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________________ ८६७ नवमो भवो ] कम्मं बंध | काय उज्जुप्रयाए भावज्जुययाए भासुज्जुययाए अविसंवायणजोएणं सुहनामं कम्मं बंधइ । काय अणुज्जुयाए जाव विसंवायणजोएन असुहनामति । जाइकुलरूवतव सुयबल लाभ इस्सरियामएणं उच्चrगो कम्मं बंधइ । जाइमएणं जाव इस्सरियमएणं नीयागोयं कम्म बंधइ । दाणलाभभोगउवभोगवीरियंतराएवं अंतरायं कम्मं बंधइ । एवं भो देवापिया, एयं विसेसओ एस जावो अटूप्पगार कम्म बध । इंदसम्मेण भणियं - भयवं, एवमेयं । अह एवं ववत्थिए कि पुण मोक्खबीयं, कहं वा तयं पाविज्जइ । भयवया भणियं - सोम, सुण | मोक्खबीयं ताव एवं पारंभी सुहस्स पसमसवेगाइलिंगं उच्छायणं कम्मपरिणईए पावणं एतेणं कम्मिधणस्स सुहायपरिणामलक्खणं अचितचितामणिसन्निहं सम्मत्तं । एयं च एवं पाविज्जइ वीयरागाइदंसणेण विसुद्धधम्मसवणाए गुणाहियसंगमेणं पक्खवाएणं गुणेसु तहाभव्वयानिओएण अणुगंपाइभावणाए विसिटुकम्मखओवस मेणं ति । इंदसम्मेण भणिय- भयवं, एवमेयं । अह एवं ववथिए एगंत सुहसरूवो मोक्खो कहं दुक्ख सेवणारूवाओ संजमाणुट्ठाणाओ ति । बालतपःकर्मणाऽकामनिर्जरया देवायुः कर्म बध्नाति । कायऋजुकतया भावऋजुकतया भाषऋऋजकतयाऽविसंवादनयोगेन शुभनामकर्म बध्नाति । कायानृजुकतया यावद् विसंवादनयोगंनाशुभनामेति । जातिकुलरू तपः श्रुतबल लाभैश्वर्यामदेनोच्चगीतं कर्म बध्नाति । जातिमदेन यावद् ऐश्वर्यमदेन नोचगोत्रं कर्म बध्नाति । दानलाभभोगवीर्यान्तरायेणान्तरायकर्म बध्नाति । एवं भो देवानुप्रिय ! एतद् विशेषत एष जीवोऽष्टप्रकारं कर्म बध्नाति । इन्द्रशर्मणा भणितम् - भगवन् ! एवमेतत् । अथैवं व्यवस्थिते किं पुनर्मोक्षबीजं कथं वा तत् प्राप्यते । भगवता भणितम्सौम्य श्रणु । मोक्षबीजं तावदेतत् । प्रारम्भः सुखस्य प्रशमसवेगादिलिङ्गमुच्छादनं कर्मपरिणते: पावनमेकान्तेन कर्मेन्धनस्य शुभात्मपरिणामलक्षणमचिन्त्यचिन्तामणिसन्निभं सम्यक्त्व । एतच्चैव प्राप्यते वीतरागादिदर्शनेन विशुद्धधर्मश्रवणेन गुणाधिकसङ्गमेन पक्षपातेन गुणेषु तथाभव्यतानियोगे - नानुकम्पादिभावनया विशिष्ट कर्मक्षयोपशमेनेति । इन्द्रशर्मणा भणितम् - भगवन् ! एवमेतत् । अर्थ व्यवस्थिते एकान्तसुखस्वरूपो मोक्षः कथं दुःखासेवनरूपात् संगमानुष्ठानादिति । भगवता वचन संयम, बालतप करने और अकामनिर्जरा से देवायुकमं बाँधता है। शरीर की सरलता, भाव की सरलता, की सरलता और विरोध न करने के योग से शुभ नामकर्म बाँधता है। शरीर की सरलता न रखने से लेकर विरोध रखने तक के योग से अशुभनामकर्म बाँधता है । जाति, कुल, रूप, तप, शास्त्र, बल, लाभ, ऐश्वर्य का मदन करने से उच्चगोत्र कर्म बाँधता है । जातिमद से लेकर ऐश्वर्य के मद तक के योग से नीचगोत्र कर्म बाँधता हैं । दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य के अन्तराय से अन्तराय कर्म बाँधता है। इस प्रकार हे देवानुप्रिय ! इस तरह विशेष रूप से यह जीव आठ प्रकार का कर्म बांधता है।' इन्द्रशर्मा ने कहा- 'भगवन् ! यह ठीक है । ऐसा निर्धारित होने पर पुनः मोक्ष का बीज क्या है, वह कैसे प्राप्त होता है ?' भगवान् ने कहा- 'सौम्य ! सुनो। मोक्ष का बीज इस प्रकार है-सुख का आरम्भ, प्रशम, संवेग आदि लक्षणोंवाला, कर्म की परिणति का नाश करनेवाला, कर्मरूपी ईंधन के लिए जल, शुभ आत्मपरिणाम रूप लक्षणवाला और अचिन्त्य चिन्तामणि के समान सम्यक्त्व (मोक्ष का बीज) है । यह इस प्रकार प्राप्त होता है -- वीतरागादि के दर्शन, विशुद्ध धर्मश्रवण, जो गुणों में अधिक हो उसका साथ करने, गुणों में पक्षपात करने तथा भव्यता का नियोग, अनुकम्पा (दया) आदि भावना (तथा) विशिष्ट कर्मों के क्षयोपशम से ( प्राप्त होता है) ।' इन्द्रशर्मा ने कहा- 'भगवन् ! यह ठीक है । ऐसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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