SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 278
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८२८ [समराइच्चकहा एवं चिय देहवहे उवयारे वा वि पुण्णपावाई । इहरा घडाइभंगाइनायओ नेव जुज्जति ॥२५॥ तयभिन्नम्मि य नियमा तन्नासे तस्स पावइ नासो। इहपरलोगाभावा बंधादीणं अभावाओ॥८२६॥ देहेणं देहम्मि य उवभायाणुग्गहाइ बंधादी। न पुण अमुत्तो मुत्तत्स अप्पणो कुणइ किंचिदवि ।।८२७॥ अकरेंतो य न बज्झइ अइप्पसंगा सदेव भावाओ। तम्हा भेयाभए जीवसरोराण बंधाई ।।८२८॥ मोक्खो वि य बद्धस्सा तयभावे स कह कीम वा न सया। किं वा हेऊहि तहा कहं व सो होइ पुरिसत्यो॥२६॥ तम्हा बद्धस्स तओ बधो वि अणाइमं पवाहेण । इहरा तदभावम्मी पुत्वं चिय मोक्ख संसिद्धी ॥८३०॥ एवमेव देहवधे उपकारे वाऽपि पुण्यपापे । इतरथा घटादिभङ्गादिज्ञातत नैव यज्यते ।।८२५॥ तदभिन्ने च नियमात् तन्नाशे तस्य प्राप्नोति नाशः । इहपरलोकाभावात् बन्धादीनामभावात् ।।८२६॥ देहेन देहे चोपघातानुग्रहादिबन्धादयः । न पुनरमूर्तो मूर्तस्यात्मनः करोति किञ्चिदपि ॥८२७॥ अकुर्वश्च न बध्यतेऽतिप्रसङ्ग त् सदैव भावात् । तस्माद भेदाभेदे जीवशरीरयोर्बन्धादिः ।।८२८॥ मोक्षोऽपि च बद्धस्य तदभावे म कथं कस्माद्वा न सदा। किं वा हेतुभिस्तथा कथं वा स भवति पुरुषार्थः ।।८२६॥ तस्माद् बद्धस्य ततो बन्धोप्यनादिमान् प्रवाहेण । इतरथा तदभावे पूर्वमेव मोक्षसंसद्धिः ।।८३०।। के कारण उसे वह पाप नहीं लगता। इस प्रकार देह का वध होने अथवा उसका उपकार होने पर भी उसे पुण्य और पाप की प्राप्ति युक्त नहीं है। जैसे घटादि के नाश से पुण्य-पाप की प्राप्ति नहीं होती। शरीर और आत्मा के एक होने अथवा मिली-जली स्थिति होने पर शरीर का नाश होने पर कथंचित् आत्मा का नाश होता है। यदि बन्धादि को नहीं मानोगे तो इहलोक और परलोक का अभाव हो जायेगा। तथा देह से देह का उपघात, अनुग्रह एवं बन्धादि होते हैं। अमूर्त आत्मा का मूर्त कुछ भी (उपकार वगैरह नहीं करता है। न करता हुआ विद्यमान होने से सदैव अतिप्रसंग दोष से युक्त नहीं होता है । अत: भेदाभेद मानने पर जीव और शरीर के बन्धादि हैं। मोक्ष भी बद्ध का होता है, सदैव से मोक्ष नहीं है । बन्धन न हो तो मोक्ष कैसे और किससे होगा ? अथवा किस हेतु से (अथवा) कैसे मोक्ष पुरुषार्थ होगा ? अत: बद्ध का बन्ध भी प्रवाह से अनादि है। यदि ऐसा नहीं मानोगे, भिन्न प्रकार से मानोगे तो पहले ही मोक्ष की सिद्धि हो जाना चाहिए ॥ ७८३.८३०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy