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[ समराइच्चकहा
धरणिनमिउतिमंगा इच्छामो सासणं ति जपती। उन्नामियमहकमला पुणो वि ठाणं गया निययं ।।८३७॥ तत्थ य केइ पवन्ना सम्मत्तं देसविरइवयमन्ने । अन्ने उ चत्तसंगा जाया समणा समियपावा ।।८३८॥ एत्थंतरम्मि य मए दिट्ठा देवी तहि समोसरणे । जाया य मज्झ चिता हंत कुओ एत्थ देवि त्ति ।।८३६॥ सरियं च मन्तसिद्धस्स तं मए पुटवमंतिथं वयणं । परिधितियं च एत्थं पुच्छामि जिणं नियाणं ति ॥८४०॥ कि पुण मए कयं परभवम्मि जस्सोइसो विवागो ति। देवीविरहम्मि दढं अणहूयं दारुणं दुक्खं ।।८४१॥ परिपुच्छिओ य एयं नमिऊण मए जिणो निरवसेसं । पुवकय कम्मदोसं तओ वि इय कहिउमाहत्तो॥८४२॥
धरणीनतोत्तमाङ्गा इच्छामः शासन मिति जल्पन्ती। उन्नामितमुखकमला पुनरपि स्थानं गता निजकम् ।।८३७।। तत्र च केऽपि प्रपन्नाः सम्यक्त्वं देशविरतिव्रतमन्ये । अन्ये तु त्यक्त सङ्गा जाता: श्रमणाः शमितपापाः ॥८३८॥ अत्रान्तरे च मया दृष्टा देवी तत्र समवसरणे । जाता च मम चिन्ता हन्त कुतोऽत्र देवीति ।। ८३६॥ स्मृतं च मन्त्रसिद्धस्य तन्मया पूर्वमन्त्रितं वचनम् । परिचिन्तितं चात्र पृच्छामि जिनं निदान मिति ।।८४०।। किं पुनर्म या कृतं परभवे यस्पेदशो विपाक इति । देवीविरहे दृढमनुभूतं दारुणं दुःखम् ॥८४१।। परिपष्टश्चैतद् नत्वा मया जिनो निरवशेषम् । पूर्वकृतकर्म दोषं ततोऽपीति कथयितुमारब्धः ॥८४२॥
बाँधकर सन्तोष को प्राप्त हुई। पृथ्वी पर सिर रखकर 'शासन की इच्छा करते हैं'---ऐसा कहती हुई सभा मुखकमल को ऊँचा कर पुन: अपने स्थान चली गयी। वहाँ पर कुछ लोग सम्यक्त्व को प्राप्त हुए. कुछ लोग देशविरतिव्रत को प्राप्त हुए। दुसरे पापों को शान्त कर परिग्रह त्यागकर श्रमण हो गये। इसी बीच वहाँ समवसरण में मैंने महारानी को देखा और मुझे चिन्ता हुई कि हन्त ! देवी यहाँ कहाँ से ? मन्त्रसिद्ध करनेवाले का पह ने कहा हुआ वह वचन मुझे याद आया और मैंने सोचा कि मैं यहाँ जिनेन्द्र भगवान् से कारण पूडूंगा कि मैंने परभव में क्या किया था जिसका ऐसा फल हुआ कि महारानी के विरह से अत्यन्त दारुण दुःख का अनुभव किया। मैंने जिनेन्द्र को नमस्कार कर सम्पूर्ण रूप से यह पूर्वकृत कर्म का दोष पूछा। अनन्तर उन्होंने कहना
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