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सत्तमो भवो ]
नामं दारयस्स सेणो त्ति । अइक्कंतो संवच्छरो ।
एत्यंत रम्म सो लच्छी जीवनारओ तओ 'नरयाओ उव्वट्टिय पुणो य संसारमा हिडिय अणंतरभवे तहाविहं किंपि अणुट्ठाणं काऊण समुप्पन्नो अमरसेणभाउणो हरिसेणजुवरायस्स तारप्पहाए भारिया कुच्छसि पुत्तत्ताए ति । जाओ उचियसमएणं । पइट्ठावियं च से नामं विसेणो त्ति । अइariat को कालो | afडओ कुमारसेणो देहोवचएणं कलाकलावेण य । अत्थि य इमस्स पीई विसेणकुमारे, न उण तस्स इयरम्मि ।
अन्न समुद्धइओ नयरीए जयजयरवो, अहिट्ठियं नहयलं सुरसिद्धविज्जाहरेहिं, निर्वाडिया कुसुमबुट्ठी । तओ राइणा भणियं - भो भो किमेयं ति गवेसिऊण लहुं संवाएह । तओ गवेसिऊण निवेइयं से पडिहारे – देव, समुप्पन्नमेत्थ भूयभविस्सवत्तमाणत्थगाहयं सयललोयालोयविसयं साहूte hamari ति | आनंदिया नयरी, पमुइया सुरसिद्धविज्जाहरा थुणंति महुरवग्गूहि । एयं सोऊण देवोपमाणं ति । तओ हरिसिओ राया पयट्टो वंदनिमित्तं भयवईए ।
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दारकस्य सेन इति । अतिक्रान्तः संवत्सरः ।
अत्रान्तरेस लक्ष्मीजीवनारकस्ततो नरकादुद्धृत्य पुनश्च संसारमा हिण्ड्यानन्तरभवे तथाविधं किमप्यनुष्ठानं कृत्वा समुत्पन्नोऽमरसेन भ्रातुर्हरिषेणयुवराजस्य तारप्रभाया भार्यायाः कुक्षौ पुत्रः तयेति । जात उचितसमयेन । प्रतिष्ठापितं च तस्य नाम विषेण इति । अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । वृद्धः कुमारसेनो देहोपचयेन कलाकलापेन च । अस्ति चास्य प्रीतिर्विषेणकुमारे, न पुनस्तस्येतरस्मिन् ।
अन्यदा च समुद्धावितो जयजयरवः, अधिष्ठितं नभस्तलं सुरसिद्धविद्याधरैः, निपतिता कुसुमवृष्टिः । ततो राज्ञा भणितम् - भो भोः किमेतदिति गवेषयित्वा लघु संवादयत । ततो गवेषयित्वा निवेदितं तस्य प्रतीहारेण - देव ! समुत्पन्नमत्र भूतभविष्यद्वर्तमानार्थग्राहकं सकललोकालोकविषयं साध्व्याः केवलज्ञानमिति । आनन्दिता नगरी, प्रमुदिता सुरसिद्धविद्याधराः स्तुवन्ति मधुरवाग्भिः । तछत्वा देवः प्रमाणमिति । ततो हर्षितो राजा प्रवृत्तो वन्दननिमित्तं भगवत्याः ।
व्यतीत हुआ । पुत्र का नाम सेन रखा गया। एक वर्ष बीता ।
इसी बीच वह लक्ष्मी का जीव नारकी उस नरक से निकलकर पुनः संसार में घूमकर अनन्तर भव में उस प्रकार का कोई अनुष्ठान करके अमरसेन के भाई हरिषेण युवराज की तारप्रभा नामक स्त्री के गर्भ में पुत्र के रूप में आया । उचित समय पर उत्पन्न हुआ । उसका नाम विषेण रखा गया । कुछ समय बीता । कुमार सेन कलाओं के समूह और वृद्धि को प्राप्त होता गया । सेन की विषेणकुमार के प्रति तो प्रीति थी, किन्तु विषेण की सेन के प्रति प्रीति नहीं थी ।
एक बार 'जय जय' शब्द उठा। आकाश सुर, सिद्ध और विद्याधरों से अधिष्ठित हो गया । फूलों की वर्षा हुई । अनन्तर राजा ने कहा - 'हे हे ! यह क्या है ? पता लगाकर शीघ्र ही कहो ।' अनन्तर पता लगाकर उससे प्रतीहार ने कहा - 'महाराज ! यहाँ पर भूत, भविष्यत् और वर्तमान कालीन पदार्थ को जाननेवाला, समस्त लोक और अलोक को विषय करनेवाला केवलज्ञान एक साध्वी के उत्पन्न हुआ है। नगरी आनन्दित है, प्रमुदित होकर देव, सिद्ध तथा विद्याधर मधुरवचनों से स्तुति कर रहे हैं । यह सुनकर महाराज प्रमाण हैं । तब राजा हर्षित होकर भगवती की वन्दना के लिए गया ।
१. निरयाओ-ख । २ समुट्ठाइओ क
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