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________________ ५५२ [ समराइच्चकहा एए। बद्धा खु एसा । पेसिया सन्निवेसं। साहियं नरवइस्स । तेण वि य 'न पोइसज्झा रक्खसित्ति खाविऊण निययमंसं, विट्टालिऊण असुइणा, कयत्थिऊण नाणाविडंबणाहि, निभच्छिऊण य सरोसं तओ निव्वासिय ति । अलभमाणी य गामाइसु पवेसं परिब्भमंती अडवीए पुवकय कम्मपरिणामण विय घोररूवेण वावाइया मइंदे ग । समुप्पन्ना य एसा धूमप्पहाए निरयपुढवीए सत्तरससागरोवमट्ठिई नारगो त्ति। धरणो वि भगवं अहासंजमं विहरिऊण पवड्ढमाणसुहपरिणामो काऊण संलेहणं पवन्नो पायवगमणं । विवन्नो कालक्कमेणं, समुप्पन्नो आरणाभिहाणे देवलोए चंदकते विमाणे एक्कवीससागरोवमाऊ वेमाणिओ त्ति । छठे भवग्गहणं समत्तं ॥ श्चते । बद्धा खल्वेषा। प्रेषिता सन्निवेशम् । कथितं नरपतेः । तेनापि च 'न प्रीतिसाध्या राक्षसी' इति खादयित्वा निज मांसं संसृज्याशुचिना, कदर्थ यित्वा नानाविडम्बनाभिनिर्भय॑ च सरोषं ततो निर्वासितेति । अलभमाना च ग्रामादिषु प्रवेशं परिभ्रमन्त्यटव्यां पूवंकृतकर्मपरिणामेनेव घोररूपेण व्यापादिता मृगेन्द्रेण । समुत्पन्ना चैषा धूमप्रभायां निरयपृथिव्यां सप्त दशसागरोपमस्थिति रक इति । धरणोऽपि च भगवान् यथासंयमं विहृत्य प्रवर्धमानशुभपरिणामः कृत्वा संलेखनां प्रपन्नः पादपगमनम् । विपन्न: कालक्रमेण, समुत्पन्न आरणाभिधाने देव लोके चन्द्रकान्ते विमाने एकविंशतिसागरोपमायुर्वैमानिक इति। इति श्री किनीमहत्तरासूनु ारमगुणानुरागिभगवछोहरिभद्रसूरिविरचितायां समरादित्यकथायां पण्डितभगवानदासकृते संस्कृतछायानुवादे षष्ठो भवः समाप्तः । ने प्रबुद्ध किया । ये लोग उठे, इसे बांधा । सन्निवेश में भेजा। राजा से कहा । उसने भी 'राक्षसी प्रीति से साध्य नहीं होती है'..ऐसा सोचकर उसी का मांस खिलाकर, अपवित्र पदार्थों से संयोग कराकर, तरह तरह से अपमानित करके और फटकार कर रोषपूर्वक बाहर निकाल दिया । ग्रामादि में प्रवेश न पाने के कारण जंगल में भ्रमण करती हुई पूर्वकृत कर्मों के फलस्वरूप (उसे) घोररूप वाले सिंह ने मार डाला। यह धूमप्रभा नामक नरक की भूमि में उत्पन्न हुई, उसकी आयु सत्रह सागरोपम थी। वह भगवान् धरण भी संयमपूर्वक विहार करते हुए, शुभ परिणामों का विकास करते हुए, सल्लेखना को स्त्रीकार करके समाधिमरण को प्राप्त हुए । कालक्रम से मर कर आरण नामक स्वर्ग के चन्द्रकान्त नामक विमान में इक्कीस हजार सागरोपम आयुवाले वैमानिक देव हुए। इस प्रकार या किनीमहत्तरा के पुत्र, परमगुणों के अनुरागी भगवान् श्री हरिभद्रसूरि विरचित समरादित्य कथा का छठा भव समाप्त हआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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