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[समराइवकहा
एत्थंतरम्मि एक्को गच्छो साहण पहपरिब्भट्ठो। परिखीणो हिंडतो तं देसं आगओ नवरं ॥८४६॥ दठूण साहुगच्छं अणुगंपा तुह मणम्मि उप्पन्ना। हा कि भमंति एए अइविसमे विझकंतारे ॥८५०॥ गंतूण पुच्छ्यिा ते कि हिंडह एत्थ विझरणम्नि। साहूहि तओ भणियं सावय पंथाउ पन्भट्टा ॥८५१॥ भणिओ य सिरिमईए तं सामि महातवस्सिणो एए। उत्तारेहि सपुग्णे भीमाओ विझरण्णाओ८५२॥ पोणेहि य फलमलाइएहि अइविसमतवपरिक्खीणे। नणं निहाणलम्भो एस तुह पणामिओ विहिणा ॥८५३॥ इय भणिएण ससंभमहरिसवसपयट्टपयडपुलएणं। उवणीयाइ सविणयं 'पेसलफलमूलकंदाई ।।८५४॥
अत्रान्तरे एको गच्छ: साधनां पथपरिभ्रष्ट: । परिक्षीणो हिण्डमानस्तं देशमागतो नबरम् ।। ८४६।। दृष्ट्वा साधुगच्छमनुकम्पा तत्र मनस्यत्पन्ना। हा कि भ्रमन्त्येते अतिविषमे विन्ध्य कान्तारे ।।८५०॥ गत्वा पृष्टास्ते कि हिण्डध्वमत्र विन्ध्यारण्ये। साधुभिस्ततो भणित श्रावक ! पथः प्रभ्रष्टाः ८५१॥ भणितश्च श्रीमत्या त्वं स्वामिन् ! महातपस्विन एतान् । उत्तारय सपुण्यान भीमाद विन्ध्यारण्यात् ।।८५२।। प्रोणय च फलमूलादिभिरतिविष तपःपरिक्षोणान् । नूनं निधानलाभ एष तवार्पितो विधिना ॥८५३॥ इति भणितेन ससम्भ्रमहर्षवश प्रवृत्तप्रकट पुल केन । उपनो तानि सविनयं पेशलफलमूलकन्दानि ।।८५४।।
विषयसुख का अनुभव करते हुए रहते थे। इसी बीच साधुओं का एक समूह (गच्छ) रास्ता भूलकर अत्यन्त दुर्बल हुआ, भटकते हुए उस स्थान पर आया। साधुसमूह को देखकर तुम्हारे मन में दया उत्पन्न हुई। हाय ! ये अत्यन्त भयंकर विन्ध्याचल के जंगल में क्यों भ्रमण कर रहे हैं ? जाकर उनसे पूछा कि इस विन्ध्यारण्य में आप लोग क्यों घूम रहे हैं ? तब साधुओं ने कहा कि हे श्रावक ! हम रास्ता भूल गये हैं। श्रीमती ने तुमसे कहा ---स्वामी ! इन उत्तम पुण्यवाले महान् तपस्वियों को भयंकर विन्ध्यारण्य से उतारो। अत्यन्त विषम तप से दुर्बल हुए इन्हें फल मूलादि से तृप्त करो। तुम्हारी इस प्रकार की दान देने की विधि से निश्चित रूप से सम्पत्ति का लाभ होगा। इस प्रकार से कहा गया वह शबरराज शीघ्र ही हर्षवश रोमांचित होता हुआ विनयपूर्व क
१. पसल-डे. ज्ञा. पा. ज्ञा. ।
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