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________________ अट्ठमो भवो] ६७९ पभूओ खु एस एयस्स पडिहायइ, ता मं सुहित्तणेण किल पडिबोहिऊण एयप्पयंसणेण नियत्तेइ इमाओ सपरिगप्पियमहादाणाओ, नेच्छइ य मज्झ संपयापरिभंसं ति । अहो मूढया धणदेवस्स, जस्स एगंतवज्झे अणाणगामिए सह जीवेणं साहारणे अग्गितक्कराईणं पयाणमेत्तफले परमत्थओ अवधारकारए पारंतरेण अत्थे वि पडिबंधो ति। केत्तिओ वा एस लखो। न खल एएण एत्थं पि जम्मे एए वि चित्तयरदारया परिमिएण वि वएण एयनिमित्तं पि असंकिलेसभाइणो होति। न य असंपयाणेणं अपरिभंसो संपयाए, अवि य पुण्णसंभारेण । खीणे य पुण्णसंभारे अदिज्जमाणा वि अन्नेसि अपरिभज्जमाणा वि अत्तणा गोविज्जमाणा वि पच्छन्ने रक्खिज्जमाणा वि महापयत्तेणं असंसयं न जाय। कि वा दाणपरिभोगरहियाए अगुवयारिणोए उभयलोएसु ओहसणिज्जाए पंडियजणाणं अवित्तीकम्मारयमेत्ताए तचितास केवलाणत्थफलाए सव्वहा सन्नासकापाए ति । ता पडिबोहहस्सं अहमिणं पत्थावेणं । इमं पुण एत्थ पत्तयालं, जमन्ननवि लक्खं एएसि दवावेमि; एसो वि एयस्स पडिवोहणोवाओ चेव ति। चितिऊण भणियं च णेणं-अज्जधणदेव, किमेसो लक्खो ति। धणदेवेण तम् - हन्त किमेतदद्य सम्पद्दर्शनम्। नूनं प्रभूतं खल्वेतद् एतस्य प्रतिभाति, ततो मां सुहृत्त्वेन प्रतिबोध्य एतत्प्रदर्शनेन निवर्तयत्यस्मात् स्वपरिकल्पितमहादानात्, नेच्छति च मम सम्पत्परिभ्रंशमिति । अहो मूढता धनदेवस्य, यस्यै कान्तबाह्येऽनानुगामिके सह जीवेन साधारणेऽग्नितस्करादीनां प्रदानमात्रफले परमार्थतोऽपरकारकारके प्रकारान्तरेण अर्थेऽपि प्रतिबन्ध इति । कीयाद् वैतद् लक्षम् । न खल्वेतेन अत्रापि जन्मनि एतावपि चित्रकरदारको परिमितेनापि व्ययेन एतन्निमित्तमप्यसंक्लेशभाजौ भवतः । न चासम्प्रदानेनापरिभ्रंशः सम्पदः, अपि च पुण्यसम्भारेण । क्षीणे च पुण्यसम्भारे अदीयमाना अप्यन्येषामपरिभुज्यमाना अप्यात्मना गोप्यमाना अपि प्रच्छन्ने रक्ष्यमाणा अपि महाप्रयत्नेनासंशयं न जायते । किंवा दानपरिभोगरहितयाऽनपकारिण्योभयलोकेषपहसनीयया पण्डितजनानामवत्ति कर्मकारकमात्रया तत्त्वचिन्तास केवलानर्थफलया सर्वथा संन्यासकल्पयेति । ततः प्रतिबोधयिष्याम्यहमिदं प्रस्तावेन । इदं पुनरत्र प्राप्तकालम् , यदन्यदपि लक्षमेतयोपियामि, एषोऽप्येतस्य प्रतिबोधनोपाय एवेति। चिन्तयित्वा भणितं च तेन-आर्यधनदेव ! किमेतद् लक्षमिति । धनदेवेन हैं।' कुमार ने सोचा -खेद है, आज यह क्या सम्पत्ति देखी ? निश्चित रूप से यह इसे अधिक लग रही है, अत: मेरे सुहृत् होने के कारण इसके प्रदर्शन द्वारा मुझे प्रतिबोधित कर अपने संकल्पित इस महादान से (वह मुझे) रोक रहा है. यह मेरी सम्पत्ति का नाश नहीं चाहता है। ओह, धनदेव की मूढ़ता जो कि बाहर विशेष रूप से जीव का अनुगामी नहीं होता है (साथ नहीं जाता है), जो अग्नि और चोरों के लिए समान है, दान करना मात्र ही जिसका फल है, परमार्थ रूप से जो अपकार करनेवाला है उस धन पर भी प्रकारान्तर से (दूसरे प्रकार से) रोक लगा रहा है ? अथवा यह लाख कितना-सा है। इससे इसी जन्म में भी ये दोनों चित्रकार लड़के परिमित मात्रा में व्यय करने पर भी इस धन के कारण सूखी नहीं हो सकते हैं। न देने पर सम्पत्ति नष्ट न हो- ऐसा नहीं है, अपितु पुण्य के संचय से सम्पत्ति नष्ट नहीं होती है। पुण्य का समूह नष्ट हो जाने पर दूसरों को न देने, अपने आप भोग न करने, छिपाने, गुप्त स्थान में रक्षा करने तथा महाप्रयत्न करने पर भी नि:सन्देह रूप से यह नहीं रहती है। अथवा दान और उपभोग से रहित, उपकार न करने से दोनों लोकों में उपहास के योग्य, पण्डित जनों के समान आचरण करने मात्र से तत्त्व-चिन्ताओं में केवल अनर्थ फल देनेवाले और सर्वथा संन्यास के समान इस सम्पदा से क्या (लाभ)। अतः इस प्रस्ताव से मैं सम्बोधित करूंगा। यह समय है कि मैं इन दोनों को एक लाख और दूं। यह भी इसके प्रतिबोधन का उपाय है ऐसा सोचकर उसने कहा-'आर्य धनदेव ! क्या For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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