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[समराइच्चकहा
देवउले । तत्थ पुग वाण मंतरो लोएण अच्चिज्जमाणो हेटामहो पडइ; पुणो विठविओ, पुणो वि पडइ। तेण भणियं-अहो वाणमंतरस्स अहन्नया, जो अच्चिओ उवरिहत्तो य कओ हेढामहो पडइ । देवेण भणियं-किम वियाणसि । तेण भणियं - किमत्थ जाणियव्वं । देवेण भणियं-जइ एवं, ता कीस तुमं अच्चणिज्जटाणे देवगइसिद्धिगईओ पडच्च उवरिहुत्तो वि किज्जमाणो परिणामदारुणगिहवासपवज्जणेगं निरयगइतिरियगइगमणभावओ हेट्ठामहो पडसि । ठिओ तुण्हिवको, न संबद्धोय।।
___ गया कंचि भूमिभागं । दिट्ठो य नाणापयारे कणियकुंडए चइऊण अच्चतदुरहिगंधअसुइयं भुंजमाणओ सुयरो। तेण भणिय - अहो अविवेगो सूयरस्स, जो कणियकुंडए चइऊण असुइयं भंजइ ति । देवेण भणियं-किमेत्ति यं वियागसि । तेण भणियं-किमेत्थ वियाणियन्वं । देवेण भणि-जइ एवं, ता कोस तुमं अच्चंतसुहरूवं समणतण चइऊग असुइए विसए बहु मन्नसि ति। ठिओ तुण्हिक्को न संबुद्धो य।
गया थेवं भूमिभागं। कया देवेण माया। दिट्ठो य हिं छेत्तरोवारियाद्रदेसट्टियविमुक्कग्रामदेवकुले । तत्र पुनर्वानमन्तरो लोकेनाय॑मानोऽधोमुखः पतति, पुनरपि स्थापितः पुनरपि पतति । तेन भणितम-अहो वानमन्तरस्याधन्यता, योचित (उवरिहुत्तो दे०) ऊर्वाभिमुखश्च कृतोऽधोमुखः पतति । देवेन भणितम्-किमेतद् विजानासि ? तेन भणितम् - किमत्र ज्ञातव्यम् ? देवेन भणितम्यद्येवं ततः कस्मात्त्वमर्चनीयस्थाने देवगतिसिद्धिगती प्रतीत्य ऊर्ध्वाभिमुखोऽपि क्रियमाणः परिणामदारुणगृहवासप्रपदनेन निरयगतितिर्यग्गतिगमनभावतोऽधोमुखः पतसि?स्थितः तूष्णिको न सम्बुद्धश्च।
___गतौ कञ्चिद् भूमिभागम् । दृष्टश्च नानाप्रकारान् कणिककुण्डान् त्यवत्वाऽत्यन्तदुरभिगन्धाशुचिकं भुजानः सूकरः । तेन भणितम् - अहो अविवेकः सूकरस्य, यः कणिककुण्डान् त्यक्त्वाऽशुचिकं भुङ क्ते इति । देवेन भणितम्- किमेतावद् विजानासि ? तेन भणितम्-किमत्र विज्ञातव्यम् ? देवेन भणितम् -- यद्येवं ततः कस्मात्त्वमत्यन्तसुखरूपं श्रमणत्वं त्यक्त्वाऽशु चिकान् विषयान् बहु मन्यसे इति । स्थितस्तूष्णीकः, न सम्बुद्धश्च । * गतौ स्तोकं भूमिभागम् । कृता देवेन माया। दृष्टश्च ताभ्यां क्षेत्रान्तर- (ओवारिय दे०)
के मन्दिर में ठहरे । वहाँ देखा कि लोगों के द्वारा पूजित वानमन्तर (व्यन्तर देव) अधोमुख हो नीचे गिरता है, फिर से रखा जाता है, फिर से गिरता है । उसने (अर्हद्दत्त ने) कहा—'अरे व्यन्तरदेव की अधन्यता, जो पूजित होकर ऊर्ध्वमुख स्थापित किया जाने पर भी अधोमुख हो नीचे गिर पड़ता है।' देव ने कहा - 'क्या यह जानते हो?' उसने कहा-'यहाँ जानने योग्य बात ही क्या है ?' देव ने कहा-'यदि ऐसा है तो तुम क्यों देवगति और सिद्धगति नामक पूजनीय स्थान पर पहुंचाने के लिए ऊर्ध्वमुख किये जाने पर भी जिसका फल कठोर है ऐसे गृहवास में जाकर नरकगति और तियं चगति में जाने के भाव से नीचे की ओर गिरते हो ?' (यह) चुप रहा, जागृत नहीं हुआ।
दोनों थोड़ी दूर गये। देखा कि अनेक प्रकार के धान्य से भरे हुए कुण्डों को छोड़कर सूकर अत्यन्त दुर्गन्धयुक्त, अपवित्र पदार्थों का भक्षण कर रहा है । उसने कहा- 'अरे सूकर की अविवेकता देखो, जो कि अनाज से भरे हुए कुण्डों को छोड़कर अपवित्र पदार्थों का भक्षण कर रहा है।' देव ने कहा-'क्या इतना जानते हो?' उसने कहा-'इसमें जानने योग्य बात ही क्या है ?' देव ने कहा-'यदि ऐसा है तो तुम क्यों अत्यन्त सुखरूप मुनिधर्म (श्रमणत्व) का त्याग करके अपवित्र विषयों को अधिक आदर देते हो ?' वह चुप रहा, प्रबुद्ध नहीं हुआ।
कुछ दूर गये । देव ने माया की। उन दोनों ने देखा कि दूसरे स्थान पर ढेर लगाये हुए तृणसमूह को छोड़ कर
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