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छट्ठो भवो]
५४६ य आगओ राया। वंदिओ णेग भयवं। पुच्छिओ विम्हियमणेणं--भयवं, कहं पुण इमं वत्तं ति । न जंपियं भयवया । भणिणं मंतिणा- देव, वयविसेससंगओ खु एसो, कहमियाणि पि मंतइस्सइ। ता तं चेव सत्थवाहपरिणि सद्दावेऊण पुच्छेह ।
तओ पेसिया दंडवासिया। जणरवाओ' इमं वइयरं आयण्णिऊण पलाणा एसा, न दिट्ठा दंडवासिएहिं । निवेइयं च राइगो-देव, पलाणा खु एसा, न दोसए गेहमाइएसुं । भणियं च णेणं-अरे सम्मं गवेसिऊणं आणेह। गया दंडवासिया। गविट्ठा आरामसुन्नदेवउलाइएसु। न दिट्ठा एसा । दिट्ठो य कुओइ एयमायण्णिय एयवइयरेणेव पलायमाणो सुवयणो। गहिओ दंडवासिएहि, आणोओ नरवइसमीवं । निवेइयं राइणो- देव, नस्थि सा तामलित्तीए: एसो य किल तीए भत्तारो त्ति, दिट्ठो पलायमाणो गहिओ अम्हेहि; संपयं देवो पमाणं ति। निरूविओ सुवयणो, भणिओ य एतो-भद्द, कहिं ते घरिणि त्ति । तेण भणियं-देव, न जाणामि। राइणा भणियं - ता कीस तुमं पलाणो त्ति। सुक्यणेण भणियं -देव, भएण । राइगा भणियं -कुओ निरवराहस्स भयं । सुवयणेण भणियं-देव, प्रमोदश्चागतो राजा। वन्दितस्तेन भगवान् । पृष्टो विस्मितमनसा-भगवन् ! कथं पुनरिदं वृत्तमिति । न जल्लितं भगवता । भणितं मन्त्रिणा-देव ! व्रतविशेषसङ्गत: खल्वेषः, कथमिदानीमपि मन्त्रयिष्यते । ततस्तामेव सार्थवाहगृहिणीं शब्दापयित्वा पृच्छत।
ततः प्रेषिता दण्डपाशिकाः। जनरवादिमं व्यतिकरमाकर्ण्य पलायितषा। न दृष्टा दण्डपाशिकैः । निवेदितं च राजे-देव ! पलायिता खल्वेषा, न दृश्यते गेहादिषु । भणितं च तेन-अरे सम्यग्गवेषयित्वाऽऽनयत । गता दण्डपाशिकाः । गवेषिताऽऽरामशून्यदेवकुलादिषु । न दृष्टैषा। दृष्टश्च कुतश्चिदेतदाकर्ण्य एतद्व्यतिकरेणैव पलायमानः सुवदनः । गृहीतो दण्डपाशिकः, आनीतो नरपतिसमीपम् । निवेदितं राजे–देव ! नास्ति सा ताम्रलिप्त्याम, एष च किल तस्या भर्तेति, दृष्टश्च पलायमानो गृहीतोऽस्माभिः, साम्प्रतं देवः प्रमाणमिति । निरूपितः सुवदनः भणितश्चैषः-भद्र ! कुत्र ते गृहिणीति । तेन भणितम् - देव ! न जानामि । राज्ञा भणितम्-तत: कस्मात्त्वं पलायित इति। सुवदनेन भणितम्-देव ! भयेन। राज्ञा भणितम्-कुतो निरपराधस्य भयम् ? सुवदनेन प्रकार का कोलाहल हुआ। राजा से कहा गया। आनन्दित होकर राजा आया। उसने भगवान् की वन्दना की। विस्मित मन से पूछा-'भगवन् ! यह घटना कैसे घटी ?' भगवान् नहीं बोले । मन्त्रियों ने कहा-'देव ! यह व्रतविशेष से युक्त हैं, अत: इस समय कैसे बतलाएँगे ? अतः उसी सार्थवाह की पत्नी को बुलाकर पूछते हैं।' ____ तब सिपाही भेजे गये । मनुष्यों के शब्दों से इस घटना को सुनकर यह भाग गयो। सिपाहियों को नहीं दिखाई पड़ी। राजा से निवेदन किया गया-'महाराज ! यह भाग गयी, घर आदि में नहीं दिखाई पड़ रही है।' राजा ने कहा - 'अरे अच्छी तरह से ढूंढकर लाओ।' सिपाही गये । उद्यानों और शून्य मन्दिरों आदि में ढूंढा । यह दिखाई नहीं दी। इसी घटना को सुनकर भागता हुआ सुवदन दिखाई पड़ा । सैनिकों ने पकड़ लिया, राजा के समीप लाये । राजा से निवेदन किया-'महाराज ! वह (स्त्री) ताम्रलिप्ती में नहीं है, यह उसका पति है, भागता हुआ दिखाई पड़ने के कारण हमने इसे पकड़ लिया, इस विषय में महाराज प्रमाण हैं।' राजा ने सुवदन को देखा और इससे पूछा-'भद्र ! तुम्हारी पत्नी कहाँ है ?' उसने कहा-'महाराज ! (मैं) नहीं जानता हूँ।' राजा ने कहा'तब तुम भागे क्यों ?' सुवदन ने कहा---'महाराज, भय से।' राजा ने कहा- 'निरपराध को भय कहाँ ?' सुवदन ने कहा- 'महाराज ! अपराध है।' राजा ने कहा-'क्या अपराध है !' सुवदन ने कहा-'महाराज !
१. सा य जण-क। २. 'मे समीवं' इत्यधिक:-के।
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