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[समराइच्चकहा
हारणे एयम्मि असोहणे पयईए अवयारए एगतेण विज्जमाणोवाए अचितिऊण एवं अलमिमिणा नच्चिएण, एओवाए चेव खलु एस जुतो जत्तो ति। एयमायण्णिऊण संविग्गा नायरया, पवन्ना केइ मगं, निबद्धाई बाहिबोयाई। अवेक्खिऊण कुमारस्स महाणुभावयं विम्हिया चित्तेण पडिबद्धा कुमारे, उवरया नच्चियवाओ, वावडा साहुवाए, पयट्टा जहोचियं करणिज्ज ।
एत्यंतरम्मि देवसेणमाहणाओ इमं वइयरमायण्णिऊण अहिययरभीएण राइणा कुमाराहवणनिमित्तं पेसिओ पडिहारो। समागओ एसो, भणियं च णेण-कुमार, महाराओ आणवेइ, जहा कुमारेण सिग्घमागंतव्वं ति। कमारेण भणियं-जं गुरू आणवेइ । भणिओ य सारही--अज्ज सारहि, नियतेहि रहवरं। 'जं कमारो आणवेइ' त्ति नियत्तिओ सारहिणा रहवरो। गओ नरवइसमीवं। पणमिओ ण राया। उवविट्टो तयंतिए, भणिओ य ण-कुमार, भणिस्सामि किंचि अहं कुमारं; ता अवस्समेव तं कायव्वं कुमारेण । कुमारेण भणियं--ताय, अलंघणीयवयणा गुरवो, न एवं संततभारारोवणे कारणमवगच्छामि । अहवा कि ममेइणा, अमीमंसा गुरू; सव्वहा जं
ततः सर्वसाधारणे एतस्मिन्नशोभने प्रकृत्याभकारके एकान्तेन विद्यमानोपायेऽचिन्तयित्वैतमलमनेन नतितेन, एतदुपाये एव खल्वेष युक्तो यत्न इति । एवमाकर्ण्य संविग्ना नागरकाः, प्रपन्ना: केऽपि मार्गम्, निबद्धानि बोधिबोजानि । अवेक्ष्य कुमारस्य महानुभावतां विस्मिताश्चित्तेन प्रतिबद्धाः कुमारे, उपरता नर्तितव्याद्, व्यापृताः साधुवादे, प्रवृत्ता यथोचितं करणीयम् । - अत्रान्तरे देवसेनब्राह्मणादिमं व्यतिकरमाकाधिकतरभीतेन राज्ञा कुमाराह्वाननिमित्तं प्रेषितः प्रतीहारः । समागत एषः, भणितं च तेन-कुमार ! महाराज आज्ञ पयति, यथा कुमारेण शीघ्रमागन्तव्यमिति । कमारेण भणितम् यद् गुरुराज्ञापयति । भणितश्च सारथिः-आर्य सारथे ! निवर्तय रथवरम् । 'यत् कुमार आज्ञ पयत' इति निवर्तितः सारथिना रथवरः । गतो नरपतिसमीपम् । प्रणतस्तेन राजा। उपविष्टस्तदन्तिके, भणितश्च तेन-कुमार ! भणिष्यामि किञ्चिदहं कमारम्, ततोऽवश्यमेव तत् कर्तव्य मेव कुमारेण। कुमारेण भणितम् - तात ! अलङ्घनीयवचना गुरवः, न एवं सन्ततभारारोपणे कारणमवगच्छामि । अथवा किं ममैतेन, अमीमांस्या गुरवः, सर्वथा
है तो सर्वसाधरण के लिए यह अशोभन होने, स्वभाव से अपकारी होने तथा एकान्त से उपाय विद्यमान होने पर ऐसे न सोचकर, इस नाचने से बस अर्थात् यह नाचना व्यर्थ है, इस उपाय में ही यह यत्न ठीक है।' यह सुनकर कुछ नागरिक उद्विग्न हुए, कुछ लोग मार्ग को प्राप्त हुए, ज्ञान के बीज बाँधे, कुमार को महानुभावता, देख कर चित्त से विस्मित हुए, कुमार से बँध गये,नृत्य से विरत हो गये, 'सच है सच है-ऐसा कहने लग गये, यथायोग्य कार्यों में लग गये ।
इसी बीच देवसेन ब्राह्मण से इस घटना को सुनकर अत्यधिक भयभीत राजा ने कुमार को बुलाने के लिए प्रतीहार भेजा । यह आया और इसने कहा - 'कुमार ! महाराज आज्ञा देते हैं कि कुमार शीघ्र आयें।' कुमार ने कहा-'पिताजी की जैसी आज्ञा।' सारथी से कहा-'आर्य सारथी ! रथ को लौटाओ।' 'कुमार की जो आज्ञा' ऐसा कहकर सारथी ने रथ लौटाया। कुमार राजा के पास गया। उसने राजा को प्रणाम किया, उनके पास बैठा । राजा ने कहा-'कुमार ! मैं कुमार से कुछ कहूँगा अतः कुमार को उसे अवश्य करना चाहिए।' कुमार ने कहा- 'पिताजी ! माता-पिता के वचन न लंघन करने योग्य होते हैं, इस प्रकार के निरन्तर भार के आरोपण का कारण नहीं जानता हूँ अथवा मुझे इससे क्या, बड़ों की आज्ञा के विषय में कुछ वितर्क नहीं करना चाहिए, जो आप
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