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________________ छ8ो भवो] ५४५ जंज मयचारी सुक्ककवतडेक्कदेससंजायदुरुत्वापवाललवबद्धाहिलासो तन्निमित्तमेव अभवसाएणं क्वपडणेणं अणासाइऊण दुरुत्वापवाललवं विसमपडिकवेक्कदेसेसु संचुण्णि यंगोवंगो बइल्लो त्ति। तं च दठ्ठणं भणियं अरहदत्तण -अहो मुढया बइल्लस्स. जेण मोत्तण जंजमयचारि कववडतडसंठियं दुरुव्वालवमहिलसंतो तत्थेव पडिओ। देवेण भणियं-किमेत्तियं वियाणसि। तेण भणि-कह न याणामि। देवेण भणियं-जइ जाणसि, ता कहं छेत्तरोवारि जूंजमयचारिकप्पं महंत सुरसोक्खमुज्झिय दुरुव्वापवाललवतुल्ले तुच्छे माणससोक्खम्मि बद्धाहिलासो पाडेसि अप्पाणयं सुक्ककवसरिसीए दोग्गईए त्ति। एयमायण्णिऊण वियलिओ से कम्मरासी । चितियं च णे गं । अहो अमाणुसो एसो। कहमन्नहा एवं वाह'इ । सोहणं च एयं । भाया वि मे एवं चेव कहियव्वं ति। ता पुच्छामि 'ताव, को उण एत्य परमत्थो ति। पुच्छिओ य-भो को उण तुमं असोयदत्तो विय मम वच्छलो त्ति। देवेण भणियं-परियायतरगओ सो चेव असोयदत्तो म्हि । इयरेण भणियं-को पच्चओ। देवेण भणियंराणीकृतादूरदेशस्थितविमुक्तजुजुमयचारिः शुष्ककूपतटैकदेशसञ्जातदूर्वाप्रवाललवबद्धाभिलाषस्तन्निमित्तमेवाध्यवसायेन कूपपतनेनासाद्य दूर्वाप्रवाललवं विषमप्रतिकूपैकदेशेषु सञ्चूणिताङ्गोपाङ्गो बलीवई इति । तं च दृष्टवा भणितमर्हहत्तेन--अहो मूढता बलीवईस्य, येन मुक्त्वा जुञ्जमयचारि कूपावटतटसंस्थितं दुर्वालवमभिलषन् तत्रैव पतितः । देवेन भणितम्-किमेतावद् विजानासि ? तेन भणितम् -कथं न जानामि ? देवेन भणितम् - यदि जानासि ततः कथं क्षेत्रान्तरराशीकृत(ओवारियं दे. राशीकृतम्) जुञ्जमयचारिकल्पं महत् सुरसौख्यमुज्झित्वा दूर्वाप्रवाललवतुल्ये तुच्छ मानुषसौख्ये बद्धाभिलाषः पातयस्यात्मानं शुष्क पसदृश्यां दुर्गत्यामिति । ... एतदाकर्ण्य विचलितस्तस्य कर्मराशिः । चिन्तितं च तेन-अहो अमानुष एषः, कथमन्यथैवं व्याहरति । शोभनं चैतद् । भ्रात्राऽपि मे एवमेव कथयितव्यमिति । ततः पृच्छामि तावत्, कः पुनरत्र परमार्थ इति । पृष्टश्च-भोः ! कः पुनस्त्वमशोकदत्त इव मम वत्सल इति । देवेन भणितम् --- पर्यायान्तरगतः स एवाशोकदत्तोऽस्मि । इतरेण भणितम् - कः प्रत्ययः । देवेन भणितम् - त्वया मया हर के किनारे के एक स्थान पर लगी हई सखी दब के समह की अभिलाषा कर, उसी के लिए प्रयत्न करता हुआ दूर्वाकार लटके हुए थोड़े से भाग को प्राप्त करते समय एक बैल कुएं में गिर पड़ा और उसके अंगोपांग टूट गये। उसे देखकर अर्हद्दत्त ने कहा - 'अरे यह बैल कितना मूर्ख है जो कि एकत्रित तृणराशि को छोड़कर कुएँ के किनारे लगी हुई दूब की इच्छा करता हुआ उसी में गिर गया।' देव ने कहा-'क्या इतना जानते हो ?' उसने कहा-'क्यों नहीं जानता हूँ ?' देव ने कहा—'यदि जानते हो तो दूसरे स्थान पर एकत्रित तृणसमूह के सदृश बहुत बड़े स्वर्गसुख को छोड़कर दूब के सदृश मनुष्य-सुख की अभिलाषा में बद्ध हुए अपने आपको दुर्गति रूप शुष्कका में क्यों गिराते हो?' यह सुनकर उसकी कर्म राशि विचलित हो गयी। उसने सोचा-यह दिव्य है, कैसे दूसरे रूप में इस प्रकार कह रहा है। यह सुन्दर है। मेरा भाई भी ऐसा ही कहता, अतः पूछता हूँ (तुम) यथार्थतः कौन हो ? पूछाअशोकदत्त के समान मुझसे स्नेह करने वाले तुम कौन हो?' देव ने कहा-'दूसरी गति में गया हुआ वही मैं अशोकदत्त हूँ ।' अर्ह हत्त ने कहा---'क्या विश्वास है ?' देव ने कहा- 'तुम्हें और मुझे प्रतिबोधित करने में जो कारण थे १. गाव-ख। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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