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________________ ८६६ [समराइच्चकहा जमेयं तुम्ह समए नाणावरणिज्जाइलक्खणं अट्ठप्पगारं कम्ममत्तं, एयं विसेसओ कहमेस जीवो बंधति। भयवया भणियं-सोम, सुण। एवं समए पढिज्जइ। नाणपडिणीययाए नानिण्हवणयाए नाणंतराएणं नाणपओसेणं नाणच्चासायणाए नाणविसंवायणजोएणं नाणावरणिज्ज कम्मं बंधइ । एवं दसणपडिणीययाए जाव दंसणविसंवायणजोएणं दसणावरणिज्ज कम्मं बंधइ। पाणाण कंपणयाए भूयाणकंपणयाए जीवाणकपणयाए सत्ताणकंपणयाए बहणं पाणाणं भयाणं जीवाणं सत्ताणं अदुक्खणयाए असोयणयाए अजूरणयाए अपरियावणयाए सायावेयणिज्ज कम्मं बंधइ। परदुक्खणयाए जाव परियावणयाए असायावेयणिज्ज कम्मं बंधइ। तिव्वकोहयाए तिन्वमाणयाए तिब्वमाययाए तिव्वलोह्याए तिव्वदसणमोहणिज्जयाए तिव्वचरितमोडणिज्जयाए मोहणिज्जं कम्मं बंधड । महारंभयाए महापरिग्गयाए पंचेंदियवहेणं कुणिमाहारेपं जीवो निरयाउयं कम्मं, बंधइ । माइल्लयाए अलियवयणेणं कडतुलकडमाणणं तिरिक्खजोणियाउयं कम्मं बंधइ। पगइविणीययाए साण कोसयाए अम मणस्साउयं कम्मं बंधई। सरागसंजमेणं संजमासंजमेणं बालतवोकम्मेणं अकामनिज्जराए देवाउयं रिययाए भगवन् ! यदेतद् युष्माकं सपये ज्ञानावरणीयादिलक्षणमष्टप्रकारं कर्मोवतम्, एतद विशेषतः कथमेष जीवो बध्नाति । भगवता भणितम् - सौम्य ! शृणु । एवं समये पठ्यते । ज्ञानप्रत्यनीकतया, ज्ञाननिह्नवतया, ज्ञानान्तरायेण, ज्ञानप्रद्वषेण ज्ञानात्याशातनया ज्ञान विसंवादनयोगेन ज्ञानावरणीयं कर्म बध्नाति । एवं दर्शनप्रत्यनीकतया, यावद् दर्शनविसंवादनयोगेन दर्शनावरणीयं कर्म बध्नाति। प्राणानुकम्पनतया, भूतानुकम्पनतया, जीवा नुकम्पनतया, सत्त्वानक मानतया बहूनां प्राणानां भूतानां जीवानां सत्त्वानामदुःख तयाऽखेदनतयाऽशोचनतयाऽपरिता पनतया सातवेदनीयं कर्म बध्नाति । परदुःखतया यावत् परितापनतयाऽसातवेदनीय कर्म बध्नाति । तीव्रक्रोधतया तीवमानतया तीवमायतया तीव्रलोभतया तीव्रदर्शनमोहनीयतया तीव्रचारित्रमोहती यतया मोहनीयं कर्म बध्नाति । महारम्भतया महापरिग्रहतया पञ्चेन्द्रियवर्धन मांसाहारेण जीवो निरयायुःकर्म बध्नाति । मायिकतया अली कवचनेन कूटतुलाकूटमानेन तिर्यग्यो निकायुःकम बध्ना त । प्रकृतिविनीततया सानुक्रोशतयाऽमत्सरिकतया मनुष्यायुःकर्म बध्नाति । स रागसंयमेन संयमासंयमेन आगम में ज्ञानावरणीय आदि लक्षणवाला आठ प्रकार का कर्म कहा गया है, इसे यह जीव विशेषरूप से कैसे बांधता है ?' भगवान ने कहा – 'सौम्य ! सुनो-आगप में इस प्रकार पढ़ा जाता है (कहा गया है)। ज्ञान का विरोध रखने से, ज्ञान को छिपाने से, ज्ञान में विघ्न करने से, ज्ञान के प्रति द्वेष करने से, ज्ञान को नष्ट करने से ज्ञान का खण्डन करने से ज्ञानावरणीय कर्म बाँधता है। इसी प्रकार दर्शन का विरोध करने से, दर्शन का खण्डन करने तक के योग से दर्शनावरणीय कर्म बाँधता है। प्राणियों, भूतो. जीवों (तथा) सत्त्वों पर अनुकम्पा (दया) करने से बहुत से प्राणी, भूत, जीव, सत्त्वों को दुःख न देने, शोक न पहुँचाने, खेद न पहुँचाने और कष्ट न पहुंचाने से सातवेदनीय कर्म बांधता है। दूसरे को दुःख देने से लेकर (दूसरे को) कष्ट देने तक असात वेदनीय कम बांधता है। तीव्र क्रोध, तीव्र मान, तीव्र माया, तीव्र लोभ, तीव्र दर्शनमोहनीय, तीव्र चारित्रमोहनीय से मोहनीय कर्म बांधता है । महान आरम्भ, महान् परिग्रह. पंचेन्द्रियों का वध (तथा) मांसाहार से जीव नरकायुकम बाँधता है । माया करने, झूठ बोलने, कम-बढ़ तोलने, कम-बढ़ बाँट रखने से तिर्यंचयोनि सम्बन्धी आयुकर्म बांधता है। प्रकृति से विनीत होने, दयायुक्त होने और द्वेषरहित होने से मनुष्यायु कर्म बांधता है । सराग सयम, संयमा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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