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________________ [समराइच्चकहो चंडसासणेग राइणा वावाइज्जिस्सइ ति। गहिया य सुर भिक्खुरूवधारिणो सलोत्ता चेव तक्करा वावाइया य । ता लिगिणो वि चोरियं करेंति' समुप्पन्ना पसिद्धि ति। चितिऊण संपाडियमिमीए। धाविया आरक्खिया, गहिओ सो रिसो । बोल्लाविओ तेहि य जाव न जंपइ त्ति, गवेसियं कंठाहरणं; दिट्टच नाइदूरे। तओ 'छिन्नकंकणं' ति सहाविया नयरिजणवया। साहियं नरवइस्स । 'अहो अउवो तक्करो' त्ति विम्हिओ राया । भणियं च णणं-निरूविऊण वावाएह ति। पुच्छिओ दंडवासिएहिं । जाव न जंपइ ति, तओ 'अहो से कवडवेसो' त्ति अहिययरं कुविहिं पाविओ वज्झथाम ति । निहया सूलिया। उक्खितो मुणिवरो : आघोसियं चंडालेणं-भो भो नायरया, एएण समणवेसधारिणा परदव्वावहारो कओ त्ति वावाइज्जइ एसो; ता अन्नो वि जइ परदवावहारं करिस्सइ, तं पि राया सुतिक्खणं दंडेण एवं चेव वावाइस्सइ त्ति । भणिऊण मुक्को यसो भयवं चंडालेहिमवरि सूलियाए। तवप्पहावेण धरणितलमुवगया सूलिया, न विद्धो खु अहासन्निहियदेवयानिओएणं, निवडिया कुसुमवुद्धी । 'जयइ भयवं धम्मो ति उट्ठाइओ' कलयलो । साहियं नरवइस्स । संजायपमोओ शासनेन राज्ञा व्यापादयिष्यते इति । गृहीताश्च श्वो भिक्षुरूपधारिणः सलोत्रा एव तस्करा व्यापादिताश्च । ततो 'लिङ्गिनोऽपि चौर्यं कुर्वन्ति' समुत्पन्ना प्रसिद्धिरिति । चिन्तयित्वा सम्पादितमनया । धाविता आरक्षकाः, गृहीतः स ऋषिः । वादितश्च तेश्च यावन्न जल्पतीति, गवेषितं कण्ठाभरणम्, दृष्टं च नातिदूरे । तत: “छिन्नकङ्कणम्' इति शब्दायिता नगरीजनवजाः । कथितं नरपतये । 'अहो अपूर्वः तस्करः' इति विस्मितो राजा । भणितं च तेन - निरूप्य व्यापादयतेति । पृष्टो दण्डपाशिकः, यावन्न जल्पतीति । ततः 'अहो तस्य कपटवेशः' इति अधिकतरं कुपितैः प्रापितो वध्यस्थानमिति । निहता शलिका उत्क्षिप्तो मनिवरः । आघोषितं चाण्डालेन - भो भो नागरा! एतेन श्रमणवेषधारिणा परद्रव्यापहारः कृत इति व्यापाद्यते एषः, ततोऽन्योऽपि यदि परद्रव्यापहारं करिष्यति तमपि राजा सुतीक्ष्णेन दण्डेन एवमेव व्यापादयिष्यति इति । भणित्वा मुक्तश्च स भगवान् चाण्डालरुपरि शूलिकायाम् । तपःप्रभावेण धरणीतलमुपगता शूलिका, न विद्धः खलु यथासन्निहितदेवतानियोगेन, निपतिता कुसुमवृष्टि: । 'जयति भगवान् धर्मः' इत्युत्थितः कलकलः । कथितं नरपतये । सञ्जात द्वारा मारा जाएगा। कल भिक्षुरूपधारी चोर चोरी से माल के साथ पकड़े गये और मारे गये। अतः श्रमण वेषधारी भी चोरी करते हैं - ऐसी प्रसिद्धि है--- इस प्रकार सोचकर वह चिल्लायी। सिपाही दौड़े और उस ऋषि को पकड़ लिया। उन लोगों ने उनसे पूछा, किन्तु वे नहीं बोले। कण्ठाभरण को खोजा गया, समीप में ही दिखाई पड़ा । तब 'कंकण टूटा हुआ है'-ऐसा नगर के लोगों ने शब्द किया। राजा से कहा गया-अहो ! (यह) अपूर्व चोर है'-इस प्रकार राजा विस्मित हुआ। उसने कहा-'पूछताछ कर मार डालो। सैनिकों ने पूछा, कोई उत्तर नहीं मिला। तब 'अरे इसका कपट वेश'-इस प्रकार अत्यधिक कुपित होकर वध्यस्थान में पहुंचा दिया गया। शली गाडी, मुनिराज को ऊँचा किया। चाण्डाल ने घोषणा की—'हे हे नगरवासियो ! इस श्रमणवेष धारी ने दूसरे के द्रव्य का अपहरण किया अतः यह मारा जाता है, जो कोई दूसरा भी व्यक्ति दूसरे के दव्य का अपहरण करेगा, उसे भी राजा सुतीक्ष्ण दण्ड से इसी प्रकार मार डालेगा' ऐसा कहकर उसने भगवान को शली के ऊपर छोड़ दिया। तप के प्रभाव से शली पृथ्वी पर आ गयी। समीपवर्ती देवता के कारण उसने मुनिराज को नहीं बेधा, फूलों की वर्षा हुई । 'भगवान् का धर्म जयशील हो'- इस १ उद्धाइयो-क-ख। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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