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छट्ठो भवो ]
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गओ सुवणो । धरणाणुराएणय अज्जमंगुसमीवे सोऊण धम्मं परियाणिऊण मिच्छतं पच्छायावाणलदड्ढकम्मणो पवन्नो समणत्तणं । राया वि पूइऊण भयवंतं पविट्ठो नर्यार ।
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लच्छी वि महाभयाभिभूया पलाइऊण तामलित्तोओ अवहरियवसणालंकारा तक्करेहिं जाममत्ता सव्वरी पत्ता कुसत्यलाभिहाणं सन्निवेसं । तत्थ पुत्र होए चेव रयणीए पारद्धं पुरोहिएणं रायमहिसीए सव्वविग्घविधाययं चरुकम्मं । पज्जालिओ सन्निवे बाहिरियाए च उप्पहथंडिलम्मि जलणो, विष्णा निसियकड्ढया सिणो दिसावाला, समारोविओ नहभिन्नतं दुलसमेओ चरू, पत्थुओ मंतजावो एत्यंत रम्मि जलं तमवलोइऊण सत्यो, भस्सिइ त्ति' आगया लच्छी, सिवारावसमणंतरं च दिट्ठा दिसावाहि । पेच्छिऊण 'अहो एसा सा रक्खति' त्ति भीया य एए, मुक्काई मंडलग्गाई, थंभिया ऊरुया, पयंपियाओ भुयाओ, विमुक्का विय जीविएणं निर्वाडिया धरणिवट्टे । एत्थंतरम्मि 'भो भो मा बीहसु, इथिया अहं' ति भणमाणो समागया पुरोहियसमीवं । दिट्ठा विगयवसणा । तओ पोरुसमवलंबिऊण ' रक्खसी एस' त्ति केसेसु गहिया अणेणं । 'अरे मा बीहसु' त्ति विबोहिया दिसावाला । उट्टिया य
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सुवदनः । धरणानुरागेण च आर्यमङ्गुसमीपे श्रुत्वा धर्मं परिज्ञाय मिथ्यात्वं पश्चादनुतापानलदग्धकर्मेन्धनः प्रपन्नः श्रमणत्वम् । राजापि पूजयित्वा भगवन्तं प्रविष्टो नगरीम् ।
लक्ष्मीरपि महाभयाभिभूता पलाय्य ताम्रलिप्त्या अपहृतवसनालङ्कारास्तस्करैर्याममात्रायां शर्वर्यां प्राप्ता कुशस्थलाभिधानं सन्निवेशम् । तत्र पुनस्तस्यामेव रजन्यां प्रारब्धं पुरोहितेन राजमहिष्याः सर्वविघ्नविघातकं चस्कर्म । प्रज्वालितः सन्निवेशबाह्यायां चतुष्पथस्थण्डिले ज्वलन:, वितीर्णा निशितकृष्टासयो दिक्पालाः, समारोपितो नखभिन्नतन्दुलसमेतश्चरुः, प्रस्तुतो मन्त्रजापः । अत्रान्तरे ज्वलन्तमवलोक्य 'सार्थो भविष्यति' इत्यागता लक्ष्मीः । शिवारावसमनन्तरं च दृष्टा दिक्पालैः । प्रेक्ष्य 'अहो एषा सा राक्षसी' इति भीताश्चैते, मुक्तानि मण्डलाग्राणि, स्तम्भिता ऊरवः, प्रकम्पिता भुजाः । विमुक्ता इव जीवितेन निपतिता धरणीपृष्ठे । अत्रान्तरे 'भो भो ! मा बिभीत, स्त्री अहम्' इति भणन्ती समागता पुरोहितसमीपम् । दृष्टा विगतवसना । ततः पौरुषमवलम्ब्य 'राक्षसी एषा' इति केशेषु गृहीताऽनेन । 'अरे मा विभांत' इति विबोधिता दिवपालाः । उत्थिता
चला गया । धरण के प्रति अनुराग के कारण आर्य मङ्गु के समीप धर्म सुनकर, मिथ्यात्व के विषय में जानकारी प्राप्त कर, पश्चात्ताप के कारण जिसके कर्मों का ईंधन दग्ध हो रहा था, ऐसा वह मुनि हो गया। राजा भी भगवान की पूजा कर नगरी में प्रविष्ट हुआ ।
लक्ष्मी भी भय से अभिभूत होकर ताम्रलिप्ती से प्रहरमात्र में भागकर रात्रि में कुशस्थल नामक सन्निवेश में पहुँची । उसके वसन अलंकार वगैरह चोरों ने अपहरण कर लिये थे । उसी रात्रि में राजमहिषी ने पुरोहित से समस्त विघ्नों को नष्ट करनेवाला यज्ञ प्रारम्भ कराया । सन्निवेश के बाहरी भाग में यज्ञ के लिए चौरस की हुई भूमि में अग्नि जलायी । दिशाओं की रक्षा करने वाले, तीक्ष्ण तलवारों से युक्त दिक्पालों को नियुक्त किया । नखों से तोड़े गये चावलों से युक्त पूजन सामग्री को चढ़ाया। मन्त्र जाप प्रारम्भ किया। इसी बीच अग्नि को देखकर सुवदन होगा - ऐसा सोचकर लक्ष्मी आई और शृगाली की आवाज के बाद दिक्पालों ने (उसे ) देखा । देखकर - 'अरे, यह वही राक्षसी है— इस प्रकार ये लोग भयभीत हो गये । तलवारों को छोड़ा, जंघाएँ स्तम्भित हो गवीं, भुजाएँ काँपने लगीं । मानो प्राण छूट गये हों, इस प्रकार जमीन पर गिर पड़े। इसी बीच 'अरे अरे ! मत डरो—मैं स्त्री हूँ' - ऐसा कहती हुई पुरोहित के समीप आ गयी । ( इसे ) नग्न देखा । तब पौरुष का अवलम्बन कर 'यह राक्षसी है' - यह कहकर इसके बाल पकड़ लिये । 'अरे डरो मत' - ऐसा दिक्पालों
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