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[ सनराइचकहा अस्थि अवराहो । राइणा भणियं--को अवराहो । सुवयणेण भणियं - देव, तहाविहकलत्तसंगहो त्ति । राइणा भणियं-भो अभयमेव तुज्झ । ता साहेहि अवितह, को उण भयवओ तीए य वइयरोत्ति । निरूविओ सुवयणेण भयवं, पच्चभिन्नाओ य णेणं। तओ महापुरिसचरियविम्हयक्खित्तहियएणं बाहोल्ललोयणं जंपियमगणं-देव, अणाचिक्खणीओ वइयरो, ताण सक्कुणोमि आचिक्खिउं । राइणा भणियं-भद्द, ईइसो एस संसारो, किमेत्थ अपुव्वयं ति; ता साहेउ भद्दो। सुवयणेण भणियं-देव, जइ एवं, ता विवित्तमाइसउ देवो । तओ राइणा पुलोइओ परियणो ओसरिओ य । तओ धरणदंसणसंजायपच्छायावेण जंपियं सुवयणेणं- देव, पावकम्मो अहं पुरिससारमेओ, न उण पुरिसो ति। निवेइयं देवस्स-पुरिसो खु देव अकज्जायरणविरओ सच्चाहिसंधी कयन्नुओ परलोयभीरू परोवयारनिरओ य हवइ, जहा एस भयवं ति । राइणा भणियं-कहमेवंविहो पुरिससारमेओ हवइ ति, ता पत्थुयं भणसु । तओ साहिओ सुवयणेणं दीवदसणाइओ अट्ठसुवन्नलक्खपयाणपज्जवसाणो धरणवइयरो। तुट्ठो य से राया। मुक्को य ग सुवयगो । वदिऊण भयवंतं लज्जापराहीणयाए तुरियमेव
भगितम्-देव ! अस्त्यपराधः । राज्ञा भणितम् - कोऽपराधः ? सुवदनेन भणितम् - देव ! तथाविधकलत्रसंग्रह इति । राज्ञा भणितम्-भो ! अभयमेव तव । ततः कथयावितथम्, कः पुनर्भगवतस्तस्याश्च व्यतिकर इति। निरूपितः सुवदनेन भगवान्, प्रत्यभिज्ञातश्च तेन । ततो महापुरुषचरितविस्मयाक्षिप्तहृदयेन बाष्पार्द्रलोचनं जल्पितमनेन-देव ! अनाख्यानीयो व्यतिकरः, ततो न शक्नोम्याख्यातुम् । राज्ञा भणितम्-भद्र ! ईदृश एष संसारः, किमत्रापूर्वमिति, ततः कथयतु भद्रः । सूवदनेन भणितम-देव ! यद्येवं ततो विविक्तमादिशत देवः । ततो राज्ञा दृष्ट: परिजनोऽपसृतश्च । ततो पण दर्शनसजातपश्चात्तापेन जल्पितं सुवदनेन - देव ! पापकर्माऽहं पुरुषसारमेयः, न पुनः पुरुष इति। निवेदितं देवाय-पूरुषः खलु देव ! अकार्याचरणविरतः सत्याभिसन्धिः कृतज्ञः परलोकभीरुः परोपकारनिरतश्च भवति, यथैष भगवानिति । राज्ञा भणि तम्-कथमेवंविधः पुरुषसारमेयो भवतीति, ततः प्रस्तुतं भण । तत: कथितः सुवदनेन द्वीपदर्शनादिकोऽष्टसुवर्णलक्षप्रदानपर्यवसानो धरणव्यतिकरः । तुष्टश्च तस्य राजा । मुक्तश्च तेन सुवदनः । वन्दित्वा भगवन्तं लज्जापराधीनतया त्वरितमेव गतः
इस प्रकार की स्त्री का रखना (आराध है)।' राजा ने कहा-'तुम्हें अभय है। अतः सच कहो, भगवान का और उसका पारस्परिक सम्बन्ध क्या है ?' सुवदन ने भगवान् को देखा और पहिचान लिया । तब महापुरुष की चेष्टा के कारण आकृष्ट हृदय वाले इसने (सुवदन ने) आंखों में आंसू भरकर कहा-'देव ! सम्बन्ध न करने योग्य है, अतः सम्बन्ध के विषय में नहीं कहता हूँ।' राजा ने कहा-'भद्र ! यह संसार ऐसा ही है। यहाँ अपर्व क्या है ? अतः भद्र कहो।' सुवदन ने कहा-'देव ! यदि ऐसा है तो महाराज एकान्त स्थान की आज्ञा दें। तब राजा ने परिजनों को ओर देखा । (वे) चले गये। तब धरण को देखने के कारण जिसे पश्चात्ताप उत्पन्न हो रहा है, ऐसे सुवदन ने कहा --'महाराज ! मैं पापकर्म करनेवाला, मनुष्य के रूप में कुत्ता हूँ, मनुष्य नहीं है। महाराज ! अकार्य न करनेवाला, सत्यप्रतिज्ञ, कृतज्ञ, परलोक से डरने वाला तथा परोपकार में रत पुरुष है, जैसे ये भगवान हैं।' राजा ने पूछा-'इस प्रकार कैसे पुरुष के रूप में कुत्ता होता है ? ठीक-ठीक कहो !' तब सुवदन ने द्वीपदर्शन से लेकर आठ लाख सुवर्णप्रदान तक का धरण का सम्बन्ध सुनाया। उसके ऊपर राजा प्रसन्न हुआ। उसने सुवदन को छोड़ दिया। भगवान की वन्दना कर लज्जा से पराधीन हुआ सुवदन तुरन्त ही
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