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अट्ठमो भवो ]
अस्थि इहेव गिरिवरो जम्बुद्दीवम्मि भारहे वासे । विको' त्ति सिहरसंचयपज्जलियम होसहिसणाहो ॥। ८४३ ॥ दरियगय दलिय परिणय हरियंदण सुरहिपसरियामोओ । फल पुट्ठतरुवर द्वियविहंगण विरुयसद्दालो || ८४४ | नामेण सिहरसेणो तत्थ तुम आसि सबरराओ त्ति । बहुसत्तघायणरओ अच्चतविसयगिद्धो य ॥ ८४५॥ तत्थ अणेगाणि तुमे वराहबसपसयहरिणजुयलाई । रणे विओइयाई भीयाइ सुहाभिलासीणि ॥ ८४६ ॥ देवी वि य ते एसा तुह जाया आसि सिरिमई नाम | वक्कलदुगुल्लवसणा गुंजाफलमालियाहरणा ॥ ८४७ ॥ स तु इमीए सद्धि सच्छंद गिरिनिउंजदेसेसु । विसयहमणहवंतो चिट्ठसि काले निदाहम्मि ||८४८॥
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अस्तीहैव गिरिवरो जम्बूद्वीपे भारते वर्षे | विन्ध्य इति शिखरसंचयप्रज्वलितमहौषधिसनाथः ॥ ८४३ ॥ दृप्तगजदलित परिणत हरिचन्दनसुरभिप्रसृतामोदः । फलपुष्टतरुवर स्थितविहङ्गगणविरुतशब्दवान् ॥ ८४४|| नाम्ना शिखरसेनस्तत्र त्वमासीः शबरराज इति । बहुसत्त्वघातन रतोऽत्यन्त विषयगृद्धश्च ||८४५|| तवानेकानि त्वया वराहवृषपस यहरिणयुगलानि । अरण्ये वियोजितानि भोतानि सुखाभिलाषोणि ॥। ८४६ || देव्यपि च ते एषा तव जायाऽऽसीत् श्रीमती नाम | वल्कलदुकूलवसना गुञ्जाफलमालिकाभरणा || ८४७ || सत्वमनया सार्धं स्वच्छन्दं गिरिनिकुञ्जदेशेषु । विषयसुखमनुभवन् तिष्ठसि काले निदाधे ||८४८ ॥
प्रारम्भ किया -- इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में शिखरों के समूह से देदीप्यमान महौषधियों से युक्त विन्ध्य नामक पर्वत है । वह गर्वीले हाथियों द्वारा तोड़े गये पके हरिचन्दन की सुगन्धित के विस्तार से सुगन्धित है, फलों से पुष्ट श्रेष्ठ वृक्षों पर स्थित पक्षीगणों के शब्दों से शब्दायमान । वहाँ पर तुम अनेक प्राणियों की हिंसा में रत और विषयों के प्रति अत्यन्त आसक्त शिखरसेन नाम के शबर- नरेश थे। उस जंगल में तुमने भयभीत और सुख के अभिलाषी शकर, सांड़, पसय ( मृगविशेष) और हरिणों के जोड़ों को अलग किया । यह महारानी भी तुम्हारी श्रीमती नामक स्त्री थी। वह वल्कल ( पेड़ की छाल के वस्त्र ) और रेशमीवस्त्र धारण करती थी, गुंजाफल की माला उसका आभूषण थी। तुम इसके साथ स्वच्छन्द रूप से ग्रीष्म ऋतु में पर्वतीय निकुंजों में
१. विज्झो सि-डे ज्ञा, पा. ज्ञा. ।
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