SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 283
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अठमो भवो ] साहूहि तओ भणियं सावय नेयाणि कप्पणिज्जाणि । अम्हाण जिणवरेह जम्हा समए निसिद्धाणि ॥८५५॥ भणिय तुम तह वि य तुम्भेहि अणुग्गहो उ कायव्वो । अन्नकण गाढं निव्वेओ होइ अम्हाणं ॥ ८५६ ॥ परियाणिऊण भावं नवरं सद्धालयाण गुणजुत्तं । तेहि अणुग्गहत्थं कज्जं हिययम्मि काऊणं ॥ ८५७॥ साहूहि तओ भणियं जइ एवं विगयवण्णगंधाई । ता अम्ह देह नवरं फलाइ चिरकालगहियाई ॥ ८५८ ॥ इ भणिणं तुमए सिग्धं गिरिकंदराउ घेत्तूण | पडिलाहिया तवस्सी परिणयफलमूलकंदेहिं ॥ ८५ ॥ पंथम्म पाडिया तह जायासहिएण सुद्धभावेण । मन्नंतेण कयत्थं अप्पाणं जीवलोगम्मि ॥८६० ॥ Jain Education International साधुभिस्ततो भणितं श्रावक ! नेतानि कल्पनीयानि । अस्माकं जिनवरैर्यस्मात्समये निषिद्धानि ॥ ८५५॥ भणितं त्वया तथापि च युष्माभिरनुग्रहस्तु कर्तव्यः । अन्यथाकृतेन गाढं निर्वेदो भवति अस्माकम् । ८५६ ॥ परिज्ञाय भावं नवरं श्रद्धालुकानां गुणयुक्तम् । तैरनुग्रहार्थं कार्यं हृदये कृत्वा ॥८५७|| साधुभिस्ततो भणितं यद्येवं विगतवर्णगन्धानि । ततोऽस्माकं दत्त नवरं फलानि चिरकालगृहीतानि ||८५८ || इति भणितेन त्वया शीघ्र गिरिकन्दराद् गृहीत्वा । प्रतिलाभिताः तपश्विनः परिणत फलमूलकन्दैः ।। ८५६ ॥ पथि पातितास्तथा जायासहितेन शुद्धभावेन । मन्यमानेन कृतार्थमात्मानं जीवलोके ॥ ८६०॥ सुन्दर कन्दमूल फल ले आया । तब साधुओं ने कहा - 'हे श्रावक ! इन्हें ग्रहण नहीं करेंगे, क्योंकि हमारे जिनवरों शास्त्रों में इनका निषेध किया है।' तुमने कहा- - ' तो भी आप लोग अनुग्रह करें, यदि अनुग्रह नहीं करेंगे तो हम लोगों को अत्यधिक दुःख होगा ।' श्रद्धालुओं के गुणयुक्त भावों को जानकर उन पर अनुग्रह करने का मन में निश्चय कर साधुओं ने कहा- 'यदि ऐसा है तो हम लोगों को वर्ण और गन्ध से रहित बहुत पहले ग्रहण किये गये फलों को दो । ऐसा कहे जाने पर तुमने शीघ्र ही पर्वतीय गुफा से पके फल, मूल और कन्द लेकर तपस्वियों को प्राप्त कराये तथा अपने को संसार में कृतार्थं मानते हुए पत्नी सहित तुमने शुद्ध भाव से मुनियों को रास्ते में ७३३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy