैं, न कषायले हैं, न अम्ल हैं, न लवण हैं, न मधुर हैं। स्पर्श में न कर्कश हैं, न मृदु हैं, न भारी हैं, न लघु हैं, न शीत हैं, न उष्ण हैं, न चिकने हैं, न रूखे हैं, न आसक्त हैं, न उत्पन्न होते हैं, न नपुंसक हैं, न स्त्री हैं, न पुरुष हैं, न अन्य प्रकार के हैं । पहचान, संकेत (तथा) उपमा ही नहीं है। अरूपी सत्ता है, अपद का पद नहीं होता है। वे न तो शब्दवाले हैं, न शब्दरहित हैं, न रूपी हैं, न अरूपी हैं, न न गन्धयुक्त हैं, न गन्धरहित हैं। वे न स्पर्शवाले हैं, न स्पर्शरहित हैं। वे न रसवाले हैं और न रसरहित हैं। यह सिद्ध का स्वरूप है । वे सिद्ध परमात्मा समस्त जंजालों से रहित, सत्ता मात्र स्वरूपवाले, अनन्त आनन्द से युक्त और परमानन्दवाले हैं।' यह सुनकर मुनिचन्द्र, महारानियों तथा सामन्तों के चारित्रमोह का क्षयोपशम हो गया और उन्होंने कहा- 'भगवन् ! भगवान् के इस धर्मोपदेश से हम अनुगृहीत हैं। हम लोगों को भगवान् के चरित्र के सुनने से संसाररूपी कारागार से वैराग्य उत्पन्न हो गया है । अत. भगवान् आदेश दें कि हम लोगों Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो भवो] ८६५ तुम्भेहि संसारचारयविमोयणसमत्थं छेयणं नेहनिय ताणं पक्खालणं मोहधूलीए परमनेव्वाणकारणं अगं नाणपगरिसस्स पल्हायणं भावेण संकिलेसाइयारविरहियं भावओ सुद्धचरणं ति । तम्हा कयं कायग्वं, नवरं दवओ वि एवं पडिवज्जसु ति। तेहि भणियं-जं भयवं आणवेइ। वेलन्धरण चितियं-अहो एएसि धन्नया, पतं मणुयलोयसारं भावचरणं ति। वंदिऊण सहरिसं कयं उचियकरणिज्ज भयवओ। पविट्टो नार राया मुणिचंदो। दवावियं आघोसणापुस्वयं महादाणं, काराविया सवाययणेसु पूया, पइट्टाविओ जेट्टपुत्तो चंदजसो नाम रज्जे। निग्गओ महाविभूईए नयराओ पहाणसामंतामच्चसेटिलोयपरियओ नम्मयापमहंतेउरेण सह । पच्वइयाणि एयाणि भयवओ पहाणसीसस्स सीलदेवस्स समीवे । कोउगाणुगंपाहि पुच्छियं वेलंधरेण-भयवं, कि सो पुरिसाहमो भयवंतमहिस्स अत्तणोवसग्गकारो भविओ अभविओ त्ति । भयवया भणियं-भविओ। वेलंधरेण भणियं-पत्तबीओ अपत्तबीओ ति । भयवया भणियं-अपत्तबीओ। वेलंधरेण भणियं-पाविस्सइ नहि। भयवया धन्या यूयम् । प्राप्तं युष्माभिः संसारचारकविमोचनसमर्थ छेदनं स्नेहनिगडानां प्रक्षालनं मोहधल्या: परमनिर्वाणकारणमङ्गं ज्ञानप्रकर्षस्य प्रह्लादनं भावेन संक्लेशातिचारविरहितं भावतः शद्धचरणमिति । तस्मात् कृतं कर्तव्यम, नवरं द्रव्यतोऽप्येतत् प्रतिपद्यस्वेति । तैर्भणिम्-र द भगवान् आज्ञापयति । वेलन्धरेण चिन्तितम्-अहो एतेषां धन्यता, प्राप्तं मनुजलोकसारं भावचरणमिति । वन्दित्वा सहर्ष कृतमुचितकरणीयं भगवतः । प्रविष्टो नगरी राजा मुनिचन्द्रः । दापितमाघोषणापूर्वक महादानम्, कारिता सर्वायतनेषु पूजा, प्रतिष्ठापितो ज्येष्ठपुत्रश्चन्द्रयशा नाम राज्ये। निर्गतो महाविभूत्या नगरात् प्रधानसामन्तामात्यश्रेष्ठिलोकपरिवृतो नर्मदाप्रमुखान्तःपुरेण सह । प्रव्रजिता एते भगवत: प्रधानशिष्यस्य शीलदेवस्य समीपे। कौतु कानुकम्पाभ्यां पृष्टं वेलन्धरेण -भगवन् ! किं स पुरुषाधमो भगवन्तमुद्दिश्य आत्मन उपसर्गकारी भविकोऽभविको (वा) इति । भगवता भणितम् - भविकः । वेलन्धरेण णितम् - प्राप्तबोजोऽप्राप्तबीज इति । भगवता भणितम्-अप्राप्तबीजः । वेलन्धरेण भणितम्-- प्रास्यति नहि। को क्या करना चाहिए। भगवान् ने कहा - 'तुम सब धन्य हो। तुम लोगों ने संसाररूपी कारागार छडाने में समर्थ, स्नेहरूपी बेड़ी को तोड़नेवाले, मोहरूपी धूलि को पोछनेवाले, परम निर्वाण के कारण, ज्ञान की चरम सीमा के अंग भाव से आह्लादक, दुःख और अतिचार से रहित शुद्ध चारित्र को भाव से प्राप्त कर लिया । अत: करने योग्य कार्य कर लिया, अब द्रव्य मात्र से भी इसे प्राप्त करो।' उन्होंने कहा --'जो भगवान की आज्ञा ।' वेलन्धर ने मोचा--ओह इनकी धन्यता, इन्होंने मनुष्यलोक के सार भावचारित्र को प्राप्त कर लिया है। इस प्रकार हर्षपूर्वक भगवान् की वन्दना कर योग्य कार्यों को किया । राजा मुनिचन्द्र नगरी में प्रविष्ट हुआ। घोषणापूर्वक महादान दिलाया, समस्त आयतनों में पूजा करायी । चन्द्रयश नामक बड़े पुत्र को राज्य पर बैठाया । प्रधान सामन्त, अमात्य, सेठ लोगों से घिरा हुआ तथा नर्मदा प्रमुख अन्तःपुर के साथ वह नगर से बड़ी विभूति के साथ निकला। ये लोग भगवान् के प्रधान शिष्य शीलदेव के समीप प्रवृजित हुए। __ कौतुक और अनुकम्पा (दया) से युक्त हो बेलन्धर ने पूछा – 'भगवन् ! वह अधम पुरुष भगवान् को लक्ष्य करके अपने ऊपर उपद्रव करनेवाला क्या भव्य है अथवा अभव्य ?" भगवान ने कहा-'भव्य है । वेलन्धर ने कहा--'प्राप्तबीज़ है अथवा अप्राप्त बीज ?' भगवान ने कहा - 'अप्राप्त बीज ।' वेलन्धर ने कहा-'प्राप्त करेगा Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९५ [ समराइच्चकहा भणियं-असंखेज्जेसु पोग्गलपरियट्टेसु समइच्छिएसु तिरियगईए सदूलसेणराइणो पहाणतुरंगमो होऊण पाविस्सइ, जओ 'अहो महाणुभावो' ति मं उद्दिसिय चितियमणेण । एएणं च पसत्थविसयचितणेण आसगलियं गणपक्खवायबीयं; कारणं च तं परंपरयाए सम्मतस्स। अईएसु य असंखेज्जभवेस संखनाममाहणो होऊण सिज्झिस्सइ ति । एवं सोऊण हरिसिओ वलंधरो। वंदिऊण भयवंतं गओ निययथामं । भयवं पि विहरिओ केवलिविहारेण। अइक्कंतो कोइ कालो । अन्नया य चोरवइयरेण उज्जेणीए चेव गहिओ गिरिसेणपाणो, वावाइओ कुंभिपाएण। तहाविहभयवंतपओसदोसओ समुप्पन्नो सत्तममहीए। भयवं पि विहरमाणो कालक्कमेण गओ उसहतित्थं । नाऊण कम्मपरिणइं कओ केवलिसमग्घाओ. पडिवन्नो सेलेसि, खवियाई भवोवग्गाहिकम्माइं। तओ सव्वप्पगारेण चइऊण देहपंजरं अफुसमाणगईए गओ एक्कसमएण तेलोक्कचूडामणिभूयं अप्पत्तपुव्वं तहाभावेण परमबंभालयं उत्तमं सव्वथामाण सिवं एगतेण अचलमरुज साहयं परमाणंदसुहस्स जम्मजरामरणविरहियं परमं सिद्धिपयं ति। कया तियसेहि भगवता भणितम्-असंख्येयेषु पुद्गलपरिवर्तेष समतिक्रान्तेषु तिर्यग्गतौ शार्दूलसेनराजस्य प्रधानतुरङ्गमो भूत्वा प्राप्स्यति, यतो 'अहो महानुभावः' इति मामुद्दिश्य चिन्तितमनेन । एतेन च परमार्थविषयचिन्तनेन प्रादुर्भूतं गुणपक्षपातबीजम्, कारण च तत् परम्परया सम्यक्त्वस्य । अतीतेषु चासंख्येयभवेषु शङ्खनाम ब्राह्मणो भूत्वा सेत्स्यतोति । एतच्छुत्वा हर्षितो वे लन्धरः। वन्दित्वा भगवन्तं गतो निजस्थानम् । भगवानपि विहृतः केवलि विहारेण ।। अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । अन्यदा च चौरव्यतिकरेण उज्जयिन्यामेव गहीतो गिरिषेणप्राणः, व्यापादितः कुम्भिपाकेन । तथाविधभगवत्प्रवषदोषतः समुत्पन्नः सप्तममह्याम् । भगवानपि विहरन् कालक्रमेण गत ऋषभतीर्थम् । ज्ञात्वा कर्मपरिणति कृत: केवलि समुद्घातः, प्रतिपन्नः शैलेशीम क्षपितानि भवोपग्राहिकर्माणि । ततः सर्वप्रकारेण त्यक्त्वा देहपञ्जरमस्पृशद्गत्या गत एकसमयेन त्रैलोक्यचूणामणिभूतमप्राप्तपूर्व तथाभावेन परमब्रह्मालयमुत्तमं सर्वस्थानानां शिवमेकान्तेनाचल या नहीं ?' भगवान् ने कहा-'असंख्य पुद्गल परावर्त बीत जाने पर तियंचगति में शार्दूलसेन राजा का प्रधान घोडा होकर प्राप्त करेगा; क्योंकि 'ओह ! महान् प्रभाववाला है'-इस प्रकार इसने सोचा। इस परमार्थ विषय का चिन्तन करने से गुणों के प्रति पक्षपात का बीज उत्पन्न हआ और वह परम्परा से सम्यक्त्व का कारण है। असंख्य भवों के बीत जाने पर शंख नामक ब्राह्मण होकर प्राप्त करेगा।' यह सुनकर वेलन्धर हर्षित हआ।' भगवान् की बन्दना कर अपने स्थान पर चला गया। भगवान् भी वेवलीगमन से विहार कर गये।। कुछ समय बीत गया । एक बार चोरी की घटना से उज्जयिनी में गिरिसेन नामक चाण्डाल पकड़ा गया। कुम्हार के आवे में डालकर मार दिया गया। उस प्रकार के भगवान के प्रति द्वेष के कारण सातवें नरक में उत्सल हआ। भगवान भी विहार करते हुए कालक्रम से ऋषभतीर्थ गये। कर्म की परिणति को जानकर केवलिसमुद्घात किया, शै ने शी स्थिति (मेरु की तरह निश्चल साम्यावस्था अथवा योगी को सर्वोत्कृष्ट अवस्था) को प्राप्त किया। संगर का योग करानेवाले कर्मों का नाश कर दिया। उन्होंने सब प्रकार से शरीररूपी पिंजड़े को छोड़कर अमी गति से एक साथ तीनों लोकों के चूड़ामणि भूत. जिसे पहले नहीं पाया है ऐसे परम ब्रह्मालय Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो भवो] ८६७ महिमा, पूजिया बोंदी, गहियाई पहाणंगाई, नीयाणि सुरलोयं, ठवियाणि विवित्तदेसे, साहियाणि देवाण, समागया देवा, दिवाणि तेहि, पूजियाणि भत्तीए, पणमियाणि सहरिसं, अविरहियं च तेसि पडिवत्तीए करेंति आयाणुग्गहं ति। वक्खायं जं भणियं समराइच्चगिरिसेणपाणे उ । एगस्स तओ मोक्खो ऽणंतो बीयस्स संसारो॥१०५०॥ गुरुवयणपंकयाओ सोऊण कहाणयाणुराएण। अनिउणमइणा वि दढं बालाइअणुग्गहटाए ॥१०५१॥ अविरहियनाणदंसणचरियगुणधरस्स विरइयं एयं । जिणदत्तायरियस्स उ सोसावयवेण चरियं ति ॥१०५२॥ जं विरइऊण पुण्णं महाणुभावचरियं मए पत्तं । तेण इहं भवविरहो होउ सया भवियलोयस्स ॥१०५३॥ मरुजं साधकं परमानन्दसुखस्य जन्मजरामरणविरहितं परमं सिद्धिपदमिति । कृता त्रिदशैमहिमा, पूजिता बोन्दिः, गृहीतानि प्रधानाङ्गानि, नीतानि सुरलोकम्, स्थापितानि विविक्तदेशे, कथितानि देवानाम्, समागता देवाः, दृष्टानि तैः, पूजितानि भक्त्या, प्रणतानि सहर्षम्, अविरहितं च तेषां प्रतिपत्त्या कुर्वन्त्यात्मानुग्रहमिति । व्याख्यातं यद् भणितं समरादित्य गिरिषेणप्राणौ तु । एकस्य ततो मोक्षोऽनन्तो द्वितीयस्य संसारः ॥१०५०॥ गुरुवदनपङ्कजात् श्रुत्वा कथानकानुरागेण । अनिपुणमविनाऽपि दृढं बालाद्यनुग्रहार्थम् ।। १०५१॥ अविरहितज्ञानदर्शनचारित्रगुणधरस्य विरचितमेतत् । जिनदत्ताचार्यस्य तु शिष्यावयवेन चरिनमिति ।।१०५२।। यद् विरचय्य पुण्यं महानुभावचरितं मया प्राप्तम् । तेनेह भवविरहो भवतु सदा भविकलोकस्य ।।१०५३॥ में उत्तम, कल्याणकारक, एकान्त से अचल, रोगरहित, परमानन्द, जन्म, जरा और मरण से रहित परमसिद्धपद.. (मोक्ष) को प्राप्त हुए । देवों ने उत्सव किया। शरीर की पूजा की। प्रधान अंगों को लिया. स्वर्ग में ले गये एकान्त स्थान पर रख दिया, देवों से कहा । देव आये, उन्होंने देखा, भक्ति से पूजा की, हर्षपूर्वक प्रणाम किया । उनके प्रति सतत श्रद्धा से अपना अनुग्रह किया। समरादित्य और गिरिसेन चाण्डाल के विषय में जो कहा गया उसकी व्याख्या हो चुकी। उनमें से एक का मोक्ष हुआ, दूसरे का संसार हुआ । गुरु के मुखकमल से सुनकर कथानक के प्रति अनुराग से, निपुणता से रहित बुद्धिवाला होने पर भी अल्पज्ञ जनों पर अत्यधिक अनुग्रह करने के लिए सतत ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप गुणों के धारी जिनदत्ताचार्य के शिष्यावयव ने इस चरित की रचना की। जिस महानुभाव के चरित की रचमाकर मैंने पुण्य प्राप्त किया उसी के द्वारा सदा भव्यजनों की संसार से मुक्ति हो ॥१०५०-१०५३॥ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६८ गंथग्गमिमीए इमं छंदेणाणुट्ठहेण गणिऊण । पाएण दससहस्सा हंदि सिलोयाण संठवियं ॥ १०५४ ॥ समत्तो नवमो भयो । समराइच्चकहा समत्ता ॥ ग्रन्थाग्रमस्या इदं छन्दसाऽनुष्टुभा गणयित्वा । प्रायेण दश सहस्राणि हन्दि श्लोकानां संस्थापितम् ।। १०५४ || इत्याचार्य श्रीयाकिनीमहत्तरा सूनुपरमसत्यप्रियहरिभद्राचार्यविरचितायाः प्राकृतबन्ध गुम्फितायाः समरादित्यकथायाः सौराष्ट्रदेशान्तर्गतवलभीवास्तव्येन श्रावक हर्ष चन्द्रात्मजेन पण्डित भगवानदासेन कृते संस्कृतच्छायानुवावे नवमं भवग्रहणं समाप्तम् ॥ इस ग्रन्थ को अनुष्टुप् छन्द के अनुसार गिनकर लगभग दश हजार श्लोकों वाला निर्धारित किया ।। १०५४ ।। नवम भव समाप्त । [ समराइच्चकहा समरादित्य कथा समाप्त ॥ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Education International डॉ. रमेशचन्द्र जैन जन्म : 1946 में, मड़ावरा ग्राम (जिला ललितपुर, उत्तरप्रदेश) में । शिक्षा : आरम्भिक शिक्षा जन्मस्थान में प्राप्त करने के पश्चात्, श्री स्याद्वाद महाविद्यालय एवं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी में अध्ययन । विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन से पी-एच. डी. तथा रुहेलखण्ड विश्वविद्यालय से डी. लिट्. । कार्यक्षेत्र : 1969 से वर्द्धमान (स्नातकोत्तर) महाविद्यालय बिजनौर के संस्कृत विभाग में अध्यापन । सम्प्रति विभागाध्यक्ष । प्रकाशित रचनाएँ : 'पद्मचरित में प्रतिपादित भारतीय संस्कृति', 'अहिच्छत्र की पुरा सम्पदा', 'पावन तीर्थ हस्तिनापुर' आदि । 'समराइच्चकहा' के अतिरिक्त 'समाधितन्त्र' तथा 'इष्टोपदेश' का सम्पादन एवं 'आराधना- कथाप्रबन्ध', 'भावसंग्रह', ‘सुदर्शनचरित' और 'पार्श्वाभ्युदय' का अनुवाद । अब तक एक दर्जन से अधिक छात्र-छात्राओं का पी-एच. डी. के लिए शोध- निर्देशन । लगभग सात वर्ष से 'पार्श्व-ज्योति' पाक्षिक का सम्पादन । भारतवर्षीय दिग. जैन शास्त्रीय परिषद्, स्याद्वाद शिक्षण परिषद् से सम्मानित एवं पुरस्कृत । प्राकृत शोध संस्थान वैशाली की अधिष्ठात्री समिति एवं नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ प्राकृत स्टडीज एण्ड रिसर्च, श्रवणबेलगोला के डाइरेक्टर्स बोर्ड के सदस्य तथा अन्य अनेक संस्थाओं से सम्बद्ध । Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय ज्ञानपीठ स्थापना : सन् 1944 उद्देश्य ज्ञान की विलुप्त, अनुपलब्ध और अप्रकाशित सामग्री का अनुसन्धान और प्रकाशन तथा लोकहितकारी मौलिक साहित्य का निर्माण संस्थापक स्व. साहू शान्तिप्रसाद जैन स्व... श्रीमती रमा जैन अध्यक्ष श्री अशोक कुमार जैन कार्यालय : 18, इन्स्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नयी दिल्ली-110 003