SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [समराइच्चकहा तुमए मए त पडिबोहनिमित्तं आसि जहा वेयड्ढपन्बए कुंडलजुवलयं ठवियं, ता तं चेव' दंसेमि त्ति; किमन्नेग पच्चएगेति । पडिस्सुयमगं। तओ दिव्वरूवेग होऊणं नीओ वेयड्ढपव्वयं, दंसियं से सिद्धाययणकडम्मि रयणावयंसयं कुंडलजुवलयं । तं चैव पेश्खिऊण विचित्तयाए कम्मपरिणामस्स समप्पन्न जाईसरणं । पडिबुद्धो एसो, पव्वइओ य भावओ। खामिओ देवेणं । गओ देवो। ताणं च अहयं, भो धरण, पुरोहियकुमारो त्ति। ता न एवं, देवाणुप्पिया, अणब्भत्थकुसलमूलाणं विराहयाणं च बुद्धी हवइ, न य अविरायाणं विणिज्जियमहामोहसत्तूणं अणुटाणं न निव्वहइ, न य इमाओ अन्नं सुंदरयरं ति । ता समीहियसंपायणेण करेहि सफलं मणुयत्तणं । धरणेण भणियं - जं भयवं आणवेइ, कि तु साहेमि जणणिजणयाणमेयवइयरं, कयाइ संबुज्झति ति । भयवया भणियंजुत्तमेयं । तओ पडिबुद्धवयंसयसमेओ पविट्ठो नरि। कहिओ य ण जणणिजणयाण वइयरो। पडिबुद्धा य एए। सलाहिओ गिहासमपरिच्चाओ। कयं उचियकरणिज्जं। पवन्नो जहाविहीए सह जणणिजणएहि वयंसएहि य अरहदत्तगुरुसमीवे समणत्तणं । च प्रतिबोधनिमित्तमासीद् यथा वैताढयपर्वते कुण्डलयुगलं स्थापितम्, ततस्तदेव दर्शयामीति, किमन्येन प्रत्ययेनेति । प्रतिश्रुतमनेन । ततो दिव्यरूपेण भूत्वा नीतो वैताढयपर्वतम्, दर्शितं तस्य सिद्धायतनकूटे रत्नावतंसकं कुण्डलयुगलम् । तदेव प्रेक्ष्य विचित्रतया कर्मपरिणामस्य समुत्पन्न जातिस्मरणम । प्रतिबुद्ध एषः । प्रवजितश्च भावतः, क्षामितो देवेन । गतो देवः ।। तेषां चाहं भो धरण ! पुरोहितकुमार इति । ततो नैवं देवानुप्रिय ! अनभ्यस्तकुशलमूलानां विराधकानां च बुद्धिर्भवति । न चाविराधकानां विनिजितमहामोहशत्रूणामनुष्ठानं न निर्वहति, न चास्मादन्यत् सुन्दरतरमिति । तत: समीहितसम्पादनेन कुरु सफलं मनुजत्वम् । धरणेन भणितम्-यद् भगवानाज्ञापयति, किन्तु कथयामि जननीजनकयोरेतद्व्यतिकरम्, कदाचित् सम्भोत्स्येते इति । भगवता भणितम्-युक्तमेतद् । ततः प्रतिबुद्धवयस्यसमेतः प्रविष्टो नगरीम् । कथितश्च तेन जननीजनकयोर्व्यतिकरः । प्रतिबुद्धो चैतौ । श्लाघितो गृहाश्रमपरित्यागः । कृतमुचितकरणीयम्। प्रपन्नो यथाविधि स ह जननीजनकाभ्यां वयस्यैश्चार्हद्दत्तगुरुसमीपे श्रमणत्वम् । वैताढ्यपर्वत पर वे कुण्डल स्थापित किये थे। अत: वही दिखलाता हूँ, अन्य विश्वास दिलाने से क्या (लाभ) ? इसने अंगीकार किया। तब दिव्य रूप धारण कर (देव) वैताढ्यपर्वत पर ले गया और सिद्धायतन कूट पर कानों के आभूषण कुण्डल के जोड़े को दिखाया। उसे देखकर कर्मों के परिणाम की विचित्रता से (उसे) जातिस्मरण हो गया । वह जागा । भावपूर्वक दीक्षा धारण कर ली। देव से क्षमा मांगी। देव चला गया। _हे धरण ! मैं उनका पुरोहित कुमार हूँ। अतः हे देवानुप्रिय ! जिनका सत्कर्म का अभ्यास नहीं है, जो दूसरे का अपकार करते हैं, उसकी ऐसी बुद्धि नहीं होती है । जो दूसरे का अपकार नहीं करते हैं, जिन्होंने महामोह शत्रुओं का जीत लिया है उनका कार्य पूरा न हो-ऐसा नहीं है और इससे अधिक सुन्दर बात नहीं अतः इष्टकार्य का सम्पादन कर मनुष्य जन्म को सफल करो।' धरण ने कहा-'जो भगवान आज्ञा दें, किन्त इस सम्बन्ध में मैं माता-पिता से कहूंगा, कदाचित् ये दोनों भी जागृत हो जायँ ।' भगवान ने कहा-'यह ठीक है। अनन्तर जागत हआ, मित्र सहित नगरी में प्रवेश किया। उसने माता-पिता से इस सम्बन्ध में कहा । ये दोनों प्रतिबद्ध हए । गहाश्रम का परित्याग करने की प्रशंसा की। योग्य कार्यों को किया। विधि-पूर्वक माता-पिता और मित्रों के साथ अर्हद्दत्त ने गुरु के समीप मुनिदीक्षा धारण कर ली। 1. तं चेव पच्चयनिमित्त तव दंसेमि-। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy