SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [समराइच्चकहा पत्तो य सो कमेणं पडिस्सयं धम्मनिहियणियचित्तो। वरसिप्पिसिप्पसव्वस्सनिम्मियं सुरविमाणं व ॥ ५५७ ।। निम्मलफलिहच्छायं कंचणकयवालिकयपरिवखेवं । पायडियविज्जुवलयं सरयंबुहरस्स सिहरं व ॥५५८।। विप्फुरियजच्चकंचकिकिणिकिरणाणुरंजियपडायं। रययमयगिरिवरं पिव पज्जलियमहोसहिसणाहं ॥५५६॥ कयविमलफलिहनिम्मलकोट्टिमसंकेतकंचणत्थंभं । थंभोचियविद्दुमकिरणरत्तमत्ताहलोऊलं ॥५६०।। ओऊललग्गमरगयमऊहहरियायमाणसियचमरं । सियचमरदंडचामीयरप्पहापिंजरदायं ॥५६१।। अदायगयविरायंतपवरमणिरयणहारनिउरुंबं । हारनिउरुंबलंबियकंचणमयकिंकिणीजालं ॥५६२॥ प्राप्तश्च स क्रमेण प्रतिश्रयं धर्मनिहितनिजचित्तः । वरशिल्पिशिल्पसर्वस्वनिर्मितं सुरविमानमिव ॥५५७।। निर्मलस्फटिकच्छायं काञ्चनकृतपालिकृतपरिक्षेपम् । प्रकटितविद्युद्वलयं शरदम्बधरस्य शिखरमिव ॥५५८।। विस्फूरितजात्यकाञ्चनकिङ्किणीकिरणानुरञ्जितपताकम् । रजतमयगिरिवरमिव प्रज्वलितमहौषधिसनाथम् ॥५५६।। कृतविमलस्फटिकनिर्मलकुट्टिमसंक्रान्तकाञ्चनस्तम्भम् । स्तम्भोचितविद्रुमकिरण रक्तमुक्ताफलावचूलम् ।। ५६०॥ अवचूललग्नमरकतमयूखहरितायमानसितचामरम् । सितचामरदण्डचामी करप्रभापिञ्जरादर्शम् ॥५६१।। आदर्शगतविराजप्रवरणिरत्नहारनिकुरम्बम् । हारनिक रम्बलम्बितकाञ्चनमय किङ्किणीजालम् ॥५६२।। वह राजा अपने चित्त में धर्म धारण कर क्रम से सभामण्डा में पहुँचा। वह सभामण्डप श्रेष्ठ शिल्पियों द्वारा शिल्प के सर्वस्व से निर्मित देवविमान के समान था, स्वच्छ स्फटिक के समान उसकी कान्ति थी, स्वर्ण निर्मित किनारे से उसका घेरा बनाया गया था, शरत्कालीन मेव के शिखर के सदृश बिजली के समूह को प्रकट कर रहा था, चमकदार तपाये हुए सोने से निर्मित छोटी-छोटी धषियों की किरणों से उसकी पताकाएँ अनुरजित थीं. वह कैलाशपर्वत के समान देदीप्यमान महौषधियों से युक्त था। स्वच्छ स्फटिक के साफ फर्श पर सोने के खम्भे प्रतिबिम्बित हो रहे थे, स्तम्भ के अनुरूप मूंगे की किरणों से मोतियों के गुच्छे रंगीन हो रहे थे, गुच्छों में लगे हुए मरकतमणियों की किरणों से सफेद चंवर हरे-हरे हो रहे थे, सफेद चँवर के दण्ड की किरणों की प्रभा से दर्पण पीले-पीले हो रहे थे, दर्पण में उत्कृष्ट मणियों के हारों का समूह शोभित हो रहा था, हारों के समूह पर स्वर्णमय छोटी-छोटी बण्टियाँ लटक रही थीं ॥५५७-५६२।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy