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________________ ५५४ [समराइच्चकहा तस्स सयलंतेउरपहाणा जयसुंदरी नाम भारिया । स इमीए सह विसयसुहमणुहवंतो' चिट्ठइ। ___ इओ य सो आरणकप्पवासी देवो अहाउयं पालिऊण तओ चुओ समाणो जयसुंदरीए गब्भम्मि उववन्नो ति। दि@ो य णाए सुविणयम्मि तीए चेव रयणीए पहायसमयम्मि कणयमयतुंगदंडो अणेयरयणभूसिओ देवदूसावलंबियपडाओ महूरपवणंदोलिरो निवासो व्व रम्मयाए भूसणं विय नहयलस्स उप्पत्ती विय विभ्हयाणं चक्करयणचूडामणी महाधओ वयणेणमुयरं पविसमाणो ति । पासिऊण तं सुहविउद्धा एसा। सिट्ठो य णाए जहाविहिं दइयस्स। हरिसवसपयट्टपुलएण भणिया य णं सुंदरि, सयलनरिंदकेउभूओ पुत्तो ते भविस्सइ। पडिस्सुमिमीए। अहिययरं परितुट्ठा एसा। तओ य सविसेसं तिवग्गसंपायणरयाए पत्तो पसूइसमओ। पसूया एसा । जाओ से दारओ। निवेइयं च राइणो अमरसेणस्स हरिसमइनामाए चेडियाए, जहा 'महाराय, देवी जयसुंदरी दारयं पसूय' ति । परितुट्ठो राया। दिन्नं इमीए पारितोसियं। कयं उचियकरणिज्ज। अइक्कतो मासो। पइट्ठावियं तस्य सकलान्तःपुरप्रधाना जयसुन्दरी नाम भार्या । सोऽनया सह विषयसुखमनुभवन् तिष्ठति। इतश्च स आरण कल्पवासी देवो यथायुः पालयित्वा ततश्च्युतः सन् जयसुन्दर्या गर्भे उपपन्न इति । दृष्टश्चानया स्वप्ने तस्यामेव र जन्यां प्रभातसमये कनकमयतुङ्गदण्डोऽनेकरत्नभूषितो देवदुष्यावलम्बितपताको मधुरपवनान्दोलनशीलो निवास इव रम्यताया भूषणमिव नभस्तलस्य उत्पत्तिरिव विस्मयानां चक्ररत्नचूडामणिमहाध्वजो वदनेनोदरं प्रविशन्निति । दृष्ट्वा तं सुखविबुद्धषा । शिष्टश्चानया यथाविधि दयिताय। हर्षवशप्रवृत्तपुलकेन भणिता च तेन - सुन्दरि ! सकलनरेन्द्रकेतुभूतः पुत्रस्ते भविष्यति । प्रतिश्रुतमनया। अधिकतरं परितुष्टषा । ततश्च सविशेष त्रिवर्गसम्पादनरतायाः प्राप्तः प्रसूतिसमयः । प्रसूतैषा। जातस्तस्य दारकः । निवेदितं च राज्ञोऽमरसेनस्य हर्षवतीनामया चेटिकया, यथा ‘महाराज ! देवी जयसुन्दरी दारकं प्रसूतेति।' परितुष्टो राजा। दत्तमस्य पारितोषिकम् । कृतमुचितकरणीयम्। अतिक्रान्तो मासः। प्रतिष्ठापितं नाम उसकी समस्त अन्तःपुर में प्रधान जयसुन्दरी नामक पत्नी थी। वह इसके साथ विषय मुख का अनुभव करते हुए रहता था। ___ इधर वह आरण स्वर्ग का वासी देव आयु पूर्ण कर वहाँ से च्युत होकर जयसुन्दरी के गर्भ में आया । इसने स्वप्न में उसी रात्रि को प्रात: समय महाध्वज को मुख से उदर में प्रवेश करते हुए देखा। वह ध्वज स्वर्णमय उन्नत दण्डवाला था, अनेक रत्नों से भूषित था, देववस्त्र की लटकती हुई पताकावाला था और मधुर पवन से फहरा रहा था। वह रम्यता का मानो निवास, आकाश का मानो भूषण, विस्मयों का मानो उद्गमस्थल तथा चक्ररत्न रूपी चूडामणि से युक्त था। उसे देखकर यह सुखपूर्वक जाग गयी। इसने विधिपूर्वक स्वामी से निवेदन किया। हर्ष के वश जिसे रोमांच हो आया है. ऐसे राजा ने उससे कहा--'सून्दरि ! समस्त राजाओं के ध्वज के समान (अग्रणी) तुम्हारा पुत्र होगा।' इसने स्वीकार किया। यह अत्यधिक सन्तुष्ट हुई। अनन्तर विशेष रूप से धर्म, अर्थ और काम के सम्पादन में रत रहते हुए इसका प्रसूतिसमय आया। इसने प्रसव किया। इसके पुत्र उत्पन्न हुआ। हर्षवती नामक दासी ने अमरसेन राजा से निवेदन किया कि महाराज ! देवी जयसुन्दरी के पुत्र उत्पन्न हुआ है। राजा सन्तुष्ट हुआ। (उसने) दासी को पारितोषिक दिया। योग्य क्रियाओं को किया । एक मास १. मणुहविसु त्ति-क। .. सिमिणयम्मि-के । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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