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________________ | सत्तमो भवो ॥ वक्खायं जं भणियं धरणो लच्छी य 'तह य पइभज्जा । एतो सेणविसेणा पित्तियपुत्त त्ति वोच्छामि ।। ५५५ ।। अथ व जम्बुद्दीवे दीवे भारहे वासे सेसफणाभोयसन्निहेण पायारेण हिमगिरिसिहरसरिसेहि भवणेहि लहुइयनंदणवणेह उववणेहिं विणिज्जिय माणससरेहिं सरेहिं चंपा नाम नयरी । जीए अहिद्वाणं विय रुवस्स बीयं विय सुंदरयाए जोणी विय विणयस्स चेट्टियं विय मयरकेउणो संसारम्मि विरमणीय बुद्विजणओ इत्थियायणो । जोए य अपिसुणो अमच्छरो कयन्नू दक्खो सुहाभिगमणोओ पुरिसवग्गो | तीए य दरियारिमद्दणो अनरसेणो नाम नरवई होत्था । जो माणविक्कमपणो पसाहिया से सदिसिवहुभएन । ईसानडियाए व निच्चमेव लच्छीए 'उवऊढो ।। ५५६ ॥ व्याख्यातं यद् भणितं धरणो लक्ष्मीश्च तथा च पतिभार्ये । इतः सेनविषेण पितृव्यपुत्राविति वक्ष्ये ।। ५५५ ॥ अस्तीहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे शेषफणाभोगसन्निभेन प्राकारेण हिमगिरिशिखरसदृशैर्भवनैर्लघूकृतनन्दनवनै रुप वनैर्विनिर्जितमानसरोभिः सरोभिः सुशोभिता चम्पा नाम नगरी । यस्यामधिष्ठानमिव रूपस्य बीजमिव सुन्दरताया योनिरिव विनयस्य चेष्टितमिव मकरकेतोः संस। रेsपि रमणीयबुद्धिजनकः स्त्रीजनः । यस्यां चापिशुनोऽमत्सरी कृतज्ञो दक्षः सुखाधिगमनीयः पुरुषवर्गः । तस्यां च दृप्ता रिमर्दनोऽमरसेनो नाम नरपतिरभवत् । यो मानविक्रमवनः प्रसाधिताशेषदिग्वधूभयेन । ईर्ष्याव्याकुलयेव नित्यमेव लक्ष्म्योपगूढः ।। ५५६ ॥ धरण और लक्ष्मी के रूप में पति-पत्नी के विषय में जो कहा गया, उसकी व्याख्या हो चुकी । अब सेन और विषेण के रूप में चचेरे भाइयों के विषय में कहता हूँ ।। ५५५ ।। Jain Education International इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में शेषनाग के फण के समान विस्तारवाले प्राकार से हिमालय के शिखर के सदृश भवनों से, नन्दनवन को तिरस्कृत करनेवाले उपवनों से तथा मानसरोवर को जीतनेवाले सरोवरों से सुशोभित चम्पा नाम की नगरी है। जिसमें रूप की अधिष्ठान जैसी, सौन्दर्य की बीज जैसी, विनय की योनि जैसी, काम की चेष्टा जैसी तथा संसार में रमणीयता की बुद्धि उत्पन्न करनेवाली स्त्रियाँ थीं। जिस नगरी में पुरुष वर्ग कृतज्ञ, दक्ष तथा सुख से प्राप्त करने योग्य था, चुगलखोर और द्वेषी नहीं था, उस नगरी में अभिमानी शत्रुओं का मर्दन करनेवाला अमरसेन नामक राजा हुआ । वह राजा मान और पराक्रम रूप धन से युक्त था। सजी हुई समस्त दिशाओं रूप वधुओं के भय और ईर्ष्या के कारण ही मानो व्याकुल हुई लक्ष्मी से सदैव आलिङ्गित रहता था ।। ५५६ ।। १. तह पईक । २, पागारेण । ३. नरवती - क, ख । ४. अवऊढो - ख । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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