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________________ ५४७ छट्ठो भवो ] अइक्कन्तो कोइ कालो । अहिज्जियं सुत्तं, आसेविमो किरियाकलावो । संपत्तो एगल्लविहारपडिमापडिवत्तिजोग्गयं । समुप्पन्ना से इच्छा । पुच्छ्यिा य गेण गुरवो, 'उचिओ' त्ति कलिऊण अणुजाणिओ य हिं। भावियाओ भाषणाओ। पडिवन्नो एगल्लविहारपडिमं। गामे एगराएण नगरे पंचराएण य विहरमाणो समागओ तामलित्ति । ठिओ पडिमाए। ___ इओ य सा लच्छी देवउरनिवासिया गवेसाविया सुवयणेण, दिट्ठा य नंदिवद्धगाभिहाणसन्निवेसे, घडिया य णेणं । तओ सो तं गहेऊण गओ निययदीवं ।। अइक्कन्तो कोइ कालो। पुणो आगओ तामलिति । ठिओ बाहिरियाए । दिट्ठो य सो रिसी उज्जाणमवगयाए कहवि लच्छीए, पच्चभिन्नाओ य णाए। तओ गरुययाए कम्मपरिणामस्स' वियंभिओ से कोवाणलो। आहया विय वज्जेणं । चितियं च णाए। अहो मे पावपरिणई, पुणो वि एसो दिट्टो त्ति । ता इमं एत्थ पत्तयालं। ठवेमि एयस्स समीवे छिन्नकंकणं कंाहरणं, 'अहो मद्रा मुटु' ति करेमि कोलाहलं। तओ विवितयाए उज्जागस्स दरिस गेग कंठाहरणस्स संभावियचोरभावो अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । अधीतं सूत्रम् । आसेवितः क्रियाकलापः । सम्प्राप्त एकाकि विहारप्रतिमाप्रतिपत्तियोग्यताम् । समुत्पन्ना तस्येच्छा, पृष्टाश्च तेन गुरवः । 'उचितः' इति कलयित्वाऽनुज्ञातश्च तैः । भाविता भावनाः । प्रतिपन्न एकाकिविहारप्रतिमाम् । ग्रामे एकरात्रेण नगरे पञ्चरात्रेण विहरन् समागतस्ताम्रलिप्तीम् । स्थितः प्रतिमया। इतश्च सा लक्ष्मीर्देवपुरनिर्वासिता गवेषिता सुवदनेन । दृष्टाश्च नन्दीवर्धनाभिधानसन्निवेशे, घटिता च तेन । ततः स तां गृहीत्वा गतो निजद्वीपम् । अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । पुनरागतस्ताम्रलिप्तीम् । स्थितो बाह्यायाम् । दृष्टश्च स ऋषिरुद्यानमुपगतया कथमपि लक्ष्म्या, प्रत्यभिज्ञातश्च तया । ततो गुरुकतया कर्मपरिणामस्य विजृम्भितस्तस्य कोपानलः । आहतेव वज्रेण । चिन्तितं च तया-अहो मे पापपरिणतिः, पुनरप्येष दृष्ट इति । तत इदमत्र प्राप्तकालम् । स्थापयाम्येतस्य समीपे छिन्नकङ्कणं कण्ठाभरणम्, 'अहो मुषिता मुषिता' इति करोमि कोलाहलम् । ततो विविक्ततयोद्यानस्य दर्शनेन कण्ठाभरणस्य सम्भावितचौरभावश्चण्ड कुछ समय बीत गया । सूत्र का अध्ययन किया। क्रियाओं के समूह का सेवन किया। अकेले विहार करने योग्य ज्ञान प्राप्त किया। उसकी (अकेले विहार करने की) इच्छा उत्पन्न हुई । उचित है, ऐसा मानकर उन्होंने (गुरु ने) आज्ञा प्रदान कर दी । भावनाओं का चिन्तन किया। एकाकी विहार करना आरम्भ किया । ग्राम में एक रात्रि और नगर में पांच रात्रि रहकर विहार करते हुए ताम्रलिप्ती पहुँचे । प्रतिमा रूप में स्थित हो गये । इधर देवपुर से निर्वासित उस लक्ष्मी को सुवदन ने ढूंढा । (वह) नन्दिवर्द्धन नाम के सन्निवेश में दिखाई दी, और उसके साथ हुई । तदनन्तर वह उसे लेकर अपने द्वीप चला गया। कुछ समय बीत गया । पुनः ताम्रलिप्ती आये । बाहर ही ठहर गये। उद्यान में आये हुए उस ऋषि को किसी प्रकार लक्ष्मी ने देख लिया और उसने पहिचान लिया । तब कर्मों के परिणाम की प्रबलता से उसकी क्रोधाग्नि प्रज्वलित हुई, वह मानो वज्र से आहत हुई । उसने सोचा - अरे मेरे पाप की परिणति, यह पुनः दिखाई दिया। अत: यह यहाँ काल प्राप्त हो गया। इसके समीप में जिसका कंकण टूटा हुआ है, ऐसे कण्ठाभरण को रख देती हूँ। हे जनो, 'मेरा सर्वस्व चला गया, सर्वस्व चला गया' इस प्रकार कोलाहल करती हूँ। तब उद्यान सूना होने के कारण, कण्ठाभर के दिखाई दे जाने पर चौरकार्य की सम्भावना कर चण्डशासन राजा १. पावकम्मस्स-का For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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