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अट्ठमो भवो]
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अणभयवतमाणो बंधो कयगत्तगाइमं कह न । जह उ अईलो कालो तहाविहो तह पवाहेण ॥८३१॥ दीसइ कम्मोवचओ संभवई तेण तस्स विगमो वि। कणामस्स य तेण उ मुरको मुक्को ति नायवो ॥३२॥ एमाइभाववाओ जत्थ तओ होइ तावमुद्धो ति। एस उनाएओ खलु बुद्धिमया धीरपुरिसेण ।।८३३॥ एयस्स उवायाणं काउ आसेविऊण भावेण । पत्ता अणंतजीवा सासयसोखं लहुं मोक्ख ॥८३४॥ ता पडिवजह सम्मं धम्ममिण भादओ मए भणियं । अन्चंतदुल्लहं खलु करेह सालं पणुयजम्मं । ८३५॥ इय भणिऊण जाए तुधिरके तवखणं जिणवरम्मि। परिसा कयंजलिउडा धणियं परिओसमावन्ना ॥८३६॥
अनुभूतवर्तमानो बन्धः कृतकत्वानादिमान कथं नु । यथा त्वतोतः कालस्तथाविधस्तथा प्रवाहेण । ८३१॥ दृश्यते कर्मोपचयः सम्भवति तेन तस्य धिगमोऽपि । कनकमलस्य च तेन तु मुक्तो मुक्त इति ज्ञातव्यः ।। ८३२।। एवमादिभाववादो यत्र ततो भवति तापशद्ध इति । एष उपादेयः खलु बुद्धिमता धीरपुरुषण ।।८३३॥ एतस्योपादानं कर्तुमासेव्ध भावेन । प्राप्ता अनन्ता जीवा शाश्वत पौख्यं लघु मोक्षम् ।।८३४।। ततः प्रतिपद्यध्वं सम्यग् धर्ममिमं भावतो मया भणितम । अत्यन्तदुर्लभं खलु कुरुत सफलं मनु नजन्म १८३५॥ इति भणित्वा जाते तूष्णिके तत्क्षणं जिनवरे । परिषत् कृताञ्जलिपुटा गाढं परितोषमापन्ना ।। ८३६॥
शंका – अनुभव किया हुआ और वर्तमान बन्ध कृतक होने से अनादि कैसे है ? समाधान-जैसे अतीत और वर्तमान समय का प्रवाह चला आ रहा है उसी प्रकार से कर्मों का बन्ध अनादि है। देखा जाता है कि कर्मों की वृद्धि सम्भव है अत: उसका नाश भी सम्भव है। जैसे स्वर्ण मल से मुक्त होवर ही मुबत कहा जाता है उसी प्रकार जीव भी कर्म-बन्धन से मुक्त होकर मुक्त कहलाता है। जैसे सोला अग्नि में शुद्ध होता है उसी प्रकार जीव भी ध्यानाग्नि आदि के द्वारा शुद्ध हो जाता है - ऐमा बुद्धिमान और धीर पुरुष को निश्चित रूप से ग्रहण करना चाहिए। सेवन करने के भाव से इसे ग्रहण कर अनन्त जीन शाएवन सुखवाले मोक्ष को शीघ्र प्राप्त हुए हैं। अत: मेरे द्वारा कहे गये इस धर्म को भलीप्रकार से भावपूर्वक प्राप्त करो और अत्यन्त दुर्लभ मनुष्यजन्म को निश्चित रूप से सफल करो। मा कहकर उसी क्षण जिनवर के मौन हो जाने पर सभा अलि
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